विनोद शाही के उपन्यास 'ईश्वर के बीज' पर डा. सतीश आर्य की समीक्षा।

 

                                                              विनोद शाही

 

 


विनोद शाही जाने माने आलोचक हैं। लेकिन कम लोग इस बात से वाकिफ होंगे कि विनोद जी एक बेहतरीन कहानीकार भी हैं। विनोद जी ने 1975 से कहानियां लिखना आरम्भ किया। उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिका धर्मयुग में उनकी दस से अधिक कहानियां प्रकाशित हुईं। इसके अतिरिक्त सारिका, कहानी, हंस और कथा देश जैसी पत्रिकाओं में भी उनकी अनेक कहानियां प्रकाशित हुई। सन  1990 के बाद से उनके कहानी लेखन का सिलसिला थम सा गया। हाल ही में उनका एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास 'ईश्वर के बीज' प्रकाशित हुआ है। इस उपन्यास की एक समीक्षा लिखी है डा. सतीश आर्य ने। उल्लेखनीय है कि डा. सतीश आर्य अंग्रेज़ी के आलोचक, अनुवादक और मीडियाकर्मी के रूप में अपना एक विशेष स्थान रखते हैं।  उन्होंने इस उपन्यास को जादुई यथार्थवाद का उपन्यास मानते हुए, अंग्रेज़ी में इसकी जो समीक्षा लिखी है, उसके मूल अंग्रेज़ी पाठ के अतिरिक्त, उसका हिंदी अनुवाद भी आपसे साझा किया जा रहा है। साथ ही विनोद शाही के उपन्यास 'ईश्वर के बीज' का एक अंश भी यहाँ पर दिया जा रहा है। तो आइए आज पहली बार पर पढते हैं विनोद शाही के उपन्यास 'ईश्वर के बीज' पर डा. सतीश आर्य की समीक्षा।

 

 

विनोद शाही का जादुई यथार्थवाद का उपन्यास 'ईश्वर के बीज'

की समीक्षा

 

 डा. सतीश आर्य

 

 

जैसे ही मैंने सौंदर्यात्मक साज सज्जा से युक्त मुखपृष्ठ वाले इस उपन्यास को पढ़ना शुरू किया, मेरे सहज ज्ञान ने मुझे बता दिया कि मैं अथाह विचार पुंज वाली किसी कृति में प्रवेश कर रहा हूं। अंग्रेजी साहित्य में हमारे पास इब्सन और जार्ज बर्नार्ड शॉ जैसे नाटककार हैं, जिन्होंने अपने विचारों को संप्रेषित करने के लिए नाटक का एक माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया, और इस प्रकार, कथानक प्रधान नाटक की जगह, 'विचारों के नाटक' वाली एक विषिष्ट कथन शैली का विकास किया। ऐसे नाटक में संवाद के माध्यम से आगे बढ़ने का उपक्रम किया जाता है। मैं विनम्रतापूर्वक इस तथ्य को स्वीकार करता हूं कि हिंदी कथा साहित्य की दुनिया में मेरा हस्तक्षेप सीमित है, लेकिन फिर भी मुझे यह कहने में कोई हिचकिचाहट नहीं कि यह उपन्यास हिंदी पाठकों के लिए अभूतपूर्व है; अद्वितीय है।

    

 

