रमेशचन्द्र शाह से शिवदयाल की बातचीत

 

रमेश चंद्र शाह 





रमेशचन्द्र शाह हिन्दी साहित्य के हरफनमौला रचनाकार हैं। साहित्य की लगभग सभी प्रमुख विधाओं में इन्होंने अपना लेखन कार्य किया। इनकी रचनाओं के मूल में दर्शन है। वह दर्शन जो हर रचना की आत्मा होती है। अलग बात है कि आज रचनाओं से दर्शन प्रायः नदारद ही दिखता है। रमेश जी का मानना है कि सामान्य व्यक्ति में भी दार्शनिक संस्कार होता है। वही दर्शन उनमें भी है। शिवदयाल जी उचित ही लिखते हैं कि 'वे भारतविद् हैं - सही अर्थों में, और भारतीय आधुनिकता के व्याख्याकार! अंततः वे एक रचनाकार हैं - सिरजनहार - नख से शिख तक तपःशील सर्जक! उन्होंने हिन्दी के सृजनात्मक एवं विचार-साहित्य को अपने असाधारण प्रतिभापूरित मौलिक लेखन से समृद्ध किया है। उनके बहुमुखी लेखन में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता, बहुलता और बहुमुखता मुखर होती है। युग-सत्य को पकड़ने का ऐसा बहुविध, बहुपथगामी, प्राणपण से किया गया सृजनात्मक उद्यम पिछले चार-पाँच दशकों में तो नहीं दिखाई देता।' समकालीन भारतीय साहित्य के लिए शिवदयाल जी ने रमेश जी से  2019 में एक लम्बा साक्षात्कार लिया था। आज भी यह साक्षात्कार कई मामलों में प्रासंगिक है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रमेशचन्द्र शाह से शिवदयाल की बातचीत।


रमेशचन्द्र शाह से शिवदयाल की बातचीत



स्वाधीन चेतना एक खुद बुलाई गई यंत्रणा है



रमेशचंद्र शाह एक ही साथ साहित्यकार, विद्वान, विचारक और सभ्यता-संस्कृति समीक्षक हैं। कुमाऊँनी उनकी मातृभाषा है, वे हिन्दी के लेखक, अंग्रेजी के प्रोफेसर और संस्कृत साहित्य के अध्येता हैं। वे भारतविद् हैं - सही अर्थों में, और भारतीय आधुनिकता के व्याख्याकार! अंततः वे एक रचनाकार हैं - सिरजनहार - नख से शिख तक तपःशील सर्जक! उन्होंने हिन्दी के सृजनात्मक एवं विचार-साहित्य को अपने असाधारण प्रतिभापूरित मौलिक लेखन से समृद्ध किया है। उनके बहुमुखी लेखन में भारत की सामाजिक-सांस्कृतिक विविधता, बहुलता और बहुमुखता मुखर होती है। युग-सत्य को पकड़ने का ऐसा बहुविध, बहुपथगामी, प्राणपण से किया गया सृजनात्मक उद्यम पिछले चार-पाँच दशकों में तो नहीं दिखाई देता। ऐसी अर्थसमृद्ध विपुलता और वैविध्य तो समूचे भारतीय साहित्य में विरल है। उनकी सत्तर से अधिक पुस्तकें हैं, जबकि वे यही मानते रहे कि अपना लेखकीय जीवन उन्होंने विलम्बित लय में ही चलाया। वे उम्र के बयासीवें साल में प्रवेश कर रहे हैं।

रमेशचंद्र शाह के सृजन-चिंतन में भारतीय मनीषा की विश्वसनीय अभिव्यक्ति है जो पश्चिमी जीवन-दर्शन और मूल्यों के विकल्प-संधान में प्रयुक्त होती दिखती है। हाल ही में उनसे देशकाल और साहित्य से जुड़े कई मुद्दों पर खुल कर बातचीत हुई जो अविकल रूप में यथावत प्रस्तुत है।


शिवदयाल : आपको ऐसा नहीं लगता कि आज भारत को मानो दो दिशाओं, उल्टी व विपरीत दिशाओं में खींचा जा रहा है? एक ओर लोकतंत्र को, लोकतांत्रिकता को, और गहन एवं व्यापक बनाते हुए तेज आर्थिक वृद्धि का दबाव; तो दूसरी ओर अतीत, सुदूर अतीत का गौरवगान, महिमामंडन, उसे वर्तमान पर आरोपित करने का आग्रह। ऐसे में एक रचनाकार के रूप में इस परिघटना को आप कैसे देखते हैं?

रमेशचंद्र शाह : कोई भी आत्सम्मान वाला नागरिक अपने स्वरूप से विच्छिन्न परोपजीवी आधुनिकता का ग्रास नहीं बनना चाहेगा। एकदम तात्कालिक दृश्य तो इस सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और घटनाचक्र का, निश्चय ही हमें विचलित, विक्षुब्ध करने वाला है, पर हमें स्वाधीनतापूर्व और स्वातंत्रयोत्तर भारत के थोड़े लंबे संदर्भ में इस परिघटना को देखने-समझने की चुनौती कबूल करनी है और जैसे कि अपने ढंग से हाल ही में ज्ञानपीठ से पुरस्कृत भालचंद्र नेमाड़े ने ‘‘हिंदू धर्म और समृद्ध संस्कृति का कबाड़’’ नामक अपने ग्रंथ में की है। चूँकि हम साहित्यकार के अंतःकरण की साखी को प्रमाण मान कर चलने को अंतर्विवश होंगे - इसलिये हमें इस अवधि (19वीं सदी उत्तरार्ध से लगा कर 21वीं सदी के इस दशक तक के, संस्कृति बनाम परिस्थिति के द्वंद्व)  के साहित्यिक साक्ष्य का पुनरावलोकन-पुनर्मूल्यांकन जैसा कुछ करना ही होगा और उसकी पृष्ठभूमि तथा अग्रभूमि में ठेठ आज की परिस्थिति में लेखकों के बौद्धिक-भाविक आचरण को परखते हुए उनकी प्रतिक्रिया की पर्याप्तता/अपर्याप्तता, प्रासंगिकता/अप्रासंगिकता को भी यथावत जाँचना होगा। क्या हिंदी के तथाकथित जनवादी प्रगतिवादी लेखक या राष्ट्रवादी लेखक ऐसा कर पा रहे हैं? नहीं तो, तब फिर किसके सिर पर ठीकरा फोड़ें।


उन्नीसवीं सदी के पुनर्जागरण को बीसवीं सदी के सर्वाधिक प्रबुद्ध - संवेदनशील लेखकों ने ‘‘अधूरा पुनर्जागरण’’ कहा तो क्यों कहा? अगर यह तथ्य है, जो कि वह है ही, तोे उस अधूरेपन को पूरा करना क्या हमारे-आपके जैसे ठेठ आज की तारीख में अपनी सामाजिक भूमिका निभा रहे लेखकों का सहज और दुर्निवार्य कर्म नहीं है? या नहीं होना चाहिए? क्या हम अपने ‘‘लोगों’’ की यानी अपने असली समाज की सामर्थ्य और कमजोरी दोनों को यथातथ्य जानते-समझते हैं? या कि सिर्फ उसकी ऊपरी सतह को? अभी हाल में दिवंगत रवींद्र गुरु जी जैसे ‘‘इनसाइडर’’ थे अपने परंपरागत स्वावलंबी समाज के, वैसे तो हम हिन्दी लेखकों में शायद ही कोई हो। तब फिर हम किस समाज के प्रतिनिधि हैं?





