आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं

 

आशुतोष प्रसिद्ध



हरेक जीवन अपने आप में महाकाव्य सरीखा है। इस जीवन से जुड़ी छोटी बड़ी हजारों हजार स्मृतियां होती हैं। इस जीवन के तमाम खट्टे मीठे अनुभव होते हैं। इस जीवन में तरह तरह के तमाम किस्म के लोग मिलते हैं। यानी कुल मिला कर जीवन जितना साधारण दिखता है उतना होता नहीं बल्कि यह अत्यन्त  जटिल होता है। कवि इस जीवन की तरफ बार-बार झांकता है और अपनी कविता के लिए उपयुक्त पंक्तियां खोज लाता है। ठीक वैसे ही जैसे अपना घोंसला बनाने के लिए गौरैया एक एक तिनका अपनी चोंच में उठा कर लाती है और अपने लिए वह ठिकाना बना लेती है जहां वह सहज महसूस करती है और सुकून के पल बिताती है। आख्यानपरकता कविता की रीढ़ होती है। लेकिन इसे किस तरह बरता जाए इसे ले कर कवि को हर पल सजग और सतर्क रहना होता है। आशुतोष प्रसिद्ध युवा कवि हैं लेकिन अनुभव सम्पन्न हैं। यह पंक्तियां कोई भी कवि यूं ही नहीं लिख सकता। 'पकने की प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि/ भूख से चिपक गया है पेट पीठ से'। इस बार वाचन पुनर्वाचन शृंखला की कड़ी में हम कवि आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं पढ़ेंगे। उन पर आलोचकीय टिप्पणी लिखी है वरिष्ठ कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने। इस शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत जबकि इसकी रूपरेखा तैयार करने में अहम भूमिका निभाई है कवि बसन्त त्रिपाठी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं नासिर अहमद सिकन्दर की टिप्पणी के साथ आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं।



आख्यानपरकता में अनुभवजन्य ब्यौरे और लोक संपृक्ति के बिंब-चित्र

            

नासिर अहमद सिकन्दर 


पिछली टिप्पणी मैंने छत्तीसगढ़ की युवा कवयित्री पूर्णिमा साहू पर की थी- आख्यानमूलक शिल्प पर, कविता के भीतर कथा शिल्प पर। उन पर लिखते हुए मैंने यह भी लिखा था कि आख्यानपरकता के बिंब कविता में दो तरह से काम करते हैं। एक तो कविता की काव्य-कला को बड़ा बनाते हैं, दूसरा यह कि कथ्य को प्रामाणिकता और संप्रेषण की ओर ले जाते हैं। जो कवि सामाजिक-राजनैतिक परिदृश्य को संवेदना में जानता हो वह इस शिल्प का सिद्धहस्त कवि होता है। जो गांव को अपनी आंखों से देखता है, वहां के प्रचलित रीति-रिवाज, किवदंतियों, आस्थाओं को जानता है वह इस शिल्प का बड़ा कवि हो सकता है। यह काव्य-शिल्प आशुतोष प्रसिद्ध की कविताओं में भी दिखलाई पड़ता है। मसलन उनकी पहली कविता ‘‘मुझे उल्टा पैदा होना था’’, कविता पर गौर करें तो इस कविता में वे पीढ़ियों के अंतर के साथ पिता की स्मृतियों को भी केन्द्र में रखते हैं। इस कविता में ‘‘उल्टा’’ और ‘‘सीध’’ पैदा होने के जो ब्यौरे रचे गये हैं वे व्यक्तिगत अनुभव के ही ब्यौरे हैं। विरोधाभास के ब्यौरों की कला आशुतोष की काव्य-कला भी है। उनकी ‘‘उच्चारण’’ कविता भी इसी कला की कविता है-


अंग्रजी का ‘ऑल’ पढ़ते हुए डरता हूं

अल्लाह न निकल जाए मुंह से

‘इज’ न बोल पडूं गलती से

और टूट पड़े मुझ पर

लोग कहे जाने वाले लोग

श्री, श्रीमान

या महोदय न कहने के लिए


(उच्चारण)

            

आशुतोष ऐसे कवि भी हैं जो निरर्थक शब्दों से ले कर, लोक-भाषा तथा बोलचाल की भाषा और अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग से अपनी काव्य भाषा रचते हैं। इस तरह की भाषा का इस्तेमाल एक संवेदनशील कवि ही कर सकता है। आशुतोष संवेदनशीलता के बड़े कवि हैं तथा आख्यानपरकता के शिल्प के भी बड़े कवि होंगे। वे अपनी ‘अंधेरे से उजाले में’ शीर्षक कविता में मुक्तिबोध से बहस करते हैं, शास्त्रार्थ करते हैं-


‘‘अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कॉपलेक्स

अथवा कुछ ऐसा ही

चाहो तो मान लो

लेकिन सच है यह

जीवन की तथाकथित

सफलता को पाने की

हमको फुरसत नहीं

खाली नहीं हैं हम लोग’’


कुछ घड़ी शांत रहे गजानन

फिर बोले

अंधेरा बढ़ रहा है

और चले गए लुप्त होते चांद के पास

अपनी शांता को ले


मैं खड़ा ताकता रहा खुद को

घहराते हुए अंधेरे में आनंदित होते


कुछ घड़ी बाद मुंह ऊपर उठा कर

चिल्ला कर बोला-

धन्यवाद शांता

और माफ करना

तुम्हारे गजानन अब हमारे गजानन हैं

(अंधेरे से उजाले में)

            

उनकी ‘असहाय’ शीर्षक कविता एक आम भारतीय नागरिक के सामाजिक-राजनैतिक समय के दिग्भ्रम को उजागर करती है। ‘दुश्चिंता’’ भी उक्त कविता की अगली कड़ी है जहां विचारों की थ्योरी को काव्य विषय बनाया गया है। ये ‘कविता के अंत’ और ‘विचारधारा की समाप्ति’ की घोषणा जैसे जुमलों को चुनौती देती कविता है जो वैचारिकता के पक्ष में खड़ी होती है-


टिड्डियों के दल

जैसे नोचते हैं फसल

विचार नोचते हैं

वैसे ही हर पल

(दुश्चिंता)

            

आशुतोष की ज्यादातर कविताएं वैयक्तिक-सामाजिक-राजनैतिक फलक में नैराश्य की स्थिति से प्रारंभ होती हैं तथा कविता के अंत में वे अपने व्यक्तिगत विचार को आशावाद और आंदोलनधर्मिता में बदल देते हैं। दरअसल यह मुक्तिबोध की काव्य-कला है। मुझे प्रसन्नता है कि आशुतोष इस काव्य-कला का तनिक ही सही अनुसरण करते हैं।

            

आशुतोष की ‘मेरा जीवन कोरा कागज’, ‘चूमना शब्द का सर्वनाम’, ‘कठकरेज’, ‘इंतजार के दिनों की मनःस्थिति’ जैसी कविताएं इधर लिखी जा रही श्रेष्ठ प्रेम कविताओं में सहजता से शुमार की जा सकती हैं। ‘चूमना शब्द का सर्वनाम’ एक मुकम्मल प्रेम कविता है जो गहन संवेदनात्मक बिंबों से उभरती है। मर्मस्पर्शी आत्मीय अवलोकन और ब्यौरे इस कविता को बड़ा बनाते हैं, जिसकी भाषा संरचना का गठन भी बेजोड़ है-


जब जब प्रेम से भर जाता हूं

लगता है अब शब्द नाकाफी है

स्पर्श से ही बता पाऊंगा वह

जो महसूस रहा भीतर

हाथ फैला कर कहता हूं

आओ इधर आओ

चूम लूं तुम्हें

(चूमना शब्द का सर्वनाम)


            

आशुतोष प्रसिद्ध की कविताओं को पढ़ते हुए और उनके काव्य-शिल्प को केन्द्र में रखते हुए देखें तो, ये कहा जा सकता है कि उनकी कविताएं आख्यानपरकता के बड़े कवि सर्वेश्वर दयाल सक्सेना (खूंटियों पर टंगे लोग, साहित्य अकादमी सम्मान 1983), रघुवीर सहाय (लोग भूल गये हैं, साहित्य अकादमी सम्मान 1984) और श्रीकांत वर्मा (मगध, साहित्य अकादमी पुरस्कार1987) के काव्य-शिल्प के बहुत करीब पहुंचती हैं। आशुतोष की कविताएं आख्यानपरकता में अपने अग्रज कवि, जिनका उल्लेख किया जा चुका है, के करीब जा कर उनके काव्य-शिल्प को अपनाती हैं और उस परंपरा का निर्वहन करती हैं।





सम्पर्क 


नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छत्तीसगढ़

490006

मो.नं. 98274-89585



आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं


मुझे उल्टा पैदा होना था


दादी की बात से 

और जो पीठ चमक जाने पर 

लात लगवाने आते थे

उनसे पता चलता है

पिता जी उल्टा पैदा हुए थे


उल्टा पैदा होने का 

उनके जीवन पर लात लगाने के अलावा क्या प्रभाव है

मुझे नहीं दिखता, 

उनके सारे काम सीधे हैं 

सारी बात सीधी है 

मन भी बहुत सीधा सादा है


रात देर हो जाए कहीं 

तो फोन पर फोन करते हैं

फोन न उठे तो रोने लगते हैं 

कभी डाँट देते हैं

तो ख़ुद ही आ कर माफ़ी माँग लेते हैं 

कहते हैं ; 'नाराज़ न होना 

मेरा सब तुम ही तो हो' 


12 घण्टे ऑफिस में झौं झौं झेलने के बाद भी 

मुश्किल से कभी इरिटेट होते हैं 

फोन करो तो कहते हैं

' हाँ बेटा...' 


खेत भरना हो तो सारा मेड़ नंगे पाँव चल कर देख लेते हैं कि कहीं किसी जीव ने अंडा तो नहीं दिया है। 


चीटियों के घर हों तो मेड़ बना देते हैं उतनी दूर

कहते हैं इतने में क्या ही पैदा कर लूंगा


उल्टा पैदा होने के बावजूद वो इतने सीधे हैं 

जितना सीधा पैदा होने वाले नहीं होगें


मैं उन्हीं का खून हूँ 

माँ से पूछने पर पता चलता है

मैं सीधा पैदा हुआ था 

मैंने पिता से ही सीखा है जीवन जीना 

लोगों को सम्भालना 

किसी की याद में रोना पड़ना

पर न जाने क्यूँ 

मुझसे हर काम उल्टा होता है


उल्टा यहाँ तक कि जिसे देना चाहता हूँ प्रेम 

दे देता हूँ घुटन 

जिसे देना चाहता हूँ ख़ुशी

दे देता हूँ आंसू 

खड़ा होना चाहता हूं जिसके साथ 

दौड़ना पड़ता है उसे अकेले 

हल्का करना चाहता हूँ जिसका जीवन भार

कर देता हूँ उसे और भारी 


जहाँ सुनना चाहता हूँ  'होने से जीवन आसान हो गया है' 

वहाँ सुनता हूँ 'ज़िन्दगी बोझ बन कर रह गयी है'


गाँव में एक कहावत कहते हैं 

'जहाँ गई लोला रानी वहीं परा पाथर पानी' 

यह मुझ पर बकायदा लागू होता है 

लगता है लोला रानी मेरी ही कोई पुरखिन थीं


उन्हीं का खून ढो रहा हूँ

जो वंशानुगत मिला है मुझे


जी रहा हूँ वह जो नहीं जीना है

कर रहा हूँ वह जो नहीं करना है 

मैं इतना करमजला हूँ कि मेरा न होना 

होने से भला है 


काश! 

मैं भी पिता जी की तरह उल्टा पैदा हुआ होता 

तो लोला रानी का खून उल्टा बहता मुझमें 

और मैं 

जी पाता सीधा जीवन 

कर पाता अपनों का जीवन आसान 



उच्चारण


अंग्रेजी का 'ऑल' पढ़ते हुए डरता हूँ

अल्लाह न निकल जाए मुँह से 

'इज' पढ़ते हुए सोचता हूँ

ईश्वर ना बोल पडूँ गलती से 

और टूट पड़े मुझ पर 

लोग कहे जाने वाले लोग 

श्री, श्रीमान 

या महोदय ना कहने के लिए 


बुद्ध कहते हुए 

मैं किसी से नहीं डरता

तो डर जाता हूँ

अपने अ-जन्मे राहुल

और अ-विवाहित यशोधरा की आंखों से !


अब आप पूछेंगे 

यह डर कैसे आया ―

मैं कहूंगा जब खाने को कुछ नहीं पाया 

तो डर से काम चलाया 

मेरे पूर्वजों ने गाँव बसाया 

और फिर यह शब्द 

धीरे-धीरे मेरी पीढ़ी में आया 


मैं जब मनुष्य हुआ 

तो ईश्वर और जानवर से डरा 

ब्राह्मण हुआ तो शूद्रों से

क्षत्रिय हुआ तो ब्राह्मणों से 

शूद्र हुआ 

तो ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों से 


जनता हुआ तो सरकार से

प्यार हुआ तो व्यापार से 

फिर धीरे-धीरे पैसे के चमत्कार से डरा,


अब डर मेरी भाषा है

मैं भाषा का शोधार्थी 

और मुझे डर पर कविता लिखनी है।


अँधेरे से उजाले में

(यह कविता शीर्षक कविता पढ़ कर दिवाकर मुक्तिबोध जी का दिया हुआ है।)


बहुत प्रयास के बाद भी 

जब नहीं खुले गजानन 

मेरे मस्तिष्क के उजाले में

तो मैंने अंधेरे में जा कर

टेढ़े मुँह वाले चाँद के आसपास भटकती

तारा बनी शांता को पुकारा 

और पूछा?


क्या ब्रह्मराक्षस के शिष्य बन पाए थे गजानन?

कितनी भूल गलती के बाद गजानन बने थे मुक्तिबोध 

क्या वे सही सही जान पाए थे मृत्यु और कवि का रिश्ता..


चुप्प..

कोई आवाज नहीं 


शायद 

शांता को भलीभाँति आता है शांत रहना

वो कुछ नहीं बोली 


मगर मैं जानता था 

घाव पर घाव देने से 

मन के सब प्रश्न चिन्ह बौखला उठते हैं

फिर कोई कितने ही शून्य में क्यूँ न हो

किसी बेचैन चील की तरह 

क्रोध की दमकती हुई झील में कूद पड़ता है


शान्त!

सब शांत 

कुछ घड़ी विचार आते रहे 

जाते रहे,

फिर मैंने उस तारे की तरफ मुँह उठाकर पूछा?


कहो शांता ―

तुमने यह कब जाना 

कि ये नहीं है वह गजानन 

जिनसे करना था तुम्हें ब्याह..

और फिर चुप्प..

देर तक मैं ताकता रहा मुँह उठाए 

शांता को

शांता ...

कुछ नहीं बोली 


गजानन बोले! 

"अहंकार समझो या सुपीरियारिटी कांपलेक्स

अथवा कुछ ऐसा ही

चाहो तो मान लो,

लेकिन सच है यह

जीवन की तथाकथित

सफलता को पाने की

हमको फुरसत नहीं,

खाली नहीं हैं हम लोग!"


कुछ घड़ी शांत रहे गजानन 

फिर बोले 

अंधेरा बढ़ रहा है

और चले गए लुप्त होते चाँद के पास

अपनी शांता को ले


मैं खड़ा ताकता रहा ख़ुद को 

घहराते हुए अंधेरे में आनंदित होते।


कुछ घड़ी बाद 

मुँह ऊपर उठा कर 

चिल्ला कर बोला ―

धन्यवाद शांता

और माफ़ करना 

तुम्हारे गजानन अब हमारे गजानन हैं ..





संदेहास्पद 


एक बार तो समझ ही नहीं आया 

क्या बना रहा

दूसरी बार बढ़ गई नमक की मात्रा 

तीसरी बार चिपक गया कढ़ाही में 

अंततः कई गलतियों के बाद 

पक कर तैयार हुआ है

एकदम नया सा कोई व्यंजन


पकने की प्रक्रिया इतनी लम्बी है कि

भूख से चिपक गया है पेट पीठ से 


अभी घण्टे भर से खोज़ रहा हूँ 

कोई साफ़ पात्र जिसमें खा सकूँ 

हर ओर खोज़ लेने के बाद भी 

मुझे नहीं मिल रहा कोई ऐसा पात्र 

जिसमें मैं खा सकूँ 


जो भी पात्र उठा रहा 

जूठा लग रहा 

लग रहा दुनिया के सारे पात्र जूठे हैं

जिनमें एक नहीं 

कई कई बार खाया गया है 

और धोया गया है 

उससे भी ज़्यादा बार 

कि खाया हुआ न लगे


मैं कहाँ खाऊं 

खाऊं भी कि नहीं 

समझ नहीं आ रहा


इतना रहस्य है 

कि साफ़ सुथरा लग 

रहा है संदेहास्पद 

और संदेहास्पद में 

दिख रही है उम्मीद..



असहाय 


एक साथ 

कई कई जगह 

धड़कता है दिल 


काँपता हैं 

हाथ 

पाँव 

फेफड़ा


कहने को बहुत कुछ 

पर हलक में एक भी शब्द नहीं


अनगिनत भ्रम 

कोई चेहरा नहीं 

बस पदचिन्ह 


हाय 

यह असहाय जीवन 





दुश्चिंता 


टिड्डियों के दल 

जैसे नोंचते हैं फ़सल 

विचार नोंचते हैं 

वैसे ही हर पल


अजनबी डर 

बढ़ता रहता है भीतर ही भीतर


न जाने क्या कब छूट जाए 

टूट जाए 


मन का चौखटा लाँघने के डर से 

बाहर न आने वाले मुझसे

न जाने कब कोई 

अलगाव की ड्योढ़ी पर खड़ा हो कहे;

'अच्छा ठीक है फिर'

और न चाहते हुए भी कहना पड़े;

'हम्म ठीक है'


कुछ भी पता नहीं!

पता नहीं,

कुछ पता चल पाएगा कभी

या नहीं


यूँ ही अंधेरे में सर भिड़ाते 

चलना है उम्र भर 


यह जानते हुए कि कुछ नहीं बनाया मैंने

कुछ नहीं कमाया मैंने 

न ही कुछ है मेरा 

फिर भी सब कुछ के 

खोने का डर बना रहता है। 



मेरा जीवन कोरा कागज


एक एक कर

विलीन होती जा रही हैं सारी इच्छाएं 

मन मरता जाता है पल पल 


उम्मीद छिपकली की पूंछ हो गई है

एक टूटते देर नहीं होती 

दूसरी जुड़ जाती है


जब जब जीवन सोचता हूँ 

एक टीस सी उठती है 

कि यह पूरा जीवन अकेले 

बहुत अकेले जीना है

बिना किसी के साथ 


मन सवालों से भर जाता है 

अकेले?

अकेले कैसे जिया जायेगा यह जीवन?


विलीन होती हुई इच्छा 

टूटती हुई उम्मीद

अकेले जीने की संभावना से भरी टीस 

उतना उदास नहीं करती

जितना उदास आधी रात को किशोर

'मेरा जीवन कोरा कागज...'

गा कर करता है


किशोर मेरा दुश्मन है

साला.. टुच्चा..


क्यूँ है उसकी आवाज़ इतनी मादक?

क्यूँ नहीं है वह औरों जैसा बेसुरा?


क्यूँ नहीं चुप होता ये कि

उदासी की लय टूटे 

और मैं नयी उम्मीद के सपने देखूँ 


देखूँ कि कोई है 

जो मुझसे करता है बेहद प्रेम 

मेरे उदास होने पर गाता है 

'जब कोई बात बिगड़ जाए

जब कोई मुश्किल पड़ जाए 

तुम देना साथ मेरा वो हमनवा' 


बात करने की तरह बात करता है 

इंस्टाग्राम,फेसबुक और मेसेंजर 

स्क्रोल करते हुए 

हम्म, हाँ, अच्छा, कह कर 

औपचारिकता नहीं करता 


वह सचमुच वैसा है 

जैसा वो दिखता है 


वह मेरे फोन बंद होने पर परेशान हो जाता है

फोन खुलते ही हाँफते हुए पूछता है 

कहाँ थे?

ठीक तो हो न.?

कुछ सोच रहे थे क्या ?

कुछ सोचना नहीं है 

और मुझे सुनाता है;

'छाया मत छूना मन 

होगा दुःख दूना मन'


पर ऐसा कुछ नहीं होता

नेपथ्य से उस साले किशोर की आवाज आती 

जा रही है

'मेरा जीवन कोरा कागज

कोरा ही रह गया...


इतना पन्ना कोरा रखता हूँ 

उस साले किशोर के लिए






चूमना शब्द का सर्वनाम 


जब जब प्रेम से भर जाता हूँ  

लगता है अब शब्द नाकाफ़ी हैं 

स्पर्श से ही बता पाऊँगा वह 

जो महसूस रहा भीतर 

हाथ फैला कर कहता हूँ; 

आओ इधर आओ 

चूम लूँ तुम्हें 


उसका सिर 

थोड़ा और झुक जाता है धरती में 

रोएँ भर्रा आते हैं हाथों के 

न वह आगे आती है

न कुछ नहीं बोलती है

बस शांत आँखों से मुझे देखती है 

दुप्पटे से धागे छुड़ाने लगती है

या कुर्ती खींच कर 

कर लेना चाहती है थोड़ी और लम्बी

या पैर के अंगूठे से 

दबाने लगती है धरती 

इन सबसे भी थक जाती है

तो मुस्कुरा देती है थोड़ा सा

धीरे से 


जैसे कुछ कहना चाहती हो वह बिन बोले

पर मैं ना-समझ,

समझ नहीं पाता कुछ


बस 

जोर की बरसात के बाद 

पानी से लदी पत्तियों की तरह

झुक जाता हूँ 


भूल जाता हूँ 

मुझे चूमना था उसे 

बस देखता रह जाता हूँ

संज्ञा को सर्वनाम होते 

और देखते हुए लगता है 

देखना ही चूमना है ।



कठकरेज


बात करते करते 

बात क्या थी भूल जाता हूँ

ओटीपी भी चार बार में 

देख देख कर भर पाता हूँ


भूलने की लम्बी चौड़ी फेहरिस्त में

अपना नाम तक भूल जाने वाला मैं

तुम्हारी बिल्डिंग तक जाने वाली 

सारी गलियों का ओर छोर जानता हूँ


गलियों पर तुम्हें देखने को राह जोहते लोगों को 

भली भांति चिनहता हूँ 


जानता हूँ 

कहाँ से मुड़ने पर कहाँ पहुँचूंगा 

कितने कदम पर है ब्रेकर 

कहाँ बहती रहती है हमेशा नाली 

जिसे तुम थोड़ा उचक कर 

अपने दुपट्टे से मुँह दबा कर

तेज कदमों से पार करती हुई 

आ कर कहती हो 

यह विकसित भारत की विकसित गली है।


जानता हूँ

वह गली भी जिससे तुम जाती हो स्टेशन 

जब हड़बड़ी में पकड़नी होती है ट्रेन

जो आसपास बसे सभ्य लोगों का कूड़ा घर है

और आवारा पशुओं का शरण स्थल 


जानता हूँ

कहाँ किस दुकान से लेती हो तुम राशन 

और अच्छी मिट्टी की महक आती सब्जी के लिए

कहाँ कहाँ तक भटकती हो 

इस कंक्रीट भरे शहर में


इतना कुछ जानता हूँ तुम्हारे बारे में

फिर भी संदेह से भरा जाता है मन 

जब जब सोचता हूं तुम्हारे बारे में


सोचता हूँ,

क्या सच में सब कुछ जानता हूँ 

तुम्हारे बारे में?


और अगर सब कुछ जानता हूँ 

तो वह क्या है जिसे जानने

तुम्हारी अनुपस्थिति में 

कई कई बार जाता हूँ उस गली तक 

तुम्हें बिना बताए 

बिना बुलाए 

खड़ा रहता हूँ वहीं घण्टों

जहाँ तुम आ कर खड़ी होती हो कभी कभी 

मुझसे मिलने


महसूसता हूँ 

वह जो प्रतीक्षित है अरसे से 

और जिसे तुम टालती रही हो अपने से भी

यह कह कर 

कि जो अभी सम्भव नहीं उसके लिए क्यूँ दुःखी होना

उसको महसूस कर क्या फायदा?

जिसे जीना है। 


मैं तुम्हारी ही तरह होना चाहता हूँ समझदार

आत्मसंयमी और कठकरेजी 

पर नहीं हो पाता हूँ 

चला आता हूँ उस गली तक 

कितनी ही बार लौटा हूँ यहाँ से 

कभी बेमन 

कभी गुस्से में 

कभी यह सोचते

कि अब बुलाओगी भी तो नहीं आऊँगा 

पर जैसे ही तुम कहती हो ; 

'2 मिनट के लिए ही आ जाओ न' 

मैं हाज़िर हो जाता हूँ,

उस भक्त की तरह 

जिसकी कोई इच्छा पूरी नहीं करता ईश्वर 

फिर भी वो रोज़ जाता है मंदिर मत्था टेकने

कि कभी तो पसीजेगा 

पत्थर के भीतर बसा ईश्वर

पर पत्थर के भीतर बसा ईश्वर है कि 

पसीजता नहीं

बनाए रहता है अपने आसपास एक रहस्य

और धारण करता है मेरी इच्छाओं पर एक मौन


ईश्वर को कोई नहीं जानता

तुम्हारे बारे में 

सबकुछ जानने का भ्रम रखने वाला मैं

तुम्हारे बारे में कुछ नहीं जानता...





इंतज़ार के दिनों की मनःस्थिति


1.


दिन गुज़र जाता है

आलमारी में इस्त्री कर रखी शर्ट खोले

धूल पड़ी बाइक पर कपड़ा मारे 

बाल बनाए 

और ख़ुद को आईने में देखे


सारा समय 

फोन में रिकॉर्ड पड़ी आवाज़ सुनते

चुपके सी ली गयी तस्वीर देखते 

और वॉलपेपर पर लगा तुम्हारा हाथ पकड़े 

बीत जाता है। 


याद करने की जरूरत ही नहीं लगती तुम्हें

न 'याद आ रही है' जैसे शब्द बोलने की 


कुछ अनवरत होता रहता है भीतर

कभी जब लगता है गति बढ़ रही है

या चुभ रहा है कुछ 

रेंग रहीं हैं चीटियाँ बदन में

रुक जाएगी अभी धड़कन 

तो तुम्हारा दो अक्षर का नाम 

पुकारता हूँ धीमे धीमे 


और 

सामान्य हो जाती है धड़कन 


2.


घड़ी के भीतर

घूमती सुइयों से ज्यादा 

घड़ी की तरफ़ 

घूमता हूँ मैं


घूमते और सीधे होते हुए लगता है

धीमी चल रही है दीवार घड़ी 

मेरे मन की घड़ी से


3.


इंतज़ार करते हुए बीते समय को 

इंतज़ार के बचे हुए समय से

भाग देता हूँ

तो शून्य पाता है


मन दुःखी हो जाता है


इतंज़ार का कोई तो मानक होना चाहिए

कम से कम एक तो आना चाहिए भागफल

जिससे मैं 

तुम्हारे आने पर दिखा के कह पाउँ

मैंने इतना इंतज़ार किया 


तुम मुझे जीवन गणित में 

फिट होते देख खुश होती 

गले लगा लेती 

या आँख में आँख भर देख लेती 


और मैं 

भूल जाता कि मैं 

इतने दिनों से इंतजार में था। 


4. 


नींद नहीं आती 

स्वाद महसूस नहीं होता

रह रह चुभता है कुछ सीने में 

कहता हूँ खुद से बार बार..

 'सब ठीक है'


तुम्हारे न होने पर 

महसूस नहीं होता कुछ भी 

महसूस होने की तरह


घण्टों देरी से चल रही पैसेंजर गाड़ी में  

जबरन ठूसा सा लगता है जीवन 


आसपास घुटन ही घुटन

ऊब ही ऊब

भीड़ ही भीड़

खिड़की खोलने तक की जगह नहीं

जहाँ से आ सके

तुम्हारी तनिक सी खुशबू


तुम्हारे इंतज़ार में जीवन

मृत की तरह जीता हूँ 

इंतज़ार 

जीवन की तरह करता हूँ 


5


तुम्हारे होने जैसे

होने भर से 

सब कुछ सामान्य रहता है 

ख़ुद को देख लेने भर की हिम्मत

बनी रहती है जीवन में


तुम्हारे होने से होता है सब 

यह शहर 

चाय की दुकान 

पार्क 

सूखे पत्ते 

सफेद फूल

पुराने मकान 

लोगों की आँखें

तुम्हें देने को हर दुकान का सामान


तुम्हारे न होने पर 

कुछ नहीं होता

शहर

कब्रगाह लगता है

सड़क 

कंटीला तार 

हँसते हुए लोग 

नागफनी



आशुतोष प्रसिद्ध

अयोध्या, उत्तर प्रदेश

(परास्नातक, हिन्दी साहित्य, साहित्य से गहरा जुड़ाव)

पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



संपर्क - 


मोबाइल : 89487 02538


ashutoshprasidha@gmail.com

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