उमाशंकर सिंह परमार का आलेख अनथक यायावर : भारत यायावर।
भारत यायावर |
विगत 22 अक्टूबर 2021 को प्रख्यात रचनाकार भारत यायावर का निधन हो गया। यायावर एक आलोचक होने के साथ साथ एक उम्दा कवि भी थे। एक ही परिवेश( झेलते हुए, मैं हूं यहां हूं, बेचैनी, तुम धरती का नमक हो एवं हाल-बेहाल उनके चर्चित कविता-संग्रह हैं।
अरसा पहले उन्होंने विपक्ष नामक पत्रिका का सम्पादन भी किया था। शोधपरकता उनके स्वभाव में थी। नामवर सिंह की जीवनी और रेणु की जीवनी को जिस आलोचनात्मक तरीके से यायावर ने लिखा वह दुर्लभ है। यायावर ने महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली का संपादन भी किया है। युवा आलोचक उमाशंकर सिंह परमार ने भारत यायावर पर एक आलेख लिखा है अनथक यायावर : भारत यायावर'। भारत यायावर की स्मृति को नमन करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उमाशंकर सिंह परमार का आलेख अनथक यायावर : भारत यायावर।
अनथक यायावर : भारत यायावर
उमाशंकर सिंह परमार
हिन्दी साहित्य की सेवा और साधना में अपना धन अपना समय और अन्ततः अपना जीवन अर्पित करने वाले अस्सी के दशक के दिग्गज कवि भारत यायावर के सम्बन्ध में आम तौर पर लोग पहला सवाल यही करते हैं कि भारत की पक्षधरता क्या थी। भारत यायावर पर यह सवाल उठना लाजिमी भी है वह इसलिए कि उन्होंने कभी भी मुखर हो कर अपनी राजैतिक पक्षधरता पर बात नहीं की वह केवल साहित्य के पक्षधर रहे दलबन्दी हदबन्दी उन्हे उसी सीमा तक स्वीकार्य थी जिस सीमा तक साहित्य के मूल्य व साहित्य के बुनियादी सरोकारों पर प्रभाव न पडे।
भारत यायावर जलेस प्रलेस दोनों में रहे और दोनों संगठनों का त्याग किया। वह सभी प्रकार के लेखक समागमों आयोजनों में जाते थे एवं अपने लेखन के लिए जरूरी चीजें वह किसी भी विचारधारा के साहित्य के लेखक से निचोड़ लेते थे। उनके इस व्यवहार को हम अन्वेषी व्यवहार कह सकते हैं अपनी इस वृत्ति को उन्होंने जीवन का वृत्त बनाया । तभी वह नामवर होने का अर्थ, महावीर प्रसाद द्विवेदी रचनावली और रेणु रचनावली, रेणु की जीवनी जैसी दुर्लभ और तथ्यों से भरपूर कृतियाँ व अनछपे पहलू, अनजाने मामलों को दस्तावेजी स्वरूप दिया और इस सृजन से हिन्दी साहित्य को समृद्ध किया। फिर भी मैं कहूँगा साहित्य में जब पक्षधरता की बात होती है तो सामान्य धारणा यही बनती है कि पक्षधरता विचारधारा की होती है। मगर मैं समझता हूँ यह तर्क पक्षधरता का नहीं है यहाँ विश्लेषण एवं तर्क की जरूरत है। क्योंकि सवाल यह है कि पक्षधरता जब विचारतत्व की नहीं है तो किसकी है? वास्तविकता यही है।
