अवन्तिका प्रसाद राय की कविताएं

 

अवन्तिका प्रसाद राय



कहने के लिए हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश के रहवासी हैं लेकिन कम से कम हम भारतीय इस लोकतन्त्र से बखूबी वाकिफ हैं। मुगलों के बाद शासक के तौर पर अंग्रेजों ने हमारे इस देश को बेइन्तहा लूटा। लेकिन आजादी के बाद खुद हम इस लूटपाट में अंग्रेजों से बीस ही साबित हुए। भ्रष्टाचार जैसे हमारा जन्मजात संस्कार बन गया है। नौकरियां खरीदी बेची जा रही हैं। रोजगार की आस में दर दर भटकता युवा निराश और हताश है। ऐसे में अगर कवि अवंतिका प्रसाद राय अगर एक सच्चा इंसान ढूंढने में असफल रहते हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं। क्योंकि भौतिकतावाद के जाल जंजाल में हम कुछ इस कदर उलझ गए हैं कि हमारे अन्दर का इंसान मृतप्राय हो गया है। कवि की एक कविता पन्द्रह अगस्त पर है। यह राष्ट्रीय पर्व अब औपचारिक बनता जा रहा है। इस कविता की पंक्तियां हैं 'खाल हुई है मोटी अबकी/ बढ़ी हुई है चोटी अबकी/ दूध-मलाई-रोटी अबकी/ देख रहे क्या हेठ, देख रहे क्या हेठ?' तो क्या पन्द्रह अगस्त अपनी प्रासंगिकता खोता जा रहा है। ऐसा कत्तई नहीं है। हां, यह जरूर है कि हमारी खुद की प्रतिबद्धताएं तेजी से बदलती चली गई है। हम निहायत संकीर्ण और व्यक्तिवादी होते जा रहे हैं। भ्रष्ट व्यक्ति न तो व्यक्ति, न ही किसी समाज को अपने स्वार्थ के आड़े आने देता है। एक अंधी दौड़ में हम सब लगे हुए हैं। वह दौड़ जिसका कोई लक्ष्य ही नहीं। कवि अवन्तिका ने इसे शिद्दत के साथ महसूस किया है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवन्तिका प्रसाद राय की कविताएं।


अवन्तिका प्रसाद राय की कविताएं 



बहनें


ब्याह कर

कहां चली जाती थीं बहनें

एक एक कर

हमें कुछ भी पता नहीं होता

हम तो बस उत्सव मनाते थे


किसी दूर देश

शायद किसी परीलोक 


सज संवर कर

लाल डोलियों से आते थे दूल्हे

और उनको ले कर चले जाते थे


हर वर्ष होती थीं शादियां

और छोटी बहनें

परीदेश की कल्पना करतीं

वे इन्तज़ार करतीं

इन्तज़ार करतीं

अपनी बारी की

उन्होंने सिर्फ़ इन्तज़ार करना सीखा था इस मुल्क में


उनके विदा होने के बाद

हम कुछ भी नहीं जान पाते

हम उनके हिस्से के संघर्षों से नावाक़िफ़ रहते

बहनें भी अपने आंसू पी जातीं

मां दुःखी होगी

शायद यह सोच कर


कितनी बन्दिशें थीं

जब बहनें घर में थीं

बोझ की तरह थीं वे घर के पुरुषों के सर

नहीं थी बहनों की कोई स्वतन्त्रेच्छा

नहीं था उनका स्वतन्त्र चुनाव

जो घर या जो वर

चुन लेते पिता

बहनें चली जातीं उधर


उनमें से कुछ बहनें खूब पढ़ती थीं

वे सोचतीं

शायद इसी से मिल जाए मुक्ति-मार्ग

पर हमारे समय में

यह भी थी वर की मांग

यहां भी वे कहां थीं आज़ाद


पुरुषों की अनुपस्थिति में

बहनें खिलखिलाती थीं

मुस्कुराती थीं

लड़ती थीं

झगड़ती थीं

पर कितनी भारी पड़ती थी

उनकी खिलखिलाहट

मुस्कुराहट

पिताओं के दिल पर

यह

हिन्दुस्तान की हर गली का

पिता जानता है


वे मन्दिर जातीं

मज़ार जातीं

हर देवस्थान जातीं

शायद वे सोचतीं

बने कुछ ऐसी बात कि

उनके पंखों को

जकड़ी जंजीरें टूट गिरें

और वे उड़ती ही जाएं

उड़ती ही जाएं

आसमान में


अपनी छोटी उम्र में

बहनों ने किस किस से प्रेम किया

ये दफ़्न है उनके सीने में

शायद वे आज भी डरती हों

कोई तोहमत न लगा दे उनके ऊपर

ठहरा न दे उन्हें अनाचारी

शायद वे गुनहगार न साबित हों उस समाज में

जहां प्रेम

अब भी एक गुनाह है


प्रायः हर विवाह के बाद

पुरूष लेते चैन की सांस

जैसे बहनें रही हों

उनकी सांसों पर भार

जैसे उस घर में

जहां वे जन्मीं

न हो उनके लिए कोई स्थान 


इस मुल्क में

जहां परियों सी बहनों पर

होती हो इतनी हिंसा

यह सच है कि

मातृ ऋण नहीं

पितृ ऋण नहीं

सबसे बड़ा कर्जा 

बहनों का है

हर पुरुष के माथे 



भाई जी


अकड़ते हैं भाई जी

सीना फुलाते हैं

पैर पटकते हैं

अपनी फोरव्हीलर को

जकड़ते हैं भाई जी

एक हाथ में फोन

बेहूदा टोन

आंखों

और माथे के बल का

शातिर ये कोन

मुंह के मसाले को

फटकते हैं भाई जी,

दुनियादार लोग कहते हैं-

'बड़ी अच्छी कमाई है भाई की'

'बड़े-बड़े लोगों से टाई है भाई की'






दोस्त


प्यारे दोस्त!

तुम बिखर गये हो

गुलाब-गन्ध बन कर

मौसम में 

फिजाओं में

वासन्ती हवाओं में


तुम ज्ञान बन कर

बिखर गये हो

पन्नों के हर्फ में

श्यामपट की खड़िया धूल में

किताबों में


अदृश्य हो तुम

पर नजर आते हो

प्रेम में झुकती 

केसरिया दिशाओं में


घुल गये हो तुम

हर बच्चे की

जिज्ञासाओं में


पिरो दिया है

तुमने खुद को

दुःखी आत्माओं में

राहत की सांस बन कर


तुम

अजान की आवाज बन कर

अनहद नाद बन कर

बूढ़े बरगद के नीचे बने

मन्दिर के घण्टी की आवाज बन कर

घुल गये हो

हर साज में

ताल, छन्द और लय में


प्यारे दोस्त!

तुम अदृश्य हो

पर कितने दृश्य हो!



हम


दूज के चांद

गंगोत्री के जल

कटते चारे की गंध

और

बांण की मिट्टी से

मिल कर

बने हैं हम


वृक्ष के तने की आग

कपास की फली

अगहन की धूप

और

नमक की प्यास से

मिल कर बने हैं हम


गुलाब के सुवास

पान के रस

मल की हकीकत

और

ओल्हा-पाती और क्रिकेट से

मिल कर

बने हैं हम


सारंगी की विरक्त करती धुन

चिड़ियों की आसक्त करती चह-चह

मेढक के टर्र-टर्र

और

खरगोश की पानीदार आंखों से

मिल कर

बने हैं हम


दोस्त की कारगुजारी

चायखाने की बहस

पत्नी के बर्ताव

और

बेटे की नामालूम सी शैतानी से

मिल कर

बने हैं हम


मां के दुधिया दुलार

पिता के ध्रुव-विश्वास

गुरू की थपकी

और

दुश्मनों के घात से

मिल कर

बने हैं हम


हम ऐसे बने हैं

कि

और बन जाने की

पूरी जगह है

सितारों को पता है

कि हमारे जैसा भी

धरती पर रहता है

हाड़-मांस का एक इन्सान


नहीं

हमें वहां नहीं जाना है

हमें रहना है

इसी

ओस से भीगी दूब के पास!






वे

(सरकारी नौकर बनने के तत्काल बाद की एक रचना)



वे लपक-लपक कर छूते हैं पैर

जैसे उन्हें पैर छूने का हो बुखार

और वे बताते हैं इसे अपना संस्कार


वे हर बात में हें-हें करते हैं

हर बात को 'क्या बात है' कहते हैं

उनके शरीर में गजब की है एलास्टिसिटी

वे बताते हैं कि मैंने वर्षों तक किया है

संस्कारों की पी. टी.


वे साल के कुछ नीरस फालतू मौकों पर

धकिया-धकिया कर मिलते हैं लोगों से गले

जैसे इस मुंहपीटू औपचारिकता के बिन

उनका काम ही न चले


वे नमस्कार की प्रतिमूर्ति हैं

दिन में कई बार सबको करते हैं नमस्कार

सामने वाला भी होता है जार-जार

शायद इससे पनपता होगा

उन दोनों के बीच कुछ और प्यार-वार


वे सबसे मिलाते हैं हाथ

सबसे मिल लेना चाहते हैं गले

पर इस मिलने में कुछ ठोस , सूखा हो तब तो वह जले

इसलिये वे इतने के बाद भी रह जाते हैं

अनमने, अधबुझे, अधजले 



पता देना


इस महानगर में

एक सच्चा

इन्सान ढूंढ़ता हूं

सच्चा!

जैसे

गम-गम, सच्ची होती थी

देशी धनिया की महक


जैसे

सच्चा होता था

सफ्फाक, कलकल

गंगा का जल


जैसे

पारदर्शी होती थी

निर्झर की बूंद


जैसे

दूब पर

ओस


जैसे

कहानियों में

लामा का दर्पण,


होता ही होगा

ऐसा सच्चा इन्सान

अगर तुम्हें 

मिल जाए

कहीं

पहाड़-वन-प्रान्तर में ही क्यों न

मुझे

उसका

पता देना






बनते हो अधिकारी


पलते हो जनता के बल पर

तुम पर कर्जा बड़ भारी

ऐंठ रहे हो लाठी भर तुम

बनते हो अधिकारी


जन को देख मुंह बिचकाते

लूट-लूट भरते अलमारी

सड़क बना कर खुश ना होते

खुदगर्जी है तारी


ऐसे बम-बम बोल रहे हो

जनता क्या बेचारी

माल-मुरब्बा चांप रहे हो

नेता से करते यारी


कुछ रोकड़ बाबा ले उडते

सूख रही है क्यारी

कुछ बिस्तर के नीचे रखते

महिमा तेरी न्यारी


फ्लैट-मकान-दुकान बनाते

गोरखधंधा जारी

ऐसे ना मुस्काओ जालिम

आयेगी तेरी बारी


पलते हो...................



बोलो ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


पेट भरा है

टेट भरा है

घर में सबका सेट धरा है

क्यों करते तुम लेट, क्यों करते तुम लेट?

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’


खाल हुई है मोटी अबकी

बढ़ी हुई है चोटी अबकी

दूध-मलाई-रोटी अबकी

देख रहे क्या हेठ, देख रहे क्या हेठ?

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


जो मरते हैं मर जाने दो

तनिक हमें पपड़ी खाने दो

माल-पुआ भी अब आने दो

क्यों करते मुझसे हेट, क्यों करते तुम हेट ?

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


हम दल्लों को सेट करेंगे

दाल-प्याज का रेट करेंगे

झूम-झूम आखेट करेंगे

मुर्गा-तुर्गा नेट करेंगे

किस फेरे में घासलेट, बोलो घासलेट

बोलो ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


सुरा-सुन्दरी का इन्तजाम है

चरपहिए से ही पयान है

ए.सी. लगी है हर कमरे में

अब क्यों करते लेट, क्यों करते तुम लेट?

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


घासलेट हमको तुम देखो

हम हैं राजा तुम प्रजा हमारे

दुनिया भर में घूम-घूम के

भर लेने दो पेट, भर लेने दो पेट

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


देखो-देखो दांत चियारे

लगते हैं मेरे जयकारे

खुक्खा है अब वार तुम्हारा

तुमको लिया चपेट, लिया चपेट!

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’


तुमको कुछ भी होश नहीं है

कंक हो तुम कुछ रोष नहीं है

कहां गयी मर्दानी तुमरी

मैंने लिया लपेट, लिया लपेट!

बोलो घासलेट

अबकी ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


फील-गुड तुम करते जाओ

महंगे सूट पे मत ललचाओ

‘अच्छे-दिन’ एक फील का नाम है

फील करो हे बागड़-बिल्ला

फील करो घासलेट

बोलो ‘पन्द्रह अगस्त!’ 


किसिम-किसिम की चीज पड़ी है

बाबा की ताबीज पड़ी है

गांधी जी का जन्तर भी है

शंकर वाला मंतर भी है

बैरी मटियामेट! बैरी मटियामेट!!

बोलो घासलेट अब तो ‘पन्द्रह अगस्त!’


यह संसार है सपने जैसा

माल को छोड़ो मोक्ष बनाओ

तुमरी चिन्ता राम करेंगे

हमरा सब कुछ भोक्ष जुटाओ

चिन्ता-फिकर को कर दो अब तुम जेट, अब तुम जेट!

बोलो घासलेट अब तो ‘पन्द्रह अगस्त!’ 



(इस पोस्ट में पटेल पेंटिंग्स कवि विजेंद्र जी की हैं।)


अवन्तिका प्रसाद राय मूल रूप से शेरपुर, जनपद गाज़ीपुर के रहवासी हैं। इन दिनों उ प्र सचिवालय में उपसचिव के पद पर सेवारत हैं। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं तथा डिजिटल माध्यमों में इनकी कविताएं प्रकाशित हो चुकी हैं।



सम्पर्क 


अवन्तिका प्रसाद राय

10 B/748

वृन्दावन योजना

लखनऊ, उ प्र।


मोबाइल :  9454411777




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