भारत यायावर की किताब पर पंकज पराशर की समीक्षा
हिन्दी आलोचना के जीवित किंवदंती बन चुके नामवर सिंह के जीवन पर भारत यायावर की हाल ही में एक किताब आई है - 'नामवर होने का अर्थ'. इस किताब की एक आलोचकीय पड़ताल की है. युवा कवि-आलोचक मित्र पंकज पराशर ने. आइए पढ़ते हैं पंकज की यह समीक्षा.
मुझमें ढल कर बोल रहे जो वे समझेंगे
पंकज पराशर
उम्र के इस पड़ाव पर
भी नामवर जी हिंदी में हर जगह मौज़ूद होते हैं। जहां मौजूद होते हैं वहां तो वे चर्चा/कुचर्चा/सुचर्चा इत्यादि के केंद्र में होते ही हैं, जहां वे भौतिक
रूप से मौज़ूद नहीं होते वहां भी उनके अफ़साने पहले से उनकी नुमाइंदगी कर रहे होते
हैं। ...मुझसे पहले उस गली में मेरे अफ़साने गए की मानिंद! जिस शख़्स की वे बात करते
हैं वे अक्सर ‘खिंच गए दृगों में सीता के राममय नयन’ की तरह अपने को
नामवरी नज़र से देखे जाने की कथा-वाचन में मुब्तिला मिलते हैं। जिनकी ओर सायास या
अनायास उनकी नज़र नहीं जाती, वे नामवर-(कु)चर्चा में ऐसी-ऐसी चीजें ढूंढ़कर ले आते
हैं, जिससे हिंदी लोकवृत्त में नामवर की क्लासिकल किस्म की निंदा सहज संभाव्य हो जाती
है। वे कुछ कहें तो विवाद, कुछ न कहें तो विवाद! किसी ‘वाद’ की बात करें तो सहज
ही विवाद, कभी ‘संवाद’ की इच्छा से कुछ कहें तो भी विवाद।
किसी प्रतिबद्ध रचनाकार की उत्कृष्ट रचनात्मकता पर रीझकर कुछ कहें तो पार्टीलाइन
पर प्रशंसा करने के आरोप, किसी कलावादी किस्म के रचनाकार की रचना पर दिल आ जाए तो
प्रगतिशील छड़ीदार-मुलगैन बेचैन! न यों कल, न वों कल। वे पॉलिमिक्स के उस्ताद हैं, वे
राजनीति करते हैं, वे आए दिन किसी को दोयम दर्जे कवि को दूसरा मुक्तिबोध बता देते
हैं आदि-आदि। कमाल यह है कि यह सब वे कह तो देते हैं, लिखते नहीं। बकौल प्रेमचंद
बोलने से ज़बान भले न कटती हो, लेकिन लिख देने से हाथ जरूर कट जाता है। मैंने नत
होकर बार-बार सोचा है कि आखिर नामवर जी में ऐसा क्या है कि उनके कट्टर-से-कट्टर
आलोचक भी ये कहने का साहस नहीं जुटा पाते कि ‘वे कुछ नहीं जानते’, या ‘उनको कुछ नहीं आता’-जो कि हर दूसरे आलोचक के बारे में लेखकगण अक्सर कहते
हुए पाए जाते हैं।
मिर्ज़ा ग़ालिब का
एक शेर हैः ‘हुस्ने फ़रोग़े शम-ए सुख़न दूर है असद/ पहले दिले गुदाख़्ता पैदा करे कोई’...यकीन मानिए, इसके बिना शायरी ही नहीं, आलोचना भी असंभव है। अभिव्यक्ति के
ख़तरे उठाए बगैर न बेहतर कविता संभव है, न बेहतर आलोचना। ज़माने से दो-दो हाथ वही
लेखक कर सकता है जिसके पास वाकई दिले गुदाख़्ता हो। नहीं तो हर भाषा में बहुतेरे
रचनाकार कई बार तो अपने जीते-जी ही अप्रासंगिक हो जाते हैं, मगर पश्चिमी लेखकों की
तरह ईमानदारी से यह स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि उनके पास जितना देना था दे
चुके, अब कुछ बचा नहीं है। जितना लिख सकते हैं, उतना लिखकर ईमानदारी यह स्वीकार कर
लेते हैं कि उनके पास अब लिखने को कुछ नहीं बचा। रोमांटिसिज़्म के बड़े पैरोकार
विलियम वर्ड्सवर्थ ने निधन से काफी पहले ही लिखना छोड़ दिया था और इधर जीवित
रचनाकारों में वी.एस.नॉयपाल ने ईमानदारी से स्वीकार कर लिया कि उन्हें जितना लिखना
था वे लिख चुके, अब और नहीं लिख सकते। ऐसी सूरत में हिंदी में लेखक साध चुके
शिल्प, भाषा और विषय को लेकर निरंतर स्वतोव्याघात और पिष्टपेषण में लगे रहते हैं।
