श्रीविलास सिंह की कहानी 'सिक्का'
किसी भी लोकतन्त्र से यह उम्मीद की जाती है कि वह राज्य में शान्ति और व्यवस्था की स्थापना करने का प्रयास करे और आम जनता को बेहतर जीवन प्रदान करे। दुर्भाग्यवश होता इसका उलटा है। लोकतंत्र में भी आम जनता की स्थिति प्रायः बदहाल ही दिखायी पड़ती है। ऐसी स्थिति से ऊब कर स्थिति को बदलने के प्रयास कुछ व्यक्तियों द्वारा जब किए जाते हैं तो उनके ऊपर तमाम इल्ज़ाम लगा दिए जाते हैं। कुछ लोग कानून व्यवस्था को अपने हाथ में लेने का प्रयास कर समानांतर व्यवस्था स्थापित करने का प्रयास करते हैं। नक्सलवाद और आतंकवाद भी इसी की परिणति होती है। श्रीविलास सिंह एक बेहतर अनुवादक ही नहीं एक उम्दा कवि और कहानीकार भी हैं। आइए आज हम पहली बार पर पढ़ते हैं श्रीविलास सिंह की कहानी 'सिक्का'।
सिक्का
श्रीविलास सिंह
मैं मुख्य सड़क छोड़ कर इस ग्रामीण सड़क पर लगभग तीन चार किलोमीटर चला आया था। जहाँ मुझे जाना था वहाँ के लिए यह सड़क शॉर्ट कट बताई गई थी। सड़क के दोनों ओर घने पेड़ थे जिनकी हरियाली एक जादुई दुनिया का निर्माण कर रही थी। आजकल कम ही सड़कों के किनारे हरियाली बची है। और जहाँ है भी तो बस यूकेलिप्टस के पेड़। जिनको देख कर बचपन में पढ़ा वह दोहा याद आ जाता है कि बड़ा हुआ तो क्या हुआ जैसे पेड़ खजूर…..। शहर के बाहर की ओर सड़क के किनारे बने फार्म हाउसों की सीमाएं काफी पहले समाप्त हो गईं थी और अब सचमुच के खेत दिख रहे थे। पिछले कुछ सालों में शहर की सीमा से लगे एक एक दो दो एकड़ के बहुत से फार्म हाउस बन गए थे लेकिन वे बस शहरी ऐयाशी का विस्तार मात्र थे। जहाँ छुट्टियों के दिन पिकनिक की जाती थी और देर रात चलने वाली पार्टियां होती थी जहाँ शराब एक निश्चित उपस्थिति थी। कुछ एक में तो और भी न जाने क्या क्या काम होते थे। हाल यह था कि वहाँ 'फार्मिंग' को छोड़ कर बाकी सब कुछ होता था। कुछ लोग फार्म हाउस के केयरटेकर द्वारा उगाई गयी थोड़ी बहुत सब्जी वगैरह जरूर लौटते वक्त गाड़ी में रख कर लेते आते थे। ताकि मन को अपने 'फार्म' का उपजा खाने का संतोष मिल सके।
यद्यपि वातानुकूलित कार में मुझे बाहर की गर्मी का अनुभव नहीं हो रहा था लेकिन धूप की तेजी बता रही थी कि बाहर कितनी गर्मी होगी। अगस्त का महीना था। धूप और हवा में मौजूद नमी के मिल जाने से असहनीय गर्मी का वातावरण बन जाता है। आप दस मिनट इस धूप में रहिए। आपका दम घुटने लगेगा। ऐसे माहौल में सड़क किनारे के पेड़ों की हरियाली बहुत सुकून देने वाली लग रही थी। आजकल जितनी तेजी सड़कों के पुनर्निर्माण अथवा उन्हें चौड़ा करने के नाम पर पेड़ों को काटने में दिखाई जाती है, पेड़ लगाने के प्रति उत्साह उतना ही कम है। सड़कों पर मीलों मील चले जाइये आप धूप से दम भले तोड़ दें छाया नहीं मिलेगी। पशु पक्षियों के लिए भी कहीं कोई छायादार ठिकाना नहीं होता। यही सोचते छाया देख मैंने कार सड़क के किनारे कर के रोक दी और बोनट से टेक