उपन्यासकार का प्रस्थान बिंदु है कि तथाकथित सामाजिक और सांस्कृतिक प्रगति, वास्तव में मानवता के पतन का कारण बन गयी है। प्रकृति के गर्भ में "पूर्णता" के बीज अंकुरित नहीं हो रहे हैं। अलगाव ने, जिसे कहा जा सकता है, एक "उदासीनता" पैदा की है, जिसने इसके मद्देनजर, मानवजाति की दुनिया में कहर बरपाया है। हालाँकि, उपन्यास में विषयों और अर्थों की बहुविध परतें हैं, जो विषयों के संदर्भ में जटिल जाल जैसे पैटर्न बनाती हैं। ये विषय, प्रकृति की दुनिया और जानवरों की छवियों के साथ पूरक संबंध बनाते हैं। उपन्यासकार ने प्रकृति और जानवरों का असाधारण कल्पनाशील उपयोग किया है, जो उपन्यास में ताजगी और विस्मय के तत्व जोड़ता है। गहरे स्तर पर, हम मनुष्यों को प्रकृति और जानवरों की दुनिया के साथ, एक तरह के ध्रुवीय संवाद में पाते हैं। एक ओर, मनुष्य का उसकी आद्य मानवशास्त्रीय जड़ों से रिश्ता जुड़ता है, जिससे उसे ईश्वर या ईश्वर के "बिना अंकुरित बीजों" की ओर लौटने की संभावना मिलती है, दूसरी ओर, वहां परस्पर विरोधी लाल और काले कीड़ों के ज़रिये, प्रकृति पर पूर्ण नियंत्रण रखने की हमारी दुष्प्रवृत्तियों का प्रतिनिधित्व दिखाई देता है। कर्मियों की वजह से सागौन जैसे पेड़ का गिरना गहरा अर्थ रखता है। सागवान तराई क्षेत्रों का एक ऐसा वृक्ष है जो अपनी ऊंचाई और मजबूती के लिए जाना जाता है। इस कथा में वह हमारी परंपरागत समाज राजनीतिक और सांस्कृतिक संरचनाओं के स्थापित रूप का पर्याय हो गया लगता है। ऐसे परंपरागत रूप जो अपने शक्ति के 'अहम की ग्रंथि' से युक्त हो गए हैं और नकारात्मक व्यवहार प्रणालियों को जन्म दे रहे हैं, कृमि दरअसल उन पर हमला कर रहे हैं। दो तरह की नकारात्मक शक्तियां एक दूसरे को ध्वस्त करने के लिए आमने सामने आकर खड़ी हो गई है। हमारे समय में परंपरा का इस प्रकार नकारात्मक रूप लेना एक गहरे समाज सांस्कृतिक संकट के उपस्थित हो जाने की ओर इशारा करता है।

    

 

जैसे ही हम उपन्यास की वैचारिक भूलभुलैयों में घूमते हैं, हमें एक अंतःप्रेरणा का अनुभव होता है कि उपन्यासकार रूसो, टॉल्स्टॉय और गांधी जैसे 'प्रकृति में वापसी की बात करने वाले दार्शनिकों से गहराई से प्रभावित है। इन विचारकों की तरह, यह लेखक भी एक निर्मल मानव संसार की रोमांटिक-आदर्शवादी दृष्टि से प्रेरित प्रतीत होता है। हालांकि, यह तभी संभव है जब हम दुनिया को सभ्य बनाने का दावा करने वाले ज्ञानोदय के विमर्श के दुष्प्रभाव से खुद  को अलहदा करने का फैसला करें।

    

 

इस रोमांटिक दृष्टि के पुरश्चरण में उपन्यासकार 1984 के उत्तरकालीन पंजाब में आतंकवाद से प्रभावित मालवा की तबाही की कहानी प्रस्तुत करता है। इस प्रकार, उन पात्रों के लिए एक निश्चित भौगोलिक परिवेश रहा जाता है, जिनके नामों का प्रतीकात्मक महत्व हो सकता है। उदाहरण के लिए स्वराजबीर, स्वतंत्रता के बाद के समय के नायक का प्रतीक हो सकता है, जिसके समाज और उस देश के बारे में कुछ आदर्श हैं, जिसमें वह रहना चाहता है। इसी तरह ज्ञानी जी, पंडित रामचंदर और मौलवी जैसे अन्य पात्र अपनी-अपनी विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। इसके बावजूद वे विरोधी विचारों तक पहुँचने और सुनने के लिए तैयार रहते हैं। जिंदर और पिंदा, जाति और समुदाय के झूठे आदर्शों से घिरे दिशाहीन युवाओं के विचारों का प्रतिनिधित्व करते हैं। इस प्रकार, वे अपनी रूढ़ियों का प्रतिनिधित्व करते हुए भी, व्यक्तिगत हैं।

    

 

उदात्त स्तर पर, उपन्यास स्वयं को परिभाषित करने के लिए व्यक्तियों की अंतर्यात्रा में बदल जाता है; जो इन पात्रों के निजी व्यक्तिगत के साथ साथ उनकी सामाजिक पहचान की तलाश में बदल जाता है। यही कारण है कि उपन्यास के अंत में, ज्ञानी जी कनाडा जाने का फैसला करते हैं, जबकि गौरी और पिंदा 'झिड़ी' में अपने दृष्टिकोण को आगे बढ़ाने का फैसला करते हैं। यह एक तरह से मनुष्य और प्रकृति के दायरे के बीच आपस में हाथ मिलाने के आदर्श का प्रतिनिधित्व करना है। और जैसा कि बाबा जी ने कल्पना की है, 'झिड़ी' मालवा का छोटा प्रति-जगत है, और मालवा भारत का छोटा प्रतिसंसार।

   

 

