शिवदयाल का आलेख 'हिन्दी साहित्य में गाँधी जी की अनुगूँज'

 




गांधी जी भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन में एक नए स्वर और अंदाज के साथ प्रवेश करते हैं। यह अहिंसा का स्वर था जिसे अभी तक की परम्परा में धार्मिक एवम दार्शनिक स्वरूप में ही कल्पित किया गया था और नैतिकता के धरातल पर लोगों से इसका पालन करने की अपेक्षा की जाती थी। राजनीति में इसका प्रयोग सर्वथा नया तो था ही इसके अपने तमाम जोखिम भी थे। गांधी जी इस बात से अनजान नहीं थे। जोखिम होने के बावजूद उन्होंने यह रास्ता अपनाया। कंटकाकीर्ण राह होने के बावजूद वे इस राह पर चलते रहे और अन्ततः सफल हुए। गांधी जी ने अपने विचारों से साहित्य और संस्कृति को भी काफी हद तक प्रभावित किया। गांधी जी साहित्य के पात्र बनने लगे। लोकगीतों में गांधी जी को अवतारी पुरुष के रूप में रेखांकित किया जाने लगा। वे चित्रकारों की कूचियों से हो कर कला में उतरने लगे। कला और साहित्य का विश्वास बिरले लोग ही जीत पाते हैं। गांधी जी बिरले ही तो थे। आज दुनिया एक बार फिर से युद्ध के मुहाने पर खड़ी है। रूस यूक्रेन युद्ध और इजरायल फिलिस्तीन युद्ध ने संकट को कुछ अधिक ही बढ़ा दिया है। ऐसे में गांधी जी की याद आना स्वाभाविक है। आज जयंती के अवसर पर गांधी जी की स्मृति को हम नमन करते हुए शिव दयाल जी का सुचिंतित आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शिवदयाल का आलेख 'हिन्दी साहित्य में गाँधी जी की अनुगूँज'।

 


'हिन्दी साहित्य में गाँधी जी की अनुगूँज'


                                   

शिवदयाल 


अपने समय का नायक साहित्य से प्रभावित होता है, साथ ही अपने युग के साहित्य को प्रभावित करता भी है। नई जमीन कोड़ने वाला नायक एक नया मूल्यबोध, एक नई संवेदना समाज को देता है, अपने लोगों को एक नई परिवर्तनकामी ऊर्जा से ऊर्जस्वित करता है। यह एक पुराने पेड़ पर नई बहार आने सरीखा दृश्य होता है, जिसमें पीले पत्ते झड़ते हैं और नई कोंपले टहनियों पर उगने लगती हैं। यह पूरी स्थिति साहित्य सृजन के लिए कच्चे माल की तरह होती है, बल्कि साहित्य समेत समस्त कलाओं को ऐसे वातावरण में एक नया उन्मेष मिलता है। प्रायः हर काल और हर समाज के लिए यह एक प्रमाणभूत सच्चाई है। एक महान रचना ही नहीं, महान नायक का नायकत्व भी सृजनहारों के लिए उपजीव्य बनता है। जो नायक कितना बड़ा होता है, यह परिघटना उसी अनुपात में देशकाल घेरती है। 


सन् 1917 का साल विश्व इतिहास में एक मील का पत्थर है। इसी साल दुनिया में दो बड़ी, युगांतरकारी घटनाएँ घटीं जिन्होंने दुनिया को दो रास्ते दिखाए मानव-मुक्ति के। पहली घटना, माइक्रो स्तर की क्षेत्रफल के हिसाब से, चम्पारण सत्याग्रह, और दूसरी मैक्रो यानी वृहद स्तर की, नवम्बर में रूस की बोल्शविक क्रांति।


चम्पारण सत्याग्रह कहने के लिए तो एक स्थानीय आंदोलन था, किन्तु इसका प्रभाव जल्द ही बहुत व्यापक हो गया। दोनों घटनाएँ दमनकारी सत्ताओं के खिलाफ सशक्त प्रतिरोध के रूप में घटीं, लेकिन पहली, यानी चम्पारण आंदोलन विदेशी, औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ था, तो रूसी क्रांति स्वदेशी जार-शासन के खिलाफ। सौ साल बाद भी दुनिया पर इन दोनों घटनाओं का प्रभाव है। दुनिया को अपने हिसाब से बेहतर बनाने के दो रास्ते तय हो गए - एक गाँधी जी का मनुष्य की अन्तर्जात सद्प्रवृत्तियों - करुणा, प्रेम और मेलमिलाप का, सत्य को परिनिष्ठित रास्ता; और दूसरा अन्यायी वर्ग के समूल नाश का क्रांतिधर्मी मार्ग।


