स्वप्निल श्रीवास्तव के संस्मरण 'एक सिनेमाबाज की कहानी का छठवां खण्ड
स्वप्निल श्रीवास्तव |
इस बात में कोई दो राय नहीं कि तकनीक ने दुनिया को पूरी तरह बदल दिया है। सिनेमा की तकनीक भी उस क्रांतिकारी तकनीक में से है। पर्दे पर चलते फिरते दृश्यों को देखना एक समय किसी अजूबे से कम नहीं था। नब्बे के दशक में वीडियो कैसेट आने के पश्चात सिनेमा और सिनेमा हालों पर असर पड़ना शुरू हो गया और हर छोटे बड़े शहर में दिखाई पड़ने वाले सिनेमा हॉल अब एक एक कर बंद होने लगे। उनकी जगह बिग बाजार और मल्टीप्लेक्स हॉल में सिनेमा दिखाया जाने लगा जो खासा मांगा हुआ करता है। आम आदमी वहाँ जा कर सिनेमा देखने के बारे में सोच ही नहीं सकता। यह उस विकृत पूँजीवाद का चेहरा है जिसमें किसी आम आदमी के लिए कोई जगह नहीं होती। जो समृद्ध व्यक्ति का ही पोषक हुआ करता है। मोबाइल पर इंटरनेट की सर्वसुलभता ने सिनेमा हॉल का और भी वारा न्यारा कर दिया है। नब्बे के दशक में ही टेलीविजन पर शुरू होने वाले धारावाहिकों ने सिनेमा को अच्छा खासा प्रभावित किया। 'हम लोग' और 'बुनियाद' से आरंभ हुई यह श्रृंखला 'रामायण' और 'महाभारत' धारावाहिक के समय अपने चरम पर पहुंच गई। धारावाहिकों का क्रेज यत था कि एक लंबी कहानी को टुकड़े टुकड़े में प्रस्तुत किया जाता था और हर धारावाहिक अपनी प्रस्तुति की किश्त के अंत में वह रोमांच, वह पुछल्ला छोड़ जाता था जिसके आगे का हिस्सा देखने के लिए दर्शक आतुर रहता था और धारावाहिक के अगले किश्त की बेसब्री से प्रतीक्षा करता था।
सिनेमाबाज़ अपने विभागीय कार्य में नौकरशाही के दबाव की भी बात करते हैं जो चाहे अनचाहे हर सरकारी कर्मचारी को झेलना ही पड़ता है। सरकारी अधिकारियों की हनक कुछ इस तरह की होती है कि उनके हर ऊल जुलूल आदेश को मानना अधीनस्थ की ड्यूटी या कह लीजिए मजबूरी होती है। इसी क्रम में चाहे अनचाहे वे फर्जीवाड़े भी किए जाते हैं जो केवल आँकड़ों का पेट भरने के लिए किए जाते हैं। इन्हीं सब का साक्षात्कार कराती है सिनेमाबाज की कहानी। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव की 'सिनेमाबाज की कहानी' की छठवीं किश्त।
एक सिनेमाबाज की कहानी - 6
स्वप्निल श्रीवास्तव
।।अठारह।।
सूरदास रसखान और रहीम को छात्र जीवन से पढ़ते हुए मथुरा-वृन्दावन को देखने की प्रबल इच्छा थी। मैं कृष्ण के बाल जीवन से सम्बंधित जगहों को देखना चाहता था। मुझे रसखान याद आते थे –
मानुष हो वही रसखान, बसौ मिलि गोकुल गांव के ग्वारन
जो पसु हौं तो कहा बस मेरों, चरों नित नंद की धेनु मंझारन।
सूरदास ने कृष्ण की बाल-लीलाओं का जो वर्णन किया है, वह अद्वितीय है। नेत्रबाधित कवि ने जिस तरह से कृष्ण के जीवन को अपनी रचनाओं में चित्रित किया है, वह मुझे बहुत प्रिय था। सूरदास ने न केवल कृष्ण की बाललीलाओं से, बल्कि उनके भक्तिभाव और विरह–वेदना को अपने काव्य का विषय बनाया –
निसिदिन बरसत नैन हमारे
सदा रहत पावस ऋत हम पर जबसे स्याम सिधारे।
उद्धव–शतक में रत्नाकर की कल्पना अलग थी। कृष्ण का गोपियों से प्रेम का सम्वाद और कृष्ण का द्वारिका जाना और उद्धव का गोपियों को समझाना। इस मामले में बिहारी के कवित्त का रंग अलग था। हम अपने छात्र जीवन में राम के जीवन से ज्यादा कृष्ण के बारे में जानते थे, जबकि हम अवध के वासी थे। राम के बाल–जीवन का वर्णन कवियों ने इतना नहीं किया था जितना कृष्ण के बाल-काल का चित्रण कवियों द्वारा किया गया था। बृज भाषा के कवियों के यहां कृष्ण के जीवन के अनेक रूप मिलते हैं।
शास्त्रीय गायकों ने कृष्ण के बालजीवन को अपने गायन का विषय बनाया। ‘मुझे पनघट पर नंदलाल छेड़ गयो रे’ या ‘यशोपति मैय्या से बोले नंदलाला’ जैसे गीत हमारी जुबान पर थे। यह भी याद करने की जरूरत है कि ये गीत मुस्लिम गायकों द्वारा गाये गये है, शास्त्रीय संगीत में उनकी भूमिका याद करने योग्य है। मथुरा पहुंच कर मेरे ये स्वप्न साकार होनेवाले थे।
अपने जमाने के मशहूर कामरेड और उत्तरगाथा के सम्पादक मथुरा के डेम्पियर कालोनी में रहते थे, वे मुझे अपनी पत्रिका में प्रकाशित कर चुके थे। डेम्पियर मथुरा की अच्छी कालोनी थी, आकर्षण यह कि वहां सव्यसाची जी रहते थे। मैंने उसी कालोनी में अपना डेरा डाला। पास में बस स्टेशन था, वहां से कचहरी के लिए साधन मिल जाते थे लेकिन मैं दफ्तर जाने के लिए तांगा की सवारी ही पसंद करता था और तांगे वाले के बगल में बैठने की कोशिश करता था। तांगें का लुत्फ मैं इलाहाबाद प्रवास में उठा चुका था। तांगे पर बैठता तो मेरे भीतर किसी नबाब की रूह आ जाती थी। आज भले ही लोग मोटर-गाड़ियों पर बैठ कर शान महसूस करे लेकिन एक जमाने में बग्घी और तांगे पर बठने का लुत्फ ही अलग था।
मेरे सहयोगी गौहर मेरे बंगल में रहते थे, वे बहुत नफीस ढंग से बात करते थे। उनकी मूंछे शानदार थीं – जिसे वे वक्त–बेवक्त ऐंठते रहते थे ताकि उसका नुकीलापन बरकरार रहे। हम साथ-साथ दफ्तर जाया करता था। कोई सिनेमा मालिक अगर मोटर से चलने का लोभ दिखाता तो हम उसे ठुकरा दिया करते थे।
जनपद के बास भार्गव साहब थे, उनका स्वभाव बेहद आसामान्य था लेकिन कभी–कभी पते की बात कर जाते थे। वे प्रसिद्ध साहित्यकार दुलारे लाल भार्गव के परिवार से सम्बंध रखते थे लेकिन साहित्य के प्रति उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी बल्कि वे साहित्य के दुश्मन थे। एक बार मेरे डेरे पर आये और किताबें देख कर बोले – अब जब तुम्हें नौकरी मिल गयी है तो इस किताबों का क्या काम? मैंने कहा – बस पढ़ने की आदत है। वे बोले इस आदत को बदलो, इससे तुम्हें नुकसान ही होगा, तुम नौकरी करने के गुर सीखो – सुखी रहोगे। वे मेरी नौकरी में इस तरह के उपदेश देने वाले अकेले मानुष नहीं थे – ऐसे मूर्खो की तादात कम नहीं थी। ऐसे बहुत से कोल्हू के बैल मिले जो अपनी आंख पर पट्टी बांधे एक सीमित दायरे में घूमते रहते थे। वे उस मेढ़कों की तरह थे, जिन्हें कुंए के बाहर कुछ भी नहीं दिखाई देता था।
भार्गव साहब प्रसिद्ध साहित्यकार, सम्पादक और सम्पादक दुलारे लाल भार्गव के परिवार से आते थे, उनके बारे में तमाम किस्से बताते रहते थे। जिन्हें साहित्य की तनिक भी जानकारी होगी, उनके लिए यह नाम अपरिचित नहीं लगेगा, उन्होंने नवल किशोर प्रेस की स्थापना की थी – ‘सुधा’ और ‘माधुरी’ जैसी पत्रिकाएं निकाली थी। प्रेमचंद, निराला उनके यहां काम करते थे, वे उनका बहुत सम्मान करते थे। उन्होंने गंगा पुस्तकमाला का प्रकाशन किया था जिसके प्रेमचंद, निराला, भगवती चरण वर्मा, अमृत लाल नागर को पहली बार प्रकाशित किया था। लेकिन इस आदमी के भीतर उनका डी. एन. ए. नहीं था।
उनके पास एक विचित्र सा बैग था जिसमें खैनी की डिबिया, डायरी, शासनादेश और अनेक तरह के कागजात भरे हुए थे – एक तरह से वह उनका चलता–फिरता दफ्तर था जिसे वे हर हाल में अपने पास ही रहते थे - छूने तक नहीं देते थे। वे यमुना नदी के पास की एक कालोनी में रहते थे, उनका अधिकतर समय सिनेमाहालों में ही बीतता था। वे परिवार अपने साथ नहीं रखते थे। एक बार दुष्ट चपरासी ने उनसे पूछा – सर मैडम और बच्चे कब आएंगे? तो उन्होंने जबाब दिया कि मैं परिवार को साथ नहीं रखता? तो सर बच्चे कैसे हुए? वे बोले – बेवकूफ कहीं का – जब भी गए एक फसल काट आए फिर गये दूसरी फसल काट आए। वह उनकी उलटबासी समझ नहीं पाया तो उन्होंने उसे विधिवत समझाते हुए कहा – चोरी करने के लिए थानेदार को साथ ले कर नहीं जाया जाता। जीवन भर उनकी पत्नी और बच्चों से पटी नहीं, बस अपनी धुन में मस्त रहते थे।
