विमल चन्द्र पाण्डेय कहानी 'बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल'
युवा कहानीकार विमल चन्द्र पाण्डेय कहानियाँ
गढ़ने में माहिर हैं। उनकी कहानियाँ पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे यह कहानी तो
बिल्कुल अपने आस-पास की या अपने ही मनोभावों और मनोदशाओं वाली है। संघर्ष की डगर के
बिम्ब उसे और धार प्रदान करते हैं। प्रस्तुत कहानी एक ऐसे रचनाकार की है जो
रचना की दुनिया, रोजी-रोजगार और पारिवारिक जिम्मेदारियों के तिराहे पर खड़ा है।
अपनी कहानी का क्लाईमेक्स खोजने के लिए जब रचनाकार नौकरी से छुट्टी ले कर गाँव आता है
और अपनी रचना पूरी करने के चक्कर में खोया रहता है तब उसकी मासूम सी बेटी अपने उस
जरुरी काम को कराने का आग्रह करती है जो देखने में तो बिल्कुल मामूली सा है लेकिन
संवेदनात्मक स्तर पर कहानीकार के लिए दुनिया का सबसे महत्वपूर्ण काम है। एक बच्चे के चेहरे पर ख़ुशी लाने से बड़ा क्लाईमेक्स और क्या हो सकता है भला? अन्ततः कहानी का क्लाईमेक्स
तलाशते-तलाशते वह अपनी जिन्दगी का क्लाईमेक्स तलाश लेता है। कुछ इसी भाव-भूमि पर
आधारित है विमल की यह नयी कहानी “बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल”।
अभी हाल ही में विमल चन्द्र पाण्डेय को वर्ष
2013 का प्रतिष्ठित मीरा स्मृति पुरस्कार प्रदान किया गया। विमल चन्द्र पाण्डेयको बधाईयाँ देते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी यह नयी कहानी।
बाज़ीचा-ए-अत्फ़ाल
विमल
चन्द्र पाण्डेय
पिछली बार जब
चतुर्भुज शास्त्री घर गये थे तो उन्होंने अपनी बेटी के तीसरे जन्मदिन पर उसे तीन
पहिये वाली साइकिल भेंट की थी। जन्मदिन धूमधाम से मना और उन्होंने अपनी किताब की
उस साल की सारी रॉयल्टी धूमधड़ाके में खर्च कर डाली। बेटी उनकी ज़िंदगी में खुशियों
का भण्डार लेकर आयी थी और पिछले तीन सालों में उनकी दो किताबों आ चुकी थीं और वह
तीन पुरस्कार झटक चुके थे। दिल्ली से घर रात भर की ट्रेन यात्रा की दूरी पर था और
बेटी के आने के बाद उनके घर जाने की आवृत्ति अचानक बढ़ गयी थी। उन्हें महसूस हुआ कि
संतान के आकर्षण के सामने पत्नी का आकर्षण कुछ भी नहीं था। वह अपने बचपन को फिर से
जीने लगे और उन्हें अचानक ही बोध हुआ कि पुनर्जन्म की अवधारणा किसी दार्शनिक ने
पिता बनने के बाद ही दी होगी।
बेटी उनकी जान थी
और तीन महीने में एक बार घर जाने वाले चतुर्भुज हर दो हफ्ते पर जाने लगे तब परिवार
में सुगबुगाहट शुरू हुई और फिर मोहल्ले से होते हुये पूरे खानदान में फैल गयी कि
चतुर्भुज बेटी के मोहपाश में गिरफ्तार हो गये हैं, उनके भीतर का बाप जाग गया है, अब तो तेल लेने गई पी-एच.डी. और तैयारी। दिल्ली से उन्हें
वापस बुला लिया जाय या फिर उनकी पत्नी को उनके पास दिल्ली भेज दिया जाय भले मां
पिता जी अकेले रह जाएं।
मगर बेटी वाकई
गुडलक थी क्यों कि जैसे ही उन पर दबाव बढ़ता, उन्हें दिल्ली
विश्वविद्यालय के एक ठलुये कॉलेज में एडहॉक पर पढ़ाने का काम मिल गया। कुछ पैसे
मिलने लगे जिसे उस गरीबी की हालत में उन्होंने ठीक-ठाक कहा। उन्हें दिल्ली से
बुलाने के लिये आवाज़ उठाने वालों में से दो चचेरे भाई और एक चाचा थे जिन्हें
क्रमशः लेवाइस की जींस और सफारी सूट का कपड़ा दे कर सेट किया गया। प्रबंधन के इस
दौर में कुछ ही दिनों में चतुर्भुज ने यह फैला दिया कि वह अच्छा माल पीट रहे हैं
और इतने आज्ञाकारी बेटे हैं कि मां बाप अकेले न होने देने के लिये जान से प्यारी
बेटी का वियोग झेल रहे हैं। चतुर्भुज इसलिये नहीं ले जा पाते थे कि दिल्ली में कमरों
का किराया आसमान छू रहा था।
उनकी बेटी बहुत
प्यारी और चंचल थी। वह घर आते तो लिखने पढ़ने के सारे काम मुल्तवी हो जाते। वह
अक्सर किसी पत्रिका की मांग पर कोई कहानी या कविता लिख रहे होते। बेटी आती और उनके
उपर लोटती पोटती, वह निहाल हो जाते। वह उनसे खूब बातें करती। चतुर्भुज बाल मन
को अच्छे से समझते थे, बाल कहानियों की
उनकी एक किताब अकादमी से पुरस्कृत हो चुकी थी और वह इतनी कम उम्र में इतना सम्मान
अर्जित करने वाले कुछेक लेखकों में थे।
पिछली बार जब वह
घर आये तो बेटी पड़ोस में एक बच्चे की तिपहिया देख कर ज़िद में पड़ी थी कि उसे साइकिल
चाहिए।
“पापा पापा दादी ने बोला .....कि पापा आये तो....छाइकिल.....दिला।“ वह इस तरह छोटी छोटी सांसे लेकर बोलती कि वह निहाल हो जाते।
तीन दिन बाद जन्मदिन था, वह उसी दिन खरीदने
जाने लगे तो पत्नी ने कहा कि जन्मदिन पर उसे गिफ्ट के रूप में ये दीजिये तो उसे
याद रहेगा। जन्मदिन के दिन बच्ची अपनी नयी साइकिल पाकर बहुत खुश हुई।
“मेली छाइकिल गोलू की छाइकिल छे अच्छी.....।“ बच्ची ने गाड़ी के रंग और उसकी चमक के आधार पर सगर्व घोषणा
की।
उस बार चतुर्भुज
को सायकिल दिलाने का यह फायदा हुआ कि उन्होंने काफी दिनों से अटकी एक कविता पूरी
की क्योंकि बेटी दिन भर पूरे घर में सायकिल चलाती रहती और उसमें लगे बटन को दबा कर
संगीत लहरियां गुंजाती रहती। बेटी उन्हें कम परेशान करती तो वह पिछली कुछ अधूरी
रचनाओं को कुछ वक़्त दे पाते। साइकिल में घंटी की जगह एक बटन था जिसे दबा देने पर
बारी बारी से “जॉनी जॉनी यस पापा, जिंगल बेल जिंगल
बेल और ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” बजा करता था। एक तरफ से बेटी अपनी लहरियां गुंजाती तो बगल वाले मकान से गोलू
उस्ताद भी अपनी गाड़ी को मुकाबले में खड़ा कर देते। चतुर्भुज को बेटी की लीलाएं बहुत
अच्छी लगतीं। वह उनसे दोस्त की तरह बातें करती, सवाल पूछती।
“पापा, आप ये...ये...चछमा क्यों लगाते हैं?”
“पापा पापा वो....वो....चंदा मामा आज क्यों नहीं निकले?”
या फिर दिन भर की
बातें बताती।
“पापा आज वो.....गोलू बिछतल पर वो....छूछू किया, उछकी मम्मी उछको....उछको... माली।“ वह भी उसकी बातों में हिस्सा लेते। बेटी के लिये उन्होंने एक लंबी कविता लिखनी
शुरू की थी। बेटी के साथ वक्त बिताते हुये उनकी कविता की कोई पंक्ति अचानक ही कहीं
से उड़ती हुयी आ जाती।
साइकिल दिलाने
यानि जन्मदिन मनाने के दो तीन दिन बाद चतुर्भुज वापस दिल्ली आ गये क्योंकि ज़्यादा
दिन की छुट्टी मिलने में समस्या हो रही थी। एक दिन फोन पर उनकी मां ने बताया कि
उनकी बेटी के साइकिल की घंटी खराब हो गयी है।
“दिन भर सबसे कहती फिरती है कि मेरे पापा आएंगे तो बनवा देंगे। आना तो देख
लेना।“ मां की बात पर उन्हें आश्चर्य होता। मां के लिये कितना ज़रूरी काम है यह। मां
पिता की ज़िंदगी किस कदर पोती के इर्दगिर्द घूम रही है, उसे उनसे दूर करेंगे तो वे कैसे रह पाएंगे? उन्हें महसूस हुआ कि अपने माता पिता को खुद माता पिता बनने
के बाद ही पूरी तरह समझा जा सकता है।
उनके उपन्यास की
घोषणा हो चुकी थी जबकि अभी उसका क्लाइमेक्स बाकी ही था। प्रकाशक ने उनके उपन्यास
के बारे में चर्चा करवाना शुरू कर दिया था। उनके लिखने का ग्राफ पाठकों ने देखा था, वे जानते थे कि उनका दूसरा उपन्यास पहले से भी दमदार होगा।
प्रकाशक ने विश्व पुस्तक मेले में किताब आने की घोषणा कर दी थी। इसमें कुछ ही दिन
बाकी थे लेकिन उन्हें उपन्यास का क्लाइमेक्स मिल ही नहीं रहा था। उन्हें याद आया
कि कुछ दिनों पहले एक दुकान पर गोलगप्पे खाते हुये उन्हें संभावित क्लाइमेक्स का
खाका मिला था लेकिन वह इस तरह दिमाग से उतर गया है कि याद करने पर पूरे दिन की
बातें याद आ जाती हैं, बस वही याद नहीं
आता।
प्रकाशक ने उन्हें
सुझाया कि अगर दिल्ली में उन्हें क्लाइमेक्स नहीं मिल रहा तो वह कुछ दिनों की
छुट्टी ले कर घर चले जाएं और इत्मीनान और फुर्सत से क्लाइमेक्स की समस्या हल करें।
चतुर्भुज को विचार अच्छा लगा। उन्होंने अचानक बीमारी का बहाना बनाया और घर निकल
गये। बीवी उन्हें देख कर हैरान हुई, बेटी खुश और मां
संतुष्ट।
अब वह सुबह उठने
के साथ अपने किरदारों को मन में लिये बाहर टहलने निकल जाते। घर वालों को पता चला
कि मामला क्या है तो वे भी उनसे ज़्यादा जवाब सवाल नहीं करते। वे हर समय खोये
रहते। कभी कोई बात पास ली डायरी में नोट करते। कभी ख़ुद से कुछ बात करते और कभी
मुस्करा कर कोई संवाद बोल देते।
अपनी व्यस्तता में
उन्होंने बेटी पर अधिक ध्यान नहीं दिया। वह थोड़ी गुमसुम सी थी। उसने एकाध बार पापा
के गोद में उनकी दाढ़ी पर हाथ फिराते हुये कहा था, “पापा जी मेली गाली
मे गाना नीं बज लहा।“ पापा जी ने कुछ
सोचते हुये ही जवाब दिया था, “हां बेटा जी हम बनवा देंगे।“ ऐसा एकाधिक बार
हुआ था और बेटी थोड़ी गुमसुम सी हो गयी थी।
एक रात उनकी पत्नी
थकी होने के कारण जल्दी सो गयी। वह चुपचाप लेटे हुये थे। उनके दिमाग में उपन्यास
की कहानी चल रही थी और उन्हें नींद नहीं आ रही थी। उन्होंने देखा पत्नी सो गयी है
तो उठ कर बत्ती जलायी। पत्नी कुनमुनायी।
“इतना कौन सा ज़रूरी काम आ गया?”
“सबसे ज़रूरी काम है ये... ?” वह फुसफुसाते हुये
अपना लैपटॉप ऑन करने लगे। पत्नी करवट बदल कर फिर से सो गयी। उन्होंने हल्की रोशनी
में देखा बेटी की आंखें खुली हुई हैं।
“पापा....।“ बेटी ने धीमी आवाज़ में कहा। चतुर्भुज लैपटॉप पर कुछ टाइप
करने लगे थे, उन्होंने एक नज़र बेटी की ओर देखा और उसे सोने का निर्देश
दिया। “अभी तक सोयी नहीं बेटू, चलो फटाफट सो जाओ।“
बच्ची उठ कर उनके
पास आ गयी और उनके एक पांव पर सिर रख कर लेट गयी।
“आपछे वो...वो...एक बात कहना है।“
उन्होंने अब बेटी
की ओर ध्यान दिया। बेटी बड़ों जैसे बात कर रही थी। उन्होंने उसे उठा कर गोद में ले
लिया और लैपटॉप को थोड़ा बगल में सरका दिया।
“हां बेटा जी कहिये।“ उन्होंने बेटी के गाल को चूमते हुये कहा।
“वो....वो दादी बोली थीं....पापा आएंगे....तो ....तो वो..साइकिल का घंटी बनवा
देंगे। गोलू.....की....वो... .वो...घंटी बजती है पापा...।“ बच्ची अपनी ज़िंदगी की सबसे बड़ी समस्या अपने पिता के सामने
ले कर बैठी थी जिसका समाधान उसके पिता के अलावा किसी के पास नहीं था।
चतुर्भुज मूर्ति
में तब्दील हो गये। उनकी ज़बान तालू से चिपक गयी और गला सूखने लगा। अचानक उन्हें
लगा कि उनका जो ज़रूरी काम है, बेटी के ज़रूरी काम
के आगे बेहद टुच्चा सा है। उन्हें एक ही पल में कई सालों जितना अपार दुख हुआ। उनकी
आंखें भर आयीं। उन्हें लगा कि वह काफी लंबे समय से एक सफ़र पर हैं जिसमें उन्होंने
सड़क गलत दिशा की पकड़ ली है। उन्हें लगा उनका अब तक का लिखा पढ़ा सब माटी हो गया है।
उन्होंने लपक कर बेटी को अपने कलेजे से चिपका लिया और बोले, “कल सबेरे बेटू, कल सबेरे एकदम ठीक करा देंगे शोना, मेरी गुड़िया कल एकदम ठीक करा देंगे। फिल छे मेले बेटू की
छीटी गायेगी जॉनी जॉनी यछ पापा।“ वह बेटी की आवाज़ में गाने लगे।
“इटिंग छुगल नो पापा।“ पापा के लहजे से उत्साहित बेटी ने अगली पंक्ति थाम ली।
उन्होंने लैपटॉप
को बिना बंद किये उसे धीरे से धकेल कर पैर की तरफ कर दिया। वह ऑटोमेटिक ऑफ वाला
नया लैपटॉप था। स्लीप मोड से उसे कुछ देर जगाया न जाये तो अपने आप शट डाउन हो जाता
था।
(आउटलुक से साभार)
(आउटलुक से साभार)
संपर्क-
ईमेल - vimalpandey1981@gmail.com
फोन - 9820813904
(पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की है)
कथा के माध्यम से कथाकार की रचना प्रक्रिया के दौरान मनोस्तिथि, उसकी जरूरते दिखती है, और यह भी कि घर उससे क्या चाहता है, बेटू की अपनी जरूरते है जिसे नजरअंदाज करने का दुःख कथाकार को होता है, जीवन की सच्ची खुशियों का अर्थ वह जाहिर करता है।। यथार्थ से जुडी अच्छी कहानी
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