इस मूल विषय के साथ सांप्रदायिकता, नशीली दवाओं की लत, पर्यावरण का विनाश, और रासायनिक उर्वरकों के अत्यधिक उपयोग के कारण उर्वरता का क्षय जैसे विषय जुड़े हुए हैं। इनमें से एक विषय जिस पर प्रमुखता से विचार किया गया है, वह है धार्मिक कट्टरवाद का विषय, जो पहले से मौजूद सामाजिक संरचनाओं को नष्ट करने का हेतु होता है। तथ्य यह है कि सांप्रदायिक कट्टरतावाद, उपन्यास के कैनवास पर एक अंधः बवंडर की तरह घूमता है और विभिन्न व्यक्तियों के चरित्र और आचरण को बड़े पैमाने पर प्रभावित करता है।

    

 

इन सभी विषयों, पात्रों और विचारों का विलय एक अद्भुत कथा संसार रचता है जो अंशतः वास्तविक, अंशतः जादुई है। भली भांति जाने पहचाने भौगोलिक परिवेश, दर्शन, पौराणिक कथाओं, अनुष्ठानों, रहस्य और जादुई विवरणों से यह आख्यान और पुष्ट होता है।

    

 

इस प्रकार, यह उपन्यास हिंदी कथा साहित्य के क्षेत्र में एक अद्वितीय स्थान प्राप्त करता है। इसे 'जादुई यथार्थवाद' के बेहतरीन दृष्टांत के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।

    

 

उपन्यास का एक और आयाम है। इसमें एक 'हत्या और रहस्य रोमांच' का तत्व है जिसका अंत 'पूंछ में डंक' की तरह होता है। जिस तरह से स्वराजबीर को फिर से जिंदा किया गया है, वह थोड़ा अविश्वसनीय भी लग सकता है। तथापि इस वजह से इस उपन्याह को हम 'चंद्रकांता संतति' की परंपरा का उपन्यास कह सकते है।  

    

 

आखिर में, यह कहा जा सकता है कि रूसो, टॉल्स्टॉय, रस्किन और गांधी जैसे महान विचारकों द्वारा प्रदर्शित मार्ग के अनुरूप यह उपन्यास, मिथ्या सांस्कृतिक, सांप्रदायिक, और सामाजिक संरचनाओं के विकल्प की खोज के लिए, लोकमंगल की दार्शनिक दृष्टि के साथ जड़ो में वापस जा कर ईश्वर के "बीज" अंकुरित करने की दिशा पकड़ता है। यदि हम मानव जाति को पूर्ण विनाश से बचाना चाहते हैं, तो हमें इस इस ओर जाने की आवश्यकता है। एक व्यापक यूटोपियन स्थिति होने के बावजूद अगर हम इस ओर रुख करते हैं, तो मानव जाति को वास्तव में एक अप्रिय दुखांत से बचाया जा सकता है।

 

 

 

समीक्ष्य कृति

 

ईश्वर के बीज, लेखक, विनोद शाही, आधार प्रकाशन प्रा लि, पंचकूला,

मूल्य 200, पेपरबैक, रु 350/, हार्डबाउंड

 

संपर्क: मो 9417267004

 

 

सतीश आर्य


 

A review

 

Vinod Shahi's novel of magic realism 'Ishwar ke Beej'

 

                                                              

Dr. Satish Arya

 

   

As I started reading this novel with a very aesthetically designed title page, I had an intuitive feeling that I was entering a work of myriad ideas. In English literature we have dramatists like Ibsen and Shaw who used drama as a vehicle to propagate their ideas, and  who, thus, created a genre called 'Drama of Ideas' as against drama of action. In such a  drama, action is made to move forward through dialogue. I humbly concede the fact that my forays in the world of Hindi fiction have been ratherlimited, but still I may have the audacity to say that this novel belongs to a genre hitherto unknown  to the Hindi readers; it is unique.

 

      

The novelist starts with a thesis that the perceived social and cultural progress  has, in fact, led to the  degradation of humanity. The seeds of "perfectability" lie unsprouted in the womb of nature. The disassotiation has created, what can be termed, an "indifferntism" which, in its wake ,has wreaked havoc in the human world. However, the novel has multi- layers of themes and meanings which are enmeshed to create intricate patterns in terms of themes. These themes are complimented with the images  from the world of nature,  and of animals. The novelist has made an exceptional use of nature and animal imagery which adds an element of freshness and exotica in the novel. At a deeper level, we find humans interacting with nature and the animal world at a bi- polar level. On one hand, they connect man with his most ancient - anthropological, perhaps - roots allowing them the possibility of a return to the "unsprouted seeds" of Ishwar or God, on the other, they may turn out to be antagonistic like the red and black worms  which represent  our evil desire to have an absolute control over nature.