वे जब पहली बार ज्वाइन करने रहस्यपूर्ण ढ़ंग से आये तो हमें लगा था कि कोई टूरिंग टाकीज का लाईसेंस लेने के लिए आया हो। गौहर को लगा था कि कोई जादूगर जरूर होगा जिसे जादू के शो के लिए अनुमति की दरकार है – देखने में वे अफसर जैसे नहीं लगते थे। स्वभाव से वे मजाकिया थे। हम लोगों पर रोब गालिब करने के लिए अक्सर कहते रहते थे कि ये बाल मैंने धूप में नहीं सफेद किये है – यह बात कहते हुए हमारे सामने पुष्टि के रूप में अपना सिर झुका दिया करते थे। यह उनका तकिया–कलाम बन गया था।
वे किसी को अपने मकान का पता नहीं बताते थे लेकिन मेरे प्रति वे स्नेहिल थे। एक दिन शाम को बोले – श्रीवास्तव जी, चलिए आपको अपना मकान दिखाता हूं लेकिन किसी को बताइगा नहीं। बिल्कुल नहीं सर – मैंने उन्हें आश्वस्त किया। वे मुहल्ले में मुझे ले कर घूमने लगे, आधे घंटे बाद मैंने उनसे पूछा – सर कहां है आपका मकान? यार यहीं–कहीं तो था।
फिर उन्होंने कुछ याद करने की कोशिश की और मेरे साथ आगे बढ़ने लगे तभी उन्हें एक परिचित आदमी दिखाई दिया, उन्होंने उनसे पूछा – तुम जानते हो कि मेरा मकान कहां है? उस आदमी ने मुस्कराते हुए कहा – हुजूर उस मकान के सामने ही तो आप खड़े हैं। उनसे ज्यादा मैं हतप्रभ था। ऐसे थे भार्गव मोशाय। गज़ब थी उनकी हाजिरजबाबी लेकिन वे स्वभाव से कंजूस थे – जेब में हाथ तक नहीं डालते थे, जब कहीं पेमेंट देना होता था, मेरा मुंह देखने लगते थे।
मथुरा जनपद में एक सिनेमा मालिक के पास कई सिनेमाहाल थे। उसका चेहरा बेहद डरावना था, उसके सिर पर एक गूमड़ था जो बातचीत करते हुए हिलता रहता था। वह गले में सोने की एक चैन पहने रहता जिसमें दंतखोदनी लगी रहती थी, उससे वह अपने दांत खोदता रहता था – जब गुस्से में होता था, यह दंतखोदनी तेजी से चलने लगती थी। वह साक्षात कंस का अवतार लगता था। भार्गव साहब भोजनभट्ट और जिभचटोर थे, दिन भर कुछ न कुछ खाते रहते थे। उनकी पाचन-प्रणाली बहुत प्रबल थी – वे रिटायरमेंट के करीब थे, ब्लडप्रेशर और मधुमेह के मरीज थे लेकिन ये दोनों राजरोग उनके भोजन मार्ग में कोई बाधा नहीं पहुंचाते थे। सिनेमालिकों ने उनकी इस कमजोरी का भरपूर फायदा उठाया। उनके लिए वह नए-नए व्यंजन बनावाता था और उन्हें अपनी कोठी पर बुलवाता था। उनसे अपनी मर्जी का काम करवाता था। हम लोगों को यह स्थिति उचित नहीं लगती थी लेकिन उनकी इस आदत के सामने हम सब मजबूर थे। सिनेमा मालिक के दो बेटे थे आमोद और प्रमोद, दोनो के नाम में एक लय थी लेकिन स्वभाव में वे एक दूसरे के विपरीत थे। वे उसके प्रधान सेनापति का काम करते थे, वे ज्ञानविहीन थे लेकिन अपने धंधे के बारे में अच्छी जानकारी और सजगता थी।
उनके पिता जिसे लोग प्यार से लाला कहते थे कोठी के बाहर कम निकलते थे, अपने लड़कों को हुक्म देते रहते थे। उनके हुक्म की तामीली होती रहती थी। जब वे बाहर निकले तो समझिए कि कयामत आने वाली है – उनके नथुने फड़फाड़ने लगते थे। कोठी से बाहर निकलते तो मलमल का कुर्ता और नफीस धोती धारण करते थे – कार आ कर खड़ी हो जाती थी। वह शहर के मशहूर शहरी थे – जिस दफ्तर में वे जाते थे, लोग सहम जाते थे। उनकी कद–काठी खलनायकों की तरह थी – बात–बोली में उसी तरह की तुर्शी थी।
जिस कोठी में वह रहता था, वह दिव्य थी, उसमें सबसे अच्छे किस्म के संगमरमर के पत्थर लगे हुए थे। लान में लहलहाती हुई मुलायम घास थी – उसके बीच मंहगी और आरामदेह कुर्सियां लगी हुई थी। शाम को वही पर उसका दरबार लगता था – जो नौकर ठीक से काम नहीं करता था, उसकी तो खैर नहीं। कोठी के भीतर बड़ा सा बैठका था, उसकी सजावट अदभुत थी।
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शहर के बाहर वृंदावन, कोसीकला, राया जैसी जगहें थी। इन जगहों पर मुझे मुआयने पर जाना पड़ता था, मेरे साथ मेरे सहयोगी गौहर भी होते थे। उनका सेंस आफ ह्यूमर बहुत अच्छा था, उनका अंदाज लखनवी था। लखनऊ के नबाबों की तरह उनके पास अनेक किस्से थे, इस तरह हमारा रास्ता कट जाता था। वे भार्गव साहब का खूब मजाक उठाया करते थे, उनके हुलिए और कारनामों का बखान किया करते थे। मैं उन्हें बार–बार टोकता था कि वह सिनेमाहालों पर इस तरह की बात न करे इससे विभाग की छवि खराब होती है लेकिन वह अपनी आदत से बाज नहीं आते थे। उनकी ये बातें सिनेमाहाल वाले भार्गव के पास पहुंचाते रहते थे।
एक दिन उन्होंने मुझसे कहा कि गौहर के पास दो ही काम बचे हुए है – पहला मूंछ ऐठना दूसरा मुझे भला–बुरा कहना।
मथुरा की मशहूर जगह कृष्ण जन्मभूमि थी – वह मथुरा का केंद्रीय स्थल था – श्रद्धालु उसी जगह से अपनी यात्रा की शुरूआत करते थे। उसके बगल में मस्जिद थी जिसे देख कर लोगों के मुंह का स्वाद बदल जाता था और हिंदू–मुस्लिम की राजनीति शुरू हो जाती थी। मुल्क के कई शहरों में मंदिर–मस्जिद साथ–साथ है – चाहे वह बनारस हो या अयोध्या। राजनेता इन्हीं स्थलों को ले कर लोगों को उन्मादित करते रहे हैं।
मथुरा का दूसरा स्थल द्वारिकाधीश मंदिर था जिसे सन् 1814 में ग्वालियर के सेठ गोकुल दास ने बनवाया था। इसकी नक्काशी प्राचीन और सुंदर है। यहां सर्वाधिक टूरिस्ट आते थे – चढ़ावा खूब चढ़ता था, यह मंदिर मथुरा के विश्रामघाट के नजदीक था। यह हर तरह से समृद्ध मंदिर है, इसका टर्न ओहर करोड़ो में है। नोटबंदी के दौर में मैंने दर्जनों लोगों को नोट गिनते और थकते हुए लोगों टी. वी. पर देखा था। इसे देश में मंदिरों के खजाने विपुल हैं लेकिन वे पैसे लोक कल्याण में नहीं खर्च होते। मठाधीश उस राशि पर कुंडली मार कर बैठे होते थे और वैभवशाली जीवन जीते थे।
मेरी सबसे प्रिय जगह वृंदावन थी, वहां टूरिंग टाकीज चलता था। उसके मालिक धार्मिक प्रवृति के थे, माथे पर लम्बा चंदन का टीका लगाते थे। उनकी हंसी जोरदार थी – वे धारावाहिक रूप से हंसते थे, उसमें आरोह और अवरोह साफ दिखाई देता था। उन्होंने बताया कि उनकी हंसी बी. बी. सी. से प्रसारित हो चुकी थी। सचिवालय और अधिकारियों के बीच उनकी गहरी पैठ थी। उन दिनों टूरिंग टाकीज का विस्तार शासन के स्तर पर मुश्किल से किया जाता था लेकिन उनके लिए यह काम आसान था।
वृंदावन में यमुना तट पर कदम के खूब पेड़ थे। वहां बंसीबट और निधिवन था जहां कृष्ण लीलाएं रचते थे। खूब कुंज-गलियां थीं। वहां तानसेन के गुरू हरिदास की समाधि थी। वहां हर वर्ष भारतीय स्तर के संगीत समारोह होते थे जिसमें देश के प्रमुख गायक और नृत्यांगानायें आती थीं। वृंदावन में इस्कान मंदिर था जहां विदेशियों की भींड लगी रहती थी, अपने जीवन और भौतिकता से थके हुए विदेशी यहां शांति की खोज में आते थे वह मंदिर भव्य और आधुनिक था, बाल कृष्ण का चरित्र का जीवन जिस तरह से बोहेमियन था, वह उन्हें आकर्षित करता था। वे तल्लीन हो कर नाचते हुए और भावविभोर हो जाते थे।
कवियों ने जिस तरह के दृश्य अपने काव्य में खींचे थे, वे अतिशयोक्तिपूर्ण थे, इससे मेरी कल्पना को तनिक आघात पहुंचा था। यह कल्पना और यथार्थ की दूरी थी। स्त्रियों और श्रद्धालुओं की ह्र्दयविदारक कहानियां सुन कर दिल ही बैठ जाता था। पंडे और पुजारी उन्हें बुरी तरह लूटते थे - यह था मथुरा वृंदावन का यथार्थ।
इंदिरा गोस्वामी |
इंदिरा गोस्वामी ने अपने उपन्यास ‘नीलकण्ठी ब्रज’ में इन स्थितियों का मार्मिक वर्णन किया है। इस उपन्यास को पढ़ कर मैं विचलित सा हो गया। इंदिरा गोस्वामी ने लिखा है कि वृंदावन की विधवाएं अपनी कमर में एक थैली बांधी रहती हैं – जिसमें वे पैसे इकट्ठी करती रहती हैं ताकि जब उनकी मृत्यु हो जाए तो कोई व्यक्ति उनका अंतिम संस्कार कर सके लेकिन ऐसा होता नहीं था – लोग उनके पैसे लूट लेते थे।
