आरंभिक कम्युनिस्ट आन्दोलन (1920-1934)
और मुस्लिम समुदाय
आनन्द पाण्डेय
भारतीयों का
वैज्ञानिक समाजवाद यानि मार्क्सवाद से परिचय सोवियत क्रांति से बहुत पहले हो गया था। यह वह समय था
जब कार्ल मार्क्स और उनके साथियों द्वारा यूरोप में
सैद्धान्तिक और व्यावहारिक स्तर पर समाजवाद को विश्व दृष्टिकोण के रूप में स्थापित किया जा
रहा था। कुछ प्रबुद्ध कुलीन भारतीय बुद्धिजीवी यूरोप में
चल रही गतिविधि के सम्पर्क में आये ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, शशिपद
बनर्जी, एस0 एस0 बंगाली, एन0 एम0 लोखण्डे, शिवनाथ
शास्त्री, बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय, लाल बिहारी
डे, अधीरचन्द्र दास और दादा भाई
नौरोजी 19 वीं सदी में उन
लोगों में शामिल रहे जो समाजवादी विचारों से परिचित रहे।(1) किन्तु
इन्हें किसी भी दृष्टिकोण से समाजवादी नहीं कहा जा सकता। बीसवी सदी में सोवियत क्रान्ति के
सम्पन्न होने तक ऐसे लोगो की संख्या में अच्छी खासी वृद्धि हुई
जो न केवल मार्क्सवादी विचारधारा और उसके तौर-तरीके से परिचित थे बल्कि उनमें से कई आगे बढ़ कर
अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर होने वाले उन सम्मेलनों
में भाग भी ले रहे थे, जो कम्युनिस्टों की सर्वोच्च
बैठकें हुआ करती थीं।
सोशलिस्ट इंटरनेशनल की स्टुटगार्ट
कांग्रेस (अगस्त 1907) में भारत की तरफ से श्रीमती
भीकाजी रूस्तम कामा, वीरेन्द्र
नाथ चट्टोपाध्याय ओर सरदार सिंह जी रेवाभाई राना (एस0 आर0 राना) ने
भाग लिया।(2) नवम्बर क्रान्ति से पहले तक
अवनीन्द्र नाथ मुखर्जी, डॉ0 भूपेन्द्र
नाथ दत्त, मण्डयम प्रतिवादी भंयकर
तीरूमल आचार्य बाद के जाने माने नेता
कम्युनिस्ट बन चुके थे। नवम्बर क्रान्ति ने स्थिति में
अभूतपूर्व परिवर्तन किया। पूरे विश्व विशेषकर एशिया अफ्रीका के उपनिवेशिक देशों में
स्वतंत्रता के साथ साथ सामाजिक असमानता और आर्थिक पिछड़ेपन के
कारण जूझ रहे लोगो का भारी संख्या में कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर झुकाव हुआ।
‘The October Revolution Inspired Oppressed Peoples all
over the world to rise to a determined anti- imperialist struggle tor independence, for radical Social transformation and marked the
beginning of the communist movement in the countries of Asia and
africa. The foundation ot the third communist international (comintern)
in March 1919 was instrumental in organizing the communist parties in the
colonies. Thus, as in other colonies, in India too, the communist movement
was a post - October Revolution
phenomenon. (3)
नवम्बर क्रान्ति की सफलता ने सोवियत संघ, लेनिन और कम्युनिस्ट आन्दोलन की ओर
भारतीय क्रान्तिकारियों को आकर्षित किया। महेन्द्र
प्रताप के नेतृत्व में भारतीयों का पहला प्रतिनिधिमण्डल लेनिन से मई 1919 को मिला।
क्रेमलिन (मास्को) में हुई मुलाकात का उत्साह लेनिन और भारतीयों
दोनों को था। महत्वपूर्ण बातों पर विचार विमर्श करने के बाद लेनिन ने इस प्रतिनिधि मण्डल को
भारत में वर्ग संघर्ष का प्रचार करने की सलाह दी। इसका
तत्काल यह परिणाम हुआ था कि भारतीय क्रान्तिकारियों तथा नौजवान मुहाजिरों के साथ मिलकर इस
प्रतिनिधिमण्डल ने अक्टूबर 1920 में ताशकंद (वर्तमान
में उज्बेकिस्तान की राजधानी) में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की।
ताशकन्द में स्थापित होने वाले हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट
पार्टी का महत्वपूर्ण सम्बन्ध मुजाहिर लोगों से था। दरअसल भारत में अंग्रेजों के विरूद्ध चल
रहे खिलाफत आन्दोलन (1919-20 ई0) के कारण मुसलमानों के एक वर्ग में यह
विचार आया कि ईसाई शासित इस देश में रहना पाप अथवा गलत
है इसलिए ये ऐसे लोग बहुसंख्या में भारत छोड़कर अफगानिस्तान की ओर चले। इसमें भारी संख्या में
नौजवान शामिल थे। ‘ऐसे नौजवान मुहाजिर कहलाते थे। इन मुजाहिरों का एक
हिस्सा रब और आचार्य के प्रभाव में सोवियत संघ गया।’(4) इन मुजाहिर
नौजवानों ने सोवियत सेना के साथ सहयोग किया और राजनीतिक
काम भी किये। 17 अक्टूबर 1920 को ताशकंद
में बनाने वाले हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट
पार्टी को नेतृत्व और कार्यकर्ता दोनों के स्तर पर
मुस्लिमों को मजबूत सहयोग मिला।
पार्टी की स्थापना बैठक में एम0 एन0 राय, एलविन
ट्रेंट राय, अवनी नाथ मुखर्जी, रोजा
फिटिगोंफ (अवनी की रूसी पत्नी) मोहम्मद अली
उर्फ अहमद हसन, मोहम्मद शफीक सिद्दीकी और
मंडयन प्रतिवादी भंयकर तीरूमल
आचार्य ने की। शफीक सिद्दीकी सचिव चुने गये।(5) ताशकंद में
ही एक और बैठक 15 दिसम्बर 1920 को हुई। इस
बैठक में अब्दुल कादिर सेहराई, मासूद अली
काजी और अकबर शाह उर्फ सलीम को पार्टी में उम्मीदवार सदस्य के रूप में
लिया गया ओर पार्टी ने राय, शफीक और
आचार्य को कार्यकारिणी का सदस्य चुना।(6)