 

        

As we meander through the novel's labyrinthine thought processes, we have a gut feeling that the novelist is deeply influenced by the back-to-nature philosophers like Rousseau, Tolstoy, and Gandhi ji. Like these thinkers, our author also seems to be driven by a romantic-idealistic vision of a flawlessly divine human world. However, it is possible only when we decide to shed the fatal enlightenment of "civil" man.

 

          

In the foreground of this romantic vision, the novelist posits the story of terrorist-devastated region of Malwa in Punjab in the post-1984 era. Thus, a definite geographical locale is created for characters whose names may  have symbolical significance. Swarajbeer, for example, may signify the post-Independence protagonist who has certain ideals regarding the society and the country he wants to live in. In the same way ,other characters like Giani ji, Pandit Ram Chander and Maulvi ji etc represent their own ideologies, yet are willing to reach out and listen to the contrary ideas. Jindar and Pinda represent the idea of directionless youth confounded by the false ideals of caste and community. They, thus, represent their stereotypes, and yet, are individualised. On a higher level, the novel transforms into individuals' voyage to define themseves; it turns into a quest for individual as well social identity on the part of these characters. That is why at the end of the novel, Giani ji decides to move to Canada, while Gauri and Pinda decide to pursue their visions in the 'Jhidi' which, in a way represents the ideal of a perfect handshake between the realms of man and nature. And as Baba ji envisions it, the 'Jhidi' is the microcosm of Malwa, and Malwa becomes a microcosm of India.

 

    

With this theme is entwined the themes of communalism, drug addiction, the destruction of ecology, and degeneration of fertility due to excessive use of chemical fertilisers.

 

 

Among these, one theme that has been prominently dealt with is the theme of religious fundamentalism which becomes instrumental in vitiating the already stretched-to-the-seams social structures. The fact is that religious fundamentalism looms over the canvas of the novel like a dark pall and affects the character and conduct of various persone in a big way. The merger of all these themes, characters, and ideas creates a wonderful fictional world which is part real, part magic. This feeling is further accentuated because of the potpourri of a physically cognizable geographical plane, philosophy, mythology, rituals, mystery, and magic. Thus, the novel acquires a unique status in the realm of Hindi fiction; it can be labelled as a fine specimen of 'magic realism'.

 

      

The novel has one more dimension; it has a 'murder and mystery' element with a 'sting in the tail' ending. The way Rajbeer Singh is brought back to life, seems a little manipulated; it reminds one of the novels in  the tradition of  'Chandrakanta Santati'

 

       

 

In the final analysis, it can be said that  the author's  philosophical vision of the welfare of the society entailing the  shedding  of false cultural  religious, and social structures, as suggested by great thinkers like Rousseau, Tolstoy, Ruskin and Gandhi, and by going back to "the unsprouted seeds" of God points a direction which needs to be followed if we want to save the human race from total annihilation. A tall utopian order, yet if followed, can salvage us from a really unsavoury situation.

 

 

Book reference: ishwar ke Beej (The seeds of God), by Vinod Sahi, Aadhaar Prakashan, Panchkula (Mobile. 9417267004), listed on Amazon, paperback 200/-, hardbound 350/-

 

Dr. Satish Arya, 

e-mail aryasc@gmail.com

m. 9416524466

 


 


 

(विनोद शाही के उपन्यास 'ईश्वर के बीज' का एक अंश)

 

कृमि प्रलय

 

 

विनोद शाही

 

    

झिड़ी के दाहिने पार्श्व में अपनी पूरी शानो शौकत के साथ खड़ा सागौन का वह बड़ा पेड़ जब अचानक टूटने की किड़किड़ाहट के साथ धराशायी हुआ, तो पंचम गर्भगृह में ध्यानलीन बाबा रमजाणियां सहित स्वरूपानंद, परमानन्द और निरंजन भी धीरे-धीरे आंखें खोल अपनी देह मे लौटने लगे।

 

    

बाबा जी को पेड़ के गिरने की ध्वनि का वह आघात कहीं दूर घटित दृश्य की तरह दिखा। वे जब ध्यान में होते तो बाहर की आवाज़ें उनके मन में विचारों को तरह नहीं, देखे जा सकते वाले ऊर्जा के वलयो की तरह प्रतीत होती थीं। ये बिंब वहां प्रकट होते और आकाश में तैरते पक्षियों की तरह पीछे कोई लीक छोड़े बिना गायब हो जाते। इस तरस उनकी ध्यानावस्था जैसी होती, वैसी ही बनी रहती।