धार्मिक स्थलों में इस तरह के दैहिक और मानसिक शोषण की घटनाएं आम थीं, इसका अधिकांश शिकार महिलाएं होती थीं। मंदिरों और मठों पर आपराधिक मनोवृति के लोग काबिज होते हैं, इनके तार राजनेताओं से जुड़े रहते थे। इधर ये सम्बंध प्रगाढ़ हो गये हैं। मथुरा-वृंदावन परिक्षेत्र में दर्जनों कथावाचक थे जो कृष्ण लीलाओं और भक्ति का गायन करते थे। उनके प्रवचन में अदभुत नाटकीयता थी – जैसे वे आंखों देखा हाल सुना रहे हों। उनकी कथाएं भक्तों को मायावी लोक में ले जाती थी इसलिए लोग यथार्थ लोक से दूर रहते थे। उनकी सभाओं में स्त्रियों की उपस्थिति ज्यादा होती थी, वे उन्हें करूण रस से पाग़ देते थे, उनके अश्रु प्रवाहित होने लगते थे। उनके भव्य मंच बनते थे वहां वे डिजाइनर पारिधानों से सुसज्जित होते थे। उनके साथ वाद्य यंत्र और साजिंदे चलते थे। जब भक्त कथा से ऊब जाते थे, संगीत प्रवाहित होने लगता था। इन कथावाचकों का टर्न ओवर लाखों में नहीं करोड़ों में होता था। वे हवाई-जहाज से देश–विदेश की यात्राएं करते थे। उनके भक्त बहुत अमीर होते थे, उनके लिए लाखों रूपये खर्च करते थे। उनके प्रवचन – सभाओं का इंतजाम करते थे। कहीं देश में बाढ–सूखा पड़ा हो तो वहां कोई मदद नहीं करते थे लेकिन धार्मिक आयोजनों में पानी की तरह पैसा बहाते थे।
हर शहर में अच्छे–बुरे लोग रहते हैं, उनसे शहर जाना–पहचाना जाता है लेकिन इधर देखने में आया है कि बुरे लोगों की ताकत और स्वीकृति बढ़ती जा रही हैं। मथुरा शहर जयगुरू देव का मुख्यालय था, निम्न मध्यवर्गीय, पिछडे समाज के लोग उनके अंधभक्त थे। उत्तर भारत के वे मान्य धार्मिक संत थे, उनका जनाधार विस्तृत था। मुझे याद है कि जब इंदिरा गांधी सताच्युत हो गयी थीं, तो वे अपने पुत्र संजय गांधी के साथ उनके आश्रम में आयी थीं। भले ही देखने में उनकी धार्मिक यात्रा रही हो लेकिन उनका उद्देश्य राजनीतिक था। वह चाह रही थीं कि वे अपने भक्तों से उनके पक्ष में वोट देने की अपील करें। जयगुरूदेव ने बहुत सी सरकारी जमीन पर कब्जा किया था लेकिन शासन के पास इस जमीन को खाली कराने की हिम्मत नहीं थी। यह खतरा मथुरा के एक पत्रकार मित्र ने उठाया, उन्होंने एक राष्ट्रीय अखबार में यह खबर लिखी और सुबह ही जयगुरूदेव के पुरबिये भक्त लाठी भाजते हुए पहुंच गये, उन्हें धमकाते हुए कहा - अब अगर तुमने गुरूदेव के खिलाफ लिखा तो तुम्हें मार कर यमुना में फेंक दिया जाएगा, तुम्हारी हड्डी तक नहीं मिलेगी। मित्र उनकी इस धमकी से बीमार हो गए।
जयगुरूदेव का मुख्यालय स्थापत्य का अदभुत नमूना था, उनके पास अकूत सम्पत्ति थी, लाखों देशी–विदेशी भक्त थे। महंगी गाड़ियां और संसाधन थे। वे खुद रेशमी वस्त्र पहनते थे लेकिन अपने भक्तों को टाट के कपड़े पहननने के लिए प्रेरित करते थे। कुछ लोग यह बताते थे कि उन्होंने अपने एक भक्त के जूट मिल चलाने के लिए ऐसा किया था। धर्म और आस्था के नाम पर लोगों को किस तरह बेवकूफ बनाया जा सकता है।
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शैलेंद्र |
फिल्मी गीतकार शैलेंद्र का बचपन मथुरा में गुजरा है। उनके पिता अविभाजित भारत में फौज में काम करते थे, वे रावलपिंडी में तैनात थे, शैलेंद्र का जन्म उसी शहर में हुआ था। उनके पिता का तबादला मथुरा में हो गया था। उनकी पढ़ाई राजकीय इंटर कालेज मथुरा में हुई थी। उन्होंने रेलवे वर्कशाप में नौकरी कर ली थी, फिर मथुरा से उनका ट्रांसफर माटुंगा (मुम्बई) हो गया था। वे मजदूर यूनियन के सक्रिय कार्यकर्ता थे और क्रांतिकारी गीत लिखते थे। हर ‘जोर–जुल्म के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ – यह उन्हीं का दिया हुआ नारा था। वे इप्टा से भी जुड़े हुए थे, कवि–सम्मेलनों/ मुशायरों में भी शामिल होते थे। वहीं–कहीं राजकपूर ने उन्हें सुना था लेकिन जब अपनी फिल्मों में गीत लिखने का प्रस्ताव ले कर आये तो साफ मना कर दिया था। राजकपूर ने उन्हें अपना कार्ड देते हुए कहा - जब कभी आप को मेरी जरूरत हो तो मुझे जरूर याद करिएगा। जीवन की स्थिति एक सी नहीं रहती है, निरंतर बदलती रहती है। जब उनके जीवन में अभाव के दिन आए तो वे राजकपूर से मिलने जा पंहुचे। उन्होंने गीत लिखने की शुरूआत राजकपूर की फिल्म बरसात से किया। मुम्बई ने शैलेंद्र का जीवन बदला, उन्होंने फिल्मी गीत के इतिहास को भी बदला। ‘आवारा’, ‘श्री420’, ‘गाइड’ जैसी फिल्मों में यादगार गीत लिखे। राजकपूर, मुकेश, शैलेंद्र, शंकर जयकिशन की जो दोस्ती बनी, उसने हिंदी सिनेमा को बहुत अच्छे गीत और संगीत दिए। पाठकों को यह भी याद होगा कि शैलेंद्र ने रेणु की मशहूर कहानी ‘तीसरी कसम’ बनायी थी जिसमें राज कपूर ने हिरामन की भूमिका निभायी थी और इस पात्र को अमर कर दिया था। यह बिडम्बना ही थी कि उनके मृत्यु का कारण यह फिल्म बनी थी। शैलेंद्र मेरे दिल के करीब के गीतकार थे – उनके गीत हमारे हृदय को छूते थे।
आज फिर जीने की तमन्ना है,
आज फिर जीने का इरादा है
सब कुछ सीखा हमने, न सिखी होशियारी
बहुत दिया है देने वाले ने तुमको
आंचल ही न समाय तो क्या कीजै
जाने कहां गये वे दिन –
जैसे गीत जीवन के दर्शन को सामने लाते थे।
शैलेंद्र सिर्फ फिल्मी गीतकार नहीं, अदब में भी उन्होंने रूतबा हासिल किया था – उनके गीतों में बगावती तेवर थे। वे आजादी की लड़ाई का दौर देख चुके थे और इप्टा के साथ मिल कर काम करते थे। उन्होंने लिखा था-
तू जिंदा है तो जिंदगी में यकीन कर
अगर कहीं है स्वर्ग तो उतार ले जमीन पर।
आजादी के बाद उनके भी सपने टूटे थे – उन्होंने लिखा था –
भगत सिंह इस बार न लेना काया भारतवासी की
देशभक्ति के लिए आज भी सजा मिलेगी फांसी की।
आज के समय में उनकी ये पंक्तियां बरबस याद आती हैं।
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उन्हीं दिनों डिप्टी कमिश्नर के पद पर आर. के. अग्रवाल की पोस्टिंग हुई। वे सलीकेदार अधिकारी थे। हमेंशा सज-धज कर रहते थे। वे तबियत से बहुत रसिक थे। एक बार उस जमाने की हीरोइन श्रीदेवी की तमिल फिल्म डेफेंस के सिनेमाहाल में लगी थी, उन्होंने मुझसे कहा - आओ फिल्म देखते हैं। मैंने उनसे पूछा – सर क्या आप तमिल जानते हैं?- उन्होंने जबाब दिया मैं फिल्म नहीं श्रीदेवी को देखना चाहता हूं। उनकी यह साफगोई मुझे पसंद आयी।
वे जब आगरा में विभागीय मीटिंग बुलाते थे तो किसी होटल में लंच देते थे, उनके पूर्वाधिकारी चाय पर ही टरका देते थे। विभाग में जो भी अधिकारी जितना अमीर होता था वह उतनी ही कंजूसी दिखाता था लेकिन ट्रांसफर और प्रमोशन के मामले में धन–धर्म की परवाह नहीं करता था। उनके बातचीत के विषय सीमित होते थे। देश दुनिया और समाज में क्या हो रहा है – यह उनके विमर्श का केंद्र नहीं था, वे हमेंशा तिकड़म में लगे रहते थे। मैं ऐसे लोगों की सोहबत से दूर रहता था। वे ऐसे तोते थे जो सिर्फ राम–राम रटते थे। ‘राम-राम जपना, पराया माल अपना’ – जैसे मुहावरे का पालन करते थे।
उनके पास विभाग की राजनीति, बहादुरी के किस्से के अनंत किस्से थे - वे उसे हर महफिल में दोहराते रहते थे। अगर जनपद के जिलाधिकारी अगर उन्हें तवज्जो देते थे तो वे इसी बात से गदगद हो जाते थे जैसे उन्होंने प्रधानमंत्री से बात कर ली हो। नमक–मिर्च लगा कर इस किस्से को सुनाते थे। उन दिनों महकमें में एक नया चलन शुरू हो गया, लोग पिस्तौल और बंदूक खरीदने लगे थे – गले में सोने की मोटी जंजीर पहनते थे। इस बहाने वे लोगों पर रोब जमाते थे – यह नया स्टेटस सेम्बुल था। लोग धड़ल्ले से शहरों में जमीन और मकान खरीद रहे थे – वे मेरी तरह नहीं थे जो रिटायरमेंट के बाद मकान की किश्ते अदा करता रहा, गाड़ी के नाम पर एक टुटही स्कूटर थी। इस सबके बीच मैं प्रसन्न था।
