अनु चक्रवर्ती की कविताएं

 

अनु चक्रवर्ती 


परिचय

नाम - अनु  (अंतरा चक्रवर्ती)

जन्म - 11 नवम्बर अंबिकापुर 

वॉइस आर्टिस्ट, फ़िल्म क्रिटिक, आकाशवाणी बिलासपुर में आकस्मिक उद्धघोषिका, मॉडरेटर, स्क्रिप्ट राइटर, रंगकर्मी, तीन हिंदी फ़ीचर फ़िल्मों में अभिनय करने का अनुभव, कवयित्री, समाज सेविका, मंच संचालन में सिद्धहस्त, प्रकृतिप्रेमी, देश और विदेश के विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं प्रतिष्ठित ब्लॉग्स में निरंतर रचनाएं प्रकाशित, दो साझा संग्रह में कविताएं प्रकाशित। हाल ही में 'उदासियों की उर्मियां' कविता संग्रह प्रकशित हुआ है।


प्रेम दो प्रेमियों के बीच का हमेशा एक निहायत निजी मामला होता है। प्रेम को ले कर समाज की सोच हमेशा दकियानूसी होती है। वह इसे स्वीकार नहीं कर पाता। ऐसा इसलिए भी है कि प्रेम उस सत्ता को चुनौती देता है। इस तरह प्रेम सामाजिक विद्रोह का प्रतीक बन जाता है। प्रेम, प्रेमी और प्रेमिकाओं को ले कर दुनिया भर में हजारों कविताएं लिखी गई हैं, लिखी जा रही हैं और आगे भी लिखी जाएंगी। लेकिन ठुकराए हुए प्रेमियों को ले कर कविताएं प्रायः कम ही लिखी गई हैं। प्रेम का एक यह ऐसा पक्ष है जिस पर बात करने से कवि बचते हैं। अनु चक्रवर्ती ने एक बेहतरीन कविता इस विषय को ले कर लिखी है। प्रेमी यह बात जानते हुए भी कि उसकी प्रेमिका अब उसके साथ नहीं रहना चाहती, लगातार इस कोशिश में रहते हैं कि वह उस पर अपना आधिपत्य जमा सकें। प्रेमी की इस सोच के पीछे वह पुरुषवादी सोच है जो हरेक को एक जींस की तरह देखने की आदी होती है। ये प्रेमी चाहते हैं कि 'प्रेमिकाएं बनी रहें सदैव/ उनके प्रति एकनिष्ठ'। यह सोच उन्हें संकीर्ण बना देती है। अनु चक्रवर्ती ने कई ऐसे विषयों पर कविताएं लिखी हैं जो प्रायः कवियों के एजेंडे में नहीं रहती। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अनु चक्रवर्ती की कुछ नई कविताएं।



अनु चक्रवर्ती की कविताएं



नींद 


तुम्हारे साथ रहते हुए उम्र की 

सबसे सहज नींद का उपभोग किया है मैंने!

तुम्हारा हाथ थामे-थामे 

बादलों के देश घूम आई हूँ

तुम्हारे पास होने पर 

सपनों जैसा कुछ नहीं होता 

बल्कि

दर-हक़ीक़त 

सिलसिलेवार मन के सारे 

ख़्वाब भी 

पूरे होने लगते हैं

मुझे अब ऐसी बेख़ौफ नींद से जागना 

कतई मंजूर नहीं 

याद है न,

तुमने कहा था - कि 

तुम मुझे सुलाने के लिए कभी 

नींद की गोलियां नहीं दोगे



सब्र 


ये रतजगा 

कोई पहली बार का 

क़िस्सा नहीं है 


प्रायः बारह-बाई-बारह के इस 

स्याह कमरे  में 

पुराने तख़्त पर बिछे 

कपास के ऊँचे-नीचे 

गद्दे पर

अपने समय के

दो उकताए हुए लोग 

ठंडे अरमानों को 

सीने में दबाए आँखें मूंदे 

सुसुप्तावस्था में 

पड़े रहते हैं ऐसे 

कि - जैसे 

बहुत मेहनत मशक़्क़त के बाद 

कोई सर्प उतारता है 

धीमे से 

अपनी केंचुली!