 

    

परंतु शेष साधकों के अनुभव अलग तरह के हैं। स्वरूपानंद को लग रहा है कि उनके मस्तिष्क के पिछले हिस्से में कोई स्फोट सा हुआ है और वे पेड़ के गिरने की उस भड़भड़ाहट के साथ, खुद भी चेतना के किसी और आयाम में कहीं और जा गिरे हैं।

 

   

परमानंद का मन उस आवाज को सुनते ही कर्त्तव्य चेतना के जागृत हो जाने से जुड़े विचार से भर गया है। उसे लगता है, ध्यान अपनी जगह है, और कुछ करने की ज़रूरत अपनी जगह। दोनों बातों के बीच तालमेल बिठाने को वह सम्यक ध्यान कहता है।

   

 

निरंजन अपनी देह के साथ खेल खेलने की कला में माहिर हो गया है। इसलिए उसे लग रहा है कि उस आवाज़ के साथ उसकी देह वहां पीछे छूट गयी है और वह खुद उड़ कर वहीं पहुंच गया है, जहां वह पेड़ अभी गिर ही रहा है।

    

बाबाजी अन्य साधकों की तुलना में अपने ध्यान से सहज ही बाहर जाते हैं। कुछ असहज घट जाने पर भी वे प्रकृतिस्थ बने रहते हैं। पर निरंजन हमेशा उतावली में रहता है। बाबाजी के आंखें खोलते ही वह उनसे पूछने लगा है,

 

-      आपकी आज्ञा हो तो जा कर देखूं, क्या हुआ है?

    

 

बाबाजी अभी अपने मौन को तोड़ना नहीं चाहते। वे अपने भीतर मौजूद आनंद के भाव में डूबे हुए ही सिर हिला कर मौन स्वीकृति देते हैं और स्वरूपानंद और परमानंद की ओर भी इस तरह देखते हैं कि अगर वे भी निरंजन के साथ जाना चाहें, तो जा सकते हैं।

    

तीनों एक के बाद एक गर्भगृह से इस तरह बाहर आते हैं, जैसे पृथ्वी ने उन्हें अभी अभी जन्म दिया हो।

    

 

झिड़ी के मध्यभाग में पांच गर्भगृह हैं। ऊपर से देखने पर लगता है कि पेड़ों के आसपास ज़मीन को समतल कर्क वहां कार्पेट ग्रास बिछा ली गयी है। कुछ जगह क्यारियां दिखाई देती हैं, जिनमें चमेली, रात की रानी, हरसिंगार, गुलदाऊदी, गेंदा, क्रिसमस ट्री, फर्न  तथा इसी तरह के कई पौधे लगा दिये गये हैं। पूरी झिड़ी में सिवाय इस मध्य भाग के अन्य कहीं भी प्रकृति के नैसर्गिक विकास के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं की गयी है। यहां भी स्थिति यह है कि इस जगह से झाड़ियों और सरकंडों को हटाया गया है, तो उनकी जगह घास, फूलों के पौधे और कुछ अन्य सुंदर वृक्ष रोप दिये गये हैं। गर्भगृह के निर्माणकार्य के कारण वहां की ज़मीन को समतल करने ज़रूरी था। इसीलिए वहां ये तब्दीलियां हुईं। सारा निर्माण कार्य ज़मीन के नीचे किया गया था, पर ऊपर की जगह की सफाई के बिना वह सब करना संभव नहीं था।

 


 

 

अब स्थिति यह थी कि गर्भगृहों के  प्रवेश द्वारों की ओर जो रास्ता नीचे की ओर जाता था, वहां ज़रूर ईंटें का फर्श था, पर बाकी तमाम जगह घास से ढकी थी। इससे वह हिस्सा भी जैसे प्रकृति के द्वारा स्वयं निर्मित स्थल जैसा ही लगने लगा था।

    

वे लोग गर्भगृह में ध्यान के उपरांत जब भी उस प्राकृतिक परिवेश में बाहर आते, उन्हें लगता, जैसे वे उन पेड़ों, पौधों, लताओं, झाड़ियों, पशुओं, पक्षियों और कृमियों के संसार को पहली दफा देख रहे हों।

    

लगता जैसे प्रकृति ने पृथ्वी को जीवन के असंख्य रूपों से भर कर किसी विस्मयकारी लोक की रचना कर दी हो।

    

 

