प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'आयरन मैन'

 

साहित्य वही दीर्घजीवी होता है जिसमें अपने समय के मूल्य दर्ज होते हैं। इन में सकारात्मक और नकारात्मक दोनों तरह के मूल्य समाहित होते हैं। प्रचण्ड प्रवीर अपनी कहानियों में समय के मूल्यों को साफगोई से दर्ज करते हैं। इसीलिए ये कहानियां पाठकों के दिल दिमाग में कहीं न कहीं रह जाती हैं। 'कल की बात' शृंखला के तहत प्रवीर अपनी ये महत्त्वपूर्ण कहानियां दर्ज कर रहे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर की कहानी 'आयरन मैन'।


कल की बात – 261


'आयरन मैन'


प्रचण्ड प्रवीर


कल की बात है। जैसे ही मैँने कमरे से बाहर कदम रखा, मेरा फोन बजने लगा। फोन उठाते ही उधर से आवाज़ आयी, “सर, मैँ राकेश कुमार ‘अलबेला’ बोल रहा हूँ। आपका संदेश मिला है। आपको जो आँखोँ मेँ तकलीफ हो रही है, उसके लिए हम पता कर के बताते हैँ। देखिए, दुर्गा पूजा मेँ नवमी का दिन है। डॉक्टर का मिलना मुश्किल है, पर आप इस शहर मेँ हमारे मेहमान हैँ। प्रबन्ध कर के बता रहे हैँ।" मैँने कहा, “यहाँ होटल वाले ने कहा कि विजय कुमार ‘विजेता’ नाम के डॉक्टर का क्लीनिक खुला है। वहाँ इलाज़ सम्भव है। मैँ वहीँ जा रहा हूँ।" राकेश कुमार ‘अलबेला’ ने कहा, “आप ज़रा जल्दी मेँ लग रहे हैँ। खैर, अब जब आप जा ही रहे हैँ तो हमारी बात सुन लीजिए। यह शहर साहित्यिक है। यहाँ सभी लोग के उपनाम होते हैँ। आप यदि अपने नाम के साथ उपनाम नहीं बोलेँगे तो समझ लिए जाएँगे कि बाहरी हैँ। फिर जो काम पाँच सौ का होगा, उसके लिए पन्द्रह सौ ले लेँगे। इसलिए आप अपना कोई उपनाम सोच लीजिए।“ हमेँ बड़ी उत्सुकता हुई कि आखिर यह छोटा-सा शहर साहित्यिक कैसे हैँ। हमारी शंका का फौरन निवारण किया गया। राकेश कुमार ‘अलबेला’ जी ने बताया, “हमारे गुरु हुआ करते थे – विकास कुमार ‘राही'। वे टाउन स्कूल में अध्यापक होने के साथ-साथ हिन्दी के बड़े कवि थे। लेकिन हिन्दी साहित्य समाज ने उनकी प्रतिभा को नहीँ पहचाना। उसका नतीजा यह हुआ कि हमारे शहर में साहित्य उनके समय में ही ठहर गया है। उनके ही दिखाए राह पर चल कर हम उनके विद्यार्थी प्रेमचन्द के बाद न किसी को लेखक मानते हैँ और दिनकर के बाद न किसी को कवि गिनते हैँ। वे बड़े अच्छे शिक्षक थे। कवि सम्मेलन करवाते थे। उन्होँने ‘जाति छोड़ो आन्दोलन’ के साथ ‘उपनाम जोड़ो आन्दोलन’ चलाया था। आज हमारे शहर में कोई भी ऐसा पढ़ा-लिखा आदमी नहीँ मिलेगा जिसका उपनाम न हो। यहाँ तक कि जो मशहूर अभय चाटवाला है, उसका पूरा नाम अभय कुमार ‘अभय’ है और मशहूर अजय अचारवाला है उसका आधार कार्ड में नाम अजय कुमार ‘अजय’ है।"


यह सुन कर हमने भी मन में अपना नाम और उपनाम विचार लिया कि कहीँ ठगे न जाएँ। अपना उसूल है कि मुझको बर्बादी का कोई ग़म नहीँ, ग़म है बर्बादी का क्यूँ चर्चा हुआ।१  हम विजय कुमार विजेता के क्लीनिक पहुँचे ही थे कि राकेश कुमार ‘अलबेला’ का सन्देश आया – “हमने पवन भैया को कह दिया है। कोई परेशानी हो तो उनको केवल मैसेज कर दीजिए। आपको कोई तकलीफ नहीँ होगी।" खैर, क्लीनिक पहुँच कर हमने देखा कि डॉक्टर ने एक बड़ी तस्वीर लगा रखी थी ‘आयरनमैन विजय कुमार विजेता’। उस बड़ी फोटो में चार फोटो थे- पहली तैरने की - 3.8 किमी, दूसरी साइकिलिंग की - 180 किमी, तीसरी दौड़ने की – 42 किमी। एक फोटो में दोनोँ बाहोँ से पीछे  विशाल तिरङ्गा लहराए डॉक्टर विजय कुमार ‘विजेता’ खड़े थे। स्वीडन से ‘आयरनमैन’ बन कर लौटे हैँ। हमने सोचा कि ज़रूर डॉक्टर साहब ने यह मुकाबला जीता है इसलिए इन्होँने अपना नाम ‘विजेता’ रख लिया है। हम बड़े अभिभूत हो कर फोटो देख रहे थे कि काउण्टर पर बैठे आदमी ने कहा, “आपको क्या तकलीफ है।" हमने हथेली से अपनी लाल आँख दिखा कर कहा, “हम सोच रहे थे कि हमें दिखने में समस्या है पर लगता है कि आपको भी कम दिखाई पड़ रहा है कि सामने वाले का क्या हाल है?” काउण्टर पर बैठा आदमी खिसिया कर बोला, “वह हम देख रहे हैं पर इसके अलावा कोई समस्या?" मैँने ना मेँ सिर हिलाया। उसने पूछा, “आपका नाम।" मेरे दिमाग मेँ राकेश कुमार ‘अलबेला’ की हिदायत कौँधी। मन मेँ शङ्का उठी - क्या पता यह आदमी भी बाहर का हो! इसलिए मैँने उल्टे पूछा, “आपकी तारीफ।"





                “मेरा नाम सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ है। मैँ यहाँ हिसाब-किताब करता हूँ। आप अपना नाम पता बताइए।“ मैँने कहा, “लिखिए, प्रेमचन्द ‘प्रेमी’।" सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ फौरन चौकन्ना हो गया, “आप बाहर से हैँ क्या? दो शब्द का नाम?” मैँने भी कच्ची गोलियाँ नहीँ खेली थी। मैँने समझाया, “प्रेम चन्द ‘प्रेमी’ लिखिए। ये नाम है। प्रेम और चन्द मिला कर एक कर देते तो आप भ्रमित हो जाते, इसलिए उपनाम भी रखा है।" सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ ने बताया कि अभी डॉक्टर व्यस्त हैँ। आज शायद नहीं भी देख पाएँ। अभी जूनियर देखेगी उसके बाद डॉक्टर देखेँगे। छ: सौ रूपया लगेगा। यदि डॉक्टर आज नहीँ देख पाए तो पैसा वापस नहीं होगा। विजयादशमी के बाद आ कर दिखा लीजिएगा।“


   “डॉक्टर नहीँ देखेँगे तो भी आप पूरा पैसा ले लीजिएगा और पैसा वापस नहीँ कीजिएगा?” मैँने प्रतिवाद किया। “आप हमसे शास्त्रार्थ मत कीजिए। जो नियम है वह बता दिए हैँ।" सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ ने हमेँ फटकारा। हमने चुपचाप पैसे दिए और वहीँ पास लगी खाली कुर्सी पर बैठ गए। मेरे बगल मेँ एक नौजवान लड़का बैठा था। मैँने उससे पूछा, “डॉक्टर साहब सच में विजेता हैं?” लड़के ने कहा, “हाँ, पिछले साल अखबार मेँ बहुत समाचार छपा था कि स्वीडन से जीत कर लौटे हैँ।" मैँने उसका नाम पूछा। लड़के ने कहा, “आनन्द कुमार ‘आँसू’।" मैँने पूछा कि क्या तकलीफ है। आनन्द कुमार ‘आँसू’ ने कहा, “तकलीफ दिल मेँ और असर आँख मेँ हैँ जो आँसू बन कर निकल रही है। ये जो डॉक्टर की जूनियर है मेरे साथ स्कूल में पढ़ती थी। इसका नाम है – बिन्दिया कुमारी ‘बेवफा’।" मैँने टोका, “ये उसका नाम तुमने रखा है या..।" आनन्द कुमार ‘आँसू’ के आँसू निकल आए। “हम दोनोँ ने सहमति से रखा था। उसका कहना था कि वो अगर बेवफा हो जाए तो ग़म न करना। अब देखिए वह ऑप्टोमेट्रिस्ट बन गयी है, उसके बाद इस डॉक्टर से नैन मटक्का करती है। हमेँ देखती भी नहीँ। हम ग्लिसरीन लगा के आँसू बहा के आँख की जाँच कराने अक्सर आया करते हैँ। लेकिन बेवफ़ा का दिल नहीँ पिघलता है।"


