केशव तिवारी के कविता संग्रह 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा' पर यतीश कुमार की समीक्षा 'जागे हुए सुरों के साथ'।
इस दुनिया जहान में जो भी है, सब कविता का विषय है। कवि की दृष्टि सूक्ष्म से सूक्ष्म चीजों, घटनाओं, परिस्थितियों पर जाती है और वह उसे अपने हुनर से शब्दबद्ध करता है। कवि केशव तिवारी की भावना को हम उनकी इस पंक्ति से समझ सकते हैं “इस सृष्टि की एक भी आवाज़ व्यर्थ नहीं जाएगी।” यानी कि यह जो जीवन है, यानी कि यह जो दुनिया है कुल मिलाकर एक कोलॉज है। इसे देखने परखने के लिए संवेदना चाहिए। केशव की मजबूती यह है कि वे लोक से जुड़े हुए हैं। लोक उनकी कविताओं में अभिव्यक्त होता है। हाल ही में हिन्द युग्म प्रकाशन से केशव तिवारी का एक कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा।' इस संग्रह को कसौटी पर कसने की कोशिश की है कवि यतीश कुमार ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं केशव तिवारी के कविता संग्रह 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा' पर यतीश कुमार की समीक्षा 'जागे हुए सुरों के साथ'।
जागे हुए सुरों के साथ
यतीश कुमार
“चतुर कवि तो कविता में गाल बजाएगा
नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा”
मर्सिया शब्द अरबी शब्द मरथिय्या (अरबी : मरसिया) से लिया गया है। वैसे तो शहादत की याद में गाये गीत मर्सिया के रूप में ढलते हैं, पर इस किताब में केशव तिवारी ने इसे बिम्ब के रूप में प्रयोग किया है। 'नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा' में आप पायेंगे कि शीर्षक ख़ुद में एक कविता है। एक पंक्ति कितनी व्यापकता लिए मिल रही है यहाँ। इसे यूँ मान लें, कि छतनार पेड़ यह संग्रह है, जिसकी जड़ में यह शीर्षक का निवास है। अभी कविता रूपी तनाओं से मुलाक़ात होनी बाक़ी है। पहली कविता 'जोग' पढ़ते ही पठनीयता की ट्यूनिंग हो जाएगी, आप एक निश्चितता के साथ आगे की कविता पढ़ेंगे, कि कुछ अलग तेवर की कविताएँ पढ़ने को मिलने वाली हैं।
“जागे हुए सुरों के साथ
पूरी ज़िंदगी जागना पड़ता है”
यह दो पंक्ति इस पूरी कविता का सार है।
यहाँ उदास सुर लगाती स्मृतियों के बावजूद, हार जीत से परे हो कर कवि जीने की वकालत कर रहा है।
कवि सृष्टि की अलौकिकता का प्रेमी है। उसे पता हैं ऊर्जा नष्ट नहीं होती बस स्थानांतरित होती है। प्रकृति की हर छोटी से छोटी चहचहाहट का अपना बिम्ब है। जो कहीं न कहीं किसी कविता में दर्ज है। कवि कहता है “इस सृष्टि की एक भी आवाज़ व्यर्थ नहीं जाएगी।”
'सिरहाने' कविता पढ़ते हुए नीलेश रघुवंशी के कविता संग्रह 'एक चीज़ कम' की कविता याद आती है। ख़ुद का आधा मन लिए भीतर आधा बने रहना याद आता है। कवि की बेचैनी और रतजगे की चूक याद आती है। कवि कि अभिव्यक्ति में एक फाँस, एक हूक, एक मर्सिया का गीत याद आता है, जब वह प्रेमियों के दर्द का रूपक रचते हुए कहता है :
“चैत की एक जंग लगी क़टार
भीतर तक भुकी हुई।"
नदी केशव की धमनियों में दौड़ती है और मिट्टी उनका मांस-मज्जा! कवि गाँव की असल स्थिति, वहाँ के अकेले पड़े बुजुर्गों की बात अपनी कविता के अंतस में ढालते हुए कहता है कि -
“अपने बुरे दिनों की
इतनी ज़िंदा कविता
आख़िर कैसे छोड़ कर
गए होंगे वे"