वहां से आकाश की ओर देखते, तो लगता कि उनका खाली मन मस्तिष्क उस आकाश तक ऊपर फैला हुआ है और उनके भीतर जिस जीवन का प्रवाह हो रहा है, वह सब ओर व्याप्त है। यह देह में होकर भी विदेह होने की स्थिति जैसा अनुभव होता।

 

    

उस मुक्त दशा में खुद को एक तरह से उड़ता हुआ सा अनुभव करते। पर किसी में वह भाव देर तक रहता, तो कोई क्षण भर के लिये उसका अनुभव पा कर फिर अपनी देह में शीघ्रता से लौट आता।

    

लेकिन आज का उनका अनुभव शेष दिनों की तुलना में कुछ अलग है। वे जब गर्भगृह में बैठे पेड़ के चरमरा कर गिरने की ध्वनि सुन रहे थे, तो पृथ्वी के नीचे बैठे होने की वजह से उन्हे ज़मीन में होने वाले कंपन का तीव्र अहसास हुआ था।

    

पेड़ जड़ों समेत उखड़ा होगा, इसलि धरती इतनी ज़ोर से कांपी होगी।

    

 

अब वहां बाहर निकलने के बाद उन्हें लग रहा है कि पृथ्वी के कांपने से ज़्यादा बुरी खबर यह है कि झिड़ी के उस हिस्से के पक्षी डर कर कोलाहल करते आकाश में उसके आसपास गोलाकार चक्कर खा रहे हैं।

    

 

गुटार, कौए, कबूतर, चिड़ियां, बगुले, सारस, बुलबुल, कोयल, क्रौंच और जाने कितनी तरह के और पक्षी भी हैं, जो उड़ते दिखाई दे रहे हैं।

    

 

निरंजन को उनमें उल्लू, गिद्ध और चमगादड़ भी दिखायी दिये हैं। वह आकाश की ओर देखता हुआ चिंतित हो कर कहता है,

-      कुछ बहुत अशुभ हुआ। पेड़ का इस तरह गिरना सामान्य नहीं लगता। रात के पक्षियों की नींद का यों टूट जाना किसी बड़े संकट का संकेत है।

     

 

यह कहता हुआ निरंजन बाकी लोगों को पीछे छोड़ता हुआ कुलांचे सी भरता घटनास्थल की ओर उड़ चला है। परमानंद की चाल बहुत तेज़ है, पर वह कुलांचे भरने की बजाय, लंबे डग भरता है। वह निरंजन से अधिक पीछे नहीं है। पर स्वरूपानंद अपनी चाल को बस थोड़ा ही तेज़ करता है।

 

    

आगे पीछे सभी सागौन के उस कद्दावर पेड़ के करीब पहुंच गये हैं, जिसकी लंबाई डेढ़ सौ फुट के आसपास रही होगी।

    

 

सागौन के पेड़ के लिहाज से यह उसकी अधिकतम ऊंचाई के बराबर है। सागौन के इस पेड़ की झिड़ी के इतिहास में एक विशिष्ट जगह है। इस ऊंचाई को पाने वाले पेड़ों की संख्या बहुत कम है, मुश्किल से आठ दस। जैसे दो तीन तो देवदार ही हैं। पर उनका आकाश को छूने के लिये ऊपर निकल जाना स्वाभाविक है। ऐसे ही कुछ चीड़ के पेड़ हैं। कुछ बांस भी बहुत ऊंचे हो गये हैं।

    

 

लेकिन सागौन की बात ही कुछ और है। इतनी मज़बूती किसी और पेड़ की लकड़ी में कहां। पेड़ गिरने पर भी बेशकीमती बना रहता है। इसकी लकड़ी जैसी है, वैसी ही रहती है। सूख कर भी बहुत कम सिकुड़ती है।

    

 

स्वभाव के लिहाज से देखना हो तो, सागौन में या तो किसी तानाशाह की आत्मा का निवास होता है, या किसी अविकारी चित्त वाले संत की चेतना का।

    

 

ज्योतिषियों ने मनुष्यों के लक्षण देख कर तो भविष्यवाणियां की हैं कि अमुक आदमी या तो चक्रवर्ती सम्राट होगा या बुद्ध, पर पेड़ों की बाबत गहराई में जाने का विचार किसी को नहीं आया।

     निरंजन ने पेड़ के करीब जाते ही जो पहली घोषणा की लह यह थी कि पेड़ पर भूमिगत कृमियों का आक्रमण हुआ है।

 


   

 

