शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के लिए हमें एक और लड़ाई लड़नी होगी'

 




आज भारत अपना अट्ठहतरवां स्वाधीनता दिवस मना रहा है। हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने जिस आजाद भारत का सपना देखा था दुर्भाग्यवश वह आज तलक हकीकत में नहीं बदल पाया। आजादी के बाद अपने देश को किसी और ने नहीं बल्कि हमारे नेताओं और नौकरशाहों ने इतना लूटा कि हम अपनी दीन हीन अवस्था से ही नहीं उबर पा रहे। पूर्व राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम ने 2020 में विकसित भारत का सपना देखा था। यह सपना आज तक हकीकत में नहीं बदल पाया। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी 2047 तक विकसित भारत का सपना देख रहे हैं। इस सपने का क्या होगा, यह भविष्य के गर्त में छुपा हुआ है। लेकिन एक सवाल तो है ही। हमने स्वतन्त्रता तो हासिल कर ली लेकिन क्या सही मायनों में स्वराज्य प्राप्त कर पाए हैं? स्वतंत्रता की राह स्वराज्य की गलियों से हो कर ही गुजरती है। स्वाधीनता दिवस की बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शिवदयाल का आलेख 'स्वराज के लिए हमें एक और लड़ाई लड़नी होगी'।

 


'स्वराज के लिए हमें एक और लड़ाई लड़नी होगी'

                                                    

शिवदयाल 

       

आजादी के पचहत्तर साल! यह प्रत्येक भारतीय के लिए विशेष, विरल गौरव-उपलब्धि है। ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करें तो पिछले हजार वर्षों में भारत के इतिहास का यह सबसे उज्ज्वल कालखण्ड है। पहली बार उपमहाद्वीप के इतने बड़े भू-भाग में एक ध्वज के नीचे भारत की जनता ने अपनी सम्प्रभु सत्ता स्थापित की और उसे सफलतापूर्वक स्थिर रखा है। सदियों तक पराधीनता और औपनिवेशिक शोषण-दमन में पिसने के बाद स्वतंत्रता हासिल कर के दुनिया के प्रमुख देशों में अपना स्थान बना लेना भारत की जनता में अंतर्निहित शक्ति और क्षमता का परिचायक है। हमारी जो भी उपलब्धियाँ हैं, उन्हें हमने लोकतंत्र के माध्यम से संभव किया है, इससे दुनिया में आज भारत का विशेष समादर और प्रतिष्ठा है। हम स्वतंत्रता के लिए लड़ते-जूझते नये मूल्य भी सृजित करते रहे, गढ़ते रहे; प्रतिकार और प्रतिरोध के नये औजार और युक्तियों का आविष्कार भी किया। इनका महत्व और उपादेयता केवल हम तक सीमित न रही, विश्व समुदाय के लिए भी इनकी प्रासंगिकता बनी। 


राष्ट्रीय आंदोलन का दौर गहन विचारमंथन का दौर भी रहा, एक आत्मविस्मृत राष्ट्र मानो निश्चेतना से जाग रहा था। हमारा राष्ट्रीय आंदोलन इसीलिए केवल राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त करने का साधन मात्र नहीं बना रहा। उसके अंदर सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक परिवर्तन के अतिरिक्त मानव-मुक्ति के उपायों की तलाश और सिद्धि का संकल्प भी शामिल था। राजनीति और समाज ही नहीं, अर्थ, धर्म, अध्यात्म, कला, साहित्य, विज्ञान - जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में एक से बढ़कर एक विभूतियाँ एक नये राष्ट्र के निर्माण में अपना योग देने के लिए अवतरित हो रही थीं।


भारत आजादी के कुछ ही दशकों बाद यदि दुनिया में अपनी अलग सक्षम पहचान बनाने में सफल हुआ तो उसके पीछे यही कारण थे। भारत अपने लोकतंत्र के रास्ते से भी नहीं डिगा तो, जयप्रकाश नारायण के शब्दों में, इसका कारण भारत के लोगों की सांस्कृतिक व आध्यात्मिक प्रौढ़ता थी। जबकि इसके साथ स्वतंत्र हुए अनेक देश, पड़ोसी सहित, सर्वसत्तावाद के दलदल में उतर चुके थे। भारत पूर्वोत्तर में साम्यवादी चुनौती का सामना करने में भी (आजतक) सफल रहा, भले ही यहाँ साम्यवाद स्थापित करने के लिए स्वयं लोकतंत्र और इसकी व्यवस्थाओं को ही जरिये के रूप में इस्तेमाल किया जाता हो। आम भारतीय मानस लाख कमियों के बावजूद, अनेक विपथगामी प्रवृत्तियों के रहते भी यदि लोकतंत्र के प्रति विमुख नहीं हुआ तो मानना पड़ेगा कि लोकतंत्र हमारी सांस्कृतिक निर्मिति से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है, उसका अभिन्न अंग है। लोकतंत्र में रहना हमारी आंतरिक वृत्ति है, यह थोपा हुआ या लादा हुआ विचार या व्यवहार-प्रतिमान नहीं है। यही कारण है कि, भले ही वह पश्चिमी ढर्रे और ढब का हो, लोकतंत्र को चलाने में हम सफल रहे हैं और उचित ही आज दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहे जाते हैं। लेकिन क्या आजादी से इतना ही कुछ हासिल करना था हमें? हमने लोकतंत्र चलाया, बड़ी अर्थव्यवस्था बने, प्रमुख औद्योगिक देशों में गिने गए, लेकिन क्या सचमुच भारत अपने रास्ते चला? आजादी के पचहत्तरवें साल में यह सवाल उद्वेलित करता है....!


दयानन्द सरस्वती 



पराधीनता में पिसते कोटि-कोटि भारतीय नर-नारी जिस मुक्ति के लिए संघर्ष कर रहे थे, उसका लक्ष्य था - स्वराज। स्वराज एक जादुई शब्द था, इसका प्रभाव इतना था कि स्वतंत्रता सेनानियों को ‘सुराजी’ कहा जाता था, अर्थात वह जो स्वराज के लिए जूझ रहा है, बलि जा रहा है। लोकतंत्र का अर्थ एक साधारण व्यक्ति भले न समझता हो, वह उतना चलन में था भी नही ंतब, लेकिन स्वराज का मतलब जरूर समझता था। स्वराज शब्द का एक विशेष अर्थ था, केवल ‘अपना शासन’ भर तक इसका आशय नहीं था। यह शब्द हमारे सांस्कृतिक बोध में विनयस्त था, यह एक राजनीतिक पद (टर्म) मात्र नहीं था। यह हमारी जातीय स्मृति में टँका हुआ एक पवित्र शब्द था जो वेदों से चलता हुआ सहसा तीन सौ वर्ष पहले छत्रपति शिवाजी महाराज द्वारा स्थापित ‘हिन्दवी स्वराज’ पदबंध में सर्वथा नये अर्थ और संदर्भ में प्रतिष्ठित हुआ। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध में ब्रिटिश राज के खिलाफ इसका पहला ओजपूर्ण प्रयोग महर्षि दयानंद सरस्वती ने किया। वास्तव में वेदों की ओर लौट चलने के आवाहन के साथ ही उन्होंने स्वराज को ही अपना जीवन अर्पित कर दिया। लोकमान्य गंगाधर तिलक के पहले गोपाल कृष्ण गोखले और दादाभाई नौरोजी स्वशासन के संदर्भ में इसका प्रयोग कर चुके थे। लेकिन संभवतः एक मुकदमें के दौरान तिलक ने यह उद्घोष किया - ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा।’’ इस कथन का विद्युन्मय प्रभाव जन-मानस पर हुआ। मानो यह ‘वन्दे मातरम’ की पूरक अभिव्यक्ति थी, मातृभूमि वंदना से आगे इसमें अपना, ‘अपने मन का शासन’ स्थापित करने का आग्रह और संकल्प था। तिलक का यह उद्घोष कितने ही स्वातंत्र्यवीरों का जीवनोद्देश्य बन गया। इसमें भारतीय राष्ट्रवाद की सबसे प्रखर अभिव्यक्ति थी। पूर्ण स्वराज की माँग करने वाले पहले नेता तिलक ही थे। 1909 में ’‘हिन्द स्वराज’ कीे अपनी सभ्यता-विमर्श मूलक पुस्तक में गाँधी जी की दृष्टि में एक ओर ‘स्वराज का मतलब है सर्वाधिक दीन-हीन देशवासियों की स्वतंत्रता। ऐसी भारत सरकार जो देश की वयस्क जनसंख्या के बहुमत से कायम की गई हो। वयस्कों में वे स्त्री-पुरुष जिनका यहाँ जन्म हुआ है, उनके साथ वे लोग भी शामिल होंगे जो बाहर से आ कर यहाँ बसे हैं। मेरा स्वराज मुट्ठी भर लोगों की सत्ता-प्राप्ति से नहीं आएगा, बल्कि सत्ता का दुरुपयोग किए जाने की सूरत में उसका प्रतिरोध करने की जनता की सामर्थ्य से विकसित होगा’’, तो दूसरी ओर ‘स्वराज सरकार के नियंत्रण से मुक्त होने का सतत प्रयास है, सरकार चाहे विदेशी हो या देशी। 


बाल गंगाधर तिलक 



स्वराज एक पवित्र शब्द है। वह वैदिक शब्द है। उसका अर्थ है - स्वशासन, आत्मनिग्रह। वहाँ संयमों से मुक्ति नहीं बल्कि उनका पालन है।’’ गाँधी जी ने ‘स्वराज’ को एक और ही आयाम दे दिया, उसे अहिंसा और आत्मनिग्रह जैसी नैतिक स्थापनाओं से जोड़ कर, इस प्रकार यह एक राजनीतिक पद से बढ़ कर एक नैतिक-आध्यात्मिक संदर्भ से जुड़ गया। वास्तव में ’हिन्द स्वराज’ की अपनी कल्पना को गाँधी जी ग्राम-स्वराज में ही मूर्तिमान करने की चेष्टा करते रहे। ग्राम-स्वराज में ही उनके हिन्द स्वराज की चरम अभिव्यक्ति होती थी। एक अर्थ में गाँधी जी तिलक के राष्ट्रवाद को गाँवों की पुनर्रचना - समत्व और सहयोग-सहकार पर आधारित एक बेहतर, आत्मनिर्भर संस्करण, से जोड़ रहे थे। और उस समय तो भारत हर प्रकार से गाँवों का ही देश था!


महात्मा गांधी 



इस बीच दो घटनाएँ उल्लेखनीय हैं - स्वराज से जुड़ी। 1923 में विधान परिषदों में शामिल होने-न होने के सवाल पर काँग्रेस में मतभेद हो गया। देशबंधु चितरंजन दास की अध्यक्षता में मोती लाल नेहरू ने स्वराज पार्टी का गठन किया और स्वयं उसके सचिव बने। हालाँकि 1923 में चितरंजन दास के निधन के पश्चात यह संगठन मृतप्राय हो गया। दूसरी महत्वपूर्ण घटना जो स्वतंत्रता आंदोलन में एक निर्णायक मोड़ सिद्ध हुई, वह थी 1929 में काँग्रेस का लाहौर अधिवेशन। लार्ड इरविन द्वारा भारत को अधिराज्य-स्थिति (डोमीनियन स्टेटस) प्रदान करने की सहमति देने के बाद अपने वादे से मुकरने के खिलाफ काँग्रेस ने लाहौर अधिवेशन में 19 दिसम्बर, 1923 को पूर्ण स्वराज का प्रस्ताव जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में पारित किया। इसी के बाद पूर्ण स्वराज ही काँग्रेस का लक्ष्य बन गया।


चितरंजन दास 



महायुद्ध की समाप्ति के पश्चात न केवल अंतरराष्ट्रीय राजनीति में भारी बदलाव हुआ, बल्कि भारत में भी राजनीति का एजेंडा, उसकी प्राथमिकता बदल गई। कैसी विडम्बना कि जैसे-तैसे स्वतंत्रता की घड़ी निकट आती गई, गाँधी जी अप्रासंगिक होते चले गए। इतिहास की धारा को मोड़ लेने की उनकी सामर्थ्य नहीं रह गई। उनके विश्वस्त, उनके अनुयायी, उनके ‘उत्तराधिकारी’ उनकी बात सुनने को तैयार नहीं थे। धर्म के आधार पर भारत-विभाजन की पटकथा लिखी जा चुकी थी। 1946 में डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन हुआ । गाँधी जी के कहने पर डाॅ. भीमराव अम्बेडकर को संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनया गया। ऐसे समय गाँधी जी के एक अनुयायी श्रीमननारायण अग्रवाल ने ‘स्वतंत्र भारत के लिए गाँधीवादी संविधान’ नाम से एक दस्तावेज तैयार किया जिसकी प्रस्तावना स्वयं गाँधी जी ने लिखी थी। उन्होंने स्वीकार किया था कि उस दस्तावेज में कुछ भी ऐसा नहीं था जिससे वे असहमत हों। स्वराज के संदर्भ में इस दस्तावेज की थोड़ी चर्चा जरूरी है। श्रीमननारायण ने परिचयात्मक टिप्पणी में लिखा कि भारत के लिए तैयार किया जाने वाला संविधान आदर्श रूप में भारत की अपनी देशी संवैधानिक प्ररम्पराओं पर आधारित होना चाहिए। ये परम्पराएँ प्राचीन समय से अस्तित्व में रही थीं। उन्होंने आगे लिखा कि अतीत में भारत के संवैधानिक विकास के अध्ययन से यह स्पष्ट होता है कि अतीत में राजतंत्र, निरंकुश तंत्र, प्रजातंत्र, गणतंत्रवाद, यहाँ तक कि अराजकता अथवा शासनहीनता के साथ भी हमारे पूर्वजों ने प्रयोग किए हैं। ऐसी समृद्ध विरासत के रहते भारत के लिए पश्चिमी देशों के संविधानों का एक मिश्रण तैयार करना न केवल अनुचित, बल्कि अपमानजनक है। वास्तव में गाँधी जी के सपनों के भारत की झलक, स्वराज की संक्षिप्त लेकिन ठोस रूपरेखा इसी दस्तावेज (संविधान) में थी। विकेन्द्रित राजनीतिक एवं प्रशासनिक ढाँचा, जिसकी मूल इकाइयाँ ग्राम पंचायतें थीं। इन्हीं इकाइयों से मिल कर ऊपरी स्तर की सरकार बनती थी। ग्राम पंचायतों को न्यायिक कार्य सहित विस्तृत अधिकार दिए गए थे। मौलिक अधिकारों के साथ ही मौलिक कत्र्तव्यों को जोड़ा गया था। कुल बाइस अध्यायों में ‘मूलभूत सिद्धांत’, ‘मौलिक अधिकार एवं कर्तव्य’, ‘प्रांतीय सरकार’, ‘केन्द्र सरकार’ तथा ‘न्यायपालिका’ जैसे विषय शामिल थे। इस दस्तावेज में संविधान-निर्माण की भारतीय दृष्टि को प्रस्तुत किया गया था। इसमें वैकल्पिक भारतीय संवैधानिक परिकल्पनाओं को स्थान मिला था। लेकिन संविधान सभा में नेहरू-अम्बेडकर ने इस दस्तावेज को पूरी तरह अस्वीकृत कर दिया।


‘स्वराज’ शब्द को ही संविधान निर्माताओं ने भारत के संविधान से बाहर कर दिया, देशनिकाला दे दिया। संविधान-निर्माण में उन लोगों की चली जिन्हें ग्राम, स्वराज, अहिंसा जैसे शब्दों से एलर्जी थी। ये शब्द ही संविधान में ढूँढ़ने से नहीं मिलेंगे। जिनके हाथ में स्वतंत्र भारत की बागडोर सौंपी गई थी (स्वयं गाँधी जी के हाथों) उनका भारत-बोध उथला था, वे पश्चिमपरस्ती में भारत का कल्याण देख रहे थे। भारत की प्राचीन विरासत, देशी चिंतन एवं विचार प्रणालियों को शंका-संदेह के साथ, हेय दृष्टि से देखते थे। इसलिए जिस जादुई शब्द ने लाखों-करोड़ों लोगोें, गाँवों-किसानों को स्वतंत्रता आंदोलन से जोड़ा, वह स्वराज भारत के कर्णधारों के लिए किसी काम का नहीं रह गया। गाँधी जी ने स्वराज की एक सर्वसमावेशी व्याख्या प्रस्तुत की थी और इसको ले कर एक वर्ग में व्यक्त की जा रही शंका के निवारण का प्रयत्न किया था - ’‘जो लोग खुद आजाद होना चाहते हैं, वे दूसरों को गुलाम बनाने की सोच भी नहीं सकते। आजादी राजनीतिक, आर्थिक और नैतिक - तीनों प्रकार की होनी चाहिए।’’ लेकिन भारत के नये देशी, लोकतांत्रिक शासक अंग्रेजों से भी बढ़ कर अंग्रेज थे।


15 अगस्त, 1947 को औपनिवेशिक शासन से निचुड़ा हुआ, और तब भी बँटवारे से लहूलुहान एक गरीब देश था भारत। एक कमजोर नवजात की तरह इसकी देखभाल करनी थी। अंग्रेजों ने जो कुछ नष्ट किया था, जिसके चलते भारत दरिद्र बना था, सबसे पहले उसे पुनर्सृजित करने की जरूरत थी। इस दृष्टि से सर्वोपरि प्राथमिकताएँ थीं - अर्थतंत्र (ग्रामीण अर्थव्यवस्था) और शिक्षा तंत्र को नये सिरे से खड़ा करना। ध्यान से देखिए तो यही स्वराज का एजेंडा होता। ग्राम-स्वराज की व्यवस्था को लागू कर के भारतीय गाँवों को फिर से खड़ा किया जा सका था, उन्हें आत्मनिर्भर बनाया जा सकता था। इससे खाद्य संकट का निवारण हो सकता था, साथ ही ग्रामोद्योगों से बेरोजगारी पर भी काबू पाया जा सकता था। दूसरी ओर शिक्षा प्रणाली में औपनिवेशिक प्रभाव को कम से कमतर करने की पहल तत्काल ली जानी चाहिए थी। स्वभाषा द्वारा अर्जित स्वाधीन बुद्धि और चेतना जगाने वाली शिक्षा, जो अपनी मिट्टी, अपनी भाषा, अपनी संस्कृति और विरासत से जोड़े, उनसे प्रेम और सम्मान करना सिखाए, उनके प्रति श्रद्धा जगाए। लेकिन स्वतंत्र भारत का नेतृत्व अलग राह चला - पश्चिमी ‘आधुनिकता’ और ‘अंग्रेजियत’ से मोहाविष्ट! इस तरह स्वतंत्रता और स्वराज के रास्ते अलग हुए। स्वराज के जो भी औजार हो सकते थे, स्वतंत्रता मिलते ही हाथ से छूट गए, जानबूझ कर उन्हें छोड़ दिया गया। गाँव तो छूटे ही, उनके साथ महाधोखा हुआ, हम किसी एक भारतीय भाषा को राष्ट्रभाषा नहीं बना सके। क्षेत्रीय भाषाओं की बात ही क्या! ज्ञान, संवाद और शासन-प्रशासन के लिए हमें हमारे ही नेतृत्व ने स्वतंत्र भारत में अंग्रेजी भाषा पर निर्भर बना दिया। अँग्रेजी आज भी हम पर लदी हुई है। उपनिवेशवाद तो उपनिवेशों की संस्कृति नष्ट कर के ही खड़ा होता है, फिर भारत तो उपनिवेशवाद के अलावा सांस्कृतिक साम्राज्यवाद का भी शिकार रहा है, अंग्रेजी राज के भी पहले से। ऐसे में स्वभाषा के अभाव ने हमें बौद्धिक और सांस्कृतिक रूप से आज तक हीन बनाकर रखा है। हमारे पास मानो स्वयं को देखने-परखने की दृष्टि ही नहीं है। पिछले पचहत्तर वर्षों में हम जिन राजनीतिक विचारों, अवधारणाओं और शब्दावलियों से बँधे रहे है, उन्होंने भी प्रकारान्तर से हमें अपने इतिहास और सांस्कृतिक विरासत पर पुनर्दृष्टि डालने से रोक रखा है। ऐसी कोई भी कोशिश हो तो तुरंत ‘पुनरुत्थानवाद’ का शोर मचने लगता है और उसे अपराध की श्रेणी में डाल दिया जाता है। स्वतंत्रता-पूर्व से ही राजनीतिक वर्ग के एक बड़े हिस्से में यह प्रवृत्ति रहती चली आई है। उस समय भी हमारे कुछ विचारकों और बुद्धिजीवियों ने हमें सांस्कृतिक दरिद्रता के प्रति सचेत किया था और वास्तविक स्वराज के लिए ‘वैचारिक स्वराज’ की जरूरत पर बल दिया था।


विनोबा भावे 



स्वतंत्रता पश्चात सरकारों ने भले स्वराज के आदर्श से अपने को अलग कर लिया हो, स्वराज के कार्यक्रम को अपने स्तर से कुछ प्रयोगधर्मी नेता आगे बढ़ाने की कोशिश करते रहे। संत विनोबा का सर्वोदय स्वराज की उपलब्धि को ही लक्षित था, उन्होंने स्वराज-शास्त्र की कल्पना तक की। जयप्रकाश नारायण ने लोक-स्वराज की कल्पना की और मानो इसी की स्थापना के लिए संपूर्ण क्रांति का आह्वान किया। राममनोहर लोहिया का स्वभाषा को  ले कर दुर्धर्ष आग्रह अंततः स्वराज के ही तो पक्ष में जाता था। ये सही अर्थों में स्वतंत्र भारत के राष्ट्रनायक थे, स्टेट्समैन थे।


आज की स्थिति में स्वराज का अर्थ है ऐसी व्यवस्था जिसका प्रत्येक नागरिक के साथ आत्मिक जुड़ाव हो, हर व्यक्ति और वर्ग-समूह उसे अपना माने। जिसमें रहते हुए किसी भी प्रकार - मन से, बुद्धि से या ज्ञान-कौशल से पराश्रित होने का बोध न हो, जिसमें शासक और शासित का भेद मिट जाए, जो सबके लिए सब प्रकार से अनुकूल हो। स्पष्ट है कि हमनें स्वतंत्रता तो हासिल की है, स्वराज्य से कोसों दूर हैं। 


सांत्वना की बात है कि हमारे पास लोकतंत्र है जिसे हम स्वराज-सिद्धि में लगा सकते हैं। अनेक दशकों बाद ‘राष्ट्रवाद’ एक बार फिर हमारे राष्ट्रीय जीवन में एक लोकप्रिय शब्द बन गया है। स्वराज की पूर्व शर्त है स्वराज-चेतना, जो आत्मसम्मान और अपने पैरों पर खड़ा हो सकने के साहस और संकल्प के भाव से उपजती है। उपनिवेश रहे देशों में विऔपनिवेशीकीकरण की प्रकिया को भी इसी से बल मिलता है। देखना है कि राष्ट्रवाद इसमें हमारी कितनी मदद कर सकता है, स्वराज-चेतना से जुड़ कर ही वह अपनी सार्थकता सिद्ध करेगा - जन, राष्ट्र, स्वावलम्बन, स्वराज- ये आपस में जुड़े हुए, गुँथे हुए प्रत्यय हैं। वैसे इसमें कोई संदेह नहीं कि युवा पीढ़ी इस ओर आकृष्ट हुई है, वह उपनिवेशवाद के संघातक प्रभावों को अनुभव कर रही है और स्वराज का महत्व भी समझने लगी है। तभी तो आज ‘गणित एवं विज्ञान में स्वराज’ की बातें होने लगी हैं, बाकी विषयानुशासनों की बात ही क्या। स्वभाषा के महत्व को सरकार आज स्वीकार कर रही है। प्राथमिक स्तर तक मातृभाषा में शिक्षण इसी दिशा में बढ़ाया गया कदम है। कितना अच्छा हो कि जब हम 2047 में स्वतंत्रता का शती-वर्ष मनाएं तो हमारे अंदर यह ग्लानि न हो कि हमारी कोई सर्वस्वीकृत, सबके मन में श्रद्धा जगाने वाली एक राष्ट्रभाषा नहीं है। स्वराज सिद्धि के लिए वास्तव में हमें एक और लड़ाई लड़नी होगी, और इसकी शुरुआत ’स्व‘ से, स्वंय से करनी होगी - अपनी संकीर्णताओं, अपनी हीन भावना, अपनी परमुखापेक्षी वृत्ति से पहले लड़ना होगा। हमारे राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त ने स्वराज के विषय में कितनी सुंदर बात कही है-


‘जो पर-पदार्थ के इच्छुक हैं

वे चोर नहीं तो भिक्षुक हैं

हमको तो ‘स्व’ पद-विहीन कहीं

है स्वयं राज्य भी इष्ट नहीं!’

  

 

(नवनीत, अगस्त 2020 अंक में प्रकाशित)



शिवदयाल 




सम्पर्क 

मोबाइल : 9835263930


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