सोवियत संघ ने भारतीयों को उनके
मुक्ति संघर्ष में सहायता देने के लिये एक इण्डियन मिलिटरी स्कूल (इंदुस्की
कुर्स) खोला किन्तु पर्याप्त छात्र न होने और ब्रिटिश सरकार के भारी विरोध के कारण यह स्कूल
बन्द करना पड़ा। इस स्कूल में पढ़ने वाले अधिकांश
युवक मुस्लिम समुदाय में आते थे। बाद में इन नवयुवकों को ‘पूर्वी श्रमजीवी कम्युनिस्ट
विश्वविद्यालय’ भेज दिया गया। इस
विश्वविद्यालय में शिक्षा
पाने वाले 23 मुहाजिरों के नाम मिलते है।
भोपाल के मुहाजिर रफीक अहमद के
अनुसार इनमें से प्रायः सभी हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे। इनको लेकर 1921 में
मास्कों में भी हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट
पार्टी बनायी गयी।(7)
मुस्लिम समुदाय के लोगों का
कम्युनिस्ट आन्दोलन की शुरूआत से ही होने वाली बहसों, जो संगठन
के भीतर और बाहर हो रही थी, गहरा
सम्बन्ध रहा। यानि न केवल नेतृत्व और जमीनी कार्यकर्ता
के स्तर पर बल्कि पार्टी के भविष्य को तय करने वाली लाइन को निर्धारित करने में भी
मुस्लिम समुदाय से आने वाले लोगों का महत्वपूर्ण स्थान रहा।
ऐसा नही था कि कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रेरित भारतीय लोगों का समूह केवल सोवियत रूस में था।
ऐसे भारतीय यूरोप, अमेरिका ओर एशिया के विभिन्न देशों मे फैले हुए
थे। इनमें से कुछ महत्वपूर्ण लोग बर्लिन को केन्द्र
बना कर काम कर रहे थे। बर्लिन केन्द्र के एक नेता वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय थे। कम्युनिस्ट
इण्टरनेशनल के नेताओं द्वारा इन्हें कहा गया कि वे अन्य
नेताओं को लेकर मास्को आये। इसके परिणामस्वरूप भारतीय क्रान्तिकारियों
का एक प्रतिनिधिमण्डल मार्च अप्रैल 1921 को मास्को
गया। इस 17 सदस्यीय प्रतिनिधिमण्डल में
नेता वीरेन्द्र नाथ चट्टोपाध्याय के अलावा गुलाम
अंबिया खान लुहानी, डॉ मंसूर, डॉ0 हाफिज, बरकतुल्ला, अब्दुल रब पेशावरी तथा अब्दुल वाहेद
शामिल थे।
कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल के प्रतिनिधियों
के साथ इन भारतीय क्रांतिकारियों की बैठक हुई। इनमें आपस में तीव्र मतभेद हो गये। डॉ0 भूपेन्द्र
नाथ दत्त के अनुसार इस बैठक में तीन थीसिसें
पेश की गयी थी। पहली एम0 एन0 राय की दूसरी
भूपेन्द्र दत्त और उनके साथियों की
और तीसरी वीरेन्द्र चट्टोपाध्याय और उनके समर्थकों की।(8) दत्त और चट्टोपाध्याय यह मानते थे
कि पार्टी बनाने में व्यापक विचार विमर्श नहीं किया
गया। चट्टोपाध्याय गुट की तरफ से लोहानी ने मांग की कि ‘थर्ड इण्टरनेशनल’ से इस पार्टी
का नाम काट दिया जाये। दत्त का गुट पार्टी की स्थापना
नये सिरे से करना चाहता था जबकि चट्टोपाध्याय पार्टी नहीं बल्कि एक क्रान्तिकारी बोर्ड के माध्यम
से काम करना चाहते थे। किन्तु चट्टोपाध्याय गुट के
खानखोजे कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के पक्ष में थे। भारतीय क्रान्तिकारी और उनके सोवियत
सहयोगी किसी निष्कर्ष, किसी सहमति पर नहीं पहुँच सके और अन्ततः ये तीनों
प्रमुख नेता अपनी-अपनी जगहों को वापस लौट गये।
इस दौरान हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट
पार्टी अपना काम करती रही। पेरिस में उसने अपना विदेश विभाग स्थापित किया जिसके सदस्य एम0 एन0 राय, मुहम्मद
अली और क्लीमेंस पात्र दत्त थे। पार्टी
का प्रमुख उद्देश्य हिन्दुस्तान में कम्युनिस्ट आन्दोलन को तेज करने के लिये वैचारिक, संगठनात्मक, वित्तीय और अनुषंगी
सहयोग और आधार तैयार करना था। जिसके लिये
उसने प्रयास करना प्रारम्भ कर दिया। पार्टी ने कम्युनिस्ट
कार्यकर्ताओं, साहित्य को भारत भेजा और बड़े
शहरों विशेषकर कलकत्ता, मुम्बई, चेन्नई और
लाहौर में लोगो को संगठित करने का प्रयास किया।
‘1922 के अन्त तक नलिनी गुप्ता (एक अन्य भूतपूर्व
आंतकवादी) और शौकत उस्मानी (जो मुजाहिर रह चुके थे) के माध्यम
से राय भारत में बन रहे कम्युनिस्ट समूहों से गुप्त सम्पर्क स्थापित करने में सफल हो चुके
थे जिसमें प्रायः बाधा पड़ती रहती थी। ये समूह
असहयोग और खिलाफत आन्दोलनों के अनुभव के बाद बम्बई (एस0ए0 डांगे), कलकत्ता
(मुजफ्फर अहमद) मद्रास (सिंगारवेलु) और लाहौर (गुलाम हुसैन) में उभर रहे थे।(9) कलकत्ता
में कम्युनिस्ट गुट की स्थापना का श्रेय मुख्य रूप से
मुजफ्फर अहमद और काजी नजरूल इस्लाम को है। इन दोनों ने अब्दुल रज्जाक खा, अब्दुल
हलीम और कुतुबुद्दीन अहमद के साथ मिलकर कलकत्ता में कम्युनिस्ट
गुट की स्थापना की। किन्तु नजरूल इस्लाम पार्टी सदस्य नही बने क्यों कि उनका मानना था कि वे
एक साहित्यकार के रूप में पार्टी अनुशासन का पालन नहीं
कर पायेगें।
|
(चित्र: श्रीपाद अमृत डांगे) |
मद्रास के कम्युनिस्ट ग्रुप के
मुख्य संस्थापक मायलापुरम सिंगाटावेलू चेट्टियर थे। बम्बई में यह काम श्रीपाद अमृत डांगे ने
किया। किन्तु लाहौर में मुसलमानों का नेतृत्व और कार्य के