1915 में गाँधी जी दक्षिण अफ्रीका से स्वदेश लौटे तो उनके साथ वहाँ के सफल अहिंसक सत्याग्रह की कीर्ति थी। वे काँग्रेस से जुड़े तो उसे जन सरोकारों से जोड़ा। स्वतंत्रता आंदोलन की अनेक धाराएँ उस समय विद्यमान थीं। इसमें कोई संदेह नहीं कि उन्होंने सबसे बड़ी धारा, यानी मुख्यधारा का निर्माण किया और स्वतंत्रता आंदोलन के सर्वप्रमुख नेता बन गए। वे नई चीजों से लैस हो कर आंदोलन में उतरे और उसकी बागडोर थामी। 1909 में उन्होंने 'हिन्द स्वराज्य' लिखा था और देश-दुनिया और औपनिवेशिक शासन के बारे में, अपनी राय कायम करते हुए सभ्यतामूलक विमर्श में शामिल हुए थे। उनका विजन नया था, अस्त्र और रणनीति नई थी जो सीधे आम जन ही नहीं अन्तिम जन से जुड़ती थी। गाँधी जी इतिहास के पहले राजनीतिक नेता हुए जिन्होंने सत्य और अहिंसा का अस्त्र के रूप में उपयोग राजनीतिक लड़ाई में किया। इसके पहले ऐसे संज्ञा-पदों का उपयोग धर्म और अध्यात्म तथा नीतिशास्त्र में ही हुआ था। सत्य-अहिंसा, साधनों की शुद्धता, आत्म-शुद्धि व परिष्कार, स्वयं आगे बढ़ कर कष्ट सहने की तत्परता, दीन-दुःखियों की सेवा का व्रत - राजनीति के क्षेत्र में ये संकल्पनाएँ इतनी मौलिक और सर्वस्पर्शी थीं कि सहज ही लोग उनसे जुड़ते चले गए। उनकी एक देशव्यापी अपील तो बनी ही, दुनिया भर में लोगों ने जिज्ञासा और कौतुक से उन्हें देखा। उनके विचार केवल राजनीति नहीं, शिक्षा, अर्थव्यवस्था और व्यापक रूप में सांस्कृतिक बदलाव को भी लक्षित थे। एक साथ उन्होंने दो मोर्चे सम्भाले - एक ब्रिटिश सत्ता को निर्मूल करने के लिए राजनीतिक संघर्ष, और दूसरा भारतीय समाज की अन्तर्निहित उत्पीड़क संरचनाओं के खिलाफ सामाजिक-सांस्कृतिक संघर्ष। उन्होंने शारीरिक श्रम को मानवीय गरिमा से जोड़ा। अस्पृश्यता, जातिभेद, तथा स्त्री समाज की दुर्दशा को दूर करने के लिए उन्होंने लगातार कार्यक्रम लिए।


भारतीय समाज की विडम्बनाओं और अंतर्विरोधों पर बोलने वाले और इनसे मुक्ति की पहल करने वाले वे पहले व्यक्ति नहीं थे, लेकिन उन्होंने इसे अपने राजनीतिक संघर्ष का हिस्सा बना कर सीधे स्वतंत्रता संघर्ष से जोड़ दिया - यह जरूर पहली बार हुआ। उन्होंने भारतीय समाज के अत्यंत साधारण मानव समूहों, शोषित-दमित वर्गों को, और महिलाओं को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ दिया - उनकी मुक्ति को ही स्वराज का लक्ष्य बना दिया। यह उनकी महान देन मानी गई। स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल होने को गाँधी जी ने प्रत्येक भारतीय की एक नैतिक, बल्कि आध्यात्मिक जरूरत बना दिया। उन्होंने सत्य-अहिंसा को ईश्वरत्व की उपलब्धि से जोड़ा, और एक प्रकार से राजनीति और धर्म को परस्पर संयुक्त कर राजनीति को धर्मसिद्धि का साधन बना दिया।


गाँधीजी के भारत की राजनीति में अवतरण के समय तक हिन्दी एक भाषा के रूप में एक ओर तो अपना एक मानक स्वरूप ग्रहण कर रही थी, तो दूसरी ओर उसमें साहित्य रचना में लोक जीवन का यथार्थ अपनी स्थायी जगह बना रहा था। एक और बड़ी, और एक अर्थ में युगांतरकारी परिघटना यह थी कि भारतीय जन को औपनिवेशिक दासता से मुक्ति के लिए जिस एक भाषा की तलाश थी, हिन्दी उसकी पूर्ति कर रही थी। हिन्दी में भारत की मुक्ति के स्वप्नों और संघर्षों की गूँज थी जिसे गाँधी जी सहित उस समय देश के लगभग सभी प्रमुख नेताओं ने स्वीकार किया और हिन्दी को राष्ट्रभाषा होने का स्वाभाविक अधिकारी माना जाने लगा। हिन्दी राष्ट्रव्यापी सम्पर्क भाषा के रूप में कार्य कर रही थी और राष्ट्रीय आंदोलन की संवाहक बन रही थी। 'हिन्द स्वराज' में गाँधी जी ने लिखा- '..हिन्दुस्तान को गुलाम बनाने वाले तो हम अंग्रेजी जानने वाले लोग ही हैं। राष्ट्र की हाय अंग्रेजों पर नहीं बल्कि हम पर पडेगी।..’ यह 1909 की बात है। 1947 में जब वे नोआखाली में शांति के लिए जूझ रहे थे, एक विदेशी पत्रकार ने उनसे पूछा - 'आप आजादी के जश्न में शामिल नहीं हैं, क्या कहना चाहते हैं, क्या संदेश है?' गाँधी जी ने जवाब दिया - दुनिया वालों से कह दो गाँधी अंग्रेजी नहीं जानता।’ यानी उनका 1909 का एजेंडा अब भी कायम था। भाषा और उपनिवशवाद के अंतर्संबंधों को वे किस गहराई से समझ रहे थे कि भाषा किस प्रकार उपनिवेशवाद के साथ मूलबद्ध है। वे जान रहे थे कि अंग्रजी रह गई तो अंग्रेज के जाने के बाद भी आजाद भारत में उपनिवेशवाद बना रहेगा।


भारतेंदु हरिश्चंद्र 



हिन्दी के महत्व और इसमें अंतर्निहित संभावना को देख कर अनेक रचनाकार ब्रज भाषा और हिन्दी क्षेत्र की अन्य भाषाओं से हिन्दी में रचना को प्रवृत्त हुए। यही वह समय था जब प्रेमचंद ने उर्दू को छोड़ हिन्दी को अपनाया और आधुनिक हिन्दी कथा-साहित्य की चैरस आधारभूमि तैयार की। बाद में इसी जमीन से और इसके समांतर भी दूसरी कथा-प्रवृत्तियों का विकास हुआ। यहाँ यह कहना जरूरी लगता है कि गाँधी जी जिन आधारभूत मूल्यों को ले कर राजनीति में आए थे, हिन्दी पहले से ही उन्हें आत्मसात कर आगे बढ़ चुकी थी - विशेषकर सामाजिक समता, साम्प्रदायिक एकता और स्त्री-अधिकार के प्रश्न। राष्ट्रभक्ति की भावना को तो हिन्दी रचनाओं में अभिव्यक्ति मिल ही रही थी। हिन्दी रचनाकारों और सम्पादकों पर उन्नीसवीं सदी के प्रथम स्वतंत्रता संघर्ष और सामाजिक-धार्मिक सुधार आंदोलनों, और बीसवीं सदी के आरंभ में ही बंग-भंग और उसके बाद की घटनाओं का पर्याप्त प्रभाव था। एक बहुत महत्वपूर्ण बात जो आज की पीढ़ी को मालूम होनी चाहिए कि स्वदेशी और असहयोग आंदोलन के दौर में गाँधी जी ने 1920 में विदेशी वस्त्रों की होली जलाई थी। जबकि उसके छियालिस वर्ष पूर्व ही 1874 में एक चौबीस वर्षीय हिन्दी साहित्यकार, आधुनिक हिन्दी के प्रणेता बाबू भारतेंदु हरिश्चंद अपने पत्र कविवचन सुधा में विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार के लिए एक प्रतिज्ञा-पत्र छापते हैं और लोगों से उस पर हस्ताक्षर करने की अपील करते हैं। वे एक ओर इस कार्य से उपनिवेशवादी अर्थतंत्र को चुनौती देते हैं, तो दूसरी ओर राष्ट्र की उन्नति और जनजागरण के लिए निज भाषा के महत्व को अलग से रेखांकित करते हैं। अब देखिए कि चम्पारण सत्याग्रह के तीन-साल पहले 1914 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ‘सरस्वती’ में दानापुर, पटना के हीरा डोम की कविता ‘अछूत की शिकायत’ छाप रहे हैं जो मूलरूप में भोजपुरी में लिखी है। ‘एक टोकरी-भर मिट्टी’ (माधव राव सप्रे) सन् 1900 में ही लिखी जा चुकी है। प्रथम विश्वयुद्ध को पृष्ठभूमि पर ‘उसने कहा था’ 1915 में ही छप गई होती है जिसने अपने ढंग से हिन्दी कहानी का टोन सेट किया। यह आत्मोत्सर्ग की विलक्षण कहानी है।


1919 में प्रेमचंद के उर्दू उपन्यास 'बाज़ारे हुस्न' का हिन्दी तर्जुमा ‘सेवा सदन’ छप जाता है जिसका मुख्यपात्र एक स्त्री सुमन है जो पारिवारिक-सामाजिक परिस्थितियों के दबाव में वेश्यावृत्ति के दलदल में फँस जाती है।


1917 में चम्पारण सत्याग्रह के दो साल बीतते न बीतते अमृतसर का जालियाँवाला बाग हत्याकाण्ड होता है जिसने हर हिन्दुस्तानी को क्षोभ और ग्लानि से भर दिया। इसकी भयानक हिंसक प्रतिक्रिया भी हो सकती थी, लेकिन इतना जरूर हुआ कि स्वतंत्रता आंदोलन की क्रांतिकारी धारा इसी घटना के बाद से परवान चढ़ी। इन घटनाओं का प्रभाव परवर्ती साहित्यिक रचनाओं पर स्पष्ट दिखता है। गाँधी जी और उनके अनूठे आंदोलन की पहुँच भारत के सुदूर ग्रामीण अंचलों तक बनती चली गई। उन पर स्थानीय भाषाओं में जनगीतों की रचनाएँ होने लगीं। सियाराम शरण गुप्त तथा रामनरेश त्रिपाठी जैसे रचनाकारों और नंददुलारे वाजपेयी सरीखे आलोचकों को भी गाँधी जी ने बहुत प्रभावित किया। गाँधी जी की नैतिक अपील इतनी जबरदस्त थी कि इससे कोई भी तबका अछूता न रह सका। हिन्दी रचनाकारों पर इसका प्रभाव यह हुआ कि उस दौर की रचनाओं में दमित-शोषित जनों की पीड़ा और आक्रोश, साथ ही एक प्रकार का आदर्शवाद भी स्थान पाने लगा। 


प्रेमचंद की कथा रचनाओं में यथार्थवाद और आदर्शवाद का मेल साफ लक्षित किया जा कसता है। वे 1921 के असहयोग आंदोलन में सरकारी नौकरी छोड़ पूर्णकालिक लेखक व साहित्यिक पत्रकार और प्रकाशक बने जाते हैं। उनके उपन्यास ‘रंगभूमि’, ‘कर्मभूमि’ और ‘प्रेमाश्रम’ पर असहयोग आंदोलन और गाँधीवादी विचार का पूरा प्रभाव है। दूसरी ओर वे ‘ठाकुर का कुआँ’, ‘मंदिर’, ‘कफन’, ‘सद्गति’, के साथ ही ‘ईदगाह’ जैसी कहानियाँ हिन्दी बल्कि भारतीय साहित्य को देते हैं। वे कुल तीन सौ कहानियाँ और एक दर्जन उपन्यासों की रचना करते हैं जिनमें भारत के किसान जीवन पर ‘गोदान’ जैसा महाकाव्यात्मक उपन्यास शामिल है। वास्तव में गाँधी जी जो राजनीति और समाज में कर रहे थे, प्रेमचंद साहित्य में वही कर रहे थे। दोनों की सोच और दृष्टि में बहुत साम्यता है। दोनों अपने-अपने ढंग से पूँजीवाद, उपनिवेशवाद, वर्चस्ववाद, धर्मवाद और जातिवाद पर प्रहार करते हैं। गाँव और किसान दोनों के दिलों में बसते हैं। दलितों और महिलाओं की दुःसह्य स्थिति के प्रति दोनों चिंतित और संवेदित हैं। गाँधी जी राजनीति को जिन श्रमजीवी जन-गण, अभावग्रस्त, उत्पीड़ित स्त्री-पुरुष तक ले जा रहे थे, प्रेमचंद के कथा-साहित्य में उन्हीं वर्ग-समूहों के पात्र स्थान पा रहे थे, नायकत्व पा रहे थे।


जैनेन्द्र कुमार



हिन्दी कथा-साहित्य में प्रेमचंद के समांतर धारा का निर्माण करने वाले जैनेन्द्र की मूल चिंता वैयक्तिक एवं सामाजिक नैतिकता को ले कर थी। जैन परिवार से आए जैनेन्द्र का स्वाभाविक झुकाव अहिंसा के प्रति है और चिंतन में जो सूक्ष्मता दिखाई देती है, उसका एक कारण यह भी माना जाता रहा है। ऐसे में गाँधी जी का भारतीय राजनीति और जनजीवन में प्रादुर्भाव जैनेन्द्र के लिए अवश्य ही अतिरिक्त आकर्षण और झुकाव का कारण बना हो। वे भी असहयोग आंदोलन में शामिल हुए (और 1932 में जेल भी गए थे।) लेकिन उसी दौर में पूर्णकालिक लेखक बन गए। लेखन में वे जिन प्रश्नों से जूझते हैं और जिन निष्पत्तियों पर पहुंचते हैं, वे सर्वथा मौलिक हैं, तब भी गाँधीवादी मूल्य और विचार उनके लिए अवश्य ही उत्प्रेरक का कार्य करते रहे। सुखदा, व्यतीत, विवर्त, सुनीता और जयवर्द्धन जैसे उपन्यासों में यह साफ लक्षित किया जा सकता है। जैनेन्द्र तलछट के यथार्थ को अपना विषय नहीं बनाते। पात्रों की पारिवारिक-सामाजिक पृष्ठभूमि को भी वे प्रायः अलग से रेखांकित नहीं करते। वैयक्तिक स्वायत्तता को रचना के केन्द्र में लाने वाले वे पहले रचनाकार हैं। त्यागपत्र की अमर पात्र मृणाल को जीवन से जो कुछ मिलता है उसे इस प्रकार ग्रहण करती है, मानो वह उसका अनिवार्य दाय हो - ऐसे में उसका एक प्रकार का आत्मोत्सर्ग ही समाज-व्यवस्था के विरुद्ध प्रतिरोध का पर्याय बन जाता है। व्यवस्था की जकड़न और क्रूर अमानवीयता ही आखिरकार उभर कर सामने आती है और प्रमोद जजी से त्यागपत्र दे कर मृणाल के मूक प्रतिरोध में शामिल हो जाता है। इस छोटे-से असाधारण उपन्यास में गाँधीवादी दर्शन खोजा जा सकता है। वस्तुतः जैनेन्द्र का सारा तत्व चिंतन व्यक्ति और समाज के बीच के सम्बन्ध और अंतःक्रियाओं में एक ऐसी समस्थिति की खोज में प्रवृत्त होता है जिसमें दोनों एक-दूसरे के लिए स्पेस छोड़ें और अपने को एक-दूसरे से पूर्ण करें। स्त्री उनकी दृष्टि में संस्कृति की धुरी है, व्यवस्था की मानवीयता की कसौटी भी, लेकिन वह एक स्वायत्त हस्ती भी है। जयवर्द्धन एक अलग ही ढंग का राजनीतिक उपन्यास है जिसपर गाँधी-युग के राजनीतिक-सांस्कृतिक विमर्शों की छाया है। इसके पात्र भी उस युग के नायकों की प्रतीति कराते हैं, यदि प्रतिनिधित्व नहीं करते तब भी। हालांकि जैनेन्द्र को गाँधीवादी तो क्या गाँधी जी का अनुयायी कहलाने में भी संकोच होता था, ऐसा ‘अकाल पुरुष गाँधी’ की प्रस्तावना में धर्मवीर ने लिखा है।

 

उस काल के जिन अन्य कथाकारों पर गाँधी विचार और दर्शन का स्पष्ट प्रभाव दृष्टिगोचर होता है, उनमें सियाराम शरण गुप्त, सोहन लाल द्विवेदी (युगावतार गाँधी) भगवती प्रसाद वाजपेयी, सुभद्रा कुमारी चौहान तथा प्रताप नारायण श्रीवास्तव (बयालिस) महत्वपूर्ण हैं। गुप्त जी की कथा रचनाओं से आज की पीढ़ी शायद ही परिचित हो। अन्य लेखकों की भी रचनाएँ मालूम नहीं उपलब्ध हैं भी या नहीं। विष्णु प्रभाकर वेश और आचार-विचार से गाँधीवादी थे। उनकी ‘उस रात’ और ‘वापसी’ जैसी अनेक कहानियाँ प्रमाण हैं। 


गाँधी-दर्शन का प्रभाव स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कथा-साहित्य पर भी बना रहा। रेणु के ‘मैला आँचल’ (1954) में बिहार के सुदूर ग्रामीण अंचल मेरीगंज में स्वतंत्रता आंदोलन पहुँचा है, गाँधी जी पहुँचे हैं (सदेह भले नहीं)। पूरा कथानक इसी पृष्ठभूमि पर बुना गया  है - स्वतंत्रता आंदोलन का अंतिम दौर और स्वतंत्रता-प्राप्ति। उपन्यास का नायक डाॅक्टर प्रशांत गाँधीवादी आदर्शवाद के प्रभाव में ही गाँव में रह कर लोगों के दुःख-क्लेश हरने का संकल्प लेता है।


‘नाच्चो बहुत गोपाल’ (1975-76) अमृत लाल नागर का अत्यंत चर्चित और महत्वपूर्ण उपन्यास है जिसकी ब्राह्मणी से भंगिन बनी नायिका अंत में लेखक (कथा सूत्रधार) से कहती है - स्वतंत्रता, आजादी बड़ी चीज हैं। इस दुनिया में दो ही पुराने से पुराने गुलाम हैं - भंगी और औरत। जब तक ये आजाद नहीं होते, आप की आजादी सौ प्रतिशत झूठी है।’ निर्गुनिया देवी अब अस्सी बरस की हो चली है और मेहतरों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए स्वयं को समर्पित कर चुकी है। माॅरिशस के हिन्दी लेखक अभिमन्यु अनत ने तो अपने यहाँ भरतवंशियों द्वारा अपने शोषण-दोहन के खिलाफ चले आंदोलन की पृष्ठभूमि पर लिखे अपने उपन्यास का शीर्षक ही दे दिया है - ‘गाँधी जी बोले थे’। उसी प्रकार गाँधी जी के दक्षिण अफ्रीका प्रवास पर गिरिराज किशोर ने एक बहुचर्चित उपन्यास लिखा - ‘पहला गिरमिटिया’। रमेशचंद्र शाह के उपन्यासों- ‘किस्सा गुलाम’ और ‘गोबर गणेश’ में गाँधीवादी पात्र हैं जो कथानक में पर्याप्त जगह घेरते हैं। यहाँ अमरकांत के उपन्यास ‘इन्हीं हथियारों से’ की चर्चा जरूरी है जिसमें स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों में आज की त्रासदी और विडम्बनाओं का हल तलाशने की कोशिश दिखाई देती है। इसमें गाँधी जी को साम्राज्यवाद के विरोध में सबसे बड़ा स्तंभ बताया गया है। लेखक ने गाँधी का पुनर्मूल्यांकन किया है। अपने अंतिम वर्षों में अकेले पड़ते गए महानायक, युगपुरुष गाँधी की पीड़ा और वेदना को मार्मिकता से उजागर करने वाला नंदकिशोर आचार्य का नाटक ‘बापू’ भी खासा चर्चित है। नाटक की जब बात चली है तो सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नौटंकी शैली के राजनीतिक नाटक ‘बकरी’ की चर्चा अनिवार्य है। नाटक में दिखाया गया है कि कैसे स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों का स्वार्थी, सत्तालोलुप नेता गला घोंट रहे हैं। बकरी की सर्वेश्वर ने गाँधी जी की बकरी से सदृश्यता स्थापित की है - जो वास्तव में देश की भोली-भाली जनता है। यह नाटक गाँधी जी और गाँधीवाद के नाम पर चल रहे छल-प्रपंचों को बेनकाब करता है।


