सीमा आज़ाद की कहानी 'बंटवारा'
आजादी के बाद बाबरी मस्जिद विध्वंस की घटना भारतीय इतिहास में एक ऐसे काले अध्याय के रूप में अंकित है जिसने भारत के दो प्रमुख धार्मिक सम्प्रदायों के बीच वह संदेह और अविश्वास पैदा कर दिया, जिसे पाटना मुश्किल था। भारत की गंगा-जमुनी तहजीब में इस हिन्दू-मुस्लिम एका का बड़ा हाथ रहा है। कट्टरवादी दरारें पैदा करने की चाहें कितनी भी जुगत करें लेकिन वे इस तथ्य को झुठला नहीं सकती कि इस्लाम हमारे भारतीय संस्कृति में कुछ इस तरह रच-बस चुका है जिसे अलगाना किसी के बूते की बात नहीं। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा से लेकर बोली-बानी तक में यह एका स्पष्ट तौर पर देखी जा सकती है। एक तरह से कह सकते हैं कि दोनों सम्प्रदायों के बीच यह सम्बन्ध शरीर और आत्मा जैसा है। एक के बिना दूसरा अस्तित्व विहीन। साहित्य में इसे आधार बना कर अनेकानेक कहानियाँ और कविताएँ लिखीं गयीं। सीमा आजाद की कहानी इस परम्परा में होते हुए भी इसलिए विशिष्ट है कि इसने मानव मन के उन रेशों को उभारने का सफल प्रयास किया है जो धर्म के किसी भी अवरोध को सख्ती से अस्वीकार करती है।
आज यानी पाँच अगस्त को सीमा का जन्मदिन है। सीमा को जन्मदिन की बधाईयाँ और शुभकामनाएँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह नयी कहानी।
बंटवारा
सीमा आज़ाद
माधुरी जब अपने बचपन का घर-आंगन, सखी सहेलियों को
छोड़ कर अरूण के घर यानि ससुराल पहुंची, तो दूसरी लड़कियों के मुकाबले अजनबियत कुछ
ज्यादा ही लग रही थी। वजह यह थी कि उसकी ससुराल का घर मुस्लिम मोहल्ले में था।
अरूण के घर को ले कर कुल दो मकान हिन्दुओं के, बाकी सब मुसलमानों
के। दुल्हन से मिलने वाले नाते रिश्तेदारों के अलावा सभी लोग दूल्हा दुल्हन को दुआ
देने वाले थे, न कि आशीर्वाद देने वाले। पड़ोस की रेशमा चच्ची का परिवार तो
पूरे समय वहां ऐसे मौजूद रहता जैसे वे घर के ही सदस्य हों। नमस्ते, प्रणाम के बराबर
ही सलाम और आदाब सुनते-सुनते उसे ऐसा भ्रम होने लगा जैसे उसकी शादी किसी हिन्दू
परिवार में नही, बल्कि मुस्लिम परिवार में हुई है। माधुरी के मायके का घर
इसी शहर के जिस मोहल्ले में है वहां दूर-दूर तक एक भी मुस्लिम परिवार नही है। एक
बार भले ही वह अपनी चचेरी बहन के साथ उसकी मुस्लिम सहेली के घर कुछ नोट्स वगैरह
मांगने गयी थी, जहां ढेरों दाढ़ी और टोपी वाले मर्दों और सलवार कमीज वाली
औरतों को उसने देखा था- बस इतना ही ज्ञान था उसे मुसलमानों के बारे में। हां चचेरी
बहन की सहेली की खूबसूरती और उसकी मां का प्यार से खाना खा लेने का इसरार करना उसे
याद रह गया था। अब यहां ससुराल में उसे ऐसा लग रहा है जैसे वह चचेरी बहन की उस
सहेली के घर का ही हिस्सा बन गयी हो। इससे ससुराल की अजनबियत और भी बढ़ गयी थी। रात
को उसकी अरूण से जो बात-चीत हुई उसी में उसने डरते हुए पूछा था-
“आप लोगों को इस मोहल्ले में बसने की क्या सूझी थी, जो यहां घर बनवा
लिया?”
