कँवल भारती का आलेख 'भक्ति-साहित्य का पुनर्पाठ'

 





भक्ति साहित्य को ले कर अब तक ढेर सारी बातें हुई हैं। इस बात में कोई दो राय नहीं कि भक्ति आन्दोलन ने भारतीय विचार, चिन्तन और परिदृश्य को बदलने में बड़ी भूमिका निभाई। यह वह दौर था जब एक ही समय में भारतीय जातीय परम्परा के विभिन्न वर्गों के लोग खुद को खुल कर अभिव्यक्त कर रहे थे। इस क्रम में आलोचकों द्वारा जो धारणाएं स्थापित की गईं, उनमें से अधिकांश से हम परिचित हैं। हाल ही में 22 अक्टूबर 2024 को कालीकट विश्विद्यालय, मलप्पुरम, केरल में 'भक्ति-साहित्य का पुनर्पाठ' विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन किया गया जिसमें चिन्तक कँवल भारती ने लीक से हट कुछ महत्त्वपूर्ण बातें की। इन बातों के अपने अलग निहितार्थ हैं। ये ऐसी बातें हैं जिन्हें आम तौर पर हम उपेक्षित करने का प्रयास करते हैं, लेकिन सच्चाई से भला कैसे मुंह मोड़ा जा सकता है। कँवल भारती के नजरिए से देखने पर भक्ति साहित्य का एक पुनर्पाठ उद्घाटित होता है। इस पुनर्पाठ से बनी बनाई वे अवधारणाएं  तर्कपूर्ण ढंग से खंडित होती हैं, जो अभी तक हमारे दिल दिमाग में स्थापित थीं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कँवल भारती का  महत्त्वपूर्ण व्याख्यान 'भक्ति-साहित्य का पुनर्पाठ'।




'भक्ति-साहित्य का पुनर्पाठ'  


कँवल भारती


भक्ति-साहित्य के हिन्दी आलोचकों ने भक्ति-काल के कवियों को, ख़ास तौर से स्त्री और शूद्र जातियों के कवियों को, समझने-समझाने का काम कम, और उन्हें ठिकाने लगाने का काम ज्यादा किया है। मैं किसी एक आलोचक का नाम नहीं लूँगा। मेरी नज़र में मुख्य धारा के आलोचकों का पूरा आंवा ही गड़बड़ है। यहाँ तक मैं समझता हूँ, इन आलोचकों के सामने मुख्य चिन्ता इतिहास के तथ्यों को समझने की नहीं थी, बल्कि धर्म को बचाने की चिन्ता थी। इतिहास के साथ इन आलोचकों का वैसा ही वैर दिखाई देता है, जैसा विज्ञान के साथ धर्म का है। इसलिए उन्होंने विधवा मीरा बाई की गोद में कृष्ण की मूर्ति बैठा कर चैन की सांस ली, और इस तथ्य को नज़रंदाज़ कर दिया कि मीरा गिरधर नागर नाम के एक हाड़मांस के जोगी से प्यार करती थी, न कि मुरलीधर कृष्ण से। वह उस जोगी के साथ वैवाहिक जीवन जीना चाहती थी। पर, एक विधवा स्त्री पुनर्विवाह कैसे कर सकती है? इसलिए उसे कृष्ण-दीवानी बना दिया गया। मीरा का यह चीख-चीख कर चिल्लाना, उनके कानों में नहीं पड़ा— 


‘अपने घर का पर्दा कर लो, मैं अबला बौराणी’। 


मुझ अबला ने तो साहस कर लिया, मैं तो चली अपने प्रेमी के साथ घर बसाने। पर तुम अपने घरों को बचा लो, क्योंकि तमाम विधवाएं तुम्हारे घरों में भी पुनर्विवाह चाहती हैं और क़ैदी बन कर बैठी हुई हैं। इसी तरह आलोचकों ने दक्षिण की अक्क महादेवी की कविताओं में व्यक्त इतिहास-बोध को नज़रंदाज़ कर दिया, और उन्हें शिव-भक्त बना कर धर्म को बचा लिया। उन्होंने यह सोचना भी गंवारा नहीं समझा कि एक स्त्री के पूजा-पाठ से भला उसके पिता या पति को क्या आपत्ति हो सकती है? नब्बे प्रतिशत हिन्दू महिलाएँ घरों में पूजा-पाठ करती ही हैं, मंदिर जाती ही हैं। इस पर कौन पाबन्दी लगाता है? बल्कि स्त्री का धार्मिक होना घरों में अच्छा समझा जाता है। जैसा कि एक लोक कविता है—


‘मंदिर पूजा पाठ में ही औरत का सत्कार देखा

देवी बन जाए तो आगे झुकता सब संसार देखा

और लीक से हटी तो उसमें रंडी का औतार देखा।’ 


धर्म-परायण पत्नी को कोई पति नंगा करके घर से क्यों  निकालेगा? पर अक्क महादेवी को नंगा करके उसके पति ने घर से निकाला। इसलिए निकाला, क्योंकि वह मल्लिकार्जुन नाम के एक युवक से प्यार करती थी। वह जब बुलाता था, तो वह घर के सारे काम छोड़ कर भागी चली जाती थी। यह एक स्त्री का समाज की लीक से हटना था। उसके माता-पिता ने उसका जबरन विवाह किया था। उसकी इच्छा नहीं थी। वह नहीं चाहती थी विवाह करना। उसका प्यार मल्लिकार्जुन के लिए था। पर अक्सर पुरुष बेवफा होते हैं। सामाजिक  रूढ़ियों  को तोड़ने का जितना साहस स्त्रियों ने किया, उतना साहस पुरुषों ने नहीं किया। मल्लिकार्जुन साहस नहीं दिखा सका। वह उसे छोड़ कर चला गया। अक्क महादेवी ने उसकी खोज में दर-दर की ख़ाक छानी। मीरा का प्रेमी भी लौट कर नहीं आया था। वह विनती करती रह गई—जोगी मत जा, मत जा। पर उसने बेवफाई की। हरियाणा के एक लोक कवि ने बहुत सही कहा है— 


‘बीरों ने कहे, पर ओछी जात मरद की।’ 


बीरों को, यानी औरतों को तो सब ओछा कहते हैं, पर वास्तव में ओछी जात मर्द की होती है। मीरा ने कहा था—मेरा प्रेमी जो देगा, वही पहनूंगी, जो खिलायेगा, वही खा लूंगी, अगर वह बेचेगा, तो बिक भी जाऊँगी—


‘जो पहिरावे सोई पहरुं, जो दे सोई खाऊं। 

जहाँ बिठावे तितही बैठूँ, बेचे तो बिक जाऊं।’ 


क्या यह मूर्ति से किया गया संवाद है? इसी तरह अक्क महादेवी ने कहा, मल्लिकार्जुन तेरे हुक्म के खिलाफ नहीं जाऊँगी। कब फोड़ पाऊँगी अपने स्तनों के घट तेरी देह पर। क्या किसी मूर्ति से कोई स्त्री ऐसा कह सकती है, जो महादेवी ने कहा—कि 


मैं सबको चकमा दे इस घर से ज़रूर निकलूँगी

जायज़ हो या नाजायज़

प्रिय से खुल कर प्यार करुँगी।’ 


यही हाल आलोचकों ने कश्मीर की लल्ला के साथ किया। उसने भी समाज से विद्रोह किया था और समाज ने उसे भी नंगा कर के बेईज्ज़त किया था। कोई भी स्त्री अपने से नंगी नहीं होती, उसे समाज नंगा करता है। भक्ति आन्दोलन को फिर से समझना होगा। यह काम नए आलोचकों का है। पुराने आलोचक अपनी पारी पूरी कर चुके हैं। उनसे कोई उम्मीद नहीं है। नए आलोचकों को सारे भक्तिकालीन कवियों और संतों का इतिहास के तथ्यों के साथ पुनर्पाठ करने की ज़रूरत है। 


यह पहली समस्या है, जो इतिहास को न जानने के कारण पैदा हुई। 





दूसरी समस्या धर्म की है, जिसने भक्ति आन्दोलन को ज्यादा उलझाया है। धर्म के आधार पर आलोचकों ने भक्ति-आन्दोलन को वेद-उपनिषदों और पुराणों के वैष्णववाद से जोड़ने का काम किया, जो उसका गलत पाठ है। इस पाठ में भागवत पुराण के हवाले से भक्ति के मुंह से ही कहलवा दिया गया कि ‘मैं द्रविड़ देश में पैदा हुई, कर्णाटक में बढ़ी, कहीं-कहीं महाराष्ट्र में भी रही, और गुजरात में कमजोर और बूढ़ी हो गई। वहां कलयुग के प्रभाव से विधर्मियों ने मेरा अंग-भंग कर दिया। किन्तु वृन्दावन जाने के बाद मैं फिर से जवान और सुंदर हो गई।’ भागवत पुराण की रचना मुस्लिम सल्तनत काल में हुई थी, इसके आधार पर कुछ आलोचकों ने विधर्मी का अर्थ मुसलमान किया है। लेकिन वास्तव में गुजरात में मुसलमानों के कारण नहीं, बल्कि बौद्धों के कारण भक्ति कमजोर हुई थी, क्योंकि गुजरात आठवीं सदी तक बौद्ध धर्म का बड़ा केंद्र रहा था, जिसे शंकर की प्रतिक्रान्ति ने ध्वस्त किया था। 


भागवत पुराण में जिस भक्ति का जिक्र किया गया है, उसका सम्बन्ध वैष्णव-भक्ति से है। इस वैष्णव-भक्ति के बारे में यह प्रचारित किया गया कि इसे दक्षिण से स्वामी रामानंद लाए, और कबीर ने स्थापित किया। —


‘भक्ति द्रविड़ ऊपजी, लाए रामानंद

प्रगट करी कबीर ने नवदीप सत खंड।’ 


लेकिन भागवत में न रामानंद का उल्लेख मिलता है, और न कबीर का। मतलब साफ़ है कि यह प्रचार केवल कबीर को वैष्णव-भक्ति में रंगने के उद्देश्य से किया गया। 


भक्ति की दो धाराएँ स्पष्ट हैं, एक निर्गुण और दूसरी सगुण। इन्हें हम उस दौर की वाम और दक्षिणपंथी धाराएं भी कह सकते हैं। इनमें निर्गुण धारा समानता में विश्वास करती है और सगुण धारा वर्ण व्यवस्था में। सगुण धारा वैष्णव धारा है, जो विष्णु और उनके अवतार राम और कृष्ण की भक्ति की धारा है। इस तरह सगुण धारा में दो धाराएं बनाई गईं—एक राम-भक्ति की और दूसरी कृष्ण भक्ति की। लेकिन कोई भी धारा एक-दो कवियों से नहीं बनती। कोई धारा कायम करने के लिए कम से कम चालीस-पचास कवि चाहिए। राम भक्ति में हमें तुलसी के सिवा कोई दूसरा कवि नहीं मिलता।  फिर राम भक्ति की धारा कहाँ बनी? लेकिन आलोचकों ने जबरन रामभक्ति की धारा बहाने का प्रयास किया। कृष्ण भक्ति में ज़रूर सूरदास के सिवा भी कुछ और कवि हुए हैं, जिनसे यह धारा बनी तो, पर यह दक्षिण की शिव भक्ति की धारा के मुकाबले ज्यादा मजबूत नहीं बन पाई। मुझे तो लगता है कि शिव धारा के काउंटर या प्रतिरोध में ही राम और कृष्ण भक्ति की धारा बनाई गई। मेरी दृष्टि में सगुण धारा केवल वैष्णव धारा है। 


निर्गुण धारा अवैदिक और  भौतिकवादी है,  जो  चार्वाक, आजीवक और बुद्ध-परम्परा में, सिद्धों, नाथों से होती हुई निर्गुणवाद में प्रवाहित हुई थी। हिन्दू आलोचकों ने निर्गुण धारा को ठिकाने लगाने के लिए उसे वेदान्त से जोड़ने का प्रयास किया। कुछ मुस्लिम आलोचकों ने उसे इस्लाम के तौहीद (एकेश्वरवाद) से जोड़ने का काम किया है। दोनों ही प्रयास गलत भी हैं और हास्यास्पद भी। 


निर्गुणवाद न वेदों से आया और न वेदान्त से। वेदों में बहुदेववाद है और वेदांत में ब्रह्मवाद; और दोनों का कोई सम्बन्ध निर्गुणवाद से नहीं है। वेदान्त में एक ईश्वर की धारणा हो सकती है, पर वह जगत को मिथ्या मानता है। ‘ब्रह्म सत्यम जगन्मिथ्या’ शंकराचार्य ने भी कहा है और उनके दादा गुरु गौडपाद ने भी। किन्तु ऐसी कोई अवधारणा निर्गुणवाद में नहीं है। निर्गुणवाद लोक में विश्वास करता है, और परलोक का खंडन करता है। इसी तरह इस्लाम का तौहीद एक निराकार आलाह की बात करता है, परन्तु कयामत की बात भी करता है, जिसके अनुसार अल्लाह लोगों को उनके कर्मों के हिसाब से ज़न्नत और दोजख में भेजता है। यह इस्लाम के ईश्वर का गुण है। इस तरह न वेदान्त का ब्रह्म निर्गुण है और न इस्लाम का अल्लाह। निर्गुण ईश्वर सृष्टिकर्ता नहीं है। रचना या निर्माण एक गुण है, और निर्गुण ईश्वर इस गुण से रहित है। कबीर ईश्वर को सृष्टिकर्ता मानने वाले ब्राह्मण-मुल्ला दोनों से पूछते हैं—


‘पंडित बोरो पत्तरा, काजी छाड़ि कुरान

वो तारीख बता दे, हता न जमी आसमान।’ 


और यह भी पूछा कि तुम्हारे ईश्वर ने सृष्टि का निर्माण किस मुहूर्त में किया और उस वक्त पास में कौन था—


‘धरती अम्बर न हते, कौन था पंडित पास

कौन मुहूर्त थापिया, चाँद सूर आकास।’ 


कबीर ने कहा निरंजन का न रूप है, न रंग है, न वाणी है, फिर उसने किताबें कैसे लिख दीं? 

परलोक के खंडन में कबीर ने कहा—


मन तू पार उतर कहाँ जैहो

आगे पंथी पंथ न कोई, कूच मुकाम न पैहो

नहिं तहाँ नीर, नाव  नहिं खेवट, न गुन खैंचन हारा

धरनी गगन कल्प कछु नाहीं, न कछु वार न पारा


उन्होंने आवागमन का खंडन किया—


बहुरि नहिं आवना या देस 

जो जो गए बहुरि नहिं आए, पठवत नाहि संदेस 


उनका स्वर्ग-नर्क का खंडन तो बहुत ही तार्किक है—


कौन मरे कौन जनमे भाई।

सरग नरक कौने गति पाई। 


जब आदमी ने तुरंत मर कर तुरंत दूसरे शरीर में जन्म ले लिया, तो फिर मरा कौन? और स्वर्ग कौन गया? नरक कौन गया?

 

आप सब जानते हैं कि निर्गुण कवियों ने वर्णव्यवस्था और जातिभेद का विरोध किया था। कबीर ने कहा—


नहीं को ऊंचा नहीं को नीचा, जाका प्यंड ताहि का सींचा। 

जो तू बाभन बभनी जाया, तो आन बाट काहे नहीं आया। 


या, 


हमारे कैसे लोहू, तुम्हारे कैसे दूध।

तुम्ह कैसे ब्राह्मण पांडे, हम कैसे सूद। 


रैदास ने कहा, 


रैदास जन्म के कारने, होत न कोई नीच।

नर को नीच कर डारि है, ओछे कर्म की कीच। 


रैदास ने व्यक्ति के गुण पर जोर दिया—


ब्राह्मण को मत पूजिए, जो गुण से हीन

पूजिए चरण चंडाल के जो हो ग्यान प्रवीन। 


अब मैं यहाँ एक और बात कह रहा हूँ। निर्गुण कवियों द्वारा जाति का खंडन कोई बहुत बड़ा सामाजिक विद्रोह नहीं था। इसे सामाजिक क्रान्ति के रूप में न देखें। एक बड़ी सामाजिक क्रान्ति जो भक्ति आन्दोलन ने की, वह दूसरी है। वह क्या है? यह मेरी नज़र में तीसरी समस्या है, जिसे हिंदी आलोचकों ने नज़रंदाज़ किया है। 




  

तीसरी समस्या इस प्रश्न से जुड़ी है कि क्या भक्ति आन्दोलन एक धार्मिक आन्दोलन था? अर्थात विष्णु या शिव की भक्ति का आन्दोलन? हालाँकि भक्ति काव्य के आलोचक यही बताते हैं कि विष्णु-भक्ति का आन्दोलन आलवार संतों ने किया, जो वैष्णव थे; और जो शिव-भक्त थे, वे नयनार (या नयनमार) थे। लेकिन, इस आन्दोलन की सबसे बड़ी गुत्थी है, भक्ति के क्षेत्र में शूद्र और स्त्री-संतों का प्रवेश। यह कैसे संभव हुआ? जो ब्राह्मण-धर्म स्त्री को घर की चौखट नहीं लांघने देता था, जिसके लिए उसने पति-सेवा ही एकमात्र धर्म बना दिया था, और जिसे उसने धर्मशास्त्रों के वाचन तक से वंचित कर दिया था, जिसने शूद्रों को शिक्षा तक से वंचित कर दिया था, उन स्त्री-शूद्रों ने इस काल-खंड में संत बनकर ब्राह्मण-धर्म के विरुद्ध कैसे विद्रोह कर दिया? कैसे उन्होंने अपनी स्वतंत्र प्रतिष्ठा स्थापित की? यह थी सबसे बड़ी क्रान्ति। यह था सबसे बड़ा विद्रोह। यह थी वर्ण व्यवस्था के खिलाफ सबसे बड़ी बगावत। 


यह भक्ति-काल की सबसे बड़ी क्रान्ति थी कि एक बड़ी संख्या में शूद्र और स्त्री संतों ने मनु के उस विधान को चुनौती दी, जिसमें ब्राह्मण ही गुरु बन सकता था। मनु ने यह अधिकार किसी अन्य वर्ण को भी नहीं दिया था। और स्त्री-शूद्रों के धर्मगुरु बनने के तो सारे मार्ग ही मनु ने बंद कर दिए थे। और जिनके मार्ग बंद किए थे, उन्होंने ही धर्मगुरु बन कर ब्राह्मण को चुनौती दी। स्त्री के बारे में तो मनु का विधान यह था कि स्त्री कभी स्वतंत्र न रहें, सदैव अपने पिता, पति और पुत्र के नियन्त्रण में रहे। पर, भक्ति काल में स्त्रियों ने संत बन कर इस विधान की धज्जियाँ उड़ा दीं। उन्होंने स्वयं को पूरी तरह स्वतंत्र कर लिया। न सिर्फ स्त्री ने, बल्कि शूद्रों ने भी धर्म गुरु बन कर ब्राह्मण-सत्ता को चुनौती दी। यही नहीं, मनु के पवित्र और अटूट विवाह-बंधन के विधान को भी इन स्त्री-संतों ने महत्व नहीं दिया। स्त्री संतों ने सन्यास नहीं लिया, बाकायदे विवाह किया, परपुरुष से प्यार किया, प्रेम-वासना की कविताएँ लिखीं और जनसमूह को धर्म का उपदेश दिया। यह उपदेश उन्होंने ब्राह्मण धर्म का नहीं, बल्कि निर्गुण धर्म का दिया, जिसमें शास्त्रों और सामाजिक रूढ़ियों के खिलाफ विद्रोह था। इस क्रान्ति का एक महत्वपूर्ण पहलु यह भी है कि किसी भी स्त्री-शूद्र संत ने ब्राह्मण को अपना गुरु नहीं बनाया। उन्होंने निम्न जातियों के संतों को अपना गुरु बनाया, क्योंकि वे जानते थे कि ब्राह्मण ही उनकी स्वतन्त्रता का शत्रु है, उनका दमनकर्ता है। एक स्त्री संत अपने पति के जुल्म को सहने की तुलना में उसे छोड़ना पसंद करती थी। वह विवाह के लिए अपने माता-पिता के दबाव में नहीं आती थी, उनका विरोध करती थी। वह विवाहित हो कर भी पर-पुरुष से प्रेम कर सकती थी, और उसके लिए अपने पति को छोड़ सकती थी। वह अपनी इच्छा से कुछ भी कर सकती थी, अविवाहित रह सकती थी, पति को डरा सकती थी, और अपने प्रेमी के लिए पति, घर-परिवार, जाति, कुल सब त्याग सकती थी। दलई नाम की एक स्त्री ने अपने प्रेमी के बुलाने पर अपने पति को रेगिस्तान में छोड़ दिया था। उसने भगवान को भी अपना प्रेमी या पति मानने से इनकार कर दिया था। गोग्गव्वे नाम की वीरशैव महिला संत इतनी जिद्दी थी कि उसे जान से मारने की धमकी देने के बाद भी, उसने प्रच्छन्न शिव से विवाह करने से इनकार कर दिया था।


विष्णु भक्ति की धारा का उद्भव गुप्त राजाओं के शासन-काल में हुआ, और शिव-भक्ति के बारे में कहा जाता है कि वह गुप्त काल के बाद लगभग सातवीं या आठवीं शताब्दी में आई, जब हर्षवर्धन का बौद्ध काल आया। इसी को समझने की आवश्यकता है, क्योंकि दक्षिण के भक्ति आन्दोलन की जड़ में इन्हीं दोनों काल की व्यवस्थाएं हैं। हालांकि, यह भी समझ से परे है है कि आलवार वैष्णवों में केवल एक ही स्त्री संत हुई। ज़रूर वैष्णवों ने स्त्री-प्रवेश पर रोक लगाईं होगी। इस एकमात्र आलवार स्त्री संत का नाम ‘अंतल’ या अंडाल था, जिसने भगवान विष्णु के साथ अपने दिव्य मिलन की कामना की थी, और अंतत: विष्णु ने उसे अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार कर लिया था। अंतल की कविताओं में स्त्रियों के उत्पीड़न के ख़िलाफ़ उनका विरोध मिलता है। कई अन्य महिला संतों ने भी उसका अनुसरण किया। लेकिन उन महिला-संतों का विवरण नहीं मिलता। शायद हों भी, पर उनको अलवार वैष्णवों ने उभरने नहीं दिया होगा। अगर अंतल की कविताओं में स्त्री-उत्पीड़न का विरोध है, तो फिर विष्णु की मूर्ति के साथ उसके विवाह की बात विश्वसनीय नहीं हो सकती।  यह एक मिथक के सिवा कुछ नहीं है। मूर्ति चाहे किसी भी भगवान की हो, वह विवाह नहीं कर सकती। हो सकता है, इसी तरह देवदासी बनाने की प्रथा की शुरुआत की गई हो, या फिर अंतल ने किसी विष्णु नाम के युवक से विवाह किया होगा। निश्चित रूप से यह काम अंतल के लिए सहज नहीं रहा होगा, समाज ने उसका उत्पीड़न किया होगा, जो उसकी कविताओं में अभिव्यक्त भी हुआ है। यह उत्पीड़न दमन की सीमा तक गया होगा, जिसके कारण आलवार संतों में फिर किसी स्त्री को प्रवेश नहीं मिला।


इसी तरह पांचवीं सदी की नयनार स्त्री संतों में करेकक्ल अम्मायर का उल्लेख मिलता है, जो एक धर्मपरायण व्यापारी की सुंदर पुत्री थी। वह शिव भक्त थी। शिव ने उसकी भक्ति से प्रसन्न हो कर उसके हाथ में स्वादिष्ट आम प्रकट कर दिए, जो जादुई ढंग से गायब भी हो गए। यह सब जब उसके पति ने देखा, तो उसने उसे त्याग दिया, और वह दूसरी पत्नी ले आया। अम्मायर को लगा कि अब उसके सुंदर शरीर का कोई उपयोग नहीं है, इसलिए उसने शिव से अपने शरीर को कंकाल में बदलने की प्रार्थना की। शिव ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। शिव ने उसे भूतनी बना कर अपने दल में शामिल कर लिया। वह अलंकतु के श्मशान में रहने लगी, जहाँ शिव नृत्य करते थे और वह भजन गाती थी। उसकी चार कविताएँ मिलती हैं, जिनमें एक यह है—


उसके स्तन सिकुड़े हुए हैं

और नसें उभरी हुई हैं, 

सफ़ेद दांतों की जगह खाली गुहाएँ हैं। 

पेट पर सुर्ख बालों के साथ  

नुकीले दांतों की एक जोड़ी,

गांठदार टखने और लम्बी पिंडलियों के साथ 

एक भूतनी उजाड़ शमशान में विलाप करती है, 

जहाँ हमारे भगवान के लटकते उलझे बाल आठों दिशाओं में उड़ते हैं, 

जब वह आग की लपटों के बीच नृत्य करते हैं और अपने अंगों को ताज़ा करते हैं। 

 

यह कविता कुछ और ही कहानी कहती है। इस कविता में करिक्कल अम्मायर की देह के कंकाल में बदलने का चित्रण है। ऐसा प्रतीत होता है कि उसे जबरन भूतनी या चुड़ैल घोषित करके, श्मशान भूमि में छोड़ दिया गया हो, जहाँ वह बूढ़ी होने तक रही। कोई देवता किसी को न भूतनी बनाता है, और न किसी के शरीर को कंकाल में बदलता है। यह भी संभव है कि वह श्मशान की आग की लपटों में जल कर भस्म हो गई हो। पुरुष समाज ने उसे उस विद्रोह का दंड दिया हो। लेकिन इस दमन के बावजूद स्त्री-विद्रोह कम नहीं हुआ, और अनेक नयनार स्त्री-संतों ने लोकप्रियता हासिल की।





स्त्रियों की तरह ही शूद्र संतों का उभार भी मनु की व्यवस्था के खिलाफ विद्रोह था। जिन शूद्रों का धर्मोपदेश करने पर जीभ काटने का विधान मनु ने बनाया था, वे शूद्र भक्ति-काल में बड़ी संख्या में संत बन कर उभरे। शूद्र संतों ने भी ब्राह्मण को न गुरु स्वीकार किया, और न महत्व दिया था। ब्राह्मण धर्म-शास्त्रों, और कर्मकांडों का भी इन शूद्र संतों ने कोई सम्मान नहीं  किया। यह भी एक बड़ी सामाजिक क्रान्ति थी कि उन्होंने समानता और प्रेम को स्थापित करने पर जोर दिया, जो ब्राह्मण-धर्म में था ही नहीं, और जिसे ब्राह्मण-धर्म आज भी नकारता है। इस सन्दर्भ में कन्नप्पार नामक नयनार संत सर्वाधिक प्रसिद्ध थे। वह निषाद जाति के थे। पंद्रहवीं शताब्दी तक आते-आते इस भक्ति आन्दोलन ने वर्णव्यस्था का सम्पूर्ण क़िला ध्वस्त कर दिया था। उसमें सभी गैर-ब्राह्मण जातियों का प्रवेश हो गया था। उसमें शूद्र और अछूत जातियों के साथ-साथ क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के स्त्री-पुरुष भी संत हो गए थे। 


भक्ति-आन्दोलन की सात मुख्य उपलब्धियां हैं : एक, उसमें संस्कृत के विरुद्ध लोक भाषा को अपनाया, दो, उसने ब्राह्मण की श्रेष्ठता को स्वीकार नहीं किया; तीन, उसने लैंगिक भेदभाव खत्म किया; चार, मन्दिर की अनिवार्यता खत्म की; पांच, पशुओं के प्रति अहिंसा-भाव पैदा किया, जिनकी वैष्णव-धर्म में क्रूरता से बलि दी जाती थी; छह, पोथी-पत्रा में विश्वास खत्म किया; और सात, परलोक का खंडन किया और लोक पर ज़ोर दिया।


धन्यवाद  


(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


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