शिवदयाल : ‘‘भूलने के विरुद्ध’’ ‘‘स्मृतिलब्धता’’ तथा ‘‘डिकोलोनाईजेशन ऑफ इंडियन माइंड’’ क्या एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? डिकोलोनाईजेशन क्या सचमुच संभव है? या यह एक प्रकार की आदर्श कल्पना या बुद्धि विलास है?

रमेशचंद्र शाह : जी हाँ, संभव है। ‘डिकोलोनाइजेशन’ मात्र बुद्धि-विलास नहीं, बुद्धिमता की और वास्तविक ‘‘स्वराज’’ की पहली शर्त है। ‘‘हिंद स्वराज’’ का एजेंडा और क्या था?





शिवदयाल : आपको कभी अनुभव होता है कि आपकी बहुमुखी रचनाधर्मिता आपके लेखन की समग्र आलोचना में बाधा बनती है? आप दो-एक विधाओं में सक्रिय रहते तो इससे आलोचना के लिए सुगमता होती?

रमेशचंद्र शाह : हो सकता है। परंतु ‘‘हरफनमौला’’ बनने का तो ख्याल तक मेरे पास कभी नहीं फटका। यह मेरा स्वभाव, या कह लीजिए मेरी अंतर्विवशता है, गलफाँस है। गहरी जरूरत है मेरी बुद्धि की, संवेदना की। आलोचकों का काम आसान करने के लिये भी भला कोई लेखन में प्रवृत्त होता है, क्या? मैंने चूँकि आलोचना-कर्म को भी सृजन-कर्म के ही धरातल पर सहज अनिवार्य कर्तव्य की तरह स्वयं निबाहा है, इसलिए मेरी यह अपेक्षा नाजायज नहीं हो सकती, कि मुझे - मेरे लेखन-कर्म को जैसा भी वह संभव हुआ - उसी गंभीरता से देखा-परखा जाए। ‘‘सुगमता होती’’, - यह आपका सोचना यूँ गलत नहीं है, पर भला मैं इसमें क्या कर सकता हूँ? मैं जो हूँ सो हूँ। और क्यों वैसा हूँ, यह भी क्या मेरे आलोचक की जिज्ञासा या चिंता का विषय नहीं होना चाहिए क्या। मसलन, हमारी पीढ़ी के अग्रज अज्ञेय का लेखन कितना विपुल-वैविध्यपूर्ण है! मुझे किसने कहा - मुझे उनका सब कुछ देखना-परखना चाहिए? पत्रकारिता तक नहीं छोड़ी अज्ञेय की मैंने - जो उस तरह मेरा क्षेत्र नहीं था। पूरी किताब लिख डाली इस पर। क्यूँ किया मैंने ऐसा? अनिवार्य कर्त्तव्य लगा होगा, तभी न किया?

भाई, मेरे यत्किंचित किये-धरे की अनदेखी का कारण यह मेरा बहुविधात्मक होना नहीं है। तब फिर क्या है, यह मैं खुद कहूँ तो किसी को - खुद मुझ को भी अच्छा नहीं लगेगा। पर वह कोई रहस्य भी नहीं है? मेरी बात छोड़िए - क्या यह तथ्य ही नहीं कि जो भी स्वातंत्र्योत्तर युग के समर्थतम लेखक हुए उनके किये-धरे पर पानी फिर जाने - या फेर देने जैसी घटना भी पिछले तीस-चालीस वर्षों के दौरान लक्ष्य की जा सकती है? क्या इसका खामियाजा खुद नई पीढ़ी नहीं भुगत रही है? हमें जिस तरह - हाँ, मुझ सरीखे विपन्न-साधनहीन युवा लेखकों को भी जिस तरह बड़े-से-बडे़ हिन्दी लेखकों का सहज सान्निध्य अनायास मिल जाता रहा, वैसा क्या आज के युवतर लेखकों को लभ्य है? कैसे होगा? बीच की एक पूरी पीढ़ी अपनी गुटबंद साहित्यिक राजनीति में गर्क रही। हमें तो कायदे की राजनीतिक समझ तक के लाले पड़े रहे हैं। हम सिर्फ साहित्यिक राजनीति करते रहे। सही मानों में अपने उपयुक्त राजनीति की खोज कदापि नहीं। नतीजा आँख के सामने है। एक भी पत्रिका ऐसी नहीं जिसमें लिखने-छपने की जरूरत या सार्थकता महसूस हो। सर्वाधिक चर्चित लेखक ही सर्वाधिक तंगदिल, तंगदिमाग, गैर-जिम्मेदार, कपटी और असहिष्णु आचरण में लिप्त रहे हैं। विंडबना यह कि वही सर्वाधिक मुखर और सामाजिक अंतरात्मा होने का दावा पेश करने में और पर उपदेश कुशल पुण्यात्मापन में भी माहिर हैं।





शिवदयाल : हाल ही में आपने उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला की टैगोर व्याख्यानमाला के अंतर्गत प्रस्तुत अपने व्याख्यान ‘पावनता का पुनर्वास’ में कवि-कर्म की महत्ता को अलग ही ढंग से रेखांकित किया है। कहना चाहिए कि वर्तमान युग के संत्रास से मानवता को बाहर निकालने में आपने उसकी केन्द्रीय भूमिका चिह्नित या निर्धारित कर दी है। आपको लगता है कि क्या सचमुच स्वयं कवि अपने काम को इतनी गंभीरता से लेता है?

रमेशचंद्र शाह : नहीं लेता भाई, आप खुद इस विडंबना को लक्षित करते रहे हैं। मुझसे काहे पूछ रहे हैं? सवाल है - जो खुद अपने काम को पूरी गंभीरता से नहीं ले पाता, वह दूसरों से ऐसी प्रत्याशा किस आधार पर करता है। मैं तो कहता रहा हूं कबसे, कि इस भारत देश की सभ्यता-संस्कृति - यहां तक कि धर्म तक कवियों द्वारा उपजाये गए हैं।





शिवदयाल : आपने बुद्धिजीवियों पर बहुत कुछ कहा है। पश्चिम, उसके प्रतिमानों, जीवन मूल्यों का अंधानुकरण ही नहीं, उनकी दृष्टि से अपने जीवन दर्शन और मूल्यों-परम्पराओं के आकलन के प्रति श्रद्धाभाव को ‘वैचारिक स्वराज’ की उपलब्धि में सबसे बड़ा अवरोध माना है। लेकिन आप बौद्धिकों से जिस आचरण की अपेक्षा करते हैं, वह एक प्रकार से तपश्चर्चा और योगाभ्यास ही नहीं है? आत्म साक्षात्कार, भोक्ताभाव को छोड़ साक्षीभाव का क्षेत्रफल बढ़ाते जाना, अपने वास्तविक स्वरूप की उपलब्धि के लिए सतत् सचेतन व सचेष्ट रहना ...., बिना धर्मबोध के काव्य-कर्म या साहित्य रचना सचमुच प्रयोजनीय नहीं है?

रमेशचंद्र शाह : ‘धर्मबोध’ की जैसी युक्तियुक्त और गंभीर अवधारणा आप कर रहे हैं, एक भारतीय लेखक के लिये साहित्य रचना में भी वह सर्वथा प्रासंगिक होनी चाहिए - ऐसा मेरा खुद का अनुभव मुझे जतलाता है। योगाभ्यास सीधे उस तरह न भी हो, किंतु साक्षीभाव में प्रतिष्ठित होना, तो सिर्फ योगियों-संतों के अंतर्जीवन की माँग नहीं हो सकती; वह तो अर्थान्वेषी-सत्यान्वेषी मनुष्य मात्र होने की भी उतनी ही बुनियादी और जरूरी प्रतिज्ञा है। मेरी समझ से और, स्वयं रचना के पीछे भी साक्षीभाव की भूमिका और जरूरत उतनी ही प्रत्यक्ष-संवेद्य और महत्वपूर्ण होनी चाहिए जितनी कि साक्षात् जीवन-भोग, और आत्मसंघर्ष की। जाहिर है कि निरे योगी या धर्मजीवी की तुलना में एक रचनाकर्मी का काम ज्यादा मुश्किल, ज्यादा चुनौतीपूर्ण है। उसे दोनों लोक इकट्ठे साधने होते हैं। राग-द्वेष से भरे प्रत्यक्ष अनुभव और जीवन भोग भी, और राग-द्वेष-विमुक्त चेतना का ‘एडवेंचर’ भी। दोनों एक साथ। इस मानी में उसका कर्म कदाचित योगी के कर्म से कठिनतर भी है। जनता के लिए ज्यादा सीधे उपकारक और असरदार भी।

अब, जैसे टाॅल्सटाॅय भारत में नहीं रूस में ही हो सकते थे, उसी तरह, जिस तरह, मैं कल्पना नहीं कर सकता कि तुलसी-कबीर-ज्ञानेश्वर - यहां तक कि आधुनिक युग में श्री अरविन्द जैसी प्रतिभा भारत के अलावा किसी दूसरे देश - रूस में या इंग्लैंड में हो सकती थी। अब, जहाँ तक आपके इससे जुड़े सवाल स्वधर्म - की - यानी लेखक के अपने स्वधर्म और स्वकर्म की पृथकता और स्वतंत्र उपयोगिता के प्रश्न का सम्बन्ध है, बड़ा मुश्किल लगता है, उसका सीधा-सुलझा हुआ निर्णायक उत्तर दे पाना। मैं खुद इस अंतर्द्वंद्व को नहीं सुलझा सका अभी तक।

श्री अरविन्द का जीवन-दर्शन और कृतित्व पहले मुझमें आकर्षण की बजाए विकर्षण ही उपजाता था। बरसों तक यही हालत बनी रही। जिस कारण से मार्क्स दर्शन मुझे अधूरा - विकलांग लगता रहा - बल्कि जीवन-दर्शन की कसौटी पर भी बिल्कुल खरा नहीं उतरता लगता रहा - उसी तरह श्री अरविन्द के लेखन से खूब परिचय होने के बावजूद मैं उनके अतिमानव के अवतरण वाले क्रांति-दर्शन को भी मार्क्स की तरह एक ‘यूटोपिया’ ही मानता रहा - जबकि मार्क्स के विपरीत श्री अरविन्द का लेखन मुझे साधना और उसकी मूल्यवत्ता की कसौटी पर कहीं अधिक प्रत्यक्ष-प्रामाणिक और सजीव भी लगता रहा। पर आखिर वे योगी के साथ-साथ कवि भी तो थे - और अपने महाकाव्य ‘सावित्री’ पर आखिरी दम तक काम करते रहे। मुझे लगता है, सार्वजनिक शास्त्रार्थ जैसा कुछ होना चाहिए उन पर - बुद्धिजीवियों के बीच। वे केवल योगियों के नहीं, हम सभी के काम के हैं। जो विचार और सृजन की गतिविधियों के भी सच्चे ‘इनसाइडर’ हों - और मनुष्य-जीवन के अर्थ को, महत्व को, समस्याओं को भी साक्षात्कारपूर्वक समझ सकने-समझा सकने में सक्षम हों। अब मुझ जैसों की मुश्किल देखिए। जो गाँधी और श्री अरविन्द के बीच सीधा एकनिष्ठ चुनाव नहीं कर सकते। एक को अपनाने के लिए दूसरे को बाहर कर देने को अनिवार्य नहीं मानते। श्री अरविन्द का ‘फाउंडेशन ऑफ इंडियन कल्चर’ और गाँधी का ‘हिन्द स्वराज’ दोनों समान महत्त्व के अधिकारी हैं, जिन्हें भारतीय स्वातंत्र्य संग्राम के ‘बीज ग्रंथ’ कह सकते हैं। मेरे औपन्यासिक कृतित्व में भी - मेरी यह उलझन और अतःसंघर्ष जरूर कहीं न कहीं प्रगट हुआ होगा। नैबन्धिक रचनाओं में भी, कविता में भी। यूं मेरी कविताओं में तो अरविन्द-दर्शन की गंध भी शायद ही मिले। इसका क्या मतलब हुआ? जो मात्र अनुयायी हैं उस दर्शन के, उनकी कविता मुझे कविता की तरह प्रभावित भी नहीं करती।

मेरे भाई, साधना और रचना के आपसी सम्बन्ध की गुत्थियों को सुलझा पाना दुष्कर है। परंतु ऐसी घटना का घटना, अकारण कैसे हो सकता है? अरविन्द और गाँधी का इकट्ठा एक ही कालखंड में प्रकट होना, सक्रिय होना। क्या दुनिया में कहीं और भी ऐसी घटना घटी? परिस्थिति और संस्कृति के बीच ऐसे विपरीतों के बीच सामंजस्य बैठाने की चुनौती?





शिवदयाल : आपके अब तक के लेखन में ऐसा कुछ है जो अब भी घट रहा है? कुछ छूट रहा है? वह क्या है?

रमेशचंद्र शाह : आपके इस प्रश्न का उत्तर पिछले प्रश्न के उत्तर में निहित हो गया है। मैंने इतना लिखा और जीने-मरने के सवाल जितनी उत्कट अभीप्सा और जिजीविषा की प्रेरणा से लिखा। पर उन्मोचन और समाधान हासिल हो गया हो - ऐसा अभी तक मुझे नहीं लगता। क्या यह मेरी विफलता का द्योतक माना जाएगा? नहीं। विफलता तो नहीं, पर अधूरापन कह लीजिए। पर उस अर्थ में कौन लेखक पूरा कृतार्थ कहला सकता है? यह भी तो सवाल उठेगा। नहीं? मेरे भीतर भारत जितना है, स्वभावतः पश्चिम की प्रश्नाकुलता, पश्चिम की बौद्धिक व्याकुलता, और उपलब्धियाँ क्या उससे कम होंगी? नहीं। मुझे बनाने, यानी लेखक बनाने वाले कारकों में से क्या यह हमारा - हम भारतीयों का पश्चिमी जीवन और दर्शन और साहित्य से बराबरी की टकराहट का सम्बन्ध भी क्या एक प्रमुख कारक नहीं है? मसलन, क्या वह अज्ञेय में नहीं था? स्वयं ‘स्वराज इन आइडियाज’ के दार्शनिक बुद्धिजीवी - के. सी. भट्टाचार्य में नहीं था? सोचिए, सोचिए तनिक ....! विद्वद्वर गोविन्द चंद्र पांडे के तीन महत्वपूर्ण व्याख्यानों की पुस्तक ‘समसामयिक भारतीय संस्कृति’ भी इस सिलसिले में देख जाइए जिसकी तो भूमिका मैंने लिखी है। उससे शायद आपका कुछ समाधान हो सके। 





शिवदयाल : आपने दसवीं कक्षा में जब पहली रचना ‘देवदारू’ लिखी, तब देश सदियों की पराधीनता के पश्चात स्वाधीन हुआ था, चारों ओर उमंग-उत्साह का वातावरण था। तबसे सात दशक बीत चुके हैं। आपके देश और आपके रचनाकार ने एक लम्बा सफर तय किया है। आप पाँच दर्जन से भी अधिक पुस्तकों के रचयिता हैं, जबकि भारत आज दुनिया के गिने-चुने देशों में शामिल है। यह उपलब्धि, यह हासिल उल्लसित नहीं करता? या कोई कसक अभी है जो त्रास देती है?

रमेशचंद्र शाह : हाँ, इस पूरे दौर में सबसे त्रासद तो इस बीच स्वयं बुद्धिजीवी कहलाने वाले वर्ग का आत्महीन, आत्मद्रोही आचरण है; गिरोहबद्ध तरीके से अग्रज पीढ़ी के उन्हीं सच्चे बौद्धिकों और सृजनधर्मियों की अवहेलना, जो न केवल स्वतंत्रता-संग्रामी रहे, बल्कि जिनके जीवन-दर्शन और सृजनात्मक कृतित्व का केन्द्रीय मूल्य ही ‘स्वतंत्रता’ है - इस शब्द के सच्चे अर्थ में। पिछले तीस-चालीस बरसों से चले आ रहे इस दुश्चक्र के दुष्परिणाम अब हमारे सामने हैं। परोपजीवी पुण्यात्मापन ..... और बौद्धिक छल-कपट के इस संक्रामक रोग ने नयी, युवतर पीढ़ी की रचनात्मक संभावनाओं, उपलब्धियों को पथभ्रष्ट और क्षतिग्रस्त किया है। कहीं ऐसा तो नहीं कि हम भी अपने अग्रजों की तरह युवतर पीढ़ी की संभावनाओं को ठीक-ठीक पहचानने-उकसाने की जिम्मेदारी उतनी नहीं निभा पा रहे?




शिवदयाल : नेहरू ने अपने जमाने में लेखकों-रचनाओं को प्रभावित किया था, उनके रहते ही और उनके बाद जयप्रकाश नारायण और लोहिया के प्रभाव में भी लेखक रहे। क्या यह प्रभाव एकतरफा था? और क्या दो धड़े लेखकों के, इन नेताओं के प्रभामंडल में थे अलग-अलग विचार सरणियों के? आप किस दौर में लोहिया जी के सम्पर्क में आए? आपको उनमें क्या दिखा - एक रचनाकार के तौर पर?

रमेशचंद्र शाह : नेहरू को पढ़ा, एनजाॅय भी किया, पर जिसे एक मौलिक विचारोत्तेजक और देशी दिमाग कह सकें, वह उनमें मुझे नहीं दिखा। लोहिया में विचार शक्ति थी। तभी हिन्दी की कई बड़ी प्रतिभाएँ उनके प्रति आकर्षित हुईं, जैसे कि मेरे गुरुमित्र विजयदेव नारायण साही जी। इलाहाबाद से मेरा रिश्ता रहा। लोहिया से वहीं काॅफी हाऊस में भेंट हुई, साही जी के साथ। कमलेश भी उनके निकट थे। लोहिया की हिन्दी कितनी जोरदार थी!वे सच्चे इंटेलेक्चुअल और जन-चरित्री एक साथ थे, जैसा कि नेतााओं में और कोई नहीं हुआ।





शिवदयाल : आपके युवाकाल में प्रगतिशील आंदोलन का जोर था। आपको मानो उसने प्रभावित नहीं किया, और आपने खुद को दूसरी धारा से जोड़ लिया, ऐसा क्यों? आप जैनेन्द्र, अज्ञेय, विजयदेव नारायण साही और बाद में निर्मल वर्मा के संसर्ग में अधिक रहे? अज्ञेय के ‘आलोचक राष्ट्र’ की अवधारणा और अपील से आप किस हद तक प्रभावित रहे? हाँ, कवि शाह ने अज्ञेय पर कितना असर डाला था?

रमेशचंद्र शाह : आपने जिनका उल्लेख किया, वे मात्र बुद्धिजीवी ही नहीं, सच्चे अर्थ में आत्माजीवी कृतिकार और स्वाधीन चिंतक थे। अज्ञेय की ‘आलोचक राष्ट्र के निर्माण’ की बात (जो स्वतंत्रता की देहरी पर ही उचारी गई) अत्यंत बुनियादी महत्व की बात थी - जिसे उक्त आत्महीन और आत्मद्रोही प्रपंच-बुद्धियों ने अनदेखा करने और करवाने में ही अपनी कुशल समझी। परिणाम आँख के सामने उजागर है। आप इस भयानक तथ्य के प्रति संवेदनशील रहे हैं स्वयं, कि जो लेखक किसी गुट में बंधने की बजाए अपनी स्वार्जित स्वाधीन बुद्धि से ही इस स्वावलम्बी सत्यनिष्ठा पर सदा कायम रह के अपना सृजन-चिंतन पूरी निष्ठा से निबाहते रहे, पिछले चार-पाँच दशकों के दौरान उन्हीं को नजरंदाज करने का बाकायदा षड्यंत्र जारी रहा है। या फिर कुत्सित अपव्याख्या और दुष्प्रचार।

आपके प्रश्न के दूसरे भाग के उत्तर में यही तथ्य दुहराना पड़ेगा, कि अज्ञेय ने ही मेरी कविताओं को बकायदा पढ़कर सराहते हुए मुझे तुरंत अपना संग्रह तैयार करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित किया था। मेरी जो संस्मरणों की किताब है - ‘आवाहयामि’ - उसमें यह सारा वृत्तांत यथातथ्य समाविष्ट है। वे मेरी कविताओं के ही नहीं, उपन्यास और नाटक ‘मारा जाई खुसरो’ - यहाँ तक कि मेरे शोध कृतित्व के भी प्रथम पारखी और प्रशंसक रहे।





शिवदयाल : रचनाकार शाह की आखिर खोज क्या रही? किस दौर में और क्यों आप श्री अरविन्द की ओर मुड़े? फिर बाद में जड़ाव लाल मेहता, महात्मा मंगतराम और निसर्गदत्त जी महाराज .... क्या यह कहीं न कहीं आत्मान्वेषण की ओर प्रवृत्त होना ही था? आपने मुझे एक बार बताया था कि आपके लिए एक समय अरविन्द वर्जित विषय बताए गए थे, मैंने जब आपको कहा था कि जेपी ने उन्हें कई जगह उद्धृत किया है। वर्जना के कारण ही यह आकर्षण?

