कमलेश की कहानी 'बाबा साहब की बांह'

 

कमलेश


राजनीति किसी भी समाज की सोच को प्रदर्शित करने का प्रमुख माध्यम है। राजनीतिक वर्ग ही अपने समाज को नेतृत्व प्रदान करता है इसलिए उससे लोग ज्यादा अपेक्षाएं करते हैं। लेकिन जब राजनीति ही नैतिकताविहीन हो जाए तब। असल प्रश्न यही है। नैतिकता राजनीति की रीढ़ होती है। रीढ़ के बिना खड़ा हो पाना असम्भव हो जाता है। इन अर्थों में यह कहा जा सकता है कि इस वक्त की राजनीति में खड़े होने का दमखम ही नहीं। देश को दिशा दे पाने की बात ही अलग है। विडम्बना की बात यह कि जिस राजनीति से बदलाव की अपेक्षा की जाती है वही इतिहास को बदल देने का दावा जोरो शोर से करती है। कथाकार कमलेश की एक उम्दा कहानी है 'बाबा साहब की बांह'। कहानी के जरिए बातों बातों में कमलेश ने कई महत्त्वपूर्ण सूत्रों को उद्घाटित करने का कार्य किया है। इसमें हमारा समाज है। समाज की सोच है। इसमें अपने समय की राजनीति है और उसे संचालित करने वाले कुछ खुराफाती सोच के लोग हैं। बाबा साहब ने जिस समाज का स्वप्न देखा होगा, बस उसे छोड़ कर यहां पर सब कुछ है। कथाकार ने इस कहानी में कहन का निर्वहन उम्दा तरीके से किया है। वाकई बहुत दिनों बाद एक उम्दा कहानी पढ़ने को मिली। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कमलेश की कहानी 'बाबा साहब की बांह'।



'बाबा साहब की बांह'



कमलेश


वह शहर रात के आठ बजे के बाद अक्सर वीरान हो जाता। बिल्कुल श्मशान की तरह। बिजली रात के ठीक आठ बजे कट जाती और फिर बारह बजे के बाद ही आती। लिहाजा शाम में घर से बाहर निकले लोगों की कोशिश होती कि किसी तरह रात के आठ बजे के पहले घर पहुंच जाएं। दुकानें भी बंद हो जाती और सड़क के किनारे सब्जी बेचने वाले ढ़िबरियों की रोशनी में हिसाब-किताब करते रहते। जिनके लिए रात के आठ बजे के बाद घर पहुंचना विवशता होती वे घर से टार्च ले कर निकलते। गरमी में तो फिर भी लोग दस बजे रात तक अपने घर के आगे टहलते और बिजली का इंतजार करते लेकिन जाड़ों में शहर रात में भूतों का बसेरा बन जाता।  


रात में नौ बजे के बाद जब पूरा शहर अपने घरों में बिस्तर पर पड़े-पड़े बिजली बोर्ड को कोस रहा होता। वे चारो शहर के चौक पर जमा होते। ना तो उन्हें बिजली से कोई मोहब्बत थी और ना अंधेरे से नफरत। वे तो बस शहर के सुनसान होने का इंतजार करते। चारों की उम्र लगभग एक समान। यही कोई 20 से 24 के बीच। चारो शहर के अलग-अलग इलाकों से आते थे लेकिन एक जैसी रहन-सहन और एक जैसा पहनावा। चारो के बाल लम्बे थे और कपड़ों के पहनने का अंदाज बताता था कि इसको ले कर वे काफी लापरवाह हैं। जूता चारों में से कोई नहीं पहनता था। दो चमड़े के चप्पल घसीटते तो दो हवाई चप्पलों से काम चलाते। उनमें से कोई भी इंटर के आगे नहीं पढ़ पाया था। चारों के काम अलग-अलग। राघव शहर के एक किराना दुकानदार का बेटा था और पढ़ाई खत्म कर देने के बाद अपने पिता की दुकान संभाल रहा था। उसके पिता हरिवंश गुप्ता विश्व हिन्दू परिषद के कट्टर समर्थक थे। उन्हें पूरा भरोसा था कि भारत एक न एक दिन हिन्दू राष्ट्र जरूर घोषित होगा। हाई स्कूल के शिक्षक और शहर के क्षत्रिय महासभा के अध्यक्ष रामसुभग सिंह का बेटा सुनील तीन बार फेल होने के बावजूद इंटर में पढ़ रहा था और पढ़ इसलिए रहा था कि वह दूसरा कोई काम नहीं कर सकता था। रामसुभग सिंह के ताल्लुकात उसी जगदीशपुर से थे जहां के बाबू कुंअर सिंह ने 1857 के गदर में भाग लिया था। वे इस गौरव से लबालब भरे हुए थे। दलित जागृति केन्द्र के संस्थापक सुमेर पासवान का बेटा रवि मोबाइल फोन का मैकेनिक था और चौक के पास एक छोटी सी गुमटी खोल कर मोबाइल फोन बनाने का काम करता था। सुमेर पासवान कुछ दिनों के लिए नागपुर में रह चुके थे और वहां चले दलित आन्दोलनों में भी उनकी भागीदारी थी। लिहाजा यहां भी वे दलित जागृति केन्द्र बना कर दलितों के बीच बाबा साहब के विचारों का प्रचार-प्रसार करने में लगे रहते थे। इम्तियाज एक बड़े डॉक्टर के यहां कंपाउंडर था और डॉक्टर की क्लिनिक बंद होने के साथ उसका भी काम बंद हो जाता था। इम्तियाज के अब्बा हुजूर पांच वक्त के नमाजी थे और उन्हें इस बात का पक्का भरोसा था कि दुनिया की सारी समस्याओं का समाधान इस्लाम में है। 


जाहिर है कि चारों पिताओं की नजर में उनके बेटे नालायक थे और इन चारों को भी अपने बाप के विचारों को ले कर कोई सहानुभूति नहीं थी। चारों की प्रेमिकाएं भी थीं लेकिन वह शहर इतना छोटा था कि कोई भी नौजवान अपनी प्रेमिका के साथ ना तो किसी पार्क में जा सकता था और ना ही सिनेमा देख सकता था। यहां प्रेमिका से मिलने का मतलब था उसके घर के सामने जाना, चक्कर मारना और जैसे ही प्रेमिका अपनी छत या खिड़की पर आए तो नजर भर देखना। मोबाइल फोन के जमाने में बातचीत थोड़ी आसान हो गई थी। लेकिन बातचीत भर से मन कहां मानता है। 