अग्रवाल सर विभाग के अकेले अफसर थे जिन्हें मैं अब तक नहीं भूल पाया हूं – वे बेहद सम्वेदनशील और जहीन तबियत के मालिक थे। उनका ड्रेस सेंस अदभुत था, हमेंशा बने–ठने रहते थे। बातचीत का तरीका आत्मीय था – कोई फालतू बात नहीं करते थे। वे हर शाम को सेलीब्रेट करते थे लेकिन कभी लाउड नहीं होते थे – उनकी खुराक निर्धारित थी, बस छोटे-छोटे दो तीन पैग बस। वे हमें यह ताकीद देते थे कि किसी तरह की विभागीय बातचीत न हो। मैं भी इसी मिजाज का था कि हमें हर समय विभागीय धुन नहीं बजानी जानी चाहिए – अपने लिए भी निरापद वक्त निकाला जाना चाहिए।
इन्हीं साम्यताओं के कारण मैं उनका स्नेह पात्र बन गया था। वे स्वभाव से रोमांटिक थे। उन्होंने विवाह नहीं किया था, बताया जाता है कि किसी लड़की से प्रेम में धोखा मिलने के कारण उन्होंने शादी न करने का व्रत लिया था। मुझे याद है कि जब मैं पत्नी के साथ मेरठ के उनके आवास पर मिलने गया था तो उसने पूछा - अंकल जी, आंटी जी कहां हैं – उन्होंने उदासी के साथ कहा – ‘मैडम आई एम वेरी अनफारचुनेट इन दिस फील्ड’।
डायनिंग़ टेबुल पर बैठी उनकी मां ने कहा –बेटी मैं बार–बार इससे कहती हूं कि शादी कर ले, लेकिन वह राजी नहीं होता। आखिर मैं कब तक जिंदा रहूंगी।
उस समय अग्रवाल सर की उम्र उनसठ से ज्यादा हो रही थी। बेटे के प्रति मां का अगाध प्रेम देख कर हम चकित थे। मां के भीतर उनकी जान बसती थी, वे जब जरा सा अस्वस्थ हो जाती थी, वे परेशान हो उठते थे। उनके परिवार में उनसे बड़े अधिकारी थे। इसी बीच आपरेशन ब्लू स्टार हुआ था। स्वर्ण मंदिर अमृतसर उग्रवादियों का शरणस्थल बन चुका था, वहां भिंडरवाले की सत्ता स्थापित हो चुकी थी। इंदिरा गांधी के इस कदम की जहां तारीफ हो रही थी लेकिन उनके आलोचक कम नहीं थे। सत्ताधीशों को कई वक्त ऐसे निर्णय लेने पड़ते हैं जो भले ही अनुचित हो लेकिन सत्ता को बचाने के लिए करने ही पड़ते हैं। धर्म और राजनीति का आपस में विलय हो रहा था।
अग्रवाल सर ने मुझसे पूछा - ‘ह्वाट विल वी दी फेट आफ इंदिरा गांधी...।’ इसके जबाब में मैंने कहा – ‘शी विल बी असेसीनेटेट ..’।
कुछ दिनों बाद यह दुर्भाग्यपूर्ण घटना घटित हो गयी। वह अपने अंगरक्षकों के गोलियों का शिकार हुईं जिन्हें उनकी सुरक्षा के लिए तैनात किया गया था। इस घटना के बाद देश के विभिन्न इलाकों में सिक्खों का नर-संहार हुआ। हत्या और नरसंहार की लोमहर्षक घटनाओं के विवरणों से अखबार रंगे हुए थे। मैंने खुद अपने छत से यह खूनी खेल देखा था, उसे सोचते हुए मेरी रूह फना हो गयी थी।
जैसे यह तूफान शांत हुआ अग्रवाल सर दौरे पर आए और मुझसे पहला सवाल पूंछा – ‘हाऊ यू हैव प्रिडिक्टेड दिस ट्रेजिडी’?
मैंने उन्हें बताया कि जिस तरह से पंजाब में उग्रवाद पनप रहा था, उसकी परिणति इस तरह की घटना होनी ही थी।
इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी देश के प्रधानमंत्री हुए। वे राजनीति से दूर रहना चाहते थे लेकिन नियति कोई दूसरा खेल खेल रही थी। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद जो सहानुभूति पैदा हुई थी, उसका फायदा पार्टी को मिलने वाला था, इसे वोट में बदला जा सकता था। हमारे जीवन में नहीं वरना राजनीति कम विडम्बनापूर्ण नहीं होती। जो राजीव गांधी सत्ता से दूर रहना चाहते थे, उन्हें इस सत्ता का हिस्सा बनना पड़ा। एक अच्छा–खासा आदमी किस तरह राजनीति के दलदल में फंस कर अपने मूल स्वभाव को भूल जाता है। लिट्टे के प्रभाकरन से उनके अच्छे सम्बंध थे लेकिन उन्हें उसके खिलाफ शांति सेना भेजनी पड़ी और इसी कारण उनकी दारूण हत्या हुई। कभी–कभी हमारे जीवन में बहुत सी घटनाएं बलात् होती हैं, हम उसके जिम्मेदार भी नहीं होते। राजनीति में ये नियति के खेल खूब होते हैं। यह सब लिखते हुए मुझे शेक्सपियर के नाटकों का ध्यान आता है – सत्ता को हासिल करने और उसे स्थायी बनाए रहने के लिए क्या–क्या षड़यंत्र किए जाते है। हत्या से ले कर विश्वासघात की अनेक घटनाएं इस राजनीति में होती है।
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मथुरा सिर्फ धर्म की नगरी नहीं थी न यह कृष्ण के बाल-लीलाओं का परिक्षेत्र रही है। इतिहास में मथुरा अपने मूर्ति शिल्प के लिए ख्यात रहा है। तीसरी शताब्दी ई. पूर्व से ले कर बारहवी सदी तक यह मूर्ति-कला किसी न किसी रूप में पुष्पित और पल्लवित होती रही है। बुद्ध के जीवन के तमाम दृश्य इस कला में दृश्यमान थे। कुषाणकालीन समय में गांधार कला का अपना महत्व था। गांधार मूतिकला में यूनान का प्रभाव भी देखा जा सकता है। मथुरा मूर्तिकला हो या गांधार शैली की प्रतिमायें इसमें लोक-तत्व भी सम्मिलित है। इन मूर्तियों में यक्ष और यक्षणियों की मूर्तियां भी मिलती थी। मथुरा प्रवास में मैंने देखा है कि कृष्ण वहां के जीवन और संस्कृति में इतना व्याप्त है कि मूर्तिकलाओं के इतिहास की कोई चर्चा तक नहीं होती है, जैसे कि अयोध्या राम के जन्मभूमि और संस्कृति की चर्चा तो होती है लेकिन बौद्ध और जैन धर्म का कोई उल्लेख नहीं होता। जैन धर्म के कई तीर्थंकरों का यह स्थल रहा है। बुद्ध–चरित के रचयिता अश्वघोष यही पैदा हुए थे लेकिन जब से राजनीति में धर्म शामिल हुआ है लोगों की दृष्टि एकांगी हो गयी है। कितना अच्छा होता कि धर्म के क्षेत्र में समन्ववादी नजरिया अपनाया जाता।
हां, ऐसी जगहों में प्राचीन मूर्तियों की चोरी की घटनाएं अक्सर खबरों में रहती हैं। अंतरराष्ट्रीय बाजार में दुनिया में इन मूर्ति शिल्पों की अच्छी कीमत मिलती है, यह भी सुनने में आया था कि मूर्ति माफिया असली मूर्ति की जगह उसी तरह की वास्तविक सी लगने वाली मूर्ति लगा कर मूल मूर्ति को गायब कर देते हैं। जाहिर सी बात है कि यह सब काम किसी एक आदमी के दम से नहीं होते, यह काम एक गिरोह के जरिये किया जाता है। इस कृत्य को जानने के लिए – ‘जानी मेरा नाम’, फिल्म देखी जा सकती है। धर्म के बाजार में विस्मयकारी घटनाएं होती रहती हैं, यह भी इसका एक हिस्सा है।
मथुरा–प्रवास में सत्यभक्त जी को भूलना कठिन होगा। वे कम्युनिस्ट पार्टी के अप्रतिम कामरेड थे, आजादी की लड़ाई में संघर्ष किया और जेल गये थे उन्होंने अपना जीवन पार्टी के लिए होम कर दिया लेकिन आजादी के बाद एकदम अकेले हो गये थे, पार्टी ने उन्हें भुला दिया था। रामविलास शर्मा ने अपनी किताब ‘मार्क्स और पिछडे हुए समाज’ में उन्होंने उनका उल्लेख किया है। अपने अंतिम दिनों में वे गायत्री परिवार के युग निर्माण योजना के मुख्यालय में अंतिम वर्ष व्यतीत किये थे। इस योजना के संस्थापक पं श्रीराम शर्मा थे, वे ‘अखंड ज्योति’ नाम की एक धार्मिक पत्रिका का सम्पादन करते थे जो मध्यवर्गीय परिवार में बहुत लोकप्रिय पत्रिका थी। इसके साथ वे छोटी–छोटी पुस्तिकाओं का प्रकाशन भी करते थे, बताया यह भी जाता था कि सत्यभक्त उनके नाम से लिखते थे।
एक दिन कुछ मित्रों ने उन्हें खोज निकाला, एक गोष्ठी का आयोजन किया गया। वह उम्र के कारण स्पष्ट नहीं बोल पाते थे लेकिन उनका यह वाक्य याद है, उन्होंने कहा था कि जिस देश की आजादी के लिए हम लोगों ने इतनी कुर्बानी दी हैं, वह देश गलत लोगों के हाथ में चला गया है। यह बात कहते हुए वे फफक कर रो पड़े थे।
॥उन्नीस॥
सिनेमा लगातार बदल रहा था उसी के साथ टेलीविजन का विस्तार हो रहा था। एशियन खेल के दौरान टेलीविजन का पर्दा रंगीन हो चुका था। इस तरह की क्रांति सिनेमा की दुनिया में भी हुई थी, जब फिल्में श्वेत-श्याम से ईस्टमैन कलर की दुनिया में पहुंच चुकी थी। टी. वी. के दर्शक श्वेत–श्याम रंग से निकल कर रंगों की दुनिया में छलांग लगा चुके थे। टेलीविजन का रंग नहीं बदला था बल्कि लोगों के मिजाज भी बदल रहे थे – सोच–समझ में तब्दीली आ रही थी। यह सब एक फैटैंसी की तरह था।