रमेशचंद्र शाह : आत्मान्वेषण की प्रवृत्ति तो लगता है, मुझमें जन्मजात ही रही होगी। वह मेरी महत्वाकांक्षा नहीं, सहज अभीप्सा है। जिनके नाम आपने लिए, उनके साथ ही आप अज्ञेय, जैनेन्द्र, साहीजी और मलयज सरीखे रचनाकारों को भी शामिल कर सकते हैं। यह मेरी विडम्बना है कि मैं कभी जल्दी में नहीं रहा - अत्यंत विलम्बित लय में ही अपना रचनाधर्मी जीवन जीता रहा। अब इसी को कोई मेरा दोष मानना चाहे तो मान ले सकता है। वर्जना नहीं, शायद यह मेरी परिस्थिति, परिवेश और स्वभाव की ही अनिवार्य गति रही होगी कि मुझे सच्चे समानधर्मी कृती लोगों का सान्निध्य और सत्संग तो मिला भरपूर; मगर थोड़ा विलम्ब से। इसके लिए मैं कहाँ तक खुद जिम्मेदार ठहरता हूँ? आप ही सोचिए।





शिवदयाल : आप मानेंगे कि आपके चिंतन-लेखन में जो यह ‘डायवर्जन’ या दिशा-परिवर्तन आया, उससे आप तथाकथित मुख्यधारा के लेखन-आलोचना से दूर होते चले गए, या कि दूर कर दिए गए?

रमेशचंद्र शाह : मैं तो अपनी समझ से, जिसे आप मुख्यधारा कहते हैं, उसी में शुरू से अभी तक सक्रिय रहा हूँ। ‘आध्यात्मिक’ अभीप्सा और तज्जनित आत्मसंघर्ष एक मेरे जैसे संस्कृति-साहित्यनिष्ठ व्यक्ति के लिए अनिवार्य था, और है। मैं इस प्रवृत्ति को, आत्मज्ञान की तथा जगतगति-ज्ञान की दोहरी प्यास को साहित्यकार की असली प्रेरणा और अभीप्सा से बेमेल या विरुद्ध या असंगत कैसे मानूँ? मैं कभी लेखक-धर्म से दूर नहीं भटका। मेरा कृतित्व, और जो डायरी वगैरह भी मैंने लिखी है - वह इसी तथ्य का अन्तःप्रमाण होना चाहिए - ऐसा मैं समझता हूँ। कविता - जरूर इधर मुझसे रूठी हुई है, तीनेक वर्षों से, वह एकनिष्ठ समर्पण जो माँगती है। अंतर्द्वन्द्व और आत्मसंघर्ष तो है ही। पर, वह मेरे चुनने-न चुनने की बात नहीं। वह मँहगा मोल मुझ जैसों को चुकाना ही पड़ता है।





शिवदयाल : एक पदावली अभी चलन में है - देशी आधुनिकता। इस पर कुछ कहना चाहेंगे? आज की परिस्थिति में इसकी कुछ प्रासंगिकता बनती है?

रमेशचंद्र शाह : ‘‘देशी आधुनिकता’’ पद निरर्थक तो नहीं है। मेरी सबसे हाल की पुस्तक सस्ता साहित्यमंडल से प्रकाशित - जरा देख जाइए जिसका नाम ही है ‘‘भारतीय आधुनिकता की तलाश’’। उससे शायद आपका कुछ समाधान हो। प्रासंगिकता क्यों नहीं है? - अवश्य है। यही तो मेरी खोज, मेरी अनिवार्य व्याकुल अभीप्सा रही है। मेरा अब तक का लिखा हुआ यदि इसे चरितार्थ नहीं करता तो मेरा कुछ भी अलग से कहना क्या मानी रखता है? मुझे गाँधी और श्री अरविंद दोनों अपनी जीवन यात्रा के दौरान समान रूप से जरूरी और प्रासंगिक लगते रहे। अभी हाल दिवंगत हमारे भारतीय समाज की स्वावलम्बी प्रतिभा के प्रखरतम दृष्ट व्याख्याता रवीन्द्र गुरु जी (आदिलाबाद वाले) एक तरफ, और महान ज्ञान योगी निसर्गदत्त या जे. कृष्णमूर्ति सरीखे आत्मज्ञानी मनीषी - दूसरी तरफ - मुझे समान तीव्रता से अपनी ओर खींचते रहे - तो यह मेरी कैसी अंतरविवशता है? और क्यों है? हमारे देश को ही क्यों ऐसे विपरीत मुखी (ऊपर से) नेताओं का इकट्ठा संयोग मिला? कहाँ श्री अरविन्द और कहाँ महात्मा गाँधी? दोनों कहीं हमारी चेतना की, जीवन की अन्तरतम अनिवार्य लय की अभिव्यक्तियाँ होंगी - इसीलिए न? कहीं-न-कहीं इस दोहरी प्रवृत्ति का रचनात्मक साक्ष्य मेरी कविता और कहानियों-उपन्यासों में भी झलकता ही होगा। कि नहीं? स्वाधीन चेतना भी - कभी-कभी लगता है - एक खुद बुलाई गई यंत्रणा है; पर मनुष्य के जन्मजात वरण-स्वातन्त्र्य और स्वभाव से ही जुड़ी हुई। इस स्वतंत्रता से घबराकर ही ज्यादातर लोग कोई-न-कोई तथाकथित पक्षधरता का आसान रास्ता पकड़ लेते होंगे। उसमें सुरक्षा भी महसूस होती होगी और आसान पुण्यात्मापन भी। नहीं? ‘‘आप अपना दीपक बनो’’ कहना आसान है। पर करना बहुत कठिन। परंतु लेखक का स्वधर्म ही उसे अकेलेपन का वरण करने को प्रेरित करता है। स्वयं को उद्धृत करना शोभा नहीं देता लेखक को। हाँ, यह कामना जरूर रहती है कि हमारा भारतीय समाज नये सिरे से  समूची मानव विरादरी का प्रतिनिधित्व करने लायक बने। वैसा समाज बनाने की भी जिम्मेदारी लेना लेखक का स्वधर्म है जिसे-कैसे कहूँ - मैंने नहीं निभाया - जाने-अनजाने भी?





शिवदयाल : आपके उपन्यासों में एक भारतीय बुद्धिजीवी का जीवन कई-कई कोणों से अभिव्यक्त हुआ है - चाहे वह ‘गोबर गणेश’ हो, ‘विनायक’ हो, या ‘आप कहीं नहीं’ रहते विभूति बाबू, या फिर ‘कथा सनातन’; बल्कि ‘किस्सा गुलाम’ भी क्यों नहीं। इसे इस रूप में नहीं देख सकते कि प्रोफेसर रमेशचंद्र शाह ने अपने को अपने लेखन में खूब मथा है? क्या कहना चाहेंगे?

रमेशचंद्र शाह : ‘अपने’ को ही नहीं, अपने उस परिवेश और लोक को भी जिसमें हमारे अस्तित्व की जड़ें गहरे जमीं हुई हैं। परन्तु चूँकि ‘मैं कौन हूँ, क्या हूँ?’ - यह मनुष्य जीवन की सबसे गहरी और बुनियादी जिज्ञासा या कि चिन्ता है, जिसपर यह सारा जीवन, हमारा सारा वेदन-तंत्र, और सारी मानव-सभ्यता की सार्थकता निर्भर है; अतः जिसे आप ‘आत्म-मंथन’ कहते हैं, वह हमारे सामाजिक अस्तित्व की भी अनिवार्य पृष्ठभूमि और अग्रभूमि बन जाती है। सहज ही! नहीं?

अब, चूँकि यह ‘बुद्धिजीवी’ मानव समाज का सबसे अग्रगामी, संवेदनशील और विचारवान् अभिव्यक्ति-समर्थ सदस्य होता है, इसलिए स्वयं भी उस समुदाय का अंग होने की बदौलत उसके द्वारा दिए गए सृजन और चिंतन का सर्वाधिक महत्व है। ‘‘यद्यदाचरतिश्रेष्ठ: तत्तदेवेतरोजनः’’ - स्वयं गीता कहती है। तो क्या मतलब हुआ इसका? समाज के श्रेष्ठजन जैसा आचरण करते हैं, इतरजन भी उन्हीं का अनुकरण करने को अंतर्विवश होते हैं! यही न? इसी कारण, मेरे जैसा लेखक ऐसे सृजनात्मक पुरुषार्थ के अंतरंग में पैठने को प्रेरित हुआ होगा। वह भी जीवन की सामान्य लय से अंतरंग हो कर। न कि, सिर्फ तथाकथित बुद्धिजीवी तबके से जुड़े होने के कारण। आखिर बुद्धिजीवी भी तो समाज के ही अंग है: सबसे प्रातिनिधिक, नब्ज सरीखे मर्मस्थल - उसकी असलियत, उसके स्वास्थ्य और उसकी रुग्णता का सबसे प्रामाणिक पता देनेवाले। खुद हो कर, खुद जी कर सच को उघाड़ने वाले।





शिवदयाल : हिन्दी के स्वनामधन्य आलोचकों ने आपको इस बात का श्रेय भी नहीं दिया कि आपने ‘किस्सा गुलाम’ (1980) में हिन्दी उपन्यास को पहला दलित नायक - बुद्धिजीवी नायक, दिया। जबकि हिन्दी में अभी दलित विमर्श शुरू भी नहीं हुआ था। बाद में दलित विमर्श से ‘किस्सा गुलाम’ और उसका दलित नायक ही गायब! क्या इसलिए कि यह मानना मुश्किल या कि असंभव था कि रमेशचंद्र शाह दलित नायक गढ़ने के अधिकारी हो सकते हैं - वे तो भारतीय परम्परा के उपासक और उद्धारकर्त्ता हैं, इसलिए वर्णव्यवस्था को मानने वाले भी ठहरे। क्या ऐसा सचमुच है कि आप ज्यों ही भारतीय सभ्यता, परम्परा, हिन्दू आस्था और प्रतीकों पर बात करेंगे तो फौरन दलित-अल्पसंख्यक विरोधी ठहरा दिए जाएँगे? जबकि राजनीति आगे निकल चुकी है - ‘दक्षिणपंथी’ शासक दल में सबसे अधिक पिछड़े व दलित हैं, बल्कि महिलाएँ भी अच्छी संख्या में हैं?, मुसलमान भले नगण्य हों। यह वाजिब डर है या कुंठा? इस चुनौती से कैसे निबटें?

रमेशचंद्र शाह : हाँ, यह भी एक तथ्य है जो आपको उजागर हुआ: मेरे कई नजदीकियों की तुलना में - कहीं स्पष्ट रूप में। सुनिए, मुझ पर पी-एच. डी  कर रही एक महिला ने मुझे बताया - उसका इंटरव्यू ले रहे जेएनयू के बहुचर्चित दलित लेखक प्रोफेसर ने उससे पूछा - ‘रमेशजी ने दलितों का कभी कोई नोटिस तक नहीं लिया अपने लेखन में। क्यों?’’ इस पर उस महिला ने पलटवार करते हुए पूछा - ‘‘क्या सचमुच आपने ‘किस्सा गुलाम’ नहीं पढ़ा? जिसमें पहला दलित नायक हिन्दी उपन्यास का प्रकट हुआ?’’ उन प्रोफेसर-लेखक ने सचमुच ही वह उपन्यास नहीं पढ़ा था। न ही मेरी कहानियाँ! यहाँ तक कि मेरी निबंध रचनाएँ भी! मैं तो चकरा गया उसकी यह बात सुनकर। तो लीजिए, साबित हो गया न अपने-आप कि आपने जो लक्षित किया है इस सवाल में, वह नंगा सच है, वर्तमान हिन्दी की गुटबंद साहित्यिक दुनिया का। जबकि यह उपन्यास उस तरह खासा चर्चित रहा था। पर पिछले चार दशकों में हिन्दी की साहित्यिक और अकादेमिक दुनिया पर एकमुश्त कब्जा किए अकारण द्रोही और गुटबंद पुण्यात्माओं का कोई क्या करे? वे तो स्वयं अपनी अन्तरात्मा के लिए भी अछूत और अवध्य हैं। अपनी जड़ें वे खुद खोद रहे होते हैं। आपने खुद पूछा है कि ‘‘यह वाजिब डर है या कुंठा?’’ शायद दोनों। आपने यह भी पूछा है - ‘‘इस चुनौती से कैसे निबटें?’’ तो आपके इस प्रश्न में ही उत्तर निहित है। चुनौती है - इस बात को जो समझ रहा है, वही इससे निपटने की जरूरत और तरीका भी जान रहा है। यह वस्तुतः मात्र मेरा व्यक्तिगत मामला नहीं। यह स्वयं साहित्य के स्वास्थ्य का प्रश्न है। साहित्य की अपनी दीर्घकालिक प्राणवत्ता और न्यायमत्ता भी चुपचाप अपना काम करती है। इसी कारण वह मानवात्मा की  सबसे विश्वसनीय और सबसे दूरगामी, सर्वाश्लेषी और सर्वातिक्रामी गतिविधि और अभिव्यक्ति है।


साहित्य की इस जन्मजात शक्ति पर भरोसा करने वाला ही अपनी कविता से यह कहलवा सकता है -

‘‘न्याय कभी मेरे साथ

हुआ नहीं, - इसीलिए

न्याय करना सबके साथ

मेरी मजबूरी है।

कितना बड़भागी हूँ मैं!

सपने की धुन से मीठी नहीं कोई धुन

सपने जो जिये जिम्मेदारी की भी जिम्मेदारी की तरह

बगैर किसी मोहलत या मुरव्वत के,

एक अटूट वंचना की वसुधा है मेरा कुटुम्ब

इतना बड़भागी हूँ मैं!

ऋणी उस देवता का

जिसपर मुझे न सही

मुझ पर जिसे विश्वास है

चुनी मेरे लिए जिसने

इतनी लगातार ....... और

इतनी धुनी असफलता! ....’’