काम और जाति अलग होने के बावजूद चारों की दोस्ती बेजोड़ थी और बेजोड़ इसलिए थी कि उनकी पसंद एक थी। शहर के ठीक बीच में एक चौराहा था जिसे आप चौक कह सकते हैं। चौक के ठीक बीच में एक ट्रांसफार्मर था। बांई तरफ एक गली थी जबकि दाहिनी तरफ एक चौड़ा सा चबूतरा था। चबूतरा काफी पुराना था लिहाजा उसकी हालत खस्ता होने लगी थी। लेकिन फिर भी वह देखने में खराब नहीं लगता था। इसका कारण यह था कि हर साल दो मौकों पर चबूतरे को साफ-सुथरा किया जाता और उसकी रंगाई-पुताई की जाती। ये दो मौके होते थे दुर्गा पूजा और सरस्वती पूजा के। इन दोनों मौकों पर शहर की पूजा समिति यहां मूर्तियां रखती। पूजा-पाठ के साथ नाच-गाना होता और गाहे-बगाहे सिनेमा के शो भी आयोजित होते। लेकिन पूजा खत्म होने के बाद पूजा समिति चबूतरे को भूल जाती और ऐसे में ये चारो लड़के ही उसे आबाद करते।


सरस्वती पूजा और दुर्गा पूजा को किनारे रख दें तो बाकी के पूरे साल जहां चबूतरा था वहां पूरे बाजार का कचरा फेंका जाता और मारे दुर्गंध के नाक की हालत खराब रहती। चबूतरा चौड़ा था और उस पर बैठने ही नहीं तीन-चार लोगों के सोने के लिए भी पर्याप्त जगह थी। तो साहब किस्सा यह कि वे चारो उसी चबूतरे पर रात के आठ बजे के बाद बैठ जाते और बतकही का सिलसिला शुरू कर देते। बतकही के दौरान राघव की जेब से निकलती गांजे की पुड़िया तो रवि की जेब से सिगरेट। गांजे को मसल कर तैयार करने की जिम्मेवारी सुनील की थी तो इसे करीने से सिगरेट में भरने के काम में इम्तियाज को मास्टरी हासिल थी।  इस तरह गांजे से भरी हुई चार सिगरेट तैयार होती, चारो पूरे सुकून से सिगरेट के कश लेते और पूरी दुनिया की लानत-मलामत करते। कभी-कभी रवि शराब की भी बोतल ले आता लेकिन उसमें चारो में किसी की भी दिलचस्पी नहीं थी। राघव का मानना था कि अंतरिक्ष का आनन्द लेना हो तो गांजा सबसे मुफीद चीज होती है। आनन्द भरपूर और सामने वाले को पता भी नहीं चलेगा कि आपने क्या खींच रखा है। दूसरी तरफ दारू बड़ी हरामी चीज होती है। एक तो पूरे बदन को सुस्त कर देती है और दूसरी तरफ कितनी भी मंहगी दारू पी लो सामने वाला समझ ही जाता है कि बंदे ने खींच रखी है। सुनील का मानना था कि गांजे की टान ज्ञान के द्वार भी खोलती है। कई बार तो गांजे की पहली टान के बाद ही उसे तीन-चार साल पहले पढ़ी हुई बात याद आ गई है। लिहाजा बिना नागा चारो की मंडली उस चबूतरे पर जुटती और ज्ञान के द्वार खोलने की कोशिश करती। ज्ञान के द्वार खुल जाने के बाद वे अपनी प्रेमिकाओं के अलावा उन लड़कियों की भी चर्चा करते जो चर्चा के काबिल होती थी। दिन भर अपने काम में मशगूल होने के बाद भी उन्हें यह पता होता कि कौन सी लड़की स्कूल जाने के रास्ते में किसके प्रेमपत्र किस तरह पकड़ती है और कौन सी लड़की अपने प्रेमी की आंखों को तृप्त करने के लिए कितनी बार छत पर आती है। शहर की कुछ खास महिलाओं के किस्से भी खूब मजे ले कर एक दूसरे को सुनाते। उन चारों में से ना तो किसी को मंदिर जाने का शौक था और ना ही मस्जिद में कोई दिलचस्पी। उन्हें किसी आसमानी शक्ति में भरोसा था या नहीं ये तो कायदे से उन्हें भी पता नहीं था। किसी और की पूजा या प्रार्थना से उन्हें कोई परेशानी भी नहीं होती। लेकिन इतना तय था कि गांजा का नशा चाहे कितना भी गहरा हो जाए वे कभी जाति-धर्म की बात नहीं करते। जब रात गहरा जाती, माहौल एकदम शांत हो जाता और नींद का सुरूर छाने लगता तो इम्तियाज सुर साधता। गजब की आवाज। रफी के गीतों को जब डूब कर गाता तो जैसे अंधेरे में डूबा शहर हिलकोरे लेने लगता। जब गांजे की टान का असर कुछ ज्यादा हो जाता तो वह लता मंगेशकर के भी गीत गाता। कई बार ऐसा भी हुआ कि जब उसने डूब कर गाना शुरू किया- मन क्यूं बहका रे बहका आधी रात को.... तो आसपास के कई घरों  की खिड़कियां खुल गई। उसके गाने के साथ ही बैठकी खत्म होती। घर पहुंचते तो कुछ बाप की डांट खाते और कुछ मां के हाथों की रोटी। यही रोज का आलम था और उनकी दुनिया ऐसे ही चल रही थी।