जिससे हिंदी का भला होता हो न होता हो, लेकिन पुस्तकों की भीड़ में सार्थक और निरर्थक
में भेद करने का पाठकों का विवेक जरूर प्रभावित होने लगता है।
नामवर जी अपनी चूक
को स्वीकार करने वाले आलोचक हैं। समय के साथ उनके विचारों में यदि कोई परिवर्तन
आया, तो वे उसे स्वीकार करके नई दृष्टि से सोचने के हामी आलोचक हैं। कुछ ही वर्ष
पहले अपने एक साक्षात्कार में उन्होंने बिल्कुल मुक्त मन से यह स्वीकार किया था कि
अमर कथा-शिल्पी फणीश्वरनाथ रेणु की प्रतिभा को पहचानने में उनसे चूक हुई। रेणु ने
आगे चलकर यह साबित किया कि वे ‘कितने बड़े पाए’ के लेखक हैं। पर जिसकी पहचान उन्होंने शुरू में ही की, उसे बाद में कोई कमजोर
या दोयम दर्जे का रचनाकार साबित नहीं कर सका। न निर्मल वर्मा, न मुक्तिबोध कोई आगे
चलकर कमजोर लेखक साबित नहीं हुए। पर यह देखकर अजीब लगता है अन्य आलोचकों ने जिन
लेखकों को महानतम रचनाकारों की पंक्ति में रखकर उन्हें उनसे भी बड़ा सिद्ध करने की
कोशिश की, उन्हें इतिहास का पहिया बेहद निर्ममतापूर्वक रौंदकर आगे बढ़ गया और आज
उनका नामो-निशां तक बमुश्किल मिलता है। कहना न होगा कि समय से बड़ा न्यायाधीश शायद
ही कोई होता हो और उसकी अदालत में जो जितने का हकदार होता है, उसे उतना ही प्राप्त
होता है। कोई आलोचक कुछ समय तक किसी को उठा या गिरा सकता है, बाद में मामला जब समय
की अदालत में पहुंच जाता है, तो पासंग और डंडीमार तरीका बहुत पीछे छूट जाता है।
नामवर जी ने अपना
काम अपभ्रंश साहित्य से शुरू किया था, मगर बाद में क्रमशः वे समकालीन रचनाशीलता की
ओर बढ़ते गए। जबकि समकालीनता से शुरू करने वाले कई आलोचक क्रमशः पीछे की ओर
लौटते-लौटते इतना पीछे चले गए कि कभी दोबारा समकालीनता की ओर लौट पाना उनसे मुमकिन
न हुआ। इतिहास की ओर लौटते-लौटते ऐतिहासिक तो हुए, समकालीन और सार्थक रचनाशीलता के
पैरोकार न हुए। जबकि नामवर पढ़ाकू तो बड़े हुए, लिक्खाड़ बड़े न हुए। नामवर लिखते
नहीं बस बोलते हैं, पिछले कई सालों से वे बोली की कमाई खा रहे हैं, लिखना तो उनसे
छूट ही गया आदि-आदि जुमलों से उन पर तोहमत की बारिश करने वाले लोग अब चुप हैं, जब
पिछले दो-तीन वर्षों में उनकी सात-आठ किताबें प्रकाशित हुई हैं। हालांकि यह उनके
लिखे की नहीं, बोले हुए की किताब है, मगर बोले हुए कि भाषा ऐसी है कि लिखे हुए की
भाषा अपनी फूहड़ता पर सिर धुनें। एक भाषण को तो इधर मैंने अंग्रेजी से ढूंढ़कर
अनुवाद किया जिसके मूल टेप को पाने में असफल होकर अनुवाद ही एकमात्र विकल्प बच गया
था और स्वयं नामवर जी उस व्याख्यान को भूल चुके थे। लगभग एक मिशन की तरह देश के
कोने-कोने में उन्होंने बहुत तैयारी के साथ सुचिंतित तरीके से व्याख्यान दिए हैं।
इतने कि मेरा अनुमान है कि जगहों और विषयों के नाम उन्हें याद न होंगे। आज से लगभग
चौदह-पंद्रह साल पहले पटना में उनका एक व्याख्यान हुआ था, जिसका विषय था ‘शताब्दी का संक्रमण’। साहित्य से इस विषय का
दूर-दूर तक कोई संबंध नज़र नहीं आता, मगर नामवर जी ने जिस अधिकार और तैयारी के साथ
लगभग एक-सवा घंटे तक वह व्याख्यान दिया, वह मुझे आज भी याद है। पूरे हॉल में ‘पिन ड्रॉप साइलेंस’ तारी रहा और लोग बिल्कुल
सम्मोहित तरीके से उन्हें सुनते रहे। मुझे नहीं मालूम कि उनका वह व्याख्यान वहां