और सुस्ताता है कुछ पल 

दम साध कर 


 कांच की खिड़की पर टंगे 

 पारदर्शी पर्दे से

 छन कर पूरी रात 

इसी कमरे में झाँकती है 

लाइटपोस्ट की मद्धिम-सी रौशनी 

जो रुमानियत की

इस ठहरे हुए वक़्त में 

एक अदद लौ जान पड़ती है


इधर रात के पहले पहर के 

पूरते-पूरते,

एक बदन बेसुध औँधा पड़ जाता है

और दूसरा 

एकदम समीप समग्रता से

जागता रहता है 


नायिका उस नीली रौशनी में 

बार-बार मुस्कुराती हुई 

भीगी आँखें पोंछती है

और भिनसारे तलक सोचती जाती है 

क्या सब्र की नियति 

आख़िरकार केवल सब्र होती है 



ऋतुकोप


अभी तो इतनी उमर भी नहीं गुज़री,

और उठने लगी घुटनों से

लहर मारती कोई दुर्दांत टीस

हरसिंगार के झड़ने के इस कमनीय 

शारदीय ऋतु में

कुछ दृश्य इस तरह भी

झड़ते रहे कि-

जिससे संवाद, संगत और सान्निध्य का समस्त सुख ही छीनता चला गया


आसपास उगे कुछ चेहरों से

सदैव उदासी की आती रही 

असहनीय-सी कोई गंध 

किसी एक अप्रत्याशित घटना पर ही

क्यों टिका रहता है यह मन

किसी का अचानक छूटना

कई बार अनेक अंकुशों का

निरस्त होना भी तो है


दीमक चाटते अमरुद के वृक्ष को

काटते ही,

बिखरने लगी है

अब दुआर पर रविप्रभा 

किन्तु चिड़िया अब नहीं आती

उसके कलरव से वंचित है 

समूचा आँगन 

न जाने हज़ार मर्तबा

बुलाने पर भी

मैंने क्यों नहीं खोले किवाड़

शायद! साथी की बुलावट में

अरसे बाद भी 

मैत्री की उच्च सांद्रता नहीं थी


ओ मेरे बुझते हुए मन!

देख, बैरी शीत ने दे दी है

जाने कब चुपके से दस्तक

अब सखियों की,

बिलसी विहंसी के झंकृत अनुगूंज से 

होने लगेगा क्षण भर में श्रुतिलोप

निष्कम्प होती इस देह पर

इस कार्तिक नहीं मलूंगी

किसी भी तरह का अंगराग

ऋतुकोप के 

किसी अज्ञात श्राप से 

आकुल है यह सम्पूर्ण जीवन..





माइक्रोफ़ोन के अंदर भी  होती है आँख


माइक्रोफ़ोन  के अंदर भी होती है

एक जोड़ी आँख 

जो भाँप लेती है सहज ही

मन और कंठ के भीतर

आंदोलित हो रहे भावों को


बित्ते भर की दूरी से

प्रायः नाप ली जाती है

सुनने वालों की धड़कने 

उनके हृदय में उमग रही क्लान्ति

और श्रव्यता की कलाएं


अनुभवजन्य निपुणता के बावजूद

अधीरता में छोड़ी एक सांस भर से किरकिरा जाता है इसके समक्ष 

सम्पूर्ण वैभव किसी संवाद का


माइक्रोफ़ोन को पसंद है

इसके थोड़ा नज़दीक जा कर 

आहिस्ते से 

पूरी तरह ईमानदार हो कर बोलना

और स्वर के

आरोह व अवरोह के मध्य

गहराता संतुलन


बरस बीते एक अदृश्य 

दुनिया के साथ 

संवाद क़ायम रखते हुए मैंने

अनुभूत किया है कई-कई बार 

हर्ष, विषाद, वात्सल्य

उत्सुकता, उल्लास, ज्वर 

हिम, वृष्टि, शीत, वायु

और जीवन-मरण को


उस पार के संसार में व्याप्त राग-रंग

अभिप्राय, चिंता और  बेसब्री को

जानने बूझने के लिए यहां काफ़ी था 

कल्पना और तरंगों  के ज़रिए 

मेरा एकल संवाद 


माइक्रोफ़ोन के सम्पर्क में आते  ही

सजग हो उठती है जिह्वा

चैतन्य हो उठते  हैं श्रवणेन्द्रिय

निखरने लगती है शिरोधरा 

बहरहाल,

इसकी दृष्टि से बच पाने के

नहीं करने चाहिए 

कभी कोई कृत्रिम उपाय..



