हरबंस मुखिया की नज़्में
हरबंस मुखिया |
उम्मीद जिस पर सब कुछ कायम है, खुद में इतना अमूर्त है कि उसे पहचान पाना खासा मुश्किल होता है। फिर भी उम्मीद है कि कायम है। घोर निराशा के क्षणों में भी उम्मीद जीवन्तता बनाए रखती है। हरबंस मुखिया की ख्याति एक मशहूर इतिहासकार के रूप में है। कम लोगों को यह पता होगा कि वे खूबसूरत नज़्में भी लिखते रहे हैं। एक जमाने में उर्दू की मशहूर पत्रिका शब ख़ू में शमशुर्रहमान फ़ारूक़ी ने हरबंस जी की नज़्मों को प्रकाशित किया था। हमारे अनुरोध पर उन्होंने अपनी नज़्मों को देवनागरी में रूपांतरित कर पहली बार के लिए भेजा है। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं हरबंस मुखिया की नज़्में।
हरबंस मुखिया की नज़्में
उम्मीद और वक़्त
मैं ने महज़ एक ज़िन्दगी के दायरे में
उम्मीद को समेट लेना चाहा
उम्मीद जिस के धागे
वक़्त से बंधे थे
मैं ने वक़्त को
उम्मीद के झरोखे से देखा
तो वह नीचे खड़ा
बहुत अदना और बेबस नज़र आया
जैसे सांसों की दुहाई दे रहा हो
वक़्त के सारे सितम मुझे
बाज़ीचा-ए अत्तफ़ाल1 लगे
और उस की नाइन्साफ़ियों पर
मैं खिल खिला कर
हँसता रहा
आज वह लम्हा है
जब उम्मीद
डूबते सूरज के साये में
सर झुकाये
वक़्त के फ़ैसले की मुंतज़र है।
1 बच्चों के खेल का मैदान। (ग़ालिब से उधार।)
वजूद
हम अपने वजूद
की असलियत को
सिर्फ़ आईने में देख सकते हैं
जिस के कई टुकड़े होते हैं
आईने के एक टुकड़े में
उस सच्चाई का अक्स होता है
जो फ़क़त हमें नज़र आता है
और दूसरे टुकड़ों में
होती हैं कई सच्चाइयां
जो हर एक पर वाज़य2 होती हैं
सिवाए हमारे
जिस रोज़ हम
ख़ुद को
मुकम्मल आईने में देख लें
वह शायद
हमारे लिए
सब से भयानक दिन होगा।
2 स्पष्ट
लकीरें
हम अपने माज़ी3 में
दो ज़िंदगियाँ जीने के आदी हो गए थे
अपनी अपनी और एक दूसरे की ज़िन्दगी
इन के बीच
चंद धुंधली सी लकीरें खिंचीं थीं
यह लकीरें
कभी एक जगह नहीं ठहरीं
इन के रंग, रूप, गहराई
दोनों ज़िन्दगियों के हदूद
बराबर बदलते रहते थे
संगीत के सुरों की तरह
फिर एक दिन हम ने
अपनी अपनी लकीरों को
अलग अलग कर ग़ौर से देखा
तो एहसास हुआ
कि इन में तुम्हारी और मेरी
इनफ़रादी फ़ितरत4
की कोई लकीर नहीं है
हम ने इन लकीरों को
सीधा खड़ा होना सिखाया
इन्हें मज़बूत पैर दिए
और दूर जा कर
इन्हें फ़ख़्र से देखा
हमारे माज़ी में जहाँ
औराक़-ए मुसव्विर5 थे
वहां आज
बस लकीरों का
एक ढेर है।
3 अतीत
4 निजी व्यक्तित्व
5 चित्रकारों के पन्ने
बे उन्वान
वह अनगिनत ख़त
जो कितनी ही ज़िन्दगियों में
मैं ने तुम्हे लिखे थे
और तुम ने हर एक ख़त
मुस्कुराते, हँसते, रोते
कई बार पढ़ा
और उठा कर रख दिया
एक बार और पढ़ने को
जैसे ये ख़त ही तुम्हारा और मेरा सब कुछ हों
इन ख़तों में हम ने कई रंग ढाले
सफ़ेद पाकीज़गी, सब्ज़ ताज़गी
सुर्ख़ तमाज़त6 और नीली गहराई
तुम और मैं
हर रंग में डूब कर, तैर कर
लड़खड़ाते और संभलते रहे
कई हसीन ख़्वाब बुने कई तोड़े
फिर एक दिन अचानक
तूफ़ान के एक झोंके से
पानी के वह तमाम रंग
जिन में हम इतरा कर डूबते और तैरते थे
आग के रंग में ढल गए
जिस में मेरे वह सारे ख़त
जल कर राख हो गये
और तुम्हारी आँखों में तैरते आंसुओं के परदे में
मैं ने एक हलकी सी मुस्कान
की परछाईं देखी।
6 ऊर्जा
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
संपर्क-
हरबंस मुखिया
बी-86, सनसिटी, सेक्टर-54,
गुडगाँव, 122011,
(हरियाणा)
ई मेल: hmukhia@gmail.com
खूबसूरत पँक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी नज़्में।
जवाब देंहटाएंखूबसूरत नज़्में
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