टेप हो रहा था या नहीं या उसका संकलन कहीं हुआ है या नहीं, पर मेरा अनुमान है कि वह
व्याख्यान पटना के लोगों को आज भी याद होगा। हालांकि उनकी अधिकांश चीजें इधर संकलित हो गई हैं, मगर उन्होंने जितने व्याख्यान दिए हैं, उस
परिमाण के हिसाब से ऐसा लगता है अभी भी कुछ-न-कुछ असंकलित रह गया हो।
छियासी वर्ष की आयु
पूरी कर चुके नामवर जी लगभग छह दशक से आलोचना में सक्रिय हैं। इतने व्यापक कालखंड
में उनकी निर्मिति, उनके जीवन-संघर्ष और
रचनात्मक संघर्ष की आलोचकीय पड़ताल करना कोई आसान काम नहीं है। मगर इधर हाल में तीन सौ चवालीस पृष्ठों में भारत यायावर
ने ‘नामवर
होने का अर्थ’ नामक एक पुस्तक लिखी है, जिसमें बाकायदा उनके बारे में
साक्ष्यों, लेखों और अन्य सूचनाओं के आधार पर उन्होंने उनके
आलोचकीय व्यक्तित्व की निर्मिति को लक्षित करने की कोशिश की गई है। फणीश्वरनाथ
रेणु रचनावली और महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली का संपादन कर चुके भारत यायावर ने
इस पुस्तक हेतु सामग्री जुटाने में काफी श्रम किया है। लेकिन ‘स्पष्टीकरण’ शीर्षक
से पुस्तक की भूमिका में वे बिल्कुल साफगोई से लिखते हैं, ‘प्रस्तुत पुस्तक नामवर सिंह के
जीवन एवं साहित्य का एक पार्श्वचित्र या प्रोफाइल है। इसे सही मायनों में ‘जीवनी’ भी नहीं कहा जा सकता।
कोशिश यह रही है कि उनके जीवन एवं साहित्य का एक सामान्य परिचय इस पुस्तक के
द्वारा प्रस्तुत हो जाए।’ बहरहाल, पुस्तक के बारे में कुछ सूचनात्मक बातें
करके आगे बढ़ा जाए। ‘आलोचक नामवर सिंह का महत्व’ से शुरू करके उन्होंने ‘कुछ लेखकों के वक्तव्य’ तक कुल पैंतीस लेखों में उनके व्यक्तिगत और रचनात्मक
जीवन को पाठकों के सामने रखने का प्रयत्न किया है।
तो पुस्तक पर बात पहले
नामवर जी के नाम से ही शुरू करते हैं। नामवर नाम ऐसा है जो समाज में आमतौर पर न के
बराबर सुनने में आता है। पुराने लोग तो प्रायः भगवान के नाम पर अपने बच्चों के नाम
रखते थे। कुछ माता-पिता पवित्र धार्मिक स्थानों के नाम पर भी बच्चों के नाम रखते
थे। निराला का नाम उनके पिता ने सूर्जकुमार तेवारी रखा था, जिससे बाद में वे
सूर्यकांत त्रिपाठी हुए और निराला उपनाम तो बाद में मिला/रखा। तो नामवर का नाम नामवर किसने और कैसे रखा इस जिज्ञासा को शांत करने की
नीयत से भारत यायावर ने उसकी गाथा बयान की है। ‘पिताजी नाम रखा-रामजी। किंतु पड़ोस
की एक महिला ने इनका नाम ‘नामवर’ रखा। जब इन्हें ‘रामजी’ कहकर बुलाया जाता तो रोने लगते और
‘नामवर’ कहकर बुलाने से चुप हो
जाते।’(पृ.32) बाद में रामजी नाम रखने की उनके पिताजी की
साध उनके दूसरे भाई का नाम रखकर पूरी हुई। नामवर जी से छोटे भाई का नाम रामजी सिंह
है।
1948 ईस्वी में
नामवर जी का पहला आलोचनात्मक लेख तुलसीदास पर छपा था, जिसे पढ़ कर शमशेर बहादुर
सिंह ने भैरव प्रसाद गुप्त से कहा था, ‘भैरव भाई, हिंदी आलोचना के क्षेत्र में एक नई प्रतिभा ने
पदार्पण किया है।’ शमशेर ने नामवर की प्रतिभा को लेकर टिप्पणी करते हुए
लिखा था, ‘बहुत लोग लिखते हैं तुलसी पर। मगर इसमें ख़ास बात यह
पाई थी कि बातों को थोड़े में कहा गया था, हालांकि बातें बहुत-सी कही गई थीं, और
तर्कसंगत, स्पष्ट शैली लेखक के व्यवस्थित अध्ययन का पता देती थी। साथ ही यह भी
