गौरीनाथ से आशीष सिंह का साक्षात्कार

 

गौरी नाथ 



आलोचक आशीष सिंह दुनिया की शोरोगुल से दूर चुपचाप अपना काम करते रहते हैं। उनका काम अलग दिखाई पड़ता है। कई एक ऐसे कहानीकारो की कहानियों पर उनके आलेख हमें सोचने के लिए बाध्य करते हैं, कि लेखन का यह भी एक तरीका है। ऐसे कहानीकार जिनकी तरफ आलोचकों का ध्यान प्रायः नहीं जाता। आशीष ने हाल ही में महत्त्वपूर्ण कथाकार गौरी नाथ से एक लम्बा साक्षात्कार लिया है। कई मायनों में यह साक्षात्कार कुछ अलग है। यह साक्षात्कार यह दिखाता है कि कैसे किसी से बातचीत करने के लिए तैयारी करनी पड़ती है। फौरी तौर पर लिए गए साक्षात्कार इसीलिए पाठक के मन मस्तिष्क पर कोई छाप नहीं छोड़ पाते। यह साक्षात्कार लंबा होते हुए भी कहीं पर उबाऊ नहीं लगता। इस साक्षात्कार का अगला हिस्सा हम अपने पाठकों के लिए अगले महीने प्रस्तुत करेंगे। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं गौरीनाथ से आशीष सिंह का साक्षात्कार।



गौरीनाथ से आशीष सिंह का साक्षात्कार


साक्षात्कार एक चुनौतीपूर्ण विधा है। यह विधा जितनी सहज और सामान्य लगती है उतनी ही असहज भी करती है। ‘कृति से साक्षात्कार’ करता एक पाठक अपनी जानी हुई दुनिया को कृति में तलाशता मिलता है पर ज्यों ही थोड़ा सचेत होता है वह कृति की दुनिया में उपस्थित कृतिकार के मन को भी खोजने की कोशिश करता मिलता है। अक्सर कृति के बाहर का मनुष्य कृति के अन्दर के मनुष्य से एक अन्तर लिये मिलता है। ऐसे में एक पाठक सोचता है कि वह ऐसी कौन-सी तरकीब या तरतीब अपनाये कि लेखक के मन को औचक छू ले, सचेत होने का मौका मिलने से ठीक पहले जिससे कि उस लेखक के मनोजगत को कुछ अंशों में ही सही समझा जा सके। अब एक पाठक के पास कृतिकार तक पहुंचने की जो पतली रेखा होती है वह कृति ही होती है। कृति में उपस्थित जीवन-प्रसंग होता है जिन वजहों की तलाश में वह कृतिकार के बारे में सोचने को विवश होता है। और यह विवशता ही किसी साक्षात्कार या बातचीत की वज़ह बनती है। और इस वजह पर काल का दबाव भी तो होता है जो पाठक के मन-विवर में अनेकानेक जिज्ञासाओं का भण्डारण करती जाती है। गर कोई कृति पाठक मन की जिज्ञासाओं, कृति में उपस्थित जादू और जादू के पीछे से देखती निरीह आंखों को पढ़ने के लिए उत्सुक नहीं करती तो कृति के कितना ही ‘महान आख्यान’ होने का दावा किया जाए, पाठक के लिए वहां महज शब्दों और शब्दों की दुनिया का मायाजाल ही होगा। इस मायाजाल में उलझ कर मस्त/ पस्त हो कर कोई पाठक शान्तचित्त हो सकता है और बस। शान्तचित्त कर देने वाली ऐसी रचनाएं न तो किसी सवाल के लिए उकसाती हैं और न ही असंतुष्ट करती हैं। जीवन की भट्टी के ताप में तपी रचनाएं सवाल करती हैं, सवाल करने को उकसाती हैं, लगातार असंतुष्ट करती हैं। यह एक पाठक की जिज्ञासा, अतृप्ति और असंतोष की ऐसी सम्मिलित अभिव्यक्ति होती है कि उसे किसी एक नाम से सम्बोधित करना भी अपर्याप्त लगता है। किसी लेखक से हुआ संवाद, साक्षात्कार या बातचीत नए सवालों की ओर कदम बढ़ाती कोशिशों का एक हिस्सा है। कथाकार गौरीनाथ से हुई यह बातचीत पर्युत्सुक पाठक की ओर से काल, कलाकार और कलाकृति के अन्तर्सम्बन्धों को तलाशने की एक कोशिश-भर है। 


गौरीनाथ एक कथाकार हैं, एक साहित्यिक पत्रिका के सम्पादक हैं, एक प्रकाशक हैं और एक पंक्ति में कहें तो साहित्यिक एक्टीविस्ट हैं। इनके लेखन व सम्पादन कर्म से हिन्दी जगत भलीभांति परिचित है। नव उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के ठीक पहले वर्ष से लगातार रचनारत इस लेखक की रचनाओं में अपनी प्रगतिशील कथा-परम्परा की छूटी हुई डोर है। अपने समय के ठोस यथार्थ के तले कराहती, जूझती, दम-बेदम होती आम जिन्दगियों की कहानी है। बदलते गांव की मोहक तस्वीरें नहीं; जड़ होती परम्पराओं, सामंती उत्पीड़न, पूंजी के वर्चस्व से निर्वस्त्र होते खोखले रिश्तों, साम्प्रदायिक शक्तियों के बढ़ते प्रभाव और उनसे प्रतिकार करने को कसमसाती मद्धिम आवाजें हैं। हताश-निराश स्थितियों के बावजूद यह लेखक ‘मुहब्बत लिखने की कोशिश’ में मुब्तिला है। आखिर यह जो दुनिया हमें मिली है, ऐसी क्यों है?


दरअसल परिचय देना भी परम्परा का एक हिस्सा है इसलिए चन्द शब्दों में बताते चलें कि गौरीनाथ जी के अब तक हिन्दी में तीन कहानी-संग्रह—'नाच के बाहर', 'मानुस', और 'बीज-भोजी' प्रकाशित हैं। सामाजिक-राजनीतिक उथल-पुथल और सन् 1989 में भागलपुर के भयावह दंगे पर केंद्रित उपन्यास ‘कर्बला दर कर्बला’ अपनी विषयवस्तु के लिए लगातार चर्चा में रहा है। साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़े लेखों की एक किताब ‘समय की ख़राद पर’ अपने समय-समाज के सांस्कृतिक पतन पर निशानदेही करती सामने है। क़रीब अट्ठारह साल से साहित्यिक पत्रिका ‘बया’ का कुशल सम्पादन कर रहे हैं। ‘बया’ का हालिया ही प्रकाशित ‘चुनौतियों के मुक़ाबिल’ (50वां) अंक काफी चर्चा में रहा। गौरीनाथ हिन्दी में ही नहीं अपनी दुधबोली मैथिली में भी लगातार सृजनरत हैं। कई कहानियों के साथ मैथिली भाषा में ‘दाग’ उपन्यास अपनी विषयवस्तु के लिए चर्चा  में रहा है। वे मैथिली में ‘अंतिका’ नाम से न सिर्फ पत्रिका निकालते हैं बल्कि इसी नाम से हिन्दी-मैथिली साहित्य को प्रकाशित करने वाला प्रकाशन केन्द्र भी संचालित कर रहे हैं। साहित्यकार, पत्रकार और प्रकाशक के सम्मिलित अनुभवों से सम्पन्न व्यक्ति से प्रस्तुत बातचीत में एक पाठक की जिज्ञासाओं को पढ़ा जाना चाहिए। उम्मीद है यह बातचीत पढ़ते हुए आपके मन में कुछ सवाल जनमें, कुछ को खारिज करने और कुछ सवालों पर ज्यादा जोर देने का मन करे। गर ऐसा होता है तो यह बातचीत अपना प्रारम्भिक दायित्व सम्भवतः निभा पाने में सफल रही। अब ज्यादा इधर-उधर की न करके आइए मिलते हैं, कथाकार गौरीनाथ से कुछ ताजे सवालों के साथ।                                

आशीष सिंह 



गौरीनाथ का पहला कहानी संग्रह



कथाकार-उपन्यासकार व संपादक गौरीनाथ से कवि-आलोचक आशीष सिंह की बातचीत



आशीष सिंह - आपको कहानी लिखने की प्रेरणा कहां से मिली? हम इस सवाल को ऐसे भी रख सकते हैं कि वे कौन-सी सामाजिक-पारिवारिक स्थितियां थीं जो आपके अन्दर उपस्थित कथाकार को आगे ले कर आईं?