लेखन में विचार आवश्यक है। हर एक लेखक की अपनी विचारधारा होती है। यह विचारधारा अमूर्त नहीं होती। लेखक अपने लेखन में उसे घोषणापत्र की तरह प्रकट करके चलता है। विचारधारा दो तरह की होती है पहली विचारधारा जो राजनैतिक पक्षधरता से जुडी होती हैं और दूसरी वह विचारधारा जो साहित्यिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों का आधार होती है। अधिकांश लेखक दूसरी तरह के विचारों को स्वीकृति प्रदत्त करते हैं। इसका आशय यह नहीं है कि लेखक राजनीति से निरपेक्ष रहता है उसकी अपनी राजनीति नहीं होती है। दरअसल लेखक की अपनी राजनीति होती है जो सत्ता प्राप्ति और चुनावी राजनीति से पृथक होती है। लेखक अपने बुनियादी लेखकीय मूल्यों को ले कर ही जनता और समाज की सांस्कृतिक राजनीति करता है। वह समाज और जन के लिए घातक मूल्यों व सांस्कृतिक मूल्यों का प्रतिरोध करता है व जन के लिए उचित उपयुक्त मूल्यों को स्वीकार करता है। इससे यही प्रकट होता है यह पक्षधरता जनता की है। साहित्य जो कभी राजदरबारों की शोभा होता था सस्ते ऐन्द्रिक मनोरंजन का साधन होता था वह आज जनता की पक्षधरता के साथ साथ जनता की आवाज बन गया है। वह किसी दरबार की शोभा नहीं है। यह स्थिति साहित्य ने अपने इतिहास एवं अपने लेखकीय विचारों से प्राप्त की है। इस अवस्था तक आने में सैकडों वर्षों तक लेखकों ने संघर्ष किया है। यह कहने की कोई जरूरत नहीं कि भारत यायावर साहित्य के साहित्यिक मूल्यों व सरोकारों के प्रति पक्षधर थे। वह किसी तरह की राजनैतिक दलबन्दी जैसी पक्षधरता से बहुत दूर थे। प्रेमचन्द की तरह साहित्य को राजनीति के आगे चलने वाली मशाल मानते थे। लेखक के लिए मनुष्य होना जरूरी मानते थे। वह संवादों मे अक्सर कहते थे केवल मनुष्य होने से काम नहीं चलेगा थे। लेखक होने के लिए ईमानदार मनुष्य होना और करुणा का होना जरूरी है। जब तक करुणा नहीं होगी तब कविता कैसे होगी।
भारत यायावर अपनी ईमानदारी और करुणा के चलते अपने मित्रों से आत्मीयता रखते थे। ऐसा कोई मित्र न होगा जिसके साथ उनका देर तक संवाद न होता रहा हो। जब कोई फोन नहीं करता था वह खुद सप्ताह मे एक दो बार फोन मिला कर बात करते थे। अपने मित्रों से चुहल भरा संवाद, छींटाकशी, आत्मीयता भरा रोष भी खूब प्रदर्शित करते थे और इन्हीं मित्रों पर कविता भी लिखते थे। अनिल जनविजय, स्वप्निल श्रीवास्तव, सुधीर सक्सेना, राजा खुगशाल, कृष्ण कल्पित, शम्भु बादल पर उनकी बेहतरीन कवितायें हैं। नयी पीढी के लोगों में उन्होंने मुझ पर और अजीत प्रियदर्शी पर कविताएं लिखी हैं।
भारत यायावर का सबसे बडा योगदान जिसे इतिहास मे कभी झुठलाया नहीं जाएगा - वह है फणीश्वर नाथ रेणु व महान गद्यकार महावीर प्रसाद द्विवेदी की दुर्लभ रचनाओं की खोज कर उन्हे प्रकाशित करना। इन दोनों गद्यकारों के लिए हिन्दुस्तान का शायद कोई पुस्तकालय हो जहाँ यायावर न गये हों। यहाँ तक कि नेपाल के पुस्तकालयों में भी भटकते रहे। वह किसी भी लेखक से मिलते तो रेणु और द्विवेदी पर उनके पास जो भी सामग्री होती थी उसकी फोटो प्रति जरूर करा लेते थे। यहाँ तक कि रेणु के एक पत्र के लिए समूचे राजस्थान के पुस्तकालयों को छान मारा। द्विवेदी और रेणु की रचनावली वह समूचे लेखन के साथ लाना चाहते थे कि कोई भी सामग्री कहीं छूट न जाये और यही हुआ। रेणु की बारह कहानियाँ जो विभिन्न पत्रिकाओं में प्रकाशित थी कुछ पाण्डुलिपि के रूप में थी उन्होंने पहले पुस्तकाकार प्रकाशित किया फिर उसे रचनावली में संकलित किया।