स्पष्ट था कि यह विद्यार्थी पीछे नहीं, आगे के युग की ओर देख रहा है।’(पृ.106) इस पुस्तक में
भारत यायावर ने वस्तुनिष्ठ तरीके से नामवर जी के आलोचनात्मक लेखन की शुरुआत से
लेकर आज तक उनके लेखन को सामने रखा है।
उनके अनुज और
सुप्रसिद्ध कथाकार काशीनाथ सिंह ने ‘गरबीली ग़रीबी’ और ‘घर का जोगी जोगड़ा’ शीर्षक संस्मरण में नामवर जी के जीवन-संघर्ष, आर्थिक अनिश्चतताओं के बीच भी लगातार अध्ययन-मनन और
आलोचकीय व्यक्तित्व के निर्माण काल का बहुत मार्मिक चित्रण किया है। संघर्ष के वे दिन
उनके रचनात्मक रूप से उत्कर्ष के दिन भी हैं। जिसका जिक्र करते हुए काशीनाथ जी ने
लिखा है कि उन दिनों नामवर जी सुबह लेख लिखने की शुरुआत करते और शाम तक लेख तैयार
कर लेते। नामवर जी जब लोलार्क कुंड वाले मकान में वे रहते थे तब की उनकी
जीवन-चर्या, अध्ययनशीलता और अकादमिक तैयारियों का जिक्र करते हुए काशीनाथ जी ने
लिखा है कि अक्सर कर्माइकल लाइब्रेरी, बी.एच.यू. की लाइब्रेरी छान रहे होते थे। कभी
संस्कृत साहित्य की किसी चीज पर बात करने के लिए किसी महामहोपाध्याय से बात कर रहे
हैं। अद्भुत यह है कि नामवर जी की यह ज्ञान-पिपासा आज भी उसी तरह कायम है, जैसा उन
दिनों था। मशहूर शहनाई वादक उस्ताद बिस्मिल्ला ख़ान ने उम्र के अंतिम पड़ाव पर एक
साक्षात्कारकर्ता के प्रश्न के उत्तर में कहा था कि ‘काश! कभी एक सच्चा सुर लग जाता!’ जबकि तब तक उस्ताद बिस्मिल्ला खान न केवल कई रागों को पुनर्नवा कर चुके थे, बल्कि
कई चीजें भारतीय शास्त्रीय संगीत को उनकी देन मानी जाती है। बनारस घराना की यह
विनम्रता पंडित राजन-साजन मिश्र के यहां भी है-जहां साधना के चरम पर भी अहंकार और
गर्वोक्तियों की कोई जगह नहीं है। लेकिन दिले गुदाख़्ता के धनी लेखकों की गर्वोक्तियां
हर मामले में अजीब ही नहीं, सच्ची और स्वयं पर आत्मविश्वास से लबरेज लगती है, जिसे
कबीर हम न मरैं मरिहैं संसारा कहते हैं और मिर्जा ग़ालिब ‘करते
हो मना मुझको कदमबोश के लिए/ क्या आसमां के भी बराबर नहीं हूं मैं’ कहते हैं।
आलोचना शुरू करने से
पहले नामवर जी ने अपनी रचनात्मक यात्रा कविता से शुरू की थी। उपनाम रखने का रिवाज
था, सो उन्होंने अपना उपनाम रखा ‘पुनीत’। नामवर सिंह ‘पुनीत’ की पहली कविता की अंतिम पंक्ति है-चढ्यौ बरतानिया पर हिटलर ‘पुनीत’ ऐसे/ जैसे गढ़ लंक पर पवनसुत कूदि
गौ। कवि पुनीत का जन्म के बारे में लिखते हुए भारत
यायावर ने एक महत्वपूर्ण जानकारी साझा की है। जिस नामवर सिंह की आलोचकीय प्रतिभा
का हिंदी साहित्य में लोहा माना गया वे बचपन के दिनों से ऐसे प्रतिभाशाली नहीं थे
कि आप सहसा कह उठें ‘होनहार बिरवान के होत चिकने पात’। भारत याचावर ने
लिखा है, ‘1940 ईस्वी में नामवर मिडिल की परीक्षा में बैठे और इतिहास
के पत्र में शिवाजी पर इतना लंबा लिखा कि बाकी प्रश्न छूट गए और वे फेल हो गए।
पुनः 1941 ईस्वी में मिडिल की परीक्षा प्रथम श्रेणी से पास की। उनके पिताजी चाहते
थे कि नामवर उन्हीं की तरह मिडिल के बाद ट्रेनिंग कर लें और प्राइमरी स्कूल में
शिक्षक हो जाएं।’(पृ.38) आज जब आम तौर पर पंद्रह साल की उम्र में
बच्चे मैट्रिक पास कर जाते हैं, तब नामवर जी को जब आगे की पढ़ाई के लिए बनारस भेजा
गया तो उनका नामांकन सातवीं कक्षा में हुआ। ‘जुलाई 1941 ईस्वी
