अवनीश यादव का आलेख 'गांधी और प्रेमचंद का स्वराज्य'
स्वराज्य का सीधा साधा अर्थ होता है अपना राज्य। अंग्रेजी बेड़ियों में जब भारत पराधीनता का त्रास भुगत रहा था हम भारतीय स्वराज्य पाने के लिए प्रयासरत थे। गांधी जी ने स्वराज्य की अवधारणा को जन अवधारणा बना दिया। स्वराज्य की यह आवाज केवल राजनीतिक स्तर पर ही नहीं उठाई गई बल्कि उस समय के साहित्य में भी इसकी प्रतिध्वनि सुनाई पड़ती है। प्रेमचंद कहते हैं कि जब हम अपनी जरूरतों के लिए दूसरों के मोहताज होते हैं तब हम पराधीन होते हैं। स्वराज्य प्राप्त करने के लिए हमें उन व्यवस्थाओं का हर तरह से त्याग करना होता है जो हमारी चेतना अथवा सोच को दमित करती हैं और हमें पराधीन, परावलम्बी बनाती हैं। बीते पन्द्रह अगस्त को हमने स्वाधीनता की अठहत्तरवीं वर्षगांठ मनाई है। ऐसे में यह सवाल सहज रूप से उठ खड़ा होता है कि क्या हमने वास्तविक रूप में स्वराज्य हासिल कर लिया है। अवनीश यादव इलाहाबाद विश्वविद्यालय में शोधार्थी हैं। अवनीश ने स्वराज्य को केन्द्र में रख कर ही एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं अवनीश यादव का आलेख 'गांधी और प्रेमचंद का स्वराज्य'।
'गांधी और प्रेमचंद का स्वराज्य'
अवनीश यादव
गांधी और प्रेमचंद जिस दौर में 'स्वराज्य' की बात कर रहे थे, वह दौर भारत की पराधीनता का दौर था। भारतीय समाज पर ब्रिटिश शासन तंत्र का दौर था। स्वतंत्रता प्राप्ति की तमाम कोशिशों के हलचलों का दौर था। देश के नागरिकों के मानस पटल पर स्वाधीन चेतना की बुनावट का दौर था। शोषक शक्तियों के जुल्म और ज़ोर की पराकाष्ठा की पहचान का दौर था। स्वाधीनता की डगर पर कदम बढ़ाये क्रांतिकारी भाव से भरे नवयुवकों के लहू के ताप का दौर था। स्वाधीनता के जागरण के उदघोष से भरी कविताएं, गीत, गजलों और नज़्मों का दौर था; जिनमें से अधिकांश को फ्रेम कर दिया गया तत्कालीन हुकूमत द्वारा 'जब्तशुदा' के आईने में। पर ये तराने आज भी साफ़ प्रतिबिंब बनाते हैं देश के अतीत और वर्तमान का।
'कस ली है कमर अब तो, कुछ करके दिखाएंगे
आज़ाद ही हो लेंगे, या सर ही कटा देंगे
हटने के नहीं पीछे, डर कर कभी जुल्मों से
तुम हाथ उठाओगे, हम पैर बढ़ा देंगे।'
(अशफ़ाक़उल्ला ख़ां, 1930)
इतिहास साक्षी है कि ब्रिटिश हुकूमत द्वारा भारतीय जनमानस के ताप और तेवर को दबाने की हरसंभव कोशिशें हुईं। प्रत्येक स्वाधीन अभिव्यक्ति को व्यवहारिक और कानूनी तौर पर कुचलने के प्रयास जारी रहा। अभिव्यक्ति की आज़ादी पर अंग्रेज़ों ने जितना अंकुश लगाना चाहा, आज़ादी की लड़ाई की गति और तेज होती गई। क्रांतिकारियों और कलमकारों ने अपने-अपने स्तर से भारतीय जनमानस को जाग्रत करते रहे। स्वाधीनता और स्वराज्य का मूल्य बताते रहे। बहरहाल, जहां तक मूल बात गांधी और प्रेमचंद के स्वराज्य की है, ऐसा आकलित है कि गांधी का लिखा बोला लगभग पचास हज़ार पृष्ठों में संकलित है। प्रेमचंद के लेखन के संबंध में भी आंकड़ा समृद्ध ही है। दोनों की स्वराज्य के संबंध में धारणा काबिलेगौर है। गांधी का स्वराज्य 'आत्म शासन और आत्म संयम' है जिसके मूल में गांधी के दो महत्वपूर्ण शस्त्र 'सत्य'और 'अहिंसा' है। बकौल गांधी," स्वराज से मेरा अभिप्राय है लोक सम्मति के अनुसार होने वाला भारतवर्ष का शासन। लोक-सम्मति का निश्चय देश के बालिग लोगों की बड़ी-से-बड़ी तादात के मत द्वारा हो, फ़िर वे चाहें स्त्रियां हों या पुरुष।" यानी गांधी की नज़र में लोक सम्मति और सहभागिता स्वराज्य की बुनियाद है, क्योंकि गांधी के सपनों के स्वराज्य में, "जाति (रेस) या धर्म के भेदों का कोई स्थान नहीं हो सकता। उस पर शिक्षितों या धनवानों का एकाधिपत्य नहीं होगा। वह स्वराज्य सबके लिए, सबके कल्याण के लिए होगा। सबकी गिनती में किसान तो आते ही हैं किंतु लूले, लंगड़े, अंधे और भूख से मरने वाले लाखों -करोड़ों मेहनतकश मजदूर भी अवश्य आते हैं।" सही अर्थों में हिंद स्वराज्य का अर्थ लोगों का राज्य, न्याय का राज्य। पूर्ण स्वराज्य के संबंध में गांधी का मत है "वह जितना किसी राजा के लिए होगा, उतना ही किसान के लिए; जितना किसी धनवान जमींदार के लिए होगा, उतना ही भूमिहीन खेतिहर के लिए; जितना हिंदुओं के लिए होगा, उतना ही मुसलमानों के लिए; जितना जैन, यहूदी और सिख लोगों के लिए होगा; उतना ही पारसियों और ईसाइयों के लिए।" कुल मिला कर गांधी के स्वराज्य में धर्म, जाति, अमीर, गरीब आदि के नाते किसी के प्रति किसी के मन में भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं।
गांधी सदैव साधन और साध्य की पवित्रता की बात करते हैं। उनकी नज़र में स्वराज्य की प्राप्ति के साधन भी सत्य और अहिंसा है। वे इस बात पर बल देते हैं कि 'स्वराज्य सत्य और अहिंसा के शुद्ध साधनों द्वारा ही प्राप्त करना है।' इस तथ्य के पक्ष में तर्क यह कि 'अहिंसा पर आधारित समाज में कोई शत्रु नहीं होता।' वास्तव में इस यथार्थ को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। सच्चे अर्थों में गांधी का स्वराज्य भेदरहित समाज में सत्य और अहिंसा के मूल्यों पर चल कर जनता में स्वाधीन चेतना का संचार करना है।
प्रेमचंद की नज़रों में स्वराज्य का आशय आत्मनिर्भरता और स्वावलंबन है। "अपने देश का पूरा-पूरा इंतज़ाम जब प्रजा के हाथों में हो तो उसे स्वराज्य कहते हैं।" यानी प्रेमचंद का इशारा परतंत्रता को त्याग कर स्वतंत्रता की प्राप्ति की तरफ़ बढ़ना। और वे स्वावलंबन और स्वतंत्रता को स्वराज्य का मुख्य साधन स्वीकार करते हैं। "स्वराज्य का मुख्य साधन 'स्वावलंबन' है, अर्थात अपने देश की सब जरूरतों को आप पूरा कर लेना है। जो प्राणी अपने खेत का अनाज खाता है, अपने काते हुए सूत का कपड़ा पहनता है और अपने झगड़े बखेड़े अपनी पंचायत में चुका लेता है उसे हम स्वाधीन कह सकते हैं। हम अपनी जरूरतों के लिए दूसरे देश वालों के मुहताज हैं।--यह हमारी पराधीनता है, इस अवस्था को दूर कर देने पर फिर हम सच्चे स्वराज्य का आनंद उठाने लगेंगे।" आशय यह कि उन व्यवस्थाओं का त्याग करना जो हमारी चेतना/ सोच को दमित करती हैं और उसे पराधीन, परावलम्बी बनाती हैं। इस संदर्भ में प्रेमचंद अदालतों, सरकारी नौकरियों, सरकारी शिक्षा आदि को दोषी मानते हैं। यद्यपि ये तथ्य आज अटपटे लग सकते हैं, पर हमें उस दौर को नहीं भूलना चाहिए जिस दौर में प्रेमचंद स्वराज्य लिख रहे थे। बहरहाल, स्वराज्य के फ़ायदे को प्रेमचंद ईश्वर के गुणों को गिनने के समान मानते हैं और भारतीय जीवन के पुनुरुद्धार को स्वराज्य का सबसे बड़ा फ़ायदा मानते हैं। मादक वस्तुओं के त्याग में स्वराज्य प्राप्ति का उपाय ढूंढते हैं।
कुल मिला कर गांधी के स्वराज्य का आशय जहां 'आत्म शासन' और 'आत्म संयम' है तो वहीं प्रेमचंद के स्वराज्य का आशय 'आत्मनिर्भरता' और 'स्वाधीनता' है। गांधी की नज़रों में जहां स्वराज्य के साधन 'सत्य' और 'अहिंसा' है तो वहीं प्रेमचंद की दृष्टि में 'स्वावलंबन' और 'स्वतंत्रता' है। गांधी की नज़रों में जहां स्वराज्य का उद्देश्य भेदरहित समाज की स्थापना और जनता में स्वाधीनता को जाग्रत करना तो वहीं प्रेमचंद की नज़रों में स्वराज्य का उद्देश्य सुख, शांति और स्वतंत्रता है। यद्यपि प्रथमदृष्टया दोनों के स्वराज्य में आंशिक शाब्दिक भिन्नता प्रतीत हो सकती है पर दोनों के स्वराज्य का मूल उद्देश्य परावलम्बन व परतंत्रता का त्याग कर स्वावलंबी व स्वाधीन बनना बनाना। समतामूलक समाज की स्थापना के साथ देश की एकता, सुख-समृद्धि की चिंता करना। कहा जा सकता है स्वाधीन भारत में गांधी और प्रेमचंद के 'स्वराज्य' का अक्स संविधान की उद्देशिका अथवा प्रस्तावना के मूल में देखा जा सकता है। 'स्वराज्य' उसमें निहित स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, एकता और अखंडता को बल और गति देने वाला है। भारतीय लोकतंत्र को और मानवीय बनाने वाला है। जनमानस को और उदार। ख़ैर, गांधी और प्रेमचंद के 'स्वराज्य' से गुजरना, मूल अर्थों में संविधान की उद्देशिका को क़रीब से महसूसना है।
कविता और आलोचनात्मक लेखन में रुचि। सृजन सरोकार पत्रिका में संपादन सहयोग। फिलहाल शोधार्थी, इलाहाबाद विश्वविद्यालय।
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