विजय गौड़ के उपन्यास “भेटकी” का एक अंश:
सुपरिचित युवा कवि-कथाकार विजय गौड़ इन दिनों कोलकाता में कार्यरत हैं। कुछ ही दिनों में विजय को कोलकाता इतना रास आने लगा है कि अब वह उनकी रचनाओं में उतरने लगा है। ‘भेटकी’ बंगाल की पृष्ठभूमि पर लिखा जा रहा उनका नया उपन्यास है। हमारे आग्रह पर विजय गौड़ ने इस उपन्यास का एक अंश पहली बार के लिए भेजा है। आइए पढ़ते हैं इस रोचक उपन्यास का यह अंश।
भेटकी
विजय गौड़
प्रदीप मण्डल उसे छीप ही कहता था, साथी जिसे बल्छी
कहते। वैसे भी तीखी, नुकीली और मारक तरह से इस्तेमाल होने वाली वे एक ही जैसी
तरकीबें हैं। भाषायी भिन्नता वाले उच्चारणों के बावजूद उस मारक यंत्र के इस्तेमाल
से मच्छी मारने के किस्सों की रोचकता बढ़ जाती थी। छीप यानी बल्छी का जिक्र करते
हुए प्रदीप मण्डल की निगाहों में शंखासर गांव का तालाब उतरने लगता। ‘शॉल’ माछ का शिकार
खेलने वालों का जमावड़ा उसकी आंखों में जीवन्त हो उठता। कितनी ही बार साथियों को
बताया कि मामा रतिन मजूमदार, शंखासर गांव में रहते थे। अपने बचपन के किसी भी संदर्भ को
सिर्फ शंखासर गांव की स्मृतियों के साथ रखने की आदत पर प्रदीप मण्डल के पीछे
काना-फूसी की आवाजों में हर कोई कहता कि प्रदीप मण्डल बंग्लादेशी है जो अपनी
वास्तविक पहचान को मामा के गांव से ही जोड़ कर रखने की चालाकियां बरतता है, अपने मूल गांव का
नाम कभी नहीं बताता। खुद को बांग्लादेशी कहलाने में एक तरह की हीन ग्रंथी से भरा
प्रदीप मण्डल साथियों के बीच होने वाली ऐसी गुफ्तुगू से वाकिफ था। इसीलिए जब भी
अवसर होता, संगी साथियों को पूर्वी बंगाल और पश्चिमी बंगाल के नाम से पुकारे जाने वाले
इलाकों की बहुत करीब से जानकारी देने की कोशिश करता। घोटी-बाटी के विभेद को
उदाहरणों से समझता।
“शंखासर पश्चिमी बंगाल का गांव है, यार।“
शंखासर गांव के बारे में और भी जानकारी देते हुए न जाने
कितने ही बाशिंदों के नाम उसकी जुबान पर होते। हर एक के साथ वह अपने उस करीबी
रिश्ते का जिक्र करता जिससे साबित हो सके कि वह बंगलादेशी नहीं है, सिर्फ बंगाली ही
है।
शंखासर मामा का गांव था। उस रोज जब भेटकी मछली को पकड़ने का
जिक्र हो रहा था, प्रदीप मण्डल बता रहा था कि अपने पैतृक गांव में उसने खुद
भी तालाब के अन्दर उतर कर भेटकी माछ पकड़ी है। भेटकी के बारे में और भी बहुत कुछ
जानने के साथ-साथ प्रदीप मण्डल से उसके गांव का नाम जानने की स्वाभाविक जिज्ञासा
सभी के मन में थी। प्रदीप मण्डल लटपटा गया था और गांव का नाम उसकी जुबान में
आते-आते फिसल गया था। खुद के बचाव की बेअभ्यासी कोशिश में किस्से को सुना हुआ
बताने के अलावा उसके पास बच निकलने का दूसरा कोई उपाय न था।
“यूं मैंने कभी खुद नहीं पकड़ी भेटकी पर जानता हूं कि उसे कैसे पकड़ा जाता है।“
भेटकी माछ की विशेषता, उसके बड़े-बड़े जबड़े
और उन जबड़ों से शिकार पर झपट्टा मारने की उसकी कारगुजारियां, भय का निर्माण कर
रही थी। वातावरण के निर्माण की इस अतिरिक्त कुशलता से ही वह भेटकी मछली के शिकार
की कथा के कौतुक को लूट सकता था। भेटकी माछ के शिकार में सिद्धहस्त शमशाद काका का
