रवि नन्दन सिंह का आलेख "भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ" पर एक त्वरित प्रतिक्रिया

 

रवि नन्दन सिंह 


सम्पूर्ण भारतीय साहित्यिक वांगमय में भक्ति साहित्य पर जितना वाद विवाद हुआ है उतना शायद किसी अन्य साहित्य पर नहीं हुआ होगा। आज भी इस पर बहस मुबाहिसा जारी है। खैर वाद विवाद की कड़ी संवाद से पूरी होती है। हम चाहते हैं कि इस विषय पर सुधी विद्वत जन अपनी बात तार्किक ढंग से प्रस्तुत करें। "भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ" शीर्षक से कँवल भारती का एक चर्चित व्याख्यान पिछले दिनों 'पहली बार' पर प्रकाशित किया गया था। कँवल भारती के "भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ" व्याख्यान पर कवि आलोचक रवि नन्दन सिंह ने तर्कों के साथ एक त्वरित प्रतिक्रिया व्यक्त की है। आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं रवि नन्दन सिंह का आलेख "मीर के दीनों मज़हब को पूछते क्या हो?"


अनहद के संपादक भाई सन्तोष चतुर्वेदी ने अपने ब्लॉग पहली बार पर कंवल भारती का एक आलेख “भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ“ लगाया है। कल रात में उस पर मेरी नज़र पड़ी। उस आलेख में कंवल भारती ने अपने खास अंदाज़ में भक्तिकाल का पुनर्पाठ और उसकी व्याख्या प्रस्तुत की है। पूरा आलेख पूर्वाग्रही मानसिकता से लैस है तथा अप्रमाणित तथ्यों पर आधारित है। कचहरिया वकालत की तरह उनका निष्कर्ष पहले से तय है। तर्क की कसौटी पर यह लेख कहीं ठहर नहीं पाता। यही नहीं लेखक का इतिहासबोध भी संकीर्ण है। निर्गुण और सगुण की उनकी व्याख्या तो अत्यंत हास्यास्पद है। उसी लेख पर मेरी त्वरित प्रतिक्रिया निम्नलिखित है।

रवि नन्दन सिंह 



'मीर के दीनों मज़हब को पूछते क्या हो?'


रवि नन्दन सिंह 

       

सबसे पहले इतिहासबोध की बात करते हैं। दरअसल इतिहास रेत पर खींची एक लकीर है जिसकी व्याख्या अलग अलग ढंग से की जा सकती है। कुछ लोग उस लकीर को सांप समझ कर उसे अब भी पीट रहे हैं। कोई लाठी से तो कोई डंडे से। पीटते पीटते सब लकीर के फकीर बन जाते हैं। जबकि इतिहास विवेक की अपेक्षा करता है। उसका आधार है तथ्य, प्रमाण और व्याख्या का सद्विवेक। किंतु अक्सर इसकी कमी दिखाई पड़ती है। 

           

धर्म की अवधारणा के संबंध में कँवल भारती की यह टिप्पणी देखिए- “इतिहास के साथ इन आलोचकों का वैसा ही वैर दिखाई देता है, जैसा विज्ञान के साथ धर्म का है।" यहां धर्म का आशय कंवल जी क्या लेते हैं, वही जाने। शायद धर्म का उनका आशय वही है जो सामान्य लोग समझते हैं। धर्म को समझने में बड़े बड़े विद्वान् चूक जाते हैं और धर्म को पंथ समझ कर उसकी व्याख्या करते हैं। इसी कारण उन्हें धर्म और विज्ञान में विरोधाभास दिखाई पड़ता है जबकि धर्म और विज्ञान में कोई अंतर्विरोध नहीं है। इसे समझने के लिए धर्म के सही अभिप्राय को समझना जरूरी है। 

           

सामान्य आदमी के लिए धर्म का आशय है - हिंदू, इस्लाम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन धर्म आदि। धर्म शब्द का उच्चारण करते ही सामान्य आदमी यह आशय निकालता है कि इसमें जरूर किसी पूजास्थल या किसी धर्मग्रंथ की बात होगी, किसी धार्मिक व्यक्ति जैसे पुरोहित, मौलवी, ग्रंथी, पादरी की बात होगी अथवा किसी कर्मकांड की बात होगी। किंतु ये सब धर्म के अनिवार्य अंग नहीं हैं। धर्म का इन चीजों से कोई लेना देना नहीं हैं। ये सभी पंथ (sect) का हिस्सा मात्र हैं।  धर्म (दीन) और पंथ (मज़हब) में एक बड़ा अंतर यह है कि धर्म स्वाभाविक और स्वतःस्फूर्त है जबकि पंथ मानव मस्तिष्क की उपज है। यहां धर्म को ठहर कर समझने की जरूरत है। आइए इसे विस्तार से समझते हैं।