लेकिन साहब, कितनी भी कोशिश कर लो दुनिया एक तरह से नहीं चलती। वह बदलती है और आप में भी बदलाव लाती है। एक दिन उनकी भी दुनिया के बदलने की शुरूआत हो गई। चबूतरे के बाईं तरफ जो गली थी वह एक छोटे से मैदान में जा कर खत्म होती थी। यह मैदान धीरे-धीरे ऐसे लोगों की शरणगाह बन गया था जो आस पास के गांवों से यहां आ कर रिक्शा-ठेला चलाने का काम कर रहे थे। जब भी जिले में बाढ़ आती तो ऐसे लोगों की तादाद शहर में बढ़ जाती। शहर गंगा नदी के एकदम किनारे था और सुरक्षा के कुछ खास इंतजाम नहीं थे। गंगा नदी में हर साल तय समय पर बाढ़ आती और आस पास के गांवों के दर्जनों लोगों को बेघर और बेकाम कर देती। बाढ़ खत्म होते ही ऐसे लोग शहर पहुंच जाते और किसी भी दाम पर अपनी सेवा देने के लिए तैयार हो जाते। ऐसे लोगों की बढ़ती संख्या के कारण उस मैदान में एक छोटी-मोटी झोपड़पट्टी आबाद हो गई। लोगों का कहना था  कि आस पास के इलाकों में सक्रिय नक्सली संगठन के लोग जब शहर में आते हैं तो इसी झोपड़पट्टी में पनाह पाते हैं। पुलिस को संदेह था कि शहर में अचानक बढ़े अपराधों का संबंध भी इसी झोपड़पट्टी से है। लिहाजा पुलिस अक्सर झोपड़पट्टी में घुस जाती और किसी न किसी लड़के को पकड़ कर थाना ले आती। शहर में कहीं चोरी-चकारी हो जाए तो फिर तो यहां के लड़कों की शामत ही आ जाती। बहरहाल झोपड़पट्टी के लड़कों ने इधर अम्बेडकर नगर का बोर्ड भी लगा दिया था।


झोपड़पट्टी खड़ी हुई तो शहर का माहौल भी बदला। माहौल बदला तो अचानक एक दिन चौक वाले चबूतरे का रूप भी बदल गया। जो चबूतरा पूजा के आयोजन को छोड़ कर पूरे साल खाली रहता था उस पर रातो रात एक छोटी सी मूर्ति ला कर लगा दी गई। मूर्ति देख कर पता चल जाता था कि इसे किसी कुशल कारीगर ने नहीं बनाया है। क्योंकि कोई जानकार आदमी ही इसे देखकर बता सकता था कि कलाकार ने बाबा साहब भीम राव अम्बेदकर की मूर्ति बनाने की कोशिश की है। इस मूर्ति को देख कर पूरा शहर चौंका। चौंका इसलिए कि अगर चबूतरे पर बाबा साहब की मूर्ति रहेगी तो पूजा समिति साल में दो बार प्रतिमा कहां रखेगी। कुछ लोगों को आशंका थी कि यह काम दलित जागृति केन्द्र वालों का है तो कुछ लोगों को पक्का यकीन था कि यह झोपड़पट्टी के लड़कों का काम है। हालांकि इसको ले कर अब तक कोई  खुल कर बोल नहीं रहा था। लेकिन पूजा समिति खामोश नहीं थी। समिति के अध्यक्ष ने झोपड़पट्टी की ओर इशारा करते हुए खुलेआम एलान कर दिया कि जिसने भी यह मूर्ति वहां लगाई है वह हटा ले वरना समिति के कार्यकर्ता इसे अपने तरीके से हटा देंगे। झोपड़पट्टी के लड़कों का कहना था कि उन्होंने मूर्ति लगाई ही नहीं है इसलिए इसे हटाने का सवाल ही नहीं उठता। लड़कों ने साथ में यह भी कह दिया कि उन्होंने भले इस मूर्ति को नहीं लगाया हो लेकिन अगर बाबा साहब की मूर्ति के साथ छेड़छाड़ हुई तो वे चुप नहीं बैठेंगे।


हालांकि इस चबूतरे का सबसे ज्यादा इस्तेमाल जो चार लड़के कर रहे थे उनके लिए मूर्ति स्थापित हो जाने के बाद भी कोई फर्क नहीं पड़ा। मूर्ति के वहां आ जाने के बावजूद इतनी जगह बच जाती थी जहां बैठ कर वे गांजा की टान खींच सके और अपने ज्ञान से एक दूसरे को लाभान्वित कर सके। इस मूर्ति को ले कर जब पूजा समिति शहर के अलग-अलग मुहल्लों में बैठकों का आयोजन कर रही थी उसी समय एक और बड़ी घटना घट गई। हुआ यह कि अचानक राज्य में विधानसभा चुनाव की घोषणा हो गई। और इसके साथ ही पूरे शहर में जैसे भूचाल आ गया।





विधानसभा चुनाव की घोषणा होने के साथ ठहरा हुआ शहर अचानक दौड़ने लगा। अहले सुबह से शहर व्यस्त हो जाता। जुलूस, रैली और भाषण। परचा, पोस्टर, बैनर और बिल्ले। रंग-बिरंगे झंडे और टोपियां। रथ दौड़ रहे हैं तो हेलीकाप्टर उड़ रहे हैं। ठेले से ले कर रिक्शे तक पर लाउडस्पीकर और उससे गूंजते नारे। एक से एक नारे तो दुनिया को बदल देने के वादे भी। टीवी की बहसों में लोग अपने रोजमर्रे के जीवन के मुद्दे खोज रहे थे और अखबारों में उन सवालों के जवाब तलाशे जा रहे थे जिनसे लोग दो-चार होते हैं। सबके सरकार बनाने के दावे। शहर में भी गोलबंदी हो गई। कुछ किसी दल के साथ तो कुछ किसी दल के साथ। लोगों ने अपनी जातियों के हिसाब से दल तलाश लिये। इस हंगामे का नतीजा यह हुआ कि पूजा समिति का चबूतरे को ले कर चल रहा अभियान खटाई में पड़ गया। दरअसल पूजा समिति के अध्यक्ष एक दल के उम्मीदवार के साथ घूम रहे थे तो महासचिव दूसरे उम्मीदवार के साथ। समिति के कार्यकर्ता भी अपनी-अपनी जाति के हिसाब से किसी न किसी दल के पीछे घूम रहे थे। लिहाजा चबूतरा बचाने की चिंता अब पीछे छूट गई थी।


रात में चबूतरे पर बैठे चारो भी इस माहौल का पूरा मजा लेते। उनकी बहस के विषय बदल गये थे। पूरी दुनिया को गाली देने वाले या शहर की एक-एक लड़की का हिसाब-किताब रखने वाले ये लड़के गांजा की पहली टान के साथ ही नेताओं के भाषणों और उनके वादों का मजाक उड़ाने में जुट जाते। यह काम उन्हें ज्यादा मजेदार लगता। राघव तो नेताओं की आवाज की नकल में करने उस्ताद था। लेकिन एक दिन तो उसकी आवाज ने ऐसा बखेड़ा कर दिया कि मारपीट की नौबत आ गई। हुआ यह कि राघव एक दिन अपने अंदाज में नेताओं की आवाज की नकल कर रहा था और उसे यह पता ही नहीं चला कि उसे सुनने के लिए दो चार लोग अपने घरों से निकल कर आ गये हैं। रवि ने उसे चढ़ाया और राघव सूबे के एक बड़े नेता के भाषण देने की नकल करने लगा। सुन रहे कुछ लोगों को बुरा लगा और वे लोग चबूतरे से राघव को खींचने लगे। किसी ने पास में पड़े डंडा को उठा कर चलाया। वह तो उसे डंडा उठाते सुनील ने देख लिया था और डंडा चलाने वाले का हाथ पकड़ लिया। हमलावर का निशाना चूक गया और किसी तरह जान बच गई राघव की। किसी तरह बीच-बचाव हुआ। 


एक समझदार ने विरोध करने  वालों को समझाया- “अरे गंजेड़ी-भंगेड़ी की बात का क्या बुरा मानना भाई। नशे में बोलते हैं। बाद में ठीक हो जाते हैं।”


“नशा करते हैं तो अपने घर में रहे। हमारी पार्टी को ले कर कुछ उट-पटांग बोलेंगे तो हाथ-पांव तोड़ कर सरिया देंगे।” डंडा हाथ में लिए हुए आदमी अभी भी तैश में था।


“पुलिस से कह कर इ सब का चबूतरा पर बैठना छुड़ाना होगा।” हमला करने वालों में से एक ने कहा।

 

इधर ये चारों हैरत में थे- हंसी-मजाक पर भी लोग जान ले लेंगे क्या? 


ऐसे ही समय में शहर में मानो एक विस्फोट हुआ और इस विस्फोट ने चबूतरे का सवाल एक नये रूप में सबके सामने ला कर खड़ा कर दिया। सरकार बनाने का दावा करने वाले दल के एक बड़े चिंतक ने घोषणा कर दी कि देश में चल रही आरक्षण की व्यवस्था पर पुनर्विचार की जरूरत है। दूसरे दल के नेता ने तुरत लोगों को सावधान किया- पुनर्विचार माने आरक्षण खत्म। सावधान रहना भाइयो। उसे वोट देने का मतलब आरक्षण खत्म। 


चुनाव में व्यस्त शहर जैसे मंत्र टूटे सांप की तरह पलटा। पता नहीं नशा टूटा था या किसी नये नशे ने जकड़ा था। देखते-देखते पूरे शहर की बहस आरक्षण पर आ कर केंद्रित हो गई। चौक-चौराहों पर, चाय-पान की दुकानों पर और दफ्तरों में होने वाली गप्पबाजी में। सबने अपने पक्ष तलाश लिये। कई जगह पर बातचीत से शुरू हुई बहस मारपीट पर आ कर खत्म होती। एक दिन तो बड़ी घटना हो गई। झोपड़पट्टी के पास शुरू हुई बहस में मारपीट हुई और दोनों तरफ से हथियार निकल आये। गोली चली और झोपड़पट्टी के एक नौजवान की मौत हो गई। इसके बाद तो पूरा शहर सिहर गया। चुनाव के बावजूद शहर में उस दिन जैसे कर्फ्यू लग गया। पूरा शहर सुनसान। पुलिस की गाड़ियां दिन भर शहर में घूमती रही। मारा भले झोपड़पट्टी का लड़का गया था लेकिन शाम में पुलिस ने वहीं के लोगों को लाकर हाजत में बंद कर दिया। दूसरे पक्ष के लोगों को भी पकड़ा गया लेकिन वे शाम होते-होते अपने घर पहुंच गये। 


शहर भले पूरा दिन सन्नाटे में डूबा रहा लेकिन चौक का चबूतरा उस दिन भी रात में आबाद हुआ। 


उस दिन रात में गांजे की पहली टान लगाते ही राघव ने आंखें बंद की और धीरे से कहा- “साला, आरक्षण रहे कि खत्तम हो जाए। का फर्क पड़ता है? सरकार के पास नौकरी तो है नहीं। साला आरक्षण ले कर चाटते रहिये। अरे आरक्षण को ले कर कटने-मरने के पहले नौकरी तो मांगो।”


रवि ने पहले गौर से राघव की बात सुनी। फिर इत्मिनान से सिगरेट का कश खींचा और मुंह को बंद कर धुंए को फेफड़े के भीतर घूमने का पूरा अवसर दिया। पांच मिनट के भीतर ही आंखें लाल होने लगी, दम फूलने लगा और उसने झटके से पूरा मुंह खोल दिया। धुंआ मुंह के रास्ते सीने से बाहर आने लगा। उसने राघव को देखा और धीरे से कहा- “तुझे बड़ा ज्ञान हो गया आरक्षण का? साले, पढ़ाई की होती तब तो नौकरी की बात होती। जो लोग पढ़-लिख रहे हैं उनको तो नौकरी मिल रही है। और फिर आरक्षण केवल नौकरी के लिए थोड़े है। यह तो एक अधिकार है लोगों का।”


इम्तियाज अचानक हंसा और जोर से कहा- “लेकिन आरक्षण की बात जिसने पहली बार सोची होगी वह बड़ा कमाल का आदमी होगा रे भाई। अगर उसने इसके बारे में नहीं सोचा होता तो रवि भी आज कहीं सड़क के किनारे बैठ कर जूता पालिश कर रहा होता और सुनील आज भी अपने दादा-परदादा की तरह जमींदारों की कचहरी में पान खा कर बैठता और मजे लेता।”


“हां यार। लेकिन सोचा किसने पहली बार?” सुनील मानो अंतरिक्ष में जा चुका था। 


“इंटर में तीन बार यूं ही फेल नहीं हुआ है साला। अरे ये किसकी मूर्ति है?” राघव भी गांजे के सुरूर में आने लगा।


सुनील ने मिचमिचाई आंखों से मूर्ति की तरफ देखा और हंसा- “अच्छा बाबा साहेब। इ तो पढे थे ना मैट्रिक में। इ तो संविधान बनाये हैं।” 


रवि जोर से हंसा- “अरे बोका। उसी संविधान में बाबा साहब ने आरक्षण का भी नियम बना दिया। बाबा साहब ने ऐसा नहीं किया होता तो सुनीलवा जैसे लोग तो हमें खाट पर भी नहीं बैठने दे रहे थे। अरे  हमारे बाबू जी अपने संस्थान के लोगों को बताते हैं तो करेजा कांप जाता है साला। बाप रे बाप केतना जुलुम करता था लोग।”


राघव ने गांजे वाली सिगरेट का कश धीरे से खींचा और मुंह से धुंआ निकालने लगा- “जुलुम तो अब भी होता है रे भाई। लेकिन आरक्षण नहीं होता तो साला मरने था एकदम।”


राघव की बात सुन कर सुनील जोर से हंसा। इसके बाद उसने रवि की पीठ पर धप्प से मारा- “इसका मतलब तो यह हुआ कि आरक्षण लागू नहीं हुआ होता तो हम लोग साथ-साथ अंतरिक्ष यात्रा पर भी नहीं जाते। गुड बात। बाबा ने एकदम ठीक काम किया।” 





उसकी बात सुनते ही चारो जोर से हंस पड़े। तभी उन्हें खनखनाती हुई हंसी सुनाई पड़ी। रवि ने राघव  को कोहनी मारी- “अरे, दिलजानी लोग अपने काम पर निकल गई हैं।” 


झोपड़पट्टी से महिलाओं का एक झुंड निकला था। रात के अंधेरे में यह झुंड कहां जाता था किसी को नहीं पता। लेकिन शहर के लोगों का कहना था कि रात में ये महिलाएं रेलवे स्टेशन पर जाती हैं और अपने लिए ग्राहक फंसाती हैं। 


“तुम लोग भी चलो हमारे साथ काम पर।” एक औरत ने हंस कर कहा। रवि उसकी आवाज सुनते ही चबूतरे से उतर आया और बोलने वाली औरत का चेहरा गौर से देखने की कोशिश की। 


वह औरत भी करीब आ गई। रवि की आंखें गांजा के नशे में भारी हो रही थी। वह उन्हें फैला कर उस औरत का चेहरा देखने की कोशिश कर रहा था। लेकिन घुप्प अंधेरे में उसका चेहरा दिखाई नहीं पड़ा। इम्तियाज चिल्लाया- “साले, आजा चुपचाप इधर। वरना तेरे को साथ ले कर चली जाएगी।” 


उसके चिल्लाते ही राघव और सुनील के साथ सामने खड़ी औरतें भी जोर-जोर से हंसने लगी। रवि आंखें मसलते हुए चुपचाप आ कर चबूतरे पर बैठ गया। उसने राघव की पीठ पर हाथ रखा और धीरे से कहा- “पता नहीं  क्यों उसकी आवाज जानी-पहचानी लग रही थी।” उसकी बात खत्म भी नहीं हुई थी कि इम्तियाज ने जोरों से सुर साधा- “तेरी आंखों के सिवा दुनिया में रखा क्या है......।” गाना शुरू होते ही बाकी के तीनों चुप हो गये थे। मानो वे सभी अपनी प्रेमिकाओं की आंखों के बारे में सोच रहे हों। जैसे-जैसे रात गहरा रही थी इम्तियाज की आवाज फैलती जा रही  थी।


अगली रात चबूतरे पर बैठते ही रवि चौंका था। उसे लगा कि चबूतरा पर कुछ बदला सा है। कुछ ऐसा यहां है जो कल तक नहीं था। उसने अपने मोबाइल फोन की टार्च जलायी और चबूतरे पर नजर डाली। उसे कुछ भी ऐसा नहीं मिला जो पहले नहीं था। वही गंदगी, धूल और दुर्गन्ध। वह टार्च बुझाने ही वाला था कि इम्तियाज चिल्लाया- “अरे, यह क्या है?” 


रवि ने उस तरफ टॉर्च की रोशनी फेंकी। चबूतरे पर जहां बाबा साहेब की मूर्ति खड़ी थी उसके ठीक नीचे एक बड़ा सा कागज सटा था। सुनील कागज के करीब गया और उसने पढ़ने की कोशिश की- देवी स्थान पर कोई और प्रतिमा नहीं रहेगी। प्रतिमा को हटाना होगा। 


“साला, ये बखेड़ा तो शांत हो गया था। अब किसने इसे फिर से शुरू कर दिया”- सुनील बड़बड़ाया।


राघव ने इम्तियाज की तरफ देखा जो मूर्ति को गौर से देख रहा था। बाबा साहेब की मूर्ति का एक हाथ टूट कर नीचे गिरा था। ये वही हाथ था जिसकी एक अंगुली सामने की तरफ कुछ दिखा रही थी। टूटा हुआ हाथ एक तरफ पड़ा था। तभी सुनील को कुछ और दिखा। उसने रवि को उस तरफ टॉर्च घुमाने का इशारा किया जिधर वे लोग पांव पसार कर बैठा करते थे। वहां ओड़हुल के कुछ फूल रखे हुए थे और लाल रंग से कुछ टीकानुमा आकुति बनाई हुई थी। 


मतलब साफ था। लोगों ने चबूतरे का पुलंदा बांधने का पूरा इंतजाम कर दिया है। राघव ने देखा, रवि चुपचाप एकटक बाबा साहब की प्रतिमा को देखे जा रहा था। मूर्ति में अचानक क्या खास दिखाई पड़ रहा है जो रवि उसे देखे जा रहा है। राघव ने भी मोबाइल का टार्च जला कर देखने की कोशिश की लेकिन उसे कुछ दिखाई नहीं पड़ा, सिवाय उस टूटे हाथ के जिसका एक हिस्सा अभी भी चबूतरे पर पड़ा था। 


माहौल बदल चुका था। चबूतरे पर एक अजीब सा सन्नाटा तारी था। कोई कुछ नहीं बोल रहा था। राघव की जेब से पुड़िया भी निकली और रवि की जेब से सिगरेट भी बाहर आई। गांजा सिगरेट के अंदर पहुंचा और फिर धुंआ सीने के अंदर। लेकिन ना तो वहां कोई बतकही थी और ना ही हंसी के ठहाके। देर रात गली से औरतें भी निकली और उन लोगों ने चुहल भी की लेकिन इन लड़कों की जुबान से आवाज नहीं निकली। रोज की अपेक्षा आज जल्दी ही चबूतरा खाली हो गया और एक-एक कर सभी लड़के निकलते गये। किसी की जुबान से कोई आवाज नहीं। 


