कवि सुधीर सक्सेना पर नित्यानानद गायेन का आलेख 'कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं'
ईश्वर को आधार बना कर जिन कुछ कवियों ने महत्वपूर्ण कवितायें लिखीं हैं उनमें सुधीर सक्सेना का नाम प्रमुख है. इन कविताओं में वे ईश्वर से जैसे बातें करते हुए उसकी वास्तविकता को हमारे सामने रख देते हैं. उनकी कविताओं में प्रेम भरा पड़ा है. प्रेम जो मानवीय रिश्तों और संबंधों की बुनियाद है कवि के यहाँ बार-बार दिखाई पड़ता है. शायद इसीलिए नित्यानन्द ने इस आलेख का शीर्षक ही दिया है 'कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं' कवि सुधीर सक्सेना के तीन संग्रहों को आधार बना कर युवा कवि नित्यानन्द गायेन ने यह आलेख लिखा है. इसे हम आप के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं.
कवि सुधीर सक्सेना. प्रेम के कवि, जो ईश्वर तो नहीं ....
साहित्य का एक तरुण
विद्यार्थी हूँ मैं. मैंने अनेक रचनाकारों की रचनाएँ पढ़ी हैं. जिनमें साहित्य के
दिग्गज और वरिष्ठ रचनाकारों के साथ समकालीन कवि भी शामिल हैं. समकालीन कवियों में
अनेक हैं जिनकी रचनाएँ सदा मुझे आकर्षित करती हैं . जिनमें से एक हैं अग्रज कवि /
लेखक/ अनुवादक सुधीर सक्सेना जी. और उन्हें पढ़ते हुए मैं उनके बहुत करीब आ गया
हूँ. और वरिष्ठ कवि / सम्पादक आग्नेय जी से बहुत कुछ जान पाया हूँ सुधीर जी के
बारे में विशेषकर उनके अनुवाद कर्म के बारे में, पत्रकारिता के बारे, इनके
संघर्ष के बारे में.
मैंने अब तक इस कवि के तीन
संग्रहों को पढ़ा है. कोई भी संग्रह किसी से कमतर नहीं. किन्तु सबका रस–रंग भिन्न हैं. इनका पहला संग्रह ‘रात जब चन्द्रमा बजाता है बांसुरी’ मुझे वर्ष २०१२ में मिला.
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ा. बार–बार पढ़ा, और तब–तब पढ़ा जब मन बहुत विचलित होता रहा. इस संग्रह की कविताएँ पढ़ कर मैंने जाना प्रेम का अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति की कला
/शैली. सिर्फ़ चंद शब्द और विराट अभिव्यक्ति? यही कारण है कि वे इतने शालीन और
बाकियों से अलग हैं. कहते हैं न कि जो बड़े होते हैं वे अपना ढोल नही पीटते. यही
बात सुधीर जी में भी हैं. आज जब ज्यादातर रचनाकार हर माध्यम का सहारा लेकर आत्म
प्रचार में व्यस्त हैं, वहीँ कविवर सुधीर निरंतर चुपचाप अपनी रचनाशीलता में लगे
हुए हैं. वर्ष २०१२ में सुधीर जी हैदराबाद आये थे. और यहाँ पहुंचकर उन्होंने
मुझे फोन किया और मिलने की इच्छा जाहिर की. यह इस कवि का बड़प्पन था कि वे एक एकदम
नये साहित्य के विद्यार्थी से मिलना चाहते थे. बड़ो के यही गुण ही शायद उन्हें सच
में बड़ा बनाते हैं. नहीं तो मेरे कुछ ऐसे अनुभव भी हैं कि जब मैंने अपने कुछ समकालीन रचनाकारों से मिलने की
इच्छा जतायी तो उन्होंने मुझ जैसे कच्चे और नवीन रचनाकार से मिलना पसंद नही किया.
क्योंकि वे खुद को बहुत ऊँचा और अलग मानते हैं.
