कुमार अम्बुज की किताब थलचर की यतीश कुमार द्वारा की गई समीक्षा ' लेखक सदैव ही टूटता हुआ तारा है।'
कवि का गद्य अपने आप में अनूठा होता है। काव्य की आभा लिए हुए गद्य, जिसे पढ़ते हुए कविता की धारा में ही बहने का अहसास होता है। कुमार अंबुज हमारे समय के ऐसे ही महत्त्वपूर्ण कवि हैं, जिन्होंने सिर्फ कविताएँ ही नहीं कहानियां और ललित निबन्ध सरीखे और भी गद्य भी लिखे हैं। उनकी गद्य की एक महत्त्वपूर्ण किताब है 'थलचर'। युवा कवि यतीश कुमार ने थलचर को पढ़ते हुए समीक्षा लिखी है। इसे सिर्फ समीक्षा कहना भी अनुचित होगा। किताब के बहाने से यतीश का मौलिक गद्य भी इसमें अपनी भरपूर उपस्थिति के साथ है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है कुमार अंबुज की किताब 'थलचर' पर यतीश कुमार की आलेखात्मक समीक्षा 'लेखक सदैव ही टूटता हुआ तारा है।'
लेखक सदैव ही टूटता हुआ तारा है
यतीश कुमार
इस किताब को छूते ही मैं थोड़ा सा कृष्ण नाथ से, थोड़ा विनोद कुमार शुक्ल से और फिर रुक कर स्वदेश दीपक से मिला।
कोई भी कविमना जब भी एकांत में होगा कुछ ऐसी ही आत्म उक्तियों से रु ब रु होगा। थोड़ा खुद को खोएगा थोड़ा खुद को पायेगा।
हे मन तू चल अब कुमार अम्बुज की सुन और सुन कि तुझे अभी कितना कुछ सीखना है इस ख़ुदरंग से। देख रहा हूँ कि पंचतत्व एक साथ मिल कर क्या सच में खिल जाते हैं चाँद के ओसारे, कभी चाँदनी तो कभी चाँदना बन कर।
यहाँ पढ़ते हुए यूँ अचानक कुछ पंक्तियाँ मेरी तर्जनी पकड़ लेती हैं और मैं अपने ही जंगल की ओर निकल पड़ता हूँ, अपने तालाब में डुबुक लेता हूँ और उसकी मेढ़ पर बैठ कर मछलियों की डुबकी से भरा संगीत सुन लेता हूँ और गीत के अनुगूंज उसकी उजास के संग जुगनुओं की टोली से मिला देते हैं और फिर वहाँ से निकल कविताई नीचे पसर जाती है और मेरी आँखें वहाँ रुक जाती है जहाँ उन्होंने लिखा है ‛अपनी आत्मा में बनता हुआ मकड़ी का घर‘ और मैं कुछ देर अपने हाथ में जाले महसूसते हुए अपने कपड़ों से पोंछने की पुरजोर कोशिश करता हूँ और पूरी तरह विफल होता हूँ इस प्रश्न के साथ कि क्या अपने हाथ से कोई अपनी लकीर पोंछ सकता है भला।
पढ़ते हुए लगता है कि किसी आध्यात्मिक वायवीय विचार दृष्टि के केंद्र में घंटो शून्य में पड़ा हूँ विचार आते हैं दरवाजे से लौट जाते हैं साँकल झुलाते हुए और मैं हूँ कि शून्य के अंतराल में सोया पड़ा हूँ। मैं जिसे अपनी स्वतंत्रता समझता हूँ वह उसका दरअसल अनुवाद निकलता है ऐसा इस किताब में भी लिखा है। समझ सका कि नैसर्गिकता पर छाई मलिनता का एहसास ही नहीं बल्कि जरूरी है हर चमकदार चीज को रूखेपन से मिलवाना और जमी काई का साफ होना क्योंकि यात्रा तो अन्तः 360 डिग्री की ही होती है न जाने क्यों लोग समझते हैं 180 डिग्री क्यों समझते हैं और भ्रम में इसे बेहतर भी समझते हैं।
पढ़ते-पढ़ते कौंधता है जहाँ लिखा है ‛लेखक सदैव ही टूटता हुआ तारा है। एक पुच्छल तारा जो रोशनी करता हुआ टूटता है। उसे कैसे बचाया जा सके कि उसकी रौशनी ज्यादा दूर तक, देर तक चले।' और फिर सिहर जाता हूँ यह पढ़ते हुए कि मुझे ख़ुद में से पिघलते हुए गरम कोलतार की गंध आती है। रचना प्रक्रिया में छुपी रहस्यमयता को ढूंढ़ते समय जो विस्मय और उत्खनन कवि से हो जाता है उसे भी समझना भी बेहद जरूरी है। वे लिखते हैं साहित्य की दुनिया समुद्र के भीतर बसी दुनिया है अपार और अंतहीन, हर बार अचंभित करती हुई।
कवि कनैल का गुलाम बने रहना चाहता है। कवि छूटे हुए दृश्यों की खोज में खोए हुए समंदर में गोता लगाता है कवि कई बार बहुत लंबी नींद में होता है तो कई बार उसे नींद नहीं आती। कवि के पास है स्मृतियों का कोलाज और वहाँ की आवाजाही उसे उसकी कविता को अंकुरित करती रहती है या यूँ कहें उसकी कविताई को पोषित करती रहती है तो बेहतर होगा। वहाँ उन गलियों में कवि उनींदा हो जाता है, भटक जाता है, विस्मित हो जाता है, और फिर जब जागता है तो कविता की टहनी लिए उस आरण्य से उसकी वापसी होती है।
कवि अकेली शामों का और अकेली रातों का जिसे वो शामों का दिलचस्प विस्तार ही मानता है बेहद शुक्रगुजार है और उसे थलचर और नभचर के यथार्थ के बीच डायने की दूरी लगती है और उसे लगता है कि इस दूरी को संभवतः कविता के पंख ही भरते हैं जो कवि के जीवन को उड़ान देती है वो सापेक्ष उड़ता तो नहीं पर कल्पना के साथ यथार्थ के पांवों के सहारे संसार, विश्व या अंतरिक्ष नाप लेता है।
कविता का जिक्र यहाँ पनाहगार की तरह है और जिसे कवि मंच में बदलने की वकालत कर रहा है मशाल लिए और मिसाल बने वरना आवाजें यूँ ही अनुगूंज बन गुम हो जायेंगी परिदृश्य से और उसके साथ कवि भी। इसलिए कवि कविता का रकबा बचाने की बात करता है। कविता को बचाने और बांचने की बात करने वाला कवि उसकी लोकप्रियता के माध्यम ढूंढ़ने को कहता है और कहता है यह एक साहित्यिक जिम्मेदारी है कि अच्छी कविता लोगों तक पहुँचे। और यूँ उसने इसे रच डाला ....
कुमार अम्बुज |
1.
एक खाली सिगरेट का पैकेट हूँ
जिसमें धुआँ भरा पड़ा है
और देखते देखते मैं
कवि की बेचैन बुदबुदाहट में बदल जाता हूँ
कविता धुआँ से जादुई बुदबुदाहट में
तब्दील हो जाती है
और फिर बुदबुदाहट एक स्पार्क में
उस कौंध को पीने के लिए,
उस जादुई ट्रांस में कुछ पल
और ठहरने के लिए
मैं सौ बार मरने को तैयार हूँ
पर उस अपारदर्शी धुएँ में
वह कोण हर कोने से त्रियक ही दिखता है
और मैं इसे ठीक करने की कोशिश में
360 डिग्री से 180 डिग्री में बदल जाता हूँ
2.
कोई-कोई क्षण
बींधते हैं रुक- रुक कर
और टूटे तीर छोड़ देते हैं
भीतर तुड़े मुड़े
उदासी ने सामने वाले शीशे को
इतना घिसा है
कि दुनिया धुंधली नज़र आती है
और वो है कि अपने चश्मे के शीशे को साफ करने में लगा है
समस्याओं के समाधान के लिए
जो विजिटिंग कार्ड थमाए गए
वो अपने पते पर कभी नहीं मिलते
अब मेरे हाथों में विजिटिंग कार्ड की जगह किशकोल है
पता है जब तक हाथ में छेनी हथौड़ा है
आकृति बनती रहेगी
पर डर है मेरे नहीं
कल उसके विलय होने का
3.
हर आदमी के पास
उसकी अपनी एक नदी है
उसका अपना वसंत
और अपना पतझर
अकेला होना
निर्वाण का अंतिम रास्ता है
प्रकृति साथ चलती है
अंतिम आरण्य तक
इस रास्ते में उसका हमसफर
उसकी अपनी नींद है
ईश्वर का पहला काम है नींद की रक्षा
और ईश्वर हर बार हार जाता है
उनींदे निष्प्राण सम्बन्ध
रह-रह कर कब्र से उठ आ मिलते हैं
मेरा अकेला होना भी मेरा भ्रम ही है
यह कब्र में लेटते हुए जान पाया
4.
सरकारी बसों का
उजाड़ लिए घूमता हूँ
उखड़ी साँस के अंतराल में
किसी और की साँस लिए गुनता हूँ
यह उबड़ खाबड़ रास्ता
क्या उस अधूरे मकान तक ही जाता है
मैं भी तो उस मकान-सा ही हूँ
न रहा जाता है न बेचा
सफर का भी अपना आँच है
पकती हुई आँच की सुलगन को
छूने के लिए बढ़ता हूँ
हाथ में जली हुई रोटी की कालिख है
दानवी निगाह जहाँ पड़ती है
कालिख पसरती जाती है
गाँव शहर में तब्दील होता जाता है
वो बेहतर जानते और समझते हैं
मारने और नष्ट करने का अंतर
दृश्य अब बुझा हुआ है
आँख में जलती ढिबरी को छोड़ कर
5.
