संतोष पटेल का आलेख 'भिखारी ठाकुर का नाटक गंगा स्नान'
कल शरद पूर्णिमा थी। गुरुनानक जी के अवतरण का दिन। इस दिन समूचे उत्तर भारत में नदियों में सामूहिक स्नान की परम्परा रही है। देश में तमाम नदियां हैं लेकिन गंगा का भारतीय लोक परम्परा में खासा महत्त्व है ऐसे में नदी स्नान को आमतौर पर गंगा स्नान भी कहा जाता है। भिखारी ठाकुर का एक नाटक ही है 'गंगा स्नान' नाम से है। भिखारी ठाकुर ने अपने नाटकों में उन रूढ़ियों पर कड़ा प्रहार किया है जिसने सामाजिक समरसता की राह में पग पग पर बाधाएं खड़ी की हैं। गंगा की जो दुर्दशा हमने कर डाली है कि वह नहाने की तो बात ही छोड़िए छूने लायक नहीं रह गई है। कवि संतोष पटेल ने भिखारी ठाकुर के नाटक गंगा स्नान के बहाने कुछ महत्त्वपूर्ण बातें की हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं संतोष पटेल का आलेख 'भिखारी ठाकुर का नाटक गंगा स्नान'।
'भिखारी ठाकुर का नाटक गंगा स्नान'
संतोष पटेल
भिखारी ठाकुर के लिखे नाटक 'गंगा असनान' को आज खूब तन्मयता से पढ़ा। यह नाटक उनकी रचनावली में दर्ज है। इस नाटक के पढ़ने के उपरांत साहित्य अकादमी से प्रकाशित डॉ. तैयब हुसैन पीड़ित की पुस्तक 'भिखारी ठाकुर' (2008) में उनका एक अध्याय है, "साहित्य और रंगकर्म की सामाजिक सार्थकता" देखा जिसमें डॉ. हुसैन लिखते हैं कि "इस नाटक में धार्मिक रूढ़ियों और ढोंग विरोध तो है ही, कहीं कहीं बाढ़ जैसी प्राकृतिक विपदा के छुटकारे की मनसा भी भली-भांति व्यंजित हुई है। मां के प्रति बेटे-बहू का कर्तव्य-बोध इसकी तीसरी सामाजिकता है।" (पृष्ठ 95)
डॉ. हुसैन की माने तो इस नाटक में तीन बातें दर्ज हैं। एक प्राकृतिक विपदा से मुक्ति की मंशा, दूसरा बेटे बहू का माता या सास के प्रति कर्तव्य बोध और तीसरा धार्मिक पाखंड या ढोंग का प्रतिकार।
गंगा स्नान से तय है कि भोजपुरी क्षेत्र में कार्तिक पूर्णिमा को लोग नदियों में डुबकी लगाते हैं, स्नान ध्यान करते हैं, मेला घूमते हैं। इन क्षेत्रों गंगा भले ना हों उसकी जगह पर नारायणी हो, गंडक को, बूढ़ी गंडक हो, सोन हो या सरजू हो सबमें स्नान करने जाना उस क्षेत्र में गंगा स्नान करना ही होता है। भोजपुरी में उसे 'नहान' कहते हैं। नहाने का से नहान बन गया। इंसानों का नदी से लगाव आज का नहीं सदियों का है कारण भी है कि इंसानी सभ्यता का विकास ही नदी घाटियों से ही शुरू हुआ। एच. जी. वेल्स ने लिखा है : “विश्व की सबसे प्राचीन सभ्यतायें बड़ी-बड़ी नदियों की घाटियों में पनपीं। मिस्र की सभ्यता का विकास नील नदी की घाटी में, मेसोपोटामिया की सभ्यता का दजला और फरात की घाटी में, भारत की सभ्यता का सिन्धु नदी घाटी में और चीन की सभ्यता का ह्वांग हो और यांगसीक्यांग की घाटी में हुआ। "