स्तर पर प्रतिनिधत्व अधिक मिला है। लाहौर में कम्युनिस्ट ग्रुप के संगठनकर्ता गुलाम हुसेन
थे। वह पेशावर के एडवर्सस चर्च मिशन कालेज में अर्थशास्त्र
के प्राध्यापक थे। ताशकन्द में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की
स्थापना करने वाले मुहम्मद अली (अहमद हसन) उनके मित्र थे। उनका असली नाम खुशी मुहम्मद था
लेकिन विदेश में उन्होने मुहम्मद अली, सिपास्सी और अहमद हसन नाम रख लिये थे।
इस ग्रुप में इंकलाब के सम्पादक शम्सुद्दीन अहमद और
मुहम्मद सिद्दीकी थे।(10)
तीन प्रसिद्ध मुकद्दमे
सोवियत संघ से
विचारधारा में प्रशिक्षित हो कर कई नौजवानों ने भारत का रूख किया। वे भारत आ कर कम्युनिस्ट
पार्टी के भीतर रहकर कम्युनिस्ट विचारधारा का प्रसार करना चाहते थे। किन्तु
इनके भारत लौटने पर ब्रिटिश शासन की ओर से कई तरह की
बन्दिशें थी। इन भारतीय कम्युनिस्टों ने भारत आने का हर सम्भव प्रयास किया। वे विभिन्न
तरीके से भारत आने की कोशिश करने लगे। ब्रिटिश सरकार ऐसे
लोगों को रोकने का उपाय किया। विशेषकर सोवियत संघ के साथ सम्पर्को
पर विशेष निगरानी रखी गई। जिससे सोवियत में प्रशिक्षित नव कम्युनिस्टों
के समक्ष संकट उत्पन्न हुआ। शौकत उस्मानी, मासूद अली, गौहर रहमान खान और मुहम्मद अकबर
शाह फारस यानि ईरान का पासपोर्ट पाने में सफल रहे। लेकिन
सभी इतने सौभाग्यशाली नहीं थे। तीन जत्थों में शामिल दस नौजवान दुर्गम पामीर के पठार के
रास्ते भारत आने का फैसला किया। इसमें मीर अब्दुल मजीद
(लाहौर) फीरोजुद्दीन मंसूर (शेखूपुरा) रफीक अहमद (भोपाल) हबीब अहमद (शाहजहाँपुर) अब्दुल कादिर
सेहराई (पेशावर) फिदा अली (पेशावर) सुल्तान अहमूद (हजारा)
सैय्यद अहमद राज (दिल्ली) अब्दुल हमीद (लुधियाना) और निजामुद्दीन न (क्वेटा)
शामिल थे। इसमें से सैयद अहमद राज, अब्दुल
हमीद और निजामुद्दीन भारत नही आ
पाये।
भारत आने वाले इन कम्युनिस्टों
को भारत सरकार ने विभिन्न जगहों से गिरफ्तार किया और अलग-अलग मामले बना कर मुकदमा चलाया।
कम्युनिस्टों पर चलने वाला सबसे पहला मुकदमा ‘पेशावर
षडयन्त्र केस’ के नाम से जाना जाता है। दरअसल पेशावर षड़यन्त्र केस पॉच मुकदमों को सम्मिलित रूप
से कहा जाता है। जो सन् 1922 से 1927 के बीच चलाये गये। इसमें से पहला
मुकदमा अकबर कुरैशी उर्फ मुहम्मद अकबर शाह उनके पिता
हफीजुल्ला खॉ और दोनों के सेवक बहादुर पर केस चलाया गया। इसमें हफीजुल्ला बरी हुए किन्तु
मुहम्मद अकबर को तीन साल और बहादुर को एक साल की सजा हुई।
यह सजा ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध षड़यन्त्र रचने में विदेशियों को मदद करने के अभियोग में दी गई
थी ‘हिन्दुस्तान में कम्युनिस्टों
पर चलने वाला यह पहला मुकदमा था।(11) जाहिर है
ये सभी मुस्लिम समुदाय से आये हुए लोग थे।
दूसरा मुकदमा मोहम्मद अकबर, मोहम्मद
हसन और गुलाम महमूद पर चला था। इसमें मोहम्मद अकबर को सात साल की और
मोहम्मद हसन और गुलाम महबूब को पॉच-पॉच साल की सजा मिली। तीसरे मुकदमे को 'मास्को ताशकन्द
षड़यन्त्र केस' के नाम से जाना जाता है। मुकद्दमों के यह नाम
सरकारी दस्तावेजों में दिये गये है। इस केस में पेशावर के अकबर शाह, शेखूपुरा
के फीरोजुद्दीन, लाहौर के अब्दुल मजीद, शाहजहाँपुर
के हबीब अहमद, भोपाल के
रफीक अहमद, हजारा के सुल्तान महमूद, पेशावर के
ही अब्दुल कादिर और हजारा के गौहर रहमान
को अभियुक्त बनाया गया। इनमें भी अभियुक्तों को सजायें
दी गई। चौथे मुकदमें के अभियुक्त केवल मोहम्मद शफीक थे जो ताशकन्द
में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी के सचिव बनाये गये थे। इन्हें तीन साल की सजा मिली
जबकि मास्को षड़यन्त्र केस के नाम से प्रसिद्ध पॉचवे
मुकद्दमें के एकमात्र अभियुक्त फजल इलाही कुर्बान थे जिसे अन्ततः तीन साल की सजा दी गई।
इस प्रकार हम देखते है कि हिन्दुस्तान
में कम्युनिस्टों की गतिविधियाँ शुरू होने के साथ ही अंग्रेजों
का नियन्त्रण इस सम्बन्ध में लागू होना प्रारम्भ हो गया और वे हर सम्भव तरीके से विचारधारा को दबाने
और दमित करने के लिये तत्पर हो गये। इस दमन का
शिकार जैसा कि स्पष्ट है मुस्लिम समुदाय से आये नौजवान और लोग हुए जिन्हें भारत में कम्युनिस्ट
विचारधारा का अधिकारिक अगुवा कहा जा सकता है। अंग्रेजों
की कम्युनिस्टों के विरूद्ध कार्यवाही ‘पेशावर षड़यन्त्र केस’ तक ही सीमित नही रही। जब वह केस चल
रहा था तब इसी दौरान कानपुर में मुजफ्फर अहमद को मई 1923 के दौरान
गिरफ्तार किया गया। पेशावर केस से बाहर के कम्युनिस्टों पर
मुकद्दमा चलाने के लिये एक सूची तैयार की गई जिसमें कुल 135 नामों का उल्लेख मिलता है। अन्ततः इस
सूची में कुल तेरह नाम रह गये। तेरह नामों में भी
शमसुद्दीन हसन, मणिलाल डाक्टर, एम0पी0एस0 वेलायुधन, सम्पूर्णानन्द
और सत्यभक्त का नाम काट दिये
जाने के बाद एम0एन0 राय, मुजफ्फर
अहमद, शौकत उस्मानी, गुलाम
हुसैन, श्रीपाद अमृत डांगे, मायलापुरम
सिंगारा वेलू चेट्टियर, रामचरण