        

धर्म वे आन्तरिक संस्कार हैं जो व्यक्ति और समाज का आधार बनते हैं, उसे धारण करते हैं। इन संस्कारों के कारण ही कोई व्यक्ति या समाज ऊंचा उठता है, अनुकरणीय बनता है। प्राच्य हों या पाश्चात्य हों, सभी शास्त्रों एवं मजहबों में इन संस्कारों या प्रवृत्तियों का उल्लेख अक्सर मिलता है। अपने दूसरे स्तंभ लेख में सम्राट अशोक स्वयं प्रश्न करते हैं- कियं चु थम्मे अर्थात धम्म क्या है? इसका उत्तर वह दूसरे तथा सातवें स्तंभ लेखों में स्वतः देते हैं और उन गुणों को गिनाते हैं जो धम्म का निर्माण करते हैं। यह इस प्रकार है- "अपासिनवे बहुकयाने दयादाने सचे सोचये मादवे साधवे च." अर्थात धम्म है- अल्पाप, बहुजन का अधिकतम कल्याण, दया-दान, सत्यवादिता, मृदुता, और साधुता। इन गुणों को व्यवहार में लाने के लिए सातवें स्तंभ लेख में सम्राट अशोक ने निम्नलिखित बातें बतायी है- "प्राणियों का वध न करना, प्राणियों को क्षति न पहुँचाना, माता-पिता तथा बड़ों की सेवा करना, गुरुजनों, वृद्धों की सेवा व सम्मान करना, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मण तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा अच्छा व्यवहार, दासों तथा भृत्यों के प्रति अच्छा बर्ताव करना, अल्प व्यय, और अल्प संचय. ये धम्म के विधायक पक्ष हैं। इसके अतिरिक्त धम्म का एक निषेधात्मक अन्तर्गत कुछ दुर्गुणों (आसिनव) से बचने की सलाह दी गई है।

       

इसी तरह मनुस्मृति में जो धर्म की दस प्रवृत्तियां दीं गईं हैं, वे गौर करने लायक हैं-धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचं इन्द्रियनिग्रहः । धीर्विद्या सत्यं अक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम् ।।

  

अर्थात धर्म के ये दस लक्षण हैं - 1.धैर्य का परिचय देना, 2.क्षमा करने की प्रवृत्ति रखना, 3.मन को अनुशासन में रखना, 4.चोरी न करना, 5.शुचिता या पवित्रता रखना, 6.इंद्रियों को वश में रखना, 7.सद्बुद्धि रखना, 8.सद् विद्या प्राप्त करना, 9.सत्य का आचरण करना, 10.क्रोध न करना। किंतु मनुस्मृति के प्रति लोगों का ऐसा पूर्वाग्रह बन चुका है कि बिना पढ़े उसकी हर बात को खारिज कर दिया जाता है और उसे एक अनर्गल किताब मान लिया जाता है।                


अशोक और मनुस्मृति के उपरोक्त लक्षणों का परीक्षण एवं विश्लेषण करने से स्पष्ट होता है कि ये लक्षण अच्छे मनुष्य होने के लक्षण हैं। ये सद्गुण हैं जो किसी पंथ या मज़हब विशेष तक सीमित नहीं वरन संपूर्ण मानवता के लिए हैं। दुनिया का हर धर्म इन्हीं आधारों पर टिका है। बिना इन प्रवृत्तियों के किसी दीन या धर्म की कामना नहीं की जा सकतीं। इन मानवीय प्रवृत्तियों का सूत्रपात किसी व्यक्ति ने नहीं किया है बल्कि स्वयं मनुष्यता ने इसका विकास किया है। अतः इन्हें सनातन कहा गया है। इन्हीं सनातन तत्त्वों या प्रवित्तियों को समाहित करते हुए, अपने अपने निहित स्वार्थों एवं परिस्थितियों के आधार पर दुनिया के विभिन्न पंथों का जन्म हुआ। सभी पंथों के आधारभूत मूल्य यही सनातन प्रवृत्तियां हैं किन्तु पंथों का ऊपरी ढाँचा अलग अलग है। इसी ऊपरी ढांचे पर पूजास्थल हैं, धर्मग्रंथ हैं, मूल्ला, पंडित, पादरी आदि विभेदकारी शक्तियां हैं। इसी ऊपरी ढांचे पर सारी लड़ाइयां है। संतो -भक्तों ने इस ऊपरी ढांचे को कभी महत्त्व नहीं दिया, बल्कि ठुकराने की बात करते हैं। 

         