अबोधता से भरा शक्तिशाली मन
प्रकारांतर से टहलता हुआ कवि है
जिसकी आदिम आकांक्षा
हर रात टहलने निकल जाती है
और सुबह उठते ही उसकी मुट्ठी में
दो शब्दबीज छोड़ जाती है
अपनी पूरी अवस्था
और अधिपत्य की चाहना के साथ
क्या कोई बताएगा
बुद्धि और व्यवहार का एकमेव होने का सूत्र
क्या कोई समझायेगा
कि असंतोष को समझने के लिए
असंतुष्ट होना कितना जरूरी है
कोई क्या सुझाएगा कि
अलंकारहीन होने की यात्रा पर निकला कवि
खुद मंजिल का पता मालूम कैसे करेगा?
6.
विलुप्त झरने के पदचिन्ह देखना
पहाड़ के कटते वक्ष देखना
जंगल की टहनियों पर
अपनी रोटी सेंकना
और एक घूंट पीते हुए नदी में
एक घूँट कम होते देखना
ईश्वर के पाँव में चुभे कांटे से कम नहीं
और यह मैं पत्नी के पांव के कांटे
निकालते समय सोचता हूँ
7.
एक बदलता शहर भीतर है
और बाहर भी
दोनों के तालमेल में
अपने घर से बेदखल कर रही है कविता मुझे
और यूँ शहर के मानचित्र में
घर छोटा होता जा रहा है
किसान के एक कमरे में अनाज है
दूसरे में भूसा
इससे बेहतर संतुलन कहीं नहीं
और उससे ज्यादा असंतुलित कोई नहीं
विस्थापित से प्रामाणिक और क्या
साइकिल अगर एक कविता है
तो उसकी टायर में पच्चड़ की तरह
कुछ कुंद तीर ठुंके पड़े हैं
8.
भावनाओं का झाग समंदर सा है
खत्म होने का नाम ही नहीं लेता
भाषा अपनी ढलान के विरुद्ध है
समय उसके लिए संग्रहालय भी और दीमक भी
परंतु यह भी सच है
कि लुप्त होती भाषाएं केचुली है
नित नए को जन्म देती
भीतर की फुलवाड़ी में कुछ रहे न रहे
कनैल,गुलमोहर और हरसिंगार को बचाना है
अब मैं बस
ईश्वर द्वारा दी गयी साँसों का
अंतिम लहर तक दर्शन चाहता हूँ
भीतर बैठे कवि को वणिक होने से बचाना है
यतीश कुमार |
सम्पर्क
मोबाइल : 8420637209
शब्द और शब्द हर बार विस्मय से भर देते हैं,इन्हें समझने की कोशिश में उलझती जाती हूँ,हाँ जब इन शब्दों के डोर थामे चल पड़ी ये जिधर ले चले...तब एक अद्भुत संसार मिला,जिसमें होना उतना ही सुखद जितना उसमें न होने का दुःख।
जवाब देंहटाएंशानदार समीक्षा।हार्दिक बधाई यतीश भाई।🌹🌹
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएँ शानदार समीक्षा ! अनन्त शुभकामनाएँ
जवाब देंहटाएंदिलचस्प समीक्षा।
जवाब देंहटाएंअर्ध विराम, पूर्ण विराम को विस्मृत कर चुका गद्य अपने काव्यात्मक प्रवाह में अर्थ को भी बहा ले गया है।
मैं तो इसी उलझन से नहीं निकल पा रहा कि *खाली* की पदस्थापना कहाँ करूँ!
पैकेट से ठीक पहले रखने पर शायद 'खाली' उपयुक्त लगे-
एक खाली सिगरेट का पैकेट हूँ
जिसमें धुआँ भरा पड़ा है
दिलचस्प समीक्षा, थलचर पढ़ने को उद्वेलित करती हुई... कुमार अंबुज जी और यतीश भाई को बधाई।
जवाब देंहटाएंप्रिय यतीश
जवाब देंहटाएंभाई, कमाल लिखते हो तुम!
पूरी समीक्षा सुन्दरता और साहित्य से भरी है। हर पंक्ति में सोच है, सीख है! सबको लिखना तो संभव नहीं है पर एक यहाँ लिख रहा हूँ, जो आज के लिए प्रासंगिक है और ज़रूरी है की हम सब सोचें इस विषय पर! आज विश्व हिंदी दिवस पर अमेरिका में इससे बेहतर सुबह नहीं हो सकती थी! बहुत बहुत बधाई कुमार अम्बुज और यतीश और शुभकामनाएँ की ये साहित्यिक यात्रा हमेशा चलती रहे।
विलुप्त झरने के पदचिन्ह देखना
पहाड़ के कटते वक्ष देखना
जंगल की टहनियों पर
अपनी रोटी सेंकना
और एक घूंट पीते हुए नदी में
एक घूँट कम होते देखना
ईश्वर के पाँव में चुभे कांटे से कम नहीं
और यह मैं पत्नी के पांव के कांटे
निकालते समय सोचता हूँ
शुभकामनाओं सहित-
अविनाश