“अच्छा नही लग रहा तुम्हें?” अरूण ने प्यार से
पूछा।
“नहीं, ऐसा लग रहा है जैसे मेरी शादी किसी मुसलमान से हुई है।“ माधुरी ने मुस्कुराते हुए धीरे से जवाब दिया तो अरूण हंसते
हुए बोला-
“अरे यहां रह कर हम मुसलमान ही हो गये हैं, तुम्हें एकदम सच
लग रहा है और देखना जल्दी ही तुम भी आधी मियाइन बन जाओगी।“
“मैं मियाइन नही बनूंगी, आपको वापस हिन्दू बना दूंगी।“
“बना लोगी तो भी मैं बिरयानी खाना नहीं छोड़ूंगा और तुम्हें रेशमा चच्ची से इसे
बनाना भी सीखना होगा, तभी मैं तुम्हारा हिन्दू बनूंगा।“ अरूण ने माधुरी की ठुड्डी पकड़कर यह सौदा किया तो वह
खिलखिलाकर हंस पड़ी।
“ठीक है सीख लूंगी।“
बाद में कुछ अरूण से और कुछ अम्मा से इस मोहल्ले में बसने
की कहानी पता चली। अरूण के बाबू जी, रहीम चच्चा और विजयकान्त चाचा तीनों बहुत
अच्छे दोस्त थे, कॉलेज के जमाने के दोस्त। रहीम चच्चा जब अपने लिए इस
मोहल्ले में जमीन खरीदने लगे तो अपने साथ उन्होनें इन दोनों को भी वहीं बसा लिया।
यह बात सन पचपन की है जब रहीम चच्चा के ज्यादातर रिश्तेदार या तो पाकिस्तान चले
गये थे या जाने की प्रक्रिया में थे। पूरे देश का साम्प्रदायिक उन्माद तो बीत चुका
था, परन्तु रेल के गुजर जाने के बाद पटरियों का धड़कना अभी भी जारी था। मुस्लिम
परिवारों के जाने से बना खालीपन अभी भी बना हुआ था और हिन्दुओं के आने की खबरें
अभी भी चर्चा में थीं। रहीम चच्चा शहर से ही सटे गांव के थे। उनके अब्बाजान अपने
इकलौते बचे बेटे रहीम चच्चा के जवान होने से पहले ही गुजर गये थे, उनकी छोड़ गयी
सम्पत्ति से पढ़ाई पूरी की फिर शहर में ही नौकरी भी मिल गयी। सरकारी नौकरी और इतने
अजीज दोस्तों का मोह कुछ रिश्तेदारों से बिछड़ने पर भारी पड़ गया और उन्होंने यहीं
बसने का निर्णय ले लिया। नौकरी पर जाने के लिए गांव से शहर के लिए रोज आना-जाना
मुश्किल हो रहा था और बच्चों को शहर में पढ़ाने का लालच भी था, जिसके कारण रहीम
चच्चा ने गांव की सम्पत्ति बेच कर शहर में जमीन ले ली। अपने बगल के खाली दो
प्लाटों को बाबूजी और विजयकान्त चाचा को सस्तें में खरीदवा दिया। बाबू जी को घर
बनवाने के लिए कुछ पैसे उधार भी दिया और तीनों की दोस्ती का तीन मकान अगल-बगल बन
कर तैयार हो गया। बाबू जी के घर के लोगों और रिश्तेदारों ने इस बस्ती में मकान
बनवाने पर विरोध भी किया और नाक-भौ भी सिकोड़ा, पर न बाबू जी ने
इसकी परवाह की न विजयकान्त चाचा ने। उन्हें अपनी दोस्ती ज्यादा प्यारी थी। कभी
बाबू जी या विजयकान्त चाचा रहीम चच्चा से मुसलमानी मोहल्ले में बसाकर रिश्तेदारों
का आना-जाना कम होने का उलाहना देते तो रहीम चच्चा हंसते हुए कहते-
“मेरा अपने रिश्तेदारों से साथ छूटा, इसलिए मैंने तुम लोगों का भी छुड़ा दिया,
मैं अपनी नौकरी और
तुम दोस्तों की वजह से उनके साथ पाकिस्तान नही गया इसलिए नौकरी के साथ तुम लोगों
को भी अपनी गांठ में बांध के रखूंगा, क्या समझे?”
कुछ दिनों की दूरी के बाद तीनों की पत्नियां भी आपस में
सहेलियां हो गयीं। तीनों जोड़ों के ग्यारह बच्चे भी आपस में दिन भर खेलते-कूदते,
पढ़ते और एक दूसरे
के घर में खाते हुए कब बड़े हो गये पता ही न चला। विजयकान्त चाचा की पत्नी अपने तीन
बेटों को बिन ब्याहे ही चल बसीं। जब उनके दो बेटों की शादी हुई तो रिश्तेदारों के
आने के पहले का सारा काम दोनों परिवारों ने मुहल्ले के अन्य लोगों की मदद से संभाल
लिया। अरूण के बाबू जी भी अपनी तीन बड़ी बेटियों की शादी करके गुजर गये। और अब अरूण
की शादी में रहीम चच्चा और विजयकान्त चाचा ही घर के अभिभावक हैं। रेशमा चच्ची भी
पीछे कहां रहने वाली। वैसे भी तीन बेटियों के बाद होने वाला अरूण इस घर का ही नही,
अपनी शरारतों के
कारण पूरे मोहल्ले का दुलारा था। छुपा-छुपाई खेलते समय वह किसी के भी घर में जाकर
छिप जाता और बाकी बच्चे उसे खोजते ही रह जाते। रेशमा चच्ची माधुरी को अरूण के बचपन
के किस्से सुना-सुनाकर लोट-पोट हो जाती। धीरे-धीरे माधुरी को रेशमा चच्ची अच्छी
लगने लगी। अरूण के कहेनुसार उसने उनसे बिरयानी बनाना तो सीखा ही और भी ढेरों घरेलू
नुस्खे सीखे। परन्तु मोहल्ले के बाकी लोगों के प्रति उसकी अजनबियत अभी भी बनी ही
रही। वैसे भी मोहल्ले के लोगों से ज्यादा बात व्यवहार या तो उसकी सास या फिर अरूण
का ही होता। इस अजनबियत में थोड़ी सेंध तब लगी, जब माधुरी के दो
बेटे हुए और मोहल्ले के लोग उसे और उसके बेटों को दुआऐं देने आये। माधुरी भी अब इन
सबके बीच रमने लगी थी।
यह 6 दिसम्बर 1992 का दिन था, जब माधुरी अपने 5
बरस और 3 बरस के बेटों को अपनी सास के पास छोड़ कर बाजार गयी थी। वहीं उसे पता चला
कि अयोध्या में बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी है। दंगे की आंशका में दुकानें फटाफट
बन्द होने लगी और सब ओर अफरा-तफरी मच गयी। आधा सामान लेकर ही माधुरी भागते हुए घर
पहुंची। अरूण अभी ऑफिस में था, इस बात से माधुरी और उसकी सास दोनों की बेचैनी बढ़ गयी। आधे
ही घण्टे बाद अरूण भी घबराया हुआ घर पहुंच गया तो दोनों की जान में जान आयी। अरूण
के पास बताने के लिए ढेरों सूचनाऐं थी-
“हिन्दू राजनीति करने वाले कई संगठन मुस्लिम मोहल्लों पर हमले की योजना बना
रहें हैं और मुस्लिम मोहल्लों के लोग भी जवाबी कार्यवाही की तैयारी कर रहे हैं
हमारे मोहल्ले के लड़के भी इस तैयारी में जुटे हैं, जावेद घूम-घूम कर
सबको इकट्ठा कर रहा है।“ अरूण ने ये सारी
सूचनाऐं इतनी फुसफुसाकर दी, कि इससे घर में दहशत भर गयी।
“हमला कोई भी करे हमें तो दोनों ही स्थितियों में खतरा है” कहती हुई माधुरी उठी
और कमरे की खिड़कियों को बन्द कर दिया।
इस बीच अम्मा अरूण से कह रही थीं -
“रहीम चच्चा के घर चले चलते हैं, साथ में रहेंगे तो डर भी कुछ कम होगा।“
सुनकर माधुरी बिदक कर बोली-
“वहां तो और डर है। अगर हिन्दुओं ने हमला किया तो हमें भी मुसलमान समझ कर नहीं
छोडे़ंगे। वे तो मारे ही जायेंगे उनके कारण हम भी मारे जायेंगे।“
माधुरी के अचानक इतना जोर से बोलने के कारण अरूण और अम्मा
दोनों चौंक गये और उसके बोल चुकने के बाद गहरा सन्नाटा छा गया। थोड़ी देर चुप रहने
के बाद अरूण ने कहा-
“और मुसलमानों ने हमला किया तो?”