यौन शोषण का शिकार एक लड़का 


यौन शोषण का शिकार एक लड़का 

याद नहीं करना चाहता अपने बचपन के दिन-रैन 

 

झिझक, परेशानी और शर्म से थोड़ा झुक कर चलता है 

सड़क पर   

उदास चुपचाप 


तरुण होती उसकी काया में 

लोच की अधिकता बरबस ही देखी जा सकती है 

दूसरों से किंचित अधिक


बात करते समय

धीमे स्वर में बर्तता है वो सावधानियां बहुत सारी 

ज़रा-सा रुक-रुक कर 


यौन शोषण का शिकार एक लड़का 

प्रेम-प्रीत और अनजाने किसी भी आहट से चौंक उठता है 

 यूँ ही हर पल 


मन-ही-मन 

कोसता रहता है सदा

उस आततायी को,

जिसने उसके बालपन के अनगढ़ स्वरूप को

बदरंग किया बेरहमी से

अनगिनत बार 


उजागर करना चाहता है 

वह समाज में 

उस बहरूपिये का चेहरा 

परंतु मन की क्लांति से

ऊबर नहीं पाता है 

संभवतः कभी 


जीर्ण-शीर्ण हो चुका

उसका आत्मसम्मान 

उसकी शारीरिक क्षमता पर भी

आघात करता है कदाचित 


यौन शोषण का शिकार एक लड़का 

पूरी उम्र अपने डगमगाते आत्मविश्वास को 

ढोता फिरता है 

दुनिया की आंखों से छिप कर 


और  इसी भाव दशा में यातनाओं के संताप को

सहन करते-करते 

अनायास ही 

क्रूर हो उठता है किसी दिन


फिर  इस संसार से प्राप्त 

सबसे प्रेमिल एवं श्रेष्ठतम संबंधों 

से ऊब कर, 

बोझिल हृदय से त्याग देता है 

किसी दिन 

चुपचाप अपनी समस्त अभिलाषाएं भी..



बेहद उकताये हुए दो लोग 


बेहद उकताये हुए दो लोग 

अलग-अलग शहरों में 

पिछले दस महीनों से 

स्वांग रच रहे हैं बेफ़िक्री से जीवन जीते रहने का 


जीना!

जिन्होंने एक दूजे के बिना 

शायद! अब तक 

सीखा ही नहीं


रोज़ रात दस बजकर दस मिनट पर 

बिलासपुर जंक्शन से गुज़रती है एक रेल 

ठीक सीधे उसी शहर की ओर 

जहां बसती है इस शहर की तमाम सुगबुगाहटें 


प्लेटफॉर्म नंबर एक का वह ख़ाली कोना 

साक्षी है प्रतीक्षारत उस एक पल का 

जहां जज़्ब है फ़रीदा ख़ानम की 

आवाज़ में रिकॉर्ड की गई 

ग़ज़ल का वही जाना पहचाना-सा सिरा 

आज जाने की ज़िद्द न करो 

यूँ ही पहलू में बैठे रहो


स्मृतियों के कई चाँद

अतीत के गलियारों में 

बहुत धीमे से उभरते हैं 


फिर बेआराम-सी एक रूह 

गाड़ी की स्टेरिंग मोड़ती छोड़ती 

चक्कर काटती हुई खाक़ छानती है 

शहर के उन तमाम चौक-चौबारों का 

जहां दो पल ज़िन्दगी 

हसीन हुई थी कभी 


सुना है मुहब्बतपसंद लोग 

सीलनज़दा कमरों से ले कर मुरझाते रिश्तों में भी 

मुस्कुराते हुए गुज़ारा कर लेते हैं 


लेकिन अनापरस्त लोगों की फ़ितरत 

होती है थोड़ी जुदा 

मेल-मुलाक़ातों की तमाम तरक़ीबें भी 

उन्हें बांधे नहीं रख सकतीं 


कितनी दफ़े तो समझाया था 

कोई हमसफ़र नहीं 

केवल हमराह चाहिए 






ठुकराये गए प्रेमी


ठुकराये गए प्रेमी  

अपनी लापरवाही पर भी 

कदापि स्वीकार नहीं कर पाते 

स्वयं की अवहेलना 


समय की गति के साथ 

दोहरे उन्माद के संग 

बुनते हैं

भावनात्मक सम्वादों के 

रेशमी जाल 


बार-बार की समझाईश 

और फ़ोन काटे जाने के

पश्चात भी,

झूठ-मूठ की रुलाई 

और उदास दिखाई देने की 

करते रहते हैं 

पुरज़ोर कोशिश 


दरअसल छोड़ी गई 

प्रेमिकाओं को 

वो समझते हैं 

अपनी निजी सम्पत्ति


हज़ार दफ़े अपने मन की 

कर लेने के बावजूद भी,

प्रेमियों की चाहना ये ही होती है

कि - हर हाल में,

प्रेमिकाएं बनी रहें सदैव 

उनके प्रति एकनिष्ठ  


साम-दाम-दंड-भेद

स्तुति और 

समस्त चालाकियों को अपना कर

पा लेना चाहते हैं वो 

प्रेमिकाओं के मन में अपनी 

पहले वाली जगह 


कसम खाते हैं,

वादे करते हैं 

लापरवाहियों और 

बदमाशियों से करते हैं 

ख़ुद ही सौ-सौ बार तौबा 


अहसास दिलाते हैं कि -

उनके जीवन की नौ-बहार है

उनकी प्रेयसी!

उसे तो चाहिए था कि -

टूट कर बिखर जाती 

किसी दिन अपने 

प्रेमी की याद में 


मगर अब,

जब ख़ुश हैं 

प्रेमिकाएं बग़ैर मोहब्ब्त के

तो उनको संतुलित देख कर 

मन के किसी कोने में 

प्रेमियों के 

हलचल-सी तारी रहती है 


उनका दिल, दिमाग़ और ज़हन 

ये मानने को क़तई

तैयार नहीं होता कि -

प्रेमिकाएं, 

बग़ैर साथी के भी ख़ुश 

आख़िर कैसे रह लेती हैं



C-39


इंदिरा विहार,

क्वाटर नंबर C-39 के 

दालान से लगे

पहले कमरे की दीवार पर 

टंगी हुई है

तीन ऐसे लोगों की तस्वीर

जिनके साथ रहते हुए मैंने 

इस पृथ्वी पर गुज़ारे

जीवन के सबसे न्यूनतम 

किन्तु बहुमूल्य दिन


सामने पार्क में शीतकालीन 

सत्र की

छुट्टियों का मौज मनाते 

खेल रहे हैं छोटे-छोटे बच्चे

गोल-गोल रानी, पिट्ठूल, कबड्डी

और कुछ एक चला रहे हैं

अपनी नई साइकिल 


पास  ही सहजन के पेड़ पर फुले 

हुए हैं ढेर सारे श्वेतवर्ण के पुष्प 

जिन पर एक बसेरा है 

चिड़ियों का


अंदर पसरी हुई है निस्तब्धता 

बच्चों का शोर अभी बंद है 

नए पड़ोसियों से मिले नहीं 

अब तक मन

पुराने परिचित मुहल्ले से

कब के कूच कर चुके हैं


इस निलय के आँगन में 

दिन के दूसरे पहर 

सकुचाई-सी उतरती है धूप 

और विदा लेती हुई

लजाने लगती है

किसी नई-नवली दुल्हन जैसी


C -39 के कमरे की दीवारें

साक्षी हैं

उन लोगों के महाप्रयाण की 

जो अपने अदम्य साहस के बल पर

संघर्षरत रहे जीवनपर्यंत

किन्तु  विदा के 

अंतिम क्षणों में

मौन रह कर

समस्त ज्वर, पीड़ा 

राग भाव और अर्थतत्व के भार से

क्लान्त बनते रहे


एक शैय्या है इस आलय में

जो स्वस्तिमन्त्र के 

उच्चार के संग 

निरंतर बनी रहती है दोलायमान

अपनी ही गति और  ताल पर,

भूले से भी कभी 

विचलित नहीं होती

ठीक किसी माता के

वात्सल्यपूर्ण तृप्त अंक जैसी



केवल बची  रही करुणा


संभावनाओं की आहट से

निस्पृह लौट कर 

आये हुए प्रेमियों को पुनः

गले न लगा सकी

नहीं बैठा सकी कदाचित 

उन्हें अन्तःपुर के सबसे

उत्कृष्ट आसान पर  


न  खोल सकी उनके समक्ष

फिर कभी जूड़े का फूल 

और न ही बांट सकी उनसे 

अंतःमन के ज्वर की पीड़ा


बेदिनी बुग्याल के 

स्निग्ध स्पर्श को महसूसते हुए

साथ विचरने की 

उत्कट कामना पर लगाया 

एक दिन क़रीने से पूर्ण विराम


बेजा बोहतान से कुंभलाये

मेरे मन ने  

बीथोवन की नौंवी सिम्फ़नी के 

प्रमोद से उत्पन्न आवेग पर

स्वतः ही निर्मित किया अंकुश 

 

प्रेम के निष्क्रिय होने की 

अवस्था में

मेरे भीतर 

केवल बची रही करुणा

जिसे पूरे मन से किसी रोज़ 

सौंप दिया निःसर्ग को



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


अनु चक्रवर्ती 

C/o एम. के. चक्रवर्ती 

C- 39 , इंदिरा विहार कॉलोनी, सरकंडा

बिलासपुर (छ. ग)

Pin - 495006


Ph - 7898765826 


ई मेल - antarac76@gmail.com

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं