स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'त्रिलोचन की कविता का इलाका'
हिन्दी कविता के अनूठे और अपनी ही ढब के कवि हैं त्रिलोचन। सीधी सादी भाषा, लेकिन बिल्कुल लोक से जुड़ी हुई। इतनी सीधी भाषा कि उसकी नकल कर पाना असम्भव सी बात है। हिन्दी में सॉनेट लिखने का श्रेय कवि त्रिलोचन को ही है। आज हिंदी के अद्वितीय कवि त्रिलोचन का जन्म दिवस है। उनकी स्मृति को हम नमन करते हुए स्वप्निल श्रीवास्तव का यह आलेख प्रस्तुत कर रहे हैं 'त्रिलोचन की कविता का इलाका'।
'त्रिलोचन की कविता का इलाका'
स्वप्निल श्रीवास्तव
अवध क्षेत्र अपनी सांस्कृति और साहित्यिक अवदान के लिये उल्लेखनीय है। अवध प्रदेश की राजधानी की स्थापना नबाब शुजाऊद्दौला ने की। बाद में उनके शाहजादे आसफुद्दौला ने लखनऊ को अपना मरकज बनाया। इसमें संदेह नहीं कि नबाबों ने अवध की संस्कृति को समृद्ध किया। संगीत और कला के क्षेत्र में उनकी भूमिका यादगार है। अवध के बारे में इसकी तफसील अब्दुल हमीद शरर की किताब 'गुजिश्ता लखनऊ' में मिलती है। लोकनायक राम की यह जन्मभूमि के रूप में अयोध्या का महातम कौन नहीं जानता। अयोध्या बुद्ध और जैन धर्म से जुड़ा हुआ है। यह तीर्थंकरों की भूमि भी रही है लेकिन इस क्षेत्र में शोध का कोई काम नहीं हुआ है। 'बुद्ध चरित' के रचयिता अश्वघोष अयोध्या में जन्मे थे।
अवधी भाषा के दो महाकवि इसी इलाके के थे। मलिक मुहम्मद जायसी ने अवधी भाषा में पहला महाकाव्य 'पदमावत' लिखा, जो सूफी दर्शन की अद्वितीय कृति है। रतनसेन और पदमावती की कथा को उन्होंने नया स्वरूप दिया। उन्होंने इस महाकाव्य की रचना चौपाइयों और दोहों में की है। तुलसीदास ने इसी विधा में 'रामचरितमानस' लिखा। मानस ने राम के चरित्र को जन-जन तक पहुंचाया। उसके जरिये लोगों को संगठित किया। मानस ने मध्य वर्ग को गहरे तौर पर प्रभावित किया। लोकमंगल की कामना तुलसी का अभीष्ट था। इन दो महाकवियों ने अवधी भाषा को प्रतिष्ठा दी, उसे जनसमुदाय से जोड़ा। इसके अलावा उर्दू के शायर पं ब्रजनारायण चकबस्त और मीर अली अनीस की की सरजमीं होने का गौरव अवध को प्राप्त है। उमराव जान अदा के जिंदगी पर अफसाना लिखने वाले मिर्जा हादी अली रूसवां का नाम अवध की तारीख में दर्ज है।
बीसवी सदी में अवध प्रदेश ने लोहिया और आचार्य नरेन्द्र देव जैसे समाजवादी चिंतक दिये। इन दोनों विचारकों का प्रभाव हमारे समाज पर पड़ा। संगीत के क्षेत्र में बेगम अख्तर के योगदान को कौन भुला सकता है। उमराव जान अदा का ताल्लुक इसी इलाके से था। खोजने चलिए तो इस क्षेत्र में बहुत से भूले-बिसरे लोग मिलेंगे, जिसके नाम भले ही इतिहास में दर्ज न हों लेकिन उन्होंने इस जवार की फिजा बदली है। इसी इलाके के सुल्तानपुर जनपद के एक गांव चिरानीपट्टी में 20 अगस्त 1917 में त्रिलोचन का जन्म हुआ था। वे बासुदेव सिंह के नाम से जन्मे थे, लेकिन कालांतर में इस नाम को त्याग कर त्रिलोचन हो गये और इसी नाम से कविता की पाठशाला में दाखिला लिया। त्रिलोचन हिंदी के उन कवियों में हैं जिनके भीतर अवध का इलाका बोलता है। अगर उनकी कविता के नीचे से उनका नाम मिटा दिया जाय, तो भी सुधी पाठक जान जाएंगे कि यह त्रिलोचन की कविता है। इस तरह की विश्वनीयता बहुत कम कवि अर्जित कर पाते हैं। यह सरल काम नहीं कठिन साधना है। इसे त्रिलोचन ने सम्भव किया है। विभिन्न बड़े शहरों में रहते हुए वे अपनी भाषा के साथ थे। यहां तो छोटे शहर का कवि बड़े शहर में पहुंच कर सबसे पहले अपनी भाषा और बाद में अपनी तहजीब भूल जाता है। हम सब जानते हैं कि कवि को सबसे पहले अपनी भाषा बचानी चाहिए। भाषा बची रहेगी तो उसके साथ विचार बचे रहेंगे। लेकिन जीवन की आधाधापी में हम खुद को नहीं बचा पाते। जो लेखन को अपना कैरियर बनाते हैं और लेखन को सीढ़ी बना कर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति करते हैं, यह उनके बस का काम नहीं है। त्रिलोचन के बारे में कुछ जानने के पहले यह सॉनेट पढ़े। 'तुलसी बाबा, भाषा मैंने तुमसे सीखी'
मेरी सजग चेतना में तुम रमे हुये हो
कह सकते थे तुम सब कड़वी, मीठी, तीखी
प्रखर काल की धारा पर तुम जमे हुए हो।
अवधी के महाकवि जिस कवि का आदर्श हो तो हम उस कवि की पृष्ठभूमि को आसानी से समझ सकते हैं। तुलसी ने जन सामान्य की भाषा अवधी में अपना साहित्य इसलिए रचा ताकि आम आदमी भी उसे समझ सके। यही हुनर त्रिलोचन के यहां मिलता है। उन्होंने हिंदी कविता की भाषा को सहज बनाया। उनके यहां सम्प्रेषण का कोई संकट नहीं है।
त्रिलोचन का सबसे पहला ठीहा काशी बना। काशी एक नगर नहीं सांस्कृतिक और साहित्यिक केंद्र के रूप में प्रख्यात है। भारतेंदु हरिश्चंद, प्रसाद तथा अन्य कवियों, लेखकों की सरजमीं रही है। काशी एक फक्कड़ शहर के रूप में मशहूर रहा है। जिस समय त्रिलोचन इस शहर के नागरिक बने उस समय राम चंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, विश्वनाथ प्रसाद जैसे दिग्गजों का समय था। उनके समकालीन नामवर सिंह, विष्णुचंद्र शर्मा, विश्वनाथ मिश्र, केदार नाथ सिंह और काशी नाथ सिंह, उनकी मंडली में शामिल थे। बाद में इन कवियों लेखकों ने जो इतिहास रचा, उसे हम सब जानते हैं। त्रिलोचन की जीवन और काव्य यात्रा बनारस से दिल्ली और उसके बाद भोपाल जैसे शहरों में सम्पन्न हुई। वे लौट कर दिल्ली आये। उसके बाद उनके अंतिम दिन कनखल में बीते। उनके जीवन की कहानियां दारूण और करूणा से भरी हुई है। लेकिन इस विपरीत समय में वे रचनारत रहे हैं। उनकी कवितायें पढ़ते हुये हम उनके जीवन के कई संदर्भ से परिचित होते हैं।
किसी कवि को जानने के लिये उसके जीवन और उन जगहों को जानना जरूरी है – जहां कवि की निर्मिति होती है। अपनी भूमि से दूर होते हुए भी वे अपने इलाके से कभी दूर नहीं हुए। शहर उनकी भाषा को प्रदूषित नहीं कर पाये। अपनी लोकचेतना को वे बचाये रहे। उनके पास अनुभव की अदभुत पूंजी थी। जिसे व्यक्त करने के लिये अंग्रेजी कविता की सॉनेट विधा का चुनाव किया। उसे देसी स्वरूप में ढाला। उन्होंने सर्वाधिक रचनायें इसी विधा में सम्भव की। बताया जाता है कि उन्होंने दो हजार से ऊपर सॉनेट लिखे। सॉनेट त्रिलोचन का पर्याय बन गया। सॉनेट जैसी विधा में कविता लिखना हंसी-खेल नहीं है। उसका एक अनुशासन है। मुझे याद नहीं आता कि उनके अलावा किसी अन्य कवि ने सॉनेट विधा का उपयोग कविता विधा में किया है। हां, उनके बाद कई अन्य कवियों ने हाथ आजमाए लेकिन सफल नहीं हो सके। त्रिलोचन भाषा के प्रति सजग कवि हैं। यह संयम अन्यत्र दुर्लभ है।
'धरती' ( 1945), 'गुलाब और बुलबुल' (1956) तथा 'दिगंत' (1957) के बाद उनका कविता संग्रह 'ताप के ताए हुए दिन' का प्रकाशन सन 1980 में हुआ। उसके बाद 'शब्द' और 'उस जनपद का कवि हूं', का प्रकाशन 1981 में हुआ। इसके बाद त्रिलोचन की चर्चा शुरू हो गयी । 'उस जनपद का कवि हूं' के बाद वे जनपद के कवि के रूप में जाने गये। इस संग्रह के बारे में केदार नाथ सिंह की टिप्पणी पढ़ने योग्य है। वे लिखते हैं 'त्रिलोचन एक खास अर्थ में आधुनिक हैं और सबसे आश्चर्यजनक तो यह है कि वे आधुनिकता के सारे प्रचलित सांचों को अस्वीकार करते हुये भी आधुनिक हैं। दरअसल वे आज की हिंदी कविता में उस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, जो आधुनिकता के सारे शोर-शराबे के बीच हिंदी भाषा और हिंदी जाति की संघर्षशील चेतना की जड़ों को सीचती हुई चुपचाप बहती रहती है। केदार नाथ सिंह आगे लिखते हैं कि उनकी कवितायें समकालीन बोध की सुपरिचित परिधि को ताड़ने वाली कवितायें हैं। त्रिलोचन की कविताओं को जानने समझने के लिये केदार नाथ सिंह का यह वक्तव्य हमारी मदद कर सकता है। त्रिलोचन हमें बताते हैं कि परम्परा और आधुनिकता में कोई अंतर्विरोध नहीं है। जो कवि अपनी जातीय चेतना को आत्मसात करता है, उससे बढ़ कर कौन आधुनिक हो सकता है?
त्रिलोचन की कविता को समझने के लिये उनके जनपद से परिचित होना आवश्यक है। उनकी कविता खुद उनके जनपद के बारे में बताती है।
मैं उस जनपद का कवि हूं जो भूखा-दूखा है
नंगा, अनजान है, कला नहीं जानता
कैसी होती है क्या है, वह नहीं मानता
कविता कुछ भी दे सकती है। कब सूखा है।
भले ही अवध की संस्कृति समृद्ध हो लेकिन जीवन यापन बहुत कठिन है। सुल्तानपुर जनपद इसका अपवाद नहीं है। लेकिन इसी इलाके में पैदा हो कर कई लेखकों, कवियों और चिंतको ने समाज को बदलने का उपक्रम किया। मशहूर अभिनेत्री नरगिस ने राज्यसभा सदस्य होने के नाते प्रसिद्ध फिल्मकार सत्यजित रे पर यह टिप्पणी की थी कि वे अपनी फिल्मों में गरीबी दिखाते हैं। उनके इस कथन पर बहुत हो-हल्ला हुआ था। यह एक राजनीतिक बयान था। लेकिन एक लेखक यथार्थ के चित्रण से अगर बचता है तो वह अपने साथ न्याय नहीं करता।
त्रिलोचन जिस दौर में पैदा हुए थे, उस समय पलायन इतना तीब्र नहीं था। अधिकांश लोगो का जीवन कृषि व्यवस्था पर निर्भर था। उसके बावजूद एक विपन्न आबादी शहर की ओर रूख कर रही थी। कलकत्ता ऐसे लोगो की पनाहगाह की तरह बिकसित हो रही थी। लोग अपने घर–द्वार से दूर शहर में चाकरी कर रहे थे। गांव में स्त्रियां और बच्चे अकेले रह गये थे। ऐसी स्त्रियों के दुख को भिखारी ठाकुर अपनी बिदेसिया शैली में अभिव्यक्त कर रहे थे। संयुक्त परिवार के पढ़े लिखे लोग जीवनयापन के लिये शहर की शरण में जा रहे थे। कुछ लोग पढ़ाई के लिये शहर को अपना विकल्प चुन रहे थे। त्रिलोचन ने बनारस में शास्त्री किया और बी ए के बाद अंग्रेजी साहित्य में दाखिला लिया लेकिन वह उसका पूर्वार्द्ध ही कर सके थे। उसके आगे उनके जिंदगी की जद्दोजहद थी। नौकरी की परिस्थितियों के बारे में उनके सॉनेट पढ़ कर हम विचलित हो जाते हैं, जिस तरह कलकतिये अपने हालत का बयान चिट्ठी में अपनी पत्नी से करते हैं, उसी तरह का दुख त्रिलोचन की कविताओं में मिलता है – देखे
सचमुच इधर तुम्हारी याद तो नहीं आयी
झूठ क्या कहूं, पूरे दिन मशीन पर खटना
बासें पर आकर पड़ जाना और कमाई
का हिसाब जोड़ना, बराबर चित्त उचटना
उस उस पर मन दौड़ाना, फिर उठ कर रोटी
करना, कभी नमक से कभी साग से खाना
आरर डाल नौकरी है, यह बिल्कुल खोटी
हैं, इसका कुछ ठीक नहीं है, आना जाना
घर से दूर शहर में नौकरी करने वालो की यह व्यथा त्रिलोचन ही कह सकते है। वह इस दुख के उपभोक्ता है। इस सॉनेट में शहर में नौकरी कर रहे आदमी के जीवन को दर्शाया गया है। नौकरी स्थायी नहीं है – जिसके किये त्रिलोचन, एक लोकबिम्ब आरर डाल का इस्तेमाल किया गया है। यानी एक ऐसी कमजोर डाल जो हल्के बोझ से कभी टूट सकती है। इस तरह के बिम्ब त्रिलोचन की कविता में मिलते हैं। हिंदी कविता में ऐसे विवरण कम मिलते हैं। त्रिलोचन के जनपद के कवि रामनरेश त्रिपाठी ने कविता 'कौमुदी संग्रह' में एकत्रित किया है – उसमें एक गीत है – रेलिया न बैरी जहाजियां न बैरी, पैइसवा बैरी न - हो या लागल नथुनियां के धक्का पिया कलकतवा निकरि गये। हमारे लोकगीत इस तरह के करूण गीतों से लबरेज है, जिनको लोकगायक रूधें कंठ से गाते थे। अब समय बदल गया है – लोगो को घर छूटने की तकलीफ नहीं होती। लोग इसके लिये पृथ्वी के किसी कोने में पहुंच सकते हैं। उनके समकालीन नागर्जुन उसी मिट्टी के बने थे। उनका अधिकांश जीवन घर के बाहर बीता है। वे कहते हैं।
घोर निर्जन में परिस्थिति ने दिया है डाल
याद आता है, तुम्हारा सिंदूर तिलकित भाल
कौन है वह व्यक्ति, जिसको चाहिए न समाज
कौन है वह एक, जिसको नहीं पड़ता दूजे से काज
यही नहीं इससे भी ज्यादा मर्मस्पर्शी चित्र उनके यहां मिलते हैं। त्रिलोचन जैसे कवि यंत्रणा सहते हुए बड़े होते हैं। मुक्तिबोध उनके साथी कवि हैं, उनके यहां इस तरह के जीवन की अनेक छवियां मिलती हैं –लेकिन वे वैचारिक ज्यादा हैं। त्रिलोचन जटिल हुये बिना अपनी बात कहने का ढब जानते हैं। त्रिलोचन के संघर्ष पूर्ण जीवन के अन्य चित्र देखें, जिसमें उनके अभावग्रस्त जीवन दिखाई देता है।
चीरभरा पाजामा, लट–लट कर गलने से
छेद्वाला कुर्ता, रूखे बाल, उपेक्षित
दाढ़ी – मूंछ, सफाई कुछ भी नहीं, अपेक्षित
यह था, वह था, कौन रूके, ठहरे ढलने से
......................
भीख मांगते, उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिसको समझा था, है फौलादी
ठेस लगी मुझे, क्योकि मन था आदी
नहीं झेल पाता, श्रद्धा की चोट अचंचल
त्रिलोचन के निजी दुख उनके नहीं बल्कि उस समूह के हैं, जो इस तरह के जीवन जीने के लिये अभिशप्त है। यहां निराला की कविता 'सरोज स्मृति' को याद कीजिए – जो उन्होंने अपनी पुत्री सरोज के मृत्यु पर लिखी थी। यह कविता केवल सरोज के जीवन का ही इतिवृत नहीं है, बल्कि उसके बहाने समाज की खैर ली गयी है। कवि का व्यक्तिगत कुछ नहीं होता, वह उन तमाम लोगों का प्रतिनिधित्व करता है, जो उसके समाज में रहते हैं। त्रिलोचन ने अपनी गरीबी को गौरन्वावित नहीं किया है – जो आजकल कुछ लेखकों का फैशन बन गया है। समाज के हर व्यक्ति को अपने हिस्से का दुःख उठाना पड़ता है। लेखक हो कर कोई इससे छूट नहीं ले सकता।
गांव का आदमी प्रकृति के निकट होता है। प्रकृति उसे लोक घटनाओं की अनेक सूचनायें देती है। जो कवि लोक और प्रकृति को ठीक से समझता है- उस कवि के रंग अलग होते हैं। इस मायने में त्रिलोचन किसी लोककवि से कम नहीं हैं। जो कवि लोक के सन्निकट होगा – उसकी कविता की पहुंच पाठकों तक अधिक होगी। यह बात उनकी कविताओं के जरिये सिद्ध की जा सकती है। उनकी एक कविता है – 'झापस'। उसे पढ़े –
कई दिनों से पड़ाव पड़ा है बादलों का
हिलने का नाम नहीं लेते
वर्षा, फुहार, कभी कभी झीसी, कभी झिर्री, कभी रिमझिम
और कभी झर–झर
बिजली चमकती है, चिर्री गिरती है
पेड़ – पालों सभी कांपते हैं।
इस कविता में वर्षा-काल के चित्र हैं। इस कविता में आये हुये शब्दो पर ध्यान दें। झापस, झींसी, झिर्री, चिर्री। ये सभी लोकजीवन के प्रचलित शब्द और बिम्ब हैं। झापस का अर्थ कई दिनों तक आसमान में बादलों का ठहराव। इसमें लोगो का घर से बाहर निकलना कठिन होता है। वर्षा के कई रूप होते हैं, जिसमें झीसी प्रमुख है। इस क्रिया को बेहद हल्की बारिश का नाम दिया गया है। चिर्री का मतलब है, बिजली का चमकना, गिरना। सोच कर देखे – क्या इस तरह के चित्र हिंदी कविता में मिलते हैं? क्या इन लोक बिम्ब के बिना वर्षा के चित्र को जीवंत किया जा सकता है। संध्या ने मेघों के कितने चित्र बनाये, आज का दिन बादलों में खो गया, बादल चले गये – जैसी कविताओं में वर्षा ऋतु के अनेक विवरण मिलते हैं।
त्रिलोचन के ये अनुभव घाघ कवि के कहावतों में देखे जा सकते हैं। इसी तरह फसलों के बारे में उनके सॉनेट ध्यान देने योग्य है – गेंहूं जौ के ऊपर सरसों की रंगीनी, कटहल के फूलों की लहरों ने रोका, दूब, गर्मियों में देखा, भूरी भूरी थी या झांय–झांय करती दुपहरिया – जैसे सॉनेटों में उनके लोक ज्ञान को देखा जा सकता है। त्रिलोचन का एक कवि के रूप में अवलोकन जबर्दस्त है। उन्हें पढ़ कर हम हैरान होने लगते हैं। इस तरह हम देखते हैं कि उनके अनुभव का इलाका विपुल है। उनकी प्रमाणिकता की जांच हम लोकजीवन में पहुंच कर कर सकते हैं ।
त्रिलोचन की कवितायें अभिजात का निषेध करती हैं। प्रेमचंद की तरह उनके यहां कविताओं में आये हुये चरित्र लोकजीवन से लिये गये हैं। नगई महरा, चम्पा, भोरई केवट – जैसे पात्र हैं, जो उनके जीवन के आस-पास के चरित्र हैं। सबसे पहले नगई महरा लम्बी कविता को देखे। नगई महरा जाति के कहार थे। बखरी में उन्हें नगई और बखरी के बाहर उन्हें नगई महरा कहा जाता था। उन्होंने अपने सगे भाई की सास को घर बैठा लिया था। बाजाफ्ता ब्याह नहीं किया था। उनका जीवन कठिनाई में बीता। जाति–धर्म की। सीमाओं को तोड़ने का खामियाजा उन्हें भुगतना पड़ा। वे रामायण बांच लेते थे। सुंदर काण्ड उन्हें प्रिय था। पंच परमेश्वर की कृपा से वे शापमुक्त हुये। उन्हें बिरादरी को भोज देना पड़ा। कविता के अंत का अंश देखे –
नगई ने हुक्का पिया और बारी–बारी सबको दिया
पंचायत की मानो पंचपरमेसर है
नगई हाथ जोड़े अब खड़ा हुआ
बोला, जाति गंगा ने मुझे पावन कर दिया
धन्य हुआ
और फिर भोज हुआ
नांच और नाटक हुए
त्रिलोचन ने इस कविता को लोककविता का स्वरूप दे दिया है। नगई के इस जीवन–वृतांत में उनके जीवन के साथ लोक परम्पराये अभिव्यक्त हुई हैं। इस कविता में लोकरस है। यह कविता कबिरहा अंदाज में लिखी गयी है। इस कविता के कुछ वाक्य देखे। नगई भगताया है, तीन–चार घरों का पानी थाम लिया, नई बात से अनकुस होता है, नगई खांची फांदे बैठा था, बड़े बड़े चूल्हे जगाये गये। ये सब ऐसी लोकाभिव्यक्तियां है, जिससे कविता की प्रमाणिकता सत्यापित होती है। त्रिलोचन की इस कविता को पढ़ कर सहज ही रेणु का ध्यान आता है। उनके लेखन में गहरी स्थानीयता है। त्रिलोचन के बारे में रेणु का बहुचर्चित कथन है – वह कौन सी चीज है, जिसे त्रिलोचन में जोड़ देने पर वह शमशेर हो जाता है और घटा देने पर नागार्जुंन।
'नगई महरा' के बाद – 'चम्पा काले अच्छर नहीं चीन्हती', 'भोरई केवट' – कविता के अलग रंग हैं। सबसे प्रमुख है इन कविताओं की भाषा जो वर्ण्य विषय की तरह सीधी साधी और मर्म को छूने वाली है।
त्रिलोचन लम्बे समय तक उपेक्षित रहे। चाहे वह सप्तक काल हो या प्रयोगवाद या नई कविता का दौर हो। त्रिलोचन, नागार्जुन, केदारनाथ अग्रवाल जैसे कवियों को सप्तक में जगह नहीं मिली। जबकि वे सप्तक के कवियों से ज्यादा महत्वपूर्ण कवि रहे है। छठे और सातवे दशक का समय कविता के विभिन्न आंदोलनो का समय रहा है। इस काल में कविता के क्षेत्र में अनेक प्रयोग किये गये। कविता के कई शिविर स्थापित हुये। अज्ञेय का आभा मंडल हिंदी कविता के क्षेत्र में छाया रहा और उनके जादू से कोई नहीं बच पाया। हिंदी कविता आधुनिकता से ग्रस्त थी। कवि यूरूपीय कविताओं की तर्ज पर कविता लिख रहे थे। वहीं पर त्रिलोचन और उनके समकालीन कवि अपने जड़ों से जुड़े हुये थे। आलोचको की निगाह से उनकी कविता बची रही। हाशिये के कवि केंद्र में आ गये थे और केंद्र के कवियों को परिधि से बाहर कर दिया गया था। यह त्रिलोचन जैसे कवियों को आहत कर रही थी। त्रिलोचन ने लिखा।
प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है
उसमें कहीं त्रिलोचन का नाम नहीं था
आंख फाड़ – फाड़ कर देखा, दोष नहीं था
आंखों का, सब कहते हैं, प्रेस छली है
शुद्धिपत्र देखा, उसमें नामों की माला
छोटी न थी, यहां भी देखा कहीं त्रिलोचन
नहीं ...
वे यह भी मानते हैं कि आलोचक का दर्जा, जंगली सन्नाटे में शेर के गर्जने के बराबर है। यह माना जाता है कि यश प्राप्ति के लिये आलोचको से यारी बनाना आवश्यक है, वरना बड़े से बड़े कवि धरे रह जाते है। सवाल यह है क्या आलोचना जैसी संस्था का कोई वजूद रह गया है या वह प्रशंसा अथवा निंदा की अतियों पर टिकी हुई है। आलोचना का यह संकट त्रिलोचन के समय में था और आज के समय में कथित आलोचक किराये पर उपलब्ध है। लेकिन क्या रचना आलोचकों का मुहताज होती है या खुद अपनी जगह खोज लेती है।
सातवें दशक के बीतते-बीतते अज्ञेय का प्रभामंडल ढह चुका था। कविता की दुनिया में फैला हुआ कुहासा छट रहा था। कविता के तथाकथित स्वयंभू कवि अपनी दुकानें समेट रहे थे। त्रिलोचन के साथ शमशेर, नागार्जुन, केदार जैसे कवि प्रासंगिक हो रहे थे। युवा कवियों की एक पीढ़ी इन कवियों के साथ थी। उसके बाद जो घटित हुआ, वह इतिहास है। बड़े कवियों को नजरंदाज नहीं किया जा सकता। भले ही देर हो, उनकी कवितायें अपनी जगह बना लेती हैं।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी- अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल – 09415332326
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