दुनिया की यथार्थवादी फिल्में ब्लैक एंड ह्वाइट में बनी थी। हिटलर के यातना–शिविर पर विश्व प्रसिद्ध फिल्म ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की सहज याद आ रही है – यह फिल्म जानबूझ कर श्वेत-श्याम में बनायी गयी थी क्योंकि इस माध्यम में हकीकत के रंग ज्यादा स्पष्ट होते हैं। हिंदी फिल्म ‘तीसरी कसम’ को इसी कारण ब्लैक एंड ह्वाइट में बनाया गया। सोचिए अगर इस फिल्म को रंगीन बनाया जाता तो उसमें हिरामन नहीं राज कपूर ही नजर आते।
मजा यह है कि कोई सच्चाई का रंग नहीं देखना चाहता– वह कल्पना के रंगीन संसार में सैर करना चाहता है। टी. वी. के परदे पर इस रंग की कल्पना ही नहीं की जा सकती – यह तो अवास्तविक संसार है जिसे हम सच समझने लगते हैं।
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सन् 1984 में ‘हम लोग’ जैसे सीरियल से सोप ओपरा की शुरूआत हुई। सूचना एंव प्रसारण मंत्री वसंत साठे मैक्सिको की यात्रा पर गये थे, वहीं से उन्हें यह विचार मिला। भारत के लिए सोप ओपरा नया शब्द था, दरअसल अमेरिका और मैक्सिको में रेडियो या टी. वी पर जिस तरह के धारावाहिकों का प्रसारण होता था उसके प्रायोजक मशहूर साबुन कम्पनियां होती थी। साबुन मध्यवर्गीय जीवन का मुख्य प्रसाधन है। आज भी साबुन के विज्ञापन में हम अभिनेत्रियों/माडलों को देखते हैं और उनके ब्रांड का साबुन इस्तेमाल करने का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे – उससे हमें मानसिक रति मिलती है। विज्ञापनों का संसार बेहद रोचक और रहस्यपूर्ण है। माडलों की मुस्कान हमें धोखे में डाल देती है, हम गफलत में खराब चींजें खरीद लेते हैं।
‘हम लोग’ धारावहिक के लेखक मनोहर श्याम जोशी थे। वे हिंदी के प्रसिद्ध लेखक और पत्रकार थे। उनके मशहूर उपन्यास ‘कुरू कुरू स्वाहा’, ‘हरिया हरक्युलिस की हैरानी’, ‘हमजाद’ और ‘कसप’ है। वे साप्ताहिक हिंदुस्तान के सम्पादक के साथ अन्य पत्र–पत्रिकाओ के सम्पादक रह चुके थे। हम लोग धारावाहिक 154 एपीसोड प्रसारित हुए थे। यह मध्यवर्गीय जीवन का महाकाव्य था। इस धारावाहिक में जीवन की बिड्म्बनायें एवम अंतर्विरोध का जो चित्रण किया गया है, वह हमें हैरान करता है। इस धारावाहिक के पात्र विसेसर, लल्लू, भागमती, बडकी, छोटे, नन्हे घर-घर में बातचीत के विषय बन गये थे। इस धारावाहिक में काम करने वाले पात्र बिल्कुल नये थे। एपीसोड के अंत में अभिनेता अशोक कुमार की भूमिका सूत्रधार की भूमिका निभाते थे, वे किसी न किसी भारतीय भाषा में दर्शको को सम्बोधित करते थे। उनका यह अंदाज निराला था। इस सोप ओपेरा के निर्देशक पी. कुमार वासुदेव थे।
धीरे–धीरे धारावाहिकों के चोर-दरवाजे से बाजार दस्तक दे रहा था। जैसे–जैसे निजी चैनलो का आगमन हुआ, बहुराष्ट्रीय कम्पनीयों की आमद बढ़ती गयी। ये भी याद किया जाना चाहिए कि मैगी नूडल का सर्वप्रथम परिचय इसी धारावाहिक से हुआ था। मैगी आज के समय में बच्चों और बड़ों की खाद्य-सामग्री बन चुकी है। कोई ऐसा घर नहीं होगा जहां मैगी उपलब्ध न हो। बहुराष्ट्रीय कम्पनियां सिर्फ अपने प्रोडक्ट ही नहीं बेचती अपनी संस्कृति से हमारा परिचय कराती हैं। आज लोग ‘हम लोग’ सीरीयल को भूल चुके हैं लेकिन मैगी–नूडल हमारी संस्कृति का हिस्सा बन चुकी है।
धारावाहिक ‘बुनियाद’ |
सन् 1986 में एक अन्य धारावाहिक ‘बुनियाद’ का प्रसारण हुआ। इसके लेखक भी ‘हम लोग’ के लेखक मनोहर श्याम जोशी थे। इसका कथानक ‘हम लोग’ से अलग था। ‘हम लोग’ मध्यवर्गीय जीवन का आख्यान था। मध्यवर्ग के जीवन–संघर्ष और उसकी बिडम्बनाओं को कथा–विषय बनाया गया था, वही पर ‘बुनियाद’ की कहानी 1920 से 1970 तक के समय के हलचलों तक फैली हुई थी। आजादी की जंग, विभाजन की त्रासदी और विस्थापन की कथा थी। यह धारावाहिक ‘हम लोग’ से अलग था, उससे ज्यादा यथार्थवादी था। लेखक ने उस समय की छवियों और प्रति- छवियों का भरपूर उपयोग किया गया था। इसके निर्देशक रमेश सिप्पी थे। आलोक नाथ ने हवेली राम, अनिता कंवर ने लाजो, दिलीप ताहिल ने कुलभूषण और मजहर ने रोशन लाल की भूमिका का बखूबी अभिनय किया था। इस धारावाहिक के 105 एपीसोड प्रसारित हुए थे।
इसी बीच भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का प्रसारण हुआ था। यह उपन्यास भारत-पाक के विभाजन की त्रासदी पर आधारित था। इस धारावाहिक में ओम पुरी और दीपा शाही ने विलक्षण अभिनय किया था। यह धारावाहिक विवादास्पद था, इसकी आठ कड़िया ही प्रसारित हुई थी। इस धारावाहिक के निर्देशक प्रसिद्ध फिल्मकार गोविंद निहलानी थे, वे ‘अर्धसत्य’ फिल्म से विख्यात हो चुके थे। इसी बीच नेहरू की कृतियों पर ‘भारत – एक खोज’ धारावाहिक का प्रसारण हो रहा था – यह ‘चंद्रकांता संतति’ जैसे लोकप्रिय सीरियल का भी समय था। मिथकों पर आधारित ‘विक्रम और बैताल’ भी चल रहा था।
1984 के बाद से धारावाहिकों का दौर शुरू हो चुका था। फिल्मी दर्शकों को फिल्मों के अतिरिक्त सीरियल उनके मनोरंजन के साधन बन चुके थे। ‘चित्रहार’ कार्यक्रम को अपूर्व सफलता मिल चुकी थी, लोग इस कार्यक्रम के लिए पागल हो चुके थे। इस प्रोग्राम की प्रस्तुति अदभुत थी। इस तरह की लोकप्रियता अमीन सयानी के ‘बिनाका गीत माला’ को ही मिली थी। लोग ‘चित्रहार’ को सपरिवार देखते थे – उस समय सबके पास टी.वी. नहीं होती तो लोग पड़ोस में इस प्रोग्राम को देखते थे। जिसके पास टेलीविजन होता था, उसकी शान अलग होती थी।
धारावाहिकों के इतिहास में अगर ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ का जिक्र न किया जाय तो चर्चा अधूरी रह जायेगी। इन दोनों धारावाहिकों का प्रसारण क्रमश: 1987 और 1989 में हुआ था। फिल्मों के निर्माता–निर्देशक टेलीविजन की तरफ मुड़ रहे थे – वहां उन्हें व्यवसाय की सम्भावनाये दिख रही थी। रामानंद सागर ने ‘रामायण’ सीरियल बनाया और दर्शको को त्रेता युग में पहुंचा दिया। इस धारावाहिक का आधार बाल्मिकि रामायण और तुलसीदास कृत रामचरितमानस थी और कुछ उनकी कल्पनाशीलता थी। यह रामानंद सागर कृत ‘रामायण’ थी। तुलसी दास की तरह उन्होंने राम के जीवन के अप्रिय प्रसंगों को छोड़ दिया था ताकि भक्त दर्शक आहत न हो। इस धारावाहिक के दृश्यों को इतना भावुक बना दिया गया था कि वे कहीं न कहीं कृत्रिम लगने लगे थे। धार्मिक दर्शक यथार्थवादी नहीं होते हैं, वे प्रिय पात्र के प्रति श्रद्धा से भरे होते हैं। उत्तर भारत में रामायण की कथा लोकजीवन में व्याप्त है, यह उनके जीवन का हिस्सा बन चुका था। इस धारावाहिक ने राम के जीवन-प्रसंगों को जीवित कर दिया था। यह अब तक के सर्वाधिक लोकप्रिय धारावहिकों में से एक था।
यह सीरियल सुबह 9 बजे और रात को इसी समय प्रसारित होता था। रेलगाड़ियां और बसें तक रूक जाती थी, लोग रास्ते में ठहर कर ‘रामायण’ देखते थे, उनका जुनून देखते बनता था। इस दौर में टी. वी की खूब बिक्री हुई। मुझे याद है कि जब कोई अधिकारी आता था, उसके लिए रामायण देखने की व्यवस्था करनी पड़ती थी। सर्किट हाउस में एंटिना और टी वी के सेट का इंतजाम करना पड़ता था। राम के रूप में अरूण गोविल और सीता के रोल में दीपा चिखलिया को राम–सीता की जोड़ी को सामाजिक स्वीकृति मिल चुकी थी। यह बेहद भावुक समय था, लोग रससिक्त हो चुके थे। इस सीरियल की समाप्ति के बाद उनके दुनिया भर में स्टेज शो हुए। लोग उनके चित्र घर में लगाने लगे थे, उनकी तस्वीरे बिकने लगी थी। यह धार्मिक व्यवसाय का नया रूप था जिसे बाजार गढ़ रहा था।
जिस तरह ‘हम लोग’ में अशोक कुमार सूत्रधार की भूमिका निभाते थे, उसी तरह रामानन्द सागर एपीसोड के अंत में प्रवचन देते थे। उनकी भाव–भंगिमा देखते बनती थी। बाद में इस धारावाहिक के वीडियों कैसेट बनाये गये और उसकी रिकार्ड तोड़ बिक्री हुई ।
जिस तरह की भाव–विह्वलता रामायण में दिखाई गयी थी, वह महाभारत सीरियल में कम थी। महाभारत के निर्माण के पीछे नरेंद्र शर्मा और सम्वाद लेखक राही मासूम रजा जुड़े हुए थे। नेपथ्य में हरीश भिमानी की आवाज थी। यह बी आर चोपड़ा का आयोजन था, जो हिंदी फिल्मों के पितामह थे। इस धारावाहिक का निर्देशन रवि चोपड़ा ने किया था। राही मासूम रजा के सम्वाद जानदार थे, उन्होंने इस धारावाहिक को वर्तमान से जोड़ दिया था। इस धारावाहिक में मजे हुए अभिनेता थे। भीष्म की भूमिका में मुकेश खन्ना, गिरजा शंकर - धृतराष्ट्र, सुरेन्द्र पाल, नितीश भारद्वाज, अर्जुन, भीम के रोल में प्रवीण कुमार थे। दुर्योधन और कर्ण, शकुनि की भूमिका में क्रमश: पुनीत इस्सर, पंकज धीर, गुफी पटेल जैसे अभिनेता थे, उनकी सम्वाद-अदायगी अदभुत थी। महाभारत के युद्ध को यथार्थवादी बनाने के लिए घोड़े, हाथी, रथ और पैदल सैनिकों की उचित व्यवस्था की गयी थी। इसमें संदेह नहीं है कि ‘महाभारत’ सीरियल ‘रामायण’ से ज्यादा वास्तविक दिखता है।
॥बीस॥
रामायण और महाभारत दोनों महाकाव्यों में सत्ता-संघर्ष है। राम पिता के वचन का मान रख कर वनगमन कर जाते हैं। प्राण जाय पर बचन न जाई.. की रीति की रक्षा करने में अपने जीवन को लगा देते हैं लेकिन महाभारत में इस तरह का आदर्शवाद नहीं है, वहां दोनों पक्ष में कोई किसी से कमजोर नहीं था। धर्मवीर भारती के नाटक ‘अंधायुग’ का एक अंश देखे – टुकड़े–टुकड़े हो बिखर चुकी मर्यादा/ पांडव ने कुछ कम कौरवों ने कुछ ज्यादा..। सम्वाद लेखक राही मासूम रजा ने इस सूत्र को पकड़ कर इस धारावाहिक के सम्वाद लिखे हैं दोनों पक्षों के बीच कृष्ण जैसे सिद्ध राजनीतिज्ञ थे। इस धारावाहिक की भाषा नाटकीय थी जैसे हम किसी स्टेज शो को देख रहे हो। राही एक मशहूर पटकथा लेखक के साथ वामपंथी चिंतक थे – उनकी भाषा सीधे मर्म पर चोट करती थी। किस तरह वे महाभारत के मिथक को आज की राजनीतिक स्थिति से जोड़ते थे, यह देखना अदभुत था। यह सीरियल रामायण की तरह मकबूल नहीं हो सका। दर्शक यथार्थ से ज्यादा भावुकता को पसंद करते हैं। रजा को इस धारावाहिक का संवाद लिखने के लिए हिंदूवादियों ने एतराज उठाया और हाईकोर्ट चले गये लेकिन विद्वान न्यायाधीश ने इस रिट को खारिज कर दिया।
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इन सीरियलों ने दर्शको को फिल्म से विमुख करने का काम किया था। मनोरंजन बेड–रूम में पहुंच चुका था, उसके लिए घर से बाहर निकलने की जरूरत नहीं रह गयी थी। जो दर्शक सिनेमाहाल जाते थे, वे अपने घर में ही ठहर गये थे। सिनेमाहालों में दर्शकों की संख्या कम होने लगी। शासन ने इसे गम्भीरता से लिया, सिनेमा के निर्माण के कर अनुदान योजना की योजना बनाई। इस योजना के तहत यह प्राविधान बनाया कि जो भी सिनेमाहाल का निर्माण करेगा उसे पांच साल के लिए कर में छूट दी जायेगी। यह योजना छोटे शहरों और कस्बों के लिए मान्य थी। छोटे कस्बों के टूरिंग टाकीज पक्के सिनेमाहाल में बदलने लगे। टूरिंग टाकीज में सपरिवार फिल्में नहीं देखी जा सकती थी, इसमें बैठने की कोई सुविधा नहीं थी। अधिकतर दर्शक उजड्ड किस्म के होते थे, फिल्म के दृश्य को देख कर जिस तरह कमेंट करते थे, वे भदेस होते थे।
अनुदान योजना के अंतर्गत बनने वाले सिनेमाहालों में हर वर्ग के लोग आने लगे थे। चूंकि टैक्स माफ था इसलिए नयी–नयी फिल्में प्रदर्शित की जाने लगी थीं। फिल्में किस तरह सामाजिक जीवन को बदलती हैं, इसे करीब से देख चुका था। लड़के–लड़कियों की आंगिक भाषा में परिवर्तन साफ-साफ दिखाई देता था, उनके पहनावे मुखर और सम्वाद बदलने लगते थे। वे नाटकीय होने लगते थे। लड़के पान की दुकानों के आइनों में अपना चेहरा देखने लगते थे। लडकियों के साज–श्रृंगार तीक्ष्ण होने लगते थे। प्रेम–प्रसंग खूब चलते थे। लड़के-लड़कियों के भागने की घटनाएं घटित हो रही थीं, परम्परागत समाज बदल रहा था, उसमें आधुनिकता अपनी जगह बना रही थी। कल्पना–लोक का विस्तार हो रहा था लेकिन आधुनिकता का तर्जुमा जिस तरह से किया जा रहा था, वह स्वाभाविक नहीं था, उसमें बलात् चेष्टा थी। विचार नहीं पोशाक आधुनिक थी। सिनेमा हो या धारावाहिक उसके अदृश्य–दरवाजे से अमेरिकन संस्कृति का अबाध प्रवेश हो रहा था। बैन और वर्जित फिल्मों से बाजार पट गया था – इसमें वे भी फिल्में थीं जो भारतीय सभ्यता के विरूद्ध थीं। युवा दर्शक ऐसी फिल्मों को देख कर अराजक और बेलगाम हो रहे थे। ये फिल्में समाज के लिए नीला जहर थीं – उसका जहर समाज के नस और नाड़ियों में फैल रहा था। फिल्मों और टी. वी. चैनलों पर कल्चर और वल्चर निर्मित हो रहा था। समाज के मूल्य बदल रहे थे – उस दौर को ले कर अगर समाजशास्त्रीय अध्ययन किये जाये तो लोमहर्षक नतीजे निकलेंगे।
इसी दौर में स्वाद–परिवर्तन के लिए एडल्ट फिल्में परोस दी जाती थीं। इन फिल्मों से अधेड़ दर्शको को नये व्यंजन का स्वाद मिलता था। युवा भी इस तरह की फिल्मों का लुत्फ चोरी–चोरी उठा लेते हैं। मुझे याद आ रहा कि एक बार मुझे पश्चिम के किसी जनपद में निरीक्षण के लिए भेजा गया था, वहां एडल्ट फिल्म लगी थी। जब फिल्म खत्म हुई तो मैंने देखा कि लोग अंगोछे से अपना चेहरा ढ़के हुए हैं। मैंने मैंनेजर से इसका कारण पूछा तो उसने बताया लोग अपना चेहरा नहीं दिखाना चाहते हैं। मुझे इस तरह के दर्शकों को देख कर नकब काटने वाले चोरों की याद आयी।
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तबादले वाली नौकरी टूरिंग टाकीज की तरह थी, जिस जनपद में ट्रांसफर होता था, वहां अस्थायी निवास बनाना पड़ता था। ट्रक पर सामान लाद कर एक जगह से दूसरी जगह ले जाना कम यातनादायक नहीं था। शहर में मकान खोजना और उसमें बसना और कुछ साल बाद उजड़ना पीड़ादायक अनुभव था। शहरों में ढ़ंग़ के मकान नहीं मिलते थे – मकान मालिक किरायेदारों को अपनी रियाया समझते थे। उनकी शर्ते अजीब होती थी - आप कितने ही बड़े ओहदे पर हो वे आपके शासक होते हैं। बेढ़ंगे मकानों का किराया मनमाने तरीके से वसूलते थे।
ट्रांसफर होने और दूसरे शहर में स्थापित होने के बीच का समय बहुत थकाऊ और उबाऊ होता था। आप एक नये संसार में आ पहुंचते है और उस शहर का ककहरा सीखते हैं – अपने तरह के लोगों को खोजते हैं। सिनेमा मालिकों की प्रकृति लगभग एक तरह की होती है, वे अपने हित की चिंता में लगे रहते थे।
ट्रक में घरेलू सामान का लादना एक ऐसी प्रक्रिया होती है कि जी थक जाता था। ट्रक से यात्रा करने के अनुभव बहुत रोचक होते थे, बीच–बीच में पुलिस वसूली करती थी, मुआवजा न देने पर बेकार की पूछताछ करती थी। ट्रक ड्राइवर रात में ऐसी जगह रोकते थे – जहां होटल और दिशा-मैदान के लिए जगह हो। पास में शराबखाना हो तो क्या कहने? यह सब ट्रक ड्राइवर की सुविधा और मौज पर निर्भर करता था। एक बार ट्रक ड्राइवर ने मुझे ऐसी जगह रोका था, जहां सारी सुविधायें थी। वह हमें वहां छोड़ कर कहीं गायब हो गया, मैं अकेले वियाबान में रह गया था। बारह बजे रात तक उसका इंतजार करता रहा, फिर मैंने खाना खाया और अगली सीट पर लम्बा हो गया। यह बात मुझे परेशान करती रही कि वह आखिर कहां गया होगा। मन नहीं माना तो होटल-मालिक से उसके बारे में पूछा तो वह मुस्कराने लगा।
उसने मुझे बताया कि वह अपनी गर्ल–फ्रेंड से मिलने गया है।
... उसकी गर्ल-फ्रेंड कहां रहती है?