नाम ही उसकी जुबान पर था।
खेत के किनारे के तालाब में, भेटकी मछली जाने
कहां से आ गयी थी। प्रदीप मण्डल के भीतर उसके आतंक की हा-हाकार हर कोई सुन रहा था।
शमशाद ने ही उस हा-हाकार से उबरने में मदद की थी। शमशाद मछलियों का जबरदस्त शिकारी
था। लेकिन एक बार तो उसकी छीप की मार भी तालाब में आ गयी भेटकी का कुछ बिगाड़ नहीं
पा रही थी। खेत के किनारे के उस तालाब में यूं तो सामान्यतः ‘शॉल’ मछली ही होती थी।
लेकिन शॉल के आकार से कुछ छोटी और दिखने में उससे कम हिंसक भेटकी, न जाने कहां से आ
गयी थी। एक दिन अचानक से दिखायी दे गयी भेटकी गांव भर के लोगों के भीतर दहशत भरने
लगी थी। शॉल की मौजूदगी में तो तालाब में उतर कर नहाने में तो कोई गुरेज नहीं करता
था। लेकिन झपट्टा मारने की हिंसकता से भरी वह भेटकी मछली थी जो हाथ पांवों के
परिचालन की छपाक के साथ तैरने का लुत्फ नहीं लेने दे सकती थी। डुबकियां मारने
वालों की निगाहें लहरों का ही ताकती रहें, तो तैरे कौन? कितनी ही बार
विवादों में उसका भेटकी होना संदेह के दायरे में समाता। लेकिन बड़े-बुजर्गों की
अनुभवी आंखें धोखा नही खा सकती थीं। तालाब में न उतरने की हिदायतों के जारी हो
जाने से परेशान बच्चे गुहार लगाने लगे,
‘शमशाद काका, भेटकी माच्छटार किछू कोरो न।!’
“भेटकी कोथाये थेके आइवे रे मूर्खों- अरे दिघी ते शुद्धो
माच्छ ही रोई आच्छे। हां ओई पुकेरे तो सिंगड़ी आच्छे, भेटकी तो ओखाने
नाई।“
“सबाय बोल्छे भेटकी ही आच्छे।“
“तोमड़ा की केयु निजे चौखे देखे छो? लेऽटा, कात्ला, मृगेल, बाटा केओ ओनेक
भेटकी बोलोटेर लोकेर कोमी नाई। सोत्ती बोली...पाकाल माछ न तो? जेटा पाके लुक्ये
थाके, सेईटा ई न तो? ओन्नो मूर्खों देर मौतो तोमड़ो ओई रे भेटकी बोलितेछो।“
बच्चों को शमशाद काका से उलझना न था। वे जानते थे कि काका
तो पानी के भीतर से उठते बुलबुलों को देखकर पहचान जाता है कि कौन सी मछली है।
ईल्सा, मांगूर, चीतोल और बाग्दा को चाहने वाले बताते कि उस दिन शमशाद ने तो
गजब ही चीज खिला दी। शमशाद काका की आंखें इतनी तेज कि पानी के अन्दर हिलती हिल्सा
को न सिर्फ ऊपर से ही पहचान गये बल्कि बल्छी की मार से उसका शिकार किया तो उलट कर
पानी के ऊपर तैरती हिल्सा को देख सबके मुंह से लार टपकने लगी। चिंगड़ी झींगा,
मोचा झींगा,
सीटा झींगा,
जिनको कोई बहुत
जानकार भी सिर्फ झींगा ही कहता, शमशाद काका तो बारीक अंतर से अपनी पहचान बदल लेती उन सभी मछलियों से वाकिफ था।
कहता था कि दिघि के बीच वाले गाछ पर कभी “कोयी” दिखी तो तुम लोगों को दिखाऊंगा।
जिज्ञासायें हों और सवाल न हो? ऐसा मुमकिन ही
नहीं था। कैसा है, कहां है शंखासर गांव? प्रदीप मण्डल का
क्या रिश्ता है उससे? न जाने कितने सवाल थे जो किस्से की उत्सुकता के बावजूद पीछा
नहीं छोड़ रहे होते थे।
शॉल माछ शमशाद काका का कुछ न बिगाड़ सकती थीं। वे उनकी
मौजूदगी के बावजूद बेखौफ पुकुर के बीच उतर सकते थे। शमशाद काका के पास मछलियों को
नियंत्रण में करने का मंत्र था। पुकुर में डुबकी मारने से पहले वजू करके अल्लाह को
याद करना वे भूलते न थे। डुबकी मारते तो खुद मछली हो जाते। बहुत गहरे तैरते हुए
दिखायी न देते। मानो मछलियों के बीच कहीं खो गये हो। या कि मछलियों ने उनका हरण कर
लिया हो। प्रेमवश किया गया हरण तो उसे कतई नहीं कहा जा सकता। एक शिकारी से आखिर
मछलियां क्यों प्रेम करेगीं? लेकिन नहीं, मछलियां अपने शिकारी शमशाद से सचमुच प्रेम करती थी, उसे अपनी कैद में
रखना चाहती थीं। ताकि अपनी हवस के लिए शिकार करने वाले शिकारियों की गिरफ्त से बचे
सकें। जानती थी कि प्राकृतिक जरूरत से अलग किसी भी तरह की हवस में शमशाद ने उनका
शिकार नहीं किया। तभी किसी दूसरे किनारे उनकी देह चमकती और कमर-कमर दिघी में उतरे
हुए वे फिर से शमशाद काका हो जाते।
मछलियों से प्रेम करने वाले व्यक्ति का जिक्र करते हुए
प्रदीप मण्डल की जुबान में सिर्फ शमशाद का ही नाम होता। साथी ताजुब करते कि 24 परगना के शंखवार
गांव का शख्स भी शमशाद और अपने बचपन के अज्ञात गांव का जिक्र करते हुए भी शमशाद
नाम का व्यक्ति ही क्योंकर प्रदीप मण्डल को याद आता है। बल्कि अज्ञात गांव के
शमशाद की करामातें तो कुछ मानवीय जैसी दिखती भी थी लेकिन शंखासर गांव का शमशाद
तो रूहानी ताकतों से भरा शख्स हो जाता है।
शिकार की जा चुकी भेटकी को दिघी से बाहर निकाल शमशाद काका
ने दिधी में उतर कर नहाने की घुलमण्डी संभावना का अवसर दे दिया था।
“पश्चिम बंगाल में मिदनापुद जिले का एक गांव है यार शंखासर। मामा रतिन मजूमदार
वहीं रहते थे।‘
जिज्ञासायें खत्म न होती थी। सवाल फिर-फिर थे। मामा के गांव का हर व्यक्ति मामा ही हुआ न?,
साथियों के सवाल
बहुत टेढ़े होते। फिर मामा के गांव वाला श्मशाद नाम का वह शख्स काका कैसे हुआ?
ऐसे किसी भी सवाल
का सीधे जवाब देने की बजाय उसे बेतुका बताकर खामोश हो जाने में ही भलाई थी। मछली
के शिकार की कथा में व्यवधान डाल चुके साथी पर हर कोई गुस्साता और मिन्नतों को दौर
शुरू।
“अब किसी ने गंडोगोल किया तो मैं कुछ नहीं सुनाऊंगा।“
एक ही झिड़की सबको खामोश हो कर दिलचस्प कथा सुनने के लिए
मजबूर कर देती। बार-बार सुनाये जाने के बाद भी जिसमें हमेशा ताजगी रहती। कभी भाषा
की लटक में, कभी सुनाये जाने के अंदाज में और कभी तात्कालिक स्थिति की
व्याख्या को बखूबी विस्तार देने में। कथासार जारी रहता और बांस की डण्डी को
हिला-हिला कर कांटे में मछली के फंसने की संभावना को टटोला जा रहा होता।
शमशाद काका की बल्छी की मार के निशाने भी बेकार थे भेटकी के
आगे। बहुत चालाकियों को बरत कर भी निशाने पर भेटकी को बैठा लेने की सारी तरकीबें
बेकार रहीं। हर किसी को पक्का यकीन हो गया कि काका ने भी भेटकी का नाम भर ही सुना
है शायद, पहले कभी देखा नहीं। वरना एक ही बार में निशाना साध कर उसे चपेट में क्यों
नहीं ले पा रहा। बच्चों ने अपने अपने मन की बात एक दूसरे से कही। मछली का शिकार शमशाद
काका के लिए हमेशा चुनौती भरा खेल रहा और हार कर चुपचाप बैठ जाने में उनका यकीन
नहीं था।
केले के मोटे-मोटे तने लाये गये। गांव भर के बच्चे केले के
बाग में केला-गाछ दिखा-दिखा कर पूछते,
“ काका ये वाला ?”
चाचा खामोश निगाहों से गाछ के तने को देखता, काम का समझता तो ‘दा’ (पाठल) उसी की ओर
उछाल देता जिसने गाछ दिखाया था। वरना वैसी ही खामोशी से आगे बढ़ जाता। लम्बी-लम्बी
पत्तियों से लदे-फदे गाछ को उसकी निगाहें तलाश रही होती,,
“ऐये प्रोदीप इदिके आय...ऐटा चाई।“
काका ने बताया नहीं कि गाछ मिनटों में जमीन पर। मोटे मोटे
तनों को बीच से फाड़ने की जिम्मेदारी बच्चों को दे, शमशाद काका ने
उनके फट्टे बनाये और तैयार फट्टों को आपस में जोड़ने की जुगत भिड़ाने लगे।
फट्टों को आपस में जोड़ लेने के बाद एक ऐसा पाटा तैयार कर
लिया जिसे दिघी में उतार दो तो उसमें बैठक र, बिना डूबे,
पूरे दिघी का
चक्कर लगाया जा सकता था। किसी की कुछ समझ नहीं आया कि शमशाद काका ने आखिर ये क्या
बना डाला और इससे क्या करना चाहता है। दिघी में उतरने के लिए लकड़ी की नाव काका के
पास पहले से थी ही। काका खामोश था। पाटा के एक ओर रस्सी बांध कर उसे दिघी में डाल
चुका था। अब पाटा पानी के ऊपर तैर रहा था और काका अपने में मगन भीतर ही भीतर मन्द-मन्द ऐसे मुस्करा रहा था जैसे कोई कारीगर बहुत कोशिशों के बाद किसी बिगड़े हुए
उपकरण के दुरस्त हो जाने पर खुश होता है। पाटा उसने दिघी से बाहर खींच लिया। बल्छी
के कांटे को पाटा के एक ओर गाड़ दिया। रस्सी का फंदा कांटे में डाल बहुत तेज झटकों
के जोर मारे लेकिन कांटा केले के तने वाले पाटा से बाहर न निकला। वैसे ही गढ़ा रहा।
शमशाद काका के चेहरे पर कुछ ऐसे भाव थे जैसे न जाने क्या क्या सोच रहा हो। और भी
कांटे पूरे पाटा पर इर्द-गिर्द लगा दिये।
“ ऐबार देखी की भाये बाचते पाड़े भेटकी माछ। भेटकी ते भेटकी
तार दीदिओ बाचते पाड़ीबे ना।“
पाटा पर लगे कांटों से भेटकी कैसे पकड़ी जायेगी, हर एक के लिए यह
एक पहेली थी। लेकिन शमशाद काका तो भेटकी को फंसाने की जुगत करता रहा। भेटकी को
ललचाने के लिए “पुठी” मछलियों को कांटें
में फंसाने लगा।
‘पुठी’ यानी वे छोटी-छोटी
मछलियां जो बड़ी मछलियों का भोजन भर हो सकती हैं। बहुत छोटी मछलियों का इससे अलग
कोई नाम हो नहीं सकता था। किसी भी प्रजाती की बहुत छोटी मछली। संगी-साथियों के साथ
शिकार पर निकले प्रदीप मण्डल के चेहरे पर उस वक्त एक गम्भीर किस्म का हास्य बिखर
रहा होता जब कोई साथी बहुत जतन से छोटी-छोटी मछलियों को पकड़ कर प्रदीप को दिखा कर
उससे प्रजाती का नाम जानने की कोशिश में होता। बड़ी मशक्क़त के बाद पकड़ी गयी उस एक
छोटी सी मछली को पानी के भीतर उछालते हुए वह सफलता में खुश हो रहे साथी के उत्साह
को ठंडा कर देता,
“पुठी का शिकार भी कोई शिकार है? हां, किसी बड़ी माछ का
शिकार करो तो जानूं। वैसे एक जुगती बताऊं? पुठी को कांटे में फंसा कर पानी में उतार दो...देखो कैसे
झपटते हैं फिर उस पर डौले।“
केले के पाट में गढ़े कांटे में कितनी ही पुठी मछलियों को
फंसा कर काका ने तुरन्त पूरा का पूरा पाटा दिघी में उतार दिया। पानी में उतरते ही
