प्रज्ञा पाण्डेय का उपन्यास अंश ‘पंख से छूटा’
मानव ने सामाजिकता को स्थापित करने के क्रम में कुछ ऐसी संस्थाएँ निर्मित की जिससे एक व्यवस्था बनी रहे। विवाह ऐसी ही संस्था है जिसको युवा मन आज भी समय समय पर प्रश्नांकित करता रहता है। इसके विपरीत प्रेम एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो किसी भी तरह के बंधन को स्वीकार नहीं करता। जिसके बारे में यह कहा जाता है कि वह किया नहीं जाता बल्कि हो जाता है। लेकिन विडम्बना की बात यह है कि लड़कियों को प्रेम का दंश कुछ ज्यादा ही भुगतना पड़ता है। हालांकि प्रेम के चरित्र में कोई फर्क करना बेमानी है लेकिन एक पुरुष के लिए प्रेम का मतलब कुछ और होता है तो स्त्री के लिए कुछ और। स्त्री प्रेम में किसी भी तरह का विचलन बर्दाश्त नहीं करती। उसके लिए प्रेम का मतलब सिर्फ और सिर्फ समर्पण होता है। उसके लिए यह समर्पण एकतरफा नहीं बल्कि दोतरफा होता है। अपने पुरुष मित्र से भी वह उसी समर्पण की उम्मीद करती है जो खुद वह व्यवहृत करती है। प्रज्ञा पाण्डेय का हाल ही में शिवना प्रकाशन से एक उपन्यास आया है 'पंख से छूटा’। वे अपने इस उपन्यास में प्रेम और विवाह की गुत्थी को तर्कों और बातों के जरिए सुलझाने का प्रयास करती हैं। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं प्रज्ञा पाण्डेय के उपन्यास ‘पंख से छूटा’ का एक अंश।
पंख से छूटा
प्रज्ञा पाण्डेय
‘सच! नलिनी, मैं उसको बिलकुल नहीं जानती थी। माँ को उसकी चिट्ठी थमा कर मैं अपने कमरे में क़ैद हो गई थी। माँ ने चिट्ठी बाबा तक पहुंचा दी थी। मैंने कमरे से बाहर निकलना बंद कर दिया न खाना न पानी। दो दिनों के बाद बाबा ने अपने पास बुला कर खूब समझाया। मेरा बेठौर मन अपने सपनों की जद्दोजहद और मनोभावों के बीच चक्करघिन्नी होता रहता। कभी क्रान्ति की बात सोचती और कभी बुझी मशाल की तरह किसी कोने में समा जाती थी। कभी पूरे दिन पत्र के नीचे लिखा हुआ, उसका नाम सोचती थी।
केवल तुम्हारा आकाश
आकाश शायद सिर्फ़ उसका है। वह झूठ क्यों लिखेगा। यही सोचती रहती।
मैंने एम ए का फाइनल इम्तहान अच्छे नंबरों से पास कर लिया. इस बीच मैं बहुत बड़ी हो गई, नलिनी। अंग्रेजी से एम् ए के बाद फिर पी-एच. डी. की। बिना अर्थ के उसके लिखे अक्षर बेमानी हो गए थे। ऐसे शब्दों का कुछ मतलब है क्या? उन मीठी बातों में कुछ भी सच नहीं था नलिनी।
मैं ज़ोर से हँसी थी। इतनी जोर से कि मेज़ पर रखा गिलास का पानी छलक गया था। मैं हँसती जा रही थी और नलिनी मुझे देखती जा रही थी। मैं हंसती ही जा रही थी। थोड़ी देर बाद नलिनी भी जोर जोर से हंसने लगी। मार्गरेट भौचक्की सी किचेन से निकल कर डाइनिंग रूम के दरवाजे पर आकर खड़ी हो गई और जब उसे कुछ समझ में नहीं आया तो वह भी हंसने लगी। वे तीनों बहुत देर तक हंसती रहीं। रात के नीरव सन्नाटे में वह घर स्त्रियों की हँसी का घर बन गया।
‘हंसने के लिए साथी भी तो चाहिए’। मार्गरेट अपनी मैडम की इस बात पर गर्व करती हुई रसोई में वापस चली गई थी लेकिन वह हँसी देर तक हर कमरे में गूंजती रही।
रात के खाने के बाद मार्गरेट सोने चली गई। नलिनी के कमरे में देर तक लाइट जलती रही। उसे देर उसे नींद नहीं आई, लेकिन आज इतने दिनों बाद इतना हंस कर वह हल्का महसूस कर रही थी।
अगले दिन इतवार था। नलिनी देर से उठी थी।
मार्गरेट ने सुबह की चाय बिस्तर पर ही दे दी थी। नलिनी भी उसके पास ही आ कर बैठ गई थी। आज नाश्ते में क्या खिलाओगी मार्गरेट। नलिनी ने उसे भी अपनी चाय ले कर आने को कहा तो मारग्रेट अपनी चाय के साथ वहीँ कुर्सी खींच कर बैठ गई। ‘आलू के पराठे बना दूं मैडम।'