संतों, फकीरों, कवियों, शायरों ने पंथों के ऊपरी आवरण को हमेशा त्याज्य माना और धर्म की मूल, सनातन प्रवृत्तियों को ग्राह्य माना है। यही आंतरिक प्रवृत्तियां मनुष्य को मनुष्य बनाती हैं जबकि बाहरी चीजे लड़ाती हैं। इसीलिए तुलसी कवितावली में कहते हैं कि वे मस्जिद में भी सो सकते हैं- "मांगि के खैबो, मसीत को सोइबो,  लैबो को एक न दैबे को दोऊ॥" मीर भी धर्म के बाहरी ढांचे को गैर महत्त्वपूर्ण मानते हुए कहते हैं कि -


 "मीर के दीनों मज़हब को पूछते क्या हो उनने तो

 कश्का खींचा दैर में बैठा कब का तर्क इस्लाम किया"

(कश्का - तिलक, दैर - मंदिर)


अकबर इलाहाबादी तो धर्म के बाहरी ढांचे पर खुलकर व्यंग्य करते हैं -


         "मजहबी बहस मैने की ही नहीं

          फालतू अक्ल मुझमें थी ही नहीं" 


अकबर यहीं नहीं रुकते बल्कि इस बाहरी ढांचे को पेशा करार देते हैं -


    "शेख अपनी रग को क्या करे रेशे को क्या करे

     मजहब के झगड़े छोड़ दे तो पेशे को क्या करे"


कबीर ने तो हिंदू और इस्लाम मजहबों पर ऐसे अनेक प्रहार  किए है।

      

इस आलोक में देखें तो धर्म मनुष्य के सद्गुणों का समुच्चय है, मनुष्य होने की निशानी है, मनुष्यता की कसौटी है। अतः धर्म और विज्ञान में कोई अंतर्विरोध नहीं है। कँवल भारती जैसे लोग धर्म को सीमित अर्ध में ही देखने के आग्रही हैं और इस आग्रह को मिटाया नहीं जा सकता।

         

इसी तरह कँवल भारती भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ करते-करते मीराबाई  के बारे में मनगढ़ंत टिप्पणी करते हैं जिसका कोई प्रामाणिक आधार उनके पास नहीं है। पहले उनकी टिप्पणी देखिए-"इसलिए उन्होंने विधवा मीरा बाई की गोद में कृष्ण की मूर्ति बैठा कर चैन की सांस ली, और इस तथ्य को नज़रंदाज़ कर दिया कि मीरा गिरधर नागर नाम के एक हाड़मांस के जोगी से प्यार करती थी, न कि मुरलीधर कृष्ण से। वह उस जोगी के साथ वैवाहिक जीवन जीना चाहती थी। पर, एक विधवा स्त्री पुनर्विवाह कैसे कर सकती है? इसलिए उसे कृष्ण-दीवानी बना दिया गया।" अब यह इलहाम कँवल जी को कैसे हो गया वही जाने। वह भी बिना किसी आधार या पुष्ट प्रमाण के। मीरा पर लिखी अब तक की सबसे प्रामाणिक किताब जयपुर के डॉ. ब्रजेन्द्र कुमार सिंहल ने लिखी है, शीर्षक है - 'मीरांबाई: प्रामाणिक जीवनी और मूल पदावली’। यह किताब अत्यंत खोजपूर्ण सामग्री से भरी हुई है जिसमें राजस्थान की अनेक 'ख्यातों’, वहां के लोक साहित्य और मीरा पर लिखी अब तक की सभी महत्वपूर्ण पुस्तकों से बड़ी संख्या में संदर्भ उसमें भरे पड़े हैं। आज मेरी इस संबंध में सिंघल से भी बात हुई। किंतु उन्होंने भी कँवल भारती के उक्त मंतव्य को मनगढ़ंत बताया। किसी स्त्री का अपने इष्ट के प्रति समर्पण को समझने में इतना संशय क्यों? आश्चर्य क्यों है? पूरे विश्व साहित्य से ऐसी भक्त स्त्रियां मिल जाएंगी। 8वीं शताब्दी की सूफी कवयित्री राबिया और 14वीं शताब्दी की अंग्रेजी कवयित्री जूलियन ऑफ नॉर्विज ऐसी ही स्त्रियां हैं। जूलियन की किताब ’रिवीलेशन ऑफ डिवाइन लव’ में उनके ईसा के प्रति प्रेम और समर्पण के गीत हैं। वो तो ईसा के प्रेम में पागल थीं बिल्कुल मीराबाई की तरह। उसकी कविता की तरफ सबसे पहले ध्यान गया टी एस इलियट का जिसने अपनी रचना “Little Gidding“ में नॉर्विज की कुछ पंक्तियों को उद्धृत भी किया है। 

        