परमानंद ने पास जा कर इस तथ्य का गहराई से मुआयना किया, तो उसने कहा,

-      काली सुंडियों ने इसके पत्ते बर्बाद कर दिये हैं, दीमक ने तने के बाहर के निचले हिस्से को खोखला किया है, पर पेड़ के गिरने की असल वजह दूसरी है। देखो, इसकी जड़ें गल गयी हैं। बीमारी जब तक पेड़ की जड़ों में नहीं उतरती, वह नहीं मरता।

    

 

स्वरूपानंद नज़दीक आकर पहले पेड़ की जड़ों को देखता है, फिर नीचे से बाहर आयी मिट्टी को हाथ में ले कर उसका निरीक्षण करने लगता है। मिट्टी में सीलन है, भूरे रंग में सफेद और नीले कणों का मिश्रण है और सूंघने पर तीखी दुर्गंध का आभास होता है। वह चिंतित हो कर कहता है,

-      सागौन का गिरना केवल एक इशारा है। पूरी झिड़ी संकट में है। प्रकृति का बमुश्किल बचे इस छोटा से टुकड़े को भी अब ग्रहण लगने वाला है। ज़मीन के नीचे से अंदर ही अंदर कोई मिट्टी में ज़हर घोल रहा है।

-      कौन?

    

 

परमानंद भी अब मामले की तह तक जाना चाहता है।

-      तुरंत किसी नतीजे पर  पहुंचना मुमकिन नहीं। और खोजबीन करते हैं। कुछ तो पता चलेगा ही।

    

 

निरंजन सागौन के तने पर चढ़ कर दूसरी ओर कूद गया है। उधर से सागौन की एक मेटी जड़ बहुत नीचे से निकल कर बाहर गयी है और ऊपर आकाश की ओर देख कर अपनी उंगलियों से कुछ रहस्यपूर्ण संकेत कर रही है।

    

 

निरंजन उस ओर ज़मीन में बन गये एक गहरे खड्डी में पेड़ की जड़ों को पकड़ कर घूमता हुआ सा नीचे उतर जाता है।

    

 

फिर तुरंत ही उसी प्रकार पुनः झूल कर बाहर की ओर ऊंची छलांग लगाता है। बाहर कर समतल ज़मीन पर खड़ा होने के बाद वह अपने लंबे कुर्ते को झटक झटक कर जैसे कुछ झाड़ने लगता है। उसके दोनों साथी उसके करीब कर समझने की कोशिश करते हैं कि क्या हुआ है?

    

 

निरंजन के कपड़ों से छिटक कर कुछ सुंडियां ज़मीन पर नीचे जा गिरी हैं। वह उधर वाले ज़मीन के गहरे खड्डे की ओर इशारा कर रहा है,

 

-      वहां मैंने देखा, ये सुंडियां नीचे से असंख्य मात्रा में यों बाहर निकल रही हैं, जैसे धरती के नीचे बस इन्हीं का साम्राज्य हो। ये जिस तरह वहां से बाहर निकल रही हैं, उसे देखते हुए लगता है कि ये बड़ी जल्दी पूरी झिड़ी में फैल जायेंगी। इन्हें नहीं रोका गया तो कुछ ही समय में यहां कुछ नहीं बचेगा। मैंने जलपूरलय और अग्नि प्रलय की कथाएं पढ़ी हैं। पर कभी पृथ्वी पर कृमि प्रलय भी हो सकती है, इस संभावना पर आज तक किसी शास्त्र ने कोई चर्चा नहीं की है।

    

 

स्वरूपानंद निरंजन के कपड़ों से झड़ कर नीचे गिरी सुंडियों को नज़दीक से देखने के लिये ज़मीन पर घुटनों के बल बैठ गया है। उसके साथी भी उसके आसपास कर उसी तरह झुक गये हैं और ज़मीन पर टेढ़ी तिरछी हो कर आगे की ओर सरकती जातीं सुंडियों को ध्यान से देखने लगे हैं। वे उंगलियों जितनी मोटी हैं और अपने पिछले हिस्से को सिकोड़ कर अगले हिस्से से आगे सरक रही हैं। वे दो तरह की मालूम पड़ती हैं।

    

 

लाल रंग की सुंडियों का मध्यभाग कला है। जैसे किसी ने उनकी कमर के आसपास कोई टायर सा डाल दिया हो। उनकी संख्या उन दूसरी तरह सुंडियों की तुलना में काफी कम हैं, जो ऊपर से नीचे तक काली हैं। उनकी देह पर बारीक रेखाएं हैं, जो सफेद धारियों जैसी मालूम पड़ती हैं। उनके मुंह लाल रंग के हैं और उनकी देह के ऊपर की ओर बेशुमार सुइयों जैसे बाल नज़र रहे हैं।

    

 

तभी उन्होंने एक अजीब सा कौतुक देखा। लाल रंग की सुंडियां अधिक तेज़ी से ज़मीन पर सरक रही हैं और काले रंग की सुंडियां एक झुंड सा बना कर उन्हें घेरने का प्रयास कर रही हैं। फिर जैसे ही लाल रंग की एक सुंडी उनकी पकड़ में आती है, वे उस पर चढ़ कर उसे खा जाती हैं।

     स्वरूपानंद यह देख कर मुस्कराता है,

-      अरे यहां तो कोई भूमिगत युद्ध चल रहा है। मुझे नहीं पता था, अंडरग्राउंड दुनियां इतनी खतरनाक होती है

 

 

परमानंद ने सहमत होने की मुद्रा में सिर हिलाया,

-      मैं जानता हूं, उस दुनियां के बारे में। वहां सबके अपने अपने कानून होते हैं। वहां सब एक दूसरे के खात्मे के लिये अपनी जान को हमेशा जोखिम में डाले रहते हैं। ज़मीन के ऊपर की दुनियां कोशिश करती है कि भाईचारे के साथ जीए। पर वहां भी सबकी अपनी अपनी अंडरग्राउंड दुनियां होती है। बस दिक्कत तब होती है, जब अंडरग्राउंड की लड़ाइयां ज़मीन पर जाती हैं।

 

-      नहीं, तब तक नहीं, डब तक वे आपस में लड़ते हैं। पर जब कोई जीत जाता है और ज़मीन वालों के लिये खतरा बनता है, तब उनका इंतज़ाम ज़रूरी हो जाता है। आओ चलें और इन्हें आपस में लड़ने दें। पर इससे पहले कि इनमें से कोई एक ग्रुप जीत कर बाहर की ओर रुख करे, हमें कीटनाशकों का बंदोबस्त करना होगा।

    

 

तीनों साधक लौट कर जठेरे के लंगर गृह में पहुंच गये हैं। इस पूरी कार्यवाही में उन्हे एक डेड़ घंटा लग गया है। उन्होंने अभी तक नाश्ता भी नहीं किया। कुछ फल और दूध में पकाया दलिया उनके आगे परोस दिया गया है।

    

 

पर अभी उनका नाश्ता समाप्त भी नहीं हुआ होता कि  मां कालरात्रि वहां प्रवेश करती है और बिना किसी भूमिका के ही उन्हें बताने लगती है,

 

-      क्या आप लोगों को पता चला है कि इंदिरा गांधी की उनके अंगरक्षकों ने सुबह साढ़े नौ बजे गोली मार कर हत्या कर दी है और दिल्ली के गलियों, महल्लों और सड़को पर पता नहीं किस भूमिगत दुनियां से दंगाई निकल कर बाहर गये हैं। उन्हें जो सिख मिलता है, उसे वे पैट्रोल डाल कर या उन पर जलते टायर डाल कर उन्हें मार रहे हैं। उनके बेटे राजीव गांधी की ओर देखा जा रहा है कि वे ही अब देश को कमान संभालें। उन का बयान भी गया है कि जब कोई बड़ा पेड़ गिरता है, तो धरती तो कांपती ही है।

 

 

     वे तीनों हतप्रभ से एक दूसरे का मुंह देख रहे हैं।

     स्वरूपानंद बस इतना ही कह पाता है,

-      वह सब क्या सिर्फ दिल्ली मे ही हो रहा है?

 


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स विनोद शाही जी की है)

 

 

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563, पालम विहार,  

गुरूग्राम-122017  

 

मोबाइल 09814658098

टिप्पणियाँ

  1. अच्छा हुआ डॉक्टर सतीश आर्य की समीक्षा पढ़ने से पहले उपन्यास अंश पढ़ लिया। समीक्षा को उसके सही अर्थ में समझ पाया। उपन्यास पढ़ना ही होगा। उपन्यास की समीक्षा और उसका अंश संकेत करते हैं कि यह एक महत्त्वपूर्ण कृति होगी। सादर।

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  2. बहुत ही मार्मिक और गहराइयों के साथ में विचारों का विवेचन किया गया है ऐसा उपन्यास का छोटा सा भाग पढ़ने से महसूस होता है पूरा उपन्यास पढ़ने से पृष्ठभूमि में होने वाले जीवन जिंसों के बारे में बहुत रोचक और महत्वपूर्ण जानकारी जरूर होगी

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