गौरीनाथ - यह सवाल अलग-अलग शब्दों और रूपों में पिछले पैंतीस वर्षों से मेरा पीछा करता रहा है। ज़िंदगी के अलग-अलग मोड़ पर कई बार मैंने इसके जवाब तलाशने की कोशिश की, लेकिन लगता है यह सवाल आज भी अनुत्तरित और जटिल से जटिल होता हुआ मेरे सामने खड़ा है।

दरअसल मैं कोसी परिक्षेत्र के जिस भौगोलिक पृष्ठभूमि से आता हूँ, दो-तीन दशक पहले तक वह नदियों-जंगलों से घिरा एक ऐसा बंद इलाक़ा था जहाँ से बाहर निकलने के रास्ते बहुत ही कठिन थे। तमाम परिवर्तनों के बावजूद बरसात आते बाढ़ का डर आज भी पूर्ववत है। मिरचैया किनारे गाय-भैंस चराते नदी-जंगल के साथियों से ही सीखने-जानने की मेरी वास्तविक शिक्षा शुरू हुई। चरवाहे, मछुआरे, घसवाहिनें हों कि हलवाहे और खेत मज़दूर—ये ही तब मेरे संगी-संगतिया थे। मोती बुढ़वा, बच्चन भाई, संन्यासिन, खेढ़िया, हुबिया, मुनरी, सुनरी, रधिया, पंचा, खंजन, भज्जू जैसे अनेक चरित्र मेरे निजी जीवन से गहरे जुड़े रहे हैं। कोसी-रन्नू की प्रेमगाथा से ले कर आल्हा-उदल की वीरगाथा तक मैंने बहुत सारे क़िस्से वहीं सुने थे। स्कूल के अलवा मेरा ज़्यादा समय इन्हीं सामान्य लोगों के बीच मिरचैया नदी के किसी-न-किसी घाट पर गुज़रता था। बहुत कम समय छोटे काका के बड़े दालान में जमने वाले बैठका के लिए निकाल पाता था जहाँ ‘दुरंगा’ के झबरु बाबा जैसे लोग मिलते थे और वहाँ की चर्चाओं पर महाभारत-रामायण का वर्चस्व रहा करता था। यूँ कथा-रस का आनंद दोनों जगहों पर था। इनका कुछ-न-कुछ असर मेरे जीवन पर रहा ही होगा।

घर में, तीन बहनें और पाँच भाइयों में, मैं सबसे छोटा था जिसके बनने-बिगड़ने की चिंता प्रायः किसी को उस तरह नहीं थी। बचपन में मैंने ख़ुद के भीतर पहली चाहत बाँसुरी और हारमोनियम के प्रति महसूस की लेकिन वादक नहीं बन सका। घर-परिवार में विभिन्न अवसरों पर स्त्रियों को रंग-विरंगी अल्पनाएँ और भित्ति-चित्र बनाते देख चित्र बनाना चाहता था लेकिन असफल रहा। पढ़ाई-लिखाई के मामले में अपने क़रीबी दोस्तों जितनी न्यूनतम सुविधा ही चाहता था लेकिन नहीं मिली। किताबों-पत्रिकाओं के लिए तरसते अपने बचपन की पीड़ा बता नहीं सकता। तब दसवीं कक्षा में ही था जब भाइयों के बीच बँटवारा हुआ और सभी अलग हो गए। तत्काल कुछ महीने का सहारा मझली बहन का मिला जिसकी बदौलत बोर्ड परीक्षा पास की। इंटरमीडिएट की पढ़ाई के लिए जब मैं भागलपुर जा रहा था तो मेरा एक भाई, जो तभी संस्कृत विद्यालय में शिक्षक हुआ था, उसने पढ़ाई के ख़र्चे उठाने का प्रलोभन दे कर मेरा हिस्सा साझा कर लिया। सच्चे अर्थों में मुझसे प्रेम करने वाले परिवार में सिर्फ़ पिता थे और वे मेरे इस फ़ैसले से आहत हुए थे। दो साल भी नहीं गुज़रे कि मेरे उस भाई ने ख़र्चे देना बंद कर दिया। तब भी ट्यूशन आदि कर के मैं पढ़ाई में जुटा रहा इस क्षीण-सी उम्मीद के साथ कि पिता जी मेरे हिस्से की ज़मीन जल्दी ही अलग करवाने की दिशा में कुछ-न-कुछ करेंगे। वे ज़रूर कुछ करते, लेकिन कुछ ही समय बाद (1 सितंबर, 1991 को) पिता जी को हृदयाघात हुआ और वे अचानक चले गए। फिर तो निजी उपार्जन पर ज़िंदगी गुज़ारने और किसी तरह पढ़ाई जारी रखने के अलावा मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। उस पर अपने कुछ फ़ैसलों और ज़िद्दों के कारण भी कई बार स्थिति विषम हुई और मैं मुँह के बल गिरते-गिरते बचा। तब बचपन के दोस्तों में से एक शंभू भद्रा साथ था और इस कदर मेरे बच जाने पर वह मेरी तुलना उदय प्रकाश की कहानी ‘टेपचू’ के मुख्य पात्र से करते हुए कहता, “तुम आसमान से गिर कर भी मर नहीं सकते।” उस दौर में इतने धोखे, इतनी चोटें मेरे हिस्से आईं कि दुखों का धनी तो हो ही गया था।  

जीवन में अभाव, असफलता, धोखे और अपमान भले ही जितने दुख ले कर आते हों, ये प्रेरक होते हैं। प्रेम में छल-छद्म की गुंजाइश बहुत रहती है, लेकिन धोखे और नफ़रत को चौबीस कैरेट शुद्ध और ठोस मान सकते हैं। माना जा सकता है कि इन स्थितियों का मिला-जुला योगदान मेरे कहानी-लेखन की तरफ़ बढ़ने में कहीं-न-कहीं रहा हो। बाँसुरी-हारमोनियम और रंग-ब्रश से जिन दुखों को अभिव्यक्त करने का अवसर मुझे नहीं मिला, उन सब के लिए मेरे पास सिर्फ़ शब्द हैं।      



आशीष सिंह - एक कहानीकार कहानी क्यों लिखता है?

गौरीनाथकठिन सवाल है। मेरे ख़याल से इसके कारण सबके लिए एक जैसे नहीं हो सकते।

मैंने सिर्फ़ एक कहानी लिखने की ख़्वाहिश ले कर कलम पकड़ी थी—मुहब्बत। उस मुहब्बत के भीतर अपने सम्पूर्ण दुख का ख़ज़ाना इस तरह छुपा देना चाहता रहा हूँ कि वह सब को अपना ही दुख लगे। पढ़ने वाले को एक बूँद पानी की शीतलता, चुंबन की गर्माहट, दूध का दूध पानी का पानी करने जैसे न्याय की तरह सब कुछ सहज और स्पष्ट लगे और मनुष्य का मन पढ़ने के लिए उसके जाति-धर्म-लिंग जानने की ज़रूरत न पड़े। यह कतई सोचा नहीं था कि 21वीं सदी में भी किसी के छूने मात्र से पानी छुआ जाएगा और छूने वाले की जान लेने वाले द्रोणाचार्य मिलते ही रहेंगे और वे स्त्रियों के पहनावे की साइज पर बात करते हुए मनुवादी खाँचे को दृढ़ करेंगे। इन तमाम दुखों को कहानी में अँटाने की संभावना को ले कर चल रहा हूँ, जिस तरह एक नन्हे से बीज से बरगद के पेड़ उगने की संभावना रहती है।

अफ़सोस कि पैंतीस वर्षों से लगातार लिखते रहने के बावजूद ऐसी कोई कहानी संभव नहीं हो पाई है कि जिसके लिखने के बाद लगे कि हाँ, यही तो लिखना चाहता था। फ़िलहाल उस कहानी को लिखने की कोशिश में रियाज़ किए जा रहा हूँ।



आशीष सिंह - एक कहानी में विचार, वह चाहे राजनीतिक हो या सामाजिक, का कोई महत्त्व है?

गौरीनाथ - बेशक विचार का महत्त्व कला के तमाम अनुशासनों में कमोबेश होता ही है। कविता-संगीत और चित्रकला में कुछ देर के लिए, और एक हद तक, कलाकार की चालाकी इस कमी को ढक भी सकती है लेकिन कहानी-उपन्यास में मुश्किल है। कहानी जिस हद तक कला है उसी हद तक विचार से समृद्ध रचना हो कर देश-काल की सीमा को लांघने की क्षमता रखती है। भाषा का टकसाल कितना ही समृद्ध हो, विचारहीन लेखन कालांतर में रीढ़विहीन और लिजलिजा साबित होता है। रचना में विचार आरोपित न हो कर जीवन-प्रवाह के संग सहज समाविष्ट हो तभी सार्थक। आँसू में नमक की तरह।



आशीष सिंह - आपकी नजर में कहानी में क्या ज्यादा महत्वपूर्ण है भाषा, शिल्प, विचार, विषय या चमत्कृत करती वस्तुस्थिति? ‘बया’ के सम्पादकीय डेस्क पर बैठे हुए कहानीकार प्रकाशित होने के लिए आई कहानी में सबसे पहले क्या देखता है? 

गौरीनाथ - पढ़ते हुए मुझे हमेशा एक मुकम्मल और दुरुस्त कहानी की तलाश रहती है, हर दृष्टि से। भाषा, शिल्प, विचार आदि किसी भी ख़ास तत्व पर बाद में नज़र जाएगी जब हम उसको विश्लेषित करने की कोशिश करें। झोल किसी पक्ष में हो, प्रभावित कहानी होगी।

यूँ कुछ कहानियों के चयन-क्रम में मुश्किलें आती हैं और एकाधिक पाठ भी करना पड़ता है। कभी-कभी अच्छी-सी कहानी में कोई छोटी-सी कमी नज़र आती है, तो मैं उस कहानीकार से दोस्ताना बात भी करता हूँ। मेरा अनुभव रहा है कि कुछ लेखक इस तरह की बातचीत का स्वागत करते हैं।         


 

आशीष सिंह - एक कहानीकार की जगह खड़े हो कर जब आप कोई कहानी देखते हैं और ‘बया’ की रचनात्मक दृष्टि के चलते उसे पत्रिका में प्रकाशित कर पाने में असहजता महसूस करते हैं, क्या ऐसा भी कोई अनुभव हुआ है आपको?

गौरीनाथ - नहीं, ऐसा कोई अनुभव नहीं। जो व्यक्ति ‘बया’ संपादक है, वही पाठक और कहानीकार भी। तीनों के सोच में कोई अंतर नहीं। पसंद की रचना छापने में यदि असहजता महसूस हो, तो फिर स्वतंत्र रूप से ‘बया’ निकालने का मतलब क्या था? चयन के लिहाज से दबाव में ही काम करना होता तो चाकरी क्या बुरी थी।     



मैथिली कहानी संग्रह



आशीष सिंह - आप मूलतः मैथिली भाषा-भाषी हैं और हिंदी-मैथिली दोनों भाषाओं में रचनारत हैं। आपकी पहली रचना किस भाषा में पहले प्रकाशित हुई या लिखी गई? आप मैथिली में अपने आपको ज़्यादा अच्छे से अभिव्यक्त कर पाते हैं या हिन्दी में?

गौरीनाथ - मैंने अपना लेखन पहले हिंदी में शुरू किया था। छपना भी पहले हिंदी में ही हुआ, ‘हंस’ (अप्रैल, 1991) में। तब तक कुछ ही छोटी-छोटी रचनाएं छपी थीं। ग़ौरतलब पहली प्रकाशित कहानी ‘महागिद्ध’ थी जो साल-डेढ़ साल बाद ‘उत्तरशती’ में छपी थी। ‘रोटी-मछली’, ‘नाच के बाहर’ जैसी लंबी कहानियाँ पहले से लिखी हुई होने के बावजूद संपादकों के छोटी कहानी के आग्रह को देखते हुए सालों तक फाइल में बंद रहीं। कुछ साल बाद ‘महागिद्ध’ की चर्चा अमरकांत जी से सुनकर कवि-संपादक विष्णु चंद्र शर्मा ने मुझसे वह कहानी मांगी और दुबारा अपनी टिप्पणी के साथ उसे ‘सर्वनाम’ में छापी थी। बाद में विष्णु जी ने अपने संपादन में छपी पच्चीस श्रेष्ठ कहानियों के संकलन ‘जमा खाता’ प्रकाशित करवाया था, उनमें अधिकांश विदेशी कथाकारों की कहानियों के साथ थोड़ी-सी हिंदी कहानियाँ थीं, जिनमें एक कहानी ‘महागिद्ध’ भी शामिल है। आरंभिक दौर में ही मैथिली के लेखक महाप्रकाश और कुलानंद मिश्र के संपर्क में आकर मैंने मैथिली में भी लेखन शुरू किया। मातृभाषा मैथिली मेरे यहाँ बोलचाल में है, लेकिन वह है अकुलीन समुदाय वाली कोसी क्षेत्रीय मैथिली। उसके प्रति मेरे भीतर अपार अनुराग है। मैथिली में लेखन की कोई एक शैली और मानकीकरण नहीं रही और मैं कभी विधिवत उसका छात्र भी नहीं रहा था इसलिए लिखने की निजी भाषा-शैली विकसित करने के लिए मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ा। इस क्रम में कवि महाप्रकाश और रामचैतन्य धीरज का अविस्मरणीय सहयोग मिला। वर्षों की मिहनत के बाद मैथिली में लिखित पाँच-सात कहानियाँ मेरे पास हो गई थीं, लेकिन मैथिली के मठाधीशों का ऐसा वर्चस्व कि वहाँ सदा अवहेलित रहा। 1992-95 तक मैथिली में मेरी दो-तीन कहानियाँ अलग-अलग पत्रिकाओं में छपीं, लेकिन पहली दो काट-छाँट कर और बहुत ही वीभत्स रूप में। यह सब पंचकोसी को मिथिला और वहीं की मैथिली को मान्य समझने वाले कुलीन समुदाय के लेखकों-संपादकों के षडयन्त्र का परिणाम था। यही कारण है कि पैंतीस वर्षों से मैथिली में लिखते रहने, पच्चीस वर्षों से मैथिली में पत्रिका ‘अंतिका’ निकालने और तीन-चार किताबों के आने के बावजूद वहाँ के अधिकांश बुद्धिजीवी वर्ग की आँखों में मैं हमेशा खटकता रहा हूँ। कुछ साल पहले ‘तर्पण’ (जो हिंदी में भी इसी शीर्षक से है) कहानी मैथिली के एक कहानीकार-संपादक ने माँग कर छापी, लेकिन वह संपादक भी उसके साथ छेड़छाड़ से बाज नहीं आया।

जहाँ तक नितांत निजी प्रसंगों की अभिव्यक्ति में सहजता की बात है, निश्चित रूप से मेरे लिए कोसी क्षेत्रीय मैथिली का स्थान पहला होगा लेकिन वृहतर लेखन में कोई असहजता हिंदी-मैथिली में कहीं कभी मैंने महसूस नहीं की। यहाँ पहले-दूसरे स्थान जैसी कोई दूरी नहीं है। हिंदी मेरे लिए ओढ़ने-बिछौने की तरह है। हिंदी ने मुझे सिर्फ़ रोटी नहीं, एक मनुष्य होने और लेखक-संपादक होने की गरिमा और इस नाते इसने मुझे बहुत प्यार-दुलार दिया है। हिंदी ही है जिसके बल पर मुझे लगता है कि इस देश और इसकी सीमा के पार भी कुछ लोग हैं जिनका मुझे प्यार मिल रहा है।         



आशीष सिंह - ‘महागिद्ध’ व ‘रोटी मछली’ जैसी कहानियों का ज़िक्र करते हुए विगत तीस सालों का कथा-साहित्य देखा जाये तो वहां मजदूर वर्ग, तमाम पेशों में मुब्तिला जीवन-यापन के लिए जूझते तबके की उपस्थिति कथा-कहानी से लगातार नदारद है या महज गिनती की है? कहानीकारों में मौजूदा विषय-चयन की यह तजवीज किन वजहों से मुख्यधारा-सी बनती जा रही है? 

गौरीनाथ - अच्छा सवाल किया आपने। ग्रामीण किसान-मजदूर ही नहीं, हाशिए के तमाम संघर्षशील लोगों को अनचाहे ही कहानियों से बाहर किया जा रहा है। आदिवासी और मुस्लिम समुदाय से तो हमेशा ही बचने की कोशिश दिखती है और यदि इनकी उपस्थिति होती भी है तो स्टेरियो टाइप, जैसे बॉलीवुड फ़िल्मों में रहती है। आपको ताज्जुब होगा कि ग्रामीण समाज तो फिर भी, कमोबेश, कहानियों में आ रहा है लेकिन शहरी संगठित-असंगठित मजदूर और उसके यूनियन अचानक से हमारे साहित्य से ग़ायब हैं।  

दरअसल आज हमारे जो लेखक आ रहे हैं, अधिकांश शहर-नगर से और इनके दैनंदिन में किसान-मज़दूर से गहरा जुड़ाव रह नहीं गया है। फिर इनकी रोज़ी पब्लिक सेक्टर से जुड़ी हो या प्राइवेट सेक्टर से, उदारीकरण के बाद धीरे-धीरे काम करने के ढर्रे इतने बदल दिए गए हैं कि फ़ुर्सत के और सामाजिक जुड़ाव के पलों का जीवन में घनघोर अभाव होता गया है। अपने पड़ोस से कटे हुए लोगों और लेखकों की संख्या समाज में लगातार बढ़ रही है। इसके अलावा व्यवस्था आदमी को जिस साँचे में ढालने की कोशिश कर रही है, उस साँचे में ढलने से कितने लोगों को परहेज है? आपको धीरे से नमस्ते, जय भीम, जोहार कहने वाले व्यक्ति अपने कार्यस्थल पर गर्व से ‘जय श्रीराम’ कहते मिल जाएंगे, सोशल साइट्स पर मंदिर में दिए गए चंदे की रसीद शेयर करेंगे। हालात इतने बदल गए हैं कि सामाजिक जुड़ाव और वैचारिक प्रतिबद्धता की बात करनेवाले को बहुत-से लोग पिछड़ा हुआ मानते हैं। ऐसे हालात में मुख्यधारा नहीं, हाशिए पर ढकेल दिए गए कहानीकारों पर हमें भरोसा करना होगा। अक्सर चर्चा से बाहर रखे जा रहे प्रह्लाद चंद्र दास, शंकर, हरियश राय, जयनन्दन, कैलाश बनवासी, सत्यनारायण पटेल, अरुण कुमार असफल, चरण सिंह पथिक, रामजी यादव, श्रीधरम, श्रद्धा थवाइत, चंद्ररेखा ढढ़वाल, अकबर रिज़वी, अंजलि देसपांडे आदि सहित कई नए रचनाकारों की कहानियों पर ग़ौर करेंगे तो शायद निराशा कुछ कम हो।               


 

आशीष सिंह - ज़्यादातर कहानीकार टाइप्ड चरित्रों पर ही कहानी लिखते हैं। क्या कथा लेखन में जाने हुए विशिष्ट लोगों या कुछ विसंगति के शिकार चरित्रों पर लेखन कथाकारों के लिए ज्यादा सहज होता है? 

दो दशकों में समाज में बदले उत्पादन सम्बन्धों के चलते जो नए चरित्र सामने आ रहे हैं उन पर रचनाएं क्यों नहीं लिखी जा रही हैं, उनकी चुनौतियां, समस्याएं आज के कथाकार सामने ला पा रहे हैं? गर आपकी जानकारी में हैं तो बतायें।

गौरीनाथ - टाइप्ड चरित्रों पर लिखना आसान तो है ही। होम-वर्क भी नहीं करना होता। विसंगतियों के शिकार विशिष्ट पर लिखने में सुविधा यह रहती है कि सनसनी जैसे पॉपुलर तत्वों का समावेश आसानी से हो जाता है और कहानी तुरंत चर्चित भी।

जहाँ तक बदलते उत्पादन संबंधों के चलते उभर रहे नए चरित्रों को पकड़ने की बात है, यह काम श्रमसाध्य और जोखिम-भरा है। अमेज़न-फ़्लिपकार्ट या स्विगी-ज़ोमेटो के डिलीवरी बॉय पर लिखने के लिए आपको उसके कार्य-व्यापार को गहराई से समझना होगा। मिनटों में डिलीवरी करने की चुनौतियाँ! पिज़्ज़ा ठंडा न हो और आप उसके पॉइंट न काटें, इसके लिए डिलीवरी बॉय ट्रैफिक जाम में कैसे जान पर खेलता है—उसके मानस को समझना सबके लिए आसान नहीं। मॉल में लगातार खड़े रहते हुए ड्यूटी करने वालों की घुटने की परेशानी कितने लोगों को मालूम है? बेरोज़गारी, छंटनी, असुरक्षित भविष्य से परेशान-हाल लोगों की कहानियों की चर्चा को तो ‘तेज़-तर्रार आलोचक’ आउटडेटेड मानने लगे हैं। जिसके पास अपने समकाल को पढ़ने की फ़ुर्सत नहीं वह आज की परेशानियों को समझने की जोखिम कैसे लेगा?

यूँ आप देखेंगे कि पिछले सवाल के जवाब में मैंने जिन रचनाकारों का नाम लिया है, उनमें से कई नए चरित्रों को पकड़ने की जोखिम लेते हैं।



नजरिया (वैचारिक लेख/ संपादकीय)



आशीष सिंह - आपकी कहानियों में लोकजीवन अपनी ध्वनि के साथ उपस्थित मिलता है जैसे रेणु की रचनाओं में। क्या यह मैथिली क्षेत्र की माटी की धुन है जो गीतों, पक्षियों के कलरव और पेड़-पौधों की हरहराहट कथा में विन्यस्त मिलती है? ‘नाच के बाहर’ की खंजन व ‘रोटी-मछली’ की रधिया की पीड़ा, हर्ष, उम्मीद हर मुकाम पर प्रकृति की सह उपस्थिति दीख पड़ती है। आपको नहीं लगता कि हमारे समय की कहानियों में प्रकृति की सहज-स्वाभाविक उपस्थिति गायब होती जा रही है?

गौरीनाथ - वातावरण की निर्मिति कथा-परिवेश के साथ विषय-वस्तु के निरूपण-उद्देश्य पर भी निर्भर करती है। ‘नाच के बाहर’ या ‘मानुस’ एक ही मिथिला समाज की कथा है, लेकिन उसके वातावरण-निरूपण के पैटर्न में अंतर है। ‘नाच के बाहर’ में सामंती और दलित पृष्ठभूमि के साथ डोम समाज से जुड़े लोकनाट्य का उपयोग हुआ है जिसके सारे गीत मैंने अपनी माँ के कंठ से लिये थे। ‘मानुस’ में स्त्री-स्वप्न और द्वन्द्व के समानांतर दंतकथाओं के साथ भेम-कीड़ा का भय है, तो तिल-चन्नी खेत और उसके नीले फूल के साथ पसीने की गंध का सुमेल करने का प्रयास रहा। उसी समाज-परिवेश की कथा ‘जलन’ और ‘सहोदर’ भी है, लेकिन यहाँ वातावरण निरूपण की शैली एकदम बदल गई है। ‘जलन’ में कोई किस्सागोई नहीं है। कथा-शिल्पी अमरकांत के शब्दों में ‘दो गोतिया भाइयों से ब्याही दो बहिनों के स्वाभाविक राग-द्वेष के बीच से होती हुई यह रचना पुष्प की तरह प्रस्फुटित है, जिसमें मिहनत और स्वाभिमान के चटक रंग हैं।’ बदलते श्रम-संबंध की छवि-छटा के बीच वातावरण होते हुए भी लगभग गौण है। इसी तरह ‘सहोदर’ में राजनीति और जीवन के तलछट से उपजी नाटकीयता के आगे वातावरण का रंग पूरी तरह बदला हुआ है।   

आज जो ग़ौरतलब कहानियाँ आ रही हैं, निश्चित रूप से उनमें वातावरण का काफ़ी हद तक ख़याल रखा जाता है। जिन कथाकारों के निजी जीवन और उनके चरित्रों के जीवन में वातावरण के कोई रंग और धुन ही नहीं, उनकी कथाओं से इसकी उम्मीद कैसे की जा सकती है? आप देखेंगे कि अनिल यादव, सत्यनारायण पटेल, श्रीधरम, नवनीत नीरव, श्रद्धा थवाइत आदि की कहानियों में वातावरण बड़ा महत्त्व रखता है। प्रकृति इनकी कहानियों में कई बार पात्र की तरह महत्त्वपूर्ण हो जाती।  

‘नाच के बाहर’ और ‘मानुस’ की कहानियों में परिवेश-चित्रण, प्रकृति व लोकजीवन की सजग उपस्थिति कथा में जिस तरह से विन्यस्त नज़र आती है आगे चल कर प्रकृति व जीवन परिवेश की सजग-सहज उपस्थिति की जगह डिटेलिंग लेती जाती है। पात्र व परिवेश के बीच से जनमती कथा कभी-कभी नैरेटर का हाथ थामने की ओर बढ़ने लगती है।



आशीष सिंह - ‘संकेतनों’ का इन्तजार करने का समय नहीं है। कथाकारों पर विषय का यह दबाव आज की कहानी पर क्या बढ़ता जा रहा है? डिटेलिंग और संकेतन के बीच चल रही कथा-यात्रा को एक कहानीकार के तौर पर आप कैसे देखते हैं?

गौरीनाथ - मुझे लगता है, लेखक को अपना शिल्प बार-बार तोड़ते रहना चाहिए। इसके अपने ख़तरे भी हैं। पिछले दशक में, ख़ासकर ‘पैमाइश’ और ‘हिन्दू’ में, डिटेल्स के ज़रिए मैटाफर/एलोगरी रचने की कोशिश हुई है, लेकिन प्रकृति के साथ। ‘पैमाइश’ में तो कोसी-मिरचैया नदी और वहाँ की प्रकृति के चित्रण लगातार खिंचाते ज़रीब की चमक के साथ कुछ अधिक हो जाने का डर मुझे सता रहा था, लेकिन जब ज्ञानरंजन जी ने उसको इसकी ‘जान’ बताया तो आगे उसका संपादन मैंने छोड़ दिया। यूँ अब अपनी अधिकांश कहानियाँ कमज़ोर और बचकानी लगती हैं, इसलिए कोई सफ़ाई देना उचित नहीं। हर बार कहानी की शुरुआत प्रशिक्षु की तरह करता हूँ और लिखते-लिखते सीखने का प्रयास करता हूँ।  

गत वर्ष 2023 में जो मेरी सबसे ताज़ा कहानी ‘कुआँ’ छपी है, उसमें पात्रों से ज़्यादा पेड़-पौधे, पक्षी, कुआँ, सूखते-तहाते कपड़े, चाय के प्याले आदि जैसे घरेलू ‘एसेट्स’ ज़्यादा बोलते हैं।



हिन्दी उपन्यास



आशीष सिंह - गौरीनाथ जी आपकी कहानियों में ग्रामीण जीवन में आ रहे बदलाव और जीवन को देखने के परम्परागत ढंग के बीच हो रही कशमकश कई बार देखने को मिलती है। आपकी शुरुआती कहानियों में उपस्थित गांव धीरे-धीरे करके बदलता चला गया दीखता है। आम ग्रामीण जीवन की जद्दोजहद, दुःख से उबरने की कोशिश व सहज ही भरोसा कर लेने वाला गंवई मन वाले पात्र ज्यों ही उन्नति के उजले राहों के राहगीर बनते जाते हैं उनके पारिवारिक सम्बन्धों में दरकने, चिटकन साफ-साफ दीखने लगती है। तमाम छल-छद्म व स्वार्थ का नंगनाच नितांत निजी सम्बन्धों में दिखता है। ‘मौके’ का नायक अपने हिस्से की जमीन हड़प लिये जाने के साथ अपने सगे भाई से ही धोखे का शिकार होता, तो ‘पैमाइश’ में पैतृक जमीन की पैमाइश के बहाने कोसी क्षेत्रीय ग्रामीण समाज के मन की पैमाइश सामने आती है। ग्रामीण जीवन में प्रवेश कर चुके सम्बन्धों व जमीन के अन्तर्विरोध को आप कैसे देखते हैं?       

गौरीनाथ - ‘मौक़े’ (2001) उन घटनाओं के निकट की कहानी है जिनमें अपने ही सगे को मृत और नाऔल्द घोषित कर ज़मीन हथिया ली जाती। उत्तर प्रदेश मृतक संघ ने बहुत-से मामले को कोर्ट के सामने लाया जिस विषय पर 2021 में पंकज त्रिपाठी अभिनीत ‘काग़ज़’ फ़िल्म भी आई है। अफ़सोस कि यह कहानी विषय की गंभीरता के अनुकूल प्रभावशाली नहीं बन पाई और बहुत कम लोगों का ध्यान इसकी तरफ गया।

‘पैमाइश’ (2015) ऊपरी तौर पर संबंधों के टूटने-छीजने की ही कहानी है जहाँ जिम्मेदारी, नैतिकता और तमाम आदर्श दिखावे-भर के लिए हैं। गहरे अर्थों में यह कहानी पूरे कोसी इलाक़े की चिंता है जहाँ के लोगों के मन को व्यवस्था या मीडिया कोई समझने के लिए तैयार नहीं। जैसे दंतकथाओं में दलित युवक रन्नू से प्रेम करनेवाली कोसी को उसका बाप जबरन एक धनवान बूढ़े को बेच देता है, उसी तरह हमारी सरकार लाखों कोसीवासियों की समस्या को समझे बग़ैर ग़ैरजिम्मेदार मीडिया की झूठी ख़बरों के आधार पर बेघर होने को हाँक देती है। कहानी में नेपाल के सिंधुपाल चौक ज़िले में पहाड़ ढहने से सोन कोसी का मार्ग अवरुद्ध होने की घटना के बाद भारतीय टीवी चैनलों की ख़ौफ़नाक ख़बरों का प्रसंग याद कीजिए। यह कहानी ज़मीन से ज़्यादा मन की पैमाइश की है। कोसी इलाक़े की विडंबना है कि नेपाल के मन को समझे बिना भारत सरकार की मनमानी से पीड़ित है। यहाँ छोटी-छोटी उपकथाओं, ख़बरों, प्रकृति के विविध रंगों के साथ गुनिया-प्रकार और जरीब की भी शायद कुछ भूमिका है।     

बहरहाल गाँव के प्रति हम सब जब तक नोस्टेलजिक रहेंगे, उसके यथार्थ को शायद नहीं पकड़ पाएंगे। जहाँ तक आज के ग्रामीण यथार्थ का संबंध है, गाँव-शहर के बीच की दीवार टूट गई है। शहर के लिए कीटनाशक युक्त अन्न-सब्जी उपजाने वाला हमारा प्यारा-सा लगनेवाला गाँव शहर के ताप को अवशोषित करते-करते आज ज़्यादा गर्म हो गया है। याद रखें कि गर्म तवे पर बूँदें गिरती हैं तो तेज़ी से वाष्पित होती हैं। धर्म का अफ़ीम हो या जाति का चरस—इसकी खेती भी अब गाँव की तरफ़ बढ़ गई है।



आशीष सिंह - ‘पहल’ पत्रिका के कहानी अंक में आपकी एक कहानी ‘हिन्दू’ आई थी। शाहीनबाग, एनआरसी, समाज में प्रतिक्रियावादी ताकतों का बढ़ता वर्चस्व, रक्त-सम्बन्धों में प्रवेश कर पूंजी अपने नग्न रूपों में रिश्तों की नुमाइश दिखा रही है और अन्त आते-आते कथा-नायक की हत्या कलबुर्गी, गोविंद पानसारे जैसे बौद्धिक ताकतों, कलाकारों की हत्या की याद दिला देती है। वर्चस्वशाली समय में सामाजिक-पारिवारिक परिवर्तन गांव से लेकर शहर में किस तरह से हो रहा है, हमारे आज का यथार्थ कैसा है, इस कहानी में इस तथ्य की डिटेलिंग खूब है। तमाम खूबियों के बावजूद एक पाठक के तौर पर इस कहानी से गुजरते हुए कुछ सवाल बार-बार मन में उठते हैं।

‘हिंदू’ कहानी में उत्पल की पहचान कैसी है उसका व्यक्तित्व, उसकी गतिविधियां या उसकी सामाजिक भूमिका कहानी में क्यों नहीं उभर पा रही है? जबकि समान्तर तौर पर कहानी की मूल आत्मा पुरानी पीढ़ी की प्रतिनिधि मां ज्यादा व्यवहारिक, ज्यादा सजग और एक मायने में अग्रसर भी नज़र आती हैं। पारिवारिक सम्बन्धों व सामाजिक सम्बन्धों में आ चुके बदलाव, समाज में पैठ बना चुकी प्रतिक्रियावादी ताकतें अपने हितों के लिए सत्ता सम्बन्धों का भी इस्तेमाल कर ले रही हैं, यह सच है। यहां हमारा समकाल तो है लेकिन प्रस्तुति स्थैतिक है, अन्तरक्रिया नदारद है। ‘हिन्दू’ नए बन रहे भारत के अन्दर बाहर की कहानी कहता है, चीजों को बायनरी में दिखाता भी है लेकिन न तो मुख्य पात्र न ही कहानी इस बायनरी का अतिक्रमण करके बाहर जा पाती है ? गौरीनाथ जी! एक कहानीकार प्रत्यक्ष तौर पर जो देख रहा है क्या वहीं तक सीमित नहीं हो जा रहा है? कहानी में संवेदनहीन होते रिश्तों के बीच संवेदनशील बेटे की भूमिका तो स्पष्ट है लेकिन उसकी सामाजिक भूमिका एक कलाकार की है, उसकी पहचान भी उसी से बनती है। क्या वजह है कि इस एक्टीविस्ट कलाकार की पहचान कहानी में बहुत धूमिल है? इस मायने में आपकी कहानी ‘दुरंगा’ रखकर देखने पर हम इसके ठीक विरोधी निष्कर्ष तक पहुंच सकते हैं। वहां लम्बाई बाधा नहीं, सम्बन्धों के टूटते तारों के बीच अंधेरे आसमान में नए तारे ऊगते नजर आते हैं। दोनों कहानियों के बीच इतना फर्क?

गौरीनाथ - अपनी कहानी पर लेखक को कोई सफ़ाई नहीं देना चाहिए। हो सकता है, ‘हिन्दू’ में कुछ कमियाँ रह गई हों। जहाँ तक ‘हिन्दू’ और ‘दुरंगा’ कहानी के प्रभाव में अंतर का सवाल है, यह स्वाभाविक है। ‘दुरंगा’ के केन्द्रीय पात्र झबरु बाबा एक क़िस्सागो है। इस कहानी के भीतर और समानांतर एक और कहानी चलती है। यहाँ कथारस का परिपाक दो स्तरों पर होता है—पारंपरिक और आधुनिक दो शैलियों में। इसके उलट ‘हिन्दू’ बिल्कुल अलग धरातल की एक जटिल और निर्मम कहानी है—अलग-अलग रूपक के ज़रिए खुलती। एक तरफ़ दंगे की क्रूर घटनाओं की तफ़सील के साथ व्यवस्था पर सवाल है, तो दूसरी तरफ़ इन्सान के धर्म में अवमूल्यित होने की अवधारणात्मक पड़ताल। पहले ही मैंने कहा है, दो-तीन राजनीतिक कहानियों में मैंने प्रयोग के तौर पर नेरेटर को मैटाफर गढ़ने की कुछ छूट दी है। कहना बस इतना कि इस हिन्दूवादी समय में ‘हिन्दू’ होकर भी आप सुरक्षित नहीं रह सकते। डिटेन्शन सेंटर सिर्फ़ उसके लिए नहीं बन रहा है जिसके लिए हम-आप मान रहे हैं। न स्वास्तिक काम आएंगे न हनुमान चालीसा। हत्यारे किसी के नहीं होते।

कहानीकार वर्तमान को भले लिख रहा हो, लेकिन उसकी नज़र भविष्य पर रहती है। मैंने तो भविष्य के ख़तरे को आगाह करने के लिए ही यह कहानी कहने की कोशिश की है।

पाठ-प्रभाव में अंतर के संदर्भ में इतना और कहूँगा कि झुलसी हुई रोटी का स्वाद पराठे की तरह लज़ीज़ नहीं हो सकता।   



आशीष सिंह - ग्रामीण जीवन में बदल रहे भूमि-सम्बन्धों का सवाल, कृषि अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर चुका बाजार परम्परागत सामुदायिक ताने-बाने के ऊपरी रागात्मक रंग-रोगन की कलई उतारने में लगा है तो तद्जनित उपजी बेकारी, भूमिहीन तबके के जीवन का असहायताबोध आपकी कहानियों में बार-बार आता है। यहां निराश चरित्रों की तुलना में स्थितियों से जूझते चरित्रों की कमी नहीं है। ‘पैमाइश’, ‘मौक़े’, ‘बीज-भोजी’, ‘एक एकाउंटेंट की डायरी में मिट्टी की गंध’ जैसी कहानियों में अलग-अलग ढंग से ‘माटी’ का सवाल, माटी को देखते नजरिए का सवाल हमसे टकराता है। किसानी अर्थव्यवस्था में हो रहे इस बदलाव को समकालीन कहानीकार कैसे देख रहे हैं? क्या आपको नहीं लगता कि बदल रहे ‘भू उपयोग’ ने सामाजिक-सांस्कृतिक चेतना को अन्दर से बेहद छिन्न-भिन्न कर रखा है? हमारा आज का कथाकार इस सवाल को क्यों कर अनदेखा कर रहा है जबकि सत्तर के दौर के तमाम कहानीकार तत्कालीन बदलाव को दर्ज करने में पीछे नहीं थे। आज का कहानीकार शहरी मध्य वर्ग या ग्रामीण मध्यवर्गीय जीवन के इर्द-गिर्द धमाका करता मिलता है। गर गांव वहां है भी तो महज ‘अतीत राग’ के तौर पर?

गौरीनाथ - आज के ग्रामीण यथार्थ को लेकर आ रही कहानियों को समझने के लिए सत्तर के दशक के कहानीकारों से तुलना मेरे ख़याल से बहुत उपयुक्त नहीं। अच्छी कहानियाँ कम भले हैं, लेकिन आज भी आ रही हैं।

जब शहर-नगर और व्यवस्था का हस्तक्षेप जीवन के तमाम पक्षों पर बढ़ा है और सीधे-सीधे फ़ासीवाद की वकालत की जा रही है, तो फिर साहित्य इससे अछूता कैसे रह सकता है? आज किसान-विरोधी साहित्य लिखा जा रहा है और किसान आंदोलन को विपक्ष का हथकंडा बताया जा रहा है, मज़दूर-बस्ती को उग्रवादियों का मुहल्ला घोषित किया जा रहा है, अघोषित इमरजेंसी को जायज ठहराया जा रहा है। हमारे साहित्यकारों का नब्बे-पंचानबे प्रतिशत कुनबा यश-पुरस्कार के लिए सत्ता के आगे नतमस्तक है। उनसे आप किस तरह की कहानी की अपेक्षा करते हैं?  

अतीत-राग का जमाना चला भले गया है, लेकिन सत्ता के आँगन में कीर्तन करने वाले लेखकों का जमीर जब जगता है तो थोड़े कम झूठ बोलने के लिए वह अतीत के शरण में जाना बेहतर समझता है। इसलिए आज शहरी और ग्रामीण यथार्थ में फ़र्क़ तलाशने से बेहतर है कि हम हाशिये पर ढकेले जा रहे सच को पकड़ें और उसको कहानी में जगह दें। देखना है कि उद्योग-धंधे में लगे मज़दूर साहित्य से बाहर क्यों है। 2017 में फरीदाबाद के पास असावटी स्टेशन पर दो सौ लोगों की भीड़ 12-13 साल के एक युवक जुनैद की हत्या करती है और एक भी आदमी ऐसा नहीं मिलता जो हत्यारे को देखने की बात स्वीकार करे। सीसीटीवी से लेकर स्टेशन स्टाफ तक कोई सच स्वीकार नहीं करता। ऐसे में आज की कहानी में उस व्यक्ति की तलाश ज़रूरी है जो तंग-अंधेरे कमरे में बैठा अपनी आँखों-देखी का बयान करने के लिए परेशान हो रहा हो।   




गौरीनाथ का दूसरा कहानी संग्रह

       

आशीष सिंह - आपकी अधिकांश कहानियों में स्त्रियों की सजग उपस्थिति है जबकि दलित जीवन की तस्वीर ‘नाच के बाहर’, ‘महागिद्ध’, ‘रोटी मछली’, ‘भरोसा’ जैसी कुछ ही कहानियों में है। मौजूदा समय में स्त्री विमर्श, दलित विमर्श कथा-कहानी में केन्द्रीय जगह पा रहे हैं। आप इन विमर्श मूलक आख्यान को कहानी में इस्तेमाल होने वाले पैटर्न के रूप में देखते हैं या कथा जगत में हो रही महत्वपूर्ण तब्दीली के रूप में? क्या यह अनायास है कि जहां जाति उत्पीड़न का मामला घनीभूत होकर सामने आता है वहीं साम्प्रदायिक तनाव पर जोर कम है और जहां साम्प्रदायिक तनाव के विरुद्ध जोर है वहां जातिगत उत्पीड़न को श्रम-शोषण में रिड्यूस कर दिया जाता है। ‘प्रगतिशील सवर्ण लेखक’ के यहां जितनी शिद्दत से साम्प्रदायिकता के सवाल को उठाया जाता है उतनी तीव्रता से जातिगत उत्पीड़न का सवाल नहीं। वहीं ज्यादातर दलित पृष्ठभूमि से आते लेखकों के लिए सामाजिक फासीवाद या साम्प्रदायिक शक्तियों से लड़ने से ज्यादा जोर ब्राह्मणवादी व्यवस्था से जूझने में दिखता है। आप अपनी कहानियों में इन सवालों को कैसे देखते हैं और समकालीन कहानीकारों के परिप्रेक्ष्य में भी कैसे देखते हैं?

गौरीनाथ - बचपन से ले कर अभी तक मेरा संग-साथ विभिन्न जाति-धर्मों के लोगों के साथ बहुत सहज और गहरा रहा है। मैंने इन समस्याओं को लेकर लगातार उठाया भी है। मेरी समझ यह रही कि सवर्णों ने अपने शास्त्रों के बल पर शूद्रों-स्त्रियों का शोषण जितने स्तरों पर किया है, उसके विभिन्न संस्तरों को दिखाने का प्रयास एक सवर्ण लेखक को बहुत ईमानदारी और साहस के साथ करना चाहिए। शायद यह लेखन उनके पूर्वजों के पाप का एक सीमा तक प्रायश्चित भी हो सकता है। मैं दलित और स्त्री विमर्शों का स्वागत करता हूँ। यूँ मेरे खाते में दलित-प्रसंग की कहानियाँ छिटपुट हैं, लेकिन मैथिली में लिखा गया उपन्यास ‘दाग’ दलितों के शोषक-उत्पीड़क एक पंडित के आत्मालाप से शुरू होकर समग्रतः हज़ारों साल के दलित और स्त्री-प्रश्न के विस्तार में जाता है। सांप्रदायिकता और धर्म की राजनीति के मसले पर ‘हिन्दू’ और ‘गणित’ जैसी कहानियों के अलावा समग्रतः ‘कर्बला दर कर्बला’ उपन्यास है। मेरी रचनाओं के अधिकांश चरित्र बहुजन समाज से आते हैं। मैंने कभी जाति-दंश, स्त्री-प्रश्न और सांप्रदायिकता की समस्या में से किसी को अवमूल्यित कर के आँकने की कोशिश नहीं की। हाँ, स्त्री को मैं सबसे ज़्यादा शोषित ज़रूर मानता हूँ जिसके शोषकों में सभी वर्ग-वर्ण के पुरुष शामिल है। इस विषय से संदर्भित ‘दुनियादार’, ‘मानुस’ आदि को विशेष सराहना भी मिली। 

जहाँ तक कुछ लेखकों की तरफ़ से समग्र सामाजिक चिंता को बाँटकर या टुकड़ों में काट कर देखने का प्रयास है, यह उनकी चयनवादी दृष्टि का परिणाम है। यहाँ अपने-अपने राजनीतिक आकाओं को तुष्ट करने और फंड हासिल करने जैसे लेखकों के गुप्त उद्देश्य भी छुपे हुए हो सकते हैं।  



आशीष सिंह - आपकी सबसे अच्छी कहानियों का जिक्र करना हो तो मैं ‘नाच के बाहर’, ‘महागिद्ध’, ‘दुरंगा’ और ‘किवाड़’, ‘एक एकाउंटेंट की डायरी में मिट्टी की गंध’ व ‘बीज-भोजी’ का नाम लेना चाहूंगा। आप को सन् सत्तर के बाद लिखी गईं किन्हीं दस महत्वपूर्ण कहानियों का नाम लेना हो तो किन कहानियों का जिक्र करना चाहेंगे?

गौरीनाथ - तत्काल जो कहानियाँ याद आ रही हैं, वे हैं—‘बलि’ (स्वयं प्रकाश), ‘जल-प्रांतर’ (अरुण प्रकाश), ‘बलैत माखुन भगत’ (विजयकांत), ‘नस्ल’ (दिनेश पाठक), ‘सलाम’ (ओमप्रकाश बाल्मीकि), ‘ढोल-ढकेल’ (प्रह्लाद चंद्र दास), ‘ज़रूरी माल’ (नूर जहीर), ‘बाज़ार में रामधन’ (कैलाश बनवासी), ‘दंगा भेजियो मौला’ (अनिल यादव), ‘अंतिम इच्छा’ (रामजी यादव)। निश्चित रूप से यह चयन अपूर्ण है और झटपट में चुना गया है। फिर भी इन कहानियों से गुज़र कर आप मोटे तौर पर एक अनुमान तो कर ही सकते हैं कि मेरी पसंद की कहानियाँ किस ज़मीन और भाव-भूमि पर खड़ी हैं।


 

आशीष सिंह - प्रेमचंद का कहना था कि ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है।’ आज के समय में इसे आप किस तरह से देखते हैं?

गौरीनाथ - आज साहित्य राजनीति के सामने एक बला है। आज की राजनीति को मशाल की कोई ज़रूरत नहीं। आज लिखे जा रहे सम्पूर्ण साहित्य के चार-पाँच प्रतिशत से ही सरकार को थोड़ी परेशानी होती है और वही उसके लिए बला है। इस बला को दूर रखने या उसके इलाज के मकसद से हर पार्टी की सरकार अपने अकादमियों और भाषा-संस्कृति विभागों के ज़रिए 95 प्रतिशत यशःप्रार्थी-पुरस्कारजीवी लेखकों को संरक्षित-संवर्द्धित करती है। इसीलिए आज हमारे अधिकांश पुरस्कार और लेखक दोनों महत्त्वहीन हो गए हैं। बला साबित हो रहे जो थोड़े से लेखक हैं, उनको व्यवस्था की तरफ़ से पहले इग्नोर किया जाता और फिर भी बात न बने, कोई लेखक परेशानी का बड़ा सबब बन जाए तो उसके लिए पहले ईडी-आईटी के अफ़सर फिर यूएपीए जैसी धाराएँ तो हैं ही।



आशीष सिंह - साहित्यिक गतिविधियों के लिए साहित्यिक संगठनों के योगदान को आप आज के समय में कैसे देखते हैं?

गौरीनाथ - इस मसले से संदर्भित मेरे विचार ‘हंस’ के पन्नों से लेकर विभिन्न अवसरों पर लिखे आलेखों में आए हैं जो ‘समय की ख़राद पर’ पुस्तक में संकलित हैं। यहाँ संक्षेप में मैं इतना ही कहना चाहूँगा कि कभी बहुत महत्त्वपूर्ण रहे हमारे ये लेखक-संगठन अब लगभग अप्रासंगिक हो गए हैं। अब इनके अध्यक्ष-सचिव अपने कुनबे के लेखकों के थानेदार लगते हैं अथवा एनजीओवालों की तरह। सोच की नुमाइश एक तरफ़ और अफ़सरशाही और जाति-वर्चस्व की क्षुद्र साहित्यिक राजनीति एक तरफ़।    


तीसरा कहानी संग्रह



आशीष सिंह - ‘हंस’ की सम्पादकीय टीम में आपके रहते हुए उसके कई उल्लेखनीय अंक प्रकाशित हुए थे। क्या इससे पहले भी आप किसी पत्र-पत्रिका में रहे हैं? ‘हंस’ के सम्पादन काल की कुछ सीखें, कुछ चुनौतियां जब-तब याद आती होंगी? कथाकार राजेंद्र यादव और सम्पादक राजेन्द्र यादव में किसकी भूमिका ज्यादा महत्वपूर्ण है? एक लोकतांत्रिक विमर्शकार के साथ उनकी छवि एक विवाद प्रिय सम्पादक की भी रही है। आज जब आप स्वयं एक साहित्यिक पत्रिका का सम्पादन कर रहे हैं तब सम्पादक राजेन्द्र यादव की भूमिकाएं कैसे याद आती हैं?

गौरीनाथ - ‘हंस’ में आने से पहले मेरा अख़बारों में काम करने का अनुभव था। यूँ सहरसा में रहते इलाहाबाद से प्रकाशित ‘कथ्य-रूप’ (1993) के एक विशेष अंक का संपादन किया और दरभंगा में रहते सोलह-पेजी फ़ोल्डर पत्रिकाओं (‘शिखा’ और ‘समय-संदर्भ’ ) की टीम से सघन जुड़ाव रहा था।

‘हंस’ में दस साल तक काम करना गहरे लगाव-जुड़ाव के बिना कैसे संभव था? अपना सबसे ऊर्जावान समय मैंने वहाँ लगाया था। वहाँ काम करने से जुड़ी इतनी सारी यादें हैं कि बातों-बातों में बताना संभव नहीं। वहाँ काम करते हुए बहुत कुछ सीखा जिनमें से एक यह कि विवाद से जितना संभव हो दूर ही रहना श्रेयस्कर। वहाँ की सबसे बड़ी कमाई के रूप में देश के हर कोने में फैले हज़ारों मित्र हैं। राजेन्द्र जी के कहानीकार और संपादक को विलगा कर परखना मेरे ख़याल से ग़लत होगा। वह दूरदर्शी लेखक-संपादक थे तो बहुत ही सतर्क-सजग और हाज़िरजवाब इन्सान।


 

आशीष सिंह - आप मैथिली और हिन्दी दोनों में साहित्यिक पत्रकारिता व प्रकाशन का काम कर रहे हैं। प्रेस, प्रकाशन व सम्पादन के बीच लेखन-कार्य काफी चुनौतीपूर्ण होता होगा। क्या सम्पादन कार्य आपके लेखक की जगह सिकोड़ता जाता है?

गौरीनाथ - सच कहूँ तो कहानी-उपन्यास लिखने वाले को प्रकाशक कभी नहीं होना चाहिए। ऊपर से संपादक!... लिखने के लिए समय निकालना कठिन ही नहीं, महा-कठिन होता है। रोज़ी-रोज़गार के कामों को ठुकरा कर यानी पेट पर लात मार कर लिखने के लिए समय निकालता हूँ। उस पर व्यवस्था-विरोधी लेखन... लेकिन जैसे भी हो लिखने के अलावा अपनी लड़ाई लड़ने और अपने जमीर को बचाए रखने के लिए मेरे पास कोई और विकल्प भी तो नहीं है।    



आशीष सिंह - आज के घनीभूत अंधेरे समय में क्या आपको लगता है साहित्य की कोई प्रासंगिकता बची है? समाज को साहित्य की जरूरत है? आज इसका दायरा लगातार सिकुड़ने की ओर है या अन्यान्य माध्यमों से सामाजिक सरोकारों से लैस साहित्य का परिक्षेत्र विस्तृत हुआ है?           

गौरीनाथ - साहित्य की ज़रूरत लगातार रही है और आगे भी रहेगी। जब इंटरनेट से जुड़े तमाम संजाल नहीं थे, इतने चैनल नहीं थे, लोगों पर काम का इतना दबाव नहीं था—तब फ़ुर्सत के क्षण में लोग साहित्य के शरण में जिस तरह जाते थे वैसा लगाव तो इस दौर में संभव नहीं है, लेकिन आज भी किताबें लगातार पढ़ी जा रही हैं। ई-बुक, किन्डल, वेबसाइट्स पर जो पाठ्य-सामग्री उपलब्ध हो रही वह भी तो उसी का वैकल्पिक रूप है।

एक बात कि बड़े प्रसार वाले हिंदी अख़बार और कॉमर्शियल मैगजीन में साहित्य के लिए जगह कम होने का इस भाषा के साहित्य को बड़ा नुकसान हुआ है। यूँ अंग्रेज़ी के महत्त्वपूर्ण अख़बारों में आज भी बुक रिव्यू पर ध्यान दिया जाता है। हिंदी में सामान्यतः पुरस्कारजीवी साहित्य के लिए जगह उतनी नहीं सिकुड़ी है जितनी प्रतिरोधी साहित्य के लिए।



गौरीनाथ का पहला मैथिली उपन्यास


   

आशीष सिंह - आपका प्रिय रचनाकार?

गौरीनाथ - विश्व साहित्य में चेखव, हिंदी में अमरकांत, मैथिली में हरिमोहन झा।   



आशीष सिंह - आपकी प्रिय पुस्तक?

गौरीनाथ - खट्टर काका (हरिमोहन झा)


 

आशीष सिंह - आपकी अपनी प्रिय कहानी?

गौरीनाथ - अभी लिखना बाक़ी है।


 

आशीष सिंह - आपका प्रिय शौक?

गौरीनाथ - लिखना, यात्रा करना, नदी किनारे घंटों अकेले बैठे रहना।



आशीष सिंह - आपका प्रिय भोजन?   

गौरीनाथ - माछ-भात और दही-चिउड़ा।  



आशीष सिंह - आपका आदर्श सम्पादक?

गौरीनाथ - अभी तक कोई नहीं।



आशीष सिंह - आपका ध्येय वाक्य?

गौरीनाथ - जो काम सामने है पहले उसको पूरा करो।



आशीष सिंह - आपका प्रिय रंग?

गौरीनाथ - टुहटुह लाल (जवाकुसुम-सा)



आशीष सिंह - आपका प्रिय शहर?

गौरीनाथ - जल्लासोट (बचपन में अनायास ज़ुबान पर आया एक शहर जो ग्लोब पर कहीं मिला ही नहीं।), भागलपुर जिसका स्थान लेते-लेते अचानक भाग गया।






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जानकीपुरम, 

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टिप्पणियाँ

  1. भक्तिभाव रुप मे सात्क्षात्कार.

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    2. कथाकार राजा सिंह जी आपको यह साक्षात्कार ' भक्ति रुप में सात्क्षात्कार' लगा। यह मेरे लिए विचारणीय है। आपकी टिप्पणी का स्वागत है।

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  2. टिप्पणी भाग - 1 अलग तरह का साक्षात्कार। बेबाक सवाल और उनका उतना ही बेबाक उत्तर!
    लेखक के आखिरी जवाब से शुरू करूँ तो- आपकी प्रिय कहानी? के उत्तर में ‘अभी लिखी बाकी है! गौरीनाथ का यह जवाब तमाम आत्ममुग्ध लेखकों को सोचने के लिए स्पेस देता है। इसी तरह हर एक के अंदर एक अदृश्य ‘जल्लाकोट’ की असमाप्त तलाश ही उसे सृजन किसी भी विधा की ऊंचाइयों पर ले जाती है। ‘खट्टर काका’ कई बार पढ़ी है, संग्रह में है। आज के वक़्त में एक ख़तरनाक किताब, जिसके पाठों का उल्लेख ‘कितनों’ की भावनाएँ आहत कर सकता है।
    ‘साहित्य की कोई प्रासंगिकता’ का प्रश्न शाश्वत, खासकर आज के माहौल में, व्यवस्था द्वारा क्रिएट किए हुए समय में पाठक ही नहीं लेखकों के आगे अंधेरा का आभास होता है। लेखक का कहना – ‘ई-बुक, किन्डल, वेबसाइट्स पर जो पाठ्य-सामग्री उपलब्ध हो रही वह भी तो उसी का वैकल्पिक रूप है।‘ सही है। समय-समय पर माध्यम बदलते रहे हैं। एक लेखक का अनुभव और एक तरह से व्यथा ही है कि - कहानी-उपन्यास लिखने वाले को प्रकाशक कभी नहीं होना चाहिए। ऊपर से संपादक!.लेकिन एक पाठक-कम-लेखक होने कारण कह सकता हूँ कि एक लेखक ही बेहतर संपादक और प्रकाशक हो सकता है। अपने सहकर्मियों की रचनाओं का मूल्यांकन उससे बेहतर और कौन कर सकता है? चाहे राजेन्द्र यादव हों या कोई अन्य। यद्यपि लेखक के रूप में इस पर विपरीत प्रभाव तो पड़ता ही है।
    यद्यपि साहित्यिक संगठनों के बारे में लेखक के विचारों से, बातें सही प्रतीत होते हुए भी, असहमति है। आज संपर्क-संवाद के माध्यमों के साधनों के बढ्ने के बावजूद लेखकों के बीच संवाद घटता प्रतीत होता है। लेखकों के, खासकर ज्वलंत सामयिक मुद्दों पर एक तरह से सोचने वालों के लिए एक साथ बैठकर बात, विमर्श करने के लिए साहित्यिक संगठन एक मंच तो बनते ही हैं।
    प्रेमचंद ने साहित्य को भले मशाल कहा हो लेकिन लेखक का कहना आज की एक कटु सच्चाई है – ‘आज साहित्य राजनीति के सामने एक बला है।‘ राजनीति ही नहीं बाज़ार, धर्म, अर्थ हर सत्ता के लिए साहित्य ख़तरा पैदा करता है। लेकिन सत्ताएँ अपने-अपने तरीके से इसे मैनेज भी कर लेती हैं। विडम्बना यह है कि प्रेमचंद के अनुसार जिनके हाथों में मशाल थामने की जरूरत थी, उनको बक़ौल लेखक ‘पुरस्कारों-सम्मानों अन्यथा उनके लिए ईडी-आईटी के अफ़सर फिर यूएपीए जैसी धाराएँ तो हैं ही।‘
    लेखक द्वारा सत्तर के बाद की महत्त्वपूर्ण कहानियों के नाम जरूरी इस लिए भी हैं, कि इनमें जो कहानियाँ हम लेखक-पाठकों ने नहीं पढ़ीं, उन्हें पढ़ना जरूरी है।

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  3. टिप्पणी भाग - 2 इंटरव्यू में लेखक की कहानियों पर सवाल – ‘‘कहानी में इस्तेमाल होने वाले पैटर्न के रूप में देखते हैं या कथा जगत में हो रही महत्वपूर्ण तब्दीली के रूप में?’ यह दर्शाता है कि इंटरव्यू लेने वाले ने केवल औपचारिक सवाल नहीं बल्कि लेखक की रचनाओं को समग्रता से पढ़कर सवाल किए हैं। (यह इस लिए कि ज़्यादातर साक्षात्कार औपचारिक रूप से लेखक की कुछ रचनाएँ पढ़कर ही लिए जाते रहे हैं) इस सवाल का उत्तर भी बचाव के लिए नहीं बल्कि सकारात्मक रूप से दिया गया है – ‘उसके विभिन्न संस्तरों को दिखाने का प्रयास एक सवर्ण लेखक को बहुत ईमानदारी और साहस के साथ करना चाहिए। शायद यह लेखन उनके पूर्वजों के पाप का एक सीमा तक प्रायश्चित भी हो सकता है।‘
    ग्रामीण समाज के लेखन पर भी अक्सर बात होती है। आशीष सिंह का प्रश्न - ग्रामीण जीवन में बदल रहे भूमि-सम्बन्धों का सवाल, कृषि अर्थव्यवस्था में प्रवेश कर चुका बाजार परम्परागत सामुदायिक ताने-बाने के ऊपरी रागात्मक रंग-रोगन की कलई उतारने में लगा है’, नए ढंग से देखा गया है। इसके उत्तर में लेखक का जवाब – ‘अतीत-राग का जमाना चला भले गया है, लेकिन सत्ता के आँगन में कीर्तन करने वाले लेखकों का जमीर जब जगता है तो थोड़े कम झूठ बोलने के लिए वह अतीत के शरण में जाना बेहतर समझता है।‘ आजके सत्ता-पोषित लेखकों पर तीखा कटाक्ष है।
    ‘हिन्दू’ कहानी के संबंध में प्रश्न के साथ संदर्भ (शाहीनबाग, एनआरसी, समाज में प्रतिक्रियावादी ताकतों का बढ़ता वर्चस्व, रक्त-सम्बन्धों में प्रवेश कर पूंजी अपने नग्न रूपों में रिश्तों की नुमाइश दिखा रही है) बताते हैं कि भले कहानी इतने पहले लिखी गई हो, परंतु लेखक भविष्यदृष्टा होता है। कहानी पढ़ी नहीं है, इसे अब पढ्ना अनिवार्य लग रहा है।
    लेखकों के लिए ‘विषय का यह दबाव’ पर सवाल मौजूं सवाल है। लेखकों पर विषय का दबाव हमेशा रहा है, संभवतः आज सबसे ज्यादा है। यद्यपि तात्कालिक अख़बार की ख़बरों को भी विषय बनाया जाता है, भले यह दीर्घजीवी न हों। गौरीनाथ जी का जवाब – ‘लेखक को अपना शिल्प बार-बार तोड़ते रहना चाहिए। इसके अपने ख़तरे भी हैं।‘ समकालीन लेखकों के लिए एक गाइडलाइन भी हो सकती है। इसी तरह ‘कहानियों पर लोकजीवन की ध्वनि’ का उत्तर – ‘वातावरण की निर्मिति कथा-परिवेश के साथ विषय-वस्तु के निरूपण-उद्देश्य पर भी निर्भर करती है।‘ भी लेखकों के लिए समझना जरूरी पॉइंट है। ‘टाइप्ड चरित्रों’ पर लिखने की सुगमता, प्रलोभन और रिस्क का जवाब - ‘टाइप्ड चरित्रों पर लिखना आसान तो है ही। होम-वर्क भी नहीं करना होता। विसंगतियों के शिकार विशिष्ट पर लिखने में सुविधा यह रहती है कि सनसनी जैसे पॉपुलर तत्वों का समावेश आसानी से हो जाता है और कहानी तुरंत चर्चित भी।‘ भी पाठकों के साथ लेखकों को सोचने का स्पेस देता है। इसी तरह कहानी में कथ्य, विचार, शिल्प ऐसे सवाल पर एक संपादक के नाते गौरीनाथ जी का उत्तर - एक मुकम्मल और दुरुस्त कहानी की तलाश रहती है, हर दृष्टि से।
    कहानी में ‘विचार’ की बात पर पुरानी बहस है। लेखक से ज्यादा संपादक के तौर पर गौरीनाथ जी का उत्तर – ‘ - - भाषा का टकसाल कितना ही समृद्ध हो, विचारहीन लेखन कालांतर में रीढ़विहीन और लिजलिजा साबित होता है। - -‘ विचारणीय है। कहानी क्यों लिखते हैं? कहानी की प्रेरणा? ऐसे सवाल लगभग हर लेखक के सामने आते हैं। इस साक्षात्कार में लेखक के उत्तर, संदर्भ व्यक्तिगत जीवन की बाते होए हुए भी रोचक होने के साथ उनकी कहानियों को समझने में मददगार होंगे।
    - प्रताप दीक्षित

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  4. यह एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार है। आशीष जी ने गौरीनाथ जी रचना-प्रक्रिया के संदर्भ में जरूरी सवाल किया है। प्रसन्नता है कि कथाकार ने पूरी ईमानदारी से जवाब दिया है। कहीं कोई आत्ममुग्धता नहीं है। दरअसल गौरीनाथ जी बाल्यावस्था से अनुभव की पाठशाला में प्रशिक्षित और दीक्षित होकर आगे बढ्ने वाले रचनाधर्मी हैं। इसीलिए उनकी रचनाओं में जीवन का ताप है।
    आपदोनों और पहलीबार को आभार सहित बधाई।
    ललन चतुर्वेदी

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  5. बहुत सुन्दर साक्षात्कार

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  6. सारगर्भित साक्षात्कार। हिन्दी कहानी के कई महत्त्वपूर्ण पहलुओं की ओर इशारा करता साक्षात्कार। रोचक तो इतना कि एक बैठिकी मे खत्म करना पड़े। आप दोनों को बहुत बहुत बधाई।

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  7. अच्छी बातचीत। पढ़कर मजा आया।

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  8. गौरी नाथ जी की रचनाओं और उनके सारे काम जिसमें पत्रिका निकालने से लेकर प्रकाशन चलाने तक की गतिविधि को जानने समझने में यह बातचीत महत्वपूर्ण है। क्योंकि यह चंद सवाल जवाब के रूप में नहीं बल्कि बातचीत के रूप में सामने आती है। आशीष जी बातचीत के सिरे को हाथ में पकड़ाते हुए दिखते हैं। बढ़िया है।
    - विजय गौड़

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  9. मोबाइल पर पढ़ते पढ़ते आंखें थकने लगीं। रोचक था, इसलिए पूरा साक्षात्कार पढना पड़ा। गंभीर, विचारत्तेजक और काफी कुछ समेट लिया आपने। कहानियां कम ही पढ़ता हूँ, लेकिन साक्षात्कार ने गौरीनाथ जी की कहानियां पढ़ने की उत्कंठा जाग्रत के दी। कुछ और उल्लिखित कहानियां भी देखता हूँ। बहुकोणीय साक्षात्कार कथा साहित्य पर आपकी आलोचकीय पकड़ को दर्शाता है। शुभकामनायें।
    रामशंकर वर्मा

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  10. ऐसा साक्षात्कार पढ़ने को मिला जिससे लगा कि साहित्य की इस विधा में साहित्य के साथ साथ साहित्यकार को भी ठीक ढंग से समझ सकते हैं। उसके परिवेश, समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारी को बखूबी जान सकते हैं।

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  11. अच्छी तैयारी के साथ आशीष जी ने साक्षात्कार लिया है।जवाब से कहीं अधिक सवाल महत्वपूर्ण होते हैं।यह यहाँ दिखता है।हिन्दी में सोचने-समझने-लिखने-कहने की अपनी स्टाइल है।अन्य भाषाओं में “बिटवीन द लाइन्स” की आदत बन चुकी है।हिन्दी में यह आना बाक़ी है।जहां तक “भक्ति भाव” का मामला है, यह कहना तो अनुचित लगता है।साक्षात्कार सकारात्मक व सदाशयता से भरा होना चाहिए।इस अखाड़े में पटका-पटकी अशोभनीय है।
    गौरीनाथ जी और आशीष जी, आप दोनों को बधाई।प्रकाशक और सम्पादक को धन्यवाद।
    -अरुण सिंह( सम्पादक, इंडिया इनसाइड)

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