शर्मा, नलिनी भूषण दास गुप्त, बचे।
मुकद्दमे के अन्त में शौकत
उस्मानी, मुजफ्फर अहमद, डांगे और
नलिनी गुप्ता को सजा हुई। डांगे और गुप्त ने
सरकार से क्षमायाचना की, पत्र लिखे और इन्ही पत्रों
के प्रकाश में आने के बाद भारतीय
कम्युनिस्ट पार्टी के विभाजन की पृष्ठभूमि भी तैयार हुई। आगे
चलकर एक मुकद्दमा 1929 को मेरठ में चलाया गया जिसका
फैसला जनवरी, 1933 को आया। बंगाल और बम्बई में
कम्युनिस्टों की गिरफ्तारी की गई। यह मुकद्दमा
साढे तीन साल चलता रहा। 300 गवाहों से जिरह की गई। 300 के करीब शहादतें अदालत में पेश की गई
और मुकद्दमे पर कुल मिलाकर 15,00,000 रूपये खर्च हुए। मेरठ षड़यन्त्र केस
के अन्तर्गत अन्तिम रूप से कुल 33 लोगो को गिरफ्तार किया गया जिसमें सभी
प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं के साथ शौकत उस्मानी, मुजफ्फर
अहमद, शमसुल हुदा मीर अब्दुल मजीद
तथा अमीर हैदर खॉ शामिल थे। मुजफ्फर
अहमद को आजीवन कालापानी, उस्मानी को दस-दस साल काला पानी, मजीद को सात साल काले पानी तथा
हुदा को तीन साल कठोर कारावास की सजा दी गई। हैदर खॉ उस समय
तक पकड़ में नही आये थे। बाद में अपील के बाद इन 33 लोगों में
से कई को छोड़ा गया लेकिन मुजफ्फर
अहमद को तीन साल और उस्मानी को एक साल की कैद दी गई।
इसके पीछे ब्रिटेन तथा विश्व के कम्युनिस्ट जनमत का भारी दबाव था।
इस मुकद्दमे ने देश भर में
कम्युनिस्टों और कम्युनिस्ट विचारधारा को चर्चा के केन्द्र में ला दिया। लोगों की दिलचस्पी
उनमें बढ़ी और जेल के बाहर भीतर कई राष्ट्रवादी क्रान्तिकारी
कम्युनिस्ट विचारधारा की ओर आकर्षित हुये। मुकद्दमे के दौरान कम्युनिस्टों ने इस बात की
घोषणा की कि वे क्रान्तिकारी है और ब्रिटिश साम्राज्यवाद
को भारत से खत्म करना चाहते है। मुकद्दमें के दौरान मुजफ्फर अहमद ने जोरदार शब्दो में कहा, ‘‘मैं एक क्रान्तिकारी
कम्युनिस्ट हूँ। हमारी पार्टी कम्युनिस्ट
इण्टरनेशनल के कार्यक्रम सिद्धान्त और नीति को मानती है
और जहाँ तकहालात अनुमति दे उसका भरसक प्रचार करती है।’’ अब्दुल मजीद ने कहा ‘‘मुझे पूरा
विश्वास है कि एक दिन भारत में सर्वहारा क्रान्ति सफल होगी, हम कम्युनिस्ट
इस क्रान्ति को लाने की कोशिश में लगे है।’’(12)
|
कॉमरेड मुजफ्फर अहमद (1889-1973)
|
मुजफ्फर अहमद का विचार था कि मेरठ
षड़यन्त्र मुकद्दमे ने भारत में कम्युनिज्म की जड़े मजबूत कर दी। नया पार्टी नेतृत्व उभर कर
सामने आया। इस नये नेतृत्व में भी मुस्लिम समुदाय से आये
लोगो की संख्या अच्छी खासी थी। जिसमें अब्दुल मजीद, अब्दुल
हलीम, अमीर हैदर खान जैसे लोग शामिल
थे।
भारत में कम्युनिस्ट पार्टी और मजदूर किसान
मोर्चा:-
भारत में भी एक
कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हुई। जिसकी स्थापना सत्यभक्त नाम के एक व्यक्ति ने की।
सत्यभक्त ने बनारस के हिन्दी दैनिक आज के 12 जुलाई 1924 के अंक में
भारतीय साम्यवादी दल की स्थापना के इरादे की घोषणा की।’(13) एक रिपोर्ट
के अनुसार पार्टी गठन के समय कुल 78 सदस्य बने
थे। अन्य लोगों के साथ मौलाना
हसरत मोहानी इसमें शामिल हुये। 25 से 27 दिसम्बर 1925 को एक
कान्फ्रेंस कानपुर में बुलाई गई जिसमें लाहौर के शम्सुद्दीन हसन और कोलकत्ता के मुजफ्फर अहमद
शामिल हुये। मुजफ्फर अहमद ने इस पार्टी का नाम भारत
की कम्युनिस्ट पार्टी प्रप्तावित किया जिसे सत्यभक्त को छोड़ कर बहुमत ने स्वीकार किया।
इण्टरनेशनल से इस पार्टी को मान्यता
भी मिली। इसकी केन्द्रीय कार्यकारिणी में यू0पी0 से हजरत मोहानी, आजाद
सोभानी, बंगाल से मुजफ्फर
अहमद लाहौर से शमशुद्दीन हमन और अब्दुल
मजीद शामिल किये गये। मुजफ्फर अहमद कलकत्ता सर्किल के और शमशुद्दीन हमन लाहौर सर्किल के सचिव भी
नियुक्त किये गये।
सन् 1925-26 तक कम्युनिस्ट पार्टी की केन्द्रीय
समिति ने भारत के विभिन्न हिस्सों में स्थापित
कम्युनिस्ट ग्रुपों को एकत्रित व संगठित किया। सन् 1923 से 1927 के दौरान भारत में मजदूर किसान
पार्टियॉ गठित की गई जिसका उद्देश्य ब्रिटिश प्रतिबन्धों
से बचते हुए कम्युनिस्ट आन्दोलन और विचारधारा के उद्देश्य को पूरा करना था। इसका सुझाव
ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य फिलिप
स्प्रैट ने भारत के क्रान्तिकारियों मुजफ्फर अहमद, घाटे और
अन्य लोगों के साथ भेंट करने के
पश्चात दिया था। फिलिप स्प्रैट दिसम्बर 1926 में भारत आये थे। एम0एन0 राय के
विचार भी कुछ इसी प्रकार के थे किन्तु भारत मे मजदूर
किसान पार्टी के रूप में इनका निर्माण स्वतंत्र रूप से हो रहा था।
‘इसी पृष्ठभूमि में 1925-27 में भारत
के विभिन्न भागों में किसान मजदूर पार्टियों की स्थापना हुई।
मुजफ्फर महमद के अनुसार इन दलों या पार्टियों के निर्माण का कारण ग्रेट ब्रिटेन की कम्युनिस्ट
पार्टी या कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल या एम0एन0 राय नही थे, उनके विचार
में इस तरह की पार्टी का श्रेय काजी नजरूल इस्लाम और