मीरा की हर जीवनी यही कहती है कि मीरा सात साल की उम्र से श्रीकृष्ण के प्रति आकर्षित हो गई थीं। उनके पदों में गिरधर नागर का उल्लेख प्रभु के रूप में आता है। मीरा जैसी विद्रोही कवयित्री किसी व्यक्ति को प्रभु नहीं मान सकती। इसके लिए मीरा के विद्रोही व्यक्तित्व को समझना होगा। मीरा का राणा सांगा के  बड़े पुत्र भोजराज के साथ वैवाहिक जीवन अत्यंत सुखमय था। भोजराज की 1526 ई के एक युद्ध में मृत्यु हो जाती है। पति की मृत्यु के बाद मीरा पर सती होने का दबाव डाला जाता है, जबकि राणा सांगा चित्तौड़ के शासक थे और दबाव बनाने में वे भी शामिल हैं। चित्तौड़ की वंश परंपरा में सती होने की परंपरा आम थी। किंतु मीरा सती होने से इंकार कर देती हैं और अपने जीवन का प्रथम विद्रोह करतीं हैं। न सिर्फ व्यक्तिगत रूप से सती होने से मना करतीं हैं वरन सामाजिक रूप से भी सती प्रथा के खिलाफ पहला बिगुल फूंकती हैं। इतिहास में सती प्रथा के विरूद्ध आवाज उठाने वाला यह पहला प्रामाणिक साक्ष्य है। इस नाते मीरा सती प्रथा के खिलाफ सामाजिक प्रतिरोध की प्रथम आवाज हैं। वह खुद तो जागरूक हैं ही, समाज को भी जागरूक करती हैं।




          

भोजराज की मृत्यु के दो वर्ष बाद 1528 ई में राणा सांगा भी दुनिया छोड़ जाते हैं और उनके दूसरे पुत्र रतन सिंह (द्वितीय) राजा बनाए जाते हैं। केवल तीन वर्ष के शासन के बाद ही 1531 में उनकी मृत्यु हो जाती है और राणा सांगा के दूसरे अल्प वयस्क पुत्र विक्रमादित्य राजा बनते है। इस दौर में विक्रमादित्य की मां अर्थात राणा सांगा की विधवा रानी कर्णावती शासक का संरक्षक बनती हैं जो स्वयं रणथंभोर के चौहान वंश से आती थीं। इस समय दरबार में दो राजनीतिक गुट बनते हैं, राठौरों का, जिसका केंद्र मीरा थीं और दूसरा चौहानों का, जिसका केंद्र कर्णावती थीं। दोनों के बीच खूब खींचतान चलती थी। चूंकि रानी कर्णावती राजा की मां थीं इसलिए उनके गुट की ताकत अधिक थी। इसी दौर में मीरा पर सर्वाधिक बज्रपात हुआ। यही वह समय है जब विष का प्याला भेजा गया, सांप की पिटारी भेजी गईं अर्थात उन्हें मार डालने के लिए कई साधन अपनाए गए। मीरा राजभवन की साजिशों से तंग आ चुकी थीं और अंततः 1532 ई में चित्तौड़ छोड़ देती हैं। यह उनका दूसरा विद्रोह है। मीरा के जाने के बाद चित्तौड़ पर बज्रपात होता है। गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह चित्तौड़ पर आक्रमण करता है और उसे जीत लेता है। इसी समय चित्तौड़ का दूसरा जौहर होता है और रानी कर्णावती किले की समस्त नारियों के साथ अग्नि समाधि ले लेती हैं। इसी समय 1536 ई में राणा सांगा के भाई पृथ्वी सिंह का पुत्र बनवीर विक्रमादित्य की हत्या कर देता है और राजा बन जाता है। वह अल्पवयस्क उदय सिंह की भी हत्या करना चाहता है किंतु उसकी धाय मां पन्ना ने अपने विवेक से उसे बचा लिया। चार साल बाद 1540 में सरदारों ने बनवीर को मार डाला और उदय सिंह को राजगद्दी पर बिठाया। ऐसी किवदंती है की चित्तौड़ पर बज्रपात मीरा के अभिशाप का परिणाम था।

     

कहा जाता है कि मीराबाई जब चित्तौड़ के किले में घुट रहीं थीं तब उन्होने तुलसीदास को भी एक पत्र लिखा था जिसका पाठ इस प्रकार है....।


     "स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई। 

     बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।। 

     घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।

     साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।

     मेरो माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।

     हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।"


इस पर तुलसी ने लिखा कि --


     "जाके प्रिय न राम बैदेही।

     सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेही।।

     नाते सबै राम के मनियत सुहृद सुसेब्य जहाँ लौ।

     अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।"

              