... थोड़ी दूर पर एक गांव है, वहीं पर वह रहती है।.. सालों साल भर इस शहर से उस शहर माल ले कर आते–जाते हैं, परिवार से मिलने का वक्त नहीं मिलता है इसलिए इधर–उधर अपनी प्यास बुझाते रहते हैं। बाबू जी आप चैन से सोइए, किसी चीज की जरूरत हो तो मुझे बताइएगा, वह समय पर आ जाएगा।
मैं क्या कहता, बस चुप हो कर रह गया। मुझे उसके जाने की कहानी मालूम हो चुकी थी, मैं मुक्त हो कर सोने की कोशिश करने लगा। नयी जगह होने के कारण नींद रूक–रूक कर आती रही। ट्रक ड्राइवर की नौकरी मुझे विचित्र लगती थी, वे भीड़ भरी जगह से ट्रक को जहाज की तरह निकालते थे। रात में हाईवे पर उनकी रफ्तार तेज हो जाती थी – उस पर बैठ कर यात्रा करना जोखिम का काम था – जैसे समुंदर में कोई पानी का जहाज डोल रहा हो। रास्ते में उनके रूकने के ठिकाने होते थे, वहां वे चाय आदि पीते, बीड़ी सुलगाते – फिर आगे की तरफ बढ़ते। ट्रांसफर के मामले में मैं बड़ा खुशनसीब रहा हूं – मुझे एक दो साल से ज्यादा टिकने नहीं दिया जाता था। शुरू से मेरी इस विभाग से अदावत थी – मुझे तंग करने का कोई न कोई तरीका वे निकाल लेते थे।
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मेरा अगला बंदरगाह गोरखपुर था, यह मेरे सपनों का शहर था जहां मुझे अनेक तरह के अनुभव मिले – कुछ अच्छे तो कुछ बुरे। इस शहर ने मुझे रचा था - यह शहर मेरे लिए प्रयोगशाला की तरह था - मुझे यहां बहुत से तजुर्बे हुए। यहां मैं छोटे शहर से पढ़ने के लिए आया था और यहां पहली बार बहुत सी चीजें घटित हुई थी। यहां मुझे पहली बार प्रेम हुआ तो मुझे लगा कि जीवन में कोई चमत्कार शुरू हो रहा हो – मैं बिना पंख के हवा में उड़ रहा था। अब मैं काफी दिनों बाद अपने शहर में लौट रहा था – जैसे जंग जीत कर कोई विजेता लौट रहा था। दशक बाद मैं इस शहर में वापस हो रहा था – बहुत दिनों बाद किसी शहर में लौटने के बाद हम परिवर्तनों को लक्षित कर सकते थे। छोटे मकान बड़ी इमारतों में बदल चुके थे – कई होटल और रेस्तरा खुल चुके थे। लड़कियां आधुनिक हो चुकी थीं – उनके भीतर पहले जैसा संकोच नहीं रह गया था। लड़के भी निर्भीक हो चुके थे – भले ही वे बोलते समय हकलाते हो लेकिन उनके भीतर आत्मविश्वाश आ गया था। जब हम लोग इस शहर में आये थे तो अपने भीतर छिपे हुए रहते थे – कंठ ही नहीं खुलते थे। धीरे–धीरे हम अपने देहाती संस्कार से मुक्त हुए।
जब मैं इस शहर में पहुंचा तो मुझे यह शेर याद आया -
बस्ती–बस्ती ठोकर खा कर जाने यह क्या हाल हुआ
अपने शहर में पांव जो रखा लिपट गये दीवारों से।
सचमुच इस शहर से लिपटने का जी करता था। शहर कोई ऐसा भूखंड नहीं होता, जहां हमारी स्मृतियां न बसती हों। हमें तमाम बेशुमार लम्हें याद आने लगे थे – अपनी बुद्धिमानी से ज्यादा बेवकूफियां याद आती थीं। आवारगी का पहला पाठ मैंने इसी शहर से सीखा था फिर उसे जीवन-मूल्य के रूप में विकसित किया। अभिजात किस्म के लोगों और अपने आप को बड़े अफसर के रूप पेश करने वालों को मैं हमेंशा झंड करता रहा। वे कागज के फूल की तरह खूबसूरत तो दिखते थे लेकिन स्वभाव से गंधहीन थे।
यह वहीं शहर गोरखपुर था जहां हम छिप-छिप कर सिनेमा देखते थे। अब वह रोमांच मेरे पास नहीं था। अब मैं अपनी मर्जी से किसी सिनेमाहाल में किसी शो में सिनेमा देख सकता था लेकिन उम्र के साथ यह आवेग कम होता गया था। जो चींजें सर्वसुलभ होती हैं, उसमें कोई आकर्षण नहीं होता।
बहरहाल यहां पहुंच कर अपने पुराने तार जोड़ने और कुछ रिश्ते को पुनर्जीवित करने में लग गया। दोस्तों को मेरे आने से खुशी हुई, कुछ नये दोस्त भी बने। मेरे साथ मेरा अवगुण भी साथ था – वह यह था कि मैं कविता लिखता था। मेरे महकमे में इस काम कोई तरजीह नहीं दी जाती थी, उसे सरकारी काम में बाधक माना जाता था। उन्हें लगता था कि कविता लिखना दोयम दर्जे का काम है। इन अल्पज्ञानियों को कोई क्या समझाये कि यह गम्भीर कर्म है। कवि की इस अवधारणा के पीछे उन कवि-सम्मेलनी कवियों की इमेज काम कर रही थी जो तुकबंदी को ही कविता मान बैठे थे। वे लम्बे-लम्बे बाल बढ़ाते और किसी न किसी स्त्री के प्रेम में मशगूल रहते थे, वे मिलन और विरह के गीत लिखते और उसे करूण-रस में गाते थे। कवि-सम्मेलनों में उन्हें मुफ्त की शराब मिलती थी और वे उसे पी कर मंच पर ही टुन्न हो जाते थे। उनके कविता-पाठ से हम भांप जाते थे कि ये पिये हुए हैं। वीर-रस के कवियों का उत्साह देखते बनता था – वे अपने आंगिक भाषा और पद-संचालन से स्टेज को हिला देते थे। वे आशु-कवि थे - स्टेज पर बैठे-बैठे कवित्त रच देते थे। हिंदी कविता इस आशु और तुकबंदी वाली कविता से भिन्न थी।
इन कवि-सम्मेलनों में जा कर भले ही काव्य का सुख न मिले लेकिन मनोरंजन भरपूर मिलता था। कईयों के नाम पशुओं के अंगों पर रखे हुए होते थे – वे पाठ से समय उसे चरितार्थ करते रहते थे। धीरे-धीरे कवि सम्मेलन लाफ्टर चैनल में बदलते गये – जो जितना हंसाता था, वह उतना सफल माना जाता था।
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महकमें के बड़े अफसर आते और मुझे समझाते कि यह कविता-वविता छोड़ कर काम में मन लगाओं तो सुखी रहोगे। इस तरह की सलाह देने वाले कम नहीं थे लेकिन मैं कहां बाज आने वाला था, यह रोग बचपन से ही लग गया था। पिता भी मेरी इस काव्य–प्रतिभा से प्रसन्न नहीं थे। बड़े अफसर आते तो उनसे परिचय कराते हुए यह भी व्यंग से कहा जाता था कि कविता भी लिखते है, उनकी इस बात से उनके मुंह का जायका खराब हो जाता था। उन्हीं दिनों मुझे कविता का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार मिला था। मेरी कविता के साथ मेरा चित्र भी धर्मयुग और साप्ताहिक हिदुस्तान में प्रकाशित हुआ था – वह प्रति मैंने अपने बैग में छिपा रखी थी जिसे डायरी निकालते समय कमीश्नर के पी. ए. ने देख लिया था, उन्होंने उसे मुझसे पढ़ने के लिए मांग लिया था। जब उन्होंने मेरे परिचय और फोटो के साथ मेरी कविता पढ़ी और यह कहा –क्यों न इसे साहब को दिखाया जाय। मैं तो डर के मारे कांप रहा था कि अब डांट जरूर पड़ेगी। पी. ए. ने मुझे आश्वस्त करते हुए कहा – घबड़ाइए नहीं, इससे बास पर अच्छा इप्रेशन पड़ेगा। पहले वे बड़े साहब के पास अकेले गये फिर थोड़ी देर बाद मुझे तलब किया गया। यह तो कमाल हो गया था जो अफसर मुझे बात-बात पर डांटता था, वह मेरी तारीफ करने लगा। उन्होंने कहा - यह राज-काज है मातहतों के साथ अभी न चाहते हुए डांट-फटकार करनी पड़ती है, तुम अच्छा लिख रहे हो, इसे जारी रखो ..।
यकीन मानिए उनके ये वाक्य सुन कर मुझे घनघोर ताज्जुब हुआ। मैं बहुत दिनों तक खुश रहा, विभाग में कोई तो मिला जिसने मेरे बारे में इतनी सकारात्मक बातचीत तो की। साहित्य क्या लीक से हट कर बात करने पर विभाग के लोगों को अच्छा नहीं लगता था – वे विषयांतर होने लगते थे। उन्हें फालतू बातों में सुख मिलता था, गम्भीर विमर्श से बचते थे – हां विभागीय कार्य-कलापों के वर्णन में घंटों गुजार देते थे। मैं उन लोगों के बीच मिसफिट था। मेरी दुनिया अलग थी।
गोरखपुर प्रवास में मित्रों से मिलना जुलना जारी रहा। भारत यायावर, अनिल जनविजय आते-जाते रहे। देवेंद्र कुमार बंगाली, परमानंद श्रीवास्तव, बादशाह हुसेन रिजवी, मदन मोहन, देवेंद्र आर्य, महेश अश्क, सुरेंद्र शास्त्री मेरे डेरे पर आते थे और मुझे धन्य करते रहते थे। केदार नाथ सिंह जब भी गोरखपुर आते थे, उनका स्नेह मिलता रहता था। वे मेरे आग्रह को टालते नहीं थे। याद करने को कितना कुछ है मेरे पास लेकिन बहुत से दृश्य अतीत के तहखाने में दाखिल हो चुके है। सबसे ज्यादा चटख याद प्रिय मित्र सुरेंद्र काले की है, उनके बिना मेरे जीवन का वृत पूरा नहीं हो सकता है। वे अंतिम दिनों तक किसी न किसी के प्रेम में मुब्तिला रहते थे और प्रेम कवितायें लिखते रहते थे।
एक बार की बात है वह रात में मुझे शहर के बक्सीपुर मुहल्ले में ले गये, उन्होंने एक मकान का दरवाजा खटखटाया, जिसे एक अधेड़ औरत ने खोला था। मै तो चौंक गया, उन्होंने एक मित्र के रूप में परिचय कराया। जैसे हम बैठक में बैठे, उन्होंने कहा – कुछ रखी हुई हो – यह कहते ही वह बोतल और गिलास लेकर प्रकट हो गयी। मैं उसे चोर-निगाहों से देख रहा था, अपने युवा दिनों में यह औरत खूबसूरत रही होगी । सुरेंद्र काले के अलावा देवेंद्र कुमार बंगाली और बादशाह हुसेन रिजवी मेरे आत्मीय थे। बादशाह भाई तो मेरे हमवतन थे, वे बातों के भी बादशाह थे, उर्दू और अवधी के सम्मिश्रण से ऐसी बातें करते थे कि तबियत प्रसन्न हो जाती थी।
ये दोनों प्राणी रेलवे दफ्तर में कारकून थे, इसी दफ्तर में माधव मधुकर और हरिहर सिंह भी काम करते थे। वे सब एक बड़े हाल में बैठते थे, उनकी नोंक–झोंक में बहुत मजा आता था। नवनीत मिश्र रेडियो में समाचार पढ़ते थे और बहुत अच्छी कहानियां लिखते थे। मैं उनका मुरीद था। उन दिनों कवि सत्येंद्र कुमार रघुवंशी सिटी मजिस्ट्रेट थे, उनके प्रेम को भूलना कठिन है, वे अब तक मेरे मित्र बने हुए है। नौकरी के रेगिस्तान में ये लोग मेरे लिए छोटे–छोटे नखलिस्तान थे, जहां से मुझे जीने की उर्जा मिलती थी।
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उन दिनों शहरों में खूब वीडियों–लाइब्रेरियां खुल रही थी, लोग वीडियो – वी सी आर किराये पर लेते और परिवार के साथ फिल्म देखने का लुत्फ उठाते थे। उन दिनों वी. सी. आर . खरीदना आसान काम नहीं था इसलिए उसे लोग किराये पर मंगा लेते थे और सिनेमाहाल जाने से बच जाते थे। उन्हें प्यास बुझाने के लिए कुंये के पास नहीं जाना पड़ता था, कुंआ खुद उनके पास पहुंच जाता था। एक साथ कई फिल्में देख ली जाती थी। वीडियो – वी. सी. आर. के कारण गांवों में नौटंकियां खतरे में आ गयी थीं। अब लोग बारात में नाच की जगह वीडियो –वी. सी. आर. और कई फिल्मों के कैसेट लेकर आते थे और रात भर फिल्में देखते थे। यह खतरा अब सिनेमाहालों पर मंडराने लगा था। मैंने सोचा – क्यों न इनके खिलाफ कोई अभियान चलाया जाय। अधिकांश लाइब्रेरियां बिना लाइसेंस के चल रही थी। मैंने निरीक्षकों की एक टीम गठित की, अपने लिंक अफसर को इस बारे में सूचना भी दे दी । उस समय विभाग और डी. एम. के बीच एक लिंक अधिकारी काम करता था, उसके माध्यम से फाईलें डी. एम तक पहुंचती थी। मेरे लिंक अधिकारी सिटी मजिस्ट्रेट थे, वे भी कवितायें लिखते थे, उनसे मेरा अच्छा रिश्ता बन गया था। शहर के लाइब्रेरियों से कई बोरे वीडियो–कैसेट ले कर शहर–कोतवाली पहुंचा तो कोतवाल नें प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार कर दिया। मैने उसे नियम और कानूनों का हवाला दिया और कहा कि अगर आप प्राथमिकी दर्ज नहीं कर रहे हैं तो मेरे रिपोर्ट पर उसके कारण दर्ज कर दें लेकिन कोतवाल मेरी इस बात से सहमत नहीं हुआ। यह बात मुझे बहुत अपमानजनक लगी। जैसे वीडियो लाइब्रेरी के मालिको को पता लगी , वे कोतवाली में जमा होने लगे। मैं घिर सा गया था, मैंने पास के पी सी ओ से सिटी –मजिस्ट्रेट को फोन लगाया। उन्होंने कहा कि तुम फौरन चले आओ, निरीक्षकों को वहीं छोड़ देना।
उन्होंने अपने साथ फोर्स ली और धड़धड़ाते हुए कोतवाली में पहुंचे, उन्होंने कोतवाल की खूब खबर ली, उसके साथ लाइब्रेरी के मालिकों को भला–बुरा कहा। एफ आई आर दर्ज हो गया। अगले दिन अखबारों की यह मुख्य खबर थी। लोग मेरे कारनामें पर बधाई दे रहे थे जिस पर मेरा खुश होना स्वाभाविक था। जब सुबह दफ्तर पहुंचा तो जल्लाद की शक्ल का एक आदमी मेरे सामने खड़ा था, उसके सिर पर सरकारी कंलगी थी। उसे देखकर मुझे मुर्गे की याद आयी, वे भी सुबह के समय बाग देते हुए इसी तरह दिखते थे।
क्या बात है ? मैंने उससे पूछा—मैडम ने आप को बुलाया है।
.. कौन सी मैडम, आप कहां से आये हैं।
.... मैं कमिश्नर के यहां से आया हूं, आप को अभी चलना है।
यह बताते हुए उसका चेहरा सख्त हो गया था। कमिश्नर कई जिलों के हाकिम थे, कई जिलों के डी. एम. उसके मातहत होते थे। उनकी जगह मुझे मैडम बुला रही थी, यह बात मेरे समझ के परे थी।
मैं मैडम के सामने था, वे सहज नहीं थीं। मैं उनके सामने गुनहगार की तरह खड़ा था।
... आपने शहर की विडियों – लाइब्रेरियों पर छापा मारा था।
....जी मैडम
... क्यों ?
... उनके पास लाइसेंस नहीं थे, वे अवैध कैसेट रखते हैं। मुझे इसकी शिकायत मिली थी, इसी आधार पर यह कार्यवाही की गयी थी, इसकी अनुमति जिला – मजिस्ट्रेट से ली जा चुकी थी।
... हमारा एक ही शौक है वीडियो-कैसेट देखना, वह भी आपको रास नहीं आ रहा है। वीडियो कैसेट वाले मुश्किल से अपनी रोजी-रोटी चलाते हैं और आप उन पर सख्ती कर रहे हैं। आप को तो सिनेमाहाल की चेकिंग करनी चाहिए, वहां बहुत घपले होते हैं।
मेरे पास उनकी इस बात का जबाब था लेकिन मैं देना नहीं चाहता था। उन्होंने मुझे आदेशात्मक स्वर में कहा कि आप यह सारी कार्यवाही वापस ले लीजिए और मुझे बताइए
उन्होंने मुझे फिल्मी–कैसेट की लिस्ट थमा दी और मुझसे कहा कि इसे हर हाल में शाम तक पहुंचा दीजिए ..। यह कह कर वे कमरे से बाहर चली गईं।
मेरे लिए यह बड़ी समस्या थी कि जिन वीडियो लाइब्रेरी के मालिकों के खिलाफ कार्यवाही की थी, उनसे कैसे कैसेट हासिल किया जा सकता था? बहरहाल किसी तरह से कैसेट का इंतजाम किया गया। ऐसे बहुत सारे किस्सों से यह जीवन भरा हुआ था जिसमें कई अपमानजनक स्थितियों का सामना करना पड़ा है।
कुछ दिनों बाद मुझे मालूम हुआ कि जनपद में बड़े अधिकारियों का एक समूह था जो एक साथ वीडियो देखता था, यह बताना अनुचित होगा कि वे किस तरह की फिल्में देखते थे।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल -09415332326
बेहतरीन लेखन। पढ़ने के साथ साथ दृश्य सजीव होते जाते हैं। टीवी कार्यक्रम, टूरिंग टॉकिज, वीसीआर पर फिल्में देखने और दिखाने तथा वीडियो कैसेट और लाइब्रेरी के लाइसेंस की कवायद मुझे सिनेमा इंस्पेक्टर के रोल में जीवंत कर गयी।
जवाब देंहटाएंआगे पढ़ने की आतुरता बढ़ती जा रही है। शायद पुस्तक रूप में यह आतुरता न हो।
श्रीप्रकाश, तत्कालीन मनोरंजन कर निरीक्षक। संप्रति सेवानिवृत्त डिप्टी कमिश्नर (मनोरंजन कर)/वाणिज्य कर