राहुल सांकृत्यायन का आलेख 'मैं कहानी लेखक कैसे बना?'

 

राहुल सांकृत्यायन



राहुल सांकृत्यायन ने अपनी जिंदगी में प्रचुर मात्रा में लेखन कार्य किया। धर्म, दर्शन, लोक साहित्य, यात्रा सहित्य, इतिहास, राजनीति, जीवनी, कोष के साथ साथ प्राचीन ग्रंथो का संपादन कर उन्होंने विविध क्षेत्रों में महत्वपूर्ण कार्य किया। उनकी रचनाओं में प्राचीन के प्रति आस्था, इतिहास के प्रति गौरव और वर्तमान के प्रति सधी हुई दृष्टि का बेहतर समन्वय दिखाई पड़ता है। यह केवल राहुल जी थे, जिन्होंने प्राचीन और वर्तमान भारतीय साहित्य चिंतन को पूर्ण रूप से आत्मसात् कर मौलिक दृष्टि देने का प्रयास किया। उनके उपन्यास और कहानियाँ बिल्कुल नए दृष्टिकोण को हमारे सामने रखते हैं। इसीलिए राहुल जी को 'महापंडित' की उपाधि भी दी जाती है। किसी भी लेखक की रचना प्रक्रिया को जानना दिलचस्प होता है। राहुल जी ने खुद अपनी रचना प्रक्रिया पर बात करते हुए एक लेख लिखा 'मैं कहानी लेखक कैसे बना?' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं राहुल सांकृत्यायन का आलेख 'मैं कहानी लेखक कैसे बना?'



'मैं कहानी लेखक कैसे बना?'


राहुल सांकृत्यायन


कहानी लेखक क्या, लेखक भी मैं कैसे बना, इसे कहना मेरे लिए मुश्किल है। मेरे दिल में यह पहले कभी ख्याल भी नहीं आया था कि मैं लेखक बनूं। जब मैं निजामाबाद (आजमगढ़) में उर्दू-मिडिल का विद्यार्थी था, उस समय रस्मी तौर पर निबंध लिखना पड़ता था। मेरे अध्यापक कोई विषय देते, और उसके ऊपर हम विद्यार्थी दो-तीन पृष्ठ लिख लाते। मुझे अपने लेख पर कोई अभिमान नहीं था, और अध्यापक की कुछ तारीफ को मैं कोई महत्त्व नहीं देता था। मुझे हाथ से नक्शा भी बनाना पड़ता था। मैं नक्शा बना कर उसमें हरे-लाल रंग भर देता। नक्शे के बारे में मैं निश्चित जानता था कि वह बिल्कुल गलत है, इसलिए उसके बारे में कोई अभिमान नहीं कर सकता था। लेकिन हमारे अध्यापक (बाबू जगन्नाथ राय) तारीफ किए बिना नहीं रहते और दूसरे विद्यार्थियों के सामने मेरे नक्शे को आदर्श के रूप में पेश करते। मैं मन में केवल मुस्कुरा देता। उस समय भी मेरी यदि लालसा थी, तो घुमक्कड़ बनने की और कुछ ज्ञानार्जन करने की। लेखक तो, समझता हूं, संयोग से ही मैं बन गया। यात्री लोग यात्रा के बारे में पूछा ही करते हैं, और हर यात्री श्रोताओं की जिज्ञासा पूरी करने के लिए कुछ कहता भी है। ऐसा कहना तो मेरा पहले से भी जारी होगा। 1915 ई. में जब मैं आगरे में था, वहां जबर्दस्ती कलम पकड़ा दी गई। वहां मैं उपदेशक बनने गया था। और मुझे व्याख्यान देने तथा शास्त्रार्थ करने की कला सिखाई जाती थी। हमारे शिक्षक उसके अधिकारी नहीं थे, वह सभा-सोसाइटियों में बोल लिया करते थे। वहां से एक उर्दू का अखबार निकलता था, उसी में खंडन-मंडन के रूप में आर्य-समाजी ढंग का कोई लेख पहले-पहल मुझे लिखने के लिए कहा गया था। उससे उत्साहित हो कर मैंने कहा- एक कदम आगे और बढ़ा जाए। मुझे मालूम नहीं कि मेरे सहपाठियों में, जिनमें सभी मिडिल पास या फेल थे-किसी का कोई लेख उस समय तक हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में छपा था। 1915 ई. में ही मैंने पहला हिन्दी लेख लिखा था, जो कि आधा कहानी और आधा यात्रा के रूप में था। अधिकतर यात्रा-वर्णन जैसा ही। सैंतीस वर्ष हो गए, उसके बाद फिर मैं उस लेख को देख नहीं पाया। वह मेरठ से निकलने बाले मासिक पत्र 'भास्कर' में छपा था! पहले छपे लेख को देख कर मुझे भी प्रसन्नता हुई।






1915 ई. के बाद बहुत वर्षों के लिए मेरी लेखनी हिन्दी में विश्राम लेने लगी, वैसे भाई महेश प्रसाद (मौलवी फाजिल) मेरे पथ-प्रदर्शक और अरबी के गुरु थे, वह पत्रिकाओं के लिए कछ ऐतिहासिक-कहानियां लिखते थे, जिनमें अपनी संस्कृत और हिन्दी की योग्यता के कारण मैं सहायता जरूर देता था, किन्तु स्वयं नहीं लिखता था। अगले चार-पांच सालों तक जब तब मैंने लाहौर के उर्दू पत्रों में आर्यसमाजी ढंग के कछ लेख जरूर लिखे, लेकिन हिन्दी के लेख 1920 ई. में ही जालंधर कन्या विद्यालय से निकलने वाली भारती के लिए लिखे। वे कुशीनगर, लुम्बिनी, जेतवन-श्रावस्ती, वैशाली, नालंदा-राजगीर के बौद्ध तीर्थ स्थानों की यात्रा के संबंध में थे। यात्रा लिखने का शौक कुछ ही कुछ पैदा होने लगा था।


1921 ई. में असहयोग आन्दोलन में तथा राजनीतिक क्षेत्र में मैं काम करने लगा। अब कार्यक्षेत्र था-बिहार का छपरा जिला। उस समय लिखने की न कोई इच्छा होती थी और न जरूरत ही। यद्यपि मेरी हिन्दी अधिक स्वाभाविक हो गई थी, लेकिन मुझे याद नहीं कि अपने राजनीतिक जीवन के समय छपरा में मैंने कभी भोजपुरी छोड़ कर हिन्दी में भाषण दिया हो। 1921 ई. के अन्त में मुझे सजा हुई और छः महीने के लिए जेल चला गया। वहां अब लिखने-पढ़ने का समय मिला, और मैंने कलम उठाई। यहीं कथा लिखने में पहले-पहल हाथ लगा। यद्यपि उसका उद्देश्य कहानी या कथा लिखना नहीं था। जैसे यात्री होने के कारण उसके बारे में मैंने कुछ लिखना शुरू किया था, उसी तरह 1918 और 1919 ई. में रूसी क्रांति की जो थोड़ी-बहुत खबरें गलत या सही हिन्दी-पत्रों में निकलतीं, उनमें कल्पना की नमक-मिर्च लगा कर मैंने अपने मन में एक साम्यवादी दुनिया की सृष्टि कर ली थी। उसी दुनिया को मैं कागज पर उतारना चाहता था। साम्यवाद का सैद्धान्तिक ज्ञान उस समय मेरे पास कुछ नहीं था, मैंने तो मार्क्स का नाम भी नहीं सुना था, इसीलिए मेरा साम्यवाद यूटापियन साम्यवाद था, मुझे व्यावहारिक कठिनाइयों का कोई पता नहीं था। अभी मैं नहीं समझ पाया था कि साम्यवाद के वाहक साधारण मजदूर और किसान हैं, जिन्हें अक्षर से भी कम सरोकार नहीं है। किसी तरह साम्यवाद भारत में स्थापित हो, इसे संस्कृत श्लोकों में लिखना शुरू किया। खैरियत यही हुई कि में छः महीने के लिए ही जेल गया था, जिसमें संस्कृत रचना के लिए सारा समय दे भी नहीं सकता था। जेल के साथियों में कोई पड़ता, तो कोई किसी दूसरी पुस्तक की, इसके कारण समय थोड़ा ही रहता। इस प्रकार संस्कृत में पद्यबद्ध कथा लिखने का काम थोड़े ही दिनों चल कर रुक गया। 1922 ई. के जून या जुलाई में जेल से छूट कर में बाहर आया, उसके बाद के छः महीने फिर कांग्रेस के कामों में लगे। पटना में प्रांतीय कांग्रेस कमेटी की बैठक थी, वहीं गुलाब बाग में एक सार्वजनिक सभा हुई। चौरी-चौरा कांड के सिलसिले में कई देशभाइयों को फांसी की सजा दी गई थी। राजनीति में एकांत अहिंसा पर मेरा कभी विश्वास नहीं था, इसलिए चौरी-चौरा के दंडित देशभक्तों की प्रशंसा में मैंने भी गर्मागर्म भाषण किए।





उक्त व्याख्यान के बाद ही डेढ़ महीने के लिए मैं नेपाल चला गया-शायद 1923 ई. का फरवरी-मार्च का महीना था। छपरा के मित्रों ने सूचित करने के लिए नैपाल चि‌ट्ठी भी भेजी थी कि आपके खिलाफ वारंट है। वह चिट्ठी नहीं मिली, नहीं तो नेपाल में तिब्बत जाने का इतना आकर्षण और निमंत्रण प्राप्त हो गया था कि भारत आने की जगह उधर ही चला गया होता। खैर, लौटने के बाद गिरफ्तार हुआ, मैंने अपराध स्वीकार किया, और पटने में दो साल की सादी सजा ले कर जेल में चला गया। 1923-25 ई. तक जेल जीवन में मैंने काफी कलम चलाई। यद्यपि वहां लिखी और अनूदित बारह-तेरह पुस्तकों में बहुत थोड़ी ही बच कर प्रकाशित हो पाईं, लेकिन अब से लिखने को भी मैंने अपने जीवन के कार्य में शामिल कर लिया। बक्सर की पहली जेल-यात्रा में जिस कथा को मैंने संस्कृत काव्य में पांच सर्गों तक पहुंचाया था, अब उसे बेकार समझ उसकी जगह मैंने हजारीबाग में 'बाईसवीं सदी' लिखी। 'बाईसवीं सदी' को उपन्यास कह लीजिए या बड़ी कहानी या समाजवादी यूटोपिया, वही मेरा पहला कथात्मक ग्रंथ है। जेल में मैंने चार अंग्रेजी उपन्यास 'जादू का मुल्क', 'सोने की ढाल', 'विस्मृति के गर्भ में', 'शैतान की आंख' का भावानुवाद कर के भौगोलिक और वैयक्तिक तौर से उनका बहुत कुछ भारतीयकरण कर दिया। इस काम को मैं निष्काम भाव से कर रहा था, मैं यह नहीं समझता था कि वे किताबें कभी प्रेस का मुंह देखेंगी। जेल से जब कोई बाहर निकलता, उसके हाथ कुछ किताबें मैं बाहर भेज देता। मैं समझता, यदि नष्ट भी हो गई, तो कोई परवाह नहीं, मेरा अभ्यास तो हो रहा है।


भाई पारस नाथ त्रिपाठी साल भर जेल में मेरे साथ थे, उन्हें अंग्रेजी पढ़ाने के लिए मैंने हजारीबाग के जेलर के पास से कुछ अंग्रेजी उपन्यास मंगवाए थे, उन्हीं में ये भी थे। पढ़ाते वक्त ख्याल आया कि ऐसे महत्वपूर्ण उपन्यास हिन्दी में भी हों तो अच्छे। इसीलिए मैंने उनका रूपान्तर किया था। मूल लेखकों का नाम खो गया और प्रकाशकों ने उन्हें इस तरह छापा, जिसमें मालूम हो कि वे मेरे मौलिक उपन्यास हैं।


1925 ई. के किसी समय जेल से निकलने पर फिर कुछ समय राजनीतिक काम और कुछ समय पंजाब और लद्दाख की यात्रा में लगे। पंजाब और लद्दाख की यात्रा के संबंध में मैंने कितने ही लेख लिखे। यात्रा और कथा, कहानी का बहुत नजदीक संबंध है। यात्री होने के कारण यात्रा पर लिखने का मुझे शौक भी था। भारत की यात्राओं को समाप्त कर 1927 ई. में सीलोन जा कर डेढ़ वर्ष रहा। वहां से भी यात्रा के संबंध में ही अधिकतर लिखता रहा।


तिब्बत की प्रथम यात्रा करके लौटने पर मित्रों का आग्रह हुआ कि मैं उस यात्रा को लेखबद्ध करूं, जिसका परिणाम हुआ तिब्बत में सवा वर्ष। इसके बाद तो यात्राओं का ही सिलसिला 1938 ई. तक रहा, और उनके बारे में मैं लिखता भी रहा। यात्राओं के लिखते ही लिखते 1935 ई. या 1934 ई. में कुछ वास्तविक घटनाओं को ले कर कहानियां लिखने की इच्छा हुई, और एक-एक करके मैंने उन कहानियों को लिख कर पत्रिकाओं में भेजा, जो कि 'सतमी के बच्चे' में संगृहीत हैं। उनमें 'स्मृतिज्ञान कीर्ति' ही एक पुरानी ऐतिहासिक कहानी है, जिसकी सामग्री तिब्बत में मिली थी, बाकी सभी कहानियों के नायक मेरे बचपन के परिचित थे। इस प्रकार 'बाईसवीं सदी' के बाद 'सतमी के बच्चे' और उसके साथ की और कहानियों को लिख कर मैंने कथा क्षेत्र में प्रवेश किया।


1938 ई. में किसान आंदोलन के संबंध में फिर जेल में जाना पड़ा, वहां मिले समय का इस्तेमाल करते हुए मैंने 'जीने के लिए' नामक अपना पहला उपन्यास लिखा, जिसमें वर्तमान शताब्दी की राजनीतिक और सामाजिक पृष्ठभूमि को लेते हुए एक संघर्षमय जीवन का चित्र खींचा गया है। इसके बाद उपन्यास लिखने की ओर मेरी रुचि बढ़ी, लेकिन जल्दी ही मुझे मालूम हो गया कि ऐतिहासिक उपन्यासों को लिखना ही मुझे अपने हाथ में लेना चाहिए। कारण एक तो यह कि इस तरह के उपन्यास के लिखने में जितने परिचय और अध्ययन की आवश्यकता है, वैसे उपन्यास-लेखक हिन्दी में अभी कम हैं; दूसरा यह भी कि अतीत के प्रगतिशील प्रयत्नों को सामने ला कर पाठकों के हृदय में आदर्शों के प्रति इस प्रकार प्रेरणा भी पैदा की जा सकती है। मेरे उपन्यासों या कहानियों में प्रोपेगैंडा के तत्व को ढूंढ़ने के लिए 'बहुत प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि उनके लिखने में मेरा उद्देश्य ही है-कुछ आदर्शों की ओर पाठकों को प्रेरित करना। अगर यह उद्देश्य मेरे सामने न रहता, तो शायद मैं कहानी या उपन्यास लिखता ही नहीं, इसलिए जिसे मेरे दोस्त प्रोपेगैंडा कहते हैं, उसे मैं अपनी मजबूरी मानता हूं।






'जीने के लिए' के बाद तीन-चार साल तक मैंने फिर उपन्यास और कहानी नहीं लिखी। 1933 ई. में ही यूरोप लौटते समय मन में ख्याल आया था कि साम्यवाद को समझने और उसकी ओर प्रेरित करने के वास्ते एक ऐसी पुस्तक लिखूं, जिसमें हमारे देश के ऐतिहासिक विकास कहानियों में आ जाएं। 1941 ई. या 1942 ई. में श्री भगवत शरण उपाध्याय की इसी तरह की ऐतिहासिक कहानियों को मैंने देखा। यदि भगवत शरण जी ने ऐतिहासिक कहानियों को परिमित संख्या में लिख कर प्रकाशित करवा दिया होता, तो शायद 'वोल्गा से गंगा' लिखने में मैं हाथ नहीं डालता, लेकिन अभी उन्होंने थोड़ी ही कहानियां लिखी थीं, और उनसे पता नहीं लगता था कि वह कब तक और कितनी कहानियों में उसे समाप्त करेंगे।


1942 ई. में हजारीबाग जेल में रहते हुए मैंने 'वोल्गा से गंगा' की बीस कहानियां लिख डालीं। आसन्न-भविष्य में विस्मृत-यात्री के नाम से महान पर्यटक नरेन्द्रयश (518-82 ई.) के स्वात्त-उपत्यका, सिंहल, मध्य-एशिया, बैकाल सरोवर और चीन तक के बीते जीवन को लिखना चाहता हूं। हां, हो सकता है, आगे भी भारत या वृहत्तर भारत के संबंध में ऐतिहासिक उपन्यास लिखूं।


मैं अपनी कहानियों में किसको सबसे अच्छी समझता हूं, यह कहना मेरे लिए मुश्किल है। 'वोल्गा से गंगा' की कहानी 'प्रभा' को श्रेष्ठ कहते पहले मैंने दूसरों को सुना, और सुन-सुन कर ही मेरी भी उसके बारे में वही धारणा हो गई; नहीं तो उसी संग्रह की 'नागदत्त', 'प्रभा' और 'सुरैया' इन तीनों में मैं कम ही अंतर मानता हूं।


प्रस्तुति : आलोक कान्त


[साभार : ’आजकल’, अप्रैल, 1993]

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