शिवदयाल : आप एक सिद्ध आलोचक हैं। दसेक पुस्तकें इसका प्रमाण हैं। ‘छायावाद की प्रासंगिकता’ ने जहां एक पूरी रचनात्मक प्रवृति और एक महत्वपूर्ण दौर को पुनः हिन्दी आलोचना के केन्द्र में ला खड़ा किया, वहीं ‘अज्ञेय : वागर्थ का वैभव’ ने प्रगतिशील आलोचना के निशाने पर रहे आए अज्ञेय का सही स्थान और मान निर्धारित किया। ‘भूलने के विरुद्ध’ और ‘आलोचना का पक्ष’ आपकी दूसरी महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। लेकिन आपने आलोचक के लिए एक कठिन कसौटी बनाकर उनका काम और मुश्किल नहीं बना दिया : ‘बुद्धि की मुक्तावस्था को साधना’ आलोचना की पूर्व शर्त बता दी। आज की आलोचना, आपकी नजर में कुछ मुक्त दिखाई देती है?

रमेशचंद्र शाह : नहीं दिखाई देती (आज की आलोचना के संदर्भ में)! उसकी बंधक अवस्था ही उसकी गतिरुद्धता का कारण है। किसी ने लिखा है कि ‘महान आलोचक बड़े कवियों या बड़े कथाकारों से भी विरल होते हैं।’ वह इस कारण, कि बुद्धि की मुक्तावस्था महान आलोचना की पूर्वशर्त है, और यह कितनी कठिन कसौटी है, इसे जानने वाले ही जान सकते हैं। मनुष्य को बुद्धि दी ही इसलिए गई कि वह अपने सबसे बड़े पुरुषार्थ - ‘मुक्ति’ को साधे। मुक्ति के सर्वोच्च साधन के रूप में अपनी बुद्धि को विकसित होने दे। न कि किसी ‘आडियोलाॅजी’ के वाहक-प्रचारक के रूप में अपनी और बुद्धि की भूमिका को ‘रिड्यूस’ कर दे। साहित्य से अधिक खुला अवकाश मानव-संभावनाओं के चरितार्थन का भला और कहां, क्या होगा? उसी को एक बंधी लीक पर हांकने का दुराग्रह स्वयं साहित्य को और साहित्यकार को आत्म साक्षात्कार या लोकसंग्रह का नहीं, अपितु सीधे आत्महत्या का नुस्खा थमाना है।

भाई, आलोचना दरअसल ऋण शोध है - रचना की तरह। अपने से बड़ी जिजीविषा और मूल्यबोध वाले रचनाकारों, विचारकों से जो मिला, उसका कृतज्ञ स्वीकार। उस ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान के दुर्लभ मेल से संभव हुई उपलब्धि को सबकेे साथ साझा करने की जबर्दस्त प्रेरणा - जो केवल और केवल मात्र साहित्य और साहित्यकार ही हमें सुलभ कर सकता है: और कोई कर्म नहीं। अलावा इसके, आलोचना सिर्फ साहित्य के रसास्वादन को ही समर्पित नहीं होती; वह जीवन और चिंतन के विभिन्न क्षेत्रों के बीच भी सेतु का काम करती है। अंतर-अनुशासनिक चरित्र और कार्यविधि होती है उसकी स्वभावतः। संस्कृति-विमर्श, मेरे अलोचनात्मक कृतित्व का उतना ही जरूरी और गंभीर हिस्सा है, जितना विशुद्ध साहित्यिक कृतित्व का आस्वादन और मूल्यांकन। रसज्ञता भी जीवन में उतनी ही महत्वपूर्ण है जितनी मर्मज्ञता। ज्ञान का व्यसन भी उतना ही उत्कट होता है आलोचक के लिए, जितना सौंदर्य का। सारी विभूतियां जीवन की आपस में जुड़ी होती हैं। और जीवन का गुणाधार है इसे वस्तुतः पहचानना। सृष्टि का रहस्य, मानव जीवन की दुर्लभ समृद्धि उसी में से प्रगट होती है। कवि-कर्म और आलोचना-कर्म दोनों इस विभूतियोग पर अवलम्बित हैं। तभी न महान दार्शनिक काव्य गीता के एक अत्यंत मनोहारी और अर्थोन्मेषक विलक्षण अध्याय का नाम ही ‘विभूति योग’ है, जो हर कवि, हर आलोचक के गहनतम सरोकार का विषय और अनिवार्य अंग है, और होना चाहिए।

दर्शन भी रस है : मात्र बौद्धिक व्यायाम नहीं। हर सच्चा, समर्थ कवि और आलोचक जीवनोपासक होता है, इसलिए जीवन-रहस्य का मर्मोद्घाटक भी। यह रहस्यवाद नहीं, काॅमनसेंस है। सहजानुभूति।




शिवदयाल : रमेशचंद्र शाह अकेले केवल अपनी कविताओं के चलते भी अमर हैं - यह अकेला मेरा विचार नहीं है। आठ संग्रह हैं आपके। अज्ञेय से ले कर मलयज, कुंवर नारायण, कमलेश और प्रयाग शुक्ल, और इधर अनामिका और आनंद कुमार सिंह जैसे युवतर हस्ताक्षरों को भी आपकी कविताओं ने प्रभावित किया है, इन्होंने उनकी परख भी की है। मुझे कहना पड़ेगा - आपकी कविताओं में बुद्धि का जोर नहीं, आत्मा का स्पंदन है, वह अटूट लय है जो अंतर को बाह्य से जोड़ रही है। आप अपने कवि-कर्म से संतुष्ट हैं?

रमेशचंद्र शाह : धन्यवाद! संतुष्ट नहीं हूं, यह तो कैसे कहूं! परन्तु मेरी कविता का घेरा मेरी जीवना- सक्ति-जीवनोपासना की तरह ही विस्तृत और वैविध्यमय होना चाहिए, ऐसा मैं समझता हूं। तथापि आज इस उम्र में भी - आप ही के कथनानुसार आठ-आठ संग्रह छप चुकने के बावजूद जाने क्यों मुझे लगता रहता है - ’’.... है, अभी कुछ और है, जो कहा नहीं गया! ...’’ पर इधर या तो अत्यधिक बौद्धिक श्रम के चलते, या फिर आध्यात्मिक अभीप्सा की कठिन डगर की दुर्निवार्य खींच के कारण कविता की वाग्देवी रूठ-सी गई लगती है मुझसे। मौजूदा परिवेश और माहौल भी कहीं इस सूखे के लिए जिम्मेदार होना चाहिए। नहीं? सहृदय समानशीलों का अभाव भी निरंतर खटकता रहा है। ’आती है शून्य क्षितिज से/क्यों लौट प्रतिध्वनि मेरी?/टकराती बिलखाती-सी/पगली-सी देती फेरी..?’’ राग और विराग दोनों का ऐश्वर्य कुंठित हो जाता है ऐसे माहौल में। नहीं? आप भी तो कवि हैं। क्या आपको अपने साहित्यिक परिवेश से यथेष्ट प्रेरणा या उत्तेजना मिलती है? समानशीलों के साथ का आश्वासन मिलता है?





शिवदयाल : अपने परिवार, पड़ोस और शहर के विषय में कुछ कहेंगे? साहित्यिकों का परिवार, साहित्यिकों का पड़ोस और साहित्यिकों-कलासाधकों का शहर ....?

