विन्ध्याचल यादव का आलेख 'रेत में आकृतियां : हर नाउम्मीदी के ख़िलाफ़!'

 

विन्ध्याचल यादव


श्रीप्रकाश शुक्ल एक प्रयोगधर्मी कवि हैं। उनकी कविताओं में ठेठ शब्द कविता की जरूरत बन कर आते हैं और पाठक को सहसा चकित करते हैं। आम बोलचाल के भोजपुरी शब्द, जिनका प्रयोग हम आम तौर पर करते हैं श्रीप्रकाश शुक्ल की कविताओं में अपनी पूरी गरिमा के साथ आते हैं। ऐसा प्रयोग उनके समकालीन किसी अन्य कवि में नहीं दिखाई पड़ता। रेत में आकृतियां उनका चर्चित कविता संग्रह है। इस संग्रह में वे नदी को दोनों पाटों पर बिखरी रेत को अलग अर्थों में देखते हैं। युवा आलोचक विन्ध्याचल यादव उचित ही लिखते हैं कि इस संग्रह के केंद्र में नदी और रेत के साथ गुंथती मानवीय रचनाशीलता की विविध भंगिमाएं और रूप हैं। इस संग्रह की भूमिका विन्ध्याचल यादव ने लिखी है। ब्लॉग पर हम इस भूमिका आलेख को प्रस्तुत कर रहे हैं। आइए आज हम पढ़ते हैं विन्ध्याचल यादव का आलेख 'रेत में आकृतियां : हर नाउम्मीदी के ख़िलाफ़!'



'रेत में आकृतियां : हर नाउम्मीदी के ख़िलाफ़!'

(बनारस के लोक को ग्रसती नव-औपनिवेशिकता का सांस्कृतिक सामना)



विन्ध्याचल यादव


रेत में आकृतियां। आकृतियां निष्प्राण नहीं। मुर्दों का टीला नहीं।सभ्यता की जिंदा रेत-घड़ी। दिक्-काल की सूईयों की टिक्-टिक्।संस्कृति-नदी की नब्ज़ पर। आकृतियां : स्वप्न और उम्मीद से सिक्त। विस्मृति के विरुद्ध। प्रसवधर्मी। एक गहरे जीवन-राग से युक्त। रेत यहां अतिभौतिकवादी सभ्यता के संकटों के बरक्स मानवीय सृजन का सांस्कृतिक मंच बन गई है। यहां घर से बाहर निकलने और कुछ रचने का रूपक है रेत। नव-औपनिवेशिक व्यक्तिवाद के सामाजिकीकरण का रास्ता। तेज सांस्कृतिक बहाव के खिलाफ अपनी जड़ों की नमी का एहसास। संग्रह की कविताओं में बनारस के तीन भौगोलिक 'शेड्स' उभरते हैं, जिनसे संग्रह की पूरी संरचना में बनारस अपनी सांस्कृतिक विडंबना के साथ खुलता है। पहले तो इस पार का बनारस शहर है। आबादी की घुटन भरी बसावट, आपा-धापी, ढर्रेदार जिंदगी, बाजार और नवमहाजनी-सभ्यता की फॉंस, रुढ़ि और धार्मिक पाखंड की जकड़ में बनारसी समाज। दूसरी तरफ शांत-निर्जन रेत का विस्तृत पाट। एक खुलापन। इधर अपनी उदासी और सन्नाटे के बावजूद मानवीय बेचैनी और स्वप्नजीविता की संभावना लिए गंगा के ये कछार हैं, जहां कुछ फसलें हैं, किसान हैं, कुछ जंतु हैं, चरवाहे हैं और रेत में जीवन की सलवटें बुनते हुए कुछ कलाकार हैं। और इन दोनों के बीच वह तीसरा पक्ष है जो जड़ जगत के साथ चेतना का प्रतिनिधि है, गति का, जीवन स्पंद का, परिवर्तन और शाश्वतता का अद्भुत कंट्रास्ट। विरासतवाही गंगा। इतिहास और संस्कृति की सहस्त्रों कथाओं का डायनैमिक दस्तावेज। एक अनथक-अपराजेय जिजीविषा का प्रवाह। 


श्रीप्रकाश शुक्ल का यह काव्य-संग्रह बनारस के शहरी जीवन की यांत्रिकता के सम्मुख गंगा और गंगापार की उन्मुक्त रेत को सांस्कृतिक रचनाशीलता के वैकल्पिक स्रोत के रूप में रखता है। इसके केंद्र में नदी और रेत के साथ गुंथती मानवीय रचनाशीलता की विविध भंगिमाएं और रूप हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल वैसे तो वृहत्तर बनारस (बनारस, मिर्जापुर, सोनभद्र, गाजीपुर आदि) के भूगोल और संस्कृति के खाटी कवि हैं, लेकिन इस संग्रह में एक अलग ही बनारस आया है, या कहें कि यह बनारस के अलग व अछूते भूगोल को सर्वथा अलग परिप्रेक्ष्य में रेखांकित करता संग्रह है। बनारस के लोक को ग्रसती नव-औपनिवेशिकता का सांस्कृतिक सामना करती हुई कविताओं का संग्रह है -'रेत में आकृतियां'।


श्रीप्रकाश शुक्ल मूलतः अवधी और भोजपुरी भाषी प्रदेश के कवि हैं। और बारीकी से कहें तो कहना चाहिए कि वे इन दोनों भाषाओं की सीमांत उपबोलियों के क्षेत्र के कवि हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल का गृह-अंचल सोन नद और गंगा नदी के बीच का प्रदेश है जहां अवधी की ही एक उपबोली मिर्जापुरी बोली जाती है जिसका विस्तार इलाहाबाद की तराई तक है, जो खुद अवधी भाषी कोर बेल्ट का सीमांत जनपद है और जहां से श्रीप्रकाश शुक्ल की शिक्षा और कवि व्यक्तित्व के निर्माण की जड़ें गहराई से जुड़ीं हैं। इधर गाजीपुर और बनारस दोनों भोजपुरी भाषा के सीमांत हैं तथा दोनों श्रीप्रकाश शुक्ल के काव्य-खनिज का स्रोत और रचनाभूमि हैं। काशी तो अब जीवन-भूमि भी। और यहां की भाषा भोजपुरी की उपबोली काशिका है। यूं श्रीप्रकाश शुक्ल मिर्जापुरी और काशिका वर्नाक्यूलर के क्षेत्र के कवि हैं, जिसकी गहरी छाप उनकी काव्यभाषा पर है भी। उदारीकरण और भूमंडलीकरण के वैश्विक प्रभाव के बीच नब्बे के बाद के हिंदी कवियों की पीढ़ी ने और श्रीप्रकाश शुक्ल ने आधुनिकता के इन तमाम विद्रूप व अतियों का सामना कविता में स्थानीयता (भूगोल) और लोक (संस्कृति) के सजग प्रयोग द्वारा किया। यूं श्रीप्रकाश शुक्ल कविता में आंचलिकता और भूगोल-बोध के कवि हैं। जानबूझ कर उनकी कविताओं की नाभि में बनारस अपने भूगोल और संस्कृति के साथ आता है। इस मामले में ज्ञानेंद्रपति और केदार नाथ सिंह की बनारस केंद्रित कविताएं उनके सामने मजबूत परंपरा की तरह रही हैं जिसका सोता  काशिकेय परंपरा के हिंदी कवियों कबीर, रैदास, तुलसी दास, भारतेन्दु, प्रसाद, त्रिलोचन और धूमिल आदि की कविताओं में धॅंसा हुआ है।


इस संग्रह को पढ़ते हुए बनारस के ही एक बहुत बड़े कवि जयशंकर प्रसाद की प्रसिद्ध कविता ‘ले चल वहां भुलावा दे कर’ की तरफ सहसा ध्यान जाता है कि इस कविता की पंक्ति ‘तज कोलाहल की अवनी रे’ में ‘कोलाहल की अवनी’ क्या श्रीप्रकाश शुक्ल के इस संग्रह की ‘बसंत’ शीर्षक कविता के ‘शहर-शहरॉंव’ की ‘कॉंव-कॉंव’ का ही पूर्वरंग नहीं है! यह एक दिलचस्प प्रश्न है कि प्रसाद के कवि-मन में निर्जन का वह ‘इमेज’ कहां से कौंधा होगा, जिसका चुनाव इस कविता में वे करते हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह पढ़ते हुए बार-बार ऐसा लगता है कि बनारस के गांगेय अंचल में रहते हुए उन्मुक्त अंबर तले विस्तृत गंगा पार के रेतीले कछार प्रसाद की उक्त कल्पना के आधार बने हों!


बनारस में गंगा पार रेत पर प्रत्येक वर्ष 19 जनवरी को मूर्तिकार मदन लाल अपने गुरु रामछाटपार की स्मृति में शिल्पकारों का मेला लगा कर रेत में आकृतियां गढ़ते हैं, जिसको आधार बना कर श्रीप्रकाश शुक्ल का यह कविता-संग्रह रचा गया है। यह रोचक संयोग है कि उस निर्जन पर लिखते हुए उक्त कविता में जयशंकर प्रसाद ने भी सृजन-मेला का जिक्र किया है- 


“श्रम-विश्राम क्षितिज बेला से

जहां सृजन करते मेला से”। 


सृजन का यही मेला मूर्तिकार मदन लाल और कवि श्रीप्रकाश शुक्ल दोनों की रचनात्मकता का स्रोत है और परंपरा के अधिग्रहण का यही ढंग है जिसे श्रीप्रकाश शुक्ल अपने पुरखे कवि से अर्जित करते हैं। लेकिन दोनों में गुणात्मक अंतर यह है कि प्रसाद कोलाहल की अवनी को तज जिस निर्जन का चयन करते हैं उसके सृजन और सौंदर्य की सारी जिम्मेदारी ‘विभु की विभुता’ और प्रकृति पर छोड़ देते हैं, जबकि श्रीप्रकाश शुक्ल के यहां इस निर्जन का अभिषेक मनुष्य करता है- अपनी राजनीति, संस्कृति-बोध, सौंदर्याभिरुचि और कला-सर्जना के बल-बूते। इतिहास-बोध का यह ‘डिपार्चर’ (जिसे प्रसाद के संबंध में पलायन कहा गया) दरअसल, काशी की लोक संस्कृति के नव-औपनिवेशिक संकट की चपेट में आते चले जाने के विरुद्ध बनारस की हिंदी कविता का अपना प्रतिरोध है और यह प्रतिरोध प्रसाद और श्रीप्रकाश शुक्ल अलग-अलग समयों में अपने अलग-अलग ढंग से करते हैं। ग़ौरतलब है कि नब्बे के बाद की हिंदी कविता में बाजार और नव-औपनिवेशिक पूंजीवादी संकट को ले कर एक सजग बेचैनी मौजूद रही है जिसका सामना वह अपनी लोक-चेतना और प्रकृति से अपने नए ढंग के संवाद के जरिए करती है। यह प्रवृत्ति केदार नाथ सिंह से लेकर ज्ञानेंद्रपति, अरुण कमल, मदन कश्यप, अनामिका, बद्रीनारायण तथा श्रीप्रकाश शुक्ल आदि कवियों की पूरी पीढ़ी तक पाई जाती है। इन्हीं अर्थों में ‘रेत में आकृतियां’ नब्बे के बाद की हिंदी कविता की मूल संवेदना का प्रतिनिधि काव्य-संग्रह है।


यह काव्य-संग्रह वास्तुकला और मूर्तिकला से कविता की एक दिलचस्प मुलाकात है। एक सांस्कृतिक संवाद। एक तरह से शिल्प व मूर्तिकला की रिक्तता को पूरती हुई दो कला माध्यमों की आपसी मुहाँ-मुँही। यही कारण है कि इस संग्रह की कविताओं में दृश्य (visuals) बहुत हैं, जबकि श्रीप्रकाश शुक्ल के दूसरे काव्य-संग्रहों की कविताओं के शिल्प में कथात्मकता एक प्रमुख विशेषता रही है। अस्सी से नब्बे के बीच ‘बिंब’ कविता की ताक़त और ‘दृश्य’ कमजोरी माने जाते थे, लेकिन नब्बे के बाद मॅंडराते नव-औपनिवेशिक सांस्कृतिक संकट ने मनुष्य की स्मृति और कल्पनाशीलता दोनों को कुंद करना शुरू किया जिससे बिंबात्मकता के लिए स्पेस सॅंकरा होता गया और कथात्मक शिल्प के सहारे कविता ने अपने समय के तमाम खतरों का सामना किया। ज़ाहिर है यह द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता की वापसी नहीं थी, क्योंकि यहां कथा सिर्फ कही भर नहीं जाती वरन् कथाओं के प्रति एक इतिहास विवेक और उनकी सांस्कृतिक पुनर्रचना की कोशिश मिलती है। भारतीय समाजों के संबंध में कथाओं का बड़ा गहरा संबंध लोक से बनता है और मनुष्य की स्मृति और कल्पनाशीलता को बचाने का कथाओं से अच्छा कोई माध्यम नहीं है। इस दृष्टि से लोक-कथाओं, लोकगीतों, लोक-धुनों, मिथकों, प्रकृति-तत्त्व एवं आम-अस्मिताओं के चित्रण के सहारे नब्बे के बाद की हिंदी कविता ने अपने समाज को एक जरूरी इतिहास बोध और सांस्कृतिक चेतना के मूल स्रोतों से जोड़ा।


    इस पूरे संग्रह में रेत और गॅंवईं-गंध को केंद्रीयता दे कर कवि ने अपने इतिहासबोध और सांस्कृतिक चेतना के सबाल्टर्न व लोक पक्ष को मजबूती से उजागर किया है। ये कविताएं काल के दायरे में रेत-राग को सुनने की कोशिश में लिखी गई हैं।यह अपने आप में ही महत्वपूर्ण है कि रेत-राग को कवि महत्व देता है। रेत मतलब छूटा हुआ, वीरान, उपेक्षित, किनारे। यानी हाशिए का राग। जिसका राग कोई नहीं सुनता; कवि सुनता है। समाज की मुख्यधारा की जगह किनारे पड़े समूहों को किस्से में लाना कलाकार द्वारा इतिहास को सही परिप्रेक्ष्य में मोड़ना है। 


          समुद्र को ले कर अनंत किस्से हैं जगत में 

          रेत को ले कर एक भी किस्सा नहीं है जीवन में 

          मसलन घर को ही लें

          दीवारों के बहुत किस्से हैं 

          बालू को ले कर 

          कुछ भी नहीं!

                        (किस्से)


रेत क्यों नहीं है किस्से में! कवि की यह छटपटाहट बहुत गहरे अर्थों में हाशिए के साथ खड़े होने की कोशिश है। आधुनिकता के ग्रैण्ड नैरेशन और बनारस के शास्त्रवादियों के क्लासिक इतिहास बोध को तोड़ कर कवि वंचितों-उपेक्षितों की तरफ से कहानी को नए सिरे से नैरेट करता है। यह हिरणों की नजर से जंगल का इतिहास कहने की जीवन-दृष्टि है।


          लोग कहते हैं 

          ऋषि अगस्त ने 

          एक दिन अचानक समुद्र को निगल लिया 

          असल में ऋषि ने समुद्र को निगला नहीं 

          अपने भीतर की रेत को उगल दिया था।

          लोग यह बताते हैं कि हनुमान जी ने 

          समुद्र को लांघ लिया था हंसी-हंसी में 

          मुझे लगता है हनुमान जी ने कुछ लाँघा-वाँघा नहीं 

          बस बैठे-बैठे अपने भीतर की रेत को उछाल दिया 

          था तबीयत से।

                            (किस्से)


        सभ्यता में जिनके योगदान को इतिहास द्वारा या तो दबा दिया गया या नजरअंदाज किया गया, रेत की तरह रौंदी गई उन अस्मिताओं को कवि श्रीप्रकाश शुक्ल इन कविताओं के माध्यम से अपनी सभ्यता-समीक्षा में मानवीय स्वप्न का कैनवस बना लेते हैं। उन्हें समुद्र और दीवार से नहीं, उस रौंदी गई रेत से उम्मीद है। यहां रेत की प्रतिरोधी संभावना की खोज भी है और उसके प्रति भरोसा भी।


          मैं लगातार देख रहा हूं 

          कभी अपने पांव को

          तो कभी उस रेत को

          जो एक कलाकार के चित्र में बैठी हुई थी 

                                          (चित्रकारी में रेत)


      रेत दोनों जगह एक ही है। पांवों में भी और चित्रकारी में भी।एक जगह वह रौंदी गई है और दूसरी जगह कलाकार ने अपनी इतिहास-दृष्टि और कल्पनाशीलता से उसे प्रतिरोध के गोलंबर में तब्दील कर दिया है। यह है उस हाशिए की शक्ति और संभावना। बस उसे सिरजने वाले हाथ चाहिए। एक साफ़ नेतृत्व। यूं यह संग्रह आधुनिक सभ्यता में कवि और कलाकार की बढ़ती जरूरत और भूमिका को बड़े गहरे रंगों में रचता है। इसमें ‘रेत में कलाकार’ और ‘नियति’ जैसी कविताएं सीधे इसी विषय पर हैं। यह भी उल्लेखनीय है कि इस संग्रह में रेत अपनी केंद्रीयता के बावजूद नदी से बिलग नहीं है। उसका पूरा स्वरूप नदी के ‘कंटेक्स्ट’ में है। नदी यहां काल की गति भी है और संस्कृति का प्रवाह भी। रेत और नदी का अद्वैत पूरे संग्रह में अटूट है। यूं श्रीप्रकाश शुक्ल बिना विमर्शवादी आग्रहों के भी हाशिए की आवाज उठा पाते हैं और अपने लेखन में एक सांस्कृतिक सहजीवन का स्वप्न बुनते चलते हैं।