इसके बाद ही मीरा चित्तौड़ छोड़कर 1532 में वृंदावन जाती हैं और दलित संत रैदास को गुरु बना लेती हैं। तत्समय अष्ठछाप के पूज्य विट्ठलनाथ जीवित थे किंतु उन्हें गुरु न मानकर रैदास को गुरु बनाना मीरा का तीसरा समाजिक विद्रोह है। वृंदावन चौहानों के गढ़ रणथंभोर से बहुत दूर नहीं था। अभी चित्तौड़ की गद्दी पर विक्रमादित्य आसीन था। अतः अपने करीबियों से आसन्न खतरे को देखते हुए मीरा गुजरात के मुस्लिम रियासत में जाना ज्यादा सुरक्षित महसूस करतीं हैं और द्वारका चली जाती हैं। 

           

मीरा के जीवन पर उनकी कविता के अतः साक्ष्य और बहिसाक्ष्य चीख चीखकर कहते हैं कि गिरधर नागर प्रभु कृष्ण ही हैं कोई हाड़ मांस का व्यक्ति नहीं। इसके लिए मीरा की पदावली से अनेक संदर्भ दिए जा सकते हैं। किंतु यहां उसके लिए अवकाश नहीं है। मीरा जैसी विद्रोही कवयित्री किसी हाड़ मांस के व्यक्ति को प्रभु नहीं मान सकती, किन्तु कँवल भारती जैसे पूर्वाग्रही मानसिकता का कोई जवाब नहीं।        

        

कर्नाटक की 12वीं शताब्दी की कवयित्री अक्क देवी, जिन्होंने शिव को अपना पति स्वीकार कर लिया था, के बारे में कँवल भारती का बिना किसी संदर्भ के दिया गया एक मनगढ़ंत तर्क देखिए–

        

“धर्म-परायण पत्नी को कोई पति नंगा करके घर से क्यों  निकालेगा? पर अक्क महादेवी को नंगा करके उसके पति ने घर से निकाला। इसलिए निकाला, क्योंकि वह मल्लिकार्जुन नाम के एक युवक से प्यार करती थी। वह जब बुलाता था, तो वह घर के सारे काम छोड़ कर भागी चली जाती थी। यह एक स्त्री का समाज की लीक से हटना था। उसके माता-पिता ने उसका जबरन विवाह किया था। उसकी इच्छा नहीं थी। वह नहीं चाहती थी विवाह करना। उसका प्यार मल्लिकार्जुन के लिए था। मल्लिकार्जुन साहस नहीं दिखा सका। वह उसे छोड़ कर चला गया। अक्क महादेवी ने उसकी खोज में दर-दर की ख़ाक छानी। मीरा का प्रेमी भी लौट कर नहीं आया था।“

           

इस पूर्वाग्रह का क्या किया जाय जो यह स्वीकार ही नहीं करना चाहता कि कोई स्त्री भक्त भी हो सकती और अपने पूर्वाग्रह को सच दिखाने के लिए कुछ भी मनगढ़ंत बात सोच ले। अक्क देवी के लिखे 430 वचनों के अन्तःसाक्ष्य चीख चीखकर बोलते हैं कि वे शिव को ही अपना पति मानती थीं। उनकी हर जीवनी यही कहती है कि तत्कालीन चालुक्य राजा कौशिक को जब पता चला कि अक्क देवी बहुत सुंदर हैं तब उसने उनके परिवार पर विवाह के लिए दबाव बनाया। अक्क देवी के प्रथम मध्यकालीन जीवनीकार हरिहर ने लिखा है कि इस दबाव के कारण अक्क देवी ने राजा के सामने तीन शर्ते रखी थीं जिसमें से एक शर्त थी कि वह उनकी इच्छा के विरुद्ध स्पर्श नहीं करेगा। किंतु एक रात राजा कौशिक अक्क देवी के कमरे में जाकर उन्हें पकड़ लेता है। अक्क देवी उसके चंगुल से निकलकर भाग जाती हैं किंतु उनकी साड़ी राजा के हाथ में रह जाती है। वह अपने बालों का आवरण बना लेती हैं और वहां से शिव के पवित्र स्थान श्री शैलम पहुंच जाती हैं और पूरा जीवन शिव की भक्ति में गुजार देती हैं। 

          

इसी तरह की मनगढ़ंत कहानी कँवल भारती ने 14वीं शताब्दी में कश्मीर की कवयित्री लल्ल देवी (लाल दे) या लल्लेश्वरी के बारे में भी गढ़ी है। पहले उनकी टिप्पणी देखिए - “यही हाल आलोचकों ने कश्मीर की लल्ला के साथ किया। उसने भी समाज से विद्रोह किया था और समाज ने उसे भी नंगा कर के बेईज्ज़त किया था। कोई भी स्त्री अपने से नंगी नहीं होती, उसे समाज नंगा करता है। भक्ति आन्दोलन को फिर से समझना होगा। यह काम नए आलोचकों का है। पुराने आलोचक अपनी पारी पूरी कर चुके हैं। उनसे कोई उम्मीद नहीं है।" 




           

यहां भी वही प्रदूषित पूर्वाग्रही भावना काम कर रही है। लल्लदेवी की जो जीवनी मिलती है उसमें कहीं नहीं मिलता कि समाज ने उन्हें नंगा कर के बेईज्ज़त किया। जो जीवन परिचय मिलता है उसके अनुसार लल्ल देवी का विवाह बारह साल की उम्र में हो गया था। उन्हें वैवाहिक जीवन से विरक्ति थी और उन्होंने चौबीस की उम्र में घर छोड़ दिया था। बाद में शैव साधु सिद्ध श्रीकांत से दीक्षा लेकर शिवभक्ति में डूब गई। अब यहां एक प्रश्न यह है कि उन्हें वैवाहिक जीवन से विरक्ति क्यों हुई? इसी अवकाश का लाभ लेकर, पहले से ही बने बनाए नंगा करने के पूर्वाग्रह के अनुसार लल्ल देवी को भी नंगा करा दिया गया। 

          

उनकी एक और टिप्पणी देखिए-"दूसरी समस्या धर्म की है, जिसने भक्ति आन्दोलन को ज्यादा उलझाया है। धर्म के आधार पर आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन को वेद-उपनिषदों और पुराणों के वैष्णववाद से जोड़ने का काम किया, जो उसका गलत पाठ है।" तो प्रश्न खड़ा होता है कि भक्ति आंदोलन की सांस्कृतिक जड़ें कहा थीं? उसका सही पाठ क्या है? उत्तर में राम-कृष्ण और दक्षिण में शिव-विष्णु अचानक कहां से आ गए? इस पर कँवल भारती कुछ नहीं कहते। ग्रियर्सन के ’अचानक बिजली की चमक के समान फैल जाना’ का खंडन करते हुए हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि ’वह ऐसा नहीं है। उसके लिए सैकड़ों वर्ष से मेघखंड एकत्र हो रहे थे।’ वे जोर देकर कहते हैं कि ’भक्ति आंदोलन भारतीय चिंतनधारा का स्वाभाविक विकास है।’ इसे अलग से सिद्ध करने की आवश्यकता नहीं है क्योंकि हर काव्य आंदोलन की सांस्कृतिक जड़ें कहीं न कहीं पीछे अवश्य जाती हैं।

        

आगे कँवल भारती की एक और टिप्पणी देखिए- "भागवत पुराण की रचना मुस्लिम सल्तनत काल में हुई थी, इसके आधार पर कुछ आलोचकों ने विधर्मी का अर्थ मुसलमान किया है। इस वैष्णव-भक्ति के बारे में यह प्रचारित किया गया कि इसे दक्षिण से स्वामी रामानंद लाए, और कबीर ने स्थापित किया। —भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लाए रामानंद। प्रगट करी कबीर ने नवदीप सत खंड।’  लेकिन भागवत में न रामानंद का उल्लेख मिलता है, और न कबीर का। मतलब साफ़ है कि यह प्रचार केवल कबीर को वैष्णव-भक्ति में रंगने के उद्देश्य से किया गया।"     

         

अब कँवल भारती को भागवत पुराण में रामानंद और कबीर को खोजने की आवश्यकता क्यों पड़ी वही जाने। वैसे अधिकांश विद्वान् यही मानते हैं कि भागवत पुराण की रचना 500 ई से 1000 ई के बीच हुई। अभिनव गुप्त (950-1016 ई) तथा अलबरूनी (973-1050 ई) दोनों ने भागवत पुराण का उल्लेख किया है। इसका अर्थ है कि भागवत पुराण 1000 ई के पहले लिखा जा चुका था जबकि दिल्ली सल्तनत की स्थापना उसके लगभग दो सौ साल बाद 1206 ई से मानी जाती है जब ऐबक दिल्ली की गद्दी पर बैठा। स्पष्ट है कि इस पुराण की रचना मुस्लिम सल्तनत की स्थापना के पूर्व हो चुकी थी। 

         

उनकी एक और टिप्पणी -"इस तरह सगुण धारा में दो धाराएं बनाई गईं—एक राम-भक्ति की और दूसरी कृष्ण भक्ति की। लेकिन कोई भी धारा एक-दो कवियों से नहीं बनती। कोई धारा कायम करने के लिए कम से कम चालीस-पचास कवि चाहिए। राम भक्ति में हमें तुलसी के सिवा कोई दूसरा कवि नहीं मिलता।  फिर राम भक्ति की धारा कहाँ बनी? लेकिन आलोचकों ने जबरन रामभक्ति की धारा बहाने का प्रयास किया।" 

          

अब यह तर्क समझ में नहीं आता कि कोई धारा कायम करने के लिए कम से कम चालीस-पचास कवि चाहिए। चालीस-पचास की अनिवार्यता क्यों है? समझ में नहीं आता। अंग्रेजी साहित्य में ’नियो क्लासिकल मूवमेंट’ केवल तीन लोगों - ड्राइडन, अलेक्जेंडर पोप तथा सैमुअल जॉनसन से ही शुरू हो गया। ’रोमांटिक मूवमेंट’ में कुल छह लोगों का योगदान है। ’इमेजिज्म’ का मूवमेंट केवल दो लोगों (टी ई ह्यूम तथा एजरा पाउंड) से ही माना जाता है। ’वर्टिसिज्म मूवमेंट’ केवल एक व्यक्ति ने शुरू किया, विंडम लेविस ने। हिंदी में प्रगतिवाद नामक आंदोलन में कुल मिलाकर 10-12 कवि हैं। ऐसे में रामभक्ति आंदोलन के लिए कम से कम चालीस-पचास कवि क्यों चाहिए? क्या रामानंद, ईश्वरदास, तुलसीदास, केशवदास, अग्रदास, नाभदास, प्राणचंद चौहान, माधवदास, लालदास, हृदयदास आदि नाम रामभक्ति आंदोलन के लिए कम हैं क्या?

            

अब  कँवल भारती की एक और विद्वत्तापूर्ण टिप्पणी देखिए -"निर्गुण धारा अवैदिक और  भौतिकवादी है,  जो  चार्वाक, आजीवक और बुद्ध-परम्परा में, सिद्धों, नाथों से होती हुई निर्गुणवाद में प्रवाहित हुई थी। हिन्दू आलोचकों ने निर्गुण धारा को ठिकाने लगाने के लिए उसे वेदान्त से जोड़ने का प्रयास किया। ..निर्गुणवाद न वेदों से आया और न वेदान्त से। वेदों में बहुदेववाद है और वेदांत में ब्रह्मवाद; और दोनों का कोई सम्बन्ध निर्गुणवाद से नहीं है।" आश्चर्य की बात है कि निर्गुण अवैदिक है। शायद कँवल भारती को ऋग्वेद के दसवें मंडल में नासदीय सूक्त का ज्ञान नहीं है जहां सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व सत और असत दोनों सत्ताओं के अभाव और एक निर्गुण, निराकार सत्ता के अस्तित्व की बात की गई है। निर्गुण का वैचारिक विमर्श यहीं से उत्पन्न होता है। निर्गुण की सत्ता का आदि स्रोत यही नासदीय सूक्त है। इसी के आधार पर श्वेताश्वर उपनिषद् में एकेश्वरवाद और निर्गुण ब्रह्म का विस्तार से उल्लेख मिलता है। चार्वाक, आजीविक और बौद्ध मत अचानक नहीं पैदा हुए। कोई भी वैचारिक आंदोलन अचानक नहीं पैदा होता। प्रत्ययवाद और पदार्थवाद दोनों की जड़ें ऋग्वेद में विद्यमान हैं। 

         

बड़े भाई की एक और टिप्पणी देखिए- "वेदान्त में एक ईश्वर की धारणा हो सकती है, पर वह जगत को मिथ्या मानता है। ‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’ शंकराचार्य ने भी कहा है और उनके दादा गुरु गौडपाद ने भी। किन्तु ऐसी कोई अवधारणा निर्गुणवाद में नहीं है। निर्गुणवाद लोक में विश्वास करता है, और परलोक का खंडन करता है।" अब इस तर्क का क्या उत्तर दिया जा सकता है। केवल कबीर को ही ले लिया जाय तो उनके बीजक में अनेक स्थानों पर संसार को माया कहा गया है, रैन का सपना कहा गया है, पानी का बुलबुला कहा गया है। चाहे निर्गुण हो या सगुण सभी संसार को माया ही मानते हैं। 

           

कँवल भारती की एक और टिप्पणी लीजिए -"इस क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण पहलु यह भी है कि किसी भी स्त्री-शूद्र संत ने ब्राह्मण को अपना गुरु नहीं बनाया। उन्होंने निम्न जातियों के संतों को अपना गुरु बनाया, क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मण ही उनकी स्वतन्त्रता का शत्रु है, उनका दमनकर्ता है।" अगर ऐसी बात थी तो रामानंद की दो स्त्री शिष्याएं सुरसरी और पद्मावती का उल्लेख नहीं मिलता।

                 

इसी तरह पांचवीं सदी की नयनार स्त्री संतों में करेकक्ल अम्मायर का उल्लेख करते हुए कँवल भारती उनकी एक कविता की कुछ पंक्तियों का उल्लेख करते हैं—


"उसके स्तन सिकुड़े हुए हैं

और नसें उभरी हुई हैं, 

सफ़ेद दांतों की जगह खाली गुहाएँ हैं। 

पेट पर सुर्ख बालों के साथ  

नुकीले दांतों की एक जोड़ी,

गांठदार टखने और लम्बी पिंडलियों के साथ 

एक भूतनी उजाड़ शमशान में विलाप करती है, 

जहाँ हमारे भगवान के लटकते उलझे बाल आठों दिशाओं में उड़ते हैं, 

जब वह आग की लपटों के बीच नृत्य करते हैं और अपने अंगों को ताज़ा करते हैं। "

         

इस कविता पर कँवल भारती की टिप्पणी देखिए- “यह कविता कुछ और ही कहानी कहती है। इस कविता में करिक्कल अम्मायर की देह के कंकाल में बदलने का चित्रण है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे जबरन भूतनी या चुड़ैल घोषित करके, श्मशान भूमि में छोड़ दिया गया हो, जहाँ वह बूढ़ी होने तक रही। कोई देवता किसी को न भूतनी बनाता है, और न किसी के शरीर को कंकाल में बदलता है।" अब कविता को समझने के लिए इस तरह से कयास लगाए जाएंगे तो उत्तर आधुनिक विचारक रोलैंड बार्थ की वह बात याद आती है जब वह कहता है कि लेखक मर चुका है। उसने कहा कि कृति' नहीं 'पाठ' महत्वपूर्ण है। अब लेखक की कोई आवश्यकता नहीं है, हमारे पास उसका पाठ' है और उस पाठ पर लेखक के स्टाम्प की कोई जरूरत नहीं है। इस बात को जानने के लिए अब हमें परेशान नहीं होना चाहिए कि उपलब्ध पाठ' का लेखक कौन है। अब हमें केवल पाठ से मतलव होना चाहिए न कि लेखक से। इस प्रकार उसने 'कृति' के बजाय 'पाठ' को केंद्र में रखने का कार्य किया और लेखक की मृत्यु की घोषणा कर दी। उसके अनुसार अब लेखक का कोई अस्तित्व ही नहीं है। अस्तित्व है तो केवल पाठ का, उसके शब्दों का और उसके विन्यास का। आगे उसने यह भी कहा कि पाठ' का अर्थ जड़वत नहीं होता है वरन् सदैव प्रवाहपूर्ण है। 

       

रोलैंड बार्थ आगे कहता है कि हर पाठ एक नया अर्थ खोल सकता है और यह अर्थ पाठक के कोण पर निर्भर करता है न कि लेखक के आशय पर। इसी आधार पर कँवल भारती अब संत कवयित्रियों को अपने कचहरिया मंतव्य के साथ नंगा करने पर तुले हुए हैं तो उनका भक्ति साहित्य का पुनर्पाठ उन्हें ही मुबारक हो। मेरा मानना है कि इतिहास का मूल्यांकन प्रामाणिकता पर आधारित होना चाहिए और साहित्य का मूल्यांकन आलोचक और व्याख्याकार के सद्विवेक पर। किंतु प्रामाणिकता और सद्विवेक का अभाव अक्सर दिखाई देता है।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 9454257709


टिप्पणियाँ

  1. भक्ति साहित्य के पुनर्पाठ के जाये कँवल भारती ने जो कुछ कहा है उसे जान कर उनकी कचहरिया बुद्धि का प्रमाण आपने तर्क संगत ढंग से दिया है। पूर्वाग्रह और हीनता ग्रंथी के चलते ऐसी ऊंटपटांग और आधारहीन बातें कही जाती हैं जैसी कंवल भारती महाशय ने कही है। धर्म और पंथ के बुनियादी अंतर को जानना जरूरी है, जिन्हें दीन और मज़हब का फर्क नहीं मालूम उनसे भक्ति साहित्य के पुनर्पाठ की आशा करना फिजूल है।
    मनगढ़न्त बकवास पुनर्पाठ नहीं है। इतिहास के सत्य की अनदेखी करके, भक्तिकाल या किसी भी काल के साहित्य का पुनर्पाठ संभव ही नहीं नामुमकिन है ।
    इस आलेख के लिए आपको बहुत बहुत बधाई

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  2. कृपया पहली पंक्ति में आये शब्द 'जाये' की जगह जरिए पढ़े। टाइपोग्रफिक एरर के चलते गलत शब्द आ गया है ।

    जवाब देंहटाएं

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