राजेन्द्र कुमार की कविताई पर पंकज पराशर का आलेख 'सघन तम की आँख एक लघु जीवन में'।
राजेन्द्र कुमार |
आज बिरले ही ऐसे कवि हैं जो बिना किसी शोरोगुल के अपना लेखन प्रतिबद्धता के साथ कर रहे हैं। अब जबकि सच बोलना दूभर हो गया है, बिरले कवि सच के ध्वज को आज भी उठाए हुए हैं। ऐसे ही बिरल कवि हैं प्रोफेसर राजेन्द्र कुमार। एक बेहतरीन आलोचक होने के साथ साथ वे एक उम्दा कवि हैं। इधर कुछ उम्दा ग़ज़लें भी उन्होंने लिखी हैं। राजेन्द्र कुमार की कविताई पर विस्तार से रोशनी डाली है युवा कवि आलोचक पंकज पराशर ने। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं पंकज पराशर का आलेख 'सघन तम की आँख एक लघु जीवन में'।
सघन तम की आँख लघु एक जीवन में
(संदर्भः राजेन्द्र कुमार की कविताएँ)
पंकज पराशर
कविता में अनुभूति की शुद्धता, भाषिक और अभिव्यक्तिगत वैभिन्य, गहरी संवेदनशीलता और सामाजिक दायित्व-बोध की जब एक साथ हिंदी काव्य-आलोचना में ज़रूरत महसूस की जाएगी, तो शुद्ध कविता के विशुद्ध रचयिताओं की शायद उतनी याद नहीं आएगी, जितनी आलोचना और कविता दोनों को अपना रचना-कर्म बनाने वाले कवियों की। वह चाहे अँगरेज़ी साहित्य के मैथ्यू आर्नाल्ड और टी.एस. इलियट हों या हिंदी के गजानन माधव मुक्तिबोध और विजयदेव नारायण साही- इनकी रचना और आलोचना दोनों में ज्ञानात्मक संवेदना और संवेदनात्मक ज्ञान की जैसी संतुलित आवाजाही है, वह विरल है। दोनों विधाओं में रचनात्मक आवाजाही के कारण इन रचनाकारों की रचनाओं में जहाँ रचनात्मक भावावेग के क्षणों में भी एक परिपक्व वैचारिकता और जीवन-विवेक नज़र आता है, वहीं उनकी आलोचना में रचना के प्रति अतिशय सहृदयता और संवादधर्मिता दिखाई देती है। इस विशिष्टता को उनकी आलोचना में सन्निहित तार्किकता, प्रश्नाकुलता और व्याख्यात्मक क्षमता में देखा जा सकता है। यह अकारण नहीं कि विजयदेव नारायण साही ने जहाँ जायसी की प्रासंगिकता की खोज करते हुए उनकी विगत महत्ता और वर्तमान अर्थवत्ता की खोज की, वहीं मुक्तिबोध ने अपनी नई और तीक्ष्ण आलोचनात्मक दृष्टि से हिंदी साहित्य के भक्तिकाल और जयशंकर प्रसाद की ‘कामायनी’ को देखने की चेष्टा की। कहना न होगा कि महज़ समकालीनता रचना की सार्थकता नहीं होती, न पुरातनता किसी रचना की प्रासंगिकता को धूमिल करती है। यह सच है कि आलोचना चिंतन और विचार की लंबी परंपरा में विकसित होती है और उसमें विमर्श की निरंतरता बनी रहती है, लेकिन विचार और आलोचना की परंपरा से गहराई से संबद्ध सर्जक काव्य-परंपरा से भी शतधा आबद्ध होते हैं। ऐसे कवि तुलसीदास की तरह इसे स्वीकार करने से गुरेज़ नहीं करते कि
‘जे प्राकृत कबि परम सयाने। भाषा जिन्ह हरि चरित बखाने।’
और चचा ग़ालिब के इस मशहूर शेर को भला कोई कैसे भूल सकता है कि
‘रेख़्ते के तुम ही उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
कहते हैं अगले ज़माने में कोई मीर भी था।’
आलोचना के इस प्रतिमान पर जब हम आगे बढ़ते हैं, तो हिंदी कविता में कई दशकों से सक्रिय, स्वभाव से बेहद सरल और संकोची, लेकिन वैचारिक रूप से दृढ़ और तनी हुई रीढ़ के कवि राजेन्द्र कुमार बारहा याद आते हैं, जिनके भीतर शमशेर-जैसी सरलता है, तो नागार्जुन जैसा फक्कड़पन भी। निराला जैसी वत्सलता और सौंदर्य-दृष्टि है, तो मुक्तिबोध की तरह सत्ता की दुरभिसंधियों और केंद्रीकृत होती जा रही राजनीति के लोकतंत्र और मनुष्य विरोधी चेहरे को अनावृत्त करने का अपार साहस भी। आचार्य रामचंद्र शुक्ल और आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के बाद हिंदी आलोचना के स्वभाव का यह लगभग स्थायी भाव हो गया कि परिदृश्य में किसी कवि की निरंतरता और मुखरता ही अधिकांशतः मूल्यांकन हेतु किसी कवि के चयन का एक आधार बनता रहा, जिसमें व्यक्तिगत पसंद-नापसंद की एक निर्णायक भूमिका रही। इसलिए संकोची और संशयात्मा कवियों की रचनाएँ अपेक्षाकृत विचार के केंद्र में कम रही। जिसका ख़ामियाजा शमशेर को भुगतना पड़ा, त्रिलोचन ने तो इस टीस को व्यक्त ही कर दिया
प्रगतिशील कवियों की नई लिस्ट निकली है
उसमें कहीं त्रिलोचन का तो नाम नहीं था।
और हरिवंश राय ‘बच्चन’ ने अपने भीतर झाँका,
‘मैं छिपाना जानता तो जग मुझे साधु समझता
शत्रु मेरा बन गया है छल-रहित व्यवहार मेरा।’
क्या यह महज़ संयोग है कि राजेन्द्र कुमार की कविताएँ हिंदी कविता के परिदृश्य में अपेक्षित चर्चा हासिल नहीं कर सकीं, जबकि पद, प्रबंधन और रसूख के दम पर बहुतेरे कमज़ोर कवियों ने जॉन ग्रीशम के खोटे सिक्के की थियरी की तरह हिंदी कविता के परिदृश्य से खाँटी कवियों को चलन से ओझल कर दिया! जिसे कुछ लोकप्रियता के मारे और अधिकांश लेखकप्रियता के मारे आलोचकों ने सिर पर उठा रखा है। नतीज़तन खरे और खोटे की पहचान करना थोड़ा श्रमसाध्य और समयसाध्य दोनों हो गया है।
कभी दिनकर के बहाने भगवत शरण उपाध्याय ने यह बहस चलाई थी कि कुछ लोग अपने सरकारी पद और राजनीतिक रसूख के दम पर साहित्य में प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं, लेकिन दुर्भाग्य से यह कटु सत्य आज आम सत्य-सा हो गया है। अनेक कविगण अपने सरकारी पद, राजनीतिक रसूख और सामाजिक हैसियत के दम पर हिंदी काव्य-आलोचना में चर्चाओं का बाज़ार गर्म किये रहते हैं! कहना न होगा कि आलोचना जब अपना धर्म भूल जाए, तो इसमें रचना का कोई दोष नहीं होता, न रचनाकार का अपनी रचना पर ज़रा भी यकीन कम होता है। क्योंकि वह अपनी रचना का वकील नहीं होता कि मैदान-ए-तनक़ीद में ख़ुद ज़िरहबख़्तर पहन कर उतर जाए। भारतीय काव्य-परंपरा में कालिदास का उदाहरण विद्यमान हैं, जिन्हें अंततः एक मल्लि नाथ मिले, घनानंद का उदाहरण विद्यमान है, जिन्हें पहचानने वाले ब्रज नाथ मिले, ग़ालिब की मिसाल मौज़ूद है, जिन्हें मौलाना अल्ताफ हुसैन ‘हाली’ जैसे शाग़िर्द और नक़्काद मिले, निराला का उदाहरण मौज़ूद है, जिन्हें रामविलास शर्मा-जैसे सहृदय आलोचक मिले। ख़ुद मुक्तिबोध इस बात के बड़े उदाहरण हैं, जिनकी फाइल मौत के बाद खुली और धीरे-धीरे उन्हें वह जगह मिली, जिसके वे हक़दार थे। आलोचना चूँकि कोई ‘फास्ट ट्रैक कोर्ट’ नहीं है, जहाँ फौरी सुनवाई हो और एकदम श्वेत-श्याम में बड़े और छोटे का निर्णय हो जाए-अनेक बार इन कारणों से भी कुछ कवियों की फाइल खुलने में दशकों लग जाते हैं! जिसके एक बड़े उदाहरण नज़ीर अकबराबादी हैं, जिनके महत्व को पहचानने में लोगों को एक शताब्दी से कुछ अधिक का समय लग गया। राजेन्द्र कुमार कवि के साथ-साथ एक नामचीन आलोचक भी हैं और इस मुद्दे पर वे भी लगातार सोचते-विचारते रहे हैं, इसलिए उनके मत को यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा, ‘असल में, आज कविता हमारे समय में तो है, पर हमारे समाज में नहीं है। वैसे तो, बात घूम-फिर कर बार-बार यहाँ पहुँचती है कि कविता को समाज का होना चाहिए। कविता का, समाज का होना मानो आज कविता की समकालीनता की शर्त बन गई है। पर कविता खुद का भी तो एक समाज रचती है। समाज की कविता जैसा मुहावरा तो आम हो चला है, पर कविता का समाज-जैसा प्रत्यय हमारी चेतना में नदारद है।’ (कविता का समय-असमय, पृ. 9)
वर्ष ‘1998’ में चित्रलेखा प्रकाशन से प्रकाशित अपने पहले कविता-संग्रह ‘ऋण गुणा ऋण’ से ही राजेन्द्र कुमार हिंदी कविता के पाठकों के बीच यह छाप छोड़ने में कामयाब रहे कि वे कविता को काव्यत्व और मनुष्य को उसके मनुष्यत्व की याद दिलाने वाले कवि हैं, जिनके भीतर का भाव ठोस ‘मिट्टी के ढेले’ के तरल बनकर बह जाने से भी उदास हो सकता है,
‘बड़ी-बड़ी बूँदें आईं
घुल गये पिघल गये-
मिट्टी के ढेले-
आप ही आप!
और फिर, तरल बन
बह गये
चुपचाप! पता नहीं क्यों
मन और उदास हो गया है!’
इस कविता के रचना-काल को देखें, तो यह वही दौर है जब पूरे माहौल में उदासी इस कदर तारी थी कि कोई भी संवेदनशील मनुष्य उससे बच नहीं सकता था। इस कविता से कुछ पहले फ़िराक़ गोरखपुरी ने कहा था,
‘सुख़न की शमाँ जलाओ, बहुत उदास है रात
नवाए मीर सुनाओ, बहुत उदास है रात।’
यह उदासी का सबब भावुकता का अतिरेक नहीं, वह राजनीतिक, सामाजिक स्थितियाँ थीं, जिसने हर ख़ास-ओ-आम को अपनी गिरफ़्त में लिया हुआ था। जिसके कारण शमशेर मुँदी हुई आँखों से सरलता के आकाश तक फैल चुकी शाम से पूछते थे कि इन बातों का मतलब? वहीं एक ‘पावस की शाम’ से राजेन्द्र कुमार पूछने से नहीं हिचकते कि
‘कुछ ठीक नहीं
कब
अँधेरे के सामने
आत्मसमर्पण कर दे-
वर्षा के झरने से
अभी-अभी धुल के निकली है
जो शाम!’
लगता है ऐसी ही किसी शाम के लिए शमशेर बहादुर सिंह ने कहा होगा टूट मत ओ साँझ के पत्थर हृदय पर। लेकिन शाम से जब इन बातों का मतलब पूछें, तो सिवाय आँखें मुँद जाने के और क्या शेष दिखता है!
जब-जब मनुष्य को अपनी घटती हुई मनुष्यता, समाज को नष्ट होती हुई सामाजिकता, कला को अतिशय व्यावसायकिता और कविता को छीजती हुई संवेदनाशीलता की चिंता होगी, तब-तब उसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल का यह कथन अवश्य याद आएगा, ‘ज्यों-ज्यों हमारी वृत्तियों पर सभ्यता के नए-नए आवरण चढ़ते जाएँगे, त्यों-त्यों एक ओर तो कविता की आवश्यकता बढ़ती जाएगी, दूसरी ओर कवि-कर्म कठिन होता जाएगा।’ यह अकारण नहीं है कि कविता में जब संवेदनशीलता और गंभीरता दोनों की अतिशय ज़रूरत महसूस की जा रही है, तब तुक-तान और गलेबाजी वाली कविताएँ आम हिंदी समाज के परिदृश्य पर हावी हो रही हैं। मंचीय और गंभीर कविता के बीच की खाई इतनी बड़ी हो चुकी है कि दोनों धड़ों के बीच लगभग कोई संवाद नहीं है। एक ओर जहाँ राजनीतिक, सामाजिक और पारिवारिक मुद्दों पर फूहड़ हास्य-व्यंग्यों की बहार है, तो दूसरी ओर विचार और चिंतन से ‘ओवरलोडेड’ ऐसी अति गद्यमय कविताएँ लिखी जा रही हैं, जिसमें अनेक बार तो पढ़ने तक का आनंद नहीं मिलता। भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्यगण पहले ही कह गये हैं कि चिंता और चिंतन कांतासम्मित उपदेश-भर रहे, तो गाह्य, अन्यथा उपेक्षित हो कर लक्ष्यभ्रष्ट हो जाना ही उसकी नियति है। क्या विडंबना है कि जब हमारी सभ्यता विकास के शीर्ष पर और अर्थव्यवस्था नई ऊँचाइयों को छू रही है, तब मनुष्य के सहृदयता का ग्राफ तेज़ी से नीचे की ओर जा रहा है। ऐसे में आदमी किससे यह उम्मीद करे कि प्रकृति का सौंदर्य भी भारतीय कविता के महान् कवियों के लिए एक बड़ा विषय रहा है-यहाँ तक कि मनुष्य की प्रकृति और प्रकृति की लीला का सौंदर्य भी कोई कम बड़ा विषय नहीं रहा है!
राजेन्द्र कुमार अपने प्रारंभिक संग्रह ‘ऋण गुणा ऋण’ से लेकर अभी हाल में प्रकाशित सब से ताज़ा संग्रह ‘लोहा-लक्कड़’ तक दुनियावी दुःख-तक़लीफों के बीच प्रकृति के सौंदर्य से बेख़बर नहीं रहे। सूरज, सूर्यास्त, शाम, चाँद, दूब इत्यादि उनकी कविताओं में अनेक रूपों और अनेक मनःस्थितियों में चित्रित हुआ है, मसलन,
‘सूरज, तुम यह मत समझना
कि मैंने तुम्हारी आग का महत्व नहीं समझा
चाँद, तुम यह मत सोचना
कि मैंने तुम्हारी शीतलता का दुरुपयोग किया।’
बकौल रघुवीर सहाय, जिस तरह उनके मन में पानी के अनेक संस्मरण हैं, उसी तरह कवि के राजेन्द्र कुमार के पास सूरज और चाँद से संबंधित अनेक अनुभूतियाँ हैं। चाय की तलब और अख़वार वाचन के बीच सूरज से संबंधित एक ख़बर उनकी कविता का कुछ यूँ विषय बनता है,
‘अख़बार की एक सुर्ख़ी ने
मुझे खींचा-
‘सूर्य ठंडा हो रहा है’
यह एक चिंता पैदा करने वाली ख़बर थी
मैं ख़बर के ब्योरों में उतरता गया... !’
मगर एक मनुष्य की सोच कितनी देर तक प्रकृति से संबद्ध रहती/ रह सकती है, इसकी मिसाल कविता का अंत है, जब नैरेटर की चाय की तलब पूरी होते ही सूरज के ठंडा होने की चिंता हवा होने लगती है। यह कविता इस बात की एक बड़ी मिसाल है कि क्षण में ही मिट जाने वाली मछली की याददाश्त की तरह अपनी तलब पूरी होते ही इंसान की चिंता सूरज से सिमट कर अपनी तलब पूरी करने तक सिमट जाती है। इसलिए कवि ‘वसंत से निवेदन’ करता है कि
‘अख़बार के पन्नों पर
ऐसे ही आता है प्रेम
रोज़ बिला-नागा
वसंत, अपने आने की ख़बर देने का
थोड़ा-सा शऊर
तो बचा लो
प्रेम में।’
इस संदर्भ में राजेन्द्र जी की एक और कविता ‘ढलते हुए सूरज से’ देखी जानी चाहिए, जिसमें ढलते हुए सूरज का सौंदर्य तो ठीक है, लेकिन उसके बीच नैरेटर को अपने अधूरे काम को पूरा करने की चिंता ज़्यादा है,
‘दिन ढला
रूख कर लिया तुमने नदी की ओर
यों तो है मुझे भी उधर ही चलना
पर तुम चलो, मैं आ रहा हूँ
बस, ज़रा-सा काम है।’
यह बस ज़रा-सा जो काम है, उसके कारण नैरेटर सूरज के साथ नहीं, सूरज के जाने के बाद आने की बात करता है। इसलिए नहीं कि उसके भीतर इस सौंदर्य के दर्शन की इच्छा नहीं है, बल्कि यह हर भारतीय मध्य वर्ग की नियति है कि काम और पेट की चिंताओं से वह कभी इतना मुक्त नहीं हो पाता कि एकदम समय निकाल कर सूरज के साथ चल दे! ‘सूर्यास्त’ को लेकर कवि के यहाँ अनेक बिंब और अनेक चित्र हैं,
‘शाम होती है
मेरे घर का वह कोना
जो सबसे ऊँचा है
अपनी ऊँचाई पर उदास होता है।’
इस ऊँचाई की व्यंजना वाकई अनेक स्तरों पर उदास करती है। ‘नीम का पेड़’ के माध्यम से व्यक्त की गई यह व्यंजना भी पाठकों को कोई कम उदास नहीं करती,
‘पेड़ झूठ नहीं बोलता
पेड़ आगे भी झूठ नहीं बोलेगा
उसकी हर पत्ती एक आँख होती है
और हज़ार-हज़ार आँखों से जो देखा जाए
उससे मुकरा नहीं जा सकता
आज़ादी और ग़ुलामी के बीच छिड़ी जंग का
और, बर्बरता के ख़ात्मे का दावा करने वाले दंभी
सभ्यताओं का
इन पेड़ों से बेहतर गवाह
दूसरा कौन हो सकता है?’
राजेन्द्र कुमार की प्रकृतिपरक कविताओं की इस विशेषता को लक्षित किये जाने की आवश्यकता है कि कलावादी कवियों की तरह प्रकृति का चित्रण करते समय उनकी आँखों में महज़ सौंदर्य और कला ही नहीं, उसके बीच दुनियावी चिंताएँ भी झाँकती रहती हैं। एक संवेदनशील और गंभीर कवि की आँखों में सौंदर्य के बीच भी दुनिया की तल्ख़ सचाई एक उदासी के रूप में मौज़ूद होती है। मसलन, दूसरों के लिए मिट्टी का अर्थ मिट्टी के अतिरिक्त कुछ और नहीं है, लेकिन मिट्टी को कवि किस आँख से देख रहे हैं, देखिये,
‘इस मिट्टी को
उस भाषा में मैं किस नाम से पुकारूँ
जिस भाषा में
मिट्टी का मतलब होता है सिर्फ़ लाश!’
यह मामला सिर्फ दृष्टिकोण का नहीं, दृश्य का भी है, जो आज के समय का एक धर्म बन चुका है। क्या समय है कि आज कोई लोमहर्षक दृश्य हमारे समय के द्रष्टाओं को निदान और बचाव के लिए उतना उत्प्रेरित कदाचित् नहीं करता, जितना उस दृश्य को तकनीक में बाँध लेने को। हत्यारों को रोकने की हिम्मत हो चाहे न हो, हत्या के दृश्य को तकनीक में रूपांतरित कर लेने का प्रबल लोभ अवश्य रहता है। इस अमानवीय प्रवृत्ति को राजेन्द्र कुमार की इन काव्य-पंक्तियों ने क्या ख़ूब अनावृत्त किया है,
‘दृश्य ही दृश्य हैं सामने
आज़ाद है हर आँख
कि चुन ले
मुग्ध होने को
अपने-अपने लिए दृश्य
मुग्ध होना ही इन दिनों
आँखों का एकमात्र धर्म है।’
राजेन्द्र कुमार मुग्ध होने की इस प्रवृत्ति के विरुद्ध अपनी कविता में न केवल प्रतिरोध का आख्यान रचते हैं, बल्कि आँखों के इस मुग्धकारी प्रवृत्ति पर मारक व्यंग्य भी करते हैं।
केदार नाथ सिंह के पहले कविता-संग्रह ‘अभी, बिल्कुल अभी’ के प्रकाशन के लगभग बीस वर्ष के बाद जब उनका दूसरा कविता-संग्रह ‘ज़मीन पक रही है’ प्रकाशित हुआ था, तो केदार जी का यह धैर्य हिंदी कविता में एक चर्चा का विषय बन गया था, जबकि राजेन्द्र कुमार के धैर्य की इस इंतहा को कदाचित् नोटिस नहीं किया गया कि उनका पहला संग्रह