यादवेन्द्र का आलेख 'स्मृतियों की नदी'

 




यायावरी मनुष्य की मूल प्रवृत्ति है। इस यायावरी के माध्यम से मनुष्य ने बहुत कुछ जाना और सीखा है। यादवेन्द्र जी मूलतः एक रचनाकार हैं और उनका मन भी यायावरी में लगा रहता है। हाल ही में राकेश तिवारी का एक यात्रा वृत्तान्त लिखा है - "सफर एक डोंगी में डगमग"। इस यात्रा वृत्तान्त को पढ़ते हुए यादवेन्द्र जी ने स्मृतियों के समंदर में गोता लगाते हुए एक आलेख लिखा है - 'स्मृतियों की नदी”। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यादवेन्द्र का आलेख 'स्मृतियों की नदी'।



'स्मृतियों की नदी'

                    


यादवेन्द्र 


नदियों के साथ मेरा मिलते जुलते रहने का रिश्ता रहा है और उत्तर पश्चिमी और पूर्वी भारत की बीस बाईस नदियों को छूने और निहारने का मौका मिला है। इनके अतिरिक्त पिछले दिनों देश की तीन बड़ी नदियों के साथ कुछ घंटे बिताने का सौभाग्य मिला - इंद्रावती (छत्तीसगढ़), शरावती और कावेरी (कर्नाटक)।


इस सिलसिले में हाल में पढ़े राकेश तिवारी का यात्रा वृत्तांत "सफ़र एक डोंगी में डगमग" मुझे बेहद पसंद आया जो बड़े खिलंदड़ अंदाज़ में दिल्ली से कोलकाता तक की डोंगी कथा कहती है।


दिल्ली की 'ओखला हेड' जैसी छोटी नहर से शुरू हुई यह रोमांचक यात्रा यमुना में मथुरा, आगरा, इलाहाबाद तक और उसके आगे बनारस, कानपुर, पटना, बक्सर होती हुई कोलकाता की हुगली में जा कर बासठ दिनों में संपन्न होती है। लेखक के साथ डोंगी भी अपना इतिहास लिखती हुई चलती है। इसमें बीच बीच में आ कर जीते-जागते किरदारों की तरह नदियाँ मिलती रहती हैं। यह रोमांच, बेचैनी, उकताहट, संघर्ष, जिजीविषा, दोस्ती और ढेरों किस्सों में बंधी किताब है जो आखिरी पन्नों तक पाठकों को बांधे रहती है।