सर्वेश्वर दयाल सक्सेना 



यह तो रही कथा-साहित्य की बात। हिन्दी कविता पर भी गाँधी जी के व्यक्तित्व और विचारधारा का बहुत प्रभाव रहा। उनके समय, यानी गाँधीयुग का शायद ही कोई कवि उनके प्रभामंडल से अछूता रहा हो। सियाराम शरण गुप्त की कविता ‘बापू’, राम नरेश त्रिपाठी की ‘पथिक’ माखन लाल चतुर्वेदी की ‘निःशस्त्र सेनानी’ बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘तुम युग परिवर्तन कालेश्वर’ जैसी रचनाएँ कालजयी हैं। 1921 के असहयोग आंदोलन की पहली गिरफ्तार महिला सत्याग्रही थीं सुभद्रा कुमारी चौहान जो पति के साथ आंदोलन में शामिल हुई थीं। उनकी इस गिरफ्तारी पर भी एक कविता है - गिरफ्तार कर लो। वे कई बार जेल गईं और यातनाएँ सहीं और लगातार लिखती भी रहीं। उनके दो कविता संग्रहों और तीन कथा संग्रहों में उस पूरे दौर की सामाजिक-राजनीतिक परिस्थिति और द्वन्द्व दर्ज है, स्त्री-प्रश्न सहित। उनमें से अनेक रचनाएँ गाँधीजी पर केन्द्रित, या उन्हें लक्षित हैं, प्रभाव तो है ही, जैसे - लोहे को पानी कर देना, विजयादशमी, गिरफ्तार कर लो, सभा का खेल आदि। कुछ पंक्तियों पर नजर डालते हैं: 


छिड़ा आज यह पाप-पुण्य का

युद्ध अनोखा एक सखी।

मर जावें पर साथ न देंगे

पापों का, है टेक सखी

पन्द्रह कोटि असहयोगिनियाँ

दहला दें ब्रह्मांड सखी

भारत-लक्ष्मी लौटाने को

रच दें लंका कांड सखी। 

छेड़ दिया संग्राम, रहेगी

हलचल आठों याम सखी!

असहयोग सर तान खड़ा है

भारत का श्रीराम सखी! (विजयादशमी)


‘‘सतयुग त्रेता देता बीता, यश-सुरभि राम की फैलाता, 

द्वापर भी आया, गया, कृष्ण की नीति-कुशलता 

दरशाता 

कलियुग आया, जाते-जाते उसके गाँधी का युग आया 

गाँधी की महिमा फैल गई, जग ने गाँधी का गुण गाया।’’ 

(लोहे को पानी कर देना)


इनके अलावा सोहन लाल द्विवेदी, ‘सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा, गुलाब खंडेलवाल, रामधारी सिंह दिनकर, हरिवंश राय ‘बच्चन’, भवानी प्रसाद मिश्र, नागार्जुन और केदार नाथ अग्रवाल ने भी गाँधी जी पर केंद्रित या उनसे प्रभावित कालजयी रचनाएँ की। गाँधी युग लगभग छायावाद का ही काल है। छायावादी कवियों में मुख्य रूप से पंत और महादेवी पर गाँधीवादी दर्शन का प्रभाव झलकता है। लेकिन इस मुद्दे पर दो राष्ट्रकवियों समेत तीन कवियों को अलग छाँटा जा सकता है। पहला नाम आता है राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त का जो आजीवन गाँधी जी से प्रभावित रहे। स्वतंत्रता के लिए जनजागरण करने वाली कृति ‘भारत भारती’ के अलावा ‘साकेत’ और ‘पंचवटी’ तो मानो गाँधी जी के आराध्य राम के चरित्र की झाँकी प्रस्तुत करने वाली कृतियाँ हैं। ‘यशोधरा’ और ‘उर्मिला’ जैसी पौराणिक दुःखी व उपेक्षित स्त्री पात्रों को भी उन्होंने मानो राष्ट्रीय चेतना की धारा में सजीव खड़ा कर दिया। इसमें कोई संदेह नहीं कि मैथिली शरण जी ने अपने समय में अपने शब्दों से परतंत्र भारत में स्वातंत्र्य चेतना भरने का अद्भुत अपूर्व पुरुषार्थ किया। इसी कारण स्वयं गाँधी जी ने उन्हें राष्ट्रकवि की उपाधि से विभूषित किया।


रामधारी सिंह दिनकर स्वतंत्रता पूर्व ही विद्रोही कवि के रूप में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। स्वतंत्रता जब सन्निकट थी, जून 1947 में उन्होंने ‘बापू’ शीर्षक से चार कविताओं का एक संकलन प्रकाशित किया। उस समय देश साम्प्रदायिक हिंसा की आग में जल रहा था, और दुनिया ने अभी-अभी द्वितीय विश्वयुद्ध की विभीषिका झेली थी। घृणा और हिंसा के इस माहौल में दिनकर को गाँधी जी में ही आशा की किरण दिखाई दे रही थी। लेकिन छह माह पश्चात ही उनकी जघन्य हत्या से दिनकर इतने क्षुब्ध और मर्माहत हुए कि मई 1948 में ‘बापू’ शीर्षक से उन्होंने दूसरा संग्रह प्रकाशित किया, जिसकी पंक्तियाँ हैं:


‘‘लौटो, छूने दो एक बार फिर अपना चरण अभयकारी

 रोने दो पकड़ वही छाती, जिसमें हमने गोली मारी।’’

