हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं

 

हरे प्रकाश उपाध्याय 



परिचय

नाम- हरे प्रकाश उपाध्याय

कुछ समय पत्रकारिता के बाद अब जीविकोपार्जन के लिए प्रकाशन का कुछ काम

बिहार के एक गाँव में जन्म। अभी लखनऊ में वास।

तीन किताबें- 

दो कविता संग्रह - 

1. खिलाड़ी दोस्त तथा अन्य कविताएं

2. नया रास्ता

एक उपन्यास- बखेड़ापुर

अनियतकालीन पत्रिका 'मंतव्य' का संपादन



आमतौर पर मेहनतकश वर्ग हर जमाने में और हर जगह संघर्ष करते हुए ही अपना जीवन गुजार देता है। उनके जीवन की जहमतें बहुत होती हैं। लेकिन इन जहमतों के बीच भी वे उम्मीद के फूल खिलाए रहते हैं। आज जो यह दुनिया इतनी खूबसूरत दिखती है उसके पीछे इन मेहनतकश लोगों का अकथनीय और हाड़तोड़ श्रम ही है। कवि सम्पादक हरे प्रकाश उपाध्याय इन कामगारों के जीवन और श्रम से भलीभांति परिचित हैं और उसे अपनी कविताओं में बखूबी उकेरते हैं। इन कविताओं में हरे प्रकाश ने छंद को बेहतर ढंग से साधा है। यह छंद जैसे जीवन संघर्ष के छंद हैं। ये छंद कहीं भी असहज नहीं करते बल्कि सहज ढंग से कवि की कविताओं में जरूरत की तरह ही आए हैं। आज कविता गद्यमयता के जिस चरम मुकाम पर है वह खुद कविता के लिए ही दिक्कत तलब साबित हो रहा है। पाठकों से कविता की दूरी  घटने की बजाय लगातार बढ़ती जा रही है। ऐसे में हरे प्रकाश की ये कविताएं हिन्दी कविता के सुखद भविष्य के लिए हमें आश्वस्त करती हैं। इस ब्लॉग पर कवि की कविताएं पहली बार ही प्रकाशित करते हुए हमें सुखद अनुभूति हो रही है। कवि का स्वागत करते हुए आज हम इनकी कुछ बिल्कुल इधर की कविताओं से आपको रू ब रू करा रहे हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि हरे प्रकाश उपाध्याय की कुछ नई कविताएं। 



हरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएं 



ज़िंदगी अपनी थोड़ी कड़क है


नहीं जानते कौन बाप कौन माई है

मुझे क्या पता मेरी ज़िंदगी कहाँ से आई है!


बाबूजी शहर के बाहर

गंदे नाले से आगे

जो बस्ती झुग्गी है

वहीं तो रहती मेरी नानी डुगडुगी है


कहते हैं लोग वही मुझे 

भगवान जी से माँग कर लाई है

बाबूजी ओ बुढ़िया भी बहुत कसाई है


पर करिएगा क्या

उस पर भी मुझे आती दया

बाबूजी लगता है मुझे वह भी ज़माने की सताई है

उसने भी न जाने किस-किससे मार खाई है


छोड़िए ख़ैर अब उसकी बात

दिन भीख माँगते मेरी फुटपाथ पर कटती है रात

कभी-कभी तो एक ही चद्दर में हम लौंडे होते हैं सात

हँस कर कहा, बाबूजी है न यह अनोखी बात


ज़िंदगी अपनी थोड़ी कड़क है

पर मत समझिए बस यही सड़क है

जीने-पाने को और भी कई पतली गली है

बाबूजी यह दुनिया भी बहुत भली है


क्या जाड़ा, क्या गरमी, क्या बरसात

हम तो ठहरे बाबूजी माँगने वाली जात

हमें नहीं कोई शिकवा किसी से 

जितना मिले पेट भरते उसी से


बाबूजी कहाँ देता है कोई काम

गिरे सब जिनके बड़े हैं नाम

ख़ुशबू से महकते हैं जिनके चाम

मुँह सूँघना उनका आप किसी शाम


बाबूजी अच्छा लगा 

आपने कर ली इज्जत से थोड़ी बात

वरना तो अपन खाते ही रहते हैं लात

क़िस्सा बहुत है 

कभी फुर्सत से करते हैं मुलाक़ात!






रामचनर उरांव


बहुत दिनों बाद गए जब अपने गाँव

धूप से हार कर बैठे पीपल की छाँव

वहीं मिल गए मुझे बकरी चराते रामचनर उरांव!


दुआ सलाम के बाद शुरू हो गई अपनी बात

बोले अच्छा किये भैया आ गए हो गई मुलाक़ात

अब तो हुए हम पके आम

जाएंगे टपक जल्दी ही किसी दिन या रात


रामचनर भी गजब इन्सान हैं

लगे कहने भैया हमको नहीं पता हम कौन कुल खनदान हैं

ये सब ऊ लोग जानत हैं जो खावत माँग के दान हैं

ई सब मामला में हम तो भैया बहुत नादान हैं


बोले भैया

अपने गाँव में दूबे जी का लड़का है प्रधान

मनरेगा में काम के बदले मांगत है दछिना-दान

बुलेट पर उड़त फिरत है

मुर्गा-दारू में डूबल रहत है

धारे खादी के कुरता गजबे उसका शान


हम नहीं चढ़ा पाए चढ़ावा ससुर प्रधान के

खा गया पैसा हमरा पैखाना और मकान के

भैया हम कहाँ से उसको कुछ देते

बोलो कर्जा किससे हम ले लेते

हमरे ऊपर चार महीने की उधारी दुकान परचून के

हम तो खावत है रोटी अपना पसीना औ खून के


वृद्धा पेंशन भी हमारा नहीं आता है

कैसे जिएं हम हमें नहीं बुझाता है

काहे भैया हर आदमी कमजोरे को सताता है


रोने लगे रामचनर उरांव

यह देख शर्माने लगी पीपल की छांव


अच्छा छोड़ो काका

कहो तुम काकी का हाल

बोले भैया बुढ़िया अलग बवाल

साल भर से पायल-पायल रटत है

समझाए बहुत मगर अब पास में नहीं सटत है

उसको लगता है

बूढ़ा बहुत कमाता है

सब बहराइच वाली पतरकी को दे आता है!



आगरे से आया राजू


गोरखपुर में फेमस दुकान है चाय की

मऊ से आ कर बस गये गोरख राय की

वही बरतन धोता आगरे से आया राजू

बैठ गया जा कर एक दिन उसके बाजू


बरतन धोता जाता था

क्या खूब सुरीला गाता था

उमर महज बारह की थी

मगर खैनी वह खाता था


खैनी खा कर बोला, भैया

दस साल की उमर रही

मर गई खांस-खांस कर मैया


बापू के बदन पे फटी बनियान थी

हम तीन भाई बड़े थे

बहन मेरी नादान थी


बापू कैसे पेट अब भरता सबका

गैया तो हमलोगों की बिक गई थी कब का

एक दिन मामू कलकता से

घर मेरे आ टपका

उसने ही किया हम सबका बेड़ा पार

लग गये सब अपने खित्ते

भले गया बिखर अपना परिवार


बड़का रहता एक साहेब के घर 

चल कर अब बंगाल में

उससे छोटका काम करता असम के चाय बागान में

बहन की हो गई शादी

जीजा की चलता है ट्रक

देख रहे हैं भैया हम लोगों का लक


बापू की उमर छियालीस साल

पक गये हैं उसके सारे बाल

टूट गये हैं दांत सब

पिचके उसके गाल

आगरे में टेसन पे रिक्शा चलाता है

बाबूजी वह भी अच्छा कमाता है


मेरा तो देख ही रहे हैं हाल

राय ससुर आदमी है या बवाल

बाबूजी इधर आइये

कान में बोला, बाबूजी इसके ठीक नहीं हैं चाल

रात में मुझे भी जबरन पिलाता है

मुर्गा अपने हाथ से खिलाता है

बाबूजी लेकिन अपनी खटिया पर ही

अपनी खटिया पर ही

मुझे भी सारी रात सुलाता है!






खेत में एतवारू


खेत पर मिल गए आज एतवारू

दोनों, मरद और मेहरारू

हाड़ तोड़ कर मेहनत करते

कहते कैसा अंधा कुँआ है यह पेट

जो भी उपजाते

चढ़ जाता सब इसके ही भेंट


खाद बीज पानी

के प्रबंध में खाली रहती इनकी चेट

फसल उपजती तो घट जाती उसकी रेट

बोले भैया

मीठा-मीठा बोल के

हर गोवरमिंट करती हमलोगों का ही आखेट


खा कर सुर्ती

दिखा रहे एतवारू खेत में फुर्ती

सूरज दादा ऊपर से फेंक रहे हैं आग

जल रहे हैं एतवारू के भाग

हुई न सावन-भादो बरसा

बूंद-बूंद को खेत है तरसा


एतवारू के सिर पर चढ़ा है कर्जा

बिन कापी किताब ट्यूशन के

हो रहा बबुआ की पढ़ाई का हर्जा

हो गई है बिटिया भी सयानी

उसके घर-वर को ले कर चिंतित दोनों प्रानी


थोड़ी इधर-उधर की कर के बात

मेड़ पर आ सीधी कर अपनी गात

गम में डूब लगे बताने एतवारू

रहती बीमार उनकी मेहरारू

बोले

भैया सपनों में भी अब सुख नहीं है

जीवन किसान का रस भरा ऊख नहीं है


अच्छा छोड़ो एतवारू

क्या पीते हो अब भी दारू

मुस्का कर बोले भैया यह ससुरी सरकार

है बहुत बेकार

जबसे बिहार में बंद है दारू

तबसे गरदन पे चढ़ने को थाना-पुलिस उतारू

साहेब सब पीते हैं

पैसे वाले भी पीते हैं

हम लोग भी थोड़ा-मोड़ा जब तब ले लेते हैं

पर शराब माफ़िया भैया खून चूस लेते हैं


ले ली मैंने भी ज़रा चुटकी एतवारू से

बोला सुना के उनकी मेहरारू से

लाओ बना लें खेत में ही दो पेग एतवारू

लाया हूँ मिलेट्री से बढ़िया दारू

हँस रहे हैं बेचारे एतवारू

आँख तरेर देख रही हम दोनों को

उनकी मेहरारू!

 


यह जीवन जैसे


हींग हल्दी जीरा लहसुन

कभी ड्यूटी

कभी दुकान परचून


ड्यूटी है करोलबाग में

डेरा यमुना पार

मालिक देखता हमें बैठ कर

सीसीटीवी में नौ से चार


आती पगार तीस-इकतीस को

उड़ जाती लगते बीस को

किराया बिजली राशन-पानी

भैया को लगता

बबुआ काट रहा दिल्ली में चानी


जैसे-तैसे कटते

महीने के अंतिम दस दिन

काम आ जाते बच्चों के गुल्लक

जिसमें रखते चिल्लर गिन


घरनी के हैं छोटे-छोटे अरमान

गुस्सा जाती है देख झोला भर सामान

पगार मिलने के दिन

जब थोड़ा पी लेता हूँ

ज़रा सा जी लेता हूँ

सो जाती है पगली चादर तान

उसके छोटे-छोटे अरमान

यार यह जीवन जैसे जंग हो

बताना भाई

अगर कोई सुविधाजनक ढंग हो!




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)




सम्पर्क - 


महाराजापुरम

केसरीखेड़ा रेलवे क्रॉसिंग के पास

पो- मानक नगर

लखनऊ - 226011


मोबाइल - 8756219902


टिप्पणियाँ

  1. बहुत अच्छी कविताएं हैं । बहुत दिनों बाद गद्य काव्य में भी लयात्मकता देखकर खुशी हुई। हरेप्रकाश जी प्रतिभाशाली कवि -गद्यकार हैं। उन्हें बधाई और शुभकामनाएं। संपादक को भी बधाई💐

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  2. इतनी सरलता से, इतने आसान शब्दों से ऐसी दिल दहला देने वाली कविताएं ! गज़ब धार है कलम की । तहे दिल से बधाई
    हरे प्रकाश उपाध्याय को

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  3. धारदार कविताएँ ! ज़िंदगी को बेहद नज़दीक से देखने पर ही ऐसी रचनाएँ जन्म लेती हैं। कवि को बधाई !

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  4. अंतर्निहित छंद के साथ नए तेवर की ये कविताएं सीधे दिल में उतरती हैं। हरे को हार्दिक बधाई

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  5. जीवन के सच को बयां करती कविताएं

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  6. बेहतरीन कविताएँ हैं।
    नमिता सिंह

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  7. सरल और सहज कविताएं। लेकिन ऐसी कविताएं जीवन में धंसे बगैर हासिल नहीं हो सकतीं। नमक ,तेल , हल्दी महीने का आखिरी सप्ताह कतरब्योंत कर जीने वाले हर आम आदमी की कहानी है, नहीं यथार्थ है। कहानी में झूठ की मिलावट होती है यहां सच की मिलावट हावी है। ग़रीब -गुरबों की जीवन की गाथा कहते कहते ये कविताएं निम्नमध्यवर्गीय जीवन के कटु यथार्थ को भी व्यक्त कर रही हैं। बहुत दिनों बाद हरे प्रकाश उपाध्याय के अन्दर कवि फिर मैदान में आ डटा है। यह सही है कि यह कवि बिना किसी लाग-लपेट और दबाव की गिरफ्त में आये बगैर जीवन के मर्म को उद्घाटित करता हमारे सामने है। कवि को बहुत बधाई और आपका आभार।

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  8. यह जीवन जैसे जंग हो...
    कविताएं आईना हैं
    बधाई हरिप्रकाश जी

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  9. जीवन के यथार्थ को उजागर करती हुई, सरल, सहज भाषा में रचित अनुपम कृतियाँ...👌👌👌

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