वल्लरी ने कहा –‘हाँ, यही बनाओ।'
‘और उसके साथ दूध वाली मीठी चाय', नलिनी ने कहा।
चाय के बाद दोनों बाहर निकल आयीं। बाहर धूप पसर गई थी। मार्गरेट ने बरामदे में पड़ा तिरपाल को उठा दिया था। बैकयार्ड से फूलों की गंध और चिड़ियों का चहकना सुनाई दे रहा था।
बाबा कहते – आकाश ने जो फ़ैसला लिया वह आकाश का है। वह उसका अधिकार है, वल्लरी। तुमको अपने जीवन में निर्णय लेने का अधिकार है। किसी दूसरे के निर्णय से प्रभावित हो कर तुम्हारा कोई फ़ैसला लेना ठीक नहीं है।’
माली आ गया था और नलिनी पौधों की क्यारियाँ देखने चली गई थी। वह बीती धुन पर फिर से संगीत बजा रही थी।
बाबा कहते थे – प्रेम और प्रेम-विवाह दोनों दो बातें हैं। प्रेम में विवाह करने पर सामाजिकता के लिए संघर्ष करना पड़ता है बेटी। दो लोग चुपचाप प्रेम कर सकते हैं लेकिन चुपचाप विवाह नहीं कर सकते हैं।
प्रेम-विवाह वही लोग कर पाते हैं जो लोग उस के लिए समाज से लड़ाई कर पाते हैं।उसकी ज़िम्मेदारी लेने के लिए समाज के सामने खड़े होने का हौसला रखते हैं या समाज के सामने खुद को साबित कर पाने की हिम्मत रखते हैं या समाज को बदलने का जज़्बा रखते हैं। आकाश के पास वह साहस नहीं था तो इसमें उसका क्या दोष।'
उन्होंने बहुत तो समझाया था- विवाह में प्रेम ज़रूरी नहीं होता। वह तो साथ रहने से उपजता है। हमारे यहाँ हर तबके के लोगों के द्वारा की जानी वाली रस्में हैं। समाज का हर वर्ग विवाह में शामिल होता है। कुम्हार भी, लोहार भी, भड़भूज भी, धोबी भी, नाई भी, मनिहारिन भी, पंडित भी और चर्मकार भी। अग्नि और मंत्र ही नहीं, विवाह जीवन भर साथ निभाने की एक सामाजिक परम्परा है बल्कि संस्कार है।
इस संस्कार में विवाह-पूर्व प्रेम की कोई भूमिका नहीं होती है, वल्लरी। प्रेम की उम्र तो तितली की उम्र भर होती है। विवाह के बाद दाम्पत्य के बीच प्रेम खुद ही पनपता है जो बहुत मजबूत होता है।
‘तो उसमें लड़की और लड़के की कोई पसंद का कोई मतलब ही नहीं होता?'
‘होता है, लेकिन तब जब लड़के के संस्कार लड़की के परिवार के माफ़िक़ होते हैं। दोनों परिवारों का सामंजस्य भी होता हो तब।'
‘ये क्या बात हुई, साथ तो लड़का और लड़की को रहना है न।'
वे गंभीर होकर बैठ जाते और कहते - ‘तुम नहीं समझती हो वल्लरी।’
ये विवाह का बंधन है। आने वाली पीढ़ी के लिए और समाज को परिवार की एक इकाई देने के लिए ही यह व्यवस्था है। यह बंधन ताउम्र नहीं चलेंगे तो परिवार का क्या होगा? सब कुछ बिखर जाएगा। तभी तो इसमें समाज का हर वर्ग साझीदार होता है, वह विवाह का गवाह भी होता है।
'प्रेम होगा तो इन रिवाजों की क्या ज़रुरत बाबा? अब सब कुछ बदल रहा है....।'
‘स्त्री-पुरुष के प्रेम की उम्र तितली की उम्र भर होती है, वल्लरी! तुम जानती हो?'
'छोड़िए बाबा, लेकिन आप मेरा ब्याह इसलिए ही तो करेंगे न, कि मेरे सिर पर एक पुरुष का हाथ हो जाए। वह हमेशा मेरे साथ रहे? वह मेरी जिम्मेदारी उठा ले? मेरे रहने खाने का इंतज़ाम करे? मैं खुद अपने लिए यह सब नहीं कर सकती हूँ क्या?'
‘जिंदगी अकेली नहीं कटती है, एक साथी की ज़रूरत पड़ती ही है।’
मेरे मन में बाबा की बात नाचती रहती– प्रेम की उम्र तितली की उम्र भर होती है.
मैंने चाय का कप पिता के सामने ला कर रखा- ‘लेकिन अगर विवाह के बाद कोई विवाह के बाहर जाना चाहे तो?' उसको उनसे बात करना अच्छा लगता था।
‘विवाह के बाद पुरुष भी अपनी जिम्मेदारियां समझता है। बिना विवाह के नहीं समझता। विवाह के बाद विवाह से बाहर जाना हमारे समाज में अनैतिक है।
‘लेकिन क्या उसके मन को आपका समाज रोक लेगा?'