महावीर प्रसाद द्विवेदी के बहुत से आलेख थे जो सरस्वती से इतर हटकर पत्र संवादों व तत्कालीन अखबारों में और विभागीय पत्र व्यवहार में थे सबको एकत्र किया और रचनावली में विस्तृत भूमिका लिखते हुए संकलित किया। महावीर प्रसाद द्विवेदी की रचनावली की भूमिका द्विवेदी जी के साहित्य पर विहंगम दृष्टि के साथ साथ एक तरह का तर्कपूर्ण मूल्यांकन भी है। इसी तरह रेणु की रचनावली की भूमिका भी आलोचकीय दृष्टि से महत्वपूर्ण है। भारत द्वारा इन दोनों रचनावलियों का सम्पादन और उनकी भूमिकाएं एक वादघात नहीं है बल्कि भारत यायावर द्वारा द्विवेदी और रेणु के प्रति आत्मीयता और लगाव का प्राकट्यकरण है। इसके अतिरिक्त उनका आलोचकीय रूप भी कुछ पुस्तकों के रूप में सामने आया लेकिन यह रूप भी अन्य रूपों की तरह रेणु की धुन में खो गया।
भारत मूलतः कवि थे लेकिन द्विवेदी और रेणु की रचनावलियों के लिए खोजी यायावर बनने के साथ ही उनका कवि रूप छिप गया। वह यायावर और अन्वेषक बन गये। इसी तरह रेणु की जीवनी और नामवर सिंह की जीवनी के लिए अन्वेषी स्वभाव ने उनके आलोचकीय व्यक्तित्व को छिपा दिया। भारत की आलोचना में भारतीय सैद्धांतिकी व पाश्चात्य की विधागत मान्यताओं का लोकधर्मी समावेश था। वह पाश्चात्य साहित्य के अध्येता थे। अपने मित्रों से निरन्तर पाश्चात्य कवियों और सिद्धांत शास्त्रियों पर बात करते थे। उनकी आलोचना का यह रूप उनकी कृति विरासत में देखा जा सकता है।
आलोचना की आलोचना साधारण सृजन नहीं है। इसके लिए फौरी अध्ययन की नहीं, गहराई में उतरने की जरूरत होती है। साथ ही आलोचना जब बडे आलोचक की हो तो विचार व तर्क में निरपेक्ष दृष्टि की जरूरत होती है जो किसी मँजे हुए अनुभवशील आलोचक की पहचान है। ‘नामवर सिंह का आलोचना कर्म - एक पुनः पाठ’ इसी तरह की आलोचना है। इस कृति की प्रशंसा खुद नामवर सिंह ने की थी। रेणु का अन्दाजे बयाँ उनकी भाषा दृष्टि की परिचायक है। भारत यायावर उर्दू में मिर्जा गालिब को बहुत पसंद करते थे। गालिब को लेकर उनकी कवितायें भी हैं। रेणु का अन्दाजे बयाँ और उस का शीर्षक भी गालिब के एक शेर का अंश है। गालिब पर उनका स्वतन्त्र आलेख भी है। अपनी आलोचना में जब वह रेणु के बयाँ पर बात करते हैं तो उनके समक्ष गालिब होते हैं। वह बयाँ के अन्दाज से रेणु को गालिब के सापेक्ष खडा करते हैं। उनकी एक आलोचना कृति है ‘पुरखों के कोठार से’ इस किताब में उन्होंने हिन्दी के पुराने कवियों पर विस्तार से बात की है। रेणु के संस्मरणों पर भी उनकी आलोचना किताब है। रेणु के संस्मरण इस पुस्तक में भारत की कथा आलोचना तथा उनकी गहरी अध्यनशीलता व शास्त्रीयता के गहन बोध से आप प्रभावित हुए बगैर नहीं रह सकते हैं।
अपनी यायावरी से उन्होंने खुद को अस्वस्थ कर लिया यात्रायें बन्द हो गयीं। इस अवस्था में भी उनके भीतर स्थित अन्वेषक ने साथ नहीं छोडा। घर में अधिकतर समय देने से कविता और आलोचना भी पुनः लिखना आरम्भ किया। लेकिन दिलोदिमाग में रेणु की जीवनी लिखने का जुनून था। वह रेणु की जीवनी लिख रहे थे। इसके राजकमल प्रकाशन तैयार था और रजा फाउन्डेशन से उन्हे वित्तीय सहायता भी मिली हुई थी। रेणु की जीवनी का पहला खण्ड उनके अस्वस्थ शरीर और कठिन रचनात्मक संघर्षों का परिणाम था। वह दूसरा खण्ड भी लिखना शुरू कर चुके थे और कहते थे यह भी इसी वर्ष 2021-22 में आ जायेगी। मगर दुर्भाग्यवश वह पूरी नहीं हो सकी और इसी अक्टूबर माह की 22 तारीख को ह्दयघात से वह इस संसार को हमेशा के लिए अलविदा कह गये।
भारत यायावर एक प्रतिबद्ध कवि रहे हैं। तमाम लेखक संगठनों से जुड कर भी उनसे अलग ही रहते रहे और स्वतन्त्र चेता लेखक की तरह विभिन्न विषयों में रचनात्मक रूप से सक्रिय रहे हैं। उनके अब तक कई कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। ‘झेलते हुए’ उनका पहला काव्य संग्रह है जो उन्नीस सौ अस्सी मे प्रकाशित हुआ। ‘मै यहां हूँ’, ‘बेचैनी’, ‘हाल बेहाल’ आदि काव्य संग्रह चर्चित रहे। कुछ साल पूर्व उनकी चुनिन्दा कविताओं का संग्रह ‘तुम धरती का नमक हो’ प्रकाशित हुआ है जिसके संपादक गणेश चंद राही हैं। इस संग्रह से उनकी चेतना और काव्य विवेक को भली प्रकार परखा जा सकता है।
व्यक्ति की पक्षधरता उसकी कविता सम्बन्धी समझ मे ही सन्निहित होती है। उन्होंने कविता को धरती का नमक कहा है। नमक एक ऐसा पदार्थ है जिसकी जरूरत सभी को होती है। कविता की जरूरत भी सभी को है। कविता ही स्वप्नों का सृजन करते हुए जीवन को तमाम संभावनाएं प्रदत्त करती है
“तुम धरती का नमक हो
सभी को तुम्हारी जरूरत
एक ही तरह
तुम वह सब हो
जो पूरी मानवता के लिए जरूरी है”
‘तुम धरती का नमक हो, भारत की कविता की वह विशेषता जो उन्हे अपने समकालीनों से अलहदा कर देती है वह है किसी भी बात को सीधे सीधे कहना। वो किसी भी तरह की दार्शनिक और वैचारिक रूप से बोझिल भंगिमा नहीं अपनाते हैं। गम्भीर से गम्भीर तथ्य को बडी सहजता व हल्के फुल्के अन्दाज में व्यक्त कर देते हैं। यह सहजता उनके निजी जीवन में भी दिखती है। रत्ती भर बनावटी नहीं हैं। उनकी जमीन ने जिस तरह से उन्हे गढा है उसी तरह से वो दिखते हैं और उसी तरह की सहजता व सादगी अपने रचना-कर्म में भी समाहित करते हैं। जटिलता को नकारती उनकी कविताएं तमाम छद्म नारों का प्रतिकार करने लगती हैं। देखिए बाढ का एक बिम्ब और कवि की उस पर नपी तुली प्रतिक्रिया।
“न तूफान का आना तय था
न पेड का गिरना
न मेरे मिट्टी के मकान का
पूरी तरह धँस जाना
न यह तय था
कि उस मकान को छोड कर
हम बाहर जाएंगे
और उसे हम इस तरह भूल जाएगें”
(तुम धरती का नमक हो)
इस कविता में कहीं भी नकली संवेदनाएं नहीं है जिस व्यक्ति ने गाँव मे बाढ के भयंकर दृश्य देखे होंगें वो इस विस्थापन के दर्द को भली प्रकार जानते होंगे। दूसरी बात भारत की काव्य बुनावट छितरी नहीं है वह कसी हुई है। कविता का भाव सौन्दर्य और रचना सौन्दर्य दोनों परस्पर आपूरक है। विषय वैविध्यता तो ही विषयानुरूप शैलीगत विविधता भी है। काव्य कथ्य की शक्तिमत्ता ही उनकी कविता मे कसावट उत्पन्न करती है। इसलिए कविता में अन्य की कल्पना नहीं हो सकती है। यत्र तत्र सर्वत्र कवि का आत्मसंघर्ष ही प्रभावी रहता है। सपाटबयानी मे भी कसावट और आत्मसंघर्ष आप देख सकते हैं। देखिए व्यवस्था से जूझती एक कविता “यह बार बार”।
हर बार हर बात
क्यों टिक जाती है
रोटी पर
यह बार बार हर बार हर रोटी
फैल कर क्यों हो जाती है
एक व्यवस्था”
(तुम धरती का नमक हो)
आक्रोश की मुद्रा भी कलात्मक हो सकती है, यह मुक्तिबोध ने दिखा दिया है। मुक्तिबोध फैण्टेसी के द्वारा अपने आक्रोश को शब्द देते हैं। मुक्तिबोध की इस कला का प्रभाव भारत मे देखा जा सकता है। उनकी आरम्भिक कविताओं में आक्रोश ही है। फैण्टेसी भी यथार्थ का पक्ष है। फैण्टेसी कला का नकार नहीं है, न यथार्थ का अस्वीकार है। वह कला और यथार्थ दोनों पारस्परिक संयोजन है। आक्रोश के बहाने गाली देना कला नहीं है कला का ध्वन्स है। भारत भी समझते कि लगातार चिल्लाने से काम नहीं चलेगा। शब्दों को नवीन अर्थ से लैस करना पडेगा। इसलिए वह आक्रोश की मुद्रा मे शब्दों के अर्थ को निचोड कर रख देते हैं। यथार्थ को अपने तरीके से समझने और बुनने वाले भारत यायावर में बहुबिधि परिवेश को निकटता से महसूस करने की प्रवृत्ति मिलती है। उत्तरोत्तर जटिल होते समय और उसकी तहों में व्याप्त हिंसक आदतों का मुकम्मल प्रतिरोध भी बेहद सजग ढंग से प्राप्त होता है।
“ऐसे हाहाकार भरे जीवन में
मैंने अपनी शुरुआत की
और आज जो हूं
जिन्दा या मुर्दा
आपके सामने हूँ”
(तुम धरती का नमक हो)
यह कविता समय के दबावों के परिप्रेक्ष्य मे है। इतने दबाव हैं कि व्यक्ति की अनुकृति व आकृति पर भी साफ फर्क नजर आ जाता है। इस दबाव से वैयक्तिक पहचान व अस्मिता का संकट भी खडा हो गया है। भारत अपनी कई कविताओं में दबावजन्य अस्मिता की बात करते हैं।
“अन्धेरे मे अब साफ साफ
पहचान पा रहा हूँ
अपनी ही आकृति
जो जितनी ही जानी पहचानी है
उतनी ही अजनबी”
(तुम धरती का नमक हो)।
अपनी आकृति की पहचान का संकट समय की जटिलता का संकट है। जितनी जटिलता समय मे होती है कवि की अभिव्यक्ति मे उतने ही खतरे होते हैं। यही कारण है भारत यायावर अपनी बात कभी कभी यथार्थ को जटिल बना कर गहन अर्थसन्दर्भों से युक्त फैण्टेसी मे देने लगते हैं। उनकी एक कविता है।
“हजारों मील दूर से बढा आ रहा है एक अदृश्य पंजा
उसने पहले लैटिन अमरीका को दबोचा
खाडी के देशों को अपनी गिरफ्त मे ले चुका है
अब हम तक भी पहुँचना ही चाहता है
(तुम धरती का नमक हो)
इस कविता मे यथार्थ ही है। भले ही वह अदृश्य पंजा एक भयानक बिम्ब का बोध करा दे लेकिन बाजारवाद के नये स्वरूप साम्राज्यवाद का समूचा वैश्विक स्वरूप बता देता है। वैश्विक समस्याओं के मामले में भारत की कविताएं बखूबी बात करती हैं। यह कबन्ध नामक कविता प्रतीक बद्ध फैंण्टेसी के द्वारा बाजारवादी फासीवाद का आक्रोश मय चित्रण करती है। देखिए एक बिम्ब और इस बिम्ब मे युद्धग्रस्त वैश्विक राजनीति का स्वरूप भी जिसे बडी कलात्मक तत्परता से फासीवाद कह दिया गया है।
“धुंध है हवा में
और बारूदी गंध
सन्नाटा भरे वातावरण में
सिर्फ एक हिटलर का प्रेत
अट्टहास कर रहा है”
(तुम धरती का नमक हो )
यह बिम्ब उन्नीसवीं सदी का बिम्ब है। इस सदी में पूँजीवाद ने वैश्विक साम्राज्यवाद का रूप धारण कर लिया था। इसलिए अमरीका द्वारा थोपे गये हर युद्ध में हिटलर की शैतानी हँसी देखी जा रही है। भारत की ये कलात्मक फैण्टैसी यथार्थ से भी अधिक जटिल और सच है। अपने समय में फैण्टेसी को यथार्थ में तब्दील करने वालों में भारत एकमात्र कवि हैं। भारत की कविताओं में समय की जटिलता व स्वप्नों की टूटन की अनुगूंज बराबर सुनाई देती है। आजादी के पहले जिस तरह की समाज व व्यवस्था की संकल्पना आम भारतीय जनमानस ने की थी उसका प्रतिफलन आज जिस रूप में है वह अधिकांश कवियों को असन्तुष्ट कर देता रहा है। साठोत्तरी कविता में इस असन्तुष्टि के स्वर को रेखांकित भी किया गया है। वाकई में लोकतन्त्र से बेहतर व्यवस्था कुछ नहीं है लेकिन जब जब लोकतन्त्र पूँजी द्वारा आक्रान्त हो कर जनविरोधी हो जाता है तो उससे बदतर व्यवस्था भी कुछ नहीं होती है। भारत की कविताओं में इस विडम्बना को उकेरा गया है। उनकी कविता में जीवन का अन्धकार व अनुपयोगी हो रही व्यवस्था के अन्तर्विरोधों का खौफनाक चेहरा उभर-उभर आया है। उनके इस प्रकार के बिम्बों में बासीपन नहीं है बल्कि भाषा की संकेतात्मक क्षमता का भरपूर प्रयोग है। आत्म-सजग हो कर उन्होंने इन बिम्बों को जीवन से बटोरा है। इस काव्य भाषा ने रचनात्मक स्तर पर जीवन स्पन्दनों को बडी निकटता से आत्मसात किया है। देखिए एक कविता जिसमे लोकतन्त्र पर व्यंग्य किया गया है। यह बिम्ब कवि के इतिहास बोध की अभिव्यक्ति तो करता ही है साथ ही साथ लोकतन्त्र की संरचना पर प्रभावी कटाक्ष भी है।
“इतिहास भी अजीब गोरखधंधा है
इसमे रहते हैं
लुटेरे हत्यारे ऋषि संत
एक संग
एक संग हजारों वर्ष दिखाई देते हैं
जिसे कहते हैं जन
वह कहीं दिखाई नहीं देता है”
(तुम धरती का नमक हो)
यह कविता आज व्यवस्था के हिस्सेदारों और रहनुमाओं पर तंज है। शासन में सन्त और लुटेरे सब मिलते हैं। सभी का अपना प्रभाव रहता है लेकिन जनतन्त्र जिसे कहा जाता है वहाँ जन का अभाव रहता है। यह राजनीति के अपराधीकरण और साम्प्रदायीकरण की मुखालफत है जिसे इतिहास से जोड कर इस द्वन्द और विसंगति को गम्भीर अर्थवत्ता दे दी गयी है। लोकतन्त्र की वर्गीय स्थिति के साथ-साथ भारत ने लोकतन्त्र के नीतिगत मामलों व जनविरोधी निर्णयों की भी आलोचना की है। उनकी यह आलोचना नागार्जुन की कविता का स्मरण करा देती है। उनकी व्यंग्यात्मक ऐसी कविताएं बडी गठित होती हैं। भाषा का छोटा सा परिवर्तन भी इन कविताओं में सम्भव नहीं होता है। ये छोटी-छोटी कसावटें भाषा को एक तार्किक अन्विति तक ले जाती हैं। देखिए इस कविता में सपाटपन, व्यंग्य, गीतपरकता, लहजा, कथ्य को कितनी सरलता से सँवारता है।