इस संग्रह की कविताओं में श्रीप्रकाश शुक्ल बारंबार रेत (वंचित) अस्मिता से खुद की अस्मिता को एकाकार कर लेते हैं। ‘नियति’ और ‘रेत नाव’ जैसी कविताओं में यह समीकरण प्राप्य है। यूं यह सभ्यता और इतिहास में जितना उपेक्षितों की खोज है, उतना ही आत्म-उत्खनन भी। खुद से खुद की लड़ाई। एक अपराजेय आत्म-संघर्ष। अगस्त्य और हनुमान के भीतर की रेत के बहाने कवि अपने भीतर की रेत को भी उगलता और उछालता है, जिससे खुद के भीतर बंजरता कहीं आस-पास न फटके। श्रीप्रकाश शुक्ल किसी व्यक्ति की बंजरता के खास खिलाफ होते हैं, लगभग घृणा। साक्षात मृत्यु। इस मामले में श्रीप्रकाश शुक्ल का आत्मसंघर्ष कुछ वैसा ही है जैसे ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ में निराला अपनी बंजरता के खिलाफ संघर्षरत थे।बस अलग यह है कि निराला रेत का प्रयोग निर्थकता के रूपक में करते हैं लेकिन श्रीप्रकाश शुक्ल रेत को ही जीवनी शक्ति बना लेते हैं। एक ऐसे समय में जब सत्ताएं चाहती हैं कि जनता या तो ‘ओबीडियंट सोसायटी’ (भक्त समाज) में बदल जाय या जन-रेगिस्तान में। एक प्रतिरोधविहीन समाज की रचना में रत सत्ता का जवाब श्रीप्रकाश शुक्ल रेत से अपने भीतर की रेत को मिला कर तैयार करते हैं, जिसे वे ‘रेत में रेत का अंकुरण’ (अंकुरण कविता में) कहते हैं। एक मानवीय उर्वरता और सृजन की संस्कृति का स्वप्न।


          मेरे पास एक नाव है

          इस पर कुछ जंगल लदे हैं

          कुछ आसमान

          कुछ अंधेरा लदा है 

          कुछ रोशनी 

          कुछ अतीत लदा है 

          कुछ व्यतीत 

          इस पर बैठा हुआ मैं 

          अपनी कुहनियों से इसे खे रहा हूं

          जितना ही खेता हूं इसे 

          उतना ही खोता हूं इसकी तरंग को पाने के लिए 

          अपना अंतरंग!


रेत-नाव का रूपक मानीखेज है। कामायनी के मनु की तरह श्रीप्रकाश शुक्ल के पास भी एक नाव है, जिसमें दुनियां को उसके नैसर्गिक रूप में बचा लेने की सामग्री लदी है। नाव तमाम विपदा-विप्लव और दुःख के सागर से पार लगाने वाले यंत्र का रूपक है। श्रीप्रकाश शुक्ल ने रेत को ही पार लगाने वाली नाव के रूपक में बदल कर सभ्यता में रेत (हाशिए) के ऐतिहासिक योगदान को रेखांकित करती इतिहास दृष्टि रच दी है। और इसे कुहनियों से खेने का बिंब तो बेहद दिलचस्प व टटका है। कुहनियों से नाव खेना जिंदगी जीने में कठिन संघर्ष व जद्दोजहद का लोक मुहावरा है।इस आत्मसंघर्ष की प्रक्रिया में ही अपने अंतरंग को खोना पड़ता है,यानी अपने भीतर की बद्धमूल जड़ता और बंजरता से मुक्ति की यही प्रक्रिया है जिसका अनुभव कबीर से ले कर निराला, अज्ञेय और मुक्तिबोध तक ने अपने ढंग से किया। यहां श्रीप्रकाश शुक्ल भी मानते हैं कि अपने अंतरंग को खोए बगैर रेत की तरंग यानी उसकी रचनात्मक संभावनाओं और सभ्यतागत उल्लास को अर्जित नहीं किया जा सकता। श्रीप्रकाश शुक्ल अपनी कविताओं में और पुलिया प्रसंग के अपने संवादों में बारंबार युवा पीढ़ी को यह संदेश देते हैं कि दूसरों (Others) का स्वीकार और अहम् का विसर्जन परंपरा ग्रहण और रचनाशीलता की बुनियादी शर्त है। मनुष्यता की तो है ही।


            रेत होना नम होना है

            नम होना 

            अंकुरित होना है 

            अपनी शुष्कता के खिलाफ

                                  (रेत पसीना)





इस पूरे संग्रह को बनारस-बोध के बगैर पढ़ा नहीं जा सकता। वैसे तो बनारस केंद्रित कविताओं का लंबा इतिहास है। हिंदी और दूसरी भारतीय भाषाओं में बनारस केंद्रित कविताएं और साहित्य मौजूद हैं। लेकिन हिंदी में बनारस केंद्रित कविताओं का स्वर भारतेन्दु के ‘देखी तुम्हरी काशी’ से ले कर केदार नाथ सिंह की ‘बनारस’ कविता तक प्रायः ‘क्रिटिकल’ ही रहा है। यह हिंदी का तेवर है। श्रीप्रकाश शुक्ल इसी परंपरा के कवि हैं। काशी के प्रति एक ‘क्रिटिकल एप्रोच’ मुसलसल उनकी कविताओं में मौजूद है। इस संग्रह में भी वे ‘रेत में अरमान’ शीर्षक कविता में बनारस को ‘बहुरूपिया शहर’ कहते हैं और ‘बसन्त’ कविता में तो रेत प्रेयसी अपने बसंत पाहुन को बनारस के शहरी हिस्से की तरफ़ जाने से यह कह कर बरजती है -


           कहां जा रहे हो उधर की ठाँव 

           शहर-शहराँव 

           बरवक्त जहां रहता है 

           काँव-काँव!


बनारस शहर और रेत इस कविता में बिल्कुल आमने-सामने हैं।शहर को बड़ी उपेक्षा से ‘शहराँव’ कहा गया है। शहराँव में एक नकलीपन की गूँज है, खाँटी चीज़ तो इधर है - रेत। रेत यहां शहर का विकल्प या कहें प्रति-शहर भी है। बनारस शहर गंगा का एक पाट है तो गंगा का दूसरा पाट रेत है, जिसके पार फिर गांव शुरू होते हैं। शहर की काँव-काँव, आपाधापी, गला-काट लाभ-लोभ, अमानवीय स्थितियों और अशांति आदि के प्रति-पाठ की तरह रेत अपनी शांति, शीतलता, विस्तार, खुलेपन और ताजगी के साथ खुलती है। श्रीप्रकाश शुक्ल के यहां सौंदर्य-बोध का यह गुणात्मक विस्थापन उनके लोकोन्मुख इतिहास-बोध और दार्शनिक समझ के कारण संभव हो पाया है। यह संग्रह अपने दार्शनिक पुट के लिए अलग से रेखांकित किया जाना चाहिए।जब समकालीन हिंदी कविता ज्यादातर राजनीतिक और इतिहास केंद्रित हो गई और छायावाद के बाद हिंदी कविता ने अधिकतर दर्शन और संस्कृति का दामन छोड़ दिया; तब श्रीप्रकाश शुक्ल का यह संग्रह कविता में जिस तरह लोक संस्कृति और दर्शन को शामिल करता है वह मानीखेज है।


