विंध्य मैकल साहित्योत्सव कविता-कला अंतर्संवाद यात्रा 2024 की एक स्मृति, प्रस्तुति : केतन यादव

 




कला के विविध क्षेत्रों में बातचीत और विमर्श की बड़ी उपादेयता होती है। साहित्य में इस विमर्श की भूमिका कुछ अधिक ही होती है। इसके मद्देनजर समय समय पर विविध आयोजन होते रहते हैं। इसी क्रम में हाल ही में विंध्य मैकल साहित्योत्सव कविता-कला अंतर्संवाद यात्रा 2024 का आयोजन किया गया। इस आयोजन में इलाहाबाद के युवा कवि केतन यादव भी शामिल हुए। केतन ने इस आयोजन की एक स्मृतिपरक रपट और कुछ तस्वीरें पहली बार को उपलब्ध कराई है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं विंध्य मैकल साहित्योत्सव कविता-कला अंतर्संवाद यात्रा 2024 की एक स्मृति पर एक रपट। इसकी प्रस्तुति युवा कवि केतन यादव की है।


विंध्य मैकल साहित्योत्सव कविता-कला अंतर्संवाद यात्रा 2024 की स्मृतियों से 


प्रस्तुति : केतन यादव


यह बहुत अलग तरह का आयोजन था। आदिवासी संस्कृति से संबंधित किसी भी प्रस्तुति को कभी प्रदर्शनी में ही देखा रहा होऊंगा पर इस आयोजन के कारण पहली बार उनके बीच रहने खाने और‌ जानने को मिला। इस यात्रा ने जंगल और जंगल की संस्कृति से जुड़े लोगों के पास आने का अवसर दिया। बहुत सारे फेसबुक से जुड़े साहित्यिक मित्रों से मुलाकात हुई। चार-पाँच दिनों तक साथ रहना हुआ यह सब बहुत सुखद था। इस यात्रा ने मेरे अनुभव जगत में और अधिक विस्तार दिया। न केवल साहित्यिक मित्रों से मिलना सुखद रहा बल्कि भिन्न-भिन्न जनजातियों से साक्षात्कार, उनके साथ भोजन, उनकी जीवनचर्या और जीवन-संघर्षों को जानना, उनकी कला संस्कृति सबको पास से उनके बीच रह कर देखना जो कि कोई प्रदर्शनी नहीं अपितु जीवंत अनुभव था। इसके लिए इस यात्रा की परिकल्पना और संयोजन करने वाले सामाजिक कार्यकर्ता और संस्कृतिकर्मी संतोष द्विवेदी जी के साथ इस यात्रा में जितने भी साथियों की भूमिका एवं सहयोग प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से रहा उन सबके प्रति कृतज्ञता रहेगी। 


इस सृजनात्मक यात्रा की औपचारिक शुरुआत 2 अक्टूबर 2024 को गांधी जयंती को हुई। इस दिवस को हमने बैगा जनजाति के साथियों के साथ मनाया। नदियों की प्रेमकथाएँ गाड़ी में स्थानिकों के मुख से गूँज रही थीं। इससे पहले भी सुन रखा था पर इतने विस्तार से सोन नर्मदा और जोहिला के प्रेम त्रिकोण के बारे में पहली बार सुना था। है कहां गुलबकावली के फूल यह सोचते-सोचते वे कई जगह मिल गये बाद में। सुगंध बहुत भीनी थी। नर्मदा सभी नदियों के रास्ते के उलट भूगोल में अरब सागर में जा गिरती हैं पर उसका कारण लोक कथाओं ने बहुत रोचक तरीके से रच लिया है। पहले हम जोहिला के किनारे ही पहुंचे। वेगवती जोहिला चट्टानों से टकरा कर बहुत सुंदर ध्यानस्थ ध्वनि कर रही थी। यात्रा का ताप उसके तट पर कुछ कम लग रहा था। और बहुत मुश्किल से खुद को रोका डुबकी लगाने से। यह यात्रा की आचार-संहिता के विरुद्ध होता। 


