अल्पना मिश्र के उपन्यास “अन्हियारे तलछट में चमका” का एक अंश
चर्चित युवा लेखिका अल्पना मिश्र को उनके प्रकाशित उपन्यास “अन्हियारे तलछट में चमका” के लिए वर्ष 2014 का प्रेमचंद सम्मान देने की घोषणा
की गयी है। 2006 से प्रतिवर्ष दिए जा रहे इस सम्मान का यह सातवाँ वर्ष है। इस वर्ष इस सम्मान के निर्णायक
मंडल में वरिष्ठ आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी, कथाकार शिवमूर्ति और डॉ
चन्द्रकला त्रिपाठी शामिल थीं।
निर्णायकों के अनुसार यह उपन्यास निम्नमध्यवर्गीय जीवन
का महाख्यान है जो स्त्री-लेखन
को एक बड़ा विस्तार देता
है और स्त्री-संसार की एकायामिता को तोड़ता है। कहन के अनूठे अंदाज़ और भाषा-विकल्पन के गहरे नए रूपों से समृद्ध यह हिन्दी उपन्यास क्षेत्र में अब तक के प्रचलित सभी खांचों को तोड़ कर सृजनात्मकता के नए
शिखर निर्मित करता है।
अल्पना का यह पहला उपन्यास है। इसके बावजूद अपने अलग तरह के कथ्य और
शिल्प की वजह से पाठकों में यह उपन्यास ख़ासा चर्चित रहा है। इस उपन्यास का एक अंश
आप पहले ही पहली बार पर पढ़ चुके हैं। अल्पना जी को सम्मान की बधाईयाँ देते हुए हम
प्रस्तुत कर रहे हैं उपन्यास का एक और अंश।
(उपन्यास
“अन्हियारे तलछट में चमका” का अंश)
अल्पना
मिश्र
खामोशी थी, आवाज का किरदार था
(आत्मकथा – 2)
मॉ को फॉलो करना
मुश्किल काम था। पिता जी को फॉलो करना आसान था। पिता जी फक्कड़ई करते थे। शुरू में
वे किसी दफ्तर में क्लर्क थे, लोग यह भूल चुके
थे। उनके घर का मुकदमा कई पीढ़ियों से चल रहा था। जिनके साथ मुकदमा चल रहा था, उनसे कभी आमना सामना होने पर लड़ाई भी होती रहती थी। वे सुलह
समझौते की बजाय लड़ने के विकल्प की तरफ चले जाते थे। झगड़ा फौजदारी तक चला जाता था।
पुलिस, दरोगा से ले कर कोर्ट कचहरी सब होता रहता था। इस सब में
पिता जी अपनी नौकरी कई बार खो चुके थे। किसी के लिए भी यह याद रखने लायक बात नहीं
थी कि वे अब तक कितनी बार नौकरी का खोना-पाना कर चुके थे। हर बार एक नई नौकरी के
साथ जीवन शुरू करते। संकल्प धरते कि सब एकदम ठीक चलायेंगे, लेकिन अधराह में ही कुछ न कुछ गड़बड़ा जाता। बार-बार नौकरी
खोने और दुबारा पाने के बीच का अंतराल कैसा होता था, इसे मॉ जानती रही होंगी। शायद इसीलिए घर के बजट में बहुत
ज्यादा कटौती करती रहतीं। सब्जी में इतना पानी डालतीं कि दोनों वक्त पानी से रोटी
खाई जा सके। सब्जी का पानी पौष्टिक पानी था, यह मॉ ने सब
बच्चों को समझा दिया था। बचत की भावना इस हद तक कूट कूट कर भरी थी कि अगर रूटीन से
हट कर कहीं खर्च हो जाता तो बड़ी गिल्ट महसूस होती। एक बार मैंने हाईस्कूल की
परीक्षा देने के बाद कुछ सहेलियों के साथ एक ग्रुप फोटो खिंचवाया था। फोटो की एक