                    बानगी के तौर पर, लोक-संस्कृति और दर्शन को ‘करुणा’ और ‘नाव’ कविता में बड़ी सुरुचि और बारीकी से पिरोया गया है। दिलचस्प है कि इन दोनों कविताओं में रेत को नदी का अफ़सोस कहा गया है।


            नदी किनारे

            एक अफसोस सी फैली है रेत

                                           (करुणा)


             देखते नहीं कितने बेबस आंसुओं को छिपाए है 

             रेत  

             एक अफसोस जैसे फैले 

             अपने विस्तार में

                              (नाव)


जाहिर है अफसोस में बिछड़न की एक गहरी पीड़ा है। नदी रेत को छोड़ना नहीं चाहती। ले कर बहना चाहती है। पर जिंदगी में सब कुछ को ले कर नहीं बहा जा सकता। कुछ वेदना, कुछ चाहतें, कुछ दुख, कुछ रिश्ते और कुछ आत्मीयताओं को छोड़ कर बड़े अफसोस के साथ आगे बहना ही तो जिंदगी है। नदी की बहुत सी बेबसी है, बिरह हैं, मिलन हैं, बहुत सी कहानियां हैं जिन्हें शायद भूलाना भी मुमकिन नहीं और साथ ले जाना भी मुनासिब नहीं। ‘कितने बेबस आंसुओं को छिपाए है रेत’ में बड़े काव्यात्मक ढंग से सभ्यता के विकास और परंपरा के नैरंतर्य का इतिहास-बोध और जीवन-दर्शन अनुस्यूत है। सब कुछ को ढोना तो नास्टेल्जिया है, पुनरुत्थान है। इसी ‘नाव’ कविता की नन्हीं सी पहली बंदिश में नाव और हमारी गतिकी के वैपरीत्य के द्वारा श्रीप्रकाश शुक्ल ने अपने दर्शन और भूगोल-बोध को बड़ी खूबसूरती से टाँका है-


             नाव चलती है

             हम ठहर जाते हैं

             इस पार

             नाव ठहरती है 

             हम चलने लगते हैं 

             उस पार!

                      (नाव)


नाव की गति के सापेक्ष हमारा ठहराव और नाव के ठहराव के सापेक्ष हमारी गति का पूरा संतुलन ‘इस पार’ (बनारस शहर) और ‘उस पार’ (गंगा पार रेत) के भूगोल (स्पेस) से तय होता है। इस पार मतलब शहर-शहराँव और उस पार मतलब उन्मुक्त विस्तृत रेत और प्रकृति। एक रचनात्मक माहौल। एक तरफ शहर की आपाधापी, भीषण गति, पूंजीवादी सभ्यता की कृत्रिमता और यांत्रिकता में मानवीय जिंदगी ठहर सी गई है। दूसरी तरफ एक प्राकृतिक खुलापन है। मनुष्यता के लिए आकाश और अवकाश दोनों। रेत पर मानवीय हरकत हो रही है। मूर्तिकारों की, कला की एक सांस्कृतिक गतिविधि। इसीलिए शहर की तरफ नाव तो चलने लगती है लेकिन हम ठहर जाते हैं और रेत की तरफ नाव ठहर जाती है लेकिन हम यानी जिंदगी चलने लगती है। श्रीप्रकाश शुक्ल की ये कविताएं अपने इतिहास-बोध और दर्शन में लोक भाषा और संस्कृति का पक्ष चुनतीं हैं। मानवीय रचनाशीलता का पक्ष। एक बेजोड़ रचनात्मक जिजीविषा का पक्ष। ‘शहर शहरांव’ की लिजलिजी चिकनाई के बरक्स गंवईं गंध की कड़कती अकड़, सचाई और स्वाभिमान का पक्ष।


           रेत 

           जीवन की हर नाउम्मीदी के खिलाफ

           एक संभावना है 

           जितना ही कुरेदो इसको

           कड़कती है रेत 

           जितना ही धॅंसाओ इसमें 

           धधकती है रेत

           जितना ही जलाओ इसको 

           गॅंवईं-गंध की तरह

           अकड़ती है रेत।

                           (गॅंवईं-गंध)


जीवन की हर नाउम्मीदी के खिलाफ खड़ी रेत को श्रीप्रकाश शुक्ल ने इस संग्रह की दूसरी तमाम कविताओं में बचपन, मनुष्यता और मानवीय स्वप्न से जोड़ा है।


          बच्चे लगातार पकड़ते हैं इस रेत को 

          जैसे सपनों में जीवन पकड़ रहे हों

          क्योंकि सपनों में होना 

          जीवन होना है

                          (रेत में अरमान)


‘सपने’ कविता छोटे-छोटे दो टुकड़ों में रची गई है और मानवीय स्वप्न तथा अमानवीय यथार्थ की गझिन टक्कर से झंकृत हो उठी है। बनारस, गाजियाबाद और दिल्ली इस कविता में पूंजीवादी सभ्यता के चरणों की तरह उभरते हैं। इस संग्रह में ऐसी बहुत कम कविताएं हैं जो सीधे सामयिक विषयों को स्पर्श करती हों! धार्मिक कट्टरवाद, निठारी कांड के खून के धब्बों और सद्दाम हुसैन पर अमेरिका की बमबारी का संदर्भ महज संग्रह की पहली और अंतिम कविता ‘रेत में आकृतियां’ तथा ‘आज़ादी’ में और इस ‘सपने’ कविता में आता है। संग्रह की उक्त पहली कविता में सपनों का रंग ‘लगभग नीला रंग’ है। आकाश का रंग। स्वातंत्र्य का रंग।


           काशी के कलाकारों ने अपनी आकृतियों में 

           एक रंग भरने की कोशिश की थी 

           लगभग नीला रंग!