मध्य प्रदेश के एक टीवी
चैनेल पर एक साल पहले मैंने सुधीर जी का एक साक्षात्कार देखा था. जिसमें सुधीर जी
ने कहा था –‘मैं लिखता हूँ, लिखने ज्यादा मैं पढ़ता हूँ.’ उनका यह वाक्य मेरे
दिमाग में घर कर गया. और उनके प्रति मेरा आदर भी बढ़ गया. सूरज को आईने की जरुरत
नही होती. सूरज को आईना दिखाना मुर्खता है. वैसे तो कवि सुधीर सक्सेना की कविताओं
पर बहुत वरिष्ठ कवि /लेखक /आलोचकों ने बहुत कुछ लिखा है. केवल देश में नही देश के
बाहर भी. पर यहाँ मैं भी कुछ कहने की जुर्रत कर रहा हूँ आज.
‘रात जब चन्द्रमा बजाता है
बांसुरी’ संग्रह में प्रेम कविताएँ हैं. प्रेम क्या है? उसकी अनुभूति कैसे होती
है? प्रेम का दायरा क्या है, ये सभी कुछ इस संग्रह की रचनाओं को पढ़ते हुए हम
महसूस कर सकते हैं. इस संग्रह की कविताओं में मिलन का सूख भी है तो विरह के उदास
गीत भी है.
“मैंने तुम्हें चाहा /तुम
धरती हो गयीं
तुमने मुझे चाहा /मैं आकाश
हो गया
और फिर
हम कभी नहीं मिले,
वसुंधरा |” (पृष्ठ -१५) |
क्या बात है. प्रेम से जब कोई किसी को चाहता है तो कोई धरती जो जाती है तो कोई
आकाश. मतलब प्रेम की चाहत मात्र से हम विराट बन जाते हैं. और कभी –कभी इतने
विराट कि धरती और आकाश हो जाते हैं. जो एक –दूजे को चाहते तो हैं, किन्तु उनका
मिलन नही हो पाता. और इस तरह चाहत अमर हो जाती है.
प्रेम का पहला पाठ मनुष्य
प्रकृति से सीखता है. और फिर वह उसे विस्तार देता है. तभी तो कवि लिखता है –
“तुम / समुद्र से नहा कर निकलीं
और पहाड़ को तकिया बनाकर /लेट गयीं
घास के बिछौने पर /अम्लान|” (पृ.१६,
वही)
जिस प्रकृति ने हमें प्रेम का पहला पाठ पढ़ाया, हमें पहले उससे प्रेम करना
होगा. कवि की दृष्टि देखिये, वह यही तो कह रहे हैं यहाँ|
चित्रकार नीलम अहलावत की
पेंटिंग देखकर कवि अपने जज़्बात रोक नही पाते, और लिखते हैं –
“समुद्र से
दौड़ता हुआ निकला घोड़ा
ढेर सारी ऊर्जा,
तनिक विस्मय,
तनिक भय,
उसे स्तेपी की तलाश थी
उसकी देह से चिपका हुआ था
ढेर सारा नमक|” (पृ.19, वही). समन्दर में दौड़ना आसान नही, पर घोड़ा दौड़ता है,
कवि उसकी आँखों में पढ़ता है, उसकी उर्जा, उसका भय और उसकी चिंता. यह नज़र और
अनुभव की बात है. आम जन इसे पढ़ नही पाता कभी भी.
