अवन्तिका प्रसाद राय की कविताएं
हमारे देखते देखते बहुत बदलाव आ गया। समय बदला उससे अधिक तेजी से हमारा यह समाज बदला। यह बदलाव किसी एक क्षेत्र में नहीं, बल्कि हर क्षेत्र में स्पष्ट दिख रहा है। हमारा स्वभाव, हमारी मनोवृत्तियां, हमारी चाहतें ही नहीं बल्कि हमारे आदर्श तक बदल गए। जिन गांवों को छोड़ कर हम पढ़ने के लिए बाहर निकले और चाकरी करते हुए बहरवांसू बन गए, वे गांव भी बहुत बदल गए। चालाकियां, काईयांपन और शातिरापना में वे अब नगरों से पीछे नहीं हैं। ऐसे में हम जैसे लोगों के लिए नास्टेल्जिया की तरफ उन्मुख होना कोई आश्चर्य की बात नहीं। हरि मल्लाह अगर कवि की स्मृति में आते हैं तो कवि अवन्तिका का जड़ों से जुड़ाव ही है जिसे शहर आज तक उखाड़ नहीं पाया है। अवन्तिका हृदय से कवि हैं। कई उम्दा कविताएं इनके पास हैं। लेकिन अपनी कविताओं के प्रति निस्पृह इतने कि सहपाठी होने के बावजूद काफी समय बाद मैं यह जान पाया कि वे एक बेहतरीन कवि हैं। मेरा मानना है कि कविताएं स्वयं ही कवि का आत्म कथ्य होती हैं । लेकिन इस बार कवि ने अपना आत्म कथ्य भी भेजा है। उसे पढ़ना इसलिए भी दिलचस्प है कि यह कवि के रचनात्मक सफर को रेखांकित करता है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका प्रसाद राय की अलग अलग तेवर और कलेवर वाली कविताएं।
हरि मल्लाह को छोड़ कर अन्य सभी कविताएं दशकों पुरानी हैं। तीन बाल कविताएं हैं। नदी बिचारी कविता मित्रवर अमिताभ श्रीवास्तव के अनुरोध पर उनके बच्चे के लिए लिखी आशु कविता है।
अपनी रचनाओं के विषय में सिर्फ यही कहना है कि जो भी जिया, जैसे भी जीया सब कुछ शब्दों में दर्ज करता चला गया ताकि चेतना रूई के फाहे सी बनी रह सके। यदि मेरे लेखे चाहे अनचाहे किसी को कभी चोट पहुंची हो तो इसमें मेरा क्या दोष हो सकता है भला? मेरा ऐसा कत्तई उद्देश्य नहीं रहा क्योंकि मेरा मानना है कि जब आदमी के पास किसी बात का मुकम्मल जबाब नहीं होता तो उसे चोट जैसी कोई चीज लग जाती है और वह दूसरे तरीके इख़्तियार कर सामने वाले को प्रताड़ित करता है। उस व्यक्ति को जवाब न मिल पाने के अपराध में प्रकारांतर से वह पूरा समाज शामिल होता है। इसलिए मेरा मानना है कि एक रचनाकार का उसके वृहत्तर समाज के लिए यह फर्ज है कि वह उस समाज के सामूहिक विवेक को उकसाए। उन बनी बनाई अवधारणाओं को प्रश्नांकित करे जो उसे दे दी जाती हैं। पता नहीं पहलीबार पर अब तक प्रकाशित रचनाओं में मैं इस उद्देश्य में कितना सफल हो सका हूँ।
मेरे दोस्त ज्ञानेश बब्बू मेरी पत्नी अर्चना ने सदा मुझे युद्ध के लिए ललकारा और मुझे अपने सच के लिए पागलपन की हद तक संघर्ष की प्रेरणा दी। मेरे पिता ने मुझे बचपन से सच और ईमानदारी के रास्ते पर चलना सिखाया और मेरी माँ करूणा का वह सोता है जिससे मेरे अंदर कविता पनप सकी।
भाई सन्तोष चतुर्वेदी इलाहाबाद के दिनों में मेरे साथ पत्रकारिता और जनसंचार के क्लासफेलो रहे हैं और बीसों साल बाद संयोगवश पुनः मिलना तब हुआ जब मैं सपरिवार बस से इलाहाबाद से चित्रकूट जा रहा था। बस की उस यात्रा में उन्हें पहली बार पता चला कि यह नाचीज़ कविता जैसी कालवाह्य चीज में भी लगा रहता है।
अवन्तिका प्रसाद राय की कविताएं
हरि मल्लाह
जैसे बांण के बिल्लियों की आंखें
चौथे पहर में चमक छोड़ती हैं अंधेरे के बीच पंजा गड़ाए
वैसे ही चमक उठती थीं हरि मल्लाह की मछली के तेल में तर आंखें
जिनसे प्रीति होती उनका संग पा
मानो कह रही हों उजास की कोई बात
काला रंग घुंघराले बाल बड़ा माथा गोंडों सा रूप
यही कुछ पांच छः साल का था
जब हरि को घर दुआर आते जाते काम करते कराते देखना शुरू किया
उस बाली उमर में मेरे चाचा बताते हरि के खिस्से
'मोछू भईया को हरी कंधे पर बिठा धांग आते थे बांण से करइल.'