           इस रंग में छाहीं से ले कर निठारी तक का ढंग था

           अस्सी से ले कर मणिकर्णिका तक की चाल थी

                                              (रेत में आकृतियां)


इस संग्रह के बारे में यह रोचक बात है कि प्रेम और पर्यावरण बोध तासीर की तरह लगभग सभी कविताओं में छलछलाता है।प्रेम तो इस संग्रह की कविताओं का स्थायी-भाव है। और यह भी कि इसमें रेत के साथ जितनी नदी आयी है, उतना ही समुद्र भी आता है। जिस तरफ कम ध्यान जाता है। नदी की रेत में जहां कवि की स्थानीयता तथा बनारस और गांगेय अंचल है वहीं समुद्र की रेत में निश्चित रूप से श्रीप्रकाश शुक्ल की यात्राएं बोलती हैं। यूं नदी से समुद्र तक फैली रेत में श्रीप्रकाश शुक्ल का देस और परदेस दोनों मुखर होता है। हालांकि उन्होंने अपना यात्रा वृत्तांत ‘देस देस परदेस’ बहुत बाद में लिखा। ’रेत में आकृतियां’ की कविताओं से लगभग एक दशक बाद। लेकिन उनकी कविताओं में इस यात्रा वृत्तांत के पग चिह्न पढ़े जा सकते हैं। रेत रूप, गीली रेत, अटा पड़ा समुद्र, किस्से, पाँव, रेत पसीना और पाँव में उलझा हुआ समुद्र जैसी कविताएं समुद्र रेत पर केंद्रित हैं।



श्रीप्रकाश शुक्ल 



इन कविताओं में मौजूद प्रेम-तत्त्व पर बात किए बगैर बात अधूरी रह जाएगी। यूं श्रीप्रकाश शुक्ल ने प्रेम पर बहुत कम कविताएं लिखीं हैं। लिखीं भी तो गार्हस्थिक प्रेम की कविताएं ही अधिक लिखीं हैं। कच्ची जवानी के प्रेम की कविताएं तो इसी संग्रह में आती हैं। एक दैहिक ऊष्मा, गंध और खुलेपन के साथ। हालांकि प्रेम के आलंबन प्राकृतिक उपादान ही हैं, लेकिन इनके ‘इंगेजमेंट’ में गहरी मानवीय गतिविधियां उभरीं हैं। चुंबन, आलिंगन और स्पर्श। कई जगहों पर ‘डीप इमोशनल लव’। जैसे ‘रेत की माँ’ जैसी कविता।


            नदी चुपचाप सोई हुई थी

            और रेत हुँमच हुँमच कर दूध पी रही थी

            रेत लगातार मोटी होती जा रही थी 

            जबकि नदी दुबली 

            और दुबली होती नदी 

            यह देख कर प्रसन्न थी कि लोग उसे माँ कहते हैं।

                                                     (रेत की माँ)


    नदी और रेत के बीच यह वत्सल भाव मोहक है। लेट कर चुपचाप दूध पिलाती नदी-मां का चित्र और भी मोहक। यहां चित्रकला और कविता आपस में घुल-मिल गयी हैं। इससे भी रोचक है रेत का हुँमच-हुँमच कर दूध पीने का बिंब। यह ठेठ  लोक का बिंब है। यह गाय-भैंस के बड़े होते बछड़े या पड़वे द्वारा थन से दूध पीने का बिंब है। बहुत छोटे बछड़े हुँमच हुँमच कर दूध नहीं पी पाते। थोड़ा बड़े होने पर ये मां के थन में तेज झटके (खोंटका मार कर) दे कर दूध पीते हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल बनारस में सीरगोवर्धन के जिस इलाके में रहते हैं वह अहीरों की बहुत बड़ी बस्ती है। दरअसल यह बिंब पशुपालक समाज और बनारसी लोक के सामीप्य और संस्कार से उपजा है। उनके अन्य संग्रह की कविता ‘भैंस’ और उस कविता में सड़क के बीचो-बीच भैंस के मड़िया मारने का दृश्य इसी बनारसी लोक की उत्पत्ति है। प्रेम केंद्रित दूसरी महत्वपूर्ण कविताओं में अंकुरण, खुली रेत, दर्पण, धूप, बसंत और ऐश्वर्य प्रमुख हैं। यहां ‘धूप’ और ‘बसन्त’ कविता लोक में मौजूद प्रीति के रिश्तों को बड़े गाढ़े रंगों में रचती हैं।


              सूरज नभ पर 

              हाँफ रहा है आशा कर कर 

              लौटेगी उसकी यह आभा

              भर भर रेत

              नदी के तट पर 

              पर कैसे लौटेगी 

              छोड़ उम्र भर 

              अभी-अभी तो आई है 

              धूप कहां भेंटी 

               रेती को 

               जी भर!

                       (धूप)


                नभ पर ‘हाँफते सूरज’ का बिंब दरअसल दर्शाता है कि सूरज शिशिर का है और बेला ढलती दोपहर की। सूरज दिन भर चल कर थक गया है। इसी तरह के सूरज के लिए सेनापति ने लिखा था कि 


“सिसिर में ससि को सरूप पाँवैं सविताऊ

धामहूँ में चाँदनी की दुति दमकति है।” 


यहां धूप और रेत के आत्मीय आलिंगन को चित्रित किया गया है। केदार नाथ अग्रवाल की मैके में आयी बेटी याद आती है- 


“धूप चमकती है आंगन में

मैके आई बेटी की तरह मगन है।” 


यहां कविता में धूप और रेती दोनों स्त्रीवाची प्रयोग हैं। मानो यह दो बहनों या सखियों की बहुत दिनों बाद की भेंट का दृश्य हो! ससुराल से अरसे बाद लौटी धूप मायके में रेती से लिपट गई हो!इसी तरह का प्रेम ‘बसंत’ कविता में प्रेयसी रेत पाहुन बसंत को करती है :


              कहाँ भगे जा रहे हो पाहुन

              आश है कि धरे-धरे

              कह रही है रेत।


              रेत है कि चूमती है पांव

              चाँदनी जैसे झुरमुट से गांव 

              छोड़ मत जाना मीत

              बस एक बार 

              एक बार उतर आओ 

              मेरी प्रीत 

              बौर रीत!

                        (बसन्त)


        बसंत को पाहुन कहती रेत बड़ी रसीली लगती है। पाहुन भोजपुरी का शब्द है। जो गाँवों में नयी ब्याहता लड़कियों के पति के लिए लड़की और पूरे गाँव द्वारा प्रयुक्त होता है। पाहुन एक प्रेमिल श्रृंगार से सराबोर संबोधन है। रेत और बसंत का रिश्ता नायिका-नायक का है। यह कविता भी मूलतः प्रेम कविता ही है, प्रकृति के आलंबनों में मानवीय प्रेम की कविता। प्रेम और नया-नया प्रेम इस संग्रह की कविताओं का प्राण तत्त्व है। यह प्रेम कविता उत्तरोत्तर सामाजिक होती चली जाती है। कविता उठान तो लेती है बसंत और रेत के प्रेमालाप से लेकिन शहर के काँव-काँव की ओर से बसंत को प्रेयसी रेत जिस तरह बरजती है वह कविता के केंद्र में गाँव और शहर की विसंगतियों और सांस्कृतिक विडंबनाओं को ला खड़ा करती है।


इस संग्रह में उन्मुक्त प्रेम की कविताओं के तौर पर अंकुरण और दर्पण जैसी कविताओं को लिया जा सकता है, जिनमें दैहिक क्रियाएं भी आ गयीं हैं, लेकिन बड़े कलात्मक सधाव के साथ।जैसे निराला की प्रणय कविताओं जुही की कली आदि में। ये कविताएं इसलिए भी विशिष्ट हैं क्योंकि इस अंदाज की कविताएं श्रीप्रकाश शुक्ल ने दूसरी जगहों पर नहीं लिखीं हैं।


           तुम्हारे रोवों का उठाना 

           रेत भर का प्रेम होना 

           फिर चटखना

           अंगुलियों के मानिंद 

           दौड़ पड़ना 

           धमनियों में 

                        (अंकुरण)


प्रेमिल अंगड़ाइयों में कसमसाते नायिका के बदन को महसूस कर नायक का हृदय प्रेम से पुकारता है। स्थूल से सूक्ष्म में समाता हुआ अद्भुत प्रेम वर्णन। देहवाद को लगभग स्पर्श करता हुआ।सच्चे स्नेह में अंततः पर्यवसित। यह संतुलन एक मजा हुआ कवि ही साध सकता है। जायसी याद आते हैं। पद्मावत के सौंदर्य चित्रण और प्रेमानुभूतियों का वर्णन कुछ इसी तरह लौकिक जमीन से उठान लेता है और जा कर समाता है इश्क हक़ीक़ी की रूहानी मोहब्बत में। यह रेत का नया चरित्र गढ़ती कविता है। रेत की प्रसवधर्मिता की कविता। लोक मुहावरे में बालू से तेल निकालना रेत की नीरसता और अनुर्वरता का अर्थ देता है। इस तरह कई बार कवि शास्त्र से ही नहीं लोक से भी भिड़ जाता है और नये मूल्य-बोध से उसकी भाषा को माँजता है। ‘दर्पण’ कविता में सयानी होती नदी का छरहरापन और उसकी इठलाती अदाएं जहां उसे एक खूबसूरत नायिका के रूप में प्रस्तुत करती हैं, वहीं उसकी विडंबना को भी जाहिर करती हैं। यह विडंबना पैदा होती है आधुनिकता की कोख से। औद्योगिकीकरण और बाजारवादी सरोकारों ने दिल्ली जैसे महानगरों में यमुना आदि नदियों का जो हश्र किया है उससे आधुनिक होती नदी धीरे-धीरे/ठहर सी गई है। इस संग्रह की तमाम कविताओं में नदी के पतले दुबले होने की चिंता मौजूद है। यह जितना सौंदर्य-बोध का मसला है; उतना ही नदियों के प्रदूषण और पर्यावरणीय संकट का भी।यह संग्रह अपनी कविताओं में पर्यावरण के घनघोर संकट को प्रायः सीधे नहीं कहता, लेकिन जगह-जगह नदी और उसकी पूरी पारिस्थितिकी के बिगड़ते समीकरणों की गहरी चिंता यहां मौजूद है। इस संग्रह में नदी और रेत समानांतर भी हैं और कई जगहों पर समरूप भी। कहीं रेत नदी की चिट्ठी है तो कहीं नदी का दर्पण। इस तरह नदी और रेत के बेहद कारुणिक और मानवीय रिश्तों के बीच कवि उनके पारिस्थितिकीय रिश्ते को भी ‘रिफ्लेक्ट’ करता चलता है।


             पानी के भाप होने के विरुद्ध

             रेत 

             नदी की एक सार्थक उपस्थिति है

             यह तब भी होगी 

             जब नदी नहीं होगी 

             नदी के अस्तित्व के खिलाफ

             हर साजिश का पर्दाफाश करती 


             जब तक रेत है 

             नदी है 

             नदी के पक्ष में 

             एक आर्द्र चितवन की तरह।

                                 (आर्द्र चितवन)