शम्सुद्दीन को था।’ काजी नजरूल इस्लाम और
शम्सुद्दीन के प्रयासों से प्रभावित
हो कर बंगाल, बम्बई पंजाब और उत्तर प्रदेश
के प्रगतिशील मजदूर और किसान
नेताओं ने केन्द्रीय स्तर से लेकर प्रांतीय स्तर तक ऐसी पार्टी का गठन करने का प्रयास आरम्भ कर
दिया जिसका नेतृत्व मजदूरों और किसानों के हाथ में रहे।
मजूदर किसान पार्टी की स्थापना सबसे पहले बंगाल में ‘लेबर स्वराज पार्टी’ के नाम से हुई 1928 में इसका
नाम किसान मजदूर पार्टी रख दिया गया। किसान
मजदूर पार्टी के कार्यक्रम को निर्धारित करने में कम्युनिस्टों का हाथ था।14 इसकी
(किसान मजदूर पार्टी की) स्थापना करने वालो मे थे मुजफ्फर अहमद इनके
मित्र और विख्यात कवि नजरूल इस्लाम, कुतुबुद्दीन
अहमद और जुझारू स्वाजी हेमंत कुमार सरकार जो
सी0आर0 दास के
सचिव रह चुके थे।15
|
(कवि नजरूल इस्लाम)
|
इसी तरह पंजाब में मजदूर किसान
(किरती किसान) पार्टी की स्थापना दिसम्बर 1927 में अमृतसर
और लाहौर के किसान मजदूर ग्रुपों को
मिला कर हुई। संयुक्त प्रदेश आगरा व अवध (यू0पी0) में मजदूर
किसान पार्टी 14 अक्टूबर 1928 को बनी। उस
वक्त में 26 में एक राजनीतिक
सम्मेलन हुआ था। जिसमें फिलिप स्प्राट, मुजफ्फर
अहमद, अब्दुल मजीद, सोहन सिंह
जोश, पूरनचन्द जोशी वगैरह शामिल
हुए थे। इसी सम्मेलन में यू0पी0 मजदूर
किसान पार्टी बनी और जोशी उसके सचिव चुने गये।16
मेरठ के राजनीतिक सम्मेलन में यह तय
किया गया था कि जितनी भी किसान मजदूर पार्टियॉ काम कर रही है उन्हें मिला कर एक अखिल
भारतीय स्वरूप दिया जायेगा। इसके लिये सन् 1928 में कलकत्ता में अधिवेशन बुलाये
जाने की योजना थी इसी अनुसार 21-24 दिसम्बर 1928 को सोहन
सिंह जोश की अध्यक्षता में आल इण्डिया वर्कर्स एण्ड प्रेजेंट्स
पार्टी (अखिल भारतीय मजदूर किसान पार्टी) की स्थापना की गई। ‘आर्थिक और
सामाजिक मुक्ति सहित सम्पूर्ण स्वतंत्रता प्राप्त करना सबको व्यक्तिगत स्वतंत्रता, किसानो
मजदूरों के शक्तिशाली आन्दोलनो को विकसित करना और
जनसाधारण के आर्थिक व राजनीतिक स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करना।‘17 इस पार्टी
के उद्देश्यों में शामिल था।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टी 1928 तक
मजदूर-किसान पार्टी के जरिए काम कर रही थी। इन पार्टियों के भीतर रह कर कर्मठी और ईमानदार
कम्युनिस्ट नेताओं और कार्यकर्ताओं ने परिश्रम से
काम किया जिसका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्टों की स्वीकार्यता पूरे देश और हर मोर्चे पर
होने लगी। ‘उस समय की गृह राजनीति
रिपोर्टो में सरकार ने यह स्वीकार किया कि 1928 के आखिर तक
कोई भी जन उपयोगी सेवा या उद्योग ऐसा
नहीं था जिस पर देश में चल रही कम्युनिस्ट लहर ने अपना प्रभाव न डाला हो।‘18
‘मेरठ षड़यन्त्र केस’ के शुरू होने
के बाद संगठन पर व्यापक दुष्प्रभाव पड़ा। 1929 में
मुजफ्फर अहमद के गिरफ्तार हो जाने के बाद
अब्दुल हलीम ने बंगाल की मजदूर-किसान पार्टी का काम
संभाला। 1930 के आरम्भ में बम्बई के एस0 बी0 देशपाण्डेय
ने हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की
केन्द्रीय कमेटी बनानी चाही। इसमें उन्होने अब्दुल
हलीम को भी रखा। किन्तु बंगाल के अब्दुल हलीम और अखिल बन्धु बनर्जी ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार
कर दिया। देशपाण्डेय ने हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट
पार्टी की कलकत्ता कमेटी का भी गठन किया जिसमें अब्दुल हलीम अखिल बन्धु बनर्जी के अलावा
अवनी चौधरी, अब्दुल रज्जाक खॉ और ए0 एम0 ए0 जमन शामिल थे। अन्तिम तीनों
व्यक्ति देशपाण्डे द्वारा बम्बई से भेजे गये जमालुद्दीन
बुखारी के नेतृत्व में काम करने लगे। कुछ समय बाद अब्दुल हलीम और अब्दुल रज्जाक खॉ के
गिरफ्तार हो जाने और अवनी चौधरी के हलीम समर्थक हो जाने से
जमन का पक्ष कमजोर हो गया। अन्ततः कद्दावर नेता अब्दुल हलीम की अनुपस्थिति में बंगाल
मजदूर-किसान पार्टी भी निष्क्रिय हो गई। जेल से निकलने के
बाद अब्दुल हलीम ने मुजफ्फर अहमद की सलाह पर 1931 को बंगाल
किसान लीम (बंगाल पीजेंट्स लीग) की
स्थापना की। फरवरी 1932 में हलीम ने ‘वर्कर्स पार्टी आफ इण्डिया’ (हिन्दुस्तान
की मजदूर पार्टी) की स्थापना की। हलीम की यह पार्टी
ही हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी की कलकत्ता कमेटी के नाम पर काम करने लगी। अप्रैल 1933 तक लगभग
सभी कम्युनिस्ट गुटों ने कलीम के कलकत्ता
कमेटी को मान्यता दे दी और डॉ0 भूपेन्द्र
नाथ दत्त की आत्मशक्ति ग्रुप तथा
उनकी पार्टी बंगाल प्रोलेटैरियन रिवोल्यूशनरी पार्टी उसके साथ मिल गई। सिख कम्युनिस्टों और
उसके समर्थकों का ‘बंगाल किरती दल’ भी हलीम की इस पार्टी का नेतृत्व मानकर
चलने लगा। इस पार्टी के प्रमुख कार्यकत्ताओं व नेताओं में
अब्दुल हलीम, सोमनाथ लाहिडी, रणेनसेन, गेंदा सिंह, अखिल बन्धु बनर्जी, मंगल सिंह, शमसुल हुदा, यंगल सिंह, गोपेन
चक्रवर्ती, धर्मवरी सिंह, सरोज
मुखर्जी, बलवंत सिंह परदेशी आदि।
‘इलाहाबाद हाई कोर्ट में अपील के फैसले के बाद ‘मेरठ
षड़यन्त्र केस’ के अभियुक्तों के छूट कर आ जाने पर दिसम्बर 1933 में
कलकत्ता में हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी का गुप्त सम्मेलन
हुआ। इसमें पार्टी की नयी केन्द्रीय कमेटी चुनी गयी और डॉ0 जी0एम0 (गंगाधर
मोरेश्वर) अधिकारी को महासचिव चुना गया। 19 अन्य लोगों
के अलावा इस गुप्त सम्मेलन में अब्दुल
हलीम भी शामिल हुये। इस पॉच दिवसीय गुप्त सम्मेलन का पहला दिन
केन्द्रीय कोलकत्ता के जकरिया राट्रीट में स्थित अमजदिया होटल और अन्तिम दो दिन का सम्मेलन
हावड़ा के स्थित मछली बाजार में स्थित मस्जिद के एक कमरे
में हुआ।20
पार्टी ने इस कोलकाता सम्मेलन
में व्यवस्थित रूप से अपने राजनीतिक प्रस्ताव पास किये और संगठित हो कर पूरे भारत में काम करना
शुरू किया। ब्रिटिश सरकार ने कई कानूनों का सहारा ले कर
कम्युनिस्ट विचारधारा ओर पार्टी के प्रसार को रोकने की कोशिश की तमाम कवायतों के बाद भारत
सचिव की स्वीकृति से 1908 के दण्ड विधान संशोधन कानून का इस्तेमाल कर 23 जुलाई 1934 को
हिन्दुस्तान की कम्युनिस्ट पार्टी को और उसके
बाद 1934-35 में उससे सम्बन्धित मजदूरों
किसानों तथा नौजवानों के प्रायः 29 जनसंगठनों
को गैर कानूनी घोषित किया।21
मजदूर मोर्चे पर कम्युनिस्ट:
1934 के पहले कम्युनिस्ट पार्टी और
उसके संगठनों की गतिविधियाँ व्यापक रूप से फैल चुकी
थी। 1927 के बसंत में ट्रेड चूनियन
कॉग्रेस का दिल्ली अधिवेशन हुआ। इसी
साल कानपुर में भी अधिवेशन हुआ। बम्बई में पहली बार मई दिवस मजदूरों के त्यौहार के रूप
में मनाया गया। 1928 में मजदूरों में बड़ी हलचल रही और मजदूर संगठन और
आन्दोलन लगातार फैलते गये। ‘बम्बई की
मजदूर सभाओं के 1923 में 48, 669 थे। 1926 तक 3 साल में
उसकी संख्या बढकर 59, 544 तक ही पहुची। लेकिन
1927 में सरकारी आंकड़ो के अनुसार 75, 602 मजदूर
यूनियनों के लेबर बन गए थे। मार्च 1928 में उनकी
संख्या 95, 321 और मार्च 1929 में 200, 325 तक पहुच
गई। इन सबमें बम्बई मिल मजदूरों की प्रसिद्ध गिरणी-कामगार यूनियन
सबसे आगे थी। इस लाल झण्डे की यूनियन ने 324 लेबरों से
शुरूआत की थी। सरकारी लेबर बजट के
अनुसार उसी साल दिसम्बर 1928 तक इसके 54,000मेबर बन गए थे और 1929 की पहली
तिमाही तक लेवरों की संख्या 65,000 तक हो गई
थी। उसी बीच बम्बई की पुरानी सूती
मजदूर यूनियन जहाँ की तहा पड़ी रही। इस यूनियन की 1926 में
बुनियाद पड़ी थी, ट्रेड यूनियन कॉग्रेस के
मन्त्री एन0एम0 जोशी के सुधारवादी नेतृत्व में वह
पल रही थी। उस पर सरकार और मिल मालिक दोनों का ही
वरदहस्त था।‘21
‘जनवरी 1929 में वायस
राय लार्ड इरविन में केन्द्रीय
धारा सभा में भाषण करते हुए कहा कि ‘‘कम्युनिस्ट
सिद्धान्तों के प्रचार से परेशानी पैदा हो रही है।’’ और ऐलान किया कि सरकार इसका उपाय
करेगी। सरकार की वार्षिक रिपोर्ट में कहा गया कि ‘‘कम्युनिस्टों
के प्रचार और प्रभाव से खास तौर से कुछ बड़े-बड़े शहरों के औद्योगिक
वर्गो में अधिकारियों को बड़ी चिंता हो रही है।’’ (हिन्दुस्तान 1928-29)22
ब्रिटिश सरकार की यह चिन्ता
निराधार नहीं थी। एक ओर कम्युनिस्ट मजदूर संगठन से जुड़ने वाले मजदूरों की संख्या बढ़ती गई
दूसरी ओर ये संगठन सरकार और पूंजीपतियों पर दबाव भी बना रहे
थे जिससे मजदूरों को सुविधायें प्राप्त हो रही थी। 1928 में ट्रेड यूनियन आन्दोलन में
कम्युनिस्टों और वामपंथियों की बढ़ी शक्ति का प्रमाण उस
साल की हड़तालों उसमें भाग लेने वाले मजदूरों और नष्ट होने वाले काम के दिनों की संख्या भी
है। उस वर्ष 203 हड़ताले हुई थी जिनमें 5,06,851 मजदूरों ने
हिस्सा लिया था और 3,16,47,404 कार्य दिन नष्ट हुए थे।23 कम्युनिस्ट
विचारधारा के अन्तर्गत मजदूर आन्दोलन चलाने वाले मुस्लिम समुदाय से आये लोगों में अब्दुल
मोमीन, अब्दुल हलीम अब्दुल रज्जाक
खान (जुलाई 1929 की प्रथम आम हड़ताल के प्रमुख
नेताओं में शामिल) मुजफ्फर अहमद, मोहम्मद दाउद, शम्सुद्दीन
अहमद आदि प्रमुख लोग शामिल थे। मुजफ्फर अहमद और मोहम्मद दाउद एटक
के आठ वें कानपुर सम्मेलन 1927 में
नेतृत्वकर्ताओं में शामिल थे। 1928 झरिया
सम्मेलन में अन्य महत्वपूर्ण कार्यो के अलावा मुजफ्फर अहमद को एटक के उपाध्यक्ष के रूप में
चुना गया।
जैसे जैसे कम्युनिस्टों का संगठन
और प्रभाव बढ़ता गया वे श्रम के तथा श्रमिकों से जुड़े प्रत्येक मुद्दें पर हस्तक्षेप करने
लगे। उनकी गतिविधियॉ राष्ट्र व्यापी थी। लाहौर से लेकर
कोलकाता ओर कानपुर से मद्रास तक यह फैली हुई थी। प्रायः सभी औद्योगिक शहर और सरकारी विभाग
कम्युनिस्टों के प्रभाव में थे। ऐसे क्षेत्र जिसमें
अधिकांश श्रमिक मुस्लिम समुदाय से आते थे, कम्युनिस्टों
का गढ़ माने जाते थे। जैसे महुआरों की
यूनियन के आवाहन पर बंगाल जूट वरकर्स एसोसिएशन ईस्ट