भाभी खिखियातीं, "बबुआ जी, हरी को ऐसा वैसा न बूझिएगा, हरि ने प्रेम विवाह रचाया था लाटों के जमाने में! '
हरी प्रेमी थे
और सच्चा प्रेम भर देता है मौके पर उत्सर्ग का साहस
देता है विवेक
कला और सबसे बढ़ कर, जीवन
इसलिए उनके सामने बड़े बड़े अपने पजामे में रहते
गंगा के किनारे झोपड़ी में मल्लाहों के डेरे के बीच था उनका आशियाना
जिसमें मछली जैसी आँखों वाली रहती थी उनकी रानी
आगे सुनो हरी की कहानी
अंग्रेजी राज चला गया उनके सामने
सामंती राज चल रहा था
मैं बच्चा था
डेमोक्रेसी का डंका था
गांव में इनी गिनी तीन चार कहने को दुकानें थीं
गोलिया मिठाई और लेमनचूस चभुलाते दुआर पर आता
हरी रिगाते, 'एगो हमरो के दे द।'
और उनकी आँखें चमक उठतीं
मानो कुछ टोह रही हों
फिर गांव जाना कम हुआ
नब्बे में मैं इलाहाबाद चला आया निन्यानबे में लखनऊ
नौकरी में आने के बाद भाई से फोन पर बतियाते पता चला हरी की रानी गंगा मैया में डूब गयी
आश्चर्य, प्रेम से पगी मल्लाहिन गंगा में डूब गयी!
और फिर हरी से मिलने की इच्छा जोर मारने लगी
मैं भी तो उभ डूब हो रहा था, गंगा का छोरा, गोमती के किनारे
तभी एक दिन भाई ने बताया की हरी चल बसे
कोई यहां रहने थोरे आता
वो तो थोड़ी जगह मिल जाती है
और आदमी जी लेता है एक उम्र
अब तो वे जगहें भी बिलाती जा रहीं।
ताजमहल
वह एक जादू है
जैसे सफेद जादू
और देखने में
ताश का महल
परन्तु
कितना ठोस!
जैसे
जादुई प्रेम
उसके निर्माण में
किरणें लगी हैं
और उन्हें
चिपकाया गया है
सूफियाना मोहब्बत से
वह धरती पर
साक्षात
जन्नत की हकीकत है
और उसकी सोहबत
जैसे
हमारी चेतना
रूई का फाहा बनती जा रही हो
वह
लौकिक प्रेम की निशानी है
पर, उसे देखने के बाद
अलौकिकता आखिर क्या है
वह एक मजहब है
और सारे मजहब
उस स्वर्ग तक ही
पहुंचते हैं
वह ताज है
वाह ताज!
मलाला
मलाला!
तुम एक अहिंसक विचार हो
तुम्हें पाला गया
पोसा गया
तुम्हें नहीं कोसा गया
तुम्हारे पिता
नहीं हैं आम पिताओं जैसे
उन्होंने कितना जतन किया होगा
तब इस दुनिया को
तुम्हारे जैसा रतन दिया होगा
कितने मौसम
कोड़ा खोदा होगा
कितना शोधा होगा
तब तुम्हारी तरह
बना एक जोधा होगा
मलाला!
तुम पूरी की पूरी गुलाब हो
स्वात घाटी की आब हो
एक सच्चे वामपंथी का ख्वाब हो
मलाला!
तुम इस भूखण्ड के
कठमुल्लों का प्रतिपक्ष हो
भोंड़ेपन की विपक्ष हो
तुम हो सदानीरा
हरती हो मनुष्यता की पीरा
क्वार की धूप
क्वार की धूप
बर्र की तरह
टीसती है बदन पर
छोड़ती है त्वचा
सांवला रंग
राम का रंग
घनश्याम का रंग
कर्मरत बदन
श्रमिकों के
कितने आबनूसी!
क्वार की धूप
शरीर पर स्वेद-बिन्दु
चमकता
बर्र के बींधने से बने
फफोलों सा
आजादी
'आजादी !'
बुधुआ ने कहा
और पेट की खातिर
रोज ठेले पर फल और सब्जी बेचता था
आज बेच रहा है तिरंगे को
'आजादी!'
नेता ने कहा
झंडा फहराते हुए
और कतार में लगे बच्चे
धूप या जाने किस प्रकोप से
गश खा कर गिर पड़े
'आजादी !'
अभिभावक ने कहा
और बाथरूम की टोटी से
गिरता रहा पानी बेतरह
'आजादी!'
बच्चों ने कहा
और उलझन में पड़ गये
यहां, इस जगह पर
तमाम लोगों के बीच
वे क्या कर सकते हैं
'आजादी!'
लड़कियों ने कहा
तन गयीं गर्दभ सिंह के दिमाग की नसें
भिंच गयीं मुट्ठियां
'आजादी!'
आदिवासियों ने कहा
उनके पैरों तले की जमीन खिसक गयी
'आजादी!'
मैंने कहा
और निरखता रहा
चहुंओर
कृपा
मैं कवि हूं
इसलिए
आंखें तरेर कर कहता हूं
कोई कृपा न करना मेरे ऊपर
एक ऐसी व्यवस्था बनाना
जिसमें
कोई कृपापात्र न हो
कौन
दिखता है वह
बाजार में
फिर वही दिखता है
गांव की अलग बस्ती में
जैसे
पीढ़ियों की यातना
दुःख बन कर
उसके चेहरे पर
जम सी गयी हो
कौन है गुनहगार?
कौन?
कौन?
गुजरना है हर गली से
उजड़ रहा है
होली का मेला
मैंने भी इस मेले से
ली है
एक टार्च
मेरी इच्छा है
इस टार्च को ले कर
निकल पड़ूं
और घूमूं
इस देश की गली-गली
छानूं बित्ता-बित्ता
अवध, भोजपुर, मिथिला, मराठवाड़ा
रजवाड़े, मलिन बस्तियां
पठार, पर्वत, पहाड़
रेगिस्तान, नदियां, समुद्र
और अमराईयां,
आखिर मुझे
गुजरना है हर गली से
एक बनारस
कितना सुखद है
बनारस में
गंगा के घाट पर
अरूणाई निहारना
और कितना मनोरम!
गलियों में
मुट्ठी में
पीतल की घंटी
पीतल की कटोरी
पीला पान
और अरूणाई का
माथे पर
दिपदिपाना
स्वाद का फर्क
बहुत भूखे रहने पर भी
स्वाद का फर्क
समझ लेना साथी!
मच्छर हैं हैवान
मच्छर भिन-भिन करते कानों में
मच्छर हैं शैतान
सबका खून ये पीते गुपचुप
मच्छर हैं हैवान
क्यों बढते हैं मच्छर मुन्नू
इस पर तुमने सोचा है
पानी है मच्छर का कारण
मत कहना यह चोंचा है
गन्दी नाली, गन्दी सड़कें
और गन्दगी चारों ओर
फिर भी गर मच्छर ना हों तो
और चलेगा किसका जोर
मच्छर मार-दुलार-कम्पनी
मच्छर का लाभ उठाती हैं
मच्छर हैं इनके हित में
किसको आखिर ये पटाती हैं
मच्छर हैं शोषक मुन्नू!
हम सबके खून पर पलते हैं
इनसे मुक्ति पाने के लिये
आओ हम सब चलते हैं
देखो-देखो वर्षा ऋतु आई
(बरसात में बाल-मन के लिये)
देखो-देखो वर्षा ऋतु आई
सबके मन को बहुत लुभाई
घन बरसें और बिजुरी चमके
घर-बाहर धुल-धुल कर दमके
मेंढक बोलें टर्र-टर्र
उड़ें पतिंगे फर्र-फर्र
बिस्मिल चाचा ने फूंकी
जादू सी अपनी शहनाई
आम टपकते टप्प-टप्प
देखो तो बन्दर मामा कैसे करते हैं घप्प-घप्प
चुनमुन-रुनझुन कूद-कूद कर
खेलें बदरा संग छ्प्प-छ्प्प
हरी चदरिया तान-तान के
धरती मां ने प्रीत जगाई
मुनमुन खेले घुमरी-परौव्वा
कंचन को बरसात है हौव्वा
बारिश में कैसे भीगा है
नीम पे बैठा वह डोमकौव्वा
अर्चन को अब नही सुहाता
कीच-पांक इमली का फहुआ
पकना
फल
पेड़ से रस ले कर पक जाता है
और फिर
टपक जाता है डाल से
नदी बिचारी
एक नदी थी जग में न्यारी
बालू मिट्टी सब कुछ देती
बहती कल-कल सुन्दर प्यारी
हम सब उसमें खूब नहाते
थी उससे हम सबकी यारी
पर हमने ये क्या कर डाला
हुई मलिन, हमसे ही हारी.
हमको उसने दिया बहुत कुछ
पर अब वह मायूस बहुत है
बिना मौत मर गयी बिचारी
वर्तमान में उ. प्र. सचिवालय में उपसचिव पद पर सेवारत। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा डिजिटल माध्यमों में कविताएं प्रकाशित।
मूलतः शेरपुर, जनपद गाज़ीपुर के रहवासी।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
अवन्तिका प्रसाद राय
10 B/748
वृन्दावन योजना
लखनऊ, उ. प्र.
फोन नं-9454411777
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