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“बाबू जी को पता नही क्या पड़ी थी मुसलमानों के मोहल्ले में बसने की।“ माधुरी रूआंसी
हो कर बोली और उठ कर चली गई। कमरे में दहशत भरा सन्नाटा फिर भर गया। अरूण और अम्मा
पर न सिर्फ चिन्ता तारी थी बल्कि वे इस मुहल्ले के लोगों से अपने रिश्ते के बारे
में भी सोच रहे थे।
अम्मा को बार-बार ये हूक उठती कि वे एक बार जा कर बीमार पड़े
विजयकान्त भइया, रहीम भाई और रेशमा जिज्जी से सलाह कर आयें। वहीं अरूण के मन
में यह चल रहा था कि जिन लड़कों के साथ वह बचपन में खेला-कूदा है, क्या वे उसके घर
पर सिर्फ इस कारण हमला कर देंगे क्योंकि वह हिन्दू है? वह अपने एक-एक
दोस्त का चेहरा याद करके सोच रहा है कि वो हमले में शामिल हो सकता है या नही। उसके
दिमाग में दोस्तों के दो खांचे बन गये- हिन्दू दोस्त-मुसलमान दोस्त। फिर मुसलमान
दोस्त दो खांचों में बंट गये- फलां-फलां हमला कर सकता है, फलां-फलां नही। “यदि जावेद आया, तो उसे बचपन में परीक्षा में अपनी कॉपी
से नकल कराने की बात याद दिलाउंगा।“
वह इन दिमागी कसरतों से गुजर ही रहा था कि “चाय पीजिये” सुनकर चौंक गया।
माधुरी चाय नाश्ता लेकर आयी, तो अरूण कपड़े बदलने के लिए उठकर अन्दर चला गया, पर उसकी दिमागी
कसरत जारी रही। कपड़े बदल कर जब वह हाथ-मुंह धोने लगा, तो उसकी नजर लैटिन
के बगल में बने दरवाजे की ओर गयी, जिसे बाबू जी ने इसलिए बनवाया था, ताकि लैटिन धोने
के लिए मेहतर को घर के अन्दर घुस कर आने की जरूरत न पड़े, बल्कि वह पीछे से
आकर उधर से ही निकल जाये। परन्तु पिछले कई वर्षों से जबसे लैटिन धोने के लिए मेहतर
बुलाने की जरूरत खत्म हो गयी, इस पर मोटा ताला जड़ दिया गया था। यह दरवाजा पीछे की गली में
खुलता है, जहां से चलते हुए सीधा सड़क पर पहुंचा जा सकता था। हाथ-मुंह धोकर अरूण जैसे ही
चाय पीने बैठा सामने सड़क पर लोगों के भागने की आवाज हुई, साथ ही “जय श्रीराम” का नारा सुनाई
दिया। सबकी धड़कन बढ़ गयी। हमले की आशंका में सब एकदम करीब आ गये और अपने कानों से
बाहर का माहौल देखने की जद्दोजहद में लग गये। कुछ देर बाद ही दौड़ने की आवाज शान्त
हो गयी और सन्नाटा छा गया। अरूण के दिमाग में अचानक रहीम चच्चा के परिवार की
सुरक्षा की बात आयी, माधुरी के विरोध के बीच उसने धीरे से दरवाजा खोला। सड़क पर
सन्नाटा था उसने झांक कर रहीम चच्चा के घर की ओर देखा। वहां भी उसके घर जैसी ही
खामोशी थी, पर सब कुछ ठीक-ठाक लगा। उसकी हिम्मत आगे बढ़ने की हुई, तभी सड़क के एक छोर
पर फिर से हल्ले-गुल्ले की आवाज का रेला आता सुनाई दिया, मां ने अरूण का
हाथ खींच कर अन्दर कर लिया और माधुरी ने दरवाजा बन्द कर लिया। आवाज का रेला घर के
सामने से गुजरता हुआ आगे बढ़ गया और इसके गुजरने बाद ही दरवाजे पर दहशत भरी दस्तक
हुई। तीनों चौकन्ना होकर उठ खड़े हुए पर दरवाजा खोलने की बजाय तीनों आहट लेते रहे।
दस्तक फिर से हुई। इस बार दस्तक के साथ ही विजयकान्त चाचा के छोटे बेटे अनुराग की
घबड़ाहट भरी आवाज भी आई
“भइया दरवाजा खोलिए”
अरूण ने फुर्ती से उठकर दरवाजा खोला और अनुराग को झट अन्दर
खींच लिया। अन्दर आते ही अनुराग ने हड़बड़ाते हुए कहा -
“भइया, सतर्क रहियेगा हमारे घर पर कभी भी हमला हो सकता है” कहते हुए वह जाने के लिए मुड़ा, पर अरूण ने उसे
फिर से खींचते हुए पूछा-
“तुझे कैसे पता कि हमला होने वाला है”
“मैं बाबू जी की दवा लेने निकला था, बन्द पड़ी दुकान के सामने कुछ लोग
फुसफुसाकर बात कर रहे थे कि ‘यहां तो दो ही घर हैं’, वे हमारे बारे में ही बात कर रहे थे।“
जाते-जाते वह यह भी बता गया कि अगर कल कर्फ्यू कुछ देर के
लिए हटा तो वह चाचा को ले कर अपनी बुआ के घर चला जायेगा।
अनुराग के जाने के बाद अरूण ने फिर से बाहर झांक कर देखा तो
सन्नाटा ही दिखा इक्का-दुक्का जो दिखा भी, वो अपने गन्तव्य तक पहुंचने की जल्दी
में। उसने दरवाजा बन्द कर लिया। मां ने अरूण के साथ अपना डर दूर करते हुए कहा-
“कुछ नही होगा बेटा, बस माहौल थोड़ा खराब हो गया है, कल तक सब ठीक हो
जायेगा।“
माँ यह कह ही रही थी कि सड़क पर फिर से भागने-दौड़ने की आवाज
आयी, साथ ही “अल्ला हो अकबर” का नारा भी सुनाई दिया। इस बार अरूण और मां दोनों ही ज्यादा
डर गये, मां तो अरूण के बिल्कुल पास आ गयीं। माधुरी भी दूसरे कमरे से बच्चे को गोद में
लिए आ गयी, उसके चेहरे पर इतनी ज्यादा दहशत थी कि अरूण और भी डर गया। उसे अनुराग का
अनुमान एकदम सही लगने लगा। उसका दिमाग एकाएक एकदम सक्रिय हो गया। सबसे पहले उसने
दरवाजे पर अन्दर से ताला जड़ दिया। बाहर के कमरे की बत्ती बन्द कर उसने अम्मा और
माधुरी को अन्दर के कमरे में बैठने को कहा और होने वाले हमले की तैयारी में जुट
गया। उसने लैटिन के बगल वाले दरवाजे का ताला खोल दिया, यह सोचकर कि यदि
हमला हुआ तो गली में निकलकर या तो छिप जायेगा या फिर भाग जायेगा। इसके साथ ही आंगन
व छत पर पड़ी ईटों को उसने छत पर ही सामने की ओर इकट्ठा कर लिया, ताकि हमलावरों पर
छत से ईटें फेकी जा सकें। इस काम में माधुरी ने भी अरूण का सहयोग किया। बच्चों को
अम्मा संभाले रहीं और अपने देवी- देवता मनाती रहीं, कि यह रात किसी
तरह कट जाय, भगवान रक्षा करे । अरूण के साथ माधुरी ने घर में फालतू पड़ी
शीशी बोतल भी हथियार के रूप में छत पर जमा कर दी और डरती हुई मन ही मन प्रार्थना
करती रही कि भगवान आज की रात किसी तरह कट जाये फिर कल सुबह वह सबको लेकर मायके चली
जायेगी। साथ ही वह अपने अनदेखे ससुर को मन ही मन कोसती रही कि यहां घर क्यों बनवा
लिया।
हमले से लड़ने और भागने दोनों की तैयारी पूरी करने के बाद
तीनों फिर से एक कमरे में आ कर बैठ गये, इस कमरे की बत्ती भी बुझा दी गयी और जीरो
पावर का बल्ब जला दिया गया। जिसकी रोशनी से पूरे घर पर और ज्यादा दहशत छा गयी। इस
तरह बैठने पर अरूण को लगा कि युद्ध की तैयारी का समय ही ठीक था, कम से कम उतनी देर
तक दहशत तो गायब थी। उसने मां की ओर देखा जो उसके तीन साल के मचलते बेटे को जबरन
सुलाने की कोशिश कर रही थी उधर माधुरी पांच साल के भूखे बेटे को ब्रेड दूध खिला कर
फुसला रही थी। आज अरूण को पहली बार लग रहा था कि इस मोहल्ले में वह अल्पसंख्यक है,
अकेला है। उसके साथ यदि कुछ भी घटित हो जाय तो उसके परिवार को बचाने वाला कोई भी
नही है। इतने लोगों के सामने दो घरों के कुल साढ़े पांच लोग क्या कर लेंगे।
इसके
पहले उसके परिवार पर जब भी कोई विपदा पड़ी- उसे कभी इतना अकेलापन नही लगा, पूरा मोहल्ला उसके
सहयोग में खड़ा रहा, पर आज वह अपने आप को एकदम असहाय महसूस कर रहा है। इस समय
उसे ऐसा लग रहा है जैसे रहीम चच्चा भी उसके साथ नही हैं। वह हमलावरों में न सही पर
उसके परिवार को बचाने भी नहीं आयेंगे। अरूण के अन्दर यह हलचल चल ही रही थी,
कि बाहर का दरवाजा
भड़भड़ाने की आवाज आयी। तीनों एकदम सन्न रह गये। हमले की आशंका को देखते हुए चेहरों
की दहशत बढ़ गयी। एक के चेहरे की दहशत बाकी दोनों के चेहरों की दहशत बढ़ाने का काम
कर रहे थे। तीनों खड़े रहे। दरवाजा फिर भड़का। अरूण थोड़ा आगे बढ़ा, फिर ठिठक गया।
दरवाजा तीसरी बार थोड़ा जोर से भड़का अरूण बाहर वाले कमरे की बजाय सीढ़ियां चढ़ता हुआ
छत पर पहुंच गया, ताकि नीचे देख सके कि कौन है और जरूरत पड़े, तो छत पर जमा
पत्थर नींचे फेक कर यह दिखा सके कि उसके घर में भी लोग जमा हैं और लड़ने के लिए
तैयार हैं। उसके पीछे-पीछे दबे पांव माधुरी पहुंच गयी। छत से नीचे झांका तो अंधेरे
में चार-पांच मुण्डियां नजर आयी पर चेहरा पहचान में न आया। अरूण ने यह अनुमान लगा
लिया कि परिचित लोग हैं और पत्थर फेंकने की जरूरत अभी नही है। उसने हिम्मत करके
उपर से ही पूछा-
“कौन है?”