लगा कर खड़ा हो गया। मैंने जेब से सिगरेट की डिब्बी निकाली और एक सिगरेट ले कर उसका तम्बाकू वाला सिरा डिब्बे पर ठोकने लगा। मैंने जेब में माचिस टटोली पर शायद मैं माचिस रखना भूल गया था। कार में भी लाईटर नहीं था। मेरी पत्नी कार में सिगरेट जो नहीं पीने देती। सिगरेट पीने की तलब उठ चुकी थी। मैंने इधर उधर देखा। जिधर से मैं आया था उसी ओर से कुछ दूरी पर एक बूढ़ा आदमी आता दिखाई दिया। उधर से ही कार से आते हुए मैंने उस आदमी पर पहले ध्यान भी नहीं दिया था। हमारा ध्यान उसी चीज पर जाता है जिसे हम देखना चाहते हैं। मैं उस आदमी की प्रतीक्षा करने लगा। संभवतः उसके पास माचिस हो।
थोड़ी देर में वह आदमी मेरे पास आ गया। वह शायद यहाँ रुकता नहीं पर मेरे माचिस मांगने पर रुक गया। उसने अपनी गठरी एक ओर रख दी और जेब से माचिस निकाल कर मुझे दी। मैंने सिगरेट सुलगाने के पश्चात धन्यवाद सहित माचिस उसे लौटाई। वह भी बीड़ी सुलगाने लगा। दो तीन सुट्टे इत्मीनान से खीचने के पश्चात उसी ने बातचीत शुरू की।
"इधर कहाँ जाओगे बाबू?"
"मुझे राजपुर जाना है। शायद इधर से दूरी कम पड़ेगी।" मैंने उसके प्रश्न का जवाब देते हुए उसे प्रश्नवाचक दृष्टि से देखा।
"कम तो पड़ेगी लेकिन बीच में कुछ दूर सड़क खराब है।" उसने बताया।
"क्या गाड़ी नहीं जा पाएगी?" मैने थोड़ा सावधान होते हुए प्रश्न किया।
"नहीं नहीं! गाड़ी तो निकल जायेगी बस सड़क थोड़ी उबड़ खाबड़ है।" उसने मुझे आश्वस्त किया।
"तुम्हें कहाँ तक जाना है बाबा।" मैने वृद्ध से पूछा।
"जाना तो मुझे भी राजपुर की तरफ ही है।" उस आदमी ने उत्तर दिया और उठ खड़ा हुआ। उसकी बीड़ी समाप्त हो गयी थी और वह फिर चलने को तैयार लग रहा था। मैंने उसे एक बार ध्यान से देखा। वह उतना बूढ़ा नहीं था जितना मैंने दूर से सोच लिया था। बस धूप में पक गयी त्वचा और सफेद हो चले बालों के कारण वह वृद्ध सा लग रहा था वरना उसकी देहयष्टि मजबूत थी और वह बिलकुल सीधा खड़ा था। उसके व्यक्तित्व में एक तरह की देशज गरिमा विद्यमान थी।
"अगर उधर ही चलना है तो तुम मेरे साथ चल सकते हो।" मैंने उसे सहायता की पेशकश की।
"यह तो हमारा रोज का काम है। आप क्यों तकलीफ करोगे।" उसने मुझे धन्यवाद की नज़रों से देखते हुए मना किया।
"तकलीफ कैसी। मुझे भी उधर ही जाना है और गाड़ी में जगह भी है। और फिर तुम्हारे साथ रहने से मैं रास्ता भटकने से भी बच जाऊंगा।" मैंने बिना औपचारिकता के कहा।
"फिर ठीक है।" वह तैयार हो गया। उसने अपनी गठरी पीछे की सीट पर रख दी। और ड्राइवर की बगल वाली सीट पर बैठ गया। उसके बैठने का अंदाज किसी देहाती जैसा नहीं था। मैंने कार आगे बढ़ाई। कार धीरे धीरे चल रही थी और धीरे धीरे बातचीत का सिलसिला भी चल निकला। मुझे लगा उसे भी मुझ से बात करने में अच्छा लग रहा है।
"क्या तुम्हें लौटना भी आज ही है?" कुछ देर बाद उसने मुझसे पूछा।
"हाँ, मुझे बस अपने दोस्त से मिलना है। कालेज में मेरे साथ पढ़ता था।" मैंने जवाब दिया।
"फिर तो तुम उसके घर का रास्ता जानते होंगे।" उसने मेरी ओर जिज्ञासा से देखा।
"नहीं। हम दोनों कालेज में एक साथ पढ़ते थे और बहुत गहरे दोस्त थे। फिर मैं आगे की पढ़ाई के लिए विदेश चला गया। पढ़ाई के बाद वहीं कुछ साल नौकरी भी की। अभी पिछले साल ही आठ साल बाद लौटा हूँ। उसके घर का पता भी कालेज से लिया।" मैंने उसे बताया।
"लेकिन क्या जरूरी है कि वह घर पर ही हो? हो सकता है तुम्हारी तरह वह भी कहीं किसी शहर में नौकरी करने लगा हो।" उसने पूछा। उसकी बात तर्कसंगत थी।
"लेकिन घर से उसका शहर का पता तो मालूम हो जाएगा।" मैंने कहा।
"हाँ यह बात तो है।" उसने कहा।
काफी देर तक हम चुप रहे। मैं चारों तरफ की हरियाली में डूबा हुआ गाड़ी चला रहा था। वह भी चुपचाप कुछ सोच रहा था। बीच बीच में एक नज़र मुझ पर भी डाल देता था। सड़क लगभग खाली थी बीच में बस एक गाँव सड़क किनारे मिला था। हरियाली के उलट गाँव बदहाली का नमूना लग रहा था। कीचड़, गंदगी और इधर उधर कूड़े के ढेर। मेरा जन्म शहर में हुआ था और पहले कभी किसी गाँव में मेरा जाना नहीं हुआ था। गाँव के नाम पर मैंने सड़कों से गुजरते हुए हाइवे किनारे बसे गाँवों को ही बिहंगम दृष्टि से देखा था। मुख्य मार्ग से इतने दूर भीतर की ओर आ कर गाँव मैंने पहले कभी नहीं देखे थे। बस अखबारों और किताबों में ही गाँवों का जिक्र पढ़ा था।
"आसपास
के
गाँवों
को
देख
कर
तो
लगता
है
यहाँ
की
हालत
पिछले
सालों
में
बिलकुल
नहीं
सुधरी
है।" मैने
फिर
बात
छेड़ी।
"सुधरी है? यह कहो कि पहले से भी बदतर हो गयी है।" उसने मेरी बात का जवाब थोड़ी आजिज़ी से दिया।
"लेकिन मैंने तो सुना है कि सरकार गाँवों के विकास के लिए बहुत सारी योजनाएं चला रही है।" मैंने पूछा।
“हाँ, योजनाएं तो बहुत हैं लेकिन उन योजनाओं से गाँवों का नहीं बल्कि अफसरों, नेताओं और कुछ दलालों का विकास जरूर हुआ है।" उसने तनिक व्यंग्य से कहा।
"लेकिन कोई कुछ कहता क्यों नहीं?" मैंने थोड़े आश्चर्य से पूछा। मुझे लग रहा था कि विदेश में इतने साल पढ़ाई कर लेने के बाद भी मैं अपने देश के बारे में, उसकी स्थितियों के बारे में कितना कम जानता हूँ।
"कहेगा कौन? कहने वाले सब लूट के हिस्सेदार बन बैठे हैं।" उसने फिर एक रहस्यमय उत्तर दिया।
"क्या मतलब?" मैं सचमुच उसकी बात समझ नहीं पाया था।
"मतलब यह कि किसी भी योजना के लिए जो धन ऊपर से सरकार मंजूर करती है उसे एम पी, एम एल ए, अफसर और छुटभैये नेता सब आपस में बांट लेते हैं। अगर कोई विरोध करता है तो उसको भी कुछ ले दे कर चुप करा दिया जाता है। अगर कोई फिर भी फनफनाता है तो उसका फन ही कुचल दिया जाता है।" उसने पूरी स्थिति पर प्रकाश डाला।
" यह तो बड़ी खराब स्थिति है।" मैंने उसकी ओर जवाब पाने के अंदाज में देखा।
"खराब तो है ही। स्कूल है लेकिन अध्यापक पढ़ाने नहीं आते। अस्पताल हैं पर डॉक्टर गायब रहते हैं। डॉक्टर आएगा भी तो दवा नहीं है। बिजली बीस बीस घंटे गायब रहती है। सड़कें बनती हैं लेकिन अगली ही बरसात में बह जाती हैं। किसान साहूकारों के कर्ज से मुक्त हो कर बैंकों के कर्जे में डूबे हैं। कभी फसल ठीक नहीं होती। जब होती है तो दाम ठीक नहीं मिलते। राजनीति के चक्कर में हर जाति धर्म वाला दूसरे से लड़ने को तैयार बैठा है। गाँवों में जो पढ़ लिख कर नौकरी पा गए, बाहर चले गए। फिर वापस नहीं लौटने के लिए। जो बचे हैं वे या तो पढ़े लिखे बेरोजगार हैं अथवा आवारा लफंगे और बड़े बुजुर्ग। सब भाईचारा खत्म है, बस राजनीति बाकी है।" उसने एक ही सांस में गाँवों की स्थिति का बड़ा भयावह वर्णन कर डाला। मैं कुछ देर चुप सामने की सड़क देखता रहा।
“आप कुछ ज्यादा ही निराशाजनक चित्र नहीं खींच रहे हैं गाँवों की दशा का।" मैंने थोड़े अविश्वास से कहा।
“आप अगर खुद देखोगे तो असली तस्वीर इससे भी बदतर नज़र आएगी।" उसने जोर देते हुए कहा। उसकी बातें उसके समझदार और पढे लिखे होने का प्रमाण लग रहीं थी पर अपने पहनावे और रखरखाव से तो वह निपट देहाती ही लग रहा था। मुझे कुछ जिज्ञासा हुई।
"आप तो काफी पढ़े लिखे मालूम होते हैं?" मैंने उससे पूछा। वह हल्के से हँस कर रह गया। उसने मेरी बात का कोई जवाब नहीं दिया।
हम फिर चुप हो गए थे। किसी गाँव की सीमा शुरू हो गयी थी। बाहर की ओर एक भवन बना हुआ था। जिस पर पंचायत भवन लिखा था। सड़क पर कुछ बच्चे नीली कमीज और खाकी पैंट पहने बस्ता लिए चले आ रहे थे। वे शायद स्कूल से घर लौट रहे थे। सामने से एक ट्रैक्टर गुजरा। उसकी तेज भक भक के बीच उस पर उतनी ही जोर से कोई लोकगीत बज रहा था। जितना मेरी समझ में आया उसके हिसाब से गीत काफी फूहड़ और वाहियात किस्म का था। उसमें किसी भाभी से चुम्मा देने की कुछ गुजारिश सी की जा रही थी। गाँव के अधिकांश घर माचिस की डिब्बियों के आकार के थे और ईंटों के बने हुए थे। कइयों की केवल दीवारें ईंट की थी और दीवारों के ऊपर फूस की छप्पर रखी थी। अधिकांश पर प्लास्टर नहीं किया गया था। कुछ घर कुछ बेहतर तरीके के बने हुए थे। उन पर प्लास्टर भी था और वे चटकीले लाल, पीले, हरे, नीले रंगों से पुते हुए भी थे। दूर से भी गंदगी और अव्यवस्था देखी जा सकती थी। सड़क पर सामने थोड़ी दूर पर एक स्पीड ब्रेकर बना था। स्पीड ब्रेकर भी हमारे देश का मौलिक आविष्कार है जो स्पीड की बजाय सिर ब्रेक करने का काम अधिक करता है, यदि आप जरा सा चूक जाएं तो। सामने से दो लड़के काफी तेज गति से मोटर साइकिल पर आ रहे थे। वे इतनी तेजी से लहराते हुए स्पीड ब्रेकर पर उछले कि मेरे मुँह से आह सी निकल गयी। मुझे पक्का यकीन था कि उनकी मोटरसाइकिल पलट जाएगी। मगर वे दोनों खींसे निपोरते हुए मेरी कार की बगल से इतनी तेजी से गुज़र गए कि मेरी कार सड़क से नीचे उतरते उतरते बची। बूढ़ा आदमी मुझे बड़े ध्यान से देख रहा था। हम गाँव को पार कर गए थे। सामने कुछ पथरीली ज़मीन शुरू हो गयी थी और हरियाली को देख कर लग रहा था आगे जंगल शुरू होने वाला है। मैं इस बारे में अपने सहयात्री से पूछने ही वाला था कि वह मेरी ओर मुखातिब हुआ।
“मैंने पूछा था कि क्या तुम आज ही वापस लौटोगे। लेकिन तुमने मेरे सवाल का कोई जवाब नहीं दिया।" उसने मुझसे कहा।
“सोच तो आज ही लौटने की रहा हूँ लेकिन अगर दोस्त से मुलाकात हो गयी तो शायद रुक भी जाऊं।" मैने थोड़ी लापरवाही से जवाब दिया।
“क्या तुम्हें मालूम नहीं कि इस इलाके में डाकू भी होते हैं और रात को इधर से गुजरने में खतरा है।" उसने गंभीरता से कहा।
“लेकिन मेरे पास कुछ रुपयों, एक मोबाइल और इस घड़ी के अलावा लूटने लायक है ही क्या? अगर कोई डाकू आया तो दे कर हाथ जोड़ लूँगा।" मेरे स्वर में अब भी लापरवाही थी। मेरा जवाब सुन कर उसने मेरी ओर थोड़ी कड़ी दृष्टि से देखा।
“तुम जितना सोच रहे हो, डाकू उतने शरीफ नहीं होते। तुम्हारे पास कुछ खास न मिलने पर वे तुम्हारा अपहरण भी कर सकते हैं, फिरौती के लिए। वे तुम्हें जान से भी मार सकते हैं।" उसकी आवाज में किसी प्रकार का मज़ाक अथवा लापरवाही नहीं थी।
उसकी बात से अधिक उसकी आवाज़ की गंभीरता से मेरे अंदर पहली बार भय की एक लहर सी दौड़ गयी। हम दोनों फिर चुप हो गए थे। जंगल शुरू हो गया था। अपराह्न के तीन बजे के आसपास का समय हो चला था। सूरज पश्चिम की ओर रुख कर चुका था। धूप में तेजी अभी भी बाकी थी। जंगल और छोटी छोटी पहाड़ियों वाला वह इलाका पार करने में एक घंटे लग गए। हम अब भी चुप थे। गाड़ी के भीतर बस इंजन की और टायरों की हल्की सी आवाज सुनाई दे रही थी। एकाएक उसने यह एकांत भंग किया।
“बस मुझे यहीं उतार दो। राजपुर आगे लगभग एक किलोमीटर पर है यहाँ से। बिलकुल सड़क के किनारे पहला ही गाँव पड़ेगा।" उसने मुझे आगे का रास्ता बताया। मैंने गाड़ी रोक दी। उसने मेरा धन्यवाद किया और गाड़ी से उतरने लगा।
“धन्यवाद कैसा। तुम्हारे साथ मेरा भी समय आसानी से कट गया। और मैं रास्ता भी नहीं भटका।" मैंने कहा। उसने हाथ से अभिवादन सा किया और चलने को हुआ फिर रुक गया। मैं भी गाड़ी आगे बढ़ाते बढ़ाते रुक गया। वह मेरी साइड के दरवाजे की तरफ आया और अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाल कर कुछ निकाला।
"इसे अपने पास रखना तुम्हारे काम आएगा।" कहते हुए उसने एक सिक्का मेरे हाथ में रख दिया और वापस मुड़ गया। मैं कुछ समझता या कुछ पूछ पाता कि वह लंबे डग भरता सड़क से दूर एक ओर जा चुका था। मैंने सिक्के को उलट पलट कर देखा। वह एक रुपये के सिक्के के लगभग बराबर था और उस पर दोनों ओर देवी दुर्गा का चित्र बना हुआ था। सिक्के के नीचे की ओर 'जय भगवती' लिखा हुआ था। मैंने सिक्के को कुछ देर कौतूहल से देखा और फिर लापरवाही से जेब में डाल लिया। मैंने कार आगे बढ़ाई। जल्दी ही राजपुर आ गया। थोड़ा पूछने के बाद मुझे मेरे दोस्त अर्जुन का घर मिल गया।
अर्जुन का घर अधिक बड़ा और भव्य नहीं था लेकिन साफ सुथरा था और खुले में बना हुआ था। घर पर उसके चाचा मिले। उन्होंने बताया कि आजकल अर्जुन भोपाल में नौकरी करता है और अपने परिवार के साथ वहीं रहता है। गाँव में चाचा चाची के परिवार के साथ ही अर्जुन की माँ भी रहती हैं। उसके पिता का देहांत कुछ साल पहले हो गया था। अर्जुन की माँ और चाचा ने मेरी खूब आवभगत की। मैं अर्जुन का दोस्त हूँ और उसे ढूंढता हुआ शहर से आया हूँ यह जान कर गाँव के कई मेरी उम्र के लोग भी आ गए थे। कुछ बच्चे मेरी लंबी कार को चारों ओर से घूम घूम कर देख रहे थे और बहस कर रहे थे कि यह फ़र्ट्यूनर से बड़ी है कि छोटी। मुझे कुल मिला कर गाँव का माहौल वैसा बिलकुल नहीं लगा जैसा उस बूढ़े ने मुझसे कार में बताया था।
"गाँव ढूढने में कोई परेशानी तो नहीं हुई?" अर्जुन के चाचा ने पूछा।
"नहीं मुझे एक आदमी मिल गया था जो इधर ही आ रहा था। इस कारण मैं बिलकुल सीधा पहुँच गया।" मैंने बताया। कुछ देर उन लोगों से अर्जुन के बारे में बात होती रही। अब बस दो चार लोग ही वहाँ रह गए थे। एकाएक मैंने उस आदमी द्वारा गाँवों की दशा के बारे में कही गयी बातों के बारे में अर्जुन के चाचा से यूँ ही पूछ लिया। मेरी बात सुन कर उन्होंने एक लंबी सांस ली।
"उसने तुम्हें ठीक ही बताया था बेटा। वास्तव में तो स्थिति उससे भी खराब है। खेती अब फायदे का सौदा रही नहीं। मजदूरी और लागत बढती जा रही है। उस हिसाब से उपज के दाम नहीं बढ़ रहे। फिर काम के वक्त मजदूर भी नहीं मिलते। गाँव मे न ढंग की शिक्षा की व्यवस्था है न चिकित्सा की। इसलिए कोई सम्भव होते यहाँ नहीं रहना चाहता। जिसे देख रहे हो सब मजबूरी में रह रहे हैं। बस चले तो सब जमीन जायदाद बेच कर शहर चले जाएं। भले वहाँ मजदूरी करनी पड़े। पर जब सब बेचने को ही तैयार हों तो खरीदे कौन?" अर्जुन के चाचा मानो उस बूढ़े की ही बात दुहरा रहे थे।
शाम ढलने लगी थी। मैंने वापस लौटने की इजाजत माँगी। वे चौंक गए।
“इस समय कहाँ जाओगे। थोड़ी ही देर में रात हो जाएगी। इधर रात को डाकुओं का खतरा रहता है। इस समय जाना ठीक नहीं रहेगा। अब सुबह जाना।" चाचा ने मुझे समझाते हुए कहा।
“यही बात मुझे वह आदमी भी कह रहा था। लेकिन मुझे तो कोई खतरा नहीं लगता। भला चलती कार में मुझे कौन लूट लेगा।" मैंने अर्जुन के चाचा से कहा।
“वह आदमी काफी समझदार था। किस गाँव का था। क्या तुमने उसका नाम पूछा था?" चाचा ने जिज्ञासा से पूछा।
“नाम और गाँव तो मैंने नहीं पूछा। हाँ जाते समय उसने मुझे यह सिक्का दिया था और कहा था कि यह मेरे काम आएगा।" कहते हुए यों ही मैंने वह सिक्का निकाल कर चाचा के हाथ पर रख दिया। वे लोग बड़े ध्यान से उस सिक्के को देख रहे थे। फिर सब लोग कुछ अजीब नज़रों से मुझे देखने लगे।
“ठीक है तुम जाना चाहो तो जाओ। तुम्हें कोई कुछ नहीं कहेगा। जरूरत पड़े तो यह सिक्का दिखा देना।" अर्जुन के चाचा ने सिक्का मुझे लौटते हुए कहा। उनकी बात से मुझे बहुत आश्चर्य हुआ।
“आखिर इस सिक्के में ऐसा क्या है कि मुझे कुछ नहीं होगा?" मैंने उनसे पूछा।
“यह भगवती सिंह का सिक्का है।" चाचा से पूर्व ही मेरी उम्र के एक आदमी ने कहा।
"भगवती सिंह का सिक्का?" मैंने थोड़ी उलझन से पूछा।
"हाँ भगवती सिंह। इस इलाके का मशहूर डाकू। जरूर तुम जिस आदमी की बात कर रहे हो वह भगवती सिंह ही रहा होगा।" अर्जुन के चाचा ने कुछ सोचते हुए कहा।
“लेकिन वह तो बड़ा शरीफ आदमी लग रहा था।" मैंने अविश्वास से कहा।
“वह शरीफ आदमी ही था। शरीफ और पढ़ा लिखा। लेकिन हमारी व्यवस्था ने उसे डाकू बना दिया। अब तो उस को जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर एक लाख का ईनाम है।" अर्जुन के चाचा ने कुछ निराश आवाज़ में कहा।
“मैं कुछ समझा नहीं।" मुझे भी अब भगवती सिंह के बारे में जानने की जिज्ञासा होने लगी थी।
“भगवती सिंह अपनी जवानी में एक पढ़ा लिखा आदर्शवादी नौजवान था। उसे पढ़ाई के लिए वजीफा मिलता था और उसने विश्वविद्यालय से कोई डिग्री ली थी। वह तमाम सरकारी योजनाओं में होने वाले भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ किया करता था और संबंधित लोगों के खिलाफ ऊपर तक शिकायत करता था। सबने उसे खरीदने की कोशिश की लेकिन वह बिका नहीं। वे लोग उसे मरवा भी नहीं पाए। नतीजे में अफसर, नेता, ठेकेदार सब उसके खिलाफ हो गए और पुलिस थानों में उसके खिलाफ दर्जनों मुकदमे, लूट, राहजनी और अन्य न जाने किन किन अपराधों के दर्ज कर दिए गए। आज अगर पुलिस उसे पा जाए तो निश्चय ही उसका एनकाउंटर हो जाएगा। नतीजे में वह सच में डाकू हो गया है और ऐसे नेताओं, अफसरों और दलालों को लूटता है जिनके पास भ्रष्टाचार का माल है।" चाचा ने मुझे एक ही सांस में भगवती सिंह का पूरा इतिहास सुना दिया।
“लेकिन अगर ऐसा है तो वह मुझे क्यों लूटेगा।" मैंने फिर प्रश्न किया।
“इस इलाके में वही अकेला डाकू थोड़े ही है। और भी तो हैं। लेकिन अब तुम्हें कोई नहीं लूटेगा। भगवती सिंह की इतनी इज्जत दूसरे डाकू भी करते हैं। तुम्हारे पास उसका सिक्का देख कर कोई तुम्हें हाथ भी नहीं लगाएगा।" एक बुजुर्ग ने मेरी जिज्ञासा का समाधान किया।
थोड़ी देर बाद मैं वापस लौट रहा था। साँझ ढल चुकी थी। अपने घोंसलों को लौटते परिंदों का शोर शांत होने लगा था। पश्चिम की लाली अब रात के सुरमई रंग में तिरोहित होने लगी थी। मेरी कार पहाड़ियों वाले जंगल से गुजर रही थी। मैंने कार की हेड लाइट जला दी। अंधेरे में डूबे पेड़, पहाड़, खेत, घर, गाँव सब पीछे की ओर भागते से लग रहे थे। कमीज़ के ऊपर से एक बार मैंने अपनी जेब में रखे सिक्के को छुआ और आश्वस्ति की गहरी सांस ली। मैं सोच रहा था कि हमने यह कौन सी व्यवस्था बना ली है जिसमें झूठ और फरेब के साथी सफल होते जाते हैं और सच का साथ देने वाले अपराधी करार दे दिए जाते हैं। यह कौन सा वक्त है जब सुरक्षा के लिए विधि की व्यवस्था नहीं एक डाकू का सिक्का अधिक आश्वस्ति देता है?
*****
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
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