पिता चुप हो कर फिर बोलते- ‘कोई किसी को नहीं रोक पायेगा बेटी।'
‘तब क्या मतलब हुआ विवाह का?'
‘व्यक्ति खुद ही रुकता है। वह सामाजिक बंधनों को देखता है और अपने समाज और बच्चों को समझते हुए घर लौट आता है। इस दुनिया में ग़लतियां कौन नहीं करता है?'
‘लेकिन स्त्री को किसी गलती के लिए माफ़ क्यों नहीं किया जाता है बाबा।'
‘स्त्री बहुत समर्थ होती है। वह गलतियाँ करती कहाँ है! इस दुनिया में जितने भी बच्चे हैं उनका पालन-पोषण और उनको अच्छे संस्कार देने का काम सिर्फ औरतें करतीं हैं, वल्लरी!'
मैं उनसे संवाद करने के लिए तत्पर रहती थी।
नलिनी कहती – 'बाबा सही कहते थे। तितली के पंखों पर लगा रंग छूट कर उँगलियों में लग जाता है। यदि उसके पंख से रंग छूट जायें तो उसके पंख पारदर्शी हो जाते हैं वल्लरी, लेकिन उसके बाद तितली उड़ नहीं पाती। जब तक रंग होते हैं तब तक ही तितली सुन्दर लगती है।’
वल्लरी ने अपनी चिबुक अपनी हथेली पर टिका ली और कहा – ‘प्रेम भी तो ऐसा ही होता है, नलिनी!’
वह सोचती पारदर्शिता कितनी खतरनाक है।
वह नलिनी की बात को देर तक सोचती रही। रंग हट जाएँ तो सब कुछ पारदर्शी हो जाए और प्रेम ख़त्म हो जाए! ऐसा तो होता है।
अचानक फोन की आवाज़ सुन कर उसने फोन देखा। अन्ना का मेसेज था। अत्रि उसके साथ ही था और आज वे दोनों लेट नाइट फिल्म देखने जा रहे थे।
'अत्रि कैसा है' पूछने के बहाने से उसने कुछ और भी पूछना चाहा।
वह अन्ना और अत्रि की नजदीकियों को ले कर डरती है। उसे ले कर एक धुक-धुक उसके दिल में रहती है लेकिन कहा- ‘ठीक है जाओ’।
उसने नलिनी को भी बताया - ‘मुझे कभी कभी फिक्र होती है नलिनी'।
नलिनी ने कहा - ‘वह अपना सही-गलत समझती है'।
वह भी तो समझती थी। थोड़ी देर के लिए वह उठकर अपनी रहगुजर की ओर चली गई। मुकुराती हुई पिछले रास्तों हो कर चली गई।
उसने आकाश के साथ एक फिल्म देखी थी। वे कॉलेज से ऑटो ले कर वे सीधे मार्केट पहुंचे थे। उनके पास बहुत समय था। दोनों के कॉटन झोले उनके कन्धों से लटके हुए थे जिनमें उनकी किताबें और नोटबुक थीं। वे देर तक बाज़ार में टहलते रहे।
प्रज्ञा पाण्डेय |
आकाश नीली जींस पर सफ़ेद कुरता पहने हुए था। वह संघर्ष करने वाले नौजवान सा फ़िल्मी हीरो लग रहा था। वह सफ़ेद सलवार-कुरते और हरे दुपट्टे में खूब सज रही थी। उसके लम्बे बाल उसकी कमर से नीचे झूल रहे थे।
वे प्यार में डूबे हुए, एक दूसरे को देख मुस्कुराते हुए सड़क पर घूमते रहे तभी ‘ब्लू लैगून’ के पोस्टर पर दोनों की नज़र पड़ी।
वल्लरी ने कहा- ‘चलो देखते हैं।'
उसे वह झिलमिलाता वक्त याद था। आकाश ने कई बार उसका हाथ अपने हाथों में लेकर जोर से दबाया था लेकिन वह कुछ दृश्यों को देख कर परेशान हो रही थी। बाद में वे दोनों फिल्म को ले कर कई दिनों तक बातें करते रहे।
आकाश कहता था- ‘फिल्म में जो भी हुआ वह कितना स्वाभाविक था वल्लरी'। वल्लरी के जवाब में ढेरों बातें होतीं।
वह कहती 'हाँ वे एक निर्जन द्वीप पर थे। वे कितने मुक्त थे। वह उसके लिए घर बनाता है। नाव बनाता है। वह फल और मछलियाँ ले आता है। दोनों मिल कर खाने का इंतजाम करते हैं। वह उसकी कितनी परवाह करता है। उन्हें दुनिया का डर नहीं है।
आकाश कहता - ‘मैं भी तुम्हारे लिए घर बनाऊँगा, नाव बनाऊंगा। तुम्हें नदी के उस पार ले जाऊँगा।'
