अविनाश मिश्र के कविता संग्रह पर यतीश कुमार की समीक्षा

 




इधर के समय में जिन कुछ कवियों ने भाषा और शिल्प की बदौलत अन्य कवियों से अलग अपनी पहचान बनाई है उनमें अविनाश मिश्र का नाम अग्रणी है। अविनाश निम्न मध्यम वर्ग की कथा व्यथा को अपनी कविताओं में बेतकल्लुफी से प्रस्तुत करते हैं, जिसका समूचा जीवन दुःख से भरा हुआ है। यह दुःख हमें आक्रांत नहीं करता बल्कि उस रास्ते की तरफ अग्रसर करता है जिससे उससे मुक्ति पाई जा सकती है। अविनाश कविता में अपनी प्रतिबद्धता को कुछ इस तरह उजागर करते हैं कि 'धोखा नहीं दूँगा/ कह दूँगा यह काम मुझसे होगा नहीं।' आज जब चारो तरफ छल, छद्म, प्रपंच का धुंध छाया हुआ है, ऐसे में कवि की ये पंक्तियां  कम आश्वस्तिदायक नहीं हैं। यानी कोई तो ऐसा है जिस पर भरोसा किया जा सकता है। भरोसे ने ही मनुष्य को सभ्यता के इस सोपान तक पहुंचाया है। लेकिन विडम्बना यह है कि जैसे जैसे हम सभ्यता की सीढियां चढ़ते चले गए वैसे वैसे भरोसा कम होता गया। हाल ही में अविनाश का राजकमल से कविता संग्रह 'वक्त जरूरत' प्रकाशित हुआ है। कवि यतीश कुमार उन पढ़ाकू लोगों में से हैं जिनकी पारखी नज़र अपने समय की महत्त्वपूर्ण किताबों पर रहती है। ऐसी किताबें जो अपने समय में सार्थक हस्तक्षेप करते हैं। कवि होने के नाते उनका गद्य शुष्क न हो कर प्रवाहमान होता है। यतीश कुमार ने अविनाश के कविता संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अविनाश मिश्र के कविता संग्रह वक्त जरूरत पर यतीश कुमार द्वारा लिखी गई समीक्षा 'अन्तर्मन की व्यथा को खोलती कविताएं'।



अन्तर्मन की व्यथा को खोलती कविताएं


यतीश कुमार 


अविनाश की कविताएँ पुनर्पाठ की माँग करती हैं। आप इन कविताओं को यूँ ही सामान्य पाठ करते हुए आगे नहीं बढ़ सकते। कविता अपना प्रभाव भी द्रुत गति से नहीं छोड़ती। प्याज़ के छिलके जैसे उतरती है अपनी झाँस ले कर, जहाँ सब कुछ है और कुछ भी नहीं के बीच की झीनी जगह पर अर्थ चिह्नित करता हुआ मिलता है। कविता उस जगह अपना अर्थपूर्ण भावनात्मक केंद्र स्थापित किए घूमती रहती है।


यहाँ कविताएँ अन्तर्मन की व्यथा खोलती हैं। ख़ुद से जैसे बोलती हैं, कुछ बुदबुदाती हुई। इस बुदबुदाहट में भी स्पष्टता पूरी तटस्टता के साथ है। 


कहती हैं: 


धोखा नहीं दूँगा

कह दूँगा यह काम मुझसे होगा नहीं 

सारे संदेशों का जवाब दूँगा

भले ही एक शब्द में


कवि के शब्दों पर गौर किया जाये तो ये याद दिलाती है या यूँ कहूँ चेताती है कि प्रायश्चित का बिसूर जाना कितने आक्रांत परिस्थिति का द्योतक है। 


कविता की विविधता अगले ही पल एक सुखद पल का दृश्य दोहराते हुए मिलती हैं, जहाँ लिखा है -  


बिन बुलाए परिचित की तरह

या अयाचित अपरिचित की तरह जाऊँगा 

बग़ैर तस्वीर की खबर की तरह जाऊँगा।


ऐसा लिखते हुए कवि आज के समय को साधते हुए कइयों की मनःस्थिति को दर्ज कर रहा है। 


मेरे सारे कपड़े मेरे भाई के दिये हुए हैं

ईश्वर का इसमें कोई योगदान नहीं 


'अज्ञातकुलशील' कविता की यह पंक्ति आपके सामने जो परिदृश्य खड़ा कर रही है, उसमें कई तरह के दृश्य घुल मिल रहे हैं। स्मृतियों की टेर के साथ मार्मिकता का झिलमिल भी है। सिर्फ़ निर्धनता को नहीं दर्शाती अपितु भाई और भाई के बीच के प्यारे के बंधन और उस गाँठ की मज़बूती को भी दर्शाती है, जिनका स्नेह रुपये का मोहताज नहीं। 


आगे बढ़ेंगे तो समझ पायेंगे, धोखा खाने से समझदारी कैसे पोषित होती है। कविता ऐसे कई सच को सरल शब्दों में उघाड़ती चली जाती है। 


पढ़ते-पढ़ते एक पंक्ति पर मैं सच में रुक गया थोड़ी देर के लिए और लगा यह सिर्फ़ एक वर्ग, एक वर्ण के लिए लिखी गयी पंक्तियाँ नहीं हैं। कुछ पंक्तियाँ सार्वभौमिकता का बोध लिए होती हैं, जो अविनाश की कविताओं में बहुलता के साथ उपलब्ध हैं। लिखा है: 

 

“वे लौट नहीं पा रहे

लौटना चाहते हैं"





कविताएँ समाज के उस चित्र को इतनी बेबाक़ी से यहाँ प्रस्तुत करते हुए बिम्ब को मार्मिक चित्रों में बदल रही है, जिसे देखते हुए आपकी आँखों की पुतलियाँ कुछ पल अवाक् रह जाएँगी। आपसे आपके शब्द, लगेगा छीन लिये गये हैं। 


भूख में जब नहीं मिलता अन्न

तब बन जाती हैं उनकी तस्वीरें

जिन्हें सार्वजनिक किया जाता है-

कौर बनने को प्रस्तुत भोजन की तस्वीरों की तरह।


मेरा आशय इन पंक्तियाँ के माध्यम से आप बेहतर समझ पाएँगे। 


कविताओं में पंक्तियों की बुनाई और शब्द के मायने को, बिम्ब के सहारे व्यापकता प्रदान की गई है। 'डूब’ कविता में कुछ ऐसा ही मिलेगा आपको। यहाँ डूबने के मायने और मध्यम को कितना विस्तार मिला है, यह आप कविता पढ़ कर ही समझ सकते हैं। संदर्भ के लिए बस दो पंक्तियाँ यहाँ प्रेषित कर रहा हूँ। 


वहाँ भी बहुत कुछ डूब रहा है

जहाँ बाढ़ जैसा कुछ नहीं


इस दृश्य में जो कह सकते हैं

वे लगातार मारे जा रहे 

जो नहीं कह सकते

बहुत पहले ही मर चुके 


मारक पंक्तियाँ इन कविताओं में रह-रह कर मिलेंगी। 


इसी के साथ सुंदरता को बचाने का अनुग्रह उसी कटाक्ष में छिपा मिलेगा। अमूर्तन पर जो प्रहार हो रहा है उसकी कराह भी सुनाई पड़ेगी यहाँ। 


कला, साहित्य, विचार को देखने वाले की बौनी होती दृष्टि, सत्ता से मेल जोल खाती है, जिसे यहाँ उजागर किया गया है, जिसकी चकाचौंध में कलात्मक सृजनता का अस्तित्व मिटता जाता है। अमूर्तता के आवृत में छटपटाता निर्वात यहाँ निबद्ध मिलेगा। 


'क्या लग रहा है’ और 'बादशाह' जैसी कविताओं को पढ़ते हुए यकायक धूमिल की याद आ गई। हवा वसंत की नहीं और जनता लोकतंत्र की नहीं की आवाज़ लिए आगे बढ़ती कविता के हाथ में मशाल है, जो उजाला भी कर सकता है और सर्वनाश भी। कविता की ऐसी तेज़ बनी रहे, एकबारगी हूक सी उठी पढ़ते समय!


कवि अपनी कसमसाहट, अपनी बेचैनी को दर्ज कर रहा है। अपनी लेखनी में आती हुई विघ्नता को दर्ज कर रहा है। कविता को लिखने के लिये जो ऑक्सीजन चाहिए, उसमें आती कमी को दर्ज कर रहा है और लिख पा रहा है समकालीन कविता, यह कहते हुए कि नहीं लिख पा रहा कविता, पूरी शृंखला लिख दे रहा है।


कवि की दृष्टि पैनी है और उसे कभी किसी का खबर बनाने से इतर उसका घर बनाना दिख रहा है, तो कभी पथराती आँखें या फिर कभी पत्थरों का हरापन या फिर धूल भरा जीवन से लेकर जीवन धूल-सा दिख रहा है! यह सब देखते हुए कवि लिख रहा है:


त्रासदी पर हँस रहा है होना

होना ख़ुद त्रासदी है 


अविनाश की कविताएँ थोड़े से शांत मन के साथ पढ़ने का आग्रह करती हैं। कैजुअल रीडिंग के बजाए ध्यान से पढ़ते ही साधारण दिखने वाली पंक्तियाँ असाधारण अर्थ के साथ प्रस्तुत हो जाएँगी। यहाँ दो पंक्तियों के बीच का जो निर्वात है, वहीं इसके अर्थ की आवाज़ ठहरी है, जिसे सुनने के लिए उस निर्वात को आपको पीना होगा। अर्थ और शब्द का सही तालमेल, फिर विंडचाइम की तरह सुनाई दे सकेगा आपको। यहाँ ज़रूरी प्रश्न करती कविता मिलेगी। परिवार-निर्माण और समाज-निर्माण के बीच की बढ़ती दूरियाँ दिखेंगी, स्मृतियों की साँकल के शोर से उठते प्रश्न, बेआवाज़ होता प्रायश्चित, न और या में नया ढूँढना और कहना कि यह समय ख़ुद से बात करने का है, दूसरों से भी - उन्हें दूसरा समझे बग़ैर! सब आपके धैर्यपूर्वक पाठन की माँग करेगी। 


कुछ कविताओं में विचार की प्रमुखता ज़्यादा है, तो कुछ में गद्यात्मकता थोड़ी ज़्यादा, पर हर अगले मोड़ पर ‘फिर हमने यह देखा’ जैसी कविताएँ मिलेंगी जिनमें कविताओं का सुंदर संतुलन दिखेगा, भावनाओं ओर विचारों के संतुलन के साथ, यथार्थ और संवेदना का संतुलन भी मिलेगा। 


इस संतुलित विचारोत्तक काव्य-संग्रह के लिए अविनाश मिश्र बधाई के पात्र हैं। उन्हें ढेर सारी शुभकामनाएँ।


वक़्त ज़रूरत (कविता संग्रह) - अविनाश मिश्र, राजकमल पेपरबैक्स, नई दिल्ली, मूल्य रू 199/


यतीश कुमार 


सम्पर्क 


मोबाइल : 8420637309

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'