जोहिला जल प्रपात के पास कवि गण


शहडोल के बाँधवगढ़ के बफरजोन से होते हुए जोहिला जल प्रपात को देख कर पास ही में चेचपुर गाँव में वनभोज के लिए बैगा जनजाति के लोगों के मध्य गये। उनके प्रमुख सर्वोदयी कार्यकर्ता भागवत पटेल और उनके साथियों ने जंगल गाँव के उनके रहवासों के बीच ही भोजन की व्यवस्था की थी। सबसे पहले तो गाँधी जी की तस्वीर पर हमनें वहाँ पर सुलभ सदाबहार के फूल चढ़ा कर प्रणाम किया। सर्वोदयी आदिवासी कार्यकर्ताओं ने गांधी का प्रिय भजन वैष्णव जन गाया जिसमें स्थानीयता की महक थी। उसके बाद हमनें वह भोजन किया जो मुझे लंबे समय तक नहीं भूलेगा। यह मेरे लिए यह एकदम नया था। काकून आदिवासियों का सबसे पुराना अन्न है उसकी खीर, मक्के का बड़ा, चावल, आँटे की रोटी जो हाथ से बिना बेलन की मदद से बनाई गयी थी और मीठा में खोया। भोजन जंगल से ताजे तोड़े गये पत्तों के पत्तल और कटोरी में किया गया। साथ में माँदल की थाप पर वे हमारे आने की खुशी कर्मा नृत्य से जाहिर कर रहे थे। मैंने जाने से पहले उनकी स्थानीय समस्याएँ जानने की कोशिश कीं, तो पाया कि उनकी सबसे बड़ी समस्या है सरकार का हस्तक्षेप और बार-बार विस्थापन। एक बार ये करीब पचास हज़ार की संख्या में ये लोग दिल्ली जा कर विरोध प्रदर्शन भी किए थे सर्वोदय संगठन के बैनर तले। सच बताऊँ, तो मैं शहर से निकल कर इनके बीच गया था। इनके चेहरों से शहर से जंगल की दूरी पता चल रही थी। इतना भोलापन कथित मुख्यधारा के छल-प्रपंच से दूर। 


बैगा जनजाति के बीच गांधी जयंती और वन भोज


दो अक्टूबर 2024 की शाम हिंदी-बघेली कवियों का समागम हुआ। वरिष्ठ कवि अष्टभुजा शुक्ल की अध्यक्षता थी, पद्मश्री बाबुलाल दाहिया मुख्य अतिथि थे और कवि दिनेश कुशवाहा बतौर सारस्वत अतिथि कवि थे। इन गणमान्य कवियों और साहित्यकारों के साहचर्य  में आयोजन की औपचारिक शुरुआत हुई। करीब दो-तीन सौ लोग सामने पंडाल में उपस्थित थे। उस साहित्यिक मंच के सामने स्थानीय जनप्रतिनिधि स्रोता की हैसियत से मौजूद रहे और उन्होंने मंच से असहमति और प्रतिरोध‌ की कविताएं सुनीं। रवि मिश्रा जी आयोजक संतोष द्विवेदी जी के साथ इस कार्यक्रम का संयोजन कर रहे थे। वे प्रमुखता से ब्योहारी का आयोजन देख रहे थे । कार्यक्रम की शुरुआत में नरेंद्र बहादुर सिंह और डॉ शिवांगी ने बघेली में लोक गायन की प्रस्तुति किया। मंच पर हिंदी के कवि साथियों में वरिष्ठ कवि नरेंद्र पुंडरीक, यतीश कुमार, डॉ रेखा कस्तवार, डॉ चंचला पाठक, निधि अग्रवाल, इरा टाक, श्रुति कुशवाहा, पल्लवी त्रिवेदी, शशांक गर्ग, विवेक चतुर्वेदी और डॉ अनिल पांडेय मौजूद थे। हम सबके कविता पाठ के बाद स्थानीय बघेली कवि रामनिहोर तिवारी जी को रमाविलास सम्मान दिया गया और फिर बघेली के कवियों ने कविताएँ पढीं जिनमें प्रमुखत: रामनरेश तिवारी निष्ठुर, डॉ शिवशंकर मिश्र सरस, अरुण कुमार पयासी, संतोष तिवारी, रावेंद्र शुक्ल आदि कविगण थे। हमें प्रतीक चिन्ह में चंद्रकली पुसाम की गोंड पेंटिंग उपहार में मिली। यहाँ रात्रि भोज के साथ ही पहले दिन का आयोजन समाप्त हुआ। 