वह उसे याद दिला कर कहती- ‘जब वह पहली बार रजस्वला होती है तब कितनी जोर से चीखती है - गोअवेवेए ए! वह उसे अपने पास नहीं आने देती। उसके पास बहुत शर्म थी, आकाश।'
‘हाँ, उनके दो बच्चे हुए।' वह मुस्कुराता। वह भी मुस्कुराती है. काश हम दोनों भी किसी निर्जन टापू पर छूट जाते।
वह हंसता था।
तब वह नदी का पानी से रिश्ते का होना नहीं जानती थी।
बेचैनियों की धुंध में वह उसे आवाज़ देती रही। आकाश ने वह आवाज़ नहीं सुनी। कभी कभी लगता कि अपनी गरिमा से विलग होकर वह व्यर्थ जी रही है। लोग उसे ब्यूटी विद ब्रेन कहते थे लेकिन उसने आकाश के खो जाने को अपनी ज़िन्दगी पर हमेशा के लिए चस्पां कर लिया था और उसकी भेजी चिट्ठी उसे हमेशा हमेशा तक याद रह गई थी और एक दिन वह नलिनी के साथ बैठकर उसी बात पर खूब हँसी थी।
उसने देखा आसमान में बादल आ गए थे। नलिनी बैकयार्ड में तार पर पड़े कपड़े बटोर रही थी।
'तुम लोगों को अपना कम्फर्ट ज़ोन ही भाता है’ वह आकाश के बारे में सोचते हुए बुदबुदाई थी। आकाश का प्रेम उसके प्रति उसकी मानसिक सुविधा थी। कभी कभी उसे लगता कि कहीं वह ही तो गलत नहीं थी। उसमें आकाश की गहरी आसक्ति थी और वह अपने भयों की ओट में गुम थी। वह पास आता और वह दूर जाती थी। उन कंटीली बाड़ों से बाहर आने में उसे कई वर्ष लग गए थे लेकिन बाहर आ कर उसे जो मिला था, उसे उससे भी भागना पड़ा था।
वह नलिनी से कहती मैंने आकाश से पूछा था-‘यदि मेरी जगह तुम होते तो क्या तुम मेरी बातें ही न कहते।'
उसने कहा - ‘हाँ, तो मैं तुम्हारी जगह नहीं हूँ न।'
आकाश की इस बात से वह कातर हुई थी।
तब नलिनी ने पूछा था - ‘यही तो हमारा सवाल है तुम मेरी जगह क्यों नहीं होते हो।'
मैंने अविनाश से भी पूछा था कि तुम्हारी उस भूख से जो बच्चा जन्म लेता है उसको तुम्हारी बनाई हुई दुनिया पाप क्यों कहती है? वह उसे पाप-पुण्य की दुविधा देता क्यों है? फिर उस बात को जिसे तुम पाप कहते हो सिर्फ स्त्री को कटघरे में खड़ा क्यों करते हो? नलिनी कहती - ‘विवाह की ये व्यवस्था ही पाखंड से भरी है!'
आकाश और अविनाश एक जैसे ही निकले। उसे लगता है कि स्त्री के प्रेम से पुरुष का प्रेम अलग होता है। दक्षिणी ध्रुव और उत्तरी ध्रुव की तरह. संगदिल होना भी एक संस्कारगत आदिम प्रवृत्ति है। उसका उम्र और समय से कोई लेना देना नहीं होता। यों तो औरत और आदमी दोनों ही की दुनिया में चाहने वालों की कमी नहीं है लेकिन औरत को उसके जैसा ही कोई मिल जाए यह कहीं कहीं होता है।
वह बीतते अक्टूबर की शाम थी। कॉलेज से लौट कर नलिनी अपने कमरे में चली गई और वल्लरी ने अपने कमरे में जा कर अपने कंधे का झोला खूँटी पर टांग दिया। चंडीगढ़ की तरह शिमला में भी उसके कमरे की खूँटी पर हैंडलूम के अलग अलग रंगों के झोले टंगे रहते हैं और बहुत से नए झोले उसकी आलमारी में रखे रहते हैं। राजस्थानी और गुजराती कढाइयों के रंगीन धागों वाले और शीशे की कढ़ाइयों वाले झोले वह जहाँ भी देखती खरीदती रहती है। साड़ी के मिलते रंग का कोई खिलता झोला वह कंधे पर टांग लेती है।
वल्लरी जाड़ों में सिल्क और गर्मियों में कॉटन की साड़ियाँ बहुत शौक से बांधती। नलिनी कहती - 'तुम्हारी देह पर साड़ी बहुत फबती है। तुम्हारी काया आज भी वैसी ही छरहरी है।'
वह कशिश के साथ मुस्कुरा पड़ती।
ऊनी कपड़ों की ज़रुरत आ पड़ी थी। मोव कलर का ऊनी सलवार सूट पहन कर वल्लरी ने एक शाल डाल ली। रोज़ की तरह बैकयार्ड की धूप उसका इंतज़ार कर रही थी। कॉलेज से लौट कर चमेली के नन्हें पेड़ के पास की बरामदे वाली सीढ़ी पर बैठ एक कप कॉफी पीना उसे बहुत पसंद है। मार्गरेट रोज़ उसे गर्म कॉफ़ी का एक मग दे जाती है। मोबाइल सामने स्टूल पर पड़ा था। धूप पहाड़ों पर चमक रही थी। उसने अपनी आँखें बंद कर ली थीं।
अन्ना उसकी साँसों से जुड़ी है अपने मन के गहन एकांत में वह अत्रि और अन्ना के प्रेम को जीने लगती है। कितनी भी समझदार हो अन्ना, कितनी भी कॉंफिडेंट हो या कितनी भी अपडेटेड हो लेकिन प्रेम का वह सेमल की रुई सा नर्म एहसास, मन का वह भुआ-भुआ हो कर उड़ना और देह पर लिपट जाना आदिम समय से अब तक ज्यों का त्यों है। स्त्री का स्त्री होना और पुरुष का पुरुष होना भी आज तक वैसा ही है।
इतने वर्ष बीतने के बाद वह आकाश का आकलन कर सकी थी। वह उसको समझ सकी है और उसे भूल सकी थी, जब वह उसके एहसास के लम्हों से बाहर हो गया था, वह उसके प्रति अनासक्त और तटस्थ हो गई थी।
शिवालिक की पुरानी पहाड़ियों पर बसा हिमाचल उसका दूसरा देश है जहाँ उसकी असली पहचान उसके नये नागरपन में समा गई। टिन की छतों के बीच चिमनियों से निकलते धुएं सा कोहरे का रंग और धरती की गंध के बीच वह कभी-कभी ही सही हंसती तो है।
समय का बीतना उसे पता चलता है। पल पल जुड़ता, हाथ पकड़ता, छोड़ता कैसे निर्दयी सा निकल जाता है लेकिन भीतर कहीं अपने रंग समेत बस भी जाता है। काले और भूरे रंगों से उभरती गहरी उदासी में कैनवास पर लाल फूल भी बिछते हैं। वह अपनी साड़ी के किनारों पर उन्हें सजाती गई थी।
वह जीवन को अनगढ़ ही जीना चाहती थी। आँवें में तप कर टनटनाता जीवन कोई जीवन होता है क्या? अब वह कच्ची मिट्टी सी हो कर जब जो रूप चाहे ले लेना चाहती है। कभी बच्ची, कभी औरत, कभी बेटी, कभी माँ, कभी दोस्त, कभी पत्नी, कभी मजबूर, कभी मजबूत।
वह अविनाश से कहती थी- मुझे प्यास अच्छी लगती है और उसकी बाहों में समा जाती थी।
वह नलिनी से कहती है - ‘उस पर इतना भरोसा किया ही क्यों?'
- ‘भरोसा करना तो औरत की फितरत है वल्लरी'।
वह नलिनी की ओर देखती है- ‘नहीं नलिनी. तुम खुद के साथ रही।'
नलिनी मुस्कुरा पड़ती है।
उन दिनों वह आत्मग्लानि से भर गई थी। उसने अविनाश के संग साथ के लिए आत्माभिमान को भी छोड़ दिया था। यह उसकी अविनाश को चाहने की पराकाष्ठा थी। कब सोचा था कि अविनाश उससे इतनी दूर चला जाएगा कि दुबारा न वह न अविनाश ही एक दूसरे के जीवन में आ सकेंगे। उनके पाँव एक दूसरे की ओर कभी वापसी न कर सकेंगे। कितना चाहा कि वसन्त लौट आए एक बार। बस एक बार वह दुबारा जी पाए।
शाम का सांवलापन बढ़ने लगा था।
वह एक तल्ख़ सी हंसी हंस पड़ती है। हर महीने एक अच्छी तनख्वाह उसके जीवनयापन के लिए काफी होगी, जिसे हैंडसम सैलरी कहते हैं, ब्यूटीफुल नहीं कहते। पितृसत्ता की ताकत उसकी हंसी को कुटिल कर गई।
अविनाश के खिलाफ जब जब कोई सवाल उसके मन में दुविधा बन कर खड़ा हुआ उसने तर्कों के सहारे हर दुविधा मिटा डाली। गौतम ने उसे पहली मुलाक़ात में ही आगाह तो किया था। क्या जानते समझते हुए वह डगमग करती नाव में बैठ गई थी! वह जब-जब सोचती तब अविनाश से खाली हुई जगह की टीस का दायरा दुगुना हो उठता। जब वह जगह खाली नहीं थी तब लोहे की कोई कील अपनी जगह बनाती चुभती जाती थी। मन से सुख के बारे पूछा तो जाना कि सुख तो कभी न था। सुख किसे कहते हैं? यह एक अजीब सी चाह थी. सुख की खोज में उसने अपने मन के सारे गह्वर तलाशे, हर मोड़ और हर राह चलती गई।
वह चाह कर भी अविनाश से अलग नहीं हो सकती क्या? क्या यह खेल पितृसत्ता का है? नहीं, यह तो प्रकृति का खेल है। प्रकृति ने ही तो बनायी है, स्त्री और पुरुष की सत्ता, लेकिन स्त्री इतनी कमजोर क्यों पड़ती है? तो उसे सोचना होगा कि अन्ना को रचने में अविनाश का योगदान वह खारिज करे, लेकिन कैसे, किस तरह? अविनाश ही तो बीज है और वह है ज़मीन? उस पर ही उगी है अन्ना। दोनों ने मिलकर उसको रोपा है।
यह मनुष्य की बनाई हुई कोई सत्ता नहीं है। ठीक है। लेकिन ज़मीन न होती तो बीज क्या करता? किसी आंधी में उड़ कर विलीन हो जाता! अन्ना को उसकी देह ने जीवन दिया है. अविनाश का तो कोई काम नहीं। अविनाश की अब क्या ज़रुरत। अन्ना को उसकी ज़रुरत है। अविनाश की नहीं। वह अन्ना के सिर पर अपनी दोनों हथेलियां रख कर पालेगी। अकेली कहाँ है वह? उसके भीतर एक पुरुष भी है! तब पुरुष के अपने भीतर की स्त्री कहाँ रहती है! वह सोचती है।
खिड़की के बाहर नीले आसमान को देखते हुए वह फिर खो गई थी। उसकी रहगुजर में कई दरवाजे हैं।
कभी कहीं तो कभी कहीं झाँक लेती है।
- ‘तुमने छुट्टी के लिए अर्जी तो डाल दी थी न। तुम्हें कोई परेशानी तो नहीं हुई। नलिनी ने पूछा था।
उसका होना फिर से घटित हो रहा था जो पिछले कुछ महीनों में स्थगित हो गया था।
उसने जवाब दिया था - ‘नहीं, कोई परेशानी नहीं हुई। छुट्टी मंजूर हो गई है।'
वह गले के अवरोध हटा कर रुक-रुक कर बोल रही थी - ‘मैं वहां कुछ दिन और रह सकती थी लेकिन स्टाफ रूम में लोगों की निगाहों में इतने सवाल थे जिनके जवाब मेरे लिए मुश्किल हो रहे थे।'
उसकी आँखें बार-बार भर रही थीं। उसकी साड़ी का सूती आंचल उसके आंसूं सोखता जा रहा था। नलिनी उसके कंधे थपका कर बार-बार उसके और अपने आंसू पोंछ रही थी।
- ‘वे लोग मुझे दूसरी निगाहों से देख रहे थे'
नलिनी उसे दुलराती जा रही थी - ‘अब तुम यहाँ आ गई हो। सारी चिंता छोड़ दो वल्लरी। परेशान न हो। वह बार-बार कहती रही, उसे थपकाती रही।
उसे याद आया कि उसकी मुस्कान कॉलेज के गलियारों में महकती थी। कुछ दिनों पहले तक वह हर ओर दिखाई देती थी। उसकी कॉटन साड़ियों और कंधे से लटके उसके रंगीन सूती झोले स्टाफ रूम में रोज़ ही चर्चा का विषय बनते थे। वह अपने गोल सुनहरे फ्रेम के चश्में से झांकती शांत नदी सी बहती जाती थी। सचमुच वह अपने एकांत में नदी थी। फिर वह खो गई थी। कहाँ चली गई थी, वह नदी! वह वल्लरी ! अचानक अपने अस्तित्व से गायब हो कर वह धुंआ बन गई थी। उसने जो अपराध किया था वह अभी तय भी नहीं हुआ था। सोचती थी कि कौन तय करेगा कि वह अपराधिनी है। कोई आखेटक, कोई बहेलिया ही तो! इनमें से वही लोग न जिन्होंने क़ानून लिखा। अगर उसने लिखा होता तो वे उसकी निगाहों में आज क्या होते? क्या वे सब अपराधी नहीं होते?
अनिश्चित अपराध के बोध से भरी बदहवास सी वह शिमला पहुंची थी। बेदम पांवों से लड़खड़ाती हुई, अपना सूटकेस और बैग एक ओर रख कर उस अथाह बहाव में मिले द्वीप पर चुपचाप खड़ी हो कर उसने सांस भरी थी। वह बच्ची की तरह सिसक-सिसक रही थी।
दुर्गम पहाड़ों के बीच अपनी नदी को ढूँढती हुई ही वह आई थी। वह डूबना चाहती थी। कई बार लगा था कि बचने के लिए उसे सिर्फ तेज़ बहाव की ज़रुरत है जिसकी कोई दिशा कोई राह नहीं, लेकिन नलिनी ने आगे बढ़ कर अपनी बाहें फैला कर उसे रोक लिया था। वह भी कुछ नहीं बोली थी। मृत्यु के खाली छंदों के बीच पल भर में जीवन भर गया था। उसकी आँखें छलक गईं थीं। नलिनी से उसे इतने बड़े सहारे की उम्मीद नहीं थी।
धुंध में घाटियाँ घाटियाँ नहीं रह जातीं और पर्वत पर्वत नहीं रह जाते हैं। गहरी, अँधेरी गहराइयां और आकाश छूते पहाड़ दोनों एक जैसे हो जाते हैं। कोई किसी से बड़ा न छोटा। उसके मन में कई बार यह ख़याल आया है और देर तक पसरा रह गया है। अपना सब कुछ चंडीगढ़ में छोड़ वह अपना होना ढूंढ रही थी।
यहाँ आसमान से धरती तक सब कुछ एक दूसरे से एकाकार हो जाता है। किसी को भी नज़र न आने की उसकी चाह शिमला की धुंध के बीच पूरती गई, फिर भी वह सब उसके साथ-साथ चलता है जो बीत गया है। लिए फिरती है जहाँ भी जाती है। कहीं नहीं छोड़ती या यह भी तो है कि वह उससे खुद भी अलग नहीं होता। स्मृतियों के नष्ट हो जाने का समझौता हो जाता तो सब छोड़ आती कहीं।
अपनी आँखें बंद कर वह पसरे हुए सोंधेपन के बीच समा गई है। उसके पास यह सुख है कि प्रकृति की तरह वह भी स्याह कोहरे के पीछे जा छुपती है। यह शहर उसे इसीलिये तो पसंद है। देर तक, कई दिनों तक कोहरे का रहना उसे अच्छा लगता है। मुलाकातें कम हो जाती हैं और उसके भीतर बैठी चुप्पी उससे बातें करने लग जाती है। उसके एकांत में मन की बातें खुलतीं हैं।
वह पिछले दिनों को मुड़ कर देखती है. उसने अपनी आँखें बंद कर लीँ थीं। नलिनी ने उसकी हथेली से अपनी हथेली को जोड़ लिया था। उनके बीच उनका बीता हुआ समय था और वह छूटा हुआ शहर था। वे एक दूसरे को महसूस कर रहीं थीं। निस्पंद मौन में वे बहुत कुछ कह और सुन रही थीं। नलिनी उसके टूटे हुए पंख दुबारा जोड़ देगी। नलिनी उसे बचा लेगी। आश्वस्तियों की छत के नीचे उसकी पलकें मुंद रहीं थीं। नलिनी की हथेली उसके माथे पर थी जहाँ बेचैनियों के जगह पर बहुत सा चैन समा गया था।
मार्गरेट दो बार कमरे में झाँक कर वापस लौट गई थी।
‘तुम्हें सैंडविच पसंद है न। पिछली बार जब तुम आई थी तुमने मार्गरेट की बनाई सैंडविच की बहुत तारीफ़ की थी, उसको याद था। आज उसने तुम्हारे लिए वही बनाया है।'
नलिनी ने मार्गरेट को आवाज़ लगाईं।
वह आ कर खड़ी हो गई - ‘जी मैडम'।
उसने सिर उठा कर मार्गरेट की ओर देखा।
‘दीदी के लिए कॉफ़ी लाओ और नाश्ता भी'।
‘जी, अभी लाई', कह कर वह फुर्ती से चली गई थी।
वल्लरी का हाथ उसके हाथों में था। जब से वह आई थी नलिनी ने उसका हाथ नहीं छोड़ा था।
‘तुम वहां से सुबह सुबह ही तो निकल गई थी न। तुम्हें भूख लगी होगी।' नलिनी उसे देखती जा रही थी।
‘हाँ, रास्ते में एक जगह ड्राइवर को चाय पीनी थी तो वहीं से अपने लिए चिप्स का एक पैकेट ले लिया था। यों तो तरला ने चलते समय साथ कुछ फल और ब्रेड-मक्खन भी रख दिया था। वह खाने का मन नहीं हुआ।
‘रास्ते में चीड़ के जंगल बहुत सुंदर थे।' वह अतिरिक्त भावुक हो गई थी। पूरी राह आँखें बरसतीं रहीं थीं और दिल कांपता रहा था।
उसने धीरे से आँखें खोलीं और कहा- 'वहां तरला को सब कुछ सहेज आई हूँ। वह मुझे वहां का हाल बताती रहेगी। वह बोल रही थी।
कुछ ठहर कर नलिनी ने संकोच से कहा - ‘और अविनाश? उसने कोई बात नहीं की?'
‘नहीं, कुछ नहीं. उसे कोई परवाह नहीं।'
एक बार फिर उसकी आँख भर गई। उदास युवती सी एक सफ़ेद हँसी उसके चेहरे से होकर वैसे ही निकल गई थी जैसे अविनाश की ओर से छोटी सी भूल के प्रति उसकी निर्विकार तटस्थता उस दिन झलकी थी।
‘मैडम नाश्ता टेबल पर लगा दूं या कमरे में ही ले आऊँ', तभी आ कर मार्गरेट ने पूछा था।
नलिनी ने जब तक कुछ कहा उसके पहले ही वह उठ खड़ी हुई,- ‘टेबल पर चलती हूँ'।
नलिनी ने उसके कन्धों को देखा था। वह किसी तूफान में झुकी हुई डाल की तरह थे। उसके होंठों पर एक स्मिति थी। बिना काजल के भी उसकी आँखें काजल लगी सी काली थीं।
मार्गरेट ने सैंडविच के साथ टोमेटो केचप और दो प्लेटें ला कर मेज पर रख दीं थीं।
‘दीदी के लिए अभी थोड़ी देर में काफी भी लाती हूँ' और मार्गरेट फिर फुर्ती से कॉफ़ी के लिए रसोई की ओर चल दी थी।
‘चलो पहले कुछ खा लेते हैं'।
नलिनी ने उसके चारों ओर नेह के दीये जला दिये थे।
उसने पहले उसके लिए फिर अपने लिए प्लेट लगायी और कहा, 'मैं तुम्हारा इंतज़ार कर रही थी'।
‘सैंडविच बहुत अच्छे बने हैं', उसने पहला बाइट ख़त्म करते हुए कहा। कॉफी के कप रखती हुई मार्गरेट के होंठों पर एक मुलायम सी मुस्कान आई।
‘हम अरसे के बाद फुर्सत में होंगे वल्लरी, हम ढेरों बातें करेंगे. हम पुराने दिनों को फिर से जियेंगे', कहते हुए नलिनी ने उसे खुश करने के लिए उसके हाथ पर अपना हाथ रख दिया। नलिनी बहुत सजग थी। कुछ भी उसे खरोंच न दे।
उसने उसके कंधों पर अपनी हथेलियाँ रख दीं और अपना चेहरा उसके चेहरे के पास ले जा कर उसे स्नेह से भर कर फिर देखा और धीरे से कहा - ‘तुम चलती जाना, तुम्हें हारना नहीं है। मैं हूँ तुम्हारे साथ। इन लड़ाईयों को लड़ना ज़रूरी है वल्लरी।'
दुखों के बीच भी उसने नलिनी की आँखों में लाली देखी। दबा हुआ कोई क्रोध या कोई प्रतिशोध हो जैसे।
‘तुम मेरी बहन भी तो हो। याद है न, एक डाल से ही उड़े थे हम. वह रोते रोते हंस पड़ी थी'। उसकी आँख डबडबाईं।
‘हाँ'।
‘दीदी, कोई दिक्कत तो नहीं हुआ न? आराम से आई न', मार्गरेट ने भी फुर्सत में आ कर पूछा था।
उसकी आँखों में शिमला पहुँचने का वह पूरा दिन आ खड़ा हुआ था। फुर्सत में वह यों ही उड़ जाती है फुर्र से। जाने कब धूप में अलसाई वह सो गई थी। आँख खुली तो देखा शाम हो गई थी। नलिनी अपने कमरे में थी। वह शाम की वाक पर जाने के लिये पैरों में जूते पहन रही थी। रोज़ टहलने जाना उसका नियम है। उसके लौटने के बाद दोनों शाम की चाय पीतीं हैं।
‘मैं टहल कर आतीं हूँ'।
‘मैं नहीं आऊंगी', कहती हुई, हंसती वह बरामदे के सोफे पर पैर चढ़ा कर बैठ गई।
नलिनी हंस कर बोली– आलसी हो तुम।
उस दिन भी रोज़ की तरह कॉलेज से आ कर घर के बैकयार्ड में पीछे की धूप का एक टुकड़ा ढूंढ कर बैठी वह अन्ना को अपनी आँखों के सामने देख रही थी। यह क्या है. अन्ना बार बार आँखों में क्यों चली आती है।
‘अन्ना दीदी आई है', तभी मार्गरेट की ख़ुशी से चीखती आवाज़ सुन वह चौंक कर बाहर के बरामदे की ओर भागी और सामने अन्ना को देख कर चकित खड़ी हो गई थी। उसको लग रहा था वह अब भी सपना देख रही है. क्या वह सचमुच आ गई?
उसकी आवाज़ सुन कर नलिनी भी कमरे के अन्दर से निकल आई थी। शांत घर में हलचल मच गई थी।
वे दोनों आश्चर्य में पड़ीं पूछ रही थीं - ‘क्या हुआ अन्ना, तू अचानक! बिना बताये?'
नलिनी ने दौड़ कर उसको गले से लगा लिया था. मार्गरेट ख़ुशी से एक प्लेट में मिठाई ले आई थी। अन्ना मुस्कुरा रही थी।
अन्ना अब भी उसके साथ आई स्पाई खेलती है। अब तक उसे चौंकाती है. वह चुपचाप उसे देखती जा रही थी।
‘बस दो दिनों के लिए आई हूँ।'
‘आते ही आते यह बोलना क्या ज़रूरी है अन्ना। अभी अभी तो आई हो और जाने की भी खबर दे रही हो', वह रुआंसी हो आई।
‘मेरी प्यारी मम्मा', कह कर अन्ना उसके गले से लिपट गई।
नलिनी ने पूछा '– तुम बिना बताये अचानक कैसे आई अन्ना?'
‘मैं एक ज़रूरी काम से आई हूँ मासी'।
‘कौन सा काम?'
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