सुनील ने रवि की पीठ पर हाथ रखा लेकिन उसे महसूस हुआ कि वहां रोज वाली गरमी नहीं थी। एकदम ठंडी पीठ। आम दिनों में जैसे ही सुनील रवि की पीठ पर हाथ रखता वह उसके कंधे पर हाथ डाल देता। लेकिन आज सुनील को लगा कि रवि कुछ खिंचा हुआ है। कुछ अलग, कुछ अपने में खोया हुआ। आज पहली बार गांजा भरी पूरी एक सिगरेट सुनील की आंखों में नींद नहीं ला सकी। 


अगली सुबह पूरे शहर में तूफान था। चुनाव का वक्त और बाबा साहेब की मूर्ति का टूटना। सबके लिए वोट का पूरा जुगाड़ था। देखते-देखते गंदगी और कूड़े से भरे उस चौक पर लोगों की भीड़ उमड़ आई। झोपड़पट्टी के लड़कों ने बांहें लहराई लेकिन बड़े-बूढ़ों ने तुरंत उन्हें पीछे खींचा- चार दिन पहले एक लाश गिर चुकी है। अब कोई खून-खराबा नहीं चाहिए यहां। हम अपने इलाके में बनवा लेंगे बाबा साहब की मूर्ति। लेकिन लड़के नहीं माने। देखते-देखते दर्जनों लड़के निकल पड़े। ना झंडा ना पताका। उनके पीछे झोपड़पट्टी के लोग तो वैसे नेता भी जिन्हें इसमें अपना फायदा नजर आया। लड़कों ने तय किया कि वे वहीं डेरा-डंडा डालेंगे और जब तक मूर्ति क्षतिग्रस्त करने वालों को गिरफ्तार नहीं किया जाता तब तक धरना और अनशन। धीरे-धीरे चबूतरे के पास भीड़ बढ़ने लगी। झंडे-पताके भी दिखाई पड़ने लगे। नारे अपनी हदें तोड़ने लगे। माहौल भारी होने लगा। तय हुआ कि अगले दिन जुलूस निकलेगा और पूरे शहर को ठप किया जाएगा। शहर के हाकिम-कोतवाल भी सतर्क हो गये। अगले दिन जुलूस निकला तो जरूर लेकिन बढ़ नहीं पाया। सामने पुलिस धारा 144 लागू करने की नोटिस ले कर खड़ी थी। जुलूस में शामिल लोगों ने नोटिस को मानने से इनकार किया और फिर लाठियां चली। इधर से ईंट-पत्थर चले और फिर पुलिस ने झोपड़पट्टी में घुस कर बच्चों से ले कर महिलाओं और बूढ़ों तक को पीटा। कई लड़के गिरफ्तार हुए तो कुछ गिरफ्तारी के डर से शहर छोड़ कर चले गये। चुनाव के नशे में झूमता शहर एकाएक खामोश हो गया था। कर्फ्यू तो नहीं था लेकिन सड़कों पर सन्नाटे का अंदाज कर्फ्यू वाला ही था। 


चबूतरे पर धारा 144 लागू हुई और वहां फोर्स तैनात कर दी गई। हरवे-हथियार से लैस दस पुलिस वाले हर वक्त डटे रहते। किसी के भी वहां आने पर मनाही थी। अगर कोई भूले-भटके भी वहां पहुंचता तो पुलिस वाले बगैर कुछ पूछे उसकी धुलाई शुरू कर देते। इधर शहर के पूर्वी छोर पर बनी कुंअर सिंह की प्रतिमा के पास भी पुलिस के जवानों की चहलकदमी शुरू हो गई। डर था कि कहीं प्रतिशोध में इस प्रतिमा को नुकसान न पहुंच जाए। कुछ लोगों ने वहां भी डेरा-डंडा डाल दिया और भजन-कीर्तन शुरू कर दिया। ऐसा लग रहा था जैसे पूरा शहर दो हिस्सों में बंट गया हो। 


और किसी के लिए भले यह कोई और मसला हो लेकिन उन चारों के लिए तो यह मानो जीवन-मरण का सवाल हो  गया था। उनका चबूतरा छीन लिया गया था और अब उन्हें नई जगह तलाशनी थी। लेकिन वे जाएंगे कहां। उस रात चबूतरे के पास सबसे पहले पहुंचा सुनील। वहां चबूतरे पर बैठे चार सिपाही ताश खेल रहे थे तो एक सिगरेट के कश खींच रहा था। एक अन्य सिपाही उचक-उचक कर उस तरफ देख रहा था जिधर से झोपड़पट्टी की महिलाएं निकलती थी। सुनील के बाद इम्तियाज और राघव भी वहां पहुंचे। लेकिन रवि नहीं आया। तय हुआ कि चबूतरे से कुछ दूर ठहर कर रवि के आने का इंतजार करते हैं और इसके बाद आज गंगा नदी के ही किनारे मजमा जमाते हैं। आठ बजे के नौ बजा और फिर दस भी बज गये लेकिन रवि नहीं आया। उसका मोबाइल फोन भी बंद था। ये बड़ी अजीब बात थी। पिछले पांच वर्षों में यह पहला मौका था जब चारों में से कोई एक तय समय पर वहां नहीं पहुंचा हो। तीनों ने तय किया कि रवि के घर चलते हैं। बीमार तो नहीं पड़ गया। रवि का घर शहर के दक्षिणी इलाके में बने मुहल्ले में था। उसका घर घोर अंधेरे में डूबा हुआ था। सुनील ने जोर से आवाज दी- “रवि...... ओ  रवि...... अरे घर में हो का भाई?”


दरवाजा खुला तो जरूर लेकिन रवि नहीं निकला। उसकी जगह उसके पिता निकले थे- खांसते हुए। उन्होंने तीनों को हिकारत से देखा- “क्यों, गिरोह आज यहां क्या कर रहा है?”


इम्तियाज ने उनकी बातों पर ध्यान नहीं देते हुए कहा- “रवि कहां है?”


“उसके बारे में तो हम लोगों से ज्यादा तुम लोग ही जानते हो। रोज की तरह सुबह में ही निकला है लेकिन अब तक नहीं लौटा है।” उसके पिता ने कहते हुए वापस दरवाजा बंद लिया। तीनो सन्न। कहां चला गया? कुछ कर तो नहीं बैठा? कहां खोजे? कहीं ऐसा तो नहीं कि वह उनके पहले चबूतरे पर पहुंच गया हो और पुलिस वालों ने उसे पकड़ लिया हो। हां, हो सकता है कि उसे पकड़ने के बाद उसे थाने में ले जा कर बंद कर दिया होगा। तीनों थाने की तरफ लपके लेकिन वहां तो आज कोई गिरफ्तारी ही नहीं थी। वे उदास मन से वापस लौटे। जेब में पुड़िया भी थी और सिगरेट भी लेकिन आज ना तो सुनील ने गांजे का मसाला तैयार किया और ना ही इम्तियाज ने उसे सिगरेट में भरा। आज ना तो किसी की अंतरिक्ष भ्रमण पर निकलने की इच्छा थी और और ना इम्तियाज के गानों में डूब कर प्रेमिका को याद करने की। तीनों भारी कदमों से अपने घर की तरफ चल पड़े।


“ये बहुत गलत हुआ भाई। मूर्ति तोड़ने से किसी को क्या मिला? शहर में तो इसको ले कर जो हुआ सो हुआ ही हमारे लिए भी परेशानी हो गई।” इम्तियाज ने राघव के कंधे पर हाथ रख कर कहा।


“अरे, आपको वहां पूजा करना है तो कर लो। बाबा साहब की मूर्ति किसी को रोकने थोड़े जा रही थी। एक तरफ बाबा साहब की मूर्ति थी तो आप दूसरी तरफ अपनी मूर्ति रख लेते। क्या फर्क पड़ जाता? हम लोग वहां इतने दिनों से अंतरिक्ष भ्रमण कर रहे हैं लेकिन मूर्ति के चलते तो हमें कोई परेशानी नहीं हुई।” सुनील मानो गुस्से में था।


“यही तो मूल मसला है सुनील। जहां पूजा होगी वहां बाबा साहब कैसे रहेंगे। तुम्हें पता है न। इस देश में पहले दलितों को मंदिर में घुसने भी नहीं दिया जाता था। मंदिर तो दूर खास कुंओं और तालाब का पानी नहीं लेने दिया जाता था। वह तो बाबा साहब ने इसको ले कर काफी लड़ाई लड़ी।” राघव बोलते हुए एकदम गंभीर हो गया था। 


“अच्छा तो इसीलिए उनकी मूर्ति तोड़ी गई।” सुनील को धीरे-धीरे बात समझ में आने लगी।


“लेकिन यार, रवि पर इसका बहुत गहरा असर पड़ा है। वह कहीं कुछ कर ना बैठे।” इम्तियाज चलते-चलते अचानक रुक गया।


“कुछ नहीं करेगा। इतना कमजोर नहीं है वह।” सुनील ने जैसे दूसरों के बजाय अपने आप को आश्वस्त करने की कोशिश की।


“लेकिन यार एक बात बताओ। ये पुलिस वाले वहां डेरा-डंडा क्यों डाले हुए हैं? पुलिस वाले वहां नहीं रहें तो क्या फर्क पड़ जाए? और शहर के लोगों को भी इस बात से कोई मतलब नहीं है। पूरा चबूतरा घेर कर बैठ गये हैं साले।” इम्तियाज की गंभीरता अभी तक बरकरार थी।


“हां यार, होना तो यह चाहिए था कि पहले बाबा साहब की मूर्ति को ठीक-ठाक कराया जाता। जरूरत पड़ती तो दूसरी मूर्ति उनकी लगा दी जाती। और जो इसका विरोध करने आता उससे दो-दो हाथ फरिया लिया जाता।” राघव ने जैसे कुछ सोचते हुए कहा। 


सुनील को लगा कि राघव की बातों में दम है। उसने राघव का कंधा पकड़ा। राघव ने घूम कर सुनील की तरफ देखा। उसकी आंखें मानो कुछ कह रही थी। सुनील ने कुछ कहा नहीं और उसके कंधे को जोर से दबाया और फिर धीरे-धीरे तीनों अलग-अलग रास्तों पर अपने घर की तरफ निकल गये।





अहले सुबह उठा सुनील। यही कोई सुबह के तीन बजे। अभी अंधेरा बरकरार था और आकाश में तारे भी चमक रहे थे। सुनील ने मानो रात में कुछ तय किया था। उसने राघव को फोन किया और दस मिनट के भीतर दोनों चौक पर हाजिर थे। सुनील चौका। रवि और इम्तियाज वहां पहले से मौजूद थे। मतलब उन्हें राघव ने सूचना दे दी थी। सुनील के हाथों में प्लास्टर ऑफ पेरिस का डब्बा था। चबूतरे पर अड्डा जमाये पुलिस वाले जहां-तहां लुढ़के पड़े थे। एकदम सुबह की ठंडी हवा ने नींद को और गहरी कर दिया था। जेनरेटर रात भर गरजने के बाद अब थक कर शांत हो चुका था। रवि ने बाबा साहेब की टूटी हुई हाथ को उठाया और सुनील प्लास्टर ऑफ पेरिस के सहारे उसे जोड़ने की कोशिश करने लगा। राघव और  इम्तियाज ने अपने-अपने मोबाइल फोन का टार्च जला दिया था ताकि काम करने  में कोई परेशानी नहीं हो।

 

अचानक जैसे कहर टूटा था। वार जबर्दस्त था और सुनील को संभलने का मौका तक नहीं मिला। वह एक तरफ गिरा तो रवि दूसरी तरफ छटपटा रहा था। चार-पांच पुलिस वाले गंदी-गंदी गालियां देते हुए चिल्ला रहे थे। एक ने राघव की कालर पकड़ रखी थी तो दूसरा इम्तियाज पर घूंसो से वार कर रहा था। एक दारोगा टाइप अधिकारी आगे बढ़ा और अपने जूते की भरपूर ठोकर रवि की पसलियों में मारी। रवि को लगा जैसे उसकी सांस रुक गई हो। उसने पसलियों को दबाया और चिल्लाने की कोशिश की लेकिन आवाज मानो भीतर ही घुट कर रह गई। मुंह से लार बाहर निकलने लगी। 


“साले, नक्सलियों की औलाद। शहर में दंगा करवाने की साजिश रचते हो?” इस बार उसने जोर का थप्पड़ इम्तियाज की कान पर मारा। इम्तियाज को लगा मानो उसका कान सुन्न पड़ गया हो और उसे कुछ सुनाई नहीं पड़ रहा हो।


राघव ने कराहती आवाज में कहा- “आप गलत समझ रहे हैं सर। हम तो बस बाबा साहब की मूर्ति की टूटी हाथ जोड़ना चाहते थे।” 


दारोगा जोर से हंसा- “हरामजादों, यहां धारा 144 लगी है। किसी का भी आना और कुछ भी छूना मना है। और तुम लोग मूर्ति का हाथ जोड़ने आ गया रे साला। बोका किसको बनाता है रे?”


“हुजूर मेरी समझ में एक बात आ रही है।”- एक सिपाही दारोगा की ओर इस तरह आया जैसे वह कोई खास बात उसे बताना चाहता हो। 


“हुजूर, मुझे तो लगता है कि शहर में दंगा कराने के लिए पहले तो इन्हीं लोगों ने मूर्ति की हाथ तोड़ दी। लेकिन हम लोगों की मुस्तैदी से जब कुछ नहीं हुआ तो अब हाथ को जोड़ कर कोई नया खेल रच रहे हों। हुजूर इन्हें थाना ले चल कर अपने अंदाज में पूछते हैं कि इनका प्लान क्या था।” 


दारोगा को सिपाही की बात में वजन लगा। उसने शाबाशी के अंदाज में सिपाही को देखा और फिर राघव को जोरदार डंडा मारा। फिर उस सिपाही की तरफ घूमा- “चारो को उठा कर जीप में डालो तो जरा। मार के आगे तो मुर्दा मुंह खोल देता है इ सब तो अभी खिच्चा जवान है।”


एक सिपाही ने सबसे पहले रवि का हाथ पकड़ा और इस तरह खींचा गोया उसे उखाड़ना चाहता हो। रवि जोर से चीखा- “माई रे। जान गया रे माई।” 


“अरे-अरे-अरे। सिपाही जी क्या कर रहे हैं? बच्चे की जान लीजियेगा क्या?” एक महिला की आवाज सुन कर दारोगा पलटा। सामने सात-आठ महिलाएं खड़ी थी। रवि ने बंद होती आंखों को खोलने की कोशिश की। ये तो वही हैं जो रोज रात में उन्हें छेड़ती हैं। शायद सुबह में वापस लौट रही थी। दारोगा बड़े अश्लील तरीके से हंसा, दो कदम आगे बढ़ा और एक महिला के हाथ पकड़ लिये- “तुम्हारे कलेजे में क्यों दर्द हो रहा है मेरी जान। ऐसे खिच्चा यार भी रखती हो क्या?” 


महिला हंसी। उसने भी एक कदम आगे बढ़ाया और तेज झटका दिया। झटके से हाथ छूटा और दारोगा गिरते-गिरते बचा। उसने गंदी सी गाली महिलाओं की ओर उछाली। सुनील की गरदन अपने हाथ से पकड़ी और कहा- “इन दंगाइयों का पक्ष लेती है? मारी जाएगी।”


“काहे के दंगाई दारोगा जी। सीधे-साधे लड़के हैं। रोज रात में यहां गाना गाते हैं।” कहते-कहते महिलाएं चबूतरे पर चढ़ आई थी। सुबह का उजाला फैलने लगा था। एक तरफ दारोगा और पुलिस वाले थे तो दूसरी तरफ महिलाएं। बीच में चारो लड़के अपने घाव सहला रहे थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि हो क्या रहा है। एक महिला ने अपने आंचल के कोर से रवि के होंठों से छलक रहे खून को पोछा। 


“हुआ का है दारोगा जी?” 


सभी पलटे थे। सामने दर्जनों लोग खड़े थे। इनमें अधिकतर झापेड़पट्टी के लड़के थे और कुछ शहर के दूसरे लोग। 


“हमने इन्हें....इन्हें रंगे हाथों पकड़ा है।” दारोगा हकला गया था। 


“कर क्या रहे थे ये लोग? अरे....अरे......अरे।  इ तो वही चारो लौंडा है जो यहां गांजा-वांजा पी कर गवनई-बजनई करता है।” एक बूढ़ा आदमी आगे आया था।


“का कर रहा था रे तुम लोग?” एक दूसरे आदमी ने सुनील को इशारा करके पूछा। धीरे-धीरे वहां भीड़ बढ़ती जा रही थी। 


“कुछ नहीं चा। बाबा साहब की टूटी हाथ को जोड़ रहे थे।” कराहते हुए रवि ने कहा। 


“तो इसमें गलत क्या है।” एक बूढ़े का यह कहना था कि पीछे खड़े झोपड़पट्टी के लड़कों में जोश उभर आया। देखते-देखते लड़कों की भीड़ चबूतरे पर उमड़ गई। दारोगा और सिपाहियों ने उन्हें रोकने की कोशिश की लेकिन खुद पीछे हटने लगे। फिर पता नहीं कहां गये दारोगा और कहां गये सिपाही। पता नहीं किसने सुनील के हाथ से प्लास्टर ऑफ पेरिस का डब्बा छीन लिया।  कुछ ही देर के बाद जब सुनील और राघव किसी तरह लोगों को धकिया कर मूर्ति के पास पहुंचे तो चकित रह गये। आड़ी-तिरछी ही सही लेकिन बाबा साहब की बांह वापस अपनी जगह पर सलामत हो चुकी थी। दोनों देर तक मूर्ति को देखते रहे। 

राघव और सुनील विजेता की मुद्रा में पीछे घूमे। चबूतरे पर भीड़ बढ़ती ही जा रही थी। मानो वह कोई पूजास्थल हो। रवि और इम्तियाज अपने घाव को सहलाते हुए बाबा साहब की प्रतिमा की ओर देख रहे थे। सुनील धीरे से चबूतरे से नीचे उतरा और रवि के कंधे पर हाथ रखा। रवि मुस्कुराया। सुनील ने उसकी पीठ पर हाथ रखा, अपना मुंह उसके कान के पास किया और धीरे से फुसफुसाया- “क्या बोलता है? आज का दिन बहुत मस्त है। आकाश में बादल छाये हैं। ठंडी हवा चल रही है। पुड़िया जेब में पड़ी हुई है और सिगरेट का इंतजार कर रही है। आज पहली बार सुबह में ही एक-एक टान मारते हैं।” रवि ने उसकी कमर में हाथ डाल दिया था। सुनील को कई दिनों के बाद उसके हाथों की गरमी का अहसास हुआ था। 

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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



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