बांधवगढ़ टाइगर रिजर्व में कवि गण


तीन अक्टूबर 2024 को बांधवगढ़ टाइगर सफारी की यात्रा आरम्भ हुई। जंगल की बात के रूप में वहाँ के किस्सों को बताऊँ तो सुबह 6 बजे तक हम वहां पहुंच कर वहां की नियमावलियों को पूरा करने के बाद अलग-अलग जीपों में टुकड़ियों में बँट गए। बाँधवगढ़ किले के पास का ब्रह्मा, विष्णु और शिव के प्राचीन मूर्तियों को देखा। पेड़ों पर बाघों के पंजे के निशान देखे। गाइड ने बताया कि बाघ अपना वर्चस्व दिखाने के लिए और एरिया चिन्हित करने के लिए ऐसा करते हैं। शेरों, बाघों के विषय में बहुत सी अलग तरह की जानकारियां मिली जैसे कि एक बाघिन के जब 1-2 साल के बच्चे होते हैं तो उनका पिता साथ रहता है वह उनकी सुरक्षा करता है। लेकिन साल दो साल बाद वे अलग अलग हो जाते हैं और शावकों के बड़े होने के बाद आपस में वर्चस्व की लड़ाई भी होती रहती है। मादा बाघ के इलाके में जब कोई दूसरा बाघ आता है तो सबसे पहले वह अपने बच्चों को ले कर दूर भागती है। फिर 2-3 दिन के बाद भी नर बाघ पीछा नहीं छोड़ता है तो उसके पास जा कर उससे संबंध बनाती है। बाघिने कई बाघों के साथ संबंध स्थापित कर लेतीं हैं ताकि आपस में लड़ाइयां कम हों और उनके बच्चों की सुरक्षा हो सके। यह एक अनूठी जानकारी थी मेरे लिए। जंगल में हाथी, चीतल, हिरन, बंदरों और विभिन्न पक्षियों की कई प्रजातियां दिखीं। साथ ही वृक्षों की भी अनेक प्रजातियां दिखीं। इस तरह बहुत रोचक था यह अनुभव। 


पद्मश्री जोधइया बाई के साथ 


उसके बाद बेगा और गोंड जनजातियों के कार्यक्रमों में शामिल हुआ गया। फिर दोपहर भोजन के बाद हम पद्मश्री जोधइया बाई से मिलने लोढ़ा में पहुँचे। वे पहली  बैगा चित्रकार हैं। नब्बे वर्ष से अधिक की उम्र है उनकी। साठ की उम्र पूरी करने के बाद कैनवास पर चित्रकारी करनी उन्होंने शुरू की। इसके पूर्व उनकी वह चित्रकला दरों दीवार पर भित्ति चित्र के रूप में चित्रित होती थी जिसे जोधइया बाई ने पहचान दिलाई। उन्हें पिछले वर्ष ही पद्मश्री सम्मान मिला। शहडोल के नागरिक समाज, साहित्यकार चित्रकार और रंगकर्मियों ने संयुक्त प्रयास कर जोधइया बाई को सम्मानित किया। बैगा चित्रकला में हमने बगेसुर देवता के चित्र देखे। बाघों से रक्षा के लिए गाँव के बाहर एक बाघ की एक मूर्ति को जनजातीय लोग लोकदेवता बगेसुर के रूप में बनाते थे और उनकी पूजा किया करते थे। 


पद्मश्री जोधइया बाई की बैगा पेंटिंग


वहाँ से निकल कर हम माटी महोत्सव में चंदिया पहुँचे। यह कुम्हारी कला का प्रमुख केंद्र है।‌ बड़ी संख्या में कुम्हार जाति के लोग शिल्प का काम करते हैं। उन्होंने मिट्टी की बोतल प्रतीक चिन्ह में दे कर हमारा स्वागत किया। साथ ही लुप्त होते लोकगीत कुम्हरौंही का गायन हुआ। जिसका संरक्षण नरेंद्र बहादुर जी और इंद्रावती नाट्य समिति, सीधी द्वारा किया जा रहा है। मेरे जानकारी में यह पहली बार था कि कुम्हारों का भी कोई स्थानीय लोकगीत है। डफली, खंजड़ी, मंजीरा, झाल और ढोलक के साथ उन्होंने उसका गायन किया। मैंने संतोष द्विवेदी जी से कह कर उसके बोल मँगाया जो कुछ यूँ है - 





गाथा में राम वनवास का प्रसंग है वह लोग गीत से पहले कहते हैं कि - कौशिल्या ने कहा कि आज वनवास मत जाओ....


आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे 

रघुबर मोरे प्यारे, रघुबर मोरे प्यारे 

आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे 


आजु के रइन अजोधिया बसि रहा उचिजा बहुत सकारे 

मय कइसे रहिहँउ मात कोसलिया 

दसरथ केकई से बचन हन हारे 

आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे 


नउ दस मास गरभ मा राखिउ 

तब न कहिउ मोहि भारे 

जब रथ हाँकि लिहेऽन मधुबन का 

तबय कहिउ माता रहा अँखिअय के तारे 

आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे 


ताल खनाइन पुल्ल बँधाइन, आप रहें रखबारे 

तानि बान सरिमन का मारिन 

जा दिन केकई हमका देस से निकारे 

आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे 


तुलसी दास अस रघुबर की रोबत सब नर नारी 

सीता सँग लाय लछिमन का 

सुरति लगाइन प्रभु बन के किनारे 

आजु रहा रघुबर मोरे प्यारे


पचरा


राम भएँ जोगिया लखन बयरगिया 

मोर सिया हो रानिया 

होय गईं उमरी के फुलबा मोर सिया रानिया। 


प्रथम गोंड प्रधान चित्रकार जनगण सिंह श्याम की प्रतिमा के पास


चार अक्टूबर 2024 को सुबह हम पाटनगढ़ के लिए निकल लिए। ऊँची-ऊँची घास के मैदान की पहाड़ियाँ, साल के पेड़ों के जंगल और कुछ गाँव बस्तियों के निकट घास चलते हुए मवेशी। यह सब हमें बार-बार प्रकृति की सुंदरतम दुनियाँ के निकट ले जा रहे थे। कार में मैं बेचैन हो उठता था और एसी के बावजूद खिड़की खोल देता था। भला उन ताजी हवाओं और खुले में साँस लेने से वंचित कैसे रह जाऊँ। एक लंबी यात्रा तय करके हम पाटनगढ़ गोंड आदिवासियों के बीच पहुँचे। वहाँ जनगण सिंह श्याम के नये मकान में थोड़ा रुके और फिर जन-गण सिंह श्याम का पैतृक निवास को देखने निकल लिए। जनगण सिंह श्याम पहले गोंड प्रधान चित्रकार हैं। उन्होंने भी दीवारों पर बरसों से हो रही गोड़ चित्रकला को केनवास, फिर भारत भवन और देश-विदेश तक पहुँचाया। कला प्रेमी हिंदी के प्रतिष्ठित कवि अशोक वाजपेई जब भारत भवन के स्वप्न को पूरा कर रहे थे तो बात आई कि भारत भवन में मध्य प्रदेश की सभी चित्रकलाएँ भी मौजूद हों। यह कार्यभार चित्रकार जे. स्वामिनाथन को सौंपा गया। स्वामिनाथन ने कहा कि बिना आदिवासी चित्रकलाओं के भारत भवन की कलादीर्घा कैसे पूरी हो सकती है लिहाज़ा उन्होंने कई टीमों को अलग-अलग जनजातीय क्षेत्रों में कलाकारों की खोज के लिए रवाना किया उसी का परिणाम हैं जोधइया बाई और जनगण सिंह श्याम जैसे चित्रकार। भला हो अशोक वाजपेई का और उनकी कला साधना का।



गोंड प्रधान पेंटिंग



हमनें पाटनगढ़ में एक चौक स्थित जनगण सिंह श्याम की मूर्ति पर श्रद्धांजलि दिया और वहाँ की एक पहाड़ी पर खड़े हो कर जनगढ़ सिंह श्याम के सनपुरी ससुराल को देखे और प्रेम विवाह की एक दिलचस्प कहानी देखी सुनी। उसके बाद वहीं के कलाभवन में हमारा एक सत्र था। कलाभवन संभवत: जनगण सिंह श्याम की स्मृति में उनकी पत्नी ननकुसिया सिंह श्याम और स्थानिकों एवं कुछ अन्य कलाप्रेमियों की मदद से निर्मित हो। हमने चित्रकार चंद्रकली पुसाम के यहां आदिवासी भोजन किया। कलाभवन में राजकुमार श्याम, उमेर पट्टा, जयसिंह पट्टा आदि कलाकारों ने अपनी बात रखी। प्रमुख मुद्दा था गोंड प्रधान पेंटिंग की कॉपीराइट का मसअला। दरसअल गोरखपुर नामक एक कस्बा पाटनगढ़ से निकट पड़ता है वहां की तेजस्विनी संस्था ने अनैतिक रूप से पाटनगढ़ वालों के साथ उनकी कला पूँजी का कॉपीराइट खुद ले लिया जीआई टैग के रूप में। गौंण प्रधान पेंटिंग का उद्भव जनगण सिंह और पाटनगढ़ से है। तेजस्विनी संस्था इसकी वास्तविक हकदार नहीं। वे बाहर से आ कर सेल्फ हेल्प ग्रुप बना कर वहां के लोगों को उसमें छल से शामिल कर एवं खरीद फरोक्त करके फेक तरीके से अंधेरे में रख कर डॉक्यूमेंटेशन कराया सिग्नेचर लिया। बेटे मयंक श्याम जन-गण सिंह श्याम, छोटा बेटा बबलू और‌ पत्नी भारतभवन‌ भोपाल में कार्यरत चित्रकार हैं जो भोपाल से हमारे कार्यक्रम के लिए आए थे। ननकुसिया सिंह श्याम और मयंक सिंह श्याम के नेतृत्व में क़ानूनी रूप से उनके कला की स्वायतत्ता प्रदान करने की लड़ाई लड़ी जा रही है। आस-पास भ्रमण करते हुए हम रात्रि भोजन के बाद ननकुसिया सिंह श्याम जी के यहाँ ही रात्रि विश्राम किए। 


हम ऋणी हैं ऐसे आयोजक के लिए जिसने कार्यक्रम की निर्धारित तिथि से एक दिन पहले और समापन तिथि के एक दिन बाद की तिथियों को हमें न केवल अतिरिक्त खर्च वहन करके घूमने का अवसर दिया बल्कि नए नए अनुभवों से साक्षात्कार कराया। 5 अक्टूबर को तड़के चार बजे उठना था और बीते रोज़ की सम्मोहनकारी आदिवासी भोजन से आई मधुर निद्रा को मध्य में भंग करना था। 05:30 पर हम सब निकल लिए थे अमरकंटक की ओर। ओस में नहाया पूरा वातावरण बहुत सुंदर लग रहा था। पहाड़ों पर नेटवर्क न होना हमारे यात्रा की सफलता के पक्ष में ही था। सबसे पहले सोनमुंडा पहुँचे। धार्मिक स्थलों पर आस्थावान भले ही केवल आराधना के मंतव्य से आएँ हम तो अपनी यायावरी की पिपासा को शांत करने और प्रकृति की प्रात: स्मरणीय वंदना के लिए आए थे। मजे की बात यह है कि रहवास पर बाथरूम में कोई न‌ कोई साहित्यिक साथी लगे थे इसीलिए बिना स्नान मैं तीर्थ का पुण्यफल बटोर रहा था। मजाल है चेहरा देख कर कोई कह दे तुमने स्नान नहीं किया है। 


सोनमुंडा में सोन नदी के उद्गम स्थल पर

        

सोनमुंडा पर सोन नद का उद्गम स्थल देखा जिसे धार्मिक लोग उद्गम मानते हैं। असल में क्या है नहीं पता। और इस नहीं पता के बाद केवल दृश्य को सत्य मान कर जीना ज्यादा सुखकर था। वीरान शिवाले, काई लगी सीढ़ीयाँ और पत्थरों के विभिन्न आकारों एवं रंगों के मोतियों के बीच से निकलती धारा; मन कर रहा था बस कुछ घंटे बैठ जाऊँ‌। दृश्य को आँखों से मन में भरना भी था और कैमरे में उतार भी लेना था। सोन के किनारों को हमने होले से छोड़ा और नर्मदा उद्गम के लिए निकल लिए। उद्गम स्थल तो मंदिर है पर आगे जब वेगवती नर्मदा पहाड़ से नीचे गिरती है तो ऊपर से देखने पर भय और जिज्ञासा दोनों के मिश्रण के साथ ऊपर से  नीचे उसकी धारा दूर तक देख लेने की इच्छा हो ही जाती है। मैंने नर्मदा के पानी को बार-बार पिया जैसे कोई पशु पीता है? एक बार। फिर जैसे मेरे आदिम आदिमानव पुरखे पीते हों वैसे। नर्मदा जोहिला और सोन के रंग बिरंगे पत्थर मैंने बैग में भर लिए। केवल एक बैग लाया था हड़बड़ी में और वह भी एकदम भरा था फिर भी पत्थरों को छोड़ न सका। उसकी पूजा नहीं करनी बस स्टडी टेबल पर रख लेता,उम्म पेपरवेट का काम भी ले लेता उससे। और थोड़ा पढ़ने के बाद के आराम और कुलेल में उसे गालों से छुआ कर शीतलता भी नदी की  अनुभव कर लेता। नर्मदा स्मृतियों में पवित्र नदी रही और वहां से अब वह मनुष्य के लिए जरूरी नदी मात्र तक हो गई लेकिन जो भी हो मैं उसके किनारे पर अबतक के सभी मनुष्यों को खड़ा नदी निहारते देखने की कल्पना कर रहा था। यहां भी मन किया कि डुबकी लगा लूँ पर यात्रा पूरी भी करनी थी और मैं अकेला थोड़ी था।

इसके बाद हम मध्य प्रदेश-छत्तीसढ़ बॉर्डर क्रॉस करके कबीरा चौरा देखने गये। कबीर यहाँ कुछ समय बिताए थे। 


हमारी यात्रा की शुरुआत अनौपचारिक रूप से संतोष द्विवेदी जी ने 1 अक्टूबर को ही कर दिया था। शहडोल में हम पूर्णेंदु शोध संस्थान घूमें जिसके सर्वेसर्वा श्री पूर्णेंदु कुमार सिंह जी हैं जो पुलिस सेवा के साथ साहित्य लेखन में जुटे रहे। वहाँ गोपाल सिंह जी से मुलाकात हुई वे 90 वर्ष के थे। मध्यप्रदेश साहित्य सम्मेलन की स्थापना के  परसाई जी के संग शुरुआती लोगों में। फिर नाम में अहिंसा दिवस की पूर्व संध्या पर सेंट्रल अकैडमी में एक छोटा सा काव्यपाठ का आयोजन हुआ।‌ सेंट्रल अकैडमी के डायरेक्टर संजय मिश्रा ने उसकी व्यवस्था सम्भाली। कार्यक्रम का संचालन डॉ गंगाधर धोके ने किया जो शंभुनाथ शुक्ल विश्वविद्यालय शहडोल के हिंदी विषय से आचार्य एवं विभागाध्यक्ष हैं। अध्यक्षता  डॉ परमानंद तिवारी प्रलेस शहडोल के अध्यक्ष ने किया। मंच पर हमारे साथ शशांक जी, इरा जी, चंचला जी, विवेक चतुर्वेदी जी और अनिल जी मौजूद रहे। वहाँ पर मिथिलेश राय, कासिम इलाहाबादी, राजेंद्र राज सहित शहर के बघेली हिंदी के कवि और प्रबुद्ध नागरिक मौजूद रहे।  शहडोल के इंडियन कॉफी हाउस में रात्रि भोजन रहा। जिस जगह से यात्रा शुरू हुई थी उसी जगह से खत्म भी हुई। 5 अक्टूबर को हम सेंट्रल अकैडमी में फिर आए। संजय मिश्रा जी ने सॉल उढ़ाकर बहुत आदर के साथ स्वागत किया। यह यात्रा अविस्मरणीय हो कर आँखों के रास्ते हमारे हृदय में स्थाई होती जा रही। 

                                                  

(केतन यादव कवि हैं। ये इलाहाबाद विश्व विद्यालय के हिन्दी विभाग से शोध कार्य कर रहे हैं।)



सम्पर्क 


मोबाइल : 8840450668

                                            

टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं