शर्मिला जालान का संस्मरण "अशोक जी के रोज़मर्रा के क़िस्से"

 

अशोक सेकसरिया



अशोक सेकसरिया का नाम लेते ही एक ऐसे फक्कड़ व्यक्ति की तस्वीर उभर कर सामने आती है तो वास्तविक अर्थों में समाजवादी थे। एक सच्चे समाजवादी की तरह ही उन्होंने अपना जीवन जिया। समृद्ध घर के होने के बावजूद अशोक जी ने सामान्य जीवन जीना पसन्द किया। अन्याय और शोषण के विरुद्ध संघर्ष करना उनका जैसे शगल था। रवीन्द्र कालिया ने अशोक जी की सादगी की बात करते हुए एक बार बताया था कि अपनी अट्टालिका के एक कमरे में रहते हुए, पुस्तकों के बीच ही उन्होंने अपना सारा जीवन बिता दिया। अशोक जी ने 'दैनिक हिंदुस्तान', सोशलिस्ट पार्टी की पत्रिका 'जन', 'दिनमान' व 'सामयिक वार्ता' में लगातार लिखा। बहुत कम लोग ही यह जानते हैं कि अशोक सेकसरिया ने प्रारंभ में जो कहानियाँ लिखीं, उनमे अपना नाम न दे कर अपने दिवंगत मित्र 'गुनेंद्र सिंह कम्पानी' का नाम दिया। 'राम फजल' जैसे छद्म नाम से भी उन्होंने अपनी रचनाएं लिखीं। वे राम मनोहर लोहिया के अन्यतम अनुयायी थे और जीवन भर एक एक्टिविस्ट की भूमिका में ही रहे। 

नई कहानी की यथार्थोन्मुखता को नया आयाम देने में अशोक सेकसरिया की अग्रणी भूमिका थी। अपने लिखे के प्रति वे हमेशा निस्पृह रहे। उनका कहानी संग्रह 'लेखकी' वाग्देवी प्रकाशन से 2000 में उन्हें बिना बताए कुछ मित्रों के सहयोग से प्रकाशित हुआ। पाठकों के बीच यह संग्रह काफी लोकप्रिय हुआ। इस प्रकाशन में वाग्देवी पब्लिकेशंस के मालिक साखलाजी व मित्रों में प्रयाग शुक्ल, गिरिधर राठी अग्रणी थे। कोलकाता की साहित्यिक संस्था भारतीय भाषा परिषद के अस्तित्व की लड़ाई व यहां के साधारण कर्मचारियों के पक्ष में वे आजीवन सक्रिय रहे। साहित्य व सिनेमा के अतिरिक्त चित्रकला व खेलकूद की भी उन्हें गहरी समझ थी। अशोक जी को कोलकाता के लेखकों का बेशुमार प्यार और स्नेह मिला। 29 नवम्बर 2014 को अशोक जी का निधन हो गया।  शर्मिला वोहरा जालान ने अशोक जी की वैयक्तिक और रचनात्मक यात्रा को करीब से देखा जाना है। उन्होंने अशोक जी की स्मृतियों को शिद्दत से याद किया है। अशोक सेकसरिया की स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं शर्मिला जालान का संस्मरण 'अवधूता युगन युगन हम योगी'।




अवधूता युगन-युगन हम योगी

"अशोक जी के रोज़मर्रा के क़िस्से"



शर्मिला जालान


29 नवम्बर 2014 को अशोक सेकसरिया का देहावसान हुआ था। उनके दिवंगत होने के बाद यह दूसरा लेख है। उनके साथ कुछ समय बिताने का सौभाग्य मिला। इस संस्मरण में छोटी–छोटी बातों के द्वारा उनको फिर याद कर रही हूँ। अपने जीवन व्यापार में फँसा-धंसा एक कृतज्ञ लेखक और कर भी क्या सकता है।


मैं जिन वर्षों में अशोक जी से मिली, उन्हें कोलकाता से बाहर जाते हुए नहीं देखा। उनकी दुनिया बहुत अलग थी। जीवन अलग था। रहन अलग था। फक्कड़पन था। वे घर बैठे दुनिया को अत्यंत गहराई और पैनी नजरों से पूरी संवेदनशीलता के साथ देखते थे। बातों के तल में जाते थे। बनावट को समझते थे। लोगों के भीतर के भटकाव और बिखराव को देख लेते थे।


उनको जानने वाले और उनसे प्रेम करने वाले पूरे देश में थे। जो यह जानते थे कि अशोक जी ने विरल गद्य लिखा है। उन्होंने कहानियाँ, लेख, टिप्पणियाँ, कविताएँ और ढेरों पत्र लिखे हैं। अपने पिता सीताराम सेकसरिया की आजादी की लड़ाई के दिनों की डायरियों का ‘एक कार्यकर्त्ता की डायरी’ (ज्ञानपीठ से प्रकाशित) शीर्षक से संपादन किया है। सीताराम सेकसरिया का जीवन महात्मा गाँधी, रवीन्द्र नाथ ठाकुर, सुभाष चंद्र बोस, काका कालेलकर, मैथिलीशरण गुप्त, महादेवी वर्मा, रायकृष्ण दास, भागीरथ कनोडिया जैसे व्यक्तियों से जुड़ा रहा है।



16, लॉर्ड सिन्हा रोड। अशोक जी का निवास स्थान। बाईं तरफ अशोक जी के पुराने मित्र रमेश गोस्वामी हैं। बीच में शर्मिला वोहरा जालान और दाईं तरफ खुद अशोक सेकसरिया जी।


दक्षिण कोलकाता के पॉश इलाके, 16 लॉर्ड सिन्हा रोड के जिस मकान में उनका निवास स्थान था, वहाँ मेरा अक्सर जाना होता था। उनके कमरे में आँखों को चुभने वाली सम्पन्नता नहीं थी। बल्कि आत्मीयता और सादगी थी। वे मुक्त मन से सोचते हुए, भावों से भरे हुए बातें करते थे। उनके पास आने वाले लोगों में वे लोग अधिक थे जो मुख्य धारा के जीवन के दबाव से क्लांत थे। अशोक जी गए तो वह अड्डा भी छूट गया जो जमता था। पर जो बीत जाता है वह, पूरी तरह नहीं बीतता , स्मृतियों में बना रहता है।


पिछले वर्ष श्री संजय भारती ने काँचड़ापाड़ा में 29 नवंबर को अपने मकान- ‘अशोकायातन’ में उसी भाव के साथ अड्डे का आयोजन किया जो पुराने दिनों में ले गया।


अशोक जी को याद करती हूँ तो रोज की वे बातें याद आती है जिनके अर्थ बहुत गहरे थे।


उनका दैनिक जीवन बहुत साधारण था। जाने कितनी किताबें उनके कहने पर पढ़ी गईं। कितने लोगों से अशोक जी के प्रसंग से मिलना हुआ और अनुभव संसार बड़ा होता रहा।





कभी–कभी याद आता है कि वे कहा करते थे, ‘बातों का कोई अंत नहीं। उनमें से इतने तार निकलते हैं कि हैरत होती है और उन्हें लिखने की प्रबल इच्छा होती है, फिर लिखना असंभव जान पड़ता है और फिर एक हाड़ तोड़ने वाली थकान या थकावट महसूस होती है।’ कभी-कभी यह भी कहते थे कि ‘आदमी जानता है कि लिख कर क्या होगा! कौन उसे समझेगा और उसको मूल्य देगा।’ वे एक साथ चकित भी थे तो उदास भी।


मैं यह देखती थी कि उनकी तबीयत एक डेढ़ महीने से लगातार खराब चल रही होती थी। बीच-बीच में बुखार आता-जाता रहता था। अंत में मालिगनेंट मलेरिया निकलता। मौसम पर भी उन दिनों उदासी छाई हुई थी। इतनी उमस और साथ में अशोक जी का यह कहना, ‘कुछ नहीं रखा जीवन में।’ सितंबर 1998 में वे अस्पताल में भर्ती हुए। उनके चालीस वर्ष पुराने मित्र प्रबोध जी ने मुझे पत्र लिखा—‘तुम्हारे पत्रों से यह पता चल रहा है कि पूरे सितंबर महीने अशोक की तबीयत ठीक नहीं रही।’ प्रबोध जी क्षुब्ध हो कर लिखते कि ‘वह चाहते हैं कि मैं और रमेश गोस्वामी वहाँ जा कर उनके नर्सिंग होम के अनुभवों की कहानी सुने तो वैसा ही होगा। नवम्बर में हम आएँगे।’




प्रबोध कुमार जी कलकत्ता आना चाहते हैं यह सुनते ही अशोक जी उन्हें तुरंत पत्र लिखते – ‘कोलकाता अभी मुझे मालिगनेंट मलेरिया का महासमुद्र लग रहा है। मलेरिया के 100 मामलों में 40 मालिगनेंट मलेरिया हो गए हैं। मेरा घर भी शायद मालिगनेंट मलेरिया का एक बड़ा आश्रय स्थल बना हुआ है। बालेश्वर को मालिगनेंट हुआ है और भाई के ड्राइवर को भी हुआ। 15 नवंबर तक मालिगनेंट मलेरिया के प्रभाव दूर हो जाने की संभावना है। तुम अगर 15 से पहले आए और खुदा ना खस्ता तुम्हें मालिगनेंट हो जाता है तो मैं अपने मालिगनेंट से तो नहीं मरूँगा पर तुम्हारे मालिगनेंट मलेरिया से मर जाऊँगा। सो तुम 15 के बाद आना।’ अशोक जी के अंदर मनमरापन हमेशा रहता था। ऐसा लगता है कि उन्हें यह अच्छा नहीं लगता था कि वे स्वस्थ हैं।


एक दिन जब मैं उनसे से मिलने गई रास्ते में सोच रही थी कि अशोक जी या तो ‘सामयिक वार्ता’ के लिए कोई अनुवाद कर रहे होंगे या रिजेंट के पैकेट से सिगरेट निकाल कर पी रहे होंगे पर वे माथे पर मसनद की खोली बांधे सोए हुए मिले। पता चला दो दिन पहले ईडन गार्डन मैच देखने गए थे। वहाँ से आने के बाद उनकी तबीयत खराब हो गई थी। फिर वे किसी तरह उठे थोड़ी देर बाद जब चाय पीकर फ्रेश हो गए। वैसे अशोक जी कभी-कभी यह कहते थे कि सिगरेट पीना उन्हें अखरने लगा है। पर ऐसा भी था कि वे अगर सिगरेट पीना छोड़ देते तो उनका लिखना, पढना, सोचना उसी अनुपात में कम हो जाता और उनका बहुत समय सिगरेट पीने के लिए बहाने ढूँढने में खर्च हो जाता।





वर्ष 2000 में अशोक जी की बड़ी बहन पन्ना बाई नहीं रहीं। इतना शारीरिक कष्ट पा रही थी। बहन के जाने के बाद अशोक जी के गंदे नाखून अब कौन काटेगा यह चिंता मुझे सताने लगी और हर रविवार को देवकी नंदन खत्री, किशोरी लाल गोस्वामी के उपन्यास उठाएं अशोक जी कहाँ जाएँगे! 


प्रभाकर श्रोत्रिय जी ने वागर्थ पत्रिका मे मेरी एक कहानी शीर्षक– ‘तलाश’ ‘नई कलम’ कॉलम में प्रकाशित की। प्रकाशित होने के बाद मेरे पास लंबे-लंबे पत्र और पोस्टकार्ड आने लगे। मैं उन पत्रों को अशोक जी को पढ़ाती। अशोक जी ढेरों पत्र लिखते थे। उनकी सूक्ष्म दृष्टि थी। मेरे पत्र पढ़ कर वे कहते-जवाब दो। निर्मल वर्मा को याद करते, कहते- निर्मल जी पत्रों के जवाब गंभीरता से देते थे।


अपने निवास स्थान पर पुराने मित्र प्रबोध श्रीवास्तव के पुत्र अर्जुन के साथ अशोक जी


अशोक जी के पास उनके मित्रों के बहुत पत्र आते थे। कुछ मैं भी पढ़ लेती थी। शायद वर्ष 1999  में रमेश चंद्र शाह का एक पत्र वे पढ़ रहे थे और शुरू की दो-तीन पंक्तियों को पढ़ नहीं पा रहे थे। शाह साहब की लिखावट महीन थी। उन्होंने मुझे पढ़ने के लिए दिए। पत्र में शाह जी ने लिखा था- ‘जीवन में बस यही दो इच्छा रह गई है - एक कयामत तक आपसे पत्र व्यवहार करता रहूँ, दूसरी आपके साथ अल्मोड़ा की सैर करने की।’


वे अक्सर हावड़ा स्टेशन जाते रहते थे। कोई आने वाला है, तो किसी को छोड़ने के लिए। उनके घर में कोई ना कोई आगंतुक ठहरा हुआ रहता। कला और साहित्य जगत के कई लोग जो उनके पुराने मित्र होते, उनके यहाँ आते रहते और कई बार वही टिक जाते थे। वे लोग उनसे रात भर बतियाते। उनके यहाँ आए हुए लोगों से हुई भेंटों और मुलाकातों से साहित्य पढ़ने का बार-बार मन करता। अशोक जी की बातें उकसाती रहती थी लिखने-पढ़ने के लिए।


उन दिनों अशोक जी महेंद्र भल्ला के उपन्यास की बात करते थे – ‘उड़ने से पेशतर’, ‘दूसरी तरफ’, ‘दो देश और तीसरी उदासी’। भारतीय भाषा परिषद के भागीरथ कनोडिया ग्रंथालय से वे सभी उपन्यास लेने गई पर मुझे नहीं मिले। फिर बाद में वह उपन्यास उपलब्ध हुआ। अशोक जी के प्रसंग से ही महेंद्र भल्ला के उपन्यासों को पढ़ना हुआ और पत्र लिखना भी। महेंद्र भल्ला ने पत्रों का जवाब भी दिया। परिषद के पुस्तकालय से मैंने लेव टॉलस्टॉय का उपन्यास ‘पुनरुत्थान भीष्म साहनी का अनुवाद लिया और पढ़ा।


एक बार मैंने शबाना आजमी की फिल ‘फायर’ देख उन्हें कहा- शबाना मुझे अच्छी लगती हैं। अशोक जी कुछ देर फिल्म पर मेरी राय सुनते रहे फिर बोले – शबाना आज़मी और नंदिता दास ‘टाइप’ हो गईं हैं।


1999 के अक्टूबर महीने में भारतीय भाषा परिषद में दो दिन का कबीर महोत्सव हुआ। भव्य आयोजन। फूलों, अगरबत्तियों की सुगंध से गमकता परिषद। परिषद से आने के बाद मैंने अशोक जी को वहाँ के कार्यक्रम के बारे में उत्साह से बताया। उनसे साझा करने का उत्साह हमेशा बना रहता था। उनमें अदम्य जिज्ञासा थी। वे बहुत सी बातें अपनी तरफ से जोड़ते थे।





मैं अक्सर सब्जी, फल और घरेलू सामान के लिए अपनी माँ के साथ भवानीपुर में स्थित जग्गू बाजार जाती थी तो एक दिन अशोक जी ने पूछा, यदु बाबू बाजार के बारे में कुछ जानती हो? मैं कुछ दिनों के बाद उनके पास सारी जानकारी ले कर गयी। मैंने उन्हें बताया, यह जग्गू बाजार रानी रासमणि के पोते के नाम पर है। रानी कोई उपाधि नहीं है। प्यार से रखा डाक नाम है जो उनकी मां ने दिया था। रानी रासमणि बहुत सुंदर थी। जिसने एक गरीब किसान के घर (1793-1861) में जन्म लिया था और धनी समृद्ध राजचंद्र से उनका ब्याह हुआ था। 40 वर्ष की अवस्था में विधवा होने के बाद अपने पति की तरह समाज के लिए कुछ करना चाहा। कलकत्ते से लगभग चार मील दूर गंगा के पूर्वीय तट पर दक्षिणेश्वर में काली मंदिर, काली महादेवी का मंदिर बनवाया। जिसमें पुरोहित का काम स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने किया था। ‘जान बाजार’ ‘रासमणि बाजार’ भी रानी रासमणि ने बनवाया था। मेरी बातें सुन कर वे मुस्कुरा दिए।अशोक जी की मनोवृत्ति ‘खोजी’ थी। वे कभी किसी रास्ते को ले कर, तो कभी किसी व्यक्ति को या किसी मकान में रहने वाले को ले कर, कोई न कोई खोज करते रहते थे। उत्खनन करने वाले आदमी थे। कुछ नई, चमत्कारपूर्ण बातें साझा करते थे और ऐसे प्रश्न करते थे कि श्रोता भी खोज में रुची लेने लगता।


अशोक जी दिल्ली रह चुके थे। वहाँ के लेखकों पत्रकारों को उन्होंने परखा था। कभी-कभी वे कहते थे, जब मैं दिल्ली में अकेला रहता था एक रात कोई मेरे दरवाजे पर थाप दे रहा था। मैं भावुक हो गया। मैंने सोचा मुझे कौन याद करेगा! दरवाजा खोला तो सामने एक कुत्ता था। उस दिन से वह उसे कुत्ते के लिए कभी बिस्किट तो कभी कुछ और खाने के लिए रख देते। बाद में उन्होंने उस पर एक कहानी लिखी- ‘एक था रामू’।


एक बार की बात है अशोक जी के एक मित्र जोगिन दा अपने कुछ बंगाली मित्रों से अशोक जी को मिलवा कर स्वयं दिल्ली चले गए। वे सभी अशोक जी को बहुत मानते थे। अशोक जी ने उनसे यह वादा किया कि उन लोगों को हिंदी सिखाएंगे। हर शनिवार शाम 4:00 बजे कक्षा शुरू होती थी। दो शनिवार को चाय बिस्कुट के साथ हिंदी की शिक्षा शुरु हुई। बातें कम, पढ़ना ज्यादा। अशोक जी ने पहले ही प्रेमचंद की एक कहानी बहुत गंभीरता से पढ़ ली थी। दो शनिवार के बाद हिंदी कक्षा किसी कारणवश स्थगित हो गई। जोगिन दा जब भी आते बहुत सारे लोगों को ले कर आते थे और वे लोग और भी बहुत सारे लोगों से अशोक जी को मिलवाते रहते थे। उनमें से कुछ से मेरा मिलना, बात करना हो जाता था। इस तरह धीरे-धीरे एक ऐसा संसार बना जिसमें मन रमा हुआ था। वर्ष 2000 जनवरी में जोगेन दा अपनी एक मित्र डिंपल को अशोक जी से मिलवाने के लिए ले कर आए। वे तीनों चार घंटे तक बातें करते रहे। डिंपल कह रही थी, सारी गड़बड़ियों की जड़ पितृसत्तात्मक व्यवस्था है। वह यह भी कह रही थी कि विवाह संस्था ही अर्थहीन है। सबसे पाक रिश्ता दोस्ती का है। मित्रता जो एक दूसरे को आगे बढ़ाने में मदद करें, ऊपर उठाएं। विवाह करना यानी उस इंसान को गुलाम करने की कोशिश है जो आपसे बंध गया है।


फिर अशोक जी वर्ष 2000 में किशन पटनायक की उस किताब को ठीक करने में लगे थे जो राजकमल ने उन्हें डमी स्वरूप भेजी थी।


वर्ष 2000 जुलाई की एक शनिवार को मैं अशोक जी के साथ गोर्की सदन में विमल राय की 1944 में बनी फिल्म ‘उदयेरपाथे’ देखने गई थी। उनके साथ वे बंगाली मित्र थे जिनको उन्होंने दो सप्ताह हिंदी पढ़ाई थी।



अशोक जी को याद करते हुए गर्मियों की दुपहरी याद आती है तो शामें भी याद आती हैं। सूर्यास्त याद आता है। वे अक्सर अलग-अलग मन:स्थिति में रहते थे। कई बार उदास और विरक्त होते थे। कई बार गुस्से में रहते थे, कई बार दुखी तो कई बार बहुत उत्साही। उनको अलग-अलग ऋतु में देखने का भी आनंद था। सर्दी में पन्ना बाई की हाथ से बनाई हरे रंग की स्वेटर अक्सर पहने रहते थे। और गर्मियों में बांह वाली बनियान को कभी-कभी भिगो कर पहन लेते थे।





वर्ष 2000 में जब एक दिन मैं अशोक जी के पास गई तो मैंने देखा वे अच्छा कुर्ता पहने बैठे हुए हैं। मैंने कहा-यह तो बहुत अच्छा है, तो वे बोले, ‘ज्योत्सना (मिलन) जी बेकार ले आई।’ वही कुरता पहने वे उस दिन 11:30 बजे प्रयाग शुक्ल से मिलने भारतीय भाषा परिषद के अतिथि गृह में गए। अशोक जी का कहानी संग्रह –‘लेखकी’ उन्हें बिना बताये प्रकाशित हुआ था। पहल अरविन्द मोहन ने की थी, भूमिका प्रयाग शुक्ल ने लिखी थी और दीपचंद जी ने वाग्देवी प्रकाशन से प्रकाशित किया था। प्रयाग जी 'लेखकी' की कुछ कॉपी लेकर आये थे।


अशोक जी बोले, ‘चलो! जल्दी चलो! वह आ गया होगा।’ रास्ते में संजय भारती को प्रयाग जी के लिए मीठा दही लाने दौड़ा दिया। प्रयाग जी को दही बगल में बैठ कर प्रेम से खिलाया कहा ‘और डालो।’ फिर धीरे से प्रयाग जी से पूछा –‘लेखकी’ के लोकार्पण में और कौन-कौन आया था? प्रयाग जी ने कहा , कुंवर नारायण आए थे और बोले –‘अच्छा अशोक जी की पुस्तक है।’



उसी दिन पूरी रात ‘लेखकी’ की सभी कहानियां पढने के बाद अशोक जी बोले- ‘मुझे शर्म से गड़ जाना चाहिए।’ मैंने भी ‘लेखकी’ पढ़ ली। मुझे वह संग्रह एक उपन्यास की तरह लगा। इतनी परिपक्व कहानियाँ 25 से 30 वर्ष की उम्र में अशोक जी लिख रहे थे। कुछ कहानियां बाद के वर्षों की भी हैं। सभी कहानी के एक-एक शब्द सोचे-समझे हुए। इतना सधे हुए वाक्य! कहीं पर भी वाक्य ढीले नहीं पड़े। अच्छी कहानियां। बहुत अच्छी। अशोक जी का लेखन मुख्य धारा के समानांतर एक ऐसी रचनात्मक धारा का लेखन है जो हमें रचनात्मक जीवन से जोड़ता है।


अशोक जी अक्सर मुसलमानों के बारे में, पाकिस्तान, कश्मीर, बांग्लादेश के बारे में सद्भाव से सोचते रहते थे।


पिछले 10 वर्षों में अशोक जी के बारे में कई तरह से सोचा है। उन्होंने जो जीवन जिया, जो उन्होंने चुना उसके प्रति समर्पित थे। उन में निष्ठा और गहरा धीरज था। वे बहुत सरल मन थे। किसी से बात करते हुए यदि उन्हें लगता कोई आहत हो गया है तो बार-बार उससे माफी मांगते थे।


अशोक जी की यादों का जीवन बहुत बड़ा है। उन्होंने जो वृक्ष लगाया था उसके कुछ पत्ते हैं हम।



शर्मिला वोहरा जालान 



सम्पर्क

 

ई मेल : sharmilajalan@gmail.com

Kolkatta

टिप्पणियाँ

  1. इस बहाने आज फिर सेकसारिया जी को याद कर लिया। मेरी एक संक्षिप्त मुलाक़ात थी। आपसे बहुत कुछ जानने को मिला

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