एक कॉपी सबने ली थी। मेरा भी बड़ा मन था। मैंने भी एक कॉपी ले ली। इस एक कॉपी लेने
के पैसे लगे थे। मॉ ने तब पैसे जिस भाव से निकाल कर दिए थे, वह कांटेदार अहसास आज तक मुझे चुभता था। लेकिन अब वे पैसे
लौटा देना बेकार था। लौटाने से उनके रूक जाने या मॉ के खजाने को बढ़ा देने की
गुंजाइश अब नहीं रह गयी थी। बहुत संभव था कि वे तुरंत खर्च हो जाते। तिस पर बड़ी
बात यह थी कि उन्हें इसकी याद भी नहीं थी कि उन्होंने कोई गिल्ट हमारे भीतर डाल
दिया था, जिससे मुक्ति का मार्ग हम तलाश रहे थे।
लड़कियों की पढ़ाई पर मॉ का कोई विश्वास नहीं रह गया था। वे
पढ़ी लिखी थीं और यह उनके अपने जीवन अनुभव से निकल कर आया विचार था। पढ़ाई के नाम पर
वे बड़े धैर्य के साथ कहतीं- “पढ़ कर क्या होगा? मैं पढ़ कर क्या कर
रही हूँ? और बेहतर बरतन मॉजोगी? और बेहतर घर ठीक
करोगी? सिलाई बुनाई कर लोगी? सोडा सर्फ का अंतर
जान जाओगी? इतने के लिए उॅची पढ़ाई की क्या जरूरत? मन करता है कि अपनी डिग्री चूल्हे में जला दूं। किसी काम की
नहीं।”
यह मॉ का सोचना था।
हमारा सोचना नहीं
था।
उनका मन फटा हुआ
था। यह हम उनके बार बार कहने से जान गए थे। वे अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट लड़की
थीं। गॉव में इस बात का अभी भी नाम था। लेकिन इस नाम का उन्हें कोई फायदा नहीं हुआ
था। हर बात पर पिता जी कह देते थे- “क्या फायदा पढ़ी लिखी लड़की से शादी करने का?”
पिता जी पढ़ी लिखी
लड़की से शादी का पूरा फायदा लेना चाहते थे। इसलिए उन्हें नौकरी पकड़ लेने पर जोर
देते थे। मॉ ने सोचा होगा कि इनका कौन भरोसा? कब न नौकरी छोड़
बैठें! इसलिए उन्हें अपनी इन्हीं डिग्रियों का कुछ फायदा ले लेना चाहिए। लेकिन
उनके हिस्से कोई बड़ी और ताकतवर नौकरी नहीं आ पाई। सरकारी प्राइमरी पाठशाला की
नौकरी मिली। वे पढ़ाई के साथ कुछ बड़ा जोड़ कर देखती थीं। खासकर अपनी पढ़ाई के साथ।
क्योंकि वे अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट थीं और पता नहीं कोई उनसे यह अपेक्षा रखता
था कि नहीं, पर वे अपने आप से, समाज में खास तरह के पोजीशन की अपेक्षा रखती थीं।
मगर अपने गॉव की पहली ग्रेजुएट होने के बावजूद उन्हें यह पोजीशन वाला पद नहीं मिला
था। इसलिए इस मिल गयी नौकरी में उनका मन नहीं लगता था। यह उन्हें अपनी पढ़ाई के
लिहाज से तुच्छ लगती थी। उपर से इस नौकरी के मिल जाने के बाद भी घर में उनकी
हैसियत एकदम से बढ़ती हुई नहीं दिख रही थी। पैसा भी उनके हाथ में नहीं रह पाता था।
हरदम हिसाब देने की तलवार लटका करती थी। अपने ही पैसे छिपा लेने का उन्हें गहरा
क्षोभ होता रहता था। छिपा कर पचास सौ रूपये मौसी को भेज देने का क्षोभ भी गहरा था।
कमा कर लाने पर भी घर का खर्च ठीक से न चल पाने का भी क्षोभ गहरा था। वे इस गहराई
में तैरती अपनी पढ़ाई और नौकरी दोनों से क्षुब्ध बनी रहती थीं।
अब उन्हें यह कौन
समझाये कि उनका वक्त था तो उन्हें आसानी से उनके ग्रेजुएट होने का फायदा मिल गया
था। एक अदद सरकारी नौकरी मिली थी। आज वह भी कितना मुश्किल हुआ था। अव्वल तो खाली
ग्रेजुएट को कोई किसी लायक समझता ही न था। पढ़ाने लायक तो बिल्कुल नहीं। चाहे
प्राइमरी के बच्चों को पढ़ाना हो! इसी नौकरी के लिए लोग रूपये पैसे ले कर खड़े थे, तब भी उन्हें किसी ताकतवर सोर्स की दरकार बनी हुई थी। इसी
नौकरी के लिए मेरी बड़ी बहन हाथ पॉव मार रही थीं। मैं इसी को पा लेने को विकल थी।
और मेरी मॉ थीं कि इसे ही हेय दृष्टि से देख रही थीं। अपने लिए देख रही थीं, हमारे लिए नहीं। हमारे लिए यह उपयुक्त ही थी। हम अपने शहर
के पहले ग्रेजुएट नहीं थे। फिर भी वे नौकरी किए जा रही थीं।
नौकरी नापसंदगी के
चलते नहीं छोड़ी जा सकती थी।
इस गहन जरूरत के
बावजूद उन्हें अनिवार्य रूप से अपनी तनख़ाह ला कर हर महीने पिता जी के सामने स्टूल
पर रखनी पड़ती थी। शायद पहले, जब हम कुछ छोटे थे, तब उन्हें तनखा़ह रख कर चरण भी छूना पड़ता था। बाद में हम
बहनों के बार बार टोकने पर मॉ ने चरण छू कर आशीर्वाद लेना बंद कर दिया। इससे भी
पहले उन्हें दादी के चरण के पास रूपया रख कर पॉवलगी कर के आशीर्वाद लेना पड़ता था।
दादी उन्हें ‘पुत्रवती’ होने को अशीषतीं, लेकिन आशीर्वाद
लगता नहीं। आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा जरूर होती। इस प्रतीक्षा में लड़कियों के
पैदा होने की सूची लम्बी होती चली गयी। पॉच लड़कियॉ पैदा हो गयीं। छठीं हो कर मर
गयी। पर आशीर्वाद लगने की प्रतीक्षा न दादी के लिए धूमिल हुई न पिता जी के लिए। मॉ
के लिए जरूर यह व्यर्थ हो गयी।
जब दादी के चरणों
पर रूपया चढ़ा दिया जाता और आशीर्वाद की रस्म पूरी हो जाती, तब दादी पुकारतीं- “ बबुआ!” पिता जी इतने में समझ जाते। आ कर रूपये ले जाते। दादी के नहीं रहने पर पूरी
तरह यह जिम्मेदारी उन्हीं पर आ गयी। पहले की तरह ही अगले दिन वे चार रूपये मॉ को
देते-“रिक्शे का किराया रोज मॉग लेना!”
मॉ चार रूपये नहीं
लेतीं। तमतमा कर चल देतीं। जा कर रसोई में बरतन उठाने पटकने लगतीं। पिता जी डॉट कर
कहते- “किसी और से मॉगने जाओगी रूपया? जाओ! चमड़ी उतार के रूपया देगा।”
“दूसरे का रूपया तो नहीं मॉगती? अपना ही मॉगती हूँ
तो नहीं देते। कौन सा अपना पेट भर लूंगी? एक टेबुल खरीदनी
है। कोई घर आ जाए तो अच्छा नहीं लगता। मॉ बड़बड़ाती जातीं और बरतन घिसती जातीं। पिता जी मॉ का बड़बड़ाना सुन कर टालते
जाते। बाहर अपने मित्रों से कहते- “कमाने भेजो, तो औरत हाथ से
निकलने लगती है। रात दिन चिक चिक मचाती है। साला, रूपया न लाई, जेवरात लाई है !
घर की जरूरत न होती तो कौन भेजता?”
पिता जी गुस्सैल
थे। गुस्सा भी कैसा?
न्याय अन्याय पर
जमाने भर से लड़ जाते थे, अपनी नौकरी तक की
भी परवाह नहीं करते थे। मॉ बड़बड़ातीं तो वे टालते थे, पर जब बहुत ज्यादा बड़बड़ातीं तो कभी कभी आपा खो देते थे और
चार छः झापड़ आसानी से मार देते थे। तरह तरह की धमकियॉ देते। मॉ युद्ध में भाग लेने
की बजाय रोने लगतीं। यह हमें अच्छा नहीं लगता। एक आदमी मारे और दूसरा पिटते हुए
रोये, चिल्लाए, यह एक सही दृश्य
नहीं था। यह हमारा आदर्श दृश्य नहीं हो सकता था। इसी का परिणाम था कि जब शादी के
कुछ समय बाद ही मेरी बड़ी बहन पर उनके पति ने हाथ उठाया तो वे एकदम आपा खो बैठीं।
उस मारने वाले हाथ को वे तोड़ कर, मोड़ कर फेंक देना
चाहने लगीं। लेकिन तोड़ कर रह गयीं, फेंक नहीं पायीं।
इसका अफसोस उन्हें आज तक था। मॉ को दूसरा अफसोस आज तक था कि वे युद्ध का बिगुल बजा
कर अपनी ससुराल से भाग आयी थीं, लड़ कर शहीद नहीं
हुई थीं। जब कि बड़ी बहन इसका उलट सोचती थीं। वे कहती थीं कि वे आयीं अपना पक्ष
मजबूत करने। अपने लोगों का समर्थन पाने और अपनी सेना तैयार करने के लिए। यहीं वे
चूक गयी थीं। उनके लोग, उनके युद्ध में शामिल
होने से कतरा गए थे। मॉ से उम्मीद वैसे भी नहीं की जा सकती थी। वे अपने ही युद्ध
में हारी हुई थीं। युद्ध में जीत गयी लड़कियों के बारे में हमें बिल्कुल पता नहीं
था। वे कहॉ रहती थीं? क्या खाती थीं? किससे पूछा जाए? आस पास तो बस
हारने हारने को होती लड़ाइयॉ थीं और कुछ डरावनी कहानियॉ थीं।
तो पिता की दबंगई
हमें बहुत अच्छी लगती थी। उनकी मस्ती भी उतनी ही अच्छी लगती थी। मैं मन ही मन अपने
लिए पिता वाला व्यवहार चुनना चाहती थी। पर मॉ ऐसा करने के बीच जबरदस्त तरीके से
आड़े आती थीं। वे नहीं चाहती थीं कि हम पिता जैसे बन जाएं। हम नहीं चाहते थे कि हम
मॉ जैसे बन जाएं।
यही द्वंद्व था।
इसी के बीच हम थे।
कभी दबंगई कर के
लड़ जाते थे, कभी धैर्य रख कर सह जाते थे।
मैं ससुराल से भाग
आयी थी। हॅलाकि मुझसे पहले मेरी बड़ी बहन अपने ससुराल से भाग कर आ चुकी थीं। मैं
उन्हीं की तरह मॉ के जीवन को दुहराना नहीं चाहती थी। मैं अपने शहर की पहली
ग्रेजुएट लड़की भी नहीं थी। मैं तो सिर्फ इंटरमीडिएट पास थी। लौट कर मैं पिता जी से
लड़ पड़ी थी। लड़ी थी आगे पढ़ने के लिए। लेकिन पिता को लगा था कि मेरी लड़की में खोट
है। झगड़ालू है। इसलिए भगा दी गयी है। लड़की खुद ही भाग आए, यह पिता जी ने बड़ी बहन के संदर्भ में भी स्वीकार नहीं किया
था। इसलिए उन्होंने उम्मीद से भर कर कहा- “पढ़ो आगे। नौकरी ही
कहीं लग गयी तो उन लोगों को फायदे का कुछ लालच हो जाएगा।”
पिता जी ने एकदम
दूसरी तरह सोचा था। पर मैंने इसमें से ‘पढ़ो आगे’ को ही पकड़ा और जिद कर के पास के इस शहर चली आयी थी।
“कमा रही थी तो अपना पैसा ले कर भाग क्यों न गयी?” मैंने गुस्सा कर मॉ से कहा था।
“भाग कर आदमी कहॉ तक जा सकता है?” मॉ ने निराशा से कहा था।
“निकलने से कहीं तक तो जाएगा।” मैंने और गुस्सा कर कहा।
इस पर मॉ के आगे भय
का पूरा संसार खुल गया। वे लगीं बताने- “भागने से लड़कियॉ
कहॉ कहॉ पहॅुच जाती हैं। बिसेसरगंज की गलियों में जो लड़कियॉ गुम हो गयी थीं, वे भी कहॉ पहॅुचीं? जिंदगी नरक है।
बाहर के नरक से अंदर का नरक ठीक है। अंदर के नरक में एक की मार है, बाहर के नरक में मार ही मार है।.....”
मैं इस बात से
डरने की बजाय उब गयी। उब कर मैंने कहा- “ कमाता हुआ आदमी भागे तो बात कुछ और होगी।”
मॉ की
व्याख्यानमाला इस पर रूकने की बजाय और तेज हो गयी – “कमाओ या न कमाओ, पैसा तो वही लोग रख लेंगे, जिसके कब्जे में पहॅुच जाओ। धन पर औरत का अधिकार कहॉ रहने
देते हैं? कमाने वाले का पैसा भी निकलवा लेंगे और देह भी। तुम्हें
क्या पता बिट्टो! ये दुनिया किस कदर जालिम
है। अभी तुमने देखा ही क्या है? मौज से पढ़ रही हो।”
इस पर मैं भड़क
गयी। मैं कोई मौज से नहीं पढ़ रही थी।
“पहले भागो, तब व्याख्यान दो, तभी कोई भरोसा
करेगा।” मैंने सोचा था कि यह जहरबुझा तीर उन्हें कुछ निरूत्तर करेगा। लेकिन वे बस एक
मिनट के लिए चुप हुईं, फिर अपनी बात मोड़
कर मेरा तीर मुझे लौटाते हुए बोलीं- “ तुम भाग कर कहॉ गयी बिट्टो? यहीं तो आयी। कहॉ जाती? लड़कियों के लिए कोई जगह नहीं है। हमारे जमाने में तो यह भी
मयस्सर नहीं था।”
“मैं कमाउंगी तो यहॉ नहीं रहूंगी। भाग कर कहीं और चली जाउंगी। तब देखना।” मैंने तन कर कहा।
“देखूंगी, देखूंगी। मरूंगी नहीं तब तक।“ बेहद खामोशी के भीतर से मॉ की यह आवाज आयी थी। इसने मुझे चौंका दिया था। इस
निराशा के भीतर उम्मीद छिपी थी कि शायद ऐसा दिन आ ही जाए, जब मैं कमाने लगूं और कमाते हुए कहीं भाग जाउं, जिससे मेरे खाने पहनने की चिंता मॉ को न रह जाए और यह भी न
रहे कि कोई मारता पीटता होगा, भूखे पेट सोना
पड़ता होगा, ताने उलाहने होंगे, सास का पॉव चापते
चापते गिर जाना होता होगा..... ऐसा कुछ भी न रहे।
बहुत सारी चीजों
से निष्कृति का स्वप्न जैसा था।
स्वप्न ही था।
यथार्थ में नौकरी
मिल जाएगी, इसका कोई भरोसा नहीं था।
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सम्पर्क-
अल्पना मिश्र
55, कादम्बरी
अपार्टमेंट
सेक्टर - 9
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- 85
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e mail –
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