“हे भूमंडलीकरण
हे डंकन गैट
हे बहुराष्टीय कम्पनियाँ
हे नव साम्राज्यवाद
हे आतंकवाद
हे परमाणु बम
हे हिरोशिमा नागासाकी
हे अमरीका हे ब्रिटेन
हे डालर हे पौंड
सलाम”
इस कविता में वैश्विक पूँजीवाद का काला चिट्ठा और लोकतन्त्र में प्रभावी जनविरोधी तत्वों की कुंडली बना दी गयी है। इस कविता को पढ कर नागार्जुन की मन्त्र कविता का स्मरण हो आता है। कविता का अपना काव्यशास्त्र होता है इस कवि ने कभी इस शास्त्र का ध्यान नहीं दिया। भारत शास्त्र को उपेक्षित करते हैं मगर उनकी भाषा खुद बखुद अपना शास्त्र विनिर्मित कर लेती है। उन्होंने जिस दर्द को भोगा वही दर्द भाषा ले कर चला आता है। उनकी काव्य भाषा स्वयं बनती और बिगडती रहती है। उनकी कुछ कविताओं में भावात्मक सौन्दर्य की जिस उद्दातता के साथ विवेचना हुई है वैसी विवेचना अन्यत्र दुर्लभ है।
बहुत से कवियों ने प्रेम कविताएं लिखी हैं लेकिन श्रमपरक प्रेम कविता बहुत कम लिखी गयीं हैं और वह भी अपनी पत्नी के लिए लिखना तो और भी कठिन है। उनकी ‘पत्नी’ कविता में मिट्टी की खुशबू के साथ लोक का संघर्ष, हाशिए की अस्मिता पर बडी बेबाकी से बात करता है। यहां प्रेम महज अनुभव नहीं है। वह संवेदना है। श्रम महज दिखावा नहीं है। जीवन का अभिन्न अंग बन कर आया है। इस प्रेम मे कामुकता, ऊब, घुटन, पीडा, सीलन और सडन नहीं है बल्कि जीवन की मार्मिक अनुभूति के साथ प्रेम मे डूबने और मरने की क्रान्तिकारी भंगिमाएं उपस्थित हैं, जो पुरुषवर्चस्ववाद के खिलाफ एक पुरुष का नैतिक आत्ममूल्यांकन है।
“दिन भर चैन से न बैठने वाली
कितनी शान्त और गहरी नींद में है
एक मिठास के लिए
भरा मन होता है
रात भर जाग कर
उसी मुद्रा मे देखता हूँ”।
दिन भर की थकी माँदी पत्नी को सोते देखना और उसकी थकावट का अनुमान कर के न जगाना उसे बस देखते रहना इस कविता का मुख्य कहन है। ऐसा प्रेम झूठा नहीं है वह दाम्पत्य का अनिवार्य तकाजा है। भारत स्त्री के सन्दर्भ में उसकी अस्मिता की बात बडे जोरदार तरीके से रखते हैं। स्त्री चाहे घर की स्त्री हो या आम स्त्री अस्मिता के सन्दर्भ में वो बराबर चर्चा करते हैं। उनकी एक कविता देखिए।
“न वे नींद जगी रातें हैं
न वे सपने न वे भाव
और दो बच्चों के साथ वह लडकी
वह लडकी नहीं एक ढली हुई औरत है”
इस कविता मे लडकी के बहाने उसकी अस्मिता का सवाल उठाया गया है। भारत अपनी कविताओं मे पूँजीकृत अस्मिताओं की भी परिचर्चा करते है मगर उस नजरिए से नहीं करते जिस नजरिए को उत्तरसंरचनावाद तरजीह देता है। उनका नजरिया यथार्थ की विकृतियों के अनुरूप होता है उनके लिए अस्मिता महज अस्तित्व व हक का प्रश्न नहीं है। वह व्यवस्था में सचेतन भागीदारी का सवाल है। पहचान का सवाल है। पहचान तभी सम्भव है जब अस्मिता को अस्तित्व और भागीदारी से जोडा जाए। सबको समता और अवसर प्रदत्त किए जाएं।
कवि केवल अपनी काया मे व काया की जरूरतों मे नहीं जीवित रहता है। वह अपने सृजन संसार में भी जीवित रहता है। इस दृष्टिकोण से कवि वही हो सकता है जिसकी उपस्थिति और उसके जीवन के छोटे छोटे जीवन्त अनुभव उसकी कविता में समाहित हो जाएं। यदि कविता पढने के बाद भी हम कवि के जीवन की झलक उसकी रचनाओं में नहीं पाते तो कहीं न कहीं कवि और उसकी रचना के प्रति आशंका उत्पन्न हो जाती है। भारत यायावर केवल कवि ही नहीं हैं जीवन से निरन्तर अनुप्राणित कलाकार भी हैं। अस्सी के दशक के अन्य कवियों मसलन सुधीर सक्सेना, राजेश जोशी, मंगलेश डबराल, वीरेन डंगवाल, स्वप्निल श्रीवास्तव की तरह भारत यायावर भी खुद का काव्य गुरू हिन्दी लोकधर्मी कविता की त्रिमूर्ति केदार त्रिलोचन नागार्जुन को मानते रहे। वह बातचीत में अक्सर कहते थे कि मेरे गुरू नागार्जुन हैं। इसी कारण उनकी बहुत सी कवितायें नागार्जुन जैसी व्यंग्यपरकता रखती हैं। भाषा का ठेठपन एवं लोकछवियों की दृष्टि से उन पर नागार्जुन का प्रभाव साफ दिखाई देता है।
भारत यायावर जितना रेणु से प्रभावित थे उतना ही नामवर सिंह से भी प्रभावित थे। नामवर सिंह की आलोचना के साथ-साथ उन्होंने नामवर सिंह के तमाम जीवन प्रसंगों को ले कर नामवर सिंह की जीवनी, नामवर होने का अर्थ लिखा। यह किताब भी नामवर सिंह के द्वारा विमोचित की गयी। नामवर होने का अर्थ एक तरह से संस्मरणात्मक शैली मे लिखी गयी जीवनी है जिसमे कथा तत्व के साथ साथ तमाम घटनाओं व जीवन के हर एक पहलू से विभिन्न कोणों से एक बडे लेखक के निर्मित होने की कथा कही गयी है।अभी जब नामवर सिंह की जीवनी को ले कर विवाद हो रहा था तब सोशल मीडिया में बार बार कहा जा रहा था कि नामवर सिंह की जीवनी लिखते समय भारत यायावर की किताब पढ़ लेना चाहिए। नामवर सिंह की जीवनी पर खुद नामवर सिंह ने कहा था कि मेरे जीवन को जितनी प्रमाणिकता इस किताब मे है वह केवल भारत यायावर ही दे सकता है।
इधर सितम्बर मे भारत विनोवा भावे विश्वविद्यालय के चास महाविद्यालय से सेवानिवृत्त हो चुके थे। उनके मन में योजना थी कि अपनी पुरानी पत्रिका ‘विपक्ष’ का पुनः प्रकाशन आरम्भ करूँ। विपक्ष उनकी अनियतकालीन पत्रिका थी जिसके आठ अंक प्रकाशित हुए थे। इधर तीन दशक से उसका कोई भी अंक नहीं आया। वह पत्रिका पुनः आरम्भ करना चाहते थे और डा. नागेन्द्र द्वारा सम्पादित इतिहास को भी अद्यतन करने का उनका मन था। इसके लिए प्रकाशक ने उनसे सामग्री एकत्र करने के लिए कह दिया था उन्होंने हर एक खण्ड के लिए लेखक भी तय कर दिये थे। मगर रेणु की जीवनी लिखने के जुनून ने शेष कार्यो को निलम्बित रखा। भारत यायावर के कृत्य और अवदान से नये लेखकों को परिचित कराने के लिए हिन्दी साहित्य को एक और भारत यायावर की जरूरत है।
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जोरदार
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