टॉम एडवर्ड फिलिप्स की कविताएं
टॉम एडवर्ड फिलिप्स |
जीवन की यह खूबी है कि वह अपने अंदाज़ में आगे बढ़ता रहता है। सुख हो या दुख, नदी हो या पहाड़, समुद्र हो या ज्वालामुखी कोई भी व्यवधान जीवन का रास्ता रोक नहीं पाते। वह चलता है तो लगता है कि धीमे चल रहा है हालांकि उसकी अपनी विशिष्ट गति होती है। कवि जीवन की इस चाल को देखता है और अपनी कविता में उसे रेखांकित करता है। वह रेखांकित करता है कि धीरे धीरे होती है शुरुआत। मौसम भी आहिस्ते से आते हैं और अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। टॉम एडवर्ड फिलिप्स चर्चित ब्रिटिश कवि हैं। उनकी कविताएँ जीवन को उसके सूक्षम रूपों में, कह लें यथारूप में रेखांकित करती हैं। पंखुरी सिन्हा चर्चित युवा कवयित्री हैं। इन दिनों वे विश्व के कुछ महत्त्वपूर्ण कवियों की कविताओं का अनुवाद कर रही हैं। इन अनुवाद की खासियत यह है कि वह उस मूल कविता का अहसास कराता है जिसमें मूल कवि उसे दर्ज किया होता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है टॉम एडवर्ड फिलिप्स की कविताएँ। हिन्दी अनुवाद पंखुरी सिन्हा का है।
मूल कविता
टॉम एडवर्ड फिलिप्स की कविताएं
(चर्चित ब्रिटिश कवि)
अनुवाद - पंखुरी सिन्हा
एलेरर्केर गार्डेनस
छह तक की गिनती गिनना सीखते हुए, आदत वश
क्योंकि एल्लेर्केर के बगीचों में खड़े हुए, आप देखते, हर रात
आग का वह पर्दा, लंदन की छत पर खिंचते हुए!
आप सुनने का इंतज़ार कर रहे होते, उस तूफान के बीच पल भर की खामोशी को
जो होती है एक अनफटे बम की अनुपस्थिति में!
क्या कोई हो सकता है इतना डूबा हुआ
कि उसे याद न रहे
कीट पतंगो का काटना
एक टूटा हुआ प्यार
या फिर केवल कोई बिखरी मुलाकत
वह भीतरी आस ज़िंदा रहने की
वह जिजीविषा, जिसने तय किया था
आप कुछ दूर बने रहेंगे घर से
जब तक आ कर चले न जायें पिता!
साधारण सी एक बहादुरी
नायकत्व से भरी!
केवल घरों को जोड़ती
छतों-दीवारों के उड़े हुए
परखच्चों के ज्यामिति चित्रों के आसपास
तुम्हें सुरक्षित देखना चाहते थे सब
कम से कम, कुछ तो
इतनी दिलेरी के बीच!
जब तुम टटोल रही होती थी विस्फोट और अन्धेरे में
सुरक्षा के चिन्ह! चाहे, जो भी हो आगे, तुम्हारा इंतज़ार करता खतरा!
किसी छठी इन्द्रीय की उँगली तले
की चुप्पी में लिपटा!
धीरे-धीरे होती है शुरुआत
वसंत आ रहा है आहिस्ता
दबे पाँव, उस बिल्ली की तयशुदा
अलमस्त चाल सा, जिसे विश्वास है
वह चल सकती है पंजों के बल
वहां तक, जहाँ तक जाती है
सबसे ऊंचे पेड़ की सबसे पतली शाख!
कितना हरा है सब कुछ!
भरा हुआ नई आशा से
कि लगता है कितना
भोला, कितना अनजान है!
लेकिन फिर भी, लौटता है
वह हमेशा, और हर बार
जब मुस्कुराते हैं हम
जाते हैं बाहर सड़क पर
स्वागत करने उसी का
और स्वीकार लेने
हमेशा की तरह
वसंत के छलावे और उपहार!
वह सब कुछ जो चाहिए होता है एक कविता के लिए
पार करते सोफिया फ़ील्ड का वह इलाका
हम जैसे आश्चर्य कर रहे हैं
सस्वर - कि कौन बचा है?
यात्रा के स्मृति चिन्ह
आराम देह चप्पलें
जैतून के तेल के खाली डब्बे
इस धीमी, कराहती
ट्रेन की सीट के नीचे!
एक लड़की जो गुज़री सामने से
शायद नंगे पांव
डब्बे की सीढियों के नीचे
उंगलियाँ जिसकी तैल सिक्त थीं
शिकायत करती मेरी बेटी की तरह
अपने नासपिटे जूतों के बारे में
या फिर उस दोस्त की तरह जो ले कर आया था, बियर और गर्म कोट
ट्रेन में सर्दियों और प्यासे पर्वतारोहियों के लिए!
हम धीमे हो कर सिमट आये हैं
एक रेंगती चाल में!
प्रकाश के बहुरुपिये खेल में
तुम्हारे बैगनी पहाड़ो के परे!
तुम वहीं जा रहे हो, वितोशा
और ठीक उसी दिन जब
वापस लौटना है मुझे
लेकिन, अभी के लिए
तुम दिखा रहे हो सूर्यास्त
पुराने, उजाड़, उजड़े स्टेशन
रास्तों के निशान, निशान आकाश में चमकती रौशनी के!
किसी बस स्टॉप के बीच उगता हुआ
एक विलो वृक्ष!
"इतना ही चाहिए होता है --
इतना ही वह सब कुछ है
जो चाहिए तुम्हें, एक कविता के लिए!"
सही हो तुम, हाँ, ऐसा ही लगता है!
शाम के समय के गाँव, बोतलें
बन्द डब्बे, कैन्स, पुराने जूते -
ये सब मिल कर बनाते हैं एक दृश्य
जिससे मुझे उम्मीद है कुछ और कहने की
क्योंकि जो कुछ भी और बन रहा है
इस चीखते हुए यातायात में
मैं उसे बता नहीं सकता
न पहचान पा रहा हूँ!
मूल कविता - टॉम एडवर्ड फिलिप्स, चर्चित ब्रिटिश कवि, लम्बे समय तक इंग्लैंड में पत्रकारिता करने के बाद, सोफ़िया बुल्गारिया में क्रिएटिव लेखन के प्राध्यापक, जिन्होंने अल्बेनियाई ट्रेवल राइटिंग पर शोध किया है. कई किताबें प्रकाशित, कई प्रकाशनाधीन!
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंण्टिंग्स स्वर्गीय विजेंद्र जी की हैं।)
पंखुरी सिन्हा |
सम्पर्क –
ई मेल : nilirag18@gmail.com
सुंदर प्रस्तुति
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