अब गंगा जिसको भारत में इतना सम्मान हासिल है। इसकी चर्चा आलोचक डॉ. बृजभूषण मिश्रा अपनी पुस्तक "भोजपुरी साहित्य परम्परा और परख" में शामिल लेख 'गंगा सुखइली ए मइया' में कुछ इस तरह करते हैं : "एह गंगा के भारतीय मनीषा के चिंतक लोग भी कम महत्त्व नइखे देले। बाल्मीकि जी अपना रामायण में गंगा के सुमिरन कइले बानी। आदि गुरु शंकराचार्य सुदूर दक्षिण के भइला के बावजूद 'गंगाष्टक' लिख के उत्तर-दक्षिण के एकसूत्र में बन्हले बानी। गंगा जी के गुण के बरनाका आ महिमा गावत उहाँ का लिखले बानी-
देवि सुरेश्वरि भगवती गंगे, त्रिभुवन तारिणी तरल तरंगे। शंकर मौलिक विहारिणी विमले ममगति रास्तां तव पद कमले भागीरथि सुखदायिनी मातस्तव जलहिम्थ निगमे ख्यातः नाहं जाने तव महिमानं पाहिकृपामयी मामज्ञानम् हरिपद पद्मतरंगिनी गंगे, हिमविधु-मुक्ता धवल तरंगे दूरी कुरु मम दुष्कृति भारं कुरु कृपामयि भव सागर पारम्।
कबहूँ खराब ना होखे वाला ई गंगा जल के प्रभावे ह कि ब्रह्मवादी शंकराचार्य का गंगा भक्ति के रचना करे के पड़ल। पंडितराज जगन्नाथ यवन कन्या के पाप से मुक्ति खातिर गंगा सेवन करत 'गंगा लहरी' के रचना कइली। गंगा के महिमा बखान करत ई श्लोक देखत जा सकत बा-
समृद्धं सौभाग्यं सकल बसुधाया किमपितन महैश्वर्यं लीला जनित जगतः खंडः परशो श्रुतिनां सर्वस्वं सुकृतमर्थमूर्त्तम् सोमनसां सुधा सौन्दर्यान्तेय सलिलं शिवं नः समयतुम्।
(पृष्ठ 89, सर्वभाषा ट्रस्ट 2021)
लेकिन परंपरा में गंगा का गुणगान जरूर किया गया पर जब गंगा की हालत की परख की गई तो सामने नाम आता है पर्यावरणविद डॉ.अनिल प्रकाश जोशी का आलेख। डॉ. जोशी अपने आलेख "गंगा को तारने के लिए आगे आने की जरूरत" में लिखते हैं :
"गंगा में प्रतिदिन करीब 12 बिलियन लीटर सीवेज आता है, और इसमें भी 110 गंगा फ्रंट टाउन से अकेले 3558 एमएलडी सीवेज निकलता है। जबकि हमारी ट्रीटमेंट कैपेसिटी केवल 2589 मिलियन लीटर है। इसका सीधा अर्थ यह है कि हमारी चुनौतियां कम नहीं हुई हैं, बल्कि अभी भी बनी हुई हैं। उत्तर प्रदेश में एसटीपी प्लांट्स की कैपेसिटी लगभग 2298 मिलियन लीटर है, और सीवेज 3000 मिलियन लीटर से ऊपर है. यह भी सच है कि आने वाले समय में जनसंख्या के बढ़ते दबाव के साथ यह समस्या और बढ़ेगी। गंगा के प्रवाह क्षेत्र में औसत जनसंख्या घनत्व 520 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर है, जबकि आदर्श घनत्व 312 होना चाहिए, ऐसे में, बढ़ती जनसंख्या निश्चित रूप से गंगा के प्रदूषण को और बढ़ायेगी। सो उसे स्वच्छ बनाने की चुनौती भी बढ़ती जायेगी।"
भिखारी ठाकुर ने अपने इस नाटक में बिहार में 1934 में आए भयंकर बाढ़ का जिक्र किया साथ ही इसकी तबाही का मार्मिक अभिव्यक्ति भी की है। इस नाटक में यह गीत दर्ज है जिसे उपरोक्त स्थिति का आकलन लगभग 100 साल पहले एक नाटककार कर रहा है जबकि उन्होंने कोई व्यवस्थित शिक्षा भी हासिल नहीं की थी :
गंगाजी के भरली अररिया, नगरिया दहात बाटे हो,
गंगा मइया! पनियाँ में जनियाँ रोवत बाड़ी, कंत बिदेस मोर हो!
घरवा में धारवा बहत बा, पुकारवा होखत बाटे हो,
गंगा मइया! तनवाँ में अनवाँ मिलत नइखे, नयना से गिरे लोर हो!