‘‘बापू ने राह बना डाली, चलना चाहे संसार चले

   डगमग होते हों पाँव अगर, तो पकड़ प्रेम का तार चले।’’


भवानी प्रसाद मिश्र 



गाँधी जी के जीवन-दर्शन को साधने वाले तीसरे कवि हैं सतपुड़ा के घने जंगलों की नमी में सिंचे-पगे भवानी प्रसाद मिश्र। वे मन से, विचार से, कर्म से, वेशभूषा और जीवन-व्यवहार से गाँधीवादी हैं। यहाँ तक कि गाँधी जी की उज्ज्वल सादगी भवानी भाई की भाषा में भी उतर आई है - ‘‘जिस तरह हम बोलते हैं, उस तरह तू लिख/और उसके बाद भी हमसे बड़ा तू दिख...’’ दिनकर जी की राय में भवानी प्रसाद मिश्र शुद्ध गाँधीवादी कवि हैं। गद्य में जिस प्रकार गाँधी जी का प्रतिनिधित्व जैनेन्द्र कुमार ने किया, काव्य में वही काम पहले सियाराम शरण गुप्त और अब भवानी प्रसाद मिश्र कर रहे हैं।’’ ‘गाँधी पंचशती’ में भवानी दादा ने गाँधी जी पर केन्द्रित पाँच सौ कविताएँ लिखीं, और इनके बारे में स्वयं उनका मानना है कि उन्होंने गाँधी जी के व्यक्ति के स्थान पर उनके विचार-सूत्रों को ही पकड़ने की कोशिश की है। भवानी प्रसाद मिश्र ने इस पंचशती में गाँधी जी के जीवन-प्रसंगों और सरोकारों के साथ-साथ सत्य, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह, प्रेम, करुणा, विश्वबंधुत्व के दर्शन-तत्वों को पकड़ने और साधने की कोशिश की है, वह भी एकदम आमफहम भाषा में। एक बानगी देखिए:


‘‘है शपथ तुम्हें करुणाकर की

है शपथ तुम्हें उस नंगे की,

जो स्नेह की भीख माँग-माँग

मर गया कि उस भिखमंगे की!

हे सखा, बात से नहीं

स्नेह से जरा काम ले कर देखो

अपने अंतर में नेह

अरे, दे कर देखो।’’


फिर उन्होंने यह भी लिखा -


‘‘आजादी का हमारा मसीहा

उदास हो गया और अकेला हो गया

कल तक के उसके पिछलगुए

तोप हो गए, वह माटी का ढेला हो गया।’’


वैसे रमेश चंद्र शाह की कविता ‘सपने में वायसराय’ में गाँधी जी निराले अंदाल में प्रकट होते है:

               

‘‘सच यह भी है

हमने जो-कुछ किया

तुम्हारे भले के लिए

बेशक, इसमें कुछ तो लाभ हमारा भी होना था आखिर

..... बीज फूट के सभी

तुम्हारी मिट्टी में थे।

हाँ, हम सचमुच ही बनिये थे

इसीलिए तो हुए पराजित

अपने से भी बड़े एक बनिये से

जिसे बनाने में

थोड़ा-सा योग हमारा निश्चय था

तुम

मानो

ना मानो।’’ 


समकालीन हिन्दी कविता के युवतर हस्ताक्षर दिनकर कुमार अपनी कविता ‘पाँच सौ के नोट पर गाँधी’ में व्यंग्योक्ति का उपयोग कर विडम्बना को चित्रित करते हैं - 


‘‘जब यह कागज का टुकड़ा

रौंद डालता है सत्य को आदर्श को, जीवन मूल्यों को

जब यह कागज का टुकड़ा

निगल जाता है

भविष्य की संभावनाएँ

गाँधी तब भी खिलखिलाते रहते हैं।’’


गाँधी जी पर न मालूम कितने लेख-निबंध हैं, उनकी जीवनियाँ हैं, गाँधी चरित्र मानस (विद्याधर महाजन, 1954) भी हैं। हिन्दी के विचार साहित्य में गाँधी नामक चरित्र, उसका चिंतन और कर्म बहुत बड़ी जगह घेरता है। हजारों किताबों में उनके संदर्भ हैं, उद्धरण हैं, व्याख्याएँ और भाष्य हैं। हिन्दी साहित्य में गाँधी जी की अनुगूँज इतनी विराट है कि वह ऐसे लेख में समा नहीं सकती है, उसका अन्दाजा भर लगाया जा सकता है।


उनके साथियों, पथबंधुओं ने भी उनपर कितना-कुछ लिखा है। डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की एक किताब ही है - ‘बापू के चरणों में’। अपनी ‘आत्मकथा’ में भी उन्होंने गाँधी जी के बारे, उनके जादुई व्यक्तित्व के बारे में काफी कुछ लिखा है। इसी प्रकार विनोबा भावे, जयप्रकाश नारायण, राम मनोहर लोहिया, दादा धर्माधिकारी, धीरेन्द्र मजुमदार, किशन पटनायक, धर्मपाल जैसे अनेक विचारकों की रचनाओं में गाँधी जी उपस्थित हैं। हिन्दी के अनेक संस्मरण लेखों में भी उनकी प्रभावशाली उपस्थिति है। यहाँ ‘अकाल पुरुष गाँधी’ का उल्लेख किए बिना यह तुच्छ लेखकीय उद्यम पूरा नहीं होगा। ‘अकाल पुरुष गाँधी’ जैनेन्द्र कुमार के गाँधी पर लिखे लेखों-निबंधों-संस्मरणों का संकलन है, जिसका आमुख स्वयं जैनेन्द्र ने लिखा है, जबकि प्रस्तावना धर्मवीर ने लिखी है। इस पुस्तक का पहला संस्मरण लेख ‘महात्मा गाँधी’ एक अद्भुत, असाधारण रचना है जिसमें लेखक ने गाँधी जी से अपनी पहली भेंट से ले कर उनके महाप्रस्थान तक की घटनाओं को आख्यान के रूप में अत्यंत मर्मस्पर्शी ढंग से लिखा है - विचार और संवेदना के आवेग पाठक को झकझोर कर रख देते हैं।


डॉ राजेन्द्र प्रसाद 


स्वयं जैनेन्द्र के ही शब्दों में - ‘मुझ निज को उस कुंजी की खोज रही है जो उनके अनंत वैचित्र्य और रहस्य को मानों आकाश की भाँति खुला कर दे।’’ ‘महात्मा गाँधी’ लेख का अंत इन शब्दों से होता है - ‘‘.... तब अर्थी उठी और सड़कों पर, मैदानों में, जितने समा सके आदमी साथ हुए और उसको भस्मीभूत कर आए जो आत्मीभूत हो गया था!’’


महात्मा गाँधी केवल एक महान राजनीतिक नेता नहीं थे, संस्कृति उन्नायक भी थे जिन्होंने लाखो-करोड़ों लोगों का जीवन के प्रति दृष्टिकोण बदल दिया। उन्होंने विचार और कर्म का भेद मिटा दिया। जो कुछ कहा, वह कहने के लिए नहीं कहा, स्वयं कर के दिखाया। उन्होंने साधन और साध्य का अंतर मिटा दिया। सत्य और अहिंसा के जरिए सत्य और अहिंसा की उपलब्धि। परिवर्तन के गतिशास्त्र के हिसाब से देखें तो यह विचार इतना मौलिक, इतना क्रांतिकारी है कि मानों व्यष्टि और समष्टि को समूल बदल देने की सामर्थ्य इसमें है। सत्य और अहिंसा पर आधारित समाज - अब इससे दिव्य और पावन और कौन-सा लक्ष्य, कौन-सा स्वप्न मनुष्य समाज का हो सकता है! इस परिकल्पना के पीछे गाँधी जी का यह अटल विश्वास था कि मनुष्य मात्र में किंचित मात्रा में ही सही मनुष्यता होती है। मनुष्य पूरी तरह मनुष्यता रहित नहीं हो सकता। मनुष्य के अन्दर की इस मनुष्यता को - करुणा, दया, प्रेम को पाशविक बल से नहीं जगाया जा सकता। इतिहास-पुराण ऐसे प्रसंगों से भरे पड़े हैं। उनकी एक और बड़ी कोशिश प्रकृति और मनुष्य की सायुज्यता को बनाए रखने, उसे और विकसित करने की रही है। आज इसकी सबसे अधिक जरूरत महसूस की जा रही है। उसी प्रकार ट्रस्टीशिप के विचार की जैसी प्रासंगिकता आज है, पहले कभी नहीं थी। उन्होंने दिखाया कि कमजोर से कमजोर व्यक्ति और समाज भी बिना हथियार उठाए सत्य और न्याय की लड़ाई लड़ सकता है। इसीलिए गाँधी जीते जी दमित मानवता की मुक्ति के प्रतीक बन गए, आज भी बने हुए हैं। वे इस हिंसक, अन्यायी, प्रकृतिद्रोही, आत्मघाती सभ्यता का वास्तविक और विश्वसनीय, साथ ही देशी विकल्प प्रस्तुत करते हैं। गाँधी जी को खण्ड-खण्ड में अपनाने की जगह समग्रता में स्वीकार करना होगा। सबसे पहले तो सत्य को जीवन में जगह देनी होगी-निजी तौर पर भी और सामाजिक तौर पर भी।



गाँधी जी स्वयं मानो एक रचनाकार थे। एक बेहतर रचनाकार की तरह वे कभी अपने काम से संतुष्ट नहीं हुए, सदा अपने को कसौटियों पर कसते रहे। उनका जीवन एक परीक्षार्थी का जीवन भी रहा। पर-विचार, विरोधी विचार को समझने और विरोधियोंके साथ संवाद की जैसी सहज तत्परता उनमें थी, वह कहीं देखने को नहीं मिली। गाँधी जी का साहित्य और सृजनशीलता पर जो स्पष्ट और स्थूल प्रभाव पड़ा, वही बहुत व्यापक है, लेकिन उनके होने का जो सूक्ष्म और परोक्ष प्रभाव है, उसकी तो थाह लेना भी असंभवप्राय है। उनका यह ‘अनंत वैचित्र्य’ आपको उनसे बाहर नहीं होने दे सकता, हिन्दी का एक कवि सतपुड़ा के बचे-खुचे जंगलों से आवाज लगा कर कह रहा है -


‘‘उससे हट कर कदापि नहीं होगा कुछ

जो कुछ होगा सो होगा उसके पास जाने से’’






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