सोनी पाण्डेय की कविताएँ
परिचय
सोनी पाण्डेय
पति का नाम - सतीश
चन्द्र पाण्डेय
जन्म -बारह जुलाई
को उत्तर प्रदेश के मऊनाथ भंजन जनपद मेँ
विवाह - 03. 07. 1998 मेँ बलियाँ जनपद के दोआबा क्षेत्र मेँ
शिक्षा - एम.
ए. हिन्दी, बी. एड.,
पी-एच. डी. (निराला का कथा साहित्य वस्तु और शिल्प)
सम्प्रति - शिक्षण
जीवन मेरे लिऐ
सदैव चुनौतियों से भरा रहा। माता पिता की तीसरी कन्या सन्तान होने के नाते मध्यवर्गीय समाज के
ताने उपेक्षा जमकर मिली, किन्तु मेरा सौभाग्य है
कि मिट कर भी जीवन की जोत बडी बहन पुष्पा पाण्डेय और हिन्दी शिक्षिका आशा श्रीवास्तव
ने कुछ इस कदर जगाया कि हार मानने जैसे शब्द मेरे शब्दकोश से मिट गये।
मैँने स्वयं को
स्वयं से गढा
और कबीर की भाँति
व्यवस्था से टकराती रही परिणामस्वरुप पिता का सहयोग औपचारिक और माँ साँसोँ मेँ आक्सीजन की
तरह बहती रही। उसने विश्वास किया और आगे बढने लिखने
का हौसला देती रही।
रोटी मानव की मूलभूत जरुरत है। होना तो यह चाहिए कि रोटी दुनिया के सारे लोगों को आसानी से मिले। कोई व्यक्ति रोटी के लिए न तरसे। लेकिन दिक्कत तभी होती है जब एक तरफ तो कोई रोटियाँ फेंकता है जबकि दूसरी तरफ तमाम लोग रोटियों के जद्दोजहद करते रहते हैं। सोनी पाण्डेय की नजर इस असन्तुलन पर है और वे इसे अपनी कविताओं में व्यक्त करती हैं। वे जानती हैं कि इस असन्तुलन का खात्मा क्रान्ति के जरिये ही हो सकता है। सोनी एक सजग कवियित्री हैं। इसलिए उनका क्रान्ति में यकीन है। आइए पढ़ते हैं कवियित्री सोनी पाण्डेय की कुछ नयी कविताएँ।
अब
मैँ यकीन कर लेना चाहती हूँ
अब मैँ यकीन कर
लेना चाहती हूँ
कि सूरज दहकता है
और
उसकी किरणेँ गाती
हैँ
सतरंगी क्रान्ति
गीत
दहकता है मलय पवन
शोला बन
गंगा की लहरेँ
उफनतीँ हैँ
लावे की तरह
चूल्हे की
चिन्गारी लिख सकती है
उत्थान पतन
हाँ बस करना होगा
यकीँ
कि यहीँ लिखी जाती
है
इबारत उन सभ्यताओँ
की
जिनके अवशेष बताते
हैँ
उस युग के
क्रान्ति का आख्यान
और हम लेते हैँ
सबक
नव क्रान्ति का
क्रान्ति होती रही
है
क्रान्ति होती
रहेगी
जब जब टकराऐँगीँ
अहंवादी ताकतेँ
जीवन... जमीन... जंगल...
पहाड और पानी से
तब तब सूरज दहकता
हुआ लाल रंग उगलेगा
और फिजा मेँ फैलायेगा
सूर्ख लाल रंग
मेरी हथेलियोँ की
मेँहदी
हाथ की चूडियाँ
माँग का सिन्दूर
और रसोँई की दीवार
तक
फैलायेगा लाल रंग
हाँ मुझे यकीन
होने लगा है
मुझसे
मत पूछना पता
सुनो!
मुझसे मत पूछना
पता
काबे और काशी का
मत कहना जलाने को
दीया आस्था का
क्योँ कि मेरी जंग
जारी है
अंधेरोँ के खिलाफ
मैँ साक्षी हूँ
इस सत्य का कि
अंधेरोँ की सत्ता
कायम
आज भी
सुनो!
तुम्हारे आस्था के
केन्द्र पर
मेरी माँ रखती थी
अपने विश्वास का
कलश
पूजती थी
गाँव के डीह, ब्रह्म,
शीतला को
निकालती थी अंगुवा
पुरोहित को
देती थी दान भूखे,
नंगोँ, भिखमंगोँ को
कडकडाती ठंड मेँ
नहाती थी कतकी
जलाती थी दीपक
तुलसी के चौरे पर
आस्था का
रखती थी विश्वास
कि
ये सारे जप तप होम
व्रत
की अटल दीवार
उसके परिवार को
बेटियोँ को
रखेगा सहेज कर
होगा चतुर्दिक
मंगल
किन्तु नहीँ रोक
पायी
शहीद होने से अपनी
कोख के प्रथम अंश को
दहेज की बलिबेदी
पर
वह आज भी
चीत्कारती है
पकड कर पेट को
नहीँ रोक पाये
तुम्हारे काबे काशी
वेद पुराण
उसके कोख को छिलने
से
इस लिऐ मुझसे मत
पूछना पता
किसी काबे काशी का
मेरी जंग अंधेरोँ
के खिलाफ जारी है।
रात
भर रोते हैँ कतारबद्ध लोग
मेरे घर के सामने
वाले बंगले मेँ
जैसे ही कोई
धनीराम को बुलाता है
धनीराम बडे शान से
आता है
लोगोँ को एक कोने
मेँ ले जा कर
काम कराने का
नुस्खा बताता है
और पुनः पचास की
नोट ले कर
साहब से मिलवाता
है।
विचित्र स्थिति है
बंगले मेँ काम
कराने वालोँ को
पानी मयस्सर नहीँ
होता
लेकिन हनुमान भक्त
साहब
सुबह-सुबह राम
सेवकोँ को
चने खिलाते हैँ
जय हनुमान का
जयघोष लगाते हैँ।
बंगले के बाहर
प्रतीक्षारत
लंबी कतारेँ
कातर दृष्टि से
आलीशान गेट को निहारती रहती हैँ
कुछ नेता टाईप लोग
बडे सम्मान से धनीराम को पुकारते हैँ
धनीराम गर्वानुभूति
संग मुस्कुराता है
खैनी चबाते हुऐ
नेता लोगोँ को
जोरदार सलामी लगाता है
धनीराम वर्तमान
कार्यालय कार्य शैली का सजग प्रहरी है
जिसके दम पर
अधिकारी
हफ्ता वसूली करते
हैँ
दो पैग चढाकर चैन
से सोते हैँ
रात भर रोते हैँ
कतारबद्ध लोग
जिनकी तरक्की, वेतनवृद्धि, पेन्शन आदि
लंबित है
उन कार्यालयोँ मेँ, जहाँ अधिकारी केवल हस्ताक्षर के लिए जाते हैँ
सारा दिन घर पर
दरबार लगाते हैँ।
जब मन करता है एक
एक को अन्दर बुलाते हैँ
कोई हँसता हुआ तो
कोई रोता हुआ बाहर आता है
पुनः धनीराम कोने
मेँ ले जा कर
समझाता है
खुश होकर वह धनीराम
को पचास की नोट थमाता है
अगले दिन पुनः
कतार मेँ लग जाता है।
रोटी
हड्डियोँ को तोड
कर
लहू निचोड कर
जिस्म भी नीलाम
सरेआम कर
पेट को रोटी मिली।
यह रोटी कभी
अर्थपूर्ण
तो कभी अर्थहीन
लगती है
रोटी संवाद है
परिवार मेँ
रोटी कैद है महलोँ
मेँ।
रोटी के लुटेरे आसीन
हैँ
तख्तोताज पर
रोटी ही गीत-
संगीत, संस्कार है
यह रोटी पकती है
पसीने से
तब रोटी सजती है
बाजार मेँ।
रोटी अन्त है, आरम्भ है
गरीबोँ के जीवन की
रोटी झंकार है
नर्तकियोँ के पैरोँ की
यह रोटी नीँव है
मानव जीवन की।
यह रोटी कराती
कराती है
जीवन का सत्यबोध
मनुष्य के शोषकोँ
को नरभक्षी
शोषितोँ को देती
है क्रान्ति का संदेश
और समाज को
ज्वालामुखी बनाती है।
सम्पर्क-
कृष्णानगर, मऊ रोड,
सिधारी, आजमगढ
उत्तर प्रदेश
ई-मेल: gathantarmagazine@gmail.com
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं।)
यह कहना मुश्किल है की अमुक रचना अच्छी है मै सोनी जी की रचनाएँ पढ़कर मुग्ध रह गया |संतोष भाई साहब हम आपके कृतज्ञ है
जवाब देंहटाएंsabhi kavitayen sarthak hai or sundar shabdon se sazi....sadhubad aapko..
जवाब देंहटाएंसुंदर कविताएँ
जवाब देंहटाएंसभी कवितायें एक से बढकर एक
जवाब देंहटाएंसोनी पाण्डेय जी से उनकी बहुत सुन्दर कविताओं का माध्यम से परिचय प्रस्तुति के लिए आभार!
जवाब देंहटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं"पहली बार" में सोनी पाण्डेय जी की कविताओ को स्थान मिलना गाथांतर परिवार के लिए गर्व का विषय है समस्त गाथांतर परिवार आप का आभार व्यक्त करता है ...........वंदना बाजपेयी
हटाएं(सह -संपादिका गाथांतर )
kavitaye achi hen. manisha jain
जवाब देंहटाएंकभी आज़मगढ़ का परिचय राहुल सांकृत्यायन, अल्लामा शिबली नोमानी और श्याम नारायण पाण्डेय के नाम से दिया जाया करता था. आज आज़मगढ़ का परिचय आतंकगढ़ कह कर दिया जाता है. डॉ.सोनी पाण्डेय के श्रम की सार्थकता तभी होगी, जब आज़मगढ़ सोनी पाण्डेय के नाम से पहिचाना जाना शुरू कर देगा. मेरी आँखें उस दिन का सपना देख रही हैं. - गिरिजेश
जवाब देंहटाएंये कविताएँ .जी गयी है प्रतिपल मैंने देखा इनकी नब्ज चल रही थी ये सांस ले रही थी ,इनके माथे पर पसीना चुहचुहा आया था .............और इनकी आवाज में इन्कलाब है .बधाई डॉ सोनी पांडे
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