सारी की सारी पुठी कांटे में फंसे होने के बावजूद जीवित हलचलों में मचलने लगीं।
हलचल ऐसी कि यदि कांटों से छूट पायें तो पूरे कोई दिघी में बवंडर खड़ा हो जाये।
झुण्ड का झुण्ड कांटों की गिरफ्त से छूटने का शोर मचाता हुआ। ऐसा शोर जिसे कानों
के जोर से सुनना मुश्किल हो जाये। पाटा में आंटे का एक गोला भी फंसा दिया गया था।
आटे के गोले में धंसा दिये गये जुगनुओं की टिटिमाहट बता रही थी कि शाम ढल चुकी है
और रात उतरने लगी। डोलती रोशनी में हलचल मचाती पुठी मछलियां नृत्यांग्नाओं सी दिख
रही थी। नृत्य का ऐसा नायाब मंजर शमशाद काका ने क्यों पैदा किया? इस बात से किसी को
भी कोई लेना-देना न था। बल्कि पुठी मछलियों की छटपटाहट के भी कोई मायने नहीं रह
गये थे। बहुत दूर निकल गये पाटा पर जुगनुओं की टिमटिमाती रोशनी में पुठी मछलियों
की हलचल को ज्यों का त्यों देखते रहना हर एक के लिए अपने ही तरह का अनुभव था।
भेटकी के शिकार का वह अनूठा उपकारण दिघी के बीच इधर से उधर डोल रहा था। हवा की
हलचलों और पानी के बहाव के साथ अंधेरे में टिमटिमाती रोशनी और झुण्ड का झुण्ड पुठी
मछली। जुगनुओं की रोशनी में भी साफ देखा जा सकता था कि कांटे में फंसी पुठी
मछलियां छूट निकलने की हलचलों के साथ हैं। टिमटिमाती रोशनी की उस झोपड़ी में बंधी
रस्सी का एक सिरा शमशाद काका के हाथ में था जिसको झटक झटक कर वह डोलती झोपड़ी को
अपने हिसाब से दिशा देने लगा। रात घिरती जा रही थी। दिघी के उस पार पहुंच चुकी रोशनी
की रस्सी का दूसरा सिरा, जो हाथ में था, शमशाद काका ने एक गाछ से बांध दिया।
भेटकी माछ को पकड़ने के लिए शमशाद काका ने जावला लगा दिया था और पूरा गांव दूसरे
दिन जावला का नजारा देखने के लिए उस रात को घर लौट कर भी बहुत निश्चित नींद नहीं
सो पाया था। अधनिंद्रा की अवस्था में हर एक के सपनों में पुठी मछलियों की
टिमटिमाहट तैर रही थी और पुकुर में डोलते पाटे के साथ-साथ पुठी मछलियों के शिकार
के लिए भेटकी की कोशिशें जारी थी।
झपट्टा मार कर शिकार को पकड़ लेने की हसरतों से भरी भेटकी
दिघी में थी। अंधेरे में टिमटिमाती रोशनी के बिना भी पुठी का झुण्ड उसकी आंखों से
बच नही सकता था। वह तीसरा पहर था। रात गहरी थी। पुठी मछलियों पर भेटकी की निगाह
थी। शिकार के लिए ही भेटकी ने पाटे पर झपटा मारा था। बल्छी के खुलते कांटे गलफड़ों
के भीतर तक धंय गये। कांटों से छूटने की छटपटाहट में भेटकी पछाड़े मारने लगी थी।
गांव वालों की नींद में खलल पड़ गया था। कोई सपना टूटा हो जैसे, बिलबिला कर उठा हर
कोई पुकुर तक पहुंचा था। पुकुर के भीतर उतर कर चीथेड़े-चीथडे़ हो चुके पाटे पर
निढाल पड़ी भेटकी को बाहर लाता शमशाद काका वहां मौजूद था।
सम्पर्क
मोबाईल- 09474095290
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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