प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद

प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद
 तब लोग एक दूसरे को पत्र लिखा करते थे और संवाद कायम करने का यह एक महत्वपूर्ण माध्यम था। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद महात्मा गाँधी अपने पास आये हुए हर पत्र को पढ़ते थे और उसका जवाब जरुर देते थे साहित्य में तो इन पत्रों की एक विशेष महत्ता रही है। केदार नाथ अग्रवाल और राम विलास शर्मा के बीच हुए पत्राचार को अब 'मित्र-संवाद' नाम की किताब के रूप में प्रकाशित कराया गया है। इस किताब से हम एक महत्वपूर्ण कवि की निर्माण प्रक्रिया और उसके संघर्षों के बारे में जान सकते हैं। यही नहीं इन पत्रों के जरिये हम उस समय के परिवेश और परिस्थिति का भी सहज ही आंकलन कर सकते हैं। मशहूर कहानीकार भीष्म साहनी की दो नयी पुस्तकें उनका नया उपन्यास कुंतो’ और नया नाटक मुआवजे’ पढ़ कर अमीर चंद वैश्य ने उनको 2 सितम्बर 1993 को एक पत्र लिखा था। भीष्म साहनी ने 15 नवम्बर 1993 को इस पत्र का जवाब दिया था। आज भीष्म साहनी के जन्मदिन के अवसर पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं अमीर जी और भीष्म जी के बीच हुआ वह पत्र संवाद। भीष्म जी के पत्र की मूल प्रति आपके लिए हम यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैंसुविधा के लिए हम इस संवाद को टंकित प्रारूप में भी यहाँ पर दे रहे हैंपहले भीष्म जी का मूल पत्र       







प्रसिद्ध कथाकार भीष्म साहनी से अमीर चंद वैश्य का पत्र -संवाद



अमीर चंद वैश्य द्वारा भीष्म साहनी को लिखा गया पत्र

चूना मण्डी, बदायूं 243601

2 सितम्बर 1993



श्रद्धेय साहनी जी,

सादर नमन! आशा है कि आप स्वस्थ और सानन्द होंगे, अपने पाठकों से प्राप्त होने वाले पत्रों में से यह पत्र भी शामिल करने की कृपा करेंगे। ऐसा मुझे विश्वास है।


मुझे आपका नया उपन्यास कुंतो’ और नया नाटक मुआवजे’ , जो मुझे मधुरेश जी के सौजन्य से प्राप्त हुए ,पढ़ने का अवसर मिला। मधुरेश जी ने ये दोनों रचनाएं अभी नहीं पढ़ी हैं। पहलेसाक्षात्कार’  में नाटक पढ़ा था, जिसमें आपकी नाट्य प्रतिभा का नया रूप लक्षित हुआ। इस नाटक में आपने बड़े कलात्मक कौशल से वर्तमान भ्रष्ट व्यवस्था पर प्रबल प्रहार करते हुए हास्य की सृष्टि की है, जो वर्तमान सामाजिक और राजनैतिक विसंगतियां उजागर करती हैं। यह नाटक पढ़ते समय पुलिस कमिश्नर का चरित्र गोगोल के नाटक बड़ा साहब’ का स्मरण कराता है। उल्लेखनीय है कि यह नाटक बदायूं में रंगायन’ ने 2 जून 1993 को मंचित किया था। अपने नाटक में आपने यह सत्य उजागर किया है कि आजकल की भारतीय राजनीति में एक अपराधी है, जो गुंडा है, किस प्रकार नेता बन जाता है। मेरी एक जिज्ञासा है कि क्या ऐसी समाजविरोधी प्रवृतियों के विनाश की अभिव्यक्ति रचनाओं में अनिवार्य नहीं है? समझता हूं कि अनिवार्य है,लेकिन रचनाओं में यह अनिवार्यता कम लक्षित हो रही है।


कुंतो’ की प्रति मुझे विगत बृहस्पतिवार को प्राप्त हुई थी। पूरा उपन्यास सोमवार तक पढ़ पाया। मुझे यह उपन्यास अच्छा लगा। इसीलिए पत्र लिखने का विचार मन में आया। मुझसे पहले मेरी पुत्री ने यह उपन्यास पढ़ा, लेकिन वह इसे पसन्द नहीं कर पाई।


सर्वप्रथम इस उपन्यास की भाषा के सौष्ठव ने मुझे प्रभावित किया। आपने सिद्धहस्त लेखक के समान इस उपन्यास की अन्तर्वस्तु को परिष्कृत, गम्भीर और प्रवाहपूर्ण भाषा में निबद्ध किया है। चमत्कारों से रहित भाषा का सहज प्रवाह कविश्री त्रिलोचन के भाषा वैशिष्ट्य का स्मरण कराता है। पंजाबी जीवन से सम्बद्व कथ्य पंजाबी भाषा के संस्पर्श से जीवंत बन गया है, लेकिन यह संस्पर्श इतना अधिक घुलमिल गया है कि पता ही नहीं चलता। वस्तुतः आपने राष्ट्रभाषा हिन्दी की अभिव्यक्ति क्षमता में संवर्धन किया है। यदि आपकी औपन्यासिक भाषा की तुलना यशपाल की भाषा से की जाए तो आपको अधिक अंक प्राप्त होंगे। यदि अज्ञेय की भाषा से की जाए तो आप की भाषा पर दुर्वोधता का आरोप नहीं लगाया जा सकेगा। (यह बातशेखर को दृष्टिगत रखते हुए लिखी है।)


फिर भी कुछ प्रयोग ऐसे हैं जो खटकते हैं ,क्योंकि वे हिन्दी के मानक रूप के अनुरूप नहीं है। अध्याय 10 का प्रारम्भिक वाक्य सदोष है। अपनी समस्या को लेकर’ अब सिंगापुर वाली प्रेमिका को लेकर’ अंशों में रेखांकित पद समुचित प्रतीत नहीं होते हैं। मैं समझता हूं कि यह वाक्य यदि इस प्रकार लिखा जाए तो अच्छा है।


जयदेव अपनी समस्या लेकर प्रोफेस्साब से उस दिन मिला था,जिस दिन उनके घर में सिंगापुर वाली प्रेमिका के कारण एक काण्ड उठ खड़ा हुआ था।“


आजकल हिन्दी जगत् को लेकर’ दोष से सर्वाधिक प्रभावित है। जिस प्रकार डा0 रामविलास शर्मा की सर्जना का प्रमुख स्रोत 1857 का गदर है, उसी प्रकार आपकी प्रमुख सर्जन -प्रेरणा देश का बॅंटवारा है, इस भीषण त्रासदी ने आपको लेखक बनाया है। यह कहना समीचीन प्रतीत होता है। कुन्तो’ उपन्यास की अंतर्वस्तु य़द्यपि अन्तर्मुखी है,  तथापि आपने उसे स्वाधीनतापूर्व के पंजाब के जीवन-प्रवाह से सम्बद्ध कर उस भीषण त्रासदी की काली छाया का संकेत अवश्य किया है।

ऐसा आभास होता है कि इस उपन्यास की रचना की रचना प्रक्रिया में आपकी निजी स्मृतियां, निजी अनुभव, निजी घटनाएं तथा देखे-समझे अनेक लोगों के चरित्र घुलमिल गए हैं।


मुझे ऐसा लगता है कि आपने इस उपन्यास के प्रमुख चरित्र प्रोफेस्साब के माध्यम से अप्रासंगिक जीवन-मूल्यों की समीक्षा करके नए जीवन-मूल्यों की स्थापना का प्रयास किया है। उपन्यास के अन्त में जयदेव की मां का कथन इस बात का प्रमाण है।वह इस बात पर राजी हो जाती है कि जयदेव सुषमा से विवाह कर ले।


वर्तमान समाज में (हिन्दू समाज में) मौसेरी बहिन से विवाह वर्जित है, लेकिन पहले ऐसा नहीं थां अर्जुन ने अपनी फुफेरी बहिन सुभद्रा से विवाह किया था और श्रीकृष्ण ने इस पुनीत कार्य में सहयोग प्रदान किया था।


आप इस उपन्यास के माध्यम से कहना चाहते हैं कि वर्तमान समाज में जयदेव की मां जैसे लोग परिवर्तन ला सकते हैं, प्रोफेस्साव जैसे लोग नहीं, जो परम्परा का लट्ठ अपने साथ में रखते हैं। वस्तुतः प्रोफेस्साव की आलोचना कलात्मक है।


सुषमा की दृढ़ता प्रंशसनीय है, लेकिन गिरीश के चरित्र का रहस्य खुल नहीं पाया है। अपनी इच्छा से सुषमा को अपनाने वाला गिरीश उससे क्यों खिंच जाता है। यह पूर्णतः स्पष्ट नहीं हो पाया है। परिवार समाज का आधार है और परिवार का आधार है दाम्पत्य जीवन। यदि यही अस्वस्थ है तो समाज कैसे स्वस्थ हो सकता है। वास्तविकता यह है कि प्रत्येक व्यक्ति शादी के बाद पछतावा करता है। अतः इस उपन्यास में पात्रों के दाम्पत्य जीवन का चित्रण समीचीन है। संयुक्त परिवार व्यवस्था में नारी और पुरूष दोनों पराधीन हैं। लेकिन नारी अधिक पराधीन है उसकी नियति रही है जलकर मरना। यह आपने दिखाने का कलात्मक प्रयास किया हैं।


संभव है कि मेरा अनुमान गलत हो कि इस उपन्यास के जयदेव की परिकल्पना में आपकी निजी जीवन-धारा प्रेरक रही है और जयदेव के चित्रांकन में आपके अग्रज (स्व0) बलराज साहनी का जीवन-प्रवाह प्रेरक रहा हो।


आपने पात्रों के चरित्रांकन में मनोवैज्ञानिक सूझबूझ का कलात्मक समावेश किया है। उपन्यास जैनेन्द्र के विचारपूर्ण उपन्यासों के समान बोझिल कतई नहीं है कि इसे आदि से अंत तक बिना ऊबे पढ़ा न जा सके।


ऐसे सुन्दर उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई।


अपना जन समझकर पत्रोत्तर लिखने की कृपा करें। यदि कोई बात अनुचित लगे तो छोटा समझ कर क्षमा कर दें।


विनियावनत

अमीर चन्द वैश्य


भीष्म साहनी का पत्र 

8/30 ईस्ट पटेल नगर,

नई दिल्ली 110008

15-09-1993



मान्य भाई अमीर चन्द जी,


आपका पत्र यथा समय मिल गया था, हार्दिक धन्यवाद। आप कुंतो’ के पहले पाठक हैं,जिन्होंने अपनी प्रतिक्रिया विस्तार से लिख भेजी है। सबसे पहले तो मेरी पत्नी ने पढ़ा (वह तो पांडुलिपि पढ़ती हैं) फिर दो मित्रों ने और अब आपने। इस उत्साहवर्धक प्रतिक्रिया के लिए आभारी हूं। लेखक को तो पाठक चाहिए, यह उसकी बहुत बड़ी दौलत होती हैं।


अध्याय 10 के पहले  वाक्य को मैंने फिर से पढ़ा है। आप की टिप्पणी सही है।को लेकर’ लिखने की आदत शायद उर्दूं से आयी है।


प्रत्येक काल खण्ड के जीवन से एक माहौल बनता है, जिसमें घटनाओं के प्रति हमारी दृष्टि, प्रतिक्रिया, विचार आदि, हमारी परंपरागत मान्यताएं सभी घुलमिल जाती हैं। कहीं-कहीं पर उसी माहौल में जीने वाला कोई व्यक्ति अपनी दृष्टि और संवेदन अनुसार उसका विश्लेषण ही नहीं, उसमें जीवनयापन के लिए सही रास्ता खोजने की चेष्ठा करता रहता है। प्रोफेस्साब ऐसा ही पात्र है, परन्तु वह बदलते परिवेश को पकड़ नहीं पाते, और अपनी सदिच्छाओं के रहते भी ,न चाहते हुए भी, क्लेश का कारण बनते हैं। यों, जीवन को किसी फार्मूले की चौखटे में फिट बैठाने की कोशिश ही निरर्थक होती है।


दूसरी ओर जयदेव की मां, जीवन का विश्लेषण नहीं करती, न ही किसी नपे तुले रास्ते का निर्देश देती है, वह मात्र अपने परिवार की परिस्थतियों के अनुरूप अपनी धारणाओं को ढालती रहती है। उसे अपने बेटे का सुख चाहिए, यदि सुषमा के साथ व्याह कर लेने में उसका हित है तो परंपरागत प्रथाओं और मान्यताओं की भी परवाह नहीं करेगी। मैंने केवल जीवन में से उठाये गये यथार्थ का चित्रण किया है। अपनी ओर से कोई नपा तुला दिशा निर्देश नहीं दिया है।


कुंतो निश्चल लड़की है, जयदेव के प्रेम में डूबी हुई निःस्वार्थ। शायद उसका चरित्र निखर कर नहीं आया, जैसा मैं चाहता था। पर वह केन्द्रीयता ग्रहण नहीं कर पाई, इसका एक कारण यह भी है कि कुंतो की विशेषताओं को हम पत्नी से अपेक्षित परंपरागत मान्यताओं के साथ भी जोड़ते हैं, और कुंतो पत्नी’  की परंपरागत परिकल्पना के अनुरूप बैठती है, इससे वह सामान्य हिन्दू नारी जैसी जान पड़ती है। जबकि सुषमा अपने बन्धन तोड़कर निकल जाने का प्रयास करती है,जो आज की हमारी अवधारणा के अनुरूप है, इसलिए वह अधिक प्रभावित करती है।


आपने मुआवजे’ नाटक भी पढ़ा। यह नाटक यहां और लखनऊ में भी खेला गया है। मंचन का स्वागत हुआ है।


आशा है स्वस्थ प्रसन्न होंगे। मधुरेश जी को सादर प्रणाम कहें।


कुछ वर्ष पहले महत्त्व’:  भीष्म साहनी नाम से एक पुस्तक का प्रकाशन हुआ था। प्रकाशक का पता है: वाणी प्रकाशन ,4697/5, 21-,दरियागंज,नई दिल्ली ,110002


सप्रेम

भीष्म साहनी







सम्पर्क 

अमीर चंद वैश्य 
मोबाईल - 08533968269

टिप्पणियाँ

  1. बहुत दिनों बाद किसी मंच पर दो लेखकों का पत्र -संवाद पढ़ने का सुअवसर मिला . बहुत अच्छा लगा . पहलीवार का आभार .
    -नित्यानंद गायेन

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  2. patra samvaad ke liy danyvaad - gayatri priyadershini

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