हम साधारण मनुष्य हैं, कई
बार तो हममें साधारण मानव के गुण भी नही मिल पाते, किन्तु कभी –कभी कुछ ऐसा भी हो
जाता है अनाश्य कि साधारण मनुष्य भी देवत्व पा लेता है अपने किसी प्रिय के नजरों
में. गर्मी में झुलझते हुए प्रियसी ने
वर्षा की इच्छा की. प्रेमी ने काल्पनिक मन्त्र बुबुदाये यह जानते हुए भी कि यह
उसके वश में नही, किन्तु तभी कुछ अनोखा होता है मानो मेघों ने सुन ली हो उस
प्रेमी की प्रार्थना और उन काल्पनिक मंत्रोच्चार से खुश होकर वे बरस पड़ें. प्रेमी
अपनी प्रेमिका की नज़रों में देवत्व पा लेता है. (कविता-अचानक देवत्व, पृष्ठ -४६)
बारिस कविता में कवि कहता
है –
“इस साल भी
बारिश आएगी
बरसेंगे मेघ
चाहता हूँ इस साल
तुम मेरी उँगलियों से
और मैं तुम्हारी उँगलियों
से
छुऊँ बारिश की बूंद
........देखो
चमक रही है बिजली
सुनो , गरज रहे हैं मेघ
औचक किसी भी पल झर सकती हैं
बूंदें|” इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मुह से निकल जाती है – ‘वाह’| जब सच्चा प्रेमी
मन ही मन प्रकृति से किसी चीज की इच्छा प्रकट करते हैं, तब वह खोल देता है अपना
दामन किसी दानवीर कर्ण की तरह. जरुरी नही कि सच में मेघ बरसे आकाश से किन्तु मन
में फैले विशाल निर्मल आकाश जरुर बरसने लगता है. क्यों कि कवि जानता है कि
चुम्बकत्व केवल लोहे में नही होता.
“तुमसे मिलने के बाद /जाना
कि
सिर्फ़ लोहे में /नहीं होता है
चुम्बकत्व |” (पृष्ठ -५०)
कितनी गहराई में जाकर अनुभव
किया है कवि ने प्रेम को यह इस संग्रह की रचनाओं को पढ़कर आप समझ जाएंगे. वर्ना कैसे कहता कवि
“आज
तुम्हारे सीने में नहीं / तुम्हारी हथेली में / धड़का
तुम्हारा दिल
और अपनी हथेली में दुबकाये
/ उसे ले आया मैं
अपने साथ |” (पृष्ठ -५१).
इस
संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कवयित्री अनामिका जी ने लिखा है –“सुधीर सक्सेना की
ये प्रेम कविताएँ नन्हीं –नन्हीं सांसों की तरह आप में आती –जाती हैं|” बिलकुल
ठीक कहा है उन्होंने. इन कविताओं को पढ़ते हुए आप ऐसा ही महसूस करेंगे.
“आपने प्रेम किया
तो भी मरेंगे
और नही किया
तो भी मरेंगे एक रोज़ ....
प्रेम से नहीं बदलती मौत की
तारीख
अलबत्ता प्रेम से बदल जाती
है ज़िंदगी
आमूलचूल |” (पृष्ठ -६९).
सुधीर जी का दूसरा संग्रह
जो मैंने पढ़ा, वह है “किरच –किरच यकीन”. इस संग्रह की कविताएँ सुधीर जी ने अपने
मित्रों को समर्प्रित किया है. और इस संग्रह की भूमिका में वरिष्ठ कविवर आदरणीय
नरेश सक्सेना जी ने लिखीं हैं. नरेश जी ने लिखा है –“घृणा से भरे इस समय में,
हमारे बीच एक कवि ऐसा भी है, जो मित्रों का नाम लेकर हमें अपने प्रेम और आत्मीयता
से आश्वस्त करता दिखता है| वर्ना इन दिनों लोग अपने मित्रों का नाम लेने से भी
बचते हुए दिखाई देते हैं |” बिलकुल सटीक
लिखा है नरेश जी ने. यही हकीकत भी है| कवि सुधीर सक्सेना के पास वह दृष्टि है जो
एक सजग कवि के पास होनी चाहिए. वे जानते हैं इतिहास का विश्लेषण और पड़ताल करना.
अब देखिये न कि कवि ने क्या लिखा है, ऐसा लगता है कि बहुत साधारण सी बात है यह,
किन्तु इस साधारण सी लगने वाली बात में कितनी गहराई है और कितनी सच्चाई है यह भी
महसूस होना चाहिए.
“अ से न अनार
न अज,
अ अमरुद
अ से अमेरिका
ब से न बकरी
न बटन
न बतख
ब से बुश |”
क्या यह हकीकत
नही है? कवि की नज़र बहुत पैनी हैं. यहाँ इस कविता में उन्होंने हमें चेताया है,
यह बताया है कि प्रकार पूरी दुनिया में अमेरिका की तानाशाही पूंजीवादी नीति का कहर
है. और अब बच्चों को अ से अनार नही अ से अमेरिका पढ़ाया जायेगा.
आज दुनिया के तमाम
राष्ट्रों को यदि किसी से खतरा है तो उसके राजनेताओं से. यह बात कवि बहुत अच्छी
तरह जानते हैं. कवि जो बतौर पत्रकार भी देश दुनिया की राजनैतिक गतिविधियों को
बहुत बारीकी से देखते रहे हैं. तभी तो वे कहते हैं –
“आपदा का समय बीत गया
अब हम राष्ट्रों की रक्षा करेंगे
राष्ट्राध्यक्षों से
सूबे की रक्षा सूबेदारों से
और गांवों की रक्षा पटवारियों से |”
इन लोगों को चुनौती देते हुए कवि याद करते हैं कबीर को.
“आपदा का समय बीत गया
अब हम राष्ट्रों की रक्षा करेंगे
राष्ट्राध्यक्षों से
सूबे की रक्षा सूबेदारों से
और गांवों की रक्षा पटवारियों से |”
इन लोगों को चुनौती देते हुए कवि याद करते हैं कबीर को.
“मैं जानता हूँ
कि वे तय नही कर पाएंगे
कि मुझे दफनायें
या जलाएं
लिहाज़ा मैंने मुल्तवी की
एक बार फिर
अपनी मौत |”
यहाँ इस कविता
को पढ़ते हुए मुझे विद्रोही कवि रमाशंकर यादव ‘विद्रोही’ की ‘जन-गण-मन’ कविता याद आती है –
“मैं भी मरूंगा
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा |”
और भारत के भाग्य विधाता भी मरेंगे
लेकिन मैं चाहता हूं
कि पहले जन-गण-मन अधिनायक मरें
फिर भारत भाग्य विधाता मरें
फिर साधू के काका मरें
यानी सारे बड़े-बड़े लोग पहले मर लें
फिर मैं मरूं- आराम से
उधर चल कर वसंत ऋतु में
जब दानों में दूध और आमों में बौर आ जाता है
या फिर तब जब महुवा चूने लगता है
या फिर तब जब वनबेला फूलती है
नदी किनारे मेरी चिता दहक कर महके
और मित्र सब करें दिल्लगी
कि ये विद्रोही भी क्या तगड़ा कवि था
कि सारे बड़े-बड़े लोगों को मारकर तब मरा |”
सुधीर जी की कविताओं में प्रेम है, जीवन
दर्शन भी है तो अन्याय के विरुद्ध विद्रोह भी हैं.
अब मैं कहना चाहता हूँ सुधीर जी के एकदम
नये संग्रह की कविताओं के बारे में. इस संग्रह की कविता एकदम अलग और एक ही विषय
पर केन्द्रित है. विषय है ईश्वर.
‘ईश्वर
हाँ, नहीं ...तो’ संग्रह के शीर्षक से आपको पहली नज़र में लगेगा कि शायद यह
कोई धर्म ग्रन्थ हो. किन्तु जैसे ही इसे खोलकर पहली कविता पढेंगे तो ...आप हैरान
हो जाएंगे. इसकी भूमिका लिखी हैं ज्योतिष जोशी जी ने. और बहुत शानदार लिखा है.
मनुष्य सबसे पहले शायद बादलों की गरज और
बिजली की चमक और फिर अँधेरी रात से डरा होगा. फिर शायद समुद्री तूफान या बाढ़ से.
वह डरा होगा सांप से जब कोई मरा होगा उसके डसने से. तो धीरे – धीरे उसने शुरू की
प्रार्थना /पूजा इनकी अपनी रहम और अपनी
रक्षा में. फिर समाज का निर्माण किया और गढ़ा उसने ईश्वर को जो कहीं घर कर गया था
उसके भय के कारण उसकी कल्पनाओं में. किन्तु आज इतने हजार साल बाद भी उसे बचा नही
पाता कोई ईश्वर मृत्यु से, पीड़ा से, रोग से, अपराध से. तो कहाँ है ईश्वर?