 जहां से महेन्द्र श्रीलंका रवाना हुए


पर इस क़िताब को पढ़ाते हुए मुझे लगा कि लेखक ने बिहार में हाजीपुर के पास स्थित पहलेजा घाट से पटना के महेंद्रू घाट के बीच की यात्रा इतने आनन फ़ानन में निबटा दी कि मेरा मन अभीगा छूट गया। बचपन के पाँच छह साल हाजीपुर के घोसवर गाँव में बिताते हुए पहलेजा से महेंद्रू तक की स्टीमर यात्रा की मेरे बालमन पर अमिट छाप है, भले ही घाटों के बीच स्टीमर चलना अब बाबा आदम के ज़माने की बात हो चुकी हो। दरअसल साल में दो बार होली और दशहरे की बनारस की हमारी यात्रा अनिवार्य थी, इसके अलावा भी घेलुआ में एकाध यात्रा हो ही जाती थी। और हमारी यात्रा सिर्फ़ गंगा के इन दो घाटों के बीच संपन्न स्टीमर की इकहरी यात्रा नहीं होती थी बल्कि इसमें बैलगाड़ी (लकड़ी के बड़े आकार के खड़ खड़ करने वाले पहियों के आम रिवाज़ से हट कर रबर के टायर लगे होने के कारण बैलों द्वारा खींचे जाने के बावज़ूद लोगबाग इसको टायर गाड़ी कहते थे), रेलगाड़ी और रिक्शे के भिन्न भिन्न खण्ड शामिल होने के साथ साथ भावनात्मक उद्वेगों के अच्छे खासे टुकड़े सहज शामिल होते थे। राक्षसी दमे ने बचपन में न सिर्फ़ मेरा जीना दूभर कर रखा था बल्कि गाँव के वैद्य जी के हवाले भी किया हुआ था -- साल भर जैसे तैसे मेरी गाड़ी खिंच भी जाये बनारस जाने से पहले साँसों के अब तब का सूख जाने का माहौल बनता ही था और वैद्य जी को अपनी हर मर्ज़ की एक ही दवा साबुन जैसी लाल रंग की सिरप से ज्यादा उपवास की शक्ति पर  भरोसा था। एक बार बीमारी के कँटीले बाड़े से निकल जाएँ तो गाँव से हाजीपुर रेलवे स्टेशन तक टायर गाड़ी से जाने का उत्सव जैसा इंतज़ाम होता था -- हाजीपुर से पहलेजा घाट तक ट्रेन से जाना होता था। घड़ी और समय के अनुशासन से पूरी तरह बेख़बर मेरा बाल मन बस एक के बाद एक काम जल्दी जल्दी संपन्न हो जाने पर आ कर ठहर जाता था …… असली पेंच टायर गाड़ी के समय पर दरवाज़े आ लगने को को ले कर था, उसमें पाँच मिनट की देर भी मुझे गाड़ी छूट जाने की आशंका से रोने की कगार तक ले जाती--- इस बीच यदि घर के पिछवाड़े की रेल लाइन से कोई गाड़ी निकल जाये तो फिर फ़रक्का बाँध टूट जाने से होने वाला जल प्रलय भी मेरे विलाप से निकले आँसुओं के सामने बौना पड़ जाये। हमें घाट तक ले जाने वाली गाड़ी उस रास्ते नहीं गुज़रती यह पिता जी बीसियों बार मुझे समझा चुके थे पर समझे तो वो जो समझना चाहे। खैर सारी बाधायें पार कर हम स्टेशन पहुँचते, वह संक्षिप्त यात्रा आम रेल यात्राओं जैसी अरोमांटिक अंदाज़ में पूरी हो जाती। पहलेजा घाट में स्टीमर तक पहुँचने में जितना पैदल चलना पड़ता उसके सौंवे हिस्से से भी कम लप लप लचकती लकड़ी या कभी कभी बाँस की तिरछी पटरी से खुद को संतुलित करते हुए स्टीमर पर चढ़ने में चलना पड़ता था -- पर यह आह्लाद और उपलब्धि भी सौ गुना से ज्यादा थी, और कभी कभी किसी का घबरा कर गिर जाना महीने भर की हँसी का ख़ुराक बन जाता था। स्टीमर पर सबसे ज्यादा मज़ा छत पर आता, पर बच्चा बच्चा कह कर हमें छत पर जाने से सबसे ज्यादा रोका भी जाता। छत पर पहुँच कर लगता हम स्टीमर की नहीं दुनिया की छत पर आसीन हो गये हों, हाँलाकि ऊँचे किनारों के पीछे की दुनिया हमारी नज़रों से ओझल हो जाती। बीच रास्ते यदि आंधी तूफ़ान आ जाये तो एक ही बात मन में आती कि पानी में रहते जीव जंतु अपने नुकीले दाँत पहले पैरों में लगायेंगे कि माथे को। सफ़र के दौरान कहीं एक स्टीमर डूबा पड़ा था, हर बार नहीं पर जब कभी नदी में पानी कम होता तो उसका माथा (शायद मस्तूल कहते हैं) थोड़ा दिखायी देता -- तब हमें उस डूबे स्टीमर को दिखा कर यह ज़रूर समझाया जाता कि ज्यादा उछल कूद की तो तुम्हारी इस स्टीमर का भी यही हस्र होगा। एक बार बीच रास्ते ऐसी ही प्रलयंकारी आंधी आयी और स्टीमर बुरी तरह हिचकोले खाने लगा -- उस समय डूबे हुए जहाज की कहानी दुहराने की सुध किसी को नहीं आयी पर सामने न दिखाई देते हुए भी डूबा हुआ स्टीमर बार-बार मेरे स्मृतिपटल पर आता रहा। बारिश के कारण अचानक बढ़ गयी ठण्ड ने छत को वीरान कर दिया और सारी जनता नीचे आ कर भाप वाली चिमनी को घेर कर खड़ी हो गयी - मुझे अच्छी तरह याद है कि स्टीमर के कारिंदों ने लाठी डंडों से लोगों को वहाँ से खदेड़ा था जिस से भार संतुलित ढंग से वितरित हो जाये, एक जगह केंद्रित न हो। हम उस बेमौसम ठण्ड से इतने घबरा गये कि बनारस न जा बीच रास्ते पड़ने वाले ननिहाल आरा रुक गये और रात भर जग कर अम्मा और दो मौसियों ने हम तीन भाई बहनों के लिये स्वेटर बना डाले।  बाद में जब स्व रघुवीर सहाय के कहने पर दिनमान के लिये बंद पड़ी स्टीमर सर्विस के आन्दोलनरत कर्मियों पर एक स्टोरी करने निकला तो पुराना पहलेजा घाट  पहचानना दूभर हो गया क्योंकि स्टीमर घाट तक जाने वाली सड़क उखड़ गयी थी और गुलज़ार रहने वाली फूस की झोपड़ियाँ जमींदोज़ हो गयी थीं। महेंद्रू घाट शहर का हिस्सा था सो उसका अस्तित्व मिटा नहीं, वैकल्पिक व्यावसायिक इस्तेमाल होने लगा।यह रिपोर्ट "माँझी पर भरोसा कम" शीर्षक से दिनमान में छपी थी। पहलेजा से लौट कर मैंने एक कविता लिखी थी, कभी मिली तो मित्रों से वह भी साझा करूँगा।


महेंद्रु घाट अब भी है पर आवागमन का पहले जैसा जीवंत और व्यस्त केन्द्र नहीं रहा - वहां रेलवे की एक ऊंची इमारत बन गई है। गंगा नदी भी वहां से एक डेढ़ किलोमीटर दूर चली गई है, बरसात को छोड़ दें तो नदी को शर्मसार करता हुआ सामने एक गंदा नाला बहता है। पर घाट पर प्रदर्शित सूचना पढ़ कर मन सैकड़ों साल पीछे जा कर गौरवान्वित महसूस करता है कि इसी घाट से डोंगी पर सवार हो कर सम्राट अशोक के पुत्र युवराज महेन्द्र बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका रवाना होते हैं - उनकी स्मृति में इस घाट को महेंद्रू घाट कहते हैं।




हल्दिया वाया रायचक


1984 - 85 में इंडियन ऑयल की हल्दिया रिफ़ाइनरी में एक महत्वपूर्ण प्रोजेक्ट कर रहे थे हम और लगभग हर महीने काम के सिलसिले में वहाँ जाना होता था - रुड़की से दिल्ली टैक्सी से ,दिल्ली से कलकत्ता हवाई जहाज से और कलकत्ता से हल्दिया। मैं भरसक कोशिश करता कि जहाज के बदले रेल से खूब पढता हुआ और बीच में पटना और भागलपुर में बहनों और मित्रों से मिलता और उनका लाया सुस्वादु पकवाक खाता जाऊँ।  कलकत्ता से हल्दिया जाने के तब तीन रास्ते थे, अब का मालूम नहीं -- एक तो सीधा बस से, दूसरा आधा (शायद कोलाघाट तक)  ट्रेन और शेष आधा बस से पर मुझे सबसे ज्यादा जो प्रिय था वह था कलकत्ता से रायचक तक बस से जाना ... वहाँ से खूब चौड़े पाट वाली हुगली नदी स्टीमर से पार करना और कुकराहाटि उतर कर शेष रास्ता फिर बस से तय करना। साथ जाने वाले साथी मेरे इस एडवेंचर से बिदकते थे पर एक बार कलकत्ता में सारा जीवन बिताने वाले बंगाली सहकर्मी मेरी बातों में आ गए और जब हम नदी किनारे पहुँचे तो काले काले गरजते बादलों और तेज अंधड़ का साम्राज्य ... नदी में इतनी ऊँची लहरें उठ रही थीं कि स्टीमर वाले ने चलने से मना कर दिया। अंधेरा भी घिरता जा रहा था और उस पार जाने वाले लोगों की संख्या बढ़ती जा रही थी सो एक नाव वाले ने मौके का फ़ायदा उठा लेने की गरज से हम सब को चलने को ललकारा - हिम्मत बटोर कर जैसे ही हम नदी बीच पहुंचे अंधड़ का जबरदस्त झोंका इस तरह आ पहुँचा  जैसे हमारी हिम्मत और धीरज का कड़ा इम्तिहान ले रहा हो।उस दिन मेरी हिम्मत भी जवाब देने लगी थी पर बेचारे बाबू मोशाय की शकल देखने वाली थी लगता था मैं जैसे उनका गला घोंटने किसी कुँए में घसीट लाया। खैर शायद ऊपर वाले को हमारी बेचारगी का एहसास हो गया और पार उतरते उतरते तूफ़ान थम गया। उसके बाद कितने प्रलोभन देने के बाद भी दे बाबू मेरे साथ हल्दिया जाने को कभी राजी नहीं हुए। 


