शैलेन्द्र जय की कविताएं
शैलेन्द्र जय |
परिचय
शैलेंद्र जय
जन्म - इलाहाबाद 1971
शिक्षा- बी. ए., एल-एल. बी., इलाहाबाद विश्वविद्यालय
लेखन- छंदबद्ध (गजल) एवं छंदमुक्त कविताएं
संस्था - काव्यश्री साहित्य वाटिका, प्रयाग के अध्यक्ष
प्रकाशन- 'स्याही की लकीरें' काव्य संग्रह 2004 में प्रकाशित, कविताओं पर केंद्रित गुफ्तगू का परिशिष्ट 2017 में प्रकाशित तथा
वागर्थ, हिंदुस्तानी त्रैमासिक शोध पत्रिका, देशज, सृजन लोक, माध्यम, आरोह अवरोह सहित तमाम पत्र-पत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित
प्रसारण- आकाशवाणी तथा दूरदर्शन से निरंतर काव्य पाठ प्रसारित
सम्मान- हंस वाहिनी युवा सम्मान 1997, विद्या वाचस्पति सम्मान (विक्रमशिला हिंदी विद्यापीठ) 2018, विश्व मानव संघ का 25वां अंतर्राष्ट्रीय जुनूं साहित्य अवार्ड 2022, धीरज सम्मान 2023.
संप्रति- सिविल कोर्ट प्रयागराज में कार्यरत।
किसी भी चीज के अतिरेक को सामान्य तौर पर वर्जित किया जाता है। यानी कि एक सन्तुलन की जरूरत हर जगह महसूस की जाती है। कबीर दास भी अपने एक दोहे में लिखते हैं - 'अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप।' लेकिन प्रेम के मामले में यह उक्ति अपवाद है। प्रेम जितना भी किया जाए, कम लगता है। आखिर इस दुनिया को बेहतर बनाने में इस प्रेम की ही महत्त्वपूर्ण भूमिका है। शैलेन्द्र जय अपनी कविता किन्तु प्रेम में लिखते हैं - 'किंतु प्रेम/ प्रेम करना हमेशा/ जरूरत से कुछ ज्यादा/ क्यों होता नहीं/ कभी अतिरेक इसका'। शैलेन्द्र जय अपनी कविताओं में सहज सरल भाव से गम्भीर बातें कह देते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शैलेन्द्र जय की कुछ नई कविताएं।
शैलेन्द्र जय की कविताएं
अयोध्या में शायद
मेरी प्यास को
बढ़ाती है
यह खुरदरी दुनिया
भूल जाता हूं मैं
अपने आंखों की नमी
गीली रही होंगी
जो कभी
मनुष्यता के लिए
अयोध्या में शायद
इस तरह बहे
कभी सरयू
कि राजमहल को मिल जाए
एक अंजुरी धैर्य
और न जाएं राम
फिर कभी वनवास
प्यासा रह जाऊं
तो रह जाऊं मैं
किसी घाट
कौन सोचता है अब।
प्रोफेशनल
हाथ फैला कर
मांगने वाले भिखारी को भी
सिर्फ सिक्के चाहिए
मैं भावनाओं के वशीभूत
खिलाना चाहता था उसे
भोजन
कर दिया उसने झट इंकार
और समझा दिया
प्रोफेशनल होने का सूत्र
भावुकता
ऐसे अवसरों पर
दिखाई पड़ती है
अकेले खड़ी चुपचाप।
किंतु प्रेम
बड़े बुजुर्ग कहते हैं
भूख से थोड़ा कम ही खाना
अच्छा होता है
कम से कम बोलना
बीमारी का घर ही तो है
नींद से ज्यादा सोना
अकेला पड़ जाता है आदमी
जब गहराई में जा कर
सोचता है देर तक
पढ़ा भी उतना ही जाता है
जितना ग्रहण कर सके कोई
सेहत के लिए जरूरी है
दर्द से कुछ कम सहना
किंतु प्रेम
प्रेम करना हमेशा
जरूरत से कुछ ज्यादा
क्यों होता नहीं
कभी अतिरेक इसका
मोची
किसी गरीब की चप्पल
सिलता है
कितने मनोयोग से
मोची
मध्यवर्ग की सैंडल
जोड़ते-जोड़ते
जोड़ने लगता है पैसे
दो जून की रोटी के
अतिरिक्त भी वह
धनाढ्य लोगों के
जूते पॉलिश करते-करते
देखने लगता है
उसकी चमचमाहट में
भविष्य अपना
महिलाओं के फुटवियर
उलट-पलट कर
दुरुस्त कर देता है
वह क्षण में
नेताओं की
चरण पादुकाओं तक
होती नहीं पहुंच उसकी
रखे रहता है लेकिन
तमाम टूटी-फूटी चप्पलें
अपनी बोरी के पास
चाहता है शायद
पीटना
धूर्त, मक्कार और भ्रष्टाचारियों को
अपनी भीगी पनही से
सब की तरह
उसके भी होते हैं दर्द
सिलता रहता है जख्म
समाज के
चलने के लिए
अपनी निहाई से परे भी
एक मोची।
कविता की चक्की
शब्दों की भूख
के बीच
भावों की प्यास भी
अकुलाने लगती है
प्रयास की चकरी में
रख कर चांद तारों सहित
सारी सृष्टि के दाने
छिड़कने लगता हूं
मैं समुद्र
कविता का आटा
पीसने के लिए।
दुःखों से भरी
सुख की हांडी को
चढाता हूं
हृदय रूपी भट्टी में
अपने सारे प्रयास
के बावजूद
बना पाता हूं मैं
जीवन रूपी
अवृत्ताकार रोटी
जिसमें स्वाद
आ ही जाता है
समाज के
खारेपन का।
मुझे भी तो हक है
ऐ रूमी,
तुम्हारी शिराओं का रक्त
काट रहा है चक्कर
मेरे हृदय के कोष्ठकों का
मेरा प्रिय एकांत
व्याकुल हो रहा है.
तुम्हारी कविताओं की तपिश से
अभी मुक्त होना नहीं चाहता मैं
किंतु कोलंबस की खोजी दुनिया में
मकड़जाल फैला हुआ है
ड्रैगन की भी रफ्तार तेज हो गई है
किसी को दुनिया का ताज
दिखाई पड़ रहा है लेकिन.
बरमूडा त्रिकोण से गुजर कर
बाहर निकलने की
आकांक्षा है मेरी
चांद का आकर्षण भी
धुंधला रहा है
सारी सृष्टि नर्वस हुई जा रही है
प्रार्थना ही कर सकता हूं
न सताओ मेरे हृदय को
मैं भी भूल जाऊंगा सब कुछ
रहना चाहता हूं अपनी गिरफ्त में
मुझे भी तो हक है
ह्रदयहीन होने का।
गुफा
आज बहुत दिनों बाद
पड़ोसी से
बातचीत हुई मेरी
लगा जैसे
मैं
गुफा में
रह रहा था
इन दिनों
बनिया तारा सूख गया
गांव की सरहद का
वो तालाब
सूख चुका है अब
जिसमें बचपन में
खेलते-खेलते नहाते और
नहाते-नहाते खेलते थे हम
बनाया-गिराया करते थे पुल मिट्टी के
अपनी हम उम्र वाले बच्चों के साथ।
'बनिया तारा' ही तो
कहा जाता था उसे
क्यों कहा जाता था
मुझे नहीं मालूम
पर क्या सब गाँव वाले
अब हो गए हैं बनिया.
किसी को फिक्र नहीं रही
उस तालाब की
जो गांव के बाहर से
आने वालों के पैर
धुलाता मालूम पड़ता था।
मुखिया मस्त है
लेखपाल खानापूर्ति कर रहा
फिर कौन बताए सरकार को
अफसर कैंप ऑफिस में बैठ कर
दिन भर पी रहे हैं बिसलेरी का पानी
क्यों हो दुबले
गोरुओं के पीने-नहाने की
चिंता कर के।
तालाब तब भी नहीं सूखा था
जब संझा-सकारे
धुलते थे कुछ लोग
गंदगी उसमें.
फिर क्यों सूख गया बनिया तारा
कौन बताएगा अब?
उसकी तलछटी में
जख्म जैसी पड़ गई पपड़ियों को देख कर
जब पूछा मैंने रामदास से
वह बोला
सावन भादों का तो अब मतलब नहीं
बारिश कभी हो तो आ कर देख जाना
इसके कुछ अंजुरी आँसू।
मैंने देखा
किनारे लगा जामुन का पेड़ भी
अब नहीं गिराता जामुन
जो पहले कर देता था
तालाब के पानी को भी जामुनी
मेरी हिम्मत नहीं हुई
उससे भी पूछने की
तालाब क्यों सूख गया।
तुम्हें भी एहसास हो कभी
मार डालो मुझे
मार डालो तमाम औरतों को
मार डालो निर्दोष जनता को
कोई बच न पाए
तुम्हारे सामने खड़े हो कर
तुम्हारे अत्याचारों का
विरोध करने वाला
मात्र तुम और
तुम्हारे कारिन्दे
रहें जिंदा
करें मनमानी
ले जाएं वतन को
सदियों पीछे
हिंसा के अंधकार से
बचा पाएगी कौन रोशनी
कहकहे लगाते एक दिन
जब थक जाओगे तुम
तुम्हारी थकन को मिलेगा
बीबी का फाहा
न बहन की मुस्कान
न ही मिलेगी मां की गोदी
बारूद से भरे तुम्हारे कान
सुन नहीं सकते आज
कोई आवाज
अपने अकेलेपन में
एहसास हो
शायद कभी
तुमको
कि तुम भी बेटे थे
किसी मां के।
# ईरान में कत्ले आम से द्रवित हो कर
रिश्ते की भी उम्र
कितनी गर्मजोशी से
मिलता था वो
सारा प्रेम
उडे़ल देता था बातों में
उसके साथ बैठ कर पीने से
शरबत लगता था
कुछ ज्यादा मीठा
पता नहीं क्या हुआ
मुहब्बत के दरवाजे पर
उसने चढ़ा दी
नफरत की कुंडी
और फिर
दरवाजा खुल न सका
उससे
पहले की तरह
संभवतः प्रत्येक व्यक्ति की तरह
हर एक रिश्ते की भी
होती है एक उम्र।
कल्पना करने को
तुम्हारा हाल-चाल
यदि पूछ लेता है
कोई संबंधी
तुम्हें काफी पिलाने
ले जाते हैं मित्र
आज भी तुम
किसी को उलाहना दे सकते हो
हरसिंगार के पुष्प पर
इतरा सकते हो
स्वयं को कोस सकते हो
गलत बातों के लिए
तब
बहुत कुछ शेष है
अभी इस जगत में
एक बेहतर समाज की
कल्पना करने को
ढेले नदी के
मैं हूंँ
नदी के किनारे कगार का
मिट्टी का लोंदा
चाहता हूंँ बहा कर ले जाए
कभी बलखाती बहती नदी
अपने मीठे जल के साथ
या फिर घुला दे मुझको
भिगो कर अपने में
परंतु देखती नहीं नदी
अपने किनारो पर भी
किसी को
जब तक हो न बाह्य बाध्यता
जिसे भी देखना है प्रतिबिंब अपना
देख ले,
लेकर अंजुरी में थोड़ा जल
ढेले भी नदी के अंदर के
होते हैं अकड़-भरे
वीआईपी संस्कृति से गोलियाए।
प्रतिपक्ष में
प्रतिपक्ष में
खड़ा होना ही
कर देता है सीना चौड़ा
आंख तरल
और मुस्कान गर्वीली
विरोध में
एक हौसला ही तो होता है
करता हुआ निडर तुम्हें
बाहर से और
अंदर से भी।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त की गई पेंटिंग कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
76ए/1 पुष्पांजलिनगर,
सुभद्रा कुमारी चौहान मार्ग,
भावापुर, प्रयागराज- 211016
ई-मेल id- shailendrabeniganj@gmail.com
चलितभाष- 9415 649 614
हार्दिक आभार मित्र इस स्नेह के लिए
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