रमेशचंद्र शाह : अरे भाई, किस शहर की बात करते हैं? भोपाल की, जिसमें रह रहा हूं? या वह अलमोड़ा जहां प्रारम्भिक संस्कार पड़े? भोपाल की ही ना? यों शिकायत करना मुझे नहीं पुसाता। परंतु वस्तुस्थिति यही है कि प्रेरणा मिले - जिनसे - ऐसा सत्संग तो यहां दुर्लभ क्या, अलभ्य ही है। हां, मेरा परिवार अलबत्ता सृजनकर्म से सहज ही संपृक्त है। सहधर्मिणी स्व. ज्योत्स्ना मिलन जानी-मानी कवि-कथाकार थीं। उन्हें लगता था, मुझे एकनिष्ठ कविताव्रती होना चाहिए था क्योंकि उनके कथनानुसार वही मेरी सहज विधा थी। हालांकि स्वयं उनकी ऊर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा घर-गिरस्ती सम्हालने तथा स्वरोजगारी स्त्रियों को समर्पित ‘सेवा’ संस्था और ‘अनुसूया’ पत्रिका के सम्पादन में खर्च होता था। मेरी दोनों बेटियां संवेदनशील कलाकार हैं। बड़ी शम्पा प्रख्यात सिरेमिक आर्टिस्ट होने के अलावा साहित्य की समझ और सुरुचि-संवेदना से सम्पन्न पाठक और आलोचक भी है। छोटी राजुला जानी-मानी फिल्मकार और कवि-कथाकार है। उसके पहले ही कविता संग्रह को युवालेखन का ज्ञानपीठ-पुरस्कार मिला था। ज्ञानपीठ से ही छपा भी था वह संग्रह। हमारे बीच यथेष्ट बौद्धिक-साहित्यिक संवाद संभव होता रहता है - इस दृष्टि से मैं स्वयं को सौभाग्यशाली मानता हूं। बाकी तो अपने जीवन की सहज विलम्बित गति से मुझे क्यों शिकायत होनी चाहिए?





शिवदयाल : एक और, आखिरी सवाल - अंततः ‘विनायक’ को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। उपन्यास के अंत में एक ऐसे सर्वसमावेशी समवाय की कल्पना या कि रचना की गई है जिसमें अलग-अलग क्षेत्र, वर्ग के लोेग आपस में मिल-जुलकर भारत-निर्माण के उद्यम में प्रवृत होते हैं। ये सभी अपनी मिट्टी से जुड़े लोग हैं जिन्हें प्रोफेसर विनायक एकजुट कर रहा है। तो यहां आकर एक बुद्धिजीवी के जीवन को सार्थकता मिलती है। एक बुद्धिजीवी की वास्तविक जीवनोपलब्धि यही है आपकी दृष्टि में?

रमेशचंद्र शाह : यही नहीं, यह भी। परंतु मेरी परिस्थिति और परिवेश ने मुझे अपनी इस संभावना या क्षमता को यथार्थ जीवन में पूरी तरह चरितार्थ करने का अवसर नहीं दिया। या कहूं, कि दिया तो, मगर बहुत कम दिया। अब जाकर कभी-कभी ऐसी चिट्ठियां अनजान जगहों से मिलती हैं जिनसे लगता है, मुझे पढ़ने-समझनेवाले लोग भी हैं। भले उस तरह उतने मुखर और प्रभावी न भी हों। जीवन के इस मोड़ पर लगता है, जो सचमुच सृजनशील और मौलिक प्रतिभासम्पन्न लोग थे - मेरे अग्रज और सहयात्री, वे तो सब विदा हो गए। परंतु सौभाग्य से युवा पीढ़ी, यानी युवतर पीढ़ी के कई सारे लोग हैं आप सरीखे, जिनसे सम्बन्ध बना हुआ है। सब दूर-दराज के! आपने मुझपर ‘संवेद’ का विशेषांक निकाला। उससे इसका पता चला ....।

अब रहा भोपाल, तो अपनी किंचित पहाड़ी लैंडस्केप के चलते मुझे पसंद है क्योंकि मैं पहाड़ का हूं। - सपाटपन मुझे सुहाता नहीं : न भौगोलिक, न सामाजिक। एक जमाना था जब खूब सांस्कृतिक गतिविधियां थीं यहां, अशोक वाजपेयी की पहल से। अब वह सब सपना-सा लगता है। तो भी भारत भवन और हिन्दी भवन की सक्रियता के कारण कुछ तो गतिविधियां यहां अब  भी चलती ही हैं। भले अब मेरे लिए उनमें शिरकत कर पाना उतना सहज साध्य नहीं रह गया।

मैं पुरानी चाल का आदमी हूं। मेरे लिए पत्राचार ही सहज था जो अब पिछड़ेपन का प्रमाण माना जाता है। सोशल मीडिया मुझे उतना आकर्षित नहीं करता। सनसनीखेज और फिजूल, वक्त की बरबादी लगता है। तो भी एकदम विमुख नहीं हूं। यथाशक्य कर्तव्य निबाहने की कोशिश करता हूं - रुचि हो, न हो। फिर कुछ अन्य संस्थाएं हैं यहां, हिन्दी भवन और ‘सप्रे संग्रहालय’ जैसी, जो काफी अच्छा, उपयोगी काम कर रही हैं। उनके संपर्क में भी रहता ही हूं। इससे अधिक सामाजिकता की दरकार किसे है? पत्र-पत्रिकाएं ढेर सारी आती हैं, यथासंभव उन्हें देख लेता हूं। यात्रा मेरा सबसे प्रिय व्यसन अब मेरे लिए इस उम्र में उतना सुकर नहीं रह गया - यह जरूर बड़ी खटकने-सालने वाली बात लगती है। आपने मेरे दोनों यात्रा-वृत्तांत और डायरियां भी पढ़ी होंगी। बहिरंग होते हुए भी वह मेरी अंतरंग आवश्यकता की पुकार रही हैं। सहृदय पाठक भी मिले उनको। परन्तु अपेक्षा से काफी कम। आमंत्रण देश-विदेश के अब भी मिलते हैं - पर मन मसोसकर रह जाना पड़ता है। अब वह संभव नहीं। ‘ते हि नो दिवसाः गताः’। ़़़़......उफ, ऐसे सुर पर बात सिमटे, यह कदापि इष्ट नहीं था मुझे। यह मेरा स्वभाव नहीं है। सच्ची बात तो यह है कि जितना कुतूहल, जितनी स्फूर्ति अपनी रगों में अब महसूस करता हूं, उतनी और वैसी तो ठेठ युवावस्था में भी नहीं की थी।

पर उसकी अभिव्यक्ति आयु केे इस चरण पर एक अलग ही चुनौती पेश करती है जिससे निपटना फिलहाल दुष्कर एवं असाध्य ही जान पड़ता है। आपके प्रश्नों की पूर्णाहुति अपने एक ‘प्रतिप्रश्न’ से करने की क्यों सूझी अभी अचानक? सुनिए - पढ़ी होगी आपने जरूर यह कविता मेरी -

‘गांठ के भीतर

वह कौन-सी गांठ है

जो

कभी नहीं खुलती?

बात के भीतर

वह कौन-सी बात है

जो

कभी नहीं बोलती?’



(इस पोस्ट में प्रयुक्त सभी तस्वीरें शिवदयाल जी ने उपलब्ध कराई हैं।)



सम्पर्क 

शिवदयाल             

मोबाइल - 9835263930

ई मेल : sdabha0101@gmail.com


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