इंण्डिया रेलवे लेबर यूनियन और अनेक दूसरे मजदूर संगठनों के 30,000 मजदूरों ने
मुजफ्फर अहमद और अन्य कम्युनिस्ट नेताओं के नेतृत्व में 1928 में
कॉग्रेस के कोलकाता सम्मेलन में सम्मेलन स्थल की ओर कूच किया और दुनिया के मजदूरों एक हो। ’स्वतंत्र
भारत गणराज्य अमर रहे’ ‘हमारे पास जंजीरों के अलावा खोने को कुछ नही है।’ जैसे
क्रान्तिकारी नारे लगाये।24
कम्युनिस्टों के प्रसार और प्रभाव
को रोकने के लिये ही मेरठ कम्युनिस्ट कांसप्रेसी केस 1929 रचा और गढ़ा गया जिसके कुल 31 अभियुक्तों
में महान कम्युनिस्ट नेता मुजफ्फर अहमद और शमशुल
हुदा शामिल थे जो उस समय क्रमशः ए0 आई0 टी0 यू0 सी0 के
उपाध्यक्ष बंगाल वरकर्स एण्ड पीजेंट्स
पार्टी के सचिव तथा हुदा बंगाल ट्रांसपोर्ट वर्कर्स
यूनियन के सचिव थे। इस मुकदमे के प्रभाव का वर्णन पूर्व में किया जा चुका है।
कम्युनिस्ट बनाम अन्य
मुसलमानों के
कम्युनिस्ट विचारधारा और पार्टी के साथ सम्बन्धों को समझने का एक महत्वपूर्ण अवयव कॉग्रेस और
मुस्लिम लीग जैसी प्रमुख पार्टियों के साथ मुसलमानों
के सम्बन्ध की व्याख्या से निकलता है। कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना हेाने तक यह दोनों
पार्टियॉ पूरी तरह स्थापित हो चुकी थी और न केवल ब्रिटिश
सरकार द्वारा बल्कि जनता का एक वर्ग भी उनका समर्थक था। कॉग्रेस मुस्लिम लीग और कम्युनिस्ट
पार्टी का मुस्लिम समुदाय में आधार अलग-अलग था। विशेषकर
यदि आर्थिक स्थिति के दृष्टिकोण से देखे तो कॉग्रेस और मुस्लिम लीग का समर्थक मुसलमानों का उच्च
वेतनभोगी, जमींदार और बड़े किसानों के
बीच से आता था जबकि कम्युनिस्ट
पार्टी अपना जनाधार गरीब और मेहनतकश मुस्लिम जनता के बीच से
प्राप्त करती थी। मुसलमानों के बीच उच्च शिक्षित मध्यमवर्ग का उदय विलम्ब से हुआ। जिसके
अपने ऐतिहासिक कारण थे। मुस्लिम नवजागरण के बाद बाद
अस्तित्व में आये मध्यमवर्ग ने अपनी राजनीतिक पहचान बनाने के लिये मुस्लिम लीग का गठन किया। यह
ब्रिटिश सरकार द्वारा उपलब्ध कराये गये ढॅाचे के अधीन
कार्य करने का आदी था। यही स्थिति कॉग्रेस की थी इसलिये दोनों ही पार्टियॉ संवैधानिक
प्रावधानों के अधीन मांग करने के दौरान सीमित जनाधार और शहर
केन्द्रित पार्टियॉ रही। जिस सीमा तक इन दोनों पार्टियों ने सरकार के कानूनों और नीतियों को तोड़ा
उसी अनुपात में इन राजनीतिक पार्टियों का जनाधार
बढ़ा। किन्तु उच्चवर्गीय और पेशेवर नेतृत्व पर निर्भर रहने के कारण दोनों ही पार्टियॉ कभी
सर्वमान्य पार्टी नही बन सकी। इसलिये दोनों पार्टियों
को समय-समय पर साम्प्रदायिकता क्षेत्रवाद और जातीयता का सहारा लेना पड़ा। मुस्लिम लीग को
मुसलमानों का कितना बड़ा समर्थन था यह उसकी राजनीति से
तय हो जाता है। संसदीय पार्टियों का समर्थन वोट की संख्या ओर प्रतिशत के आधार पर
बताया जा सकता है। 1927 मंे लीग के सदस्यों की संख्या 1,330 थी। 1938 में उसका
दावा था कि यह संख्या लाखों तक पहुंच गई है। 1944 में उसके
आंकड़ो के अनुसार सदस्यों की संख्या 20,00,000 थी। 1946 के चुनाव से यह परिवर्तन स्पष्ट हो
गया। केन्द्रीय सभा के चुनाव में 507 मुसलिम सीटों में से लीग ने 447 सीटें
जीती।25
वहीँ मुसलिम कॉग्रेस की ओर कम आकर्षित
हुये। ऐसा कॉग्रेस स्थापना के समय से था। बाद में स्थिति और बदतर हो गई ‘1935-36 से लेकर 1938-39 तक कॉग्रेस
के मेंबरों की संख्या 9 गुनी बढ़ी और 44,00,000 हो गई।
लेकिन इसमें मुसलमानोें का अनुपात बहुत थोड़ा था। जनवरी 1938 में पं0 नेहरू ने
एक बयान में बताया था कि कॉग्रेस के 31 लाख सदस्यों
में मुसलमान सिर्फ 1 लाख या 3.2 फीसदी थे।’26
उपरोक्त दो उदाहरण इस तथ्य को
पुष्ट करने के लिये पर्याप्त है कि किस प्रकार मुसलमान समाज के बहुसंख्य लोगों ने कॉग्रेस
लोगों ने कॉग्रेस और मुस्लिम लीग दोनों के साथ जुड़ने से
परहेज किया। किन्तु जैसे-जैसे मुस्लिम लीग प्रत्यक्ष रूप से साम्प्रदायिक मुद्दों और
मांगो को आगे करती गई तथा कॉग्रेस द्वारा उसकी प्रतिक्रिया
में हिन्दू-हितों की रक्षा का प्रयास किया गया, मुस्लिम
समाज में धुव्रीकरण बढ़ता गया। यहॉ
यह तथ्य ध्यान योग्य है कि तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्यवादी
सरकारों ने इस तरीके के टकराव को पूरा सहयोग और संरक्षण दिया। जबकि
कम्युनिस्टों के मामले में यह स्थिति ठीक उलटी थी। जिस समय कम्युनिस्ट
पार्टी अपने संगठनों के साथ चरम अवस्था पर थी, वह मजदूरों
और किसानों के लिये एक मात्र
राजनीतिक पार्टी बनती जा रही थी। उस पर चौतरफा हमले हुए।
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन ने उसे 1934 में
प्रतिबंधित किया। दूसरी ओर कॉग्रेस
और लीग से जुड़े लोगों ने संयुक्त मोर्चे, साझे
संगठनों में कम्युनिस्टों के विरूद्ध
शत्रुतापूर्ण रवैया लेना शुरू किया। जिससे ब्रिटिश सरकार को
आसानी हुई। वायसराय लॉर्ड इरविन से लेकर गॉधी और सुधारवादी मजदूर नेता बी शिवाराव भी
कम्युनिस्टों के बढ़ते प्रभाव से चिंतित थे। तीसरी गलती स्वयं
कम्युनिस्टों की ओर से हुई जिसमें उन्होने इस दौरान कम्युनिस्ट इण्टरनेशनल से हर मामले में
निर्देशित हेाने की आदत नहीं छोड़ी। एम0एन0 राय के नेतृत्व वाले मजदूर संघो
ने कम्युनिस्टों के विरूद्ध जबरदस्त अभियान चलाया।
कॉग्रेस और गॉधी के जनविरोधी कार्यो की आलोचना करने
से कॉग्रेस के नेत्त्व में
कम्युनिस्टों के विरूद्ध प्रतिक्रिया हुई। ‘यह समय था जब एक तरफ गॉधी इरविन
समझौते पर हस्ताक्षर हुए थे और नागरिक अवज्ञा आन्दोलन
वापस ले लिया गया था। दूसरी तरफ कम्युनिस्ट नेतृत्वकारी मेरठ जेल में यातनाए झेल रहे थे और भगत
सिंह और अन्य क्रांतिकारियों को फांसी दे दी गई थी। जब
कम्युनिस्टों ने इस पांखण्डपूर्ण समझौते की आलोचना की और मजदूरों को इस खतरे के विरोध में
जागृत करने का प्रयास किया तो सुभाष चन्द्र बोस और अन्य
राष्ट्रवादी तत्वों ने इसका कड़ा विरोध किया क्योंकि वह नही चाहते थे ए0आई0टी0यू0सी0 का एक
व्यक्ति कॉग्रेस द्वारा पारित नीतियों से अलग कुछ कर सकें।27
मुस्लिम समुदाय पर कम्युनिस्ट
विचारधारा के व्यापक प्रभाव से इंकार नही किया जा सकता। 1920 से 1934 के समय में
जब कम्युनिस्ट ताकतवर रहे, मुसलमानों
की प्रगतिशीलता और आधुनिकता
के प्रति उनकी जागृति तेज रही। सन् 1937 तक केवल 1,330 लोगों की सदस्यता रखने वाली मुस्लिम
लीग 1946 तक देश के विभाजन कराने वाली
शक्ति के रूप में बदल गई इसके लिये कॉग्रेस
की नीतियॉ भी उत्तरदायी रही जो सविनय अवज्ञा
आन्दोलन के बाद से ही लगातार हिन्दूवादी दक्षिणंथ का अनुसरण करती गई। इसके बाद मुसलमानों की
साम्प्रदायिक पहचान भी बननी शुरू हुई जो विभाजन के बाद और
गहरी हो गई।
समकालीन भारतीय राजनीति में
मुसलमानों की साम्प्रादायिक पहचान क्यों बनायी जाती है? उसकी वास्तविकता क्या है? इसके लिये
इतिहास की पड़ताल नये सिरे से जरूरी है। मुस्लिम
समुदाय के लोग भी आरम्भ से ही कम्युनिस्ट विचारों के प्रति समर्पित रहे है। विशेषकर भारत में
कम्युनिस्ट विचारधारा और संगठन के प्रसार का बड़ा दायित्व
इसी समुदाय से आये हुए लोगों ने निभाया। यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है ओर आज के लोगों को इसे
स्वीकार कर वर्तमान राजनीति के मूल्यांकन का तरीका खोजना
चाहिये। जो हमारी समझदारी के लिये आवश्यक भी है ओर इतिहास के प्रति न्यायसंगत भी।
|
(चित्र: मुम्बई में १९४५ में कम्युनिस्ट पार्टी के पोलित ब्यूरो की एक मीटिंग बी टी रणदिवे,जी अधिकारी एवं पी सी जोशी ) |
सन्दर्भ
1. इन सारे व्यक्तियों
का उल्लेख अयोध्या सिंह ने अपनी किताब ‘समाजवाद:
भारतीय जनता का संघर्ष‘ में किया
है। उन्होनें इन व्यक्तियों के कम्युनिस्ट या मार्क्सवादी
होने का कोई दावा नहीं किया है। किन्तु सप्रमाण यह बताने का प्रयास किया है कि ये लोग
यूरोप के कम्युनिस्ट आन्दोलन को जानते समझते थे और मुद्दा
विशेष पर उसके साथ भी खड़े होते थे।
2. सिंह, अयोध्या, समाजवाद:
भारतीय जनता का संघर्ष, अनामिका पब्लिशर्स एण्ड
डिस्ट्रीब्यूटर्स (प्रा0) लि0 2007, नई दिल्ली।
3. History of the Communist movement in India (ed.)
vol. 1, The Formative years, CPI (M) Publications in associative with Left
word,2002,P.25
4. सिंह, अयोध्या, समाजवाद:
भारतीय जनता का संघर्ष, पृष्ठ 60
5. वही, पृष्ठ 62
6. वही, पृष्ठ 62
7. वही, पृष्ठ 62
8. वही, पृष्ठ 63
9. सरकार: सुमित, आधुनिक भारत, राजकमल
प्रकाशन प्रा0 लिमिटेड, नई दिल्ली, 2010, पृष्ठ 268।
10. सिंह, अयोध्या, भारत का
मुक्तिसंग्राम, मैकमिलन इण्डिया लिमिटेड
दिल्ली, द्वितीय संस्करण, 1987, पृष्ठ 509।
11. वही, पृष्ठ 511
12. डॉ0 सत्या एम0 रायः भारत
में उपनिवेशवाद और राष्ट्रवाद, हिन्दी
माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली वि0वि0, तृतीय
संस्करण, 1990, नई दिल्ली, पृष्ठ 384-85
13. सिंह, अयोध्याः भारत का
मुक्ति संग्राम, वही, वृष्ठ 522
14. डॉ0 सत्या एम0 राय, वही, पृष्ठ 381
15. सरकार, सुमित, वही, पृष्ठ 270
16. सिंहः अयोध्या, वही पृष्ठ 529-30
17. डॉ0 सत्या एम0 राय, वही, पृष्ठ 381
18. वही, पृष्ठ 382
19. सिंह, अयोध्या, समाजवादः
भारतीय जनता का संघर्ष, वही, पृष्ठ
20. History of the Communist movement in India.
21. दत्त, रजनी पाम, आज का भारत
(अनु0 रामविलास शर्मा) ग्रंथशिल्पी
प्रकाशन (इण्डिया) प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, 2000, पृष्ठ 372-73
22. दत्त, रजनी पामः वही, पृष्ठ 374
23. सिंह, अयोध्या, समाजवाद
भारतीय जनता का संघर्ष, वही पृष्ठ 135
24. सेन, सुकोमल, भारत का
मजदूर वर्ग, ग्रंथ शिल्पी (इण्डिया)
प्राइवेट लिमिटेड, नई दिल्ली, प्रथम
हिन्दी संस्करण 2012, पृष्ठ 260-61
25. दत्त, रजनीपाम, वही, पृष्ठ 414
26. दत्त, रजनी पाम, वही, पृष्ठ 414
27. सेन, सुकोमल, वही, पृष्ठ 279-80
|
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