सभी मुण्डिया उपर उठी
“हम हैं बेटा, दरवाजा खोलो” यह अहमद चच्चा थे।
“चच्चा जो भी कहना है वहीं से कहिये, हम दरवाजा नही खोलेंगे।“
“डरो नही बेटा, हम मुहल्ले की हिफाजत के लिए कुछ बात करने आये हैं।“ अहमद चच्चा ने
लगभग फुसफुसा कर कहा।
“जो भी कहना है वहीं से कहिये चच्चा”
अहमद चच्चा ने थोड़ा सोचकर कहा-
“ठीक है बेटा, हम सुबह आयेंगे, खुदा हाफिज” और पांचों मुण्डियां रहीम चच्चा के घर की ओर घूम कर चल
पड़ीं। उनके जाने के बाद अरूण भाग कर नीचे आया और पीछे के रास्ते से भागने के लिए
गली का मुआइना करने के मकसद से लैटिन के बगल का दरवाजा धीरे से खोला। सालों से
बन्द रहने के कारण दरवाजा चर र र र र की आवाज करते हुए खुला तो घर की डरावनी
शान्ति तो भंग हुई किन्तु इस आवाज ने माहौल में और ज्यादा दहशत भर दी। अरूण ने गली
में दो कदम आगे बढ़ाया, पर वहां इतना सन्नाटा और अंधेरा था कि उसकी आगे बढ़ने की
हिम्मत न हुई। उसने दरवाजा यह सोच कर बन्दकर दिया कि यदि जरूरत हुई तो उसी वक्त
सोचेंगे साथ ही उसने भी यह तय कियी कि यह रात किसी तरह कट जाये, तो वह कल सुबह ही
सबको लेकर अपनी ससुराल चला जायेगा। इतने में दरवाजे पर फिर से दस्तक हुई। दहशतजदा
गुस्से के कारण उसकी आवाज कुछ जादा ही जोर से निकली-
“कौन है?”
“मैं रहीम चच्चा”
अरूण थोड़ा आगे बढ़ा, फिर ठिठक कर खड़ा हो गया। दरवाजे की ओर
जाने की बजाय वह फिर से छत पर गया और नीचे झांक कर ध्यान से देखा। इस बार कुल छः
मुण्डियां थी।
“मैंने कहा न, मैं दरवाजा नही खोलूंगा” अरूण ने छत से ही चिल्ला कर कहा।
“तुम्हें क्या हो गया है अरूण, दरवाजा खोलो,
अपनी और हमारी जान
जोखिम में मत डालो।“
रहीम चच्चा ने कहा तो अरूण ने नीचे आ कर दरवाजा खोल दिया,
पर अन्दर ही अन्दर
डरता भी रहा कि अब उसके घर पर हमला हो जायेगा। छहों बुजुर्गों के अन्दर आते ही
उसने जल्दी से फिर से दरवाजा बन्द कर दिया। अम्मा और माधुरी भी वहां आ गये। रहीम
चच्चा को देख कर अम्मा के अन्दर जैसे जान आ गयी।
“देखो बेटा तुम्हारे घर का सन्नाटा देख कर ये लोग परेशान हो उठे थे, इसलिए हाल-खबर
लेने आये हैं। मैं तो बुखार में पड़ा हुआ था, तुमने दरवाजा नही
खोला तो ये मुझे लेकर आये हैं। डरने की कोई बात नही है। हमारे रहते तुम लोगों को
कुछ नहीं हो सकता।“ रहीम चच्चा ने जब
ये दो तीन लाइने कहीं तो पूरे घर ने जैसे राहत की सांस ली। अहमद चच्चा ने बताया-
“लड़के बता रहे हैं कि कुछ हिन्दू संगठन के लोग हमारे मुहल्ले पर हमले की योजना
बना रहे हैं इस इसलिए मोहल्ले के सारे लड़के और कुछ बुजुर्ग लोग जगह-जगह तैनात हैं।
न तो बाहरी लोगों से डरने की जरूरत है न मोहल्ले के लोगों से।“
अरूण समझ गया कि अहमद चच्चा क्या कहना चाहते हैं उसने राहत
की सांस ली, साथ ही उसे मोहल्ले के लोगों पर शक करने और इनसे लड़ने के
लिए की गयी तैयारियों पर शर्मिंदगी भी हुई। छहों बुजुर्गों के जाने के बाद सबके
चेहरे चिन्तामुक्त तो हुये पर उनपर दहशत के निशान अभी भी बाकी थे। तीनों ने
ब्रेड-दूध खाया और अपने बिस्तरों पर डर और अहमद चच्चा के दिलासे -दोनों के बीच
झूलते हुए सो गये।
सुबह घर छोड़ कर माधुरी के मायके चले जाने का विचार किसी के
भी मन में नही आया, क्योंकि टी वी से पता चलता रहा कि पूरे शहर का माहौल
तनावग्रस्त है।
तीन दिन बाद मोहल्ले से कर्फ्यू हटा, तो स्थितियां कुछ
सामान्य हुई, पर मनःस्थितियां सामान्य नहीं हुई। वह तो अब बदल चुकी थी और
चीजों को दूसरी तरीके से देखने लगी थीं। अरूण के आफिस के मित्र और रिश्तेदारी के
लोग खासतौर पर अरूण के परिवार का हालचाल जानने के लिए आने लगे थे, क्योंकि वे लोग
मुसलमानों के मोहल्ले में रहते है। हालचाल लेने के बाद जाते-जाते वे यह सलाह भी दे
जाते कि “इस घर को बेच कर हिन्दू मोहल्ले में घर ले लो।“ सुनते- सुनते माधुरी की तरह अरूण को भी लगने लगा कि इस
मोहल्ले में वह बाहरी है, अकेला है। बीमारी और बुढ़ापे की वजह से विजयकान्त चाचा भी
ज्यादातर समय अपने बड़े बेटे के पास दूसरे शहर में ही रहते थे, कभी- कभार ही यहां
आना होता था। इस मोहल्ले में अरूण की अजनबियत अब हर दिन बढ़ती ही गयी और एक दिन
उसने अम्मा को मकान बेंचने के लिए राजी कर ही लिया-
“अम्मा अभी इस मोहल्ले में बाबू जी को जानने वाले बुजुर्ग हैं तो हमारे उपर कोई
खतरा नही है, पर कल जब ये लोग नहीं रहेंगे, तो नये लड़के हमारे
साथ कैसा व्यवहार करेंगे क्या पता?”
अम्मा को भी अरूण की बात ठीक लगी और उन्होंने भी मकान बेचने
के लिए हामी भर दी। मकान बेचने की बात दिमाग पर ऐसी चढ़ी, कि तीन महीने के
भीतर ही उसने घर का खरीददार खोज लिया। यह खरीददार मुस्लिम था, जिसके लिए यह
मोहल्ला बहुत दूर था, पर उसे ऑफिस के करीब के हिन्दू मोहल्ले में रहने के लिए
किराये का भी कमरा नही मिल रहा था, झल्ला कर लोन लेकर वह यह घर खरीद रहा था। मकान बेचने से
मिले पैसे में कुछ पैसे और जोड़ कर अरूण ने शहर के ऐसे हिन्दू इलाके में घर ले लिया,
जो रईसों का
मुहल्ला कहलाता था। रहीम चच्चा और रेशमा चच्ची ने अरूण और अम्मा को घर बेचने से
रोकने का बहुत प्रयास किया, पर वे उनके दिलो-दिमाग में हिन्दू मित्रों और रिश्तेदारों
द्वारा भरी गयी बातों और उस मोहल्ले में अल्पसंख्यक होने की दहशत को नही निकाल सके,
फलतः दुखी मन से
उन लोगो ने भी उनका सामान बांधा। मुहल्ले के अन्य लोग भी मिलने आये और इस मोहल्ले
में मिलने आते रहने का इसरार किया। विदा लेते समय अम्मा ने तो अपने उमड़ते मन को
बहने दिया, पर अरूण ने इस बहाव को जबरन रोके रखा। मोहल्ला छोड़ने का दुख तो उसे था,
पर अपने समुदाय के
बीच बसने का सुकून भी। वो भी शहर के उस क्षेत्र में जहां सारे रईस लोग रहते हैं।
अम्मा में दुख ज्यादा था और अरूण इन दो अनुभूतियों के बीच झूल रहा था, वहीं माधुरी तीसरे
छोर पर थी उसमें सुख की अनुभूति सबसे ज्यादा थी। मुस्लिम मोहल्ले में ससुराल होने
के नाते उसके मायके के रिश्तेदार उससे कहते थे-
“तुम तो ‘पाकिस्तान’ में रहती हो कैसे आये तुम्हारे घर।“ उसे खुशी थी कि अब वह ‘हिन्दुस्तान’ में बसने जा रही है।
तीन तरह की अनुभति बसाये दो बच्चों के साथ ये तीन प्राणी
अपने नये घर में बस गये। इन सारी अनुभूतियों में यह अनुभूति सबसे उपर थी, कि ‘अब वे सुरक्षित हैं।‘
शुरूआती दो महीनों तक तो अरूण और माधुरी नये घर को सेट करने