आखिर में बात इन कविताओं के शिल्प और भाषा की। यह बात इसलिए भी जरूरी है क्योंकि श्रीप्रकाश शुक्ल बनारस अंचल के ऐसे कवियों में से हैं जिन्होंने हिंदी भाषा को लोक बोलियों के तमाम ऐसे शब्दों से पुनः समृद्ध किया है जो लगभग हमारी भाषा से बाहर हो गये थे। अपनी कविता के माध्यम से श्रीप्रकाश शुक्ल जनपदीय संस्कृति और उसकी शब्द-संपदा को हिंदी समाज को पुनर्हस्तांतरित करते हैं। इस बात की तस्दीक ‘बोली बात’ (श्रीप्रकाश शुक्ल का तीसरा काव्य-संग्रह) के ब्लर्ब में सुप्रसिद्ध कवि केदार नाथ सिंह ने भी की है- “पर एक अच्छी बात यह है कि इसी के चलते यहां अनेक नए देशज शब्द ऐसे मिलेंगे जिन्हें पहली बार कविता की दुनिया की नागरिकता दी गई है।” रेत में आकृतियां की कविताएं भी इसका अपवाद नहीं हैं। श्रीप्रकाश शुक्ल ने प्रचलित क्रियाओं, विशेषणों और संज्ञा शब्दों में तो प्रयोग किए ही, लोक से ऐसे नये शब्द लेकर गढ़े भी। जैसे इसी संग्रह में ‘देवता’ कविता में लोक-भाषा के काइयां शब्द से ‘कुच काइयां’ शब्द बनाया है। जिसका अर्थ असामाजिक तत्वों से है। उनकी भाषा में अक्सर ऐसे कनफुंकवे, लोचर और लपर-झपर निशाने पर रहते हैं। इसी तरह ‘खुली रेत’ कविता में ‘आभ तकती’ का प्रयोग। आभा से ‘आभ’ और ताकना से ‘तकती’। एक संस्कृत का शब्द दूसरा भोजपुरी का। इस तरह शास्त्र और लोक एकदम साथ-साथ। ‘बसंत’ कविता में बड़ा कलात्मक प्रयोग है- ’मेरी प्रीत/ बौर रीत!’। यहां ‘बौर रीत’ सर्वथा ताज़ा काव्य-प्रयोग है। यौवन की नैसर्गिक अभिव्यक्ति। यहां लोक और प्रकृति को शास्त्र में घुसा दिया गया है; साथ ही प्रीति और रीति जैसे तत्सम शब्दों को ‘प्रीत’ और ‘रीत’ के तद्भव फ़ार्म में प्रयोग कर ‘बौर’ के साथ जबरदस्त संगति की गई है। इसी कविता में ‘शहराँव’ का प्रयोग बेहद ‘क्रियेटिव’ है। शहर के प्रति एक झिड़क, एक उपेक्षा, महज़ एक ‘आंव’ प्रत्यय से व्यक्त कर ली गई है। उनकी काव्य-भाषा में ‘भर’ जैसा अतिसंक्षिप्त विशेषण बहुत प्रचुरता से प्रयुक्त है, लगभग उनकी काव्य-भाषा की पहचान बनता हुआ। मैं इसे श्रीप्रकाश शुक्ल की काव्य-भाषा का निजी विशेषण कहना चाहता हूं। जैसे रूप रेत भर, धूप खेत भर, रक्तभर की गर्मी, भर-भर रेत, को हरा, को भरा; जैसे ढेरों प्रयोग। इसके अलावा इस संग्रह की ‘रेत पसीना’ कविता में लोक-भाषा से उठाया गया बड़ा रोचक विशेषण प्रयोग किया गया है- ’पतनार रेत’। पतनार पानी की तरह पतले के अर्थ में आता है। पतनार रेत यानी पानी में घुली हुई बहुत बारीक रेत। इस कविता में पानी से ‘पतनार’ के वजन पर रेत से ‘रतनार’ शब्द की रचना कवि की लोक-शक्ति का ही परिचय देती है। यह रीति-काल के कवि रसलीन के ‘अमिय हलाहल…’ वाले दोहे के ‘सेत, स्याम, रतनार’ से एकदम भिन्न है। क्रियाओं में तो बहुत तोड़-फोड़ श्रीप्रकाश शुक्ल ने की है। जिसकी प्रयोगशाला वैसे तो उनका तीसरा संग्रह 'बोली-बात' है, लेकिन इस संग्रह में भी उन्होंने लोक-भाषा के साँचे में कुछ क्रियाओं की ढलाई की है जैसे भहराना, हिराना, अगोरना, लेवन-मूदन, छोपना, धसकना, हटकना, बटुरना, चटकत जात, बरबराना, पछियात, सुस्ताना और धधाना आदि। ’नदी आत्मा’ कविता में श्रीप्रकाश जी ने ‘ऊपर’ शब्द में ‘आई’ प्रत्यय लगा कर ‘उपराई हुई रेत’ जैसा बड़ा खूबसूरत क्रिया प्रयोग किया है। इस कविता-संग्रह में सेत मेत, गते गते (धीरे-धीरे के अर्थ में), के के (कौन-कौन के अर्थ में), आन्हर, दूबर आदि विशेषण लोकभाषाओं से उठाए गए हैं। ‘पाहुन’ और ‘पाहुर’ जैसी संज्ञाओं का प्रयोग भाषा को लोक संस्कृति के रस से भर देने के लिए काफी है। श्रीप्रकाश शुक्ल ने लोक-भाषा के शब्दों के अतिरिक्त अपनी कविताओं में लोक धुनों का भी खूब प्रयोग किया है। इधर उनके नये काव्य-संग्रह ‘वाया नयी सदी’ की प्रसिद्ध कविता ‘कोयलिया जल्दी कूको ना’ अपनी लयात्मकता और लोक-धुन के लिए बहुत चर्चा में रही है, लेकिन श्रीप्रकाश शुक्ल ने अपने दूसरे संग्रहों में ऐसी बहुत कम या नहीं के बराबर कविताएं लिखी हैं। ’रेत में आकृतियां’ अकेला ऐसा संग्रह है जिसकी ज्यादातर कविताएं लोक-धुनों पर आधारित हैं। इनमें रेत में लखटकिया, सपने, खुली रेत और धूप आदि कविताएं प्रमुख हैं। इस संग्रह की कथात्मकता के क्षरण और दृश्य-विधान के भरण पर ऊपर बात की जा चुकी है। यहां इतना कहना रह गया है कि वक्रोक्ति और अनुप्रास श्रीप्रकाश शुक्ल के शिल्प और काव्य-भाषा की ताक़त हैं।


एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि यह संग्रह न तो कलावादी काव्य-संग्रह है न ही प्रतीक-काव्य। कला विषयक होना और कलावादी होने में अंतर है। यहां रेत और नदी दोनों किसी रूढ़िवादी प्रतीक व्यवस्था का पालन नहीं करते। रेत केंद्र में है, नायिका की भूमिका में। और नदी उसके पार्श्व में है;और दोनों किसी खास अर्थ में सिमटने से इन्कार करते हैं। पूरे संग्रह में रेत और नदी ‘पल-पल परिवर्तित प्रकृति वेश’ की तरह अपने अर्थ की केंचुली बदलते हैं नयी चमक, मसृणता और रंग के साथ। इसी प्रकार नयी चमक और नये रंग-ढंग के साथ श्रीप्रकाश शुक्ल का यह काव्य-संग्रह ‘रेत में आकृतियां’ आपके हाथ में आ रहा है, वाणी प्रकाशन समूह से; अर्थ की नयी वाणी, नयी गूँज-अनुगूँज के साथ। इसका स्वागत है! मेरे लिखे से इन कविताओं के आस्वादन में यदि कोई गुणात्मक फ़र्क पड़ता है तो मुझे आश्वस्ति होगी।


 

सम्पर्क 


डॉ. विन्ध्याचल यादव

असिस्टेंट प्रोफेसर,

हिंदी विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 

वाराणसी


मोबाइल. : 8004130639

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