तेरह सऽ एकतालिकस साल* सावन सुदी, घर में ना रहल खुदी हो,
गंगा मइया! सुकवा के लुकवा" लगाइ कर भइलू काहे निपटे कठोर हो!
कहत 'भिखारी' नाई, गीत गाके, रचि-रचि चित ला के हो,
गंगा मइया! जनम जनम दीहऽ दरस, तरस बाटे साँझ भोर हो!
(*1933- 1934, भिखारी ठाकुर रचनावली, पृष्ठ 133)
तैयब हुसैन की दूसरी बात को भी हमें संज्ञान में लेना चाहिए। जैसे इस बात की तफ़्तीश की जाती है डॉ. जितेंद्र यादव सामने से आते हैं।उनकी एक पुस्तक है "भिखारी ठाकुर प्रतिरोध का लोकस्वर" इसको पढ़ा जाना चाहिए। डॉ. यादव ने इस पुस्तक में शामिल एक अध्याय 'भोजपुरी लोक जीवन की छवियां' में बहुत स्पष्ट रूप कुछ बातें कहीं हैं।
भिखारी ठाकुर के इस नाटक का मूल्यांकन करते समय उन्होंने समाज का स्तर विन्यास (स्ट्रीटिफिकेशन) किया। यह करते हुए दलित पिछड़ी जातियों में धार्मिक ढोंग, पाखंड उनकी अशिक्षा और अविद्या (इग्नोरेंस) जिसे भगवान बुद्ध ने प्रतीत्य समुत्पाद जिसके द्वादश निदान में सबसे मुख्य माना है उसकी व्याख्या अच्छे तरीके से करते हैं:
"भोजपुरी प्रदेश में फैली धार्मिक रूढ़ियों पर भिखारी ठाकुर सवाल खड़ा करते हैं। गौरतलब है कि भोजपुरी प्रदेश धार्मिक रूढ़ियों का केन्द्र रहा है। धार्मिक रूड़ियां इस कदर घर कर गई थीं कि अन्य सभी उत्तरदायित्वों से मुंह मोड़, तमाम तरह के कुकृत्य करके भी व्यक्ति धर्म की आड़ में अपने को सुरक्षित मानता था। 'गंगा स्नान' में तमाम तरह के धार्मिक कर्मकांडों पर सवाल उठाते हुए भिखारी ठाकुर करते है-
"माई परलि पंका, बेटा दिहलन डंका, सहजे भइल हतेयारी।
जियता में कुत्ते-कुत्ता, बनिके पतोहू पूता, कटलन खूब ललकारी।
मुअता पर पिण्डा-पानी, दान होइ सोना-चानी, लोग खाई पूड़ी तरकारी।
सुन, मत मान भेद, इहे ह कुरान-वेद; कहे कुतुबपुर के भिखारी।"
(भिखारी ठाकुर रचावली,147)
इसी 'गंगा स्नान' के मेला में इच्छाधारी बाबा मलेछू बहू का गहना-गुरिया सब ठग लेता है। 'गंगा स्नान' जो हिन्दू धर्म का सबसे पवित्र स्नान है, ऐसे मौके पर मां-बाप की सेवा का व्रत दिलाना और उसे श्रेष्ठ दिखलाना, समूचे कर्मकाण्डों की व्यर्थता को साबित करना, साधु-संन्यासियों के वेश में घूम रहे 'औलादी बाबाओं' से सावधान करना, यह सब बताता है कि भिखारी तमाम बुराइयों में फंसे अपने समाज को सुंदर समाज बनाना चाहते थे। ऐसा समाज जहां ठगने-ठगाने की अब तक की परंपरा का नामोनिशान भी न रहे। दरअसल, यह पुरोहितवादी संस्कृति सदियों से दलित-पिछड़ों को ठगती आ रही है जिससे भिखारी ठाकुर अपनी रचनाओं के माध्यम से अपने दर्शकों को सजग करना चाहते हैं।
(पृष्ठ 94, 95, आरोही प्रकाशन, दिल्ली, 2014)
माता पिता के प्रति बेटे बहू के कर्तव्य पर हुसैन ने इस नाटक के जानिब बात उठाई। दरअसल वे अपने कुछ नहीं कहते बल्कि भिखारी ठाकुर की बात को सबके सामने एक आलोचक के रूप में अन्वेषण कर के रखते हैं।
गंगा स्नान का जिस तरह से वंचित और पिछड़े समाज की स्त्रियों में होड़ रहता है जिसकी चर्चा भिखारी ठाकुर ने अपने नाटक गंगा स्नान में अपने पात्रों के माध्यम से मसलन मलेच्छू, मलेच्छू की बहु, मलेच्छू का भाई अटपट, उसकी बहू के साथ मलेच्छू की माता जी के माध्यम से की है।
मलेच्छू की पत्नी को गंगा स्नान करने जाना है। पति पर दबाव बनाती है कि उसकी सास नहीं जाए पर वह जाती है। मलेच्छू की बीबी भी सत्तू, भुजा आदि लेकर जाती है। गहना भी पहनती है। सास को मेले में छोड़ आती है खुद ठगो द्वारा ठगी का शिकार हो जाती है। इस वाकया पर कबीर की एक रचना है देखें
चली है :
कुलबोरनी गंगा नहाय
सतुआ कराइन, बहुरी भुजाइन
घूँघट ओट भसकते जाये
गठरी बाँधिन मोटिन बाँधिन
खसम के मूड़े दिहै धराय
बिछुआ पहिरिन औंठा पहिरिन
लात खसम के मारिन धाय
गंगा नहाईन, जमुना नहाईन
नौ मल मैल लेहिन चढ़ाय
पाँच-पच्चीस के धक्का खाइन
घर की पूँजी आयी गँवाय
कहत कबीर हेत कर गुरु
सो नहीं तोर मुकुती जाई नसाय।
(लोई, प्रताप सोमवंशी, वाणी प्रकाशन, 2023, पृष्ठ 145 से 146)
एक जगह कबीर इस स्नान के पाखंड पर बहुत तीखा प्रहार करते लिखते हैं :
नहाये धोये क्या हुआ, जो मन मैल न जाए।
मीन सदा जल में रहे, धोये बास न जाए।
मतलब कबीर दास जी कहते हैं कि आप कितना भी नहा धो लीजिए, लेकिन अगर मन साफ़ नहीं हुआ तो उसे नहाने का क्या फायदा, जैसे मछली हमेशा पानी में रहती है लेकिन फिर भी वो साफ़ नहीं होती, मछली में तेज बदबू आती है।
इस नाटक पर आते हैं जब मलेच्छू अपनी बीबी के कहने पर अपनी मां को मेला में इसी मेला गंगा स्नान के मेले में छोड़ आता है तो उसकी बुजुर्ग मां की स्थिति बहुत ही दयनीय हो जाती है। वह भीख मांगती है। भोली भाली महिला निसहाय है। उधर मलेच्छू की बीबी को संत के रूप में मिले ठग अपनी ठगी का शिकार बना लेते हैं। औलाद की चाह में संत बने ठगों के पीछे जाती है और अपना सब कुछ खो आती है।
इस नाटक को पढ़ने पर जयशंकर प्रसाद के यथार्थवादी उपन्यास 'कंकाल' की याद आएगी। कैसे श्रीचंद और किशोरी संतान प्राप्ति के कारण कितनी तीर्थ यात्रा करते हैं और किशोरी श्रीचंद की पत्नी एक संत निरंजन के चक्कर में फंस जाती है। पति को उसे छोड़ कर जाना पड़ता है। आगे उपन्यास में अनेक ऐसे दृश्य उपस्थित है जो आडम्बर और ढोंग को खोल कर रख देते हैं।
'कंकाल' उसी युग का एकमात्र ऐसा बोल्ड उपन्यास है जो धार्मिक आडम्बर का न केवल पर्दाफाश करता है बल्कि उसे सामाजिक सड़न का प्रमुख कारण मानता है।
गंगा अस्नान नाटक में कैसे औलादी बाबाओं से एक पुत्र के चाहत में स्त्रियां अपना सब कुछ खो देती है मलेछू की पत्नी का बाबाओं से किया हुआ निवेदन पढ़े :
"ए मोर साधु बाबा, जिनिगी भर भजब राउर नाम।
रुपया लुटाइब बेंचि के देह पर के चाम, ए मोर......
जनम लिहन जहिया एक गुलाम, ए मोर.....
हुकुम का मोताबिक जुटी सब सरजाम', ए मोर......
चाहे खरचा लगिहन जतना दाम। ए मोर.....
नइखे हमरा सोना-चानी, अन-धन के काम, ए मोर......
कोखिया करावत बाटे बदनाम।ए मोर......
धधकत बाटे कहत 'भिखारी' करि के पद में प्रनाम, ए मोर......
एक पुत्र बिना भइलन दाहा' पहलाम, ए मोर.....
धधकत बाटे धरती - धाम।"
( भिखारी ठाकुर रचनावली, 148)
इस निवेदन को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि पेरुमल मुरुगन याद आते हैं। उनका नाम तमिल के महान लेखकों में गिना जाता है। अपनी किताबों में उन्होंने कई सामाजिक कुरीतियों जैसे जाति-पांति और भेदभाव पर गहरी चोट की है। साल 2010 में उनका एक उपन्यास 'मातोरुभागन' (अंग्रेजी अनुवाद : अनुरुद्धम वासुदेवन द्वारा किया गया है: One Part Woman जो Penguin, 2013 में प्रकाशित हुआ) आया। मातोरुभागन एक संतानहीन किसान दंपत्ति की कहानी है। यह उपन्यास 20वीं सदी के तिरुचेनगोडे (इरोड और नमक्कल के पास एक कस्बा) की पृष्ठभूमि पर आधारित है। इस उपन्यास में बताया गया है कि कैसे एक महिला को उसके परिवार वाले बहला कर उसे एक अजनबी शख्स से संबंध बनाने के लिए कहते हैं ताकि उन्हें एक वारिस मिल सके। ऐसे बच्चे को 'सामी पिल्लै' यानी 'भगवान का बच्चा' कहा जाता है क्योंकि अजनबी शख्स को भगवान का दूत माना जाता है।
भिखारी ठाकुर एक ऐसे नाटककार हैं जो अपने नाटकों से समाज को अधंकार से ढकने से बचाते हैं। एक ऐसी चेतना का प्रवाह करते हैं जो पैराग्मेटिक हो, हर कोई साधारण तरीके से अपना सकता है।
भिखारी ठाकुर ने इस नाटक के शुरुआत में ही एक सखि के माध्यम से खुद पकराया प्रवेश कर कहते हैं।
"ए सखी, हम गंगा नहाये ना जाइब।
गंगा नहाके का होई?
घरही में रहिके सास, ससुर, पति के सेवा करऽ।
सब तीरथ त घरहीं में बा, गंगा नहाके का होई ?
"हम ना जाइब गंगा का तीर। घरहीं बाड़न श्री रघुबीर ।।
पतिव्रत छाड़ि धर्म नहीं दूजा। करब न और देव के पूजा।।
तीरथ-बरत-आचरज जो नेमा'। सब तजि करहू, पति-पद-प्रेमा।।
माई-बाप के करिहऽ सेवा। एही से मिलिहन सरबो' देवा।।
कहे 'भिखारी' दोऊ कर जोर। ए सखी, इहे हऽ मनसा मोर॥"
(भिखारी ठाकुर रचनावली, पृष्ठ - 133)
उपरोक्त पंक्तियों में स्पष्ट है कि भिखारी ठाकुर साफ साफ कहते हैं कि गंगा नहाने से क्या होने वाला है? घर में सास, ससुर पति की सेवा करना अधिक श्रेयस्कर है। अब तीर्थ धाम घर ही है। माता पिता की सेवा करना देवता के सेवा के समतुल्य है।
इस तरह भिखारी ठाकुर के इस 'गंगा स्नान' नाटक का फ़लक व्यापक है। भिखारी ठाकुर एक साथ कई सामाजिक कुरीतियां पर प्रहार करते दिखाई पड़ते हैं। अपने समय से आगे सोचने वाला यह रंगकर्मी हमें कभी समाज सुधारक, कभी दार्शनिक, कभी मनोवैज्ञानिक तो कभी समाजशास्त्री दिखने लगता है। अभी उनके और कई पक्ष सामने आने बाकी हैं। कला समीक्षक, आलोचक और भोजपुरी के अध्येता उनके नाटक 'बिदेसिया' से आगे बढ़ कर अन्य नाटकों को सही परिप्रेक पेक्ष्य में खोले तो भिखारी ठाकुर के कई पक्ष उजागर होंगे।
सम्पर्क
मोबाइल : 09868152874
संतोष पटेल जी ने विस्तार से लिखा। आलोचनात्मक विवेक का सम्यक उपयोग किया है।
जवाब देंहटाएंललन चतुर्वेदी