और अपने ढंग से सजाने में ही लगे रहे, रिश्तेदारों और मित्रों का आना-जाना भी
बढ़ गया। अम्मा के अकेलेपन की ओर उनका ध्यान तब गया, जब वे बीमार पड़
गयीं। दिन भर मोहल्ले भर की चच्चियों से घिरी रहने वाली अम्मा, दिन भर में कम से
कम एक बार रेशमा चच्ची से अपना दुख-सुख बतियाने वाली अम्मा यहां अकेली पड़ गयीं।
यहां भी पड़ोस के घरों में लोग रहते ही हैं, बूढ़ी औरतें भी
होंगी पर सब अपने-अपने घरों में बन्द। अगल-बगल के घर में क्या दुख या सुख है इससे
किसी को कोई मतलब नही है। अम्मा को अब याद आता कि अरूण के बाबू जी जब मुसलमानों के
मोहल्ले में बसने जा रहे थे तब अम्मा ने भी विरोध जताया था, पर बाबू जी ने
उन्हें भरोसा दिलाते हुए कहा था-
“कुछ अलग नही है सब अपने जैसे ही खाने-कमाने वाले लोग ही हैं, तेरा मन लग जायेगा,
विजयकान्त का परिवार
भी तो बस रहा है।“
फिर भी उनके इस वादे के बाद ही अम्मा वहां जाने के लिए राजी
हुईं थी कि ‘अगर उनका मन नही लगा, तो घर बेच कर कहीं
और ले लेंगे।‘ पर जल्दी ही वहां
अम्मा का ऐसा मन लग गया, कि घर बेंचने या कहीं और बसने के बारे में सोचा भी नहीं।
यहां नये घर में अम्मा पहाड़ के उस पेड़ की तरह हो गयीं, जिसे मैदान में
लाकर रोप दिया गया हो। बीमारी में उनका अकेलापन और भी बढ़ गया। उन्हें याद आता कि
उस मोहल्ले में यदि कोई बीमार पड़ जाय तो पड़ोस की औरतें अपने घरेलू नुस्खों के साथ
कम से कम आठ घण्टे तो मौजूद ही रहती और उन्ही में से कोई नुस्खा अपनेपन के साथ
मिलकर बीमार को चंगा भी कर देता। यहां इन सबके अभाव में अरूण के लाख इलाज और
माधुरी की सेवा के बावजूद वह एक महीने में चल बसी। मरने के दो दिन पहले उन्होंने अरूण
से कह कर रेशमा चच्ची और रहीम चच्चा को बुलवाया भी था, पर वे भी बूढ़े हो
गये हैं और इतनी दूर आना उनके लिए असम्भव तो नही मुश्किल जरूर था। नये मकान में
अरूण और माधुरी पर पड़ा यह पहला संकट था। सहारे और सहयोग के लिए अरूण बदहवास सा गेट
पर जा कर खड़ा हो गया, कि कोई पड़ोसी दिखे तो उसे बुलाया जा सके, पर सबके दरवाजे
बन्द थे। हर तरफ सिर्फ बन्द दरवाजे खिड़कियां और बाहर खड़ी कारें दिख रही थी। कुछ
छतों पर अलगनी पर फैले कपड़ों से ही पता चल रहा था कि यह इंसानों की बस्ती है। अरूण
को अजीब किस्म का डर लगने लगा। उसे लगा कि इस पूरी बस्ती में वह एकदम अकेला है। यह
डर 6 दिसम्बर वाली रात से भी अधिक गहरा था। हिन्दू या मुसलमान पड़ोसियों की बजाय
यहां तो लोग अपने अकेलेपन के साथ रहने के आदी हैं, किसके दरवाजे पर
वह जाये? किसी का दरवाजा खटखटाने की उसकी हिम्मत न हुई। उसे अपना पुराना मोहल्ला याद
आया जहां अब तक न जाने कितने लोग उसके दुख में शामिल हो चुके होते। अपने रिश्तेदारों
को फोन करने के लिए अरूण अन्दर जाने को मुड़ा, तभी उसे सामने से
आता एक रिक्शा दिखाई दिया, जिस पर हाथ में छड़ी थामें रहीम चच्चा और सर पर दुपट्टा
संभालती रेशमा चच्ची सवार थीं। अरूण रिक्शे की ओर दौड़ा और बुक्का फाड़कर रो पड़ा ‘‘
र.......ही..........म चच्चा................।’’
सम्पर्क-
फोनः 09506207222
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