इन पंक्तियों में दुनिया भर के बुजुर्गों की आहें लिप्त हैं। आहों के सहारे, दर्द की दास्तान कह रहा है कवि, पूरी सजगता और ज़िम्मेदारी के साथ।
"सब साथ थे
पर सबके अपने इंतज़ार थे"
कविता की पंक्तियाँ यूँ लिखी हैं कि इनसे इश्क़ हो जाये। इतनी सरल और इतनी विरल! यही विरलता कविता को सघन वृतांत कहने की क्षमता प्रदान करती है। कटु सत्य को कविता में कैसे कहा जाये इसका हुनर केशव तिवारी के पास है। इस बात का प्रमाण हैं ये पंक्तियाँ:
“ इंतज़ार की रस्सी में लटका
एक मुल्क था
जिसे बस एक नट के इशारे का
इंतज़ार था”
केशव तिवारी |
केशव तिवारी का जो अनुभव मार्केटिंग की दुनिया में रहा है, वो अनुभव भी उनको एक अलग काव्यात्मक दृष्टि प्रदान करता है। बाज़ार आसमान से ज़मीन पर कैसे उतरता है यह उनके अनुभव ने उन्हें बेहतर समझाया है और यही समझ कविता में यूँ उतर आयी है कि डोर टू डोर जा कर सामान बेचने वाली लड़की को नानी की उपमा देते हैं और कहते हैं -
“यही बाज़ार उनकी क़ैद और रिहाई है।”
ओस खाये पेड़ों पर आग के फूल देखता है कवि। अंधेरे में पड़े चेहरे की शिनाख्त कर रहा है कवि। पहाड़ों की अस्थिर गति के वर्तमान को देखता है कवि। अधीरज मन को समझता है कवि, और कहता है :
“समझ कर भी क्या किया जा सकता है
बस छाती पर सिल धरे जिया जा सकता है”
आवाज़ें भी मनुष्य की तरह होती हैं, कभी सामाजिक तो कभी स्व के भीतर डुबुक करती बस। कवि परेशान है, आवाज़ का ख़ुद पर से उठते भरोसे से, ल्हासा में खोती हुई आवाज़ों से, खटिया की ढीली पाँचर से आती दर्द से भीगी आवाज़ से, घोंघे की प्रसव पीड़ा से आती खामोशी की आवाज़ से, जो समंदर के ऊपर नहीं तल में विचर रहा है। अपने-अपने दरवाज़े की घुन से सब परेशान हैं और सबकी परेशानी में परेशान है कवि, जिसे चिंता हो रही है गोठिल हुए जा रही हँसिये की धार की।
कवि हर एक या दो कविता के बाद नदी के पास लौट जाता है। सई हो या बकुलाही या फिर पहुज या केन, सिंध हो या क्वारी, नदियाँ अलग हैं, नदियों का दर्द अलग नहीं। इसलिए कवि कहता है एक कविता हमेशा दर्ज करेगी तुम्हारा होना और इस होने में शामिल होगा सारी नदियों का रोना।
कवि की यायावरी और रामेश्वरम, मदुरै, धनुषकोडी - तमिलनाडु, जैसलमेर, पोरबंदर इन सभी शहरों की छुअन मिलेगी कविताओं में, वहाँ का थोड़ा बचा मिलेगा। बुन्देलखण्ड के द्वार नाम से प्रख्यात कालिंजर पर केंद्रित पाँच कविताएँ एक अलग फ़्रेम में रची कविताएँ हैं। इतिहास के हाहाकार को दर्ज करती ये कविताएँ हर ऋतु में कालिंजर की व्यथा दर्ज कर रही हैं। कवि लिखता है, जेठ में तुम्हें देखना असल में कालिंजर को देखना है। आषाढ़ में झरनों का शोर, शिशिर के धुँध में डूबा, वसंत का मन पढ़ता कालिंजर इन कविताओं में सिमट आया है।
नदियाँ, नदियों का पानी, पानी के शहर और शहर की ओर आती गाँव की तरह-तरह की उठती, कराहती आवाज़ें। कवि अपनी कविताओं में इन सब की शिनाख़्त करता मिलेगा। इन सबकी आवाज़ों को मिला कर कवि अपनी आवाज़ में बदल देता है। जैसे नदी का मर्सिया पानी होता है, कवि का मर्सिया कविता होती है और कवि उसी धुन में रच रहा है कविता का मर्सिया।
कविता संग्रह - नदी का मर्सिया तो पानी ही गाएगा
कवि - केशव तिवारी
प्रकाशक - हिन्द युग्म, नई दिल्ली
पृष्ठ - 176, मूल्य रू. 176
यतीश कुमार |
सम्पर्क
मोबाइल : 8420637209
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