बाबा नागार्जुन ने लिखा था “कल्पना के पुत्र हे भगवान |”
कवि सुधीर जी ने पूछा है –
“ईश्वर
यदि सिर्फ देवभाषा जानता है
और इतनी दूर हैं हमसे
उस तक पहुँच नही सकती हमारी आवाज़
भला कैसे हो संवाद ..
“ईश्वर
यदि सिर्फ देवभाषा जानता है
और इतनी दूर हैं हमसे
उस तक पहुँच नही सकती हमारी आवाज़
भला कैसे हो संवाद ..
यदि हमने भेजा उसे
अपने दुखों का खरीता ,
तो वह उसे पढ़ नही सकेगा
उसके अजनबी लिपि में होने से
.......ईश्वर के लिए
ईश्वर होने के वास्ते
कितना जरुरी हो गया है
बहुभाषी होना|” (पृष्ठ -१७).
अपने दुखों का खरीता ,
तो वह उसे पढ़ नही सकेगा
उसके अजनबी लिपि में होने से
.......ईश्वर के लिए
ईश्वर होने के वास्ते
कितना जरुरी हो गया है
बहुभाषी होना|” (पृष्ठ -१७).
इस श्रृंखला की तीन में कवि कहते हैं –
“अरबों वर्षों बाद भी
यदि अभी भी बची हैं
ईश्वर में संवेदनाएं
तो वह दु:खी होगा धरती की दशा से
मनुष्य की दिशा से .....” (पृष्ठ -19) .
बिलकुल ठीक ही तो लिखा है सुधीर जी ने. आज का समाज जा कहाँ रहा है और कहाँ जा रहे
हैं मनुष्य?
त्वचा डरती है दाग से,
वनस्पति फफूंद से
तट चक्रवात से .......मगर, सबसे ज्यादा
लोग डरते हैं तुमसे
महाबाहो | आखिर तुममे और विकार में
कोई तो रिश्ता होगा
परस्पर / हे ईश्वर”
क्या सटीक बात कही है कवि ने. हमारी
फ़ेहरिस्त में सबसे अव्वल है तुम्हारा नाम, सूची छोटी हो या बड़ी / कहो कहाँ है
तुम्हारी सूची ईश्वर /कहाँ है हमारा नाम?
क्या यह प्रश्न बाजिव नही? हमें नही पता कि कौन सी भाषा आती है ईश्वर को
इसलिए कवि ने सबसे आसान भाषा का प्रयोग किया है अपने सवालों को उठाते हुए.
इस संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे
बार –बार बाबा नागार्जुन की वही कविता याद आती है ‘कल्पना के पुत्र हे भगवान’. और
ऐसा पहली बार हुआ है. कि बाबा के बाद किसी कवि ने इस तरह की कविता की पूरी
श्रृंखला लिख डाली हो.
लाखों वर्षों से ईश्वर ने जो इतने लोगों
को गर्म सलाखों से दागा है. कैसे माफ़ होंगे उसके पाप? तभी तो सुधीर जी ने कहा –
मान जाओ
हे परम पिता
परमात्मा
‘ईश्वर के लिए
ईश्वर से डरो
हे ईश्वर |......
सुधीर जी पढ़ते हुए सदा सुखद महसूस किया है
मैंने. उनकी हर कविता एकदम नई होती है. और लम्बे समय तक याद रहती है. हाँ इस
बात का अभी इल्म है कि मैंने इस अग्रज कवि का सबसे चर्चित संग्रह ‘समरकन्द में
बाबर’ अब तक नही पढ़ा है. किन्तु जल्द ही उसे भी खोज कर पढूंगा.
समकालीन हिंदी कविता में सुधीर सक्सेना एक
महत्वपूर्ण सजग और संवेदनशील कवि हैं. शोरगुल से दूर वे सदा अपनी रचनाओं में लगे
हुए हैं. हम सब यही कामना करते हैं कि इसी तरह सृजन करते रहें और हिंदी कविता को
और –और समृद्ध कर हमें प्रेरणा देते रहें.
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सम्पर्क-
नित्यानन्द गायेन
मोबाईल- 09999142633
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