एक बार की बात है, (तब मैं युवा और मध्य क्रम का साइंटिस्ट था) हमारे संस्थान के निदेशक और इन्डियन ऑयल के आला अफ़सर काम की प्रगति देखने हल्दिया जाने का प्रोग्राम बना और मुझे इसके आयोजन का जिम्मा सौंपा गया। मैं अपनी रौ में था, तब बाँका जवान भी था सो मैंने उनकी यात्रा रायचक होकर ही तय कर दी। वे पहली बार जा रहे थे सो उन्हें तीन रास्तों में से कौन सा रास्ता चुनना है इसके बारे में कुछ पता नहीं था। जब नदी किनारे जाकर उनकी गाड़ी खड़ी हुई और सामने विशाल नदी में डोलती हुई स्टीमर दिखी तो मेरे बॉस ने मुझे प्रश्नवाचक मुद्रा में देखा पर बोले कुछ नहीं। किनारे से स्टीमर पर चढ़ने वाली लंबी लकड़ी की एक फुट चौड़ी लचीली पट्टी जिसपर एक एक इंसानी कदम पड़ते ही वह रस्सी सरीखी लप लप लचकती थी, पर चढ़ने वाले मुसाफिरों को सहारा देने के लिए स्टीमर वाले दो कर्मचारी एक लम्बे बाँस को पट्टी के दोनों छोरों पर पकड़ कर खड़े थे। धीमे कदमों से जैसे ही दोनों अधिकारी पट्टी पर चढ़ने को उद्यत हुए ,पट्टी और सहारे के लिए पकड़ा बाँस तेजी से लरजने लगा - मेरे लिए तो यह बिलकुल स्वाभाविक और कभी कभी मिलने वाला आनंद दायक अनुभव था पर उन दोनों के लिए एकदम से चौंकाने और नीचे पानी में गिर पड़ने का भय पैदा करने वाला अनुभव था।दो कदम बढ़ाते ही वे दोनों हवा में लहराने लगे ,घबराहट में निकलती आवाज़ को दबाने की भरसक कोशिश करने पर भी चीख निकल ही पड़ी। दो के बाद तीसरा कदम दोनों में से किसी ने नहीं बढ़ाया - उलटे पाँव नीचे उतर पड़े। पूरा मामला मुझ जैसे जूनियर के लिए किसी बड़े अपराध जैसा था ... मुझे काटो तो खून नहीं .... हम वहाँ से उलटे पाँव आधे रास्ते फिर वापस लौटे और सड़क से हल्दिया पहुँचे। 


अब जब कभी उस घटना का स्मरण होता है - जैसे अभी दो चार दिन पहले तब हल्दिया में रिफ़ायनरी में तैनात इंजीनियर मित्र शोभनाथ से फ़ोन पर हुई बात में चर्चा हुई - तो एकदम से मन में सवाल उठता है कि मैंने उस दिन रायचक वाला रोमांचकारी रास्ता ही क्या सोच कर चुना .... उस से भी बड़ा सवाल यह कि क्या इक्कीस बाईस साल पहले की गयी यह हरकत मैं आज की उम्र में भी करता? जवाब भी मन में आ जाता है कि आज यदि हल्दिया जाना हो तो मैं फिर रायचक वाला ही रास्ता चुनूँगा... शरीर साथ दे न दे, मन जवान है।






सम्पर्क 


मोबाइल : 09411100294



टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं