स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण रेणु का हीरामन।
भारत यायावर, |
भारत यायावर पर अभी हमने उमाशंकर सिंह परमार का आलेख पढा। भारत यायावर के मित्र स्वप्निल श्रीवास्तव ने उन पर एक संस्मरण लिखा है। इस संस्मरण में मित्र के न रहने की एक पीडा है, एक कसक है। आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का संस्मरण रेणु का हीरामन।
रेणु का हीरामन
स्वप्निल श्रीवास्तव
भारत यायावर की याद आते रेणु की कहानी तीसरी कसम के हिरामन और संवादिया के बालगोबिन की याद आती है। अक्सर तीसरी कसम का यह गीत याद आता है –
सजनवा बैरी हो गए हमार
चिठीया हो तो हर कोई बाचे
भाग न बाचे कोई
करमवा बैरी हो गए हमार।
शैलेन्द्र का लिखा यह कबीरहा गीत हमें मार्मिक लगता है, दुनिया कितनी सार–असार है, इसकी प्रतीति होती है, जीवन और विछोह के तमाम दृश्य याद आते हैं। यह निस्सारता का भाव किसी प्रिय के जाने के बाद प्रबल हो जाता है। भारत के जाने के बाद रेणु के तमाम पात्र और मंजर याद आते हैं। कवि के रूप में लेखन शुरू करने वाले भारत यायावर को कैसे रेणु की लगन लग गयी, इसकी कहानी कम जोरदार नहीं है।
रेणु पर काम करते हुए उसने एक दिन मुझसे कहा था कि उसके पीछे रेणु का भूत लग गया है, वह चैन से सो नहीं पाता। यह बात मैं मजाक में नहीं कह रहा हूँ। उसने अपने संस्मरण “रेणु के भूत” में लिखा है - रेणु का भूत मुझ पर सवार है, इसे उतार नहीं सकता। रेणु जब तक जीवित थे, उनसे एक बार भी नहीं मिल पाया था, रेणु के न रहने के बाद उनके साथ रहने का अवसर मिला – धीरे–धीरे मैं रेणुमय होता गया।
रेणु के प्रति उसकी दीवानगी अद्भुत थी – यह किसी आशिक की दीवानगी थी – जो इश्क से पैदा होती है। भारत का रेणु से इश्क था – वे इस दुनिया में नहीं थे लेकिन उनकी रूह तो थी जो तमाम किताबों और प्रसंगों में प्रतिबिंबित है। यह लिखते हुए मुझे बेगम अख्तर की गजल याद आती है जो भारत के प्रसंग में काफी मौजू है –
दीवाना बनाना है तो दीवाना बना दे
वरना कहीं तकदीर तमाशा न बना दे
ये देखने वालों मुझे हंस हंस कर न देखो
तुमको न भी मुहब्बत कहीं मुझ सा न बना दे।
कोई किसी की तरह अचानक नहीं हो जाता, उसके पीछे रूपांतरण की कोई न कोई कथा होती है। जीवन और स्वभाव की कोई न कोई साम्यता काम करती है – यह भी याद रखा जाना चाहिए कि भारत तत्कालीन बिहार परिक्षेत्र का लेखक था, वह वहाँ के लोकजीवन और लोक स्मृति से भलीभाँति परिचित था। रेणु के साहित्य में जो स्थानीयता थी, वह पाठकों को आकर्षित करती थी, रेणु बिहार में बेहद लोकप्रिय लेखक थे। उनकी भाषा और कथा में सम्वाद के तौर–तरीके भिन्न थे।
हमारे वांगमय और जीवन में रूपांतरण की अनगिनत कथाएं हैं – रत्नाकर किस तरह दस्यु से बाल्मीकि में परिवर्तित हुए –क्रोच बध की कारूणिक कथा से हम परिचित हैं। महाकवि बाल्मीकि की प्रथम कविता –पंक्ति हिंसा के विरूद्ध थी, फिर आगे चल कर उन्होंने रामायण की रचना की जिसे आदि ग्रंथ माना गया। एक छोटी सी घटना ने उनका जीवन बदल दिया था, वे पूर्णरूपेण परिवर्तित हो गए ।
ऐसा क्या होता है कि आदमी अपने मूलपथ से हट कर अपना रास्ता बनाता है। यहाँ तुलना करना मेरा उद्देश्य नहीं है बल्कि यह निवेदन करना कि हमारे जीवन में ऐसी कई घटनाएं होती हैं जिससे जीवन की दिशा बदल जाती है। भारत यायावर कविता लिखते हुए रेणु के प्रेम में पड़ गया था और अंत तक इस रिश्ते का निर्वाह किया। अपना झोला-झण्डा उठा कर रेणु साहित्य की खोज में दर-दर भटकने लगा – पुस्तकालयों और पत्र–पत्रिकाओं के दफ्तरों की खाक छानने लगा। भारत ने लिखा है कि शुभचिंतकों ने बार–बार समझाया कि रेणु के भूत से पीछा छुड़ाओ। अपना कोई मौलिक रचनात्मक लेखन करो – मैंने रेणु के प्रेत से बस इतना कहा, ज्यादा कहते नहीं बना – तुम्हारे लिए, मैंने लाखों के बोल सहे। आगे भारत लिखते हैं कि यही बात रेणु ने अपने प्रथम कहानी संग्रह “ठुमरी“ के समर्पण में लिखी है और यही बात मैंने रेणु के भूत से कही। वह ठठा कर हंसा और बोला – जिससे प्रेम करोगे और प्रेम ऐसा, जिसमें तन-मन – धन सब अर्पित तो लाखों के बोल तो सुनने पड़गें – और सच कहूँ, जो मेरी छवि बन गयी है- रेणु के खोजी भारत यायावर, उससे स्वयं को विलग करना अब इस जीवन में असंभव है।
रेणु के लिए भारत का जुनून सर्वविदित था, वह उसके जीवन का हिस्सा बन चुका था। वह रेणु ओढ़ता ,बिछाता था। हर समय रेणु की चर्चा करता था। रेणु के जीवन- काल में उनकी 8-10 किताबें प्रकाशित हुई थीं। भारत ने उनके असंकलित साहित्य के दर्जन भर किताबें प्रकाशित करायी जिसमें से– वन तुलसी की गंध, एक श्रावणी दोपहरी धूप, श्रुत अनश्रुत पूर्व, अच्छे आदमी, एकाकी के दृश्य, आत्म परिचय, कवि रेणु कहे प्रमुख हैं। उनकी ग्रंथावली का प्रकाशन कराया।
हिन्दी में कई लेखकों की जीवनियां लिखी गयी है जिसमें अमृत राय का प्रेमचंद पर लिखित कलम का सिपाही, विष्णु प्रभाकर की शरत चंद पर लिखी जीवनी प्रमुख है। इन लेखक शोधकर्ताओं ने प्रोजेक्ट के तहत काम किया है फिर उससे अलग हो गए थे लेकिन भारत ने रेणु के साथ इस रिश्ते को आजीवन निभाया। रेणु पर खोज के बाद उनकी ग्रंथावली का प्रकाशन किया, उसके बाद रेणु की जीवनी लिखी। अगर वह न होता तो हम रेणु के अनमोल साहित्य से अपरिचित रह जाते। हिन्दी में ऐसे कई साहित्यकार हैं जिनका साहित्य अलक्षित रह गया है। हिन्दी में बहुत से ऐसे लोग थे जो रेणु पर लिखते लिखते रह गए थे –खासकर चरमपंथी आलोचकों ने रेणु कि खबर नहीं ली– आलोचक–प्रवर नामवर सिंह को भी यह पछतावा था कि वे रेणु पर कुछ नहीं लिख सके लेकिन भारत ने यह काम मुकम्मल ढंग से किया ।
रेणु का जीवन किसी यायावर के जीवन से कम नहीं था, आजादी की जंग से ले कर नेपाल की क्रांति में उनकी भागीदारी थी। जे पी आंदोलन में वे सक्रिय थे, उन्होंने इस आंदोलन के पक्ष में पद्मश्री वापस कर दी थी। जब श्रीकांत वर्मा जैसे लेखक/ कवि आपातकाल के नारे लिख रहे थे, रेणु उस संग्राम में सक्रिय थे। हिन्दी में ऐसे कम लेखक होंगे जों भले ही सत्ता के विरोध में लेखन कर रहे हों लेकिन सक्रिय भागीदारी से बचते रहे हैं –नागार्जुन जैसे कई प्रगतिशील कवि उनके साथ थे। यह बात दर्ज करने लायक है। रेणु या नागार्जुन आजादी की लड़ाई में माखन लाल चतुर्वेदी और नवीन की परंपरा के लेखक थे। आजादी के बाद उनका संघर्ष कम नहीं हुआ था। वे मानते थे कि लेखक का एक सामाजिक दायित्व होता है, उसे रचनाओं में नहीं अपने जीवन में उतरना पड़ता है।
रेणु के जीवन में वैविध्य था। एक जगह रूकते नहीं थे, वे निरंतर गतिशील रहे। लोकजीवन से सतत जुड़े हुए थे, इसी कारण उनकी रचनाओं में लोक के अनेक रूप मिलते हैं। प्रकृति की ध्वनियाँ और परिंदों की बोलियों से उनका रचनात्मक संसार भरा हुआ था। उनकी दुनिया हलचलों से भरी हुई थी, उन्होंने किसी तरह के एकांत का चुनाव नहीं किया इसीलिए उनके लेखन में प्रवाह था। उन्होंने लिखने के लिए ऐसी भाषा का चुनाव किया जो लोकभाषा से निकट थी –लोकभाषा के बिम्ब कहावतें उनकी रचना की ताकत थी । ये उन्हें आम पाठकों के निकट ले जाती थी इससे उनकी लोकप्रियता बढ़ी थी।
रेणु ने 1952 में लतिका से विवाह किया, पटना में मैला आँचल को पूर्ण किया। उसकी पांडुलिपि को लेकर प्रकाशकों के फेरे लगाते रहे लेकिन यह उपन्यास प्रकाशित नहीं हो पाया। फिर लतिका का गहना–गुरिया बेच कर इस उपन्यास को 1954 में प्रकाशित कराया। नलिन विलोचन शर्मा, बेनीपुरी और शिवपूजन सहाय ने एक गोष्ठी में इस उपन्यास का लोकार्पण हुआ। इस उपन्यास की आंचलिक भाषा को लेकर उनकी कम आलोचना नहीं हुई, सबसे ज्यादा अति वामपंथी आलोचकों ने की थी। लंबे अरसे तक इस उपन्यास की खबर नहीं ली गयी लेकिन जब यह उपन्यास दिल्ली से प्रकाशित हुआ तो इसकी धूम सी मच गयी। महत्वपूर्ण किताबों के साथ अक्सर ऐसे सुलूक होते हैं, उसके बाद तो इतिहास है, प्रेमचंद के गोदान के बाद इस उपन्यास को जो महत्ता मिली, उसे हम जानते हैं।
भारत ने रेणु के जीवन के कई प्रसंगों का वर्णन उनकी जीवनी में किया है। इसी तरह नेपाल की क्रांतिकथा का उल्लेख काम दिलचस्प नहीं है। जब कोइराला सत्ता में आए तो उन्होंने रेणु के सामने प्रस्ताव रखा कि उन्हें भारत में नेपाल का राजदूत बना दिया जाए जिससे वे दिल्ली में रह कर इस दायित्व के साथ लेखन का कार्य कर सके लेकिन रेणु ने इनकार कर दिया। वे दूसरी मिट्टी से बने लेखक थे – वे सत्ता का अंग नहीं बनना चाहते थे बल्कि उसके विरोध में खड़े होते थे। उनका जीवन इसका उदाहरण था – आजादी की लड़ाई हो या जेपी का आंदोलन, उन्होंने सत्ता के खिलाफ अपनी आवाज उठाई थी। रेणु के जीवन की ये कथाएं किसी उपन्यास से कम रोचक नहीं हैं। लेखक जिस तरह का जीवन जीता है, उसका प्रतिबिंब उसकी रचनाओं में दिखाई देता है –हम लेखक की रचना को उसके जीवन से अलग नहीं कर सकते। किसी लेखक की जीवनी लिखना चुनौतीपूर्ण काम है, उसके लेखक के जीवन में उतरना पड़ता है, भाषा में रवानगी लानी पड़ती हैं। भारत ने इस चुनौती को स्वीकार किया है, उसने सहज और रेणु की भाषा में उनकी जीवनी लिखी है – इसमें किस्सागोई का अदभुत गुण है।
भारत यायावर ने अपने आलेख – रेणु के जीवनी का कथ्य में लिखा है –रेणु के जीवन की खोज इतिहास के बहुत सारे अदृश्य पहलुओं की खोज भी है। सबसे पहले मैंने इतिहास, पुराण और बहुत से मिथकों की खोज की है जो हिमालय और कोसी नदी की संरचना से जुड़ी हुई है, फिर नेपाल के इतिहास की खोज की।
हम जानते हैं कि शोध का कार्य रचनात्मक लेखन से ज्यादा जटिल है, उसमें तथ्यों और घटनाओं की प्रामाणिकता पर ध्यान देना होता है, उसमें कल्पना की कोई जगह नहीं होती। आत्मकथाएं या जीवनिया तथ्य और जीवन की घटनाओं पर आधारित होती हैं इसलिए उसे लिखना जोखिम का काम है। यह श्रमसाध्य आयोजन है - भारत ने रेणु की जीवनी के साथ ईमानदारी बरती है।
रेणु का गीतकार शैलेन्द्र के साथ आत्मिक संबंध था – रेणु ही नहीं शैलेन्द्र भी उनकी तरह गुलफाम थे वरना रेणु की कहानी तीसरी कसम उर्फ मारे गए गुलफाम पर फिल्म क्यों बनाते। भारत ने अपने लेख – सच पर मर मिटने की जिद्द में इस प्रकरण पर विस्तार से लिखा है। रेणु और शैलेन्द्र दोनों लगभग एक ही उम्र के थे, दोनों ने बयालीस के आंदोलन में भाग लिया था, दोनों के डी एन ए में बिहार का लोकजीवन था, रेणु लोकजीवन की जिस भाषा में लिखते थे, उसी भाषा में शैलेन्द्र गीत लिखते थे। तीसरी कसम एक तरह से बिहार के इलाके की लोककथा थी। इस फिल्म की कहानी बंबाइया फिल्मों से भिन्न थी, इसमें फिल्म के हिट होने का कोई फार्मूला नहीं था। यह फिल्म जानबूझ कर ब्लैक और ह्वाइट में बनाई गयी -सोचिए – अगर इस फिल्म को इस्टमैन कलर में बनाया गया होता तो राजकपूर न हिरामन लगता न वहीदा रहमान हिराबाई की भूमिका में ही नजर आती। जब यह फिल्म बन रही थी तो वितरकों ने फिल्म के अंत को लेकर आपत्ति उठाई और कहा कि फिल्म् के अंत में दोनों को मिला दिया जाए तो फिल्म हिट हो जाएगी-इस पर सबसे पहले शैलेन्द्र ने एतराज उठाया। फिल्म का अंत ही इस फिल्म की आत्मा थी।
इस फिल्म के बनने के बाद फिल्म वितरकों ने भरपूर असहयोग किया और फिल्म बुरी तरह फ्लाप हुई, फिल्म से जो उम्मीद थी, वह पूरी नहीं हुई। शैलेन्द्र को कर्जदार घेरने लगे, वे इस दबाव को बर्दाश्त नहीं कर पाए और वे असमय इस दुनिया से रूखसत हो गए। 14 दिसंबर 1966 उनके जाने की तारीख थी। रेणु शैलेन्द्र की मृत्यु से इतने आहत हुए कि उन्होंने 1967 से 1969 तक कुछ नहीं लिखा, यह उनकी संवेदनशीलता का प्रमाण था। हंस का जोड़ा जब बिछुड़ जाता है तो इसकी यही स्थिति होती है। जब इस फिल्म को स्वर्ण पुरस्कार मिला तो यह फिल्म खूब चली लेकिन सुगना तो उड़ चुका था, वे अपनी सफलता को देखने के लिए जीवित नहीं थे।
रेणु का जीवन कोई अकेले का जीवन नहीं था, वे अपने जीवन में अनेक लोगों से जुड़े हुए थे, उनका मानस ऐसे लोगों की सान्निध्य से निर्मित हुआ होगा, उनकी रचनात्मकता को गति मिली होगी। लोकजीवन के की पात्र उनकी रचनाओं में सहज दिखाई देते है –साहित्यकारों में उनके संबंध अज्ञेय, निर्मल वर्मा थे जो उनके वर्ग के लेखक नहीं थे, उनके भीतर अभिजात था जबकि रेणु समाज के हाशिए के लोगों के रचनाकार थे लेकिन यह अंतर उनके मित्र भाव को बाधित नहीं कर सका। वह समय ही ऐसा था जिसमें मित्रताएं असहमति के बावजूद बनी रहती थी। उनके रंग के लेखक नागार्जुन और त्रिलोचन थे उनसे उनकी खूब पटरी बैठती थी। भारत के लिए यह कितना कठिन साध्य काम रहा होगा –उनकी जीवनी लिखते समय इस लेखकों के जीवन और रेणु के साथ इनके संबंधों के सूत्र तलाशे होंगे। रेणु के बहाने हमें अनेक लेखकों के जीवन और रचनायात्रा का परिचय मिलता है –उनके जीवन काल की सामाजिक और राजनैतिक पर्यावरण के बारे में जानकारी मिलती है जिसके लिए हमें भारत यायावर का ऋणी होना चाहिए।
रेणु की जीवनी का पहला खंड आ चुका है, दूसरे खंड पर काम कर रहा था कि बीच में मृत्यु ने विराम लगा दिया है। कभी कभी सोचता हूँ कि क्या कविताएं किसी कवि के जाने की आहट देती हैं भारत की यह कविता देखे –
अब कुछ बचे हैं शब्द
जो बने हुए हैं मेरे मित्र
और बहुत कुछ कहना है
अब कुछ भी लोग बचे हुए हैं
जिनसे कुछ देर बतियाया जा सकता है
अब कुछ बची हुई हैं यादें
जो मेरी संवेदना में स्पंदन पैदा कर देती हैं .
ऐसा था रेणु का हिरामन भारत यायावर, जिसने रेणु के लिए अपने अंतिम वचन निभाए, उनके साथ जीता–मरता रहा। रेणु के साथ उसे भी याद जाएगा, उनके लिए वह संदर्भ ग्रंथ का काम करता रहेगा। मुश्किल से कोई किसी का पर्याय बन पाता है।
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510 –अवधपुरी कालोनी
अमानीगंज – फैजाबाद -224001
मोबाइल 09415332326
फैजाबाद - 224001
मोबाइल 09415332326
जोरदार संस्मरण
जवाब देंहटाएं