                तभी हमारे फोन पर अनजान नम्बर से कॉल आयी। हमने उठाया। उधर से भारी-भरकम आवाज़ आयी, “राकेश ने तुम्हारा नम्बर दिया। हम पवन बोल रहे हैँ। विजेता देख रहा है तुम्हेँ?” हम चिढ़े हुए थे ही सो हमने कह दिया, “यहाँ पैसा ले लिया गया है और कहा जा रहा है कि डॉक्टर नहीँ भी देख सकता है। जूनियर ऑप्टोमेट्रिस्ट देखेगी।" पवन भैया बोले , “तुम एक काम करो। पैसा वापस ले लो और पास ही दूसरी क्लीनिक पर चले जाओ, हमने बात कर रखी है।" हमने शिकायत की, “पवन भैया, कहा है कि पैसा वापस नहीँ होगा। यह भी बोला है कि शास्त्रार्थ मत कीजिए।"  पवन भैया का माथा ठनका, “पैसा वापस नहीँ करेगा। शास्त्रार्थ करेगा? ठहरो तुम, जूनियर को मत दिखाना। हम अभी आ रहे हैँ।"


                तब तक दुबली-पतली और मनमोहक बिन्दिया कुमारी ‘बेवफ़ा’ ने आ कर आनन्द कुमार आँसू और मुझे बैठा देख आवाज़ लगायी, “प्रेम चन्द ‘प्रेमी’ जी, आप इधर आ जाइए। इतनी मीठी आवाज़ सुन कर मुझे लगा कि आनन्द कुमार ‘आँसू’ के आँसू जायज हैँ। बिन्दिया ने आँख देख कर बताया, “जरा सी एलर्जी है। दवा दे देती हूँ। डॉक्टर साहब का पक्का नहीँ है।"





                जब बिन्दिया आनन्द कुमार ‘आँसू’ के बहते आँसू देखने में व्यस्त थी तभी डॉक्टर की क्लीनिक के बाहर एक बुलेट मोटरसाइकिल आ रुकी। अन्दर भीमकाय आकृति का प्रवेश हुआ। उसने मुझे देख कर कहा, “आप हैं?” मैँने सिर हाँ मेँ हिलाया। पवन भैया ने काउण्टर पर एक डण्डा पटका और सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ से कहा, “शास्त्रार्थ हम बाद मेँ करेंगे। पहले ‘शस्त्रार्थ’ करते हेँ। बताओ, यह कौन सा शस्त्र है।“ सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ को काटो तो खून नहीँ। जब डपट कर दुबारा पूछा गया  तब उसने कहा, “डण्डा।“ पवन भैया ने मूँछ पर हाथ फेरते हुए कहा, “यह तो शब्द हुआ। इसका अर्थ क्या है, बोलो?” सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ ने डरते-डरते कहा, “ताड़ण।" तभी एक और आदमी अन्दर से दौड़ा-दौड़ा आया। बोला, “भैया आप कौन?” पवन भैया ने अपनी चप्पल उतारी और काउण्टर पर पटक कर बोले , “यह कौन सा शस्त्र है। तुम बताओ।" नया आदमी बोला, “भैया मेरा नाम हुआ राजेश कुमार ‘बन्धु’। हम यहाँ प्रबन्ध देखते हैं। यह चप्पल है भैया। इसका अर्थ है ‘अपमान’। आप बताइए, हमारा अपमान क्योँ करना चाह रहे हैँ। हमसे क्या गलती हुई? आप कौन हुए?”


    “हमारा नाम हुआ पवन कुमार ‘निर्दयी’। हमने अपना आदमी भेजा, आँख जाँच करवाने के लिए। पैसा दिया गया है डॉक्टर से दिखाने के लिए। जूनियर से जँचवाने के लिए नहीँ। अभी हम तीसरा शस्त्र निकाले जेब से?” यह सुन कर मेरा माथा ठनका। हम खड़े हो कर बोले, “पवन भैया, जाने दीजिए। जूनियर ऑप्टोमेट्रिस्ट देख ली है।" पवन भैया हमको देख कर गरम हो गए। “तुम्हें हमने मना किया था कि जूनियर से नहीँ दिखाना है।“ अब मेरी हालात खराब हो गयी। सुरेन्द्र कुमार ‘सखा’ ने कहा, “हम दे रहे हैँ। वापस कर दे रहे हैं इनका छ: सौ रुपया। हमने नियम बताया था।"


                मैँने पवन भैया को कहा, “भैया, जूनियर देख ली। अब कोई बात नहीँ।" पवन भैया अलग ही मूड मेँ थे। उन्होँने कहा, “विजेता को फोन लगाओ। उसको बोलो कि हमारे आदमी को अभी देखे। नहीँ तो आज हम फैसला करेँगे कि असली आयरनमैन कौन है। और राजेश कुमार ‘बन्धु’ जी, आप होँगे रेफरी। समझेँ कि नहीँ?”


                पवन भैया ने अपनी चप्पल वापस पाँव मेँ डाली। डण्डा उठा कर हाथ में लिया और वहीँ खाली कुर्सी पर बैठ गए। आनन्द कुमार ‘आँसू’ ने पवन भैया से शिकायत की, “ये डॉक्टर स्वीडन मेँ जा कर तैराकी कर के रोब जमा रहा है। यहाँ गङ्गा जी में कितने लोग तैर के आर-पार हो जाते हैं उनसे बराबरी कर के दिखाए? देखिए, यह मोबाइल में है आयरनमैन का रिजल्ट। विजेता जी का रैंक हज़ार के बाद का है। यह सब मार्केटिङ् स्टंट है।" पवन कुमार निर्दयी ने आनन्द कुमार ‘आँसू’ को डाँटा, “तुम जैसे उल्लू ही इसमेँ फँसते हैँ। देसी आदमी देसी बात जानता है। हमारे साथ भैंसा दौड़ा के देखो, फिर बात करो।"  


                राकेश कुमार बन्धु ने सूचना दी कि डॉक्टर विजेता पन्द्रह मिनट में आ कर हमें देख लेँगे। पवन कुमार ‘निर्दयी’ यह सुन कर खुश हुए। खड़े हो कर उन्होँने ‘सखा’ और ‘बन्धु’ दोनोँ से कहा, “तीसरा आयरन वाला शस्त्र हमने निकाला नहीँ। हमेँ विश्वास है कि तुम दोनों उसका मौका नहीँ दोगे। आगे शास्त्रार्थ का हवाला देने से पहले याद रखना कि ‘शस्त्रार्थ’ बहुत ही ज्यादा कठिन होता है।"


                मेरी आँखोँ की जाँच करते हुए दुबले-पतले आयरनमैन डॉक्टर विजय कुमार ‘विजेता’ ने मीठे स्वर में कहा, “प्रेमी जी, इस शहर मेँ असली आयरनमैन निर्विवाद रूप से पवन कुमार ‘निर्दयी’ हैँ। जिसके जेब मेँ आयरन होता है, वही असली आयरनमैन है। आप तो यहीँ के हैँ न। आप भी कमाल करते हैँ कि स्वीडन वाली बात दिल पे ले लेते हैँ।”


                ये थी कल की बात!


दिनाङ्क : १२/१०/२०२४


सन्दर्भ :  १. गीतकार – राजेन्द्र कृष्ण, चित्रपट – खानदान (1965)



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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