में नामवर का नामांकन हीवेट क्षत्रिय स्कूल, बनारस में हो गया, किंतु कक्षा आठ में
नहीं कक्षा सात में। अर्थात् पंद्रह वर्ष की उम्र में भी वे कक्षा सात में ही थे।
कारण यह था कि ग्रामीण स्कूलों में पढ़ी हुई अंग्रेजी नाकाफी थी।’(पृ.वही)
काशी को लेकर
भारतेंदु ने बनारस में व्याप्त पाखंड, धूर्तता और ठगी को लेकर ‘देखी तुमरी कासी’ लिखकर गंभीर व्यंग्य किया है। बनारस अपने आप में
एक अद्भुत शहर है-तरह-तरह के मंदिर, गंगा के अनेक घाट, पंडे-पुरोहित और पाखंडी,
पतली-पतली गलियां और सनातन काल से अपने पांडित्य, शास्त्रीयता के लिए प्रसिद्ध
लोग। कोई भी रचनाकार जब किसी चीज या स्थान को संपूर्णता में देखता है तभी उसके साथ
न्याय कर पाता है। काशी पर बहुत लोगों ने लिखा है, मगर ऐसे रचनाकार कम हैं जिनके
लेखन में बनारस को लेकर पर्याप्त संतुलन भी हो। नामवर जी ने बनारस के बारे में
लिखा है, ‘काशी पंडे-पुरोहित और धार्मिक लोगों की है, किंतु उसमें
कबीर और तुलसीदास की भी उपस्थिति है। उसी काशी में प्रेमचंद, प्रसाद हुए, इसलिए
हमें भूलना नहीं चाहिए कि काशी केवल पुरातनपंथी शहर ही नहीं बल्कि उसके विरोधी
लड़ने वाले विचारक भी हुए। उसी काशी में सारनाथ भी है और विश्वनाथ भी है। काशी में
क्वींस कॉलेज है जो कभी अंग्रेजियत का गढ़ था और गवर्नमेंट संस्कृत कॉलेज हुआ करता
था जिसमें संस्कृत के बड़े-बड़े विद्वान हुआ करते थे, जिसे अंग्रेजों ने बनाया था
और वहीं मदनमोहन मालवीय जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय स्थापित किया। वहीं बाबू
शिवप्रसाद गुप्त और आदरणीय नरेंद्रदेव ने काशी विद्यापीठ स्थापित किया। उस काशी
में आया तो एक ओर नागरी प्रचारिणी सभा और दूसरी ओर प्रगतिशील लेखक संघ था। एक तरह
से कहूं तो काशी में तरह-तरह के मत-विचार और सह-विश्वास अस्तित्व में रहते थे।’(पृ.41)
मनुष्य के सोच,
व्यक्तित्व और जीवन-जगत के बारे में उसकी समझ और दृष्टिकोण के निर्माण में उसके गुरुओं
की भूमिका बेहद अहम होती है। महज यह काफी नहीं कि कोई विद्यार्थी पढ़ने-लिखने में
बहुत अच्छा है। यदि गुरू अच्छे मिल जाएं तो फिर क्या कहना! नामवर के जीवन-जगत के प्रति दृष्टिकोण के निर्माण में शुरूआत में उदय प्रताप
कॉलेज, बनारस के अंग्रेजी के अध्यापक जे.पी.सिंह और हिंदी के अध्यापक मार्कण्डेय
सिंह और जब वे काशी हिंदू विश्वविद्यालय अध्ययन के लिए गए तो वहां आचार्य केशव प्रसाद
मिश्र, आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि गुरुओं के सानिध्य में रहे। नामवर जी ने
अपने गुरुओं को याद करते हुए कहते हैं, ‘यदि गुरु के रूप में
पंडित विश्वनाथ जी न मिले होते तो रीतिकालीन परंपरा की अनेक भाषिक रुढ़ियों की
जानकारी से वंचित रह जाता। किशोरावस्था के ब्रजभाषा काव्य के अकाल परिचय को
उन्होंने प्रत्यभिज्ञान में बदल दिया, जो आगे चलकर बहुत काम आया।’(पृ.105) आचार्य केशव प्रसाद मिश्र अद्भुत प्रतिभा के धनी व्यक्ति थे।
उन्होंने स्वाध्याय के दम पर बंगला, गुजराती, फारसी, पालि, जर्मन, लैटिन आदि
भाषाओं में दक्षता प्राप्त की थी। वे 1928 ईस्वी में काशी हिंदू विश्वविद्यालय में
नियुक्त हुए थे और 1941 ईस्वी में हिंदी विभाग के अध्यक्ष बने। इस पुस्तक की एक
बड़ी ख़ूबी यह नोट करने लायक है कि जिस प्रकार अमृत राय ने प्रेमचंद को संपूर्णता
में समझने के लिए ‘कलम का सिपाही’ में प्रेमचंद के समय की राजनीतिक,
सामाजिक और ऐतिहासिक परिवर्तनों की गहराई से पड़ताल की है, ठीक उसी तरह भारत
यायावर ने भी इस पुस्तक में नामवर जी की निर्मिति को सटीक रूप से समझने के लिए
उनके गुरुओं, उनके शिक्षा संस्थानों और तत्कालीन परिवेश की गहरी पड़ताल की है। वे
एक-एक ब्यौरे को ठीक से विश्लेषित करने के लिए उसकी बारीकी, उत्पत्ति और उसके
इतिहास में जाते हैं। इस कड़ी में ‘सौभाग्य से गुरु मिले’ नामक अध्याय में वे नामवर जी के गुरुओं की विद्वता और
विशेषताओं का अच्छी तरह उल्लेख करना नहीं भूलते।
वर्तमान में आधुनिकता पसंद हिंदी जमात में परंपरा और ख़ास तौर से साहित्यिक
परंपरा को कुछ अधिक ही त्याज्य समझने का फैशन है। यह सोचकर बहुत अजीब लगता है कि
कई बार लोग परंपरा को सिरे से ख़ारिज कर देने को ही आधुनिकता मान लेते हैं। हिंदी
आलोचना की वह सारस्वत परंपरा आज लोगों को अत्यंत विनम्रतापूर्वक याद करना चाहिए
जिसमें आचार्य रामचंद्र शुक्ल की प्रतिभा एंट्रेस पास होने या बी.ए., एम.ए.,
पी-एच.डी. जैसी डिग्रियों में महदूद नहीं की जा सकती थी। जिन्हें अपने समय में ‘रीडिंग मशीन’ माना जाता था और तत्कालीन
अंग्रेजी की पत्र-पत्रिकाओं में राजनीतिक विषयों पर लेख लिखा करते थे, उन आचार्य
रामचंद्र शुक्ल को उनकी वास्तविक प्रतिभा के कारण हिंदी अध्यापन जगत में उचित
मान-स्थान से वंचित करना संभव न था। उस दौर में प्रतिभा की पूछ थी, डिग्रियों की
नहीं। वरना ज्योतिष में महज शास्त्री किए हुए आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी की
प्रतिभा को उचित डिग्री के अभाव में विश्वविद्यालय में प्रोफेसर का पद शायद नसीब न
होता। स्वाध्याय और अध्ययन-अध्यापन के प्रति निष्ठा के कारण उन लोगों ने हिंदी
आलोचना और उच्च स्तर पर हिंदी शिक्षण में अमूल्य योगदान दिया। आचार्य केशव प्रसाद
मिश्र ‘संस्कृत में धाराप्रवाह भाषण देते थे, दूसरी तरफ
अंग्रेजी भी उनकी बहुत अच्छी थी। उन्होंने अंग्रेजी में कई निबंध लिखे थे। ‘इंडियन एंटीक्वेरी’ में अपभ्रंश पर उनका एक
शोधपूर्ण निबंध छपा था जिसकी प्रशंसा कई देशी-विदेशी विद्वानों ने की थी।’(पृ.104) नामवर जी आचार्य
केशव प्रसाद मिश्र को याद करते हुए लिखते हैं, ‘वह बहुत सफल अध्यापक थे। एम.ए. में
वह कामायनी पढ़ाते थे, भाषाविज्ञान और अपभ्रंश भी। बी.ए. में उन्होंने ‘रसायन’ नाम से हिंदी की पुरानी व
आधुनिक कविताओं का बहुत अच्छा चयन किया था। उनकी ही प्रेरणा से मैंने ‘हिंदी के विकास में
अपभ्रंश का योग’ नाम से एम.ए. के लिए लघु शोध-प्रबंध तैयार किया।
उनसे मैंने शब्द-विवेक पाया। उन्हीं के मुख से मैंने पतंजलि का यह कथन पहली बार
सुनाः ‘एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके च
कामधुक् भवति। इस प्रकार गुरु के प्रसाद से मेरे हृदय में शब्द के प्रति श्रद्धा
का भाव पैदा हुआ।’(पृ.105)
भारत यायावर ने इस पुस्तक में नामवर के समकालीनों, सतीर्थों और हिंदी के
विद्वानों के विचारों को यथास्थान जगह दी है। जिन दिनों नामवर जी हिंदी विभाग,
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में अस्थायी प्रवक्ता के पद पर कार्यरत थे, उन दिनों
नामवर जी की आर्थिक स्थिति, अध्ययनशीलता और शिष्य वत्सलता की चर्चा करते हुए डॉ.
विश्वनाथ त्रिपाठी ने लिखा है, ‘वे नए-नए लेक्चचर लगे थे, टेंपरेरी। उनकी पारिवारिक
जिम्मेदारियां थीं। कितनी तनख्वाह उनकी रही होगी उस वक्त-1954 में। वातावरण में
नामवर जी के विरोध की भी गूंज थी। लोग तरह-तरह की बातें करते। टुच्ची और ओछी
बातें। लेकिन नामवर जी हमारे हीरो थे। हम वही ठीक समझते जो वे हमें बताते। यह तो
कोई नहीं कह सकता कि वे प्रतिभाशाली नहीं हैं। और उनके भाषण तब आज से भी ज्यादा
कारगर होते थे। एक दिन अलस्सुबह उनके घर पहुंचा। मुझे होस्टल की फीस देनी थी। मैं
इस अधिकार से उनके यहां पहुंचा कि उन्होंने ही मुझे होस्टल में रहने के लिए कहा था।
वे सो रहे थे। आंखें मींचते हुए उठे। मैंने कहा-मुझे फीस देनी है, मेरे पास पैसे
नहीं हैं। उन्होंने बक्सा खोला। साठ रुपये निकाले, मुझे दिए-ले जाइए! और फिर सो गए।’(पृ.195) यहां यह याद करना ग़ैर-मुनासिब न होगा कि
जिस वक्त नामवर जी ने विश्वनाथ त्रिपाठी की सहायता की थी उस वक्त उनका विवाह हो
चुका था, दोनों छोटे भाई बेरोजगार थे, गांव में पैसे की तंगी रहती थी और वे खुद
स्थायी पद पर नहीं थे। लेकिन एक जरूरतमंद छात्र से जो वादा किया था, उसे निःसंकोच
पूरा किया। बिना किसी तरह का चेहरे पर शिकन लाए हुए। तो ऐसे शिष्य वत्सल हैं नामवर!
सुप्रसिद्ध कथाकार और आलोचक विजयमोहन सिंह बनारस में नामवर सिंह के उन दिनों
की अध्ययनशीलता को याद करते हुए लिखा है, ‘उनके यहां मार्क्स, एंगेल्स आदि की
पुस्तकें ही नहीं, क्रिस्टोफर कॉडवल, रैल्फ फॉक्स, जॉर्ज लुकाच आदि की पुस्तकें भी
बिखरी रहती थीं, जिनका वे देर रात तक जागकर अध्ययन करते और नोट्स लेते रहते थे।
टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट, एनकाउंटर, लंदन मैगजीन आदि पत्रिकाएं पढ़कर ‘नई समीक्षा’ के आधार स्तंभों डॉन
क्रोरैनसम, क्लिंथब्रुक्स, आइवर विंटर्स, एलेन टेट तथा ब्लैक मर आदि की पुस्तकें
भी मंगवाते थे। उन्हीं के संपर्क तथा प्रेरणा से हमने उन्हीं दिनों इनके नाम ही
नहीं सुने, बल्कि पढ़ने की शुरुआत भी की थी।’(पृ.200) विजयमोहन जी की यह स्वीकारोक्ति
नामवर जी की न सिर्फ गंभीर एकेडमिक तैयारी की सूचना देती है, बल्कि इससे यह भी पता
चलता है कि नामवर जी ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय के अपने आचार्यों क्रमशः
रामचंद्र शुक्ल, केशव प्रसाद मिश्र और आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र की सारस्वत
साधना की परंपरा को किस तरह और किस रूप में ग्रहण किया था। अपने समकालीनों की
तुलना में आचार्य केशव प्रसाद मिश्र ने बहुत कम लिखा, इसके बावजूद आज भी लोग
उन्हें बहुत श्रद्धा और प्रेम से याद करते हैं। इन आचार्यों ने जिस तरह अनेक
भाषाएं सीखीं, अनेक भाषाओं के साहित्य का अवगाहन किया और अध्ययन के मामले में
ज्ञान के किसी भी अनुशासन को व्यर्थ न समझा-क्या उस परंपरा को आधुनिकों और
परंपरावादियों में से किसी ने उसी तरह निभाया?
भारत जी ने ‘प्रतिभा के दो स्वरूप साथ चल रहे थे’ नामक अध्याय में बताया
है, ‘1955 ईस्वी में रामविलास शर्मा की पुस्तक ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और
हिंदी आलोचना’ प्रकाशित हुई। उनका शुक्ल जी पर पहला निबंध ‘साहित्य और लोक-जीवन’ नवंबर 1954 के नया पथ में
प्रकाशित हुआ। इसमें उन्होंने शिवदान सिंह चौहान, नामवर सिंह, रांगेय राघव,
धीरेंद्र वर्मा एवं शिवनाथ के आलोचना पत्रिका में प्रकाशित निबंधों से उद्धरण देकर
उन्हें रामचंद्र शुक्ल विरोधी सिद्ध किया।’(पृ.231) इस वाद-विवाद के दौर में
नामवर जी की पुस्तक प्रकाशित हुई ‘इतिहास और आलोचना’। 1957 ईस्वी तक नामवर सिंह आलोचक
के रूप में चर्चित हो गए थे और उनकी प्रतिभा के दो स्वरूप साथ-साथ चल रहे थे। एक
कवि-मन और दूसरा तीक्ष्ण तर्क-वितर्क वाला आलोचक-मन। वह एक और मन रहा राम का जो
न थका की भांति आरोप और विरोध उन्हें उनके उद्देश्यों से तनिक भी नहीं डिगा
पाए। श्रीनारायण पांडेय को लिखे पत्र में नामवर जी ने अपनी निज-व्यथा को व्यक्त
करते हुए लिखा है, ‘जिंदगी वहां से शुरू होती है जहां से विरोध शुरू होते
हैं। यह मैं नहीं कह रहा हूं-मेरे सीने की वे तमाम चोटें कह रही हैं जो पिछले
सात-आठ साल के सधे प्रहारों में लगी हैं और जिनका घाव अब भी ताजा है। आरोप करने
वालों को करने दें, क्योंकि जिनके पास करने को कुछ नहीं होता, वही दूसरों पर आरोप
करता है। अपनी ओर से आप अधिक-से-अधिक वही कर सकते हैं कि आरोपों को ओढ़ें नहीं।
आरोप ओढ़ने की चीज नहीं, बिछाने की चीज है-वह चादर नहीं, दरी है। ठाठ से उस पर
बैठिए और अचल रहिए।’ (पृ.235)
उनके पूरे आलोचकीय और अकादमिक जीवन को देखकर लगता है जैसे विरोध और विवाद उनका
पर्याय बन गया। लेकिन वे निराला के राम की तरह इस बात के लिए स्वयं को कोसते नहीं
कि ‘धिक्
जीवन को जो पाता ही आया विरोध।’ नौकरी के मोर्चे पर उनका बनारस, सागर और जोधपुर में
विरोध हुआ और साहित्यिक मोर्चे पर दक्षिणमार्गी और परंपरावादियों की तो छोड़िये,
वामपंथियों ने भी कम विरोध नहीं किया। सो कहीं जमकर रहना और जमकर लिखना बाधित होता
रहा। नवंबर 1974 में जब वे भारतीय भाषा केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई
दिल्ली में नियुक्त होकर आए तब उन्हें थोड़ा विश्राम मिला। यहां उन्हें काम करने
के लिहाज से मनोनुकूल वातावरण और संसाधन मिला जिसके कारण उन्होंने हिंदी का जैसा
पाठ्यक्रम तैयार किया, जैसी शिक्षण पद्धति विकसित की वह पूरे भारत में अपने ढंग का
अनूठा पाठ्यक्रम और शिक्षण पद्धति साबित हुआ। जेएनयू में उन्हें जब जरा-सा सुकून
मिला और पढ़ने-लिखने का माहौल मिला तो उन्होंने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी की
आलोचना की परंपरा की गहराई से पड़ताल करते हुए पुस्तक लिखी ‘दूसरी परंपरा की खोज’। जो अपने ढंग की हिंदी की
अकेली पुस्तक है। भारत यायावर की यह पुस्तक ‘नामवर होने का अर्थ’ काफी डिटेल्स के साथ लिखी
गई एक ऐसी पुस्तक है, जिसमें नामवर जी के बारे में अब तक की अद्यतन जानकारी ही
नहीं, उनकी लिखी चीजों की आलोचकीय पड़ताल करने की कोशिश भी की गई है। बीच-बीच में
कई स्थानों पर उनके कुछ ऐसे निष्कर्ष हैं जिनसे सहमत होना कठिन है-पर वादे-वादे
जायते तत्वबोधः भी तो एक बड़ा सच है।
('बनास जन' के जुलाई 2014 अंक से साभार)
('बनास जन' के जुलाई 2014 अंक से साभार)
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संपर्क-
सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग,
ए.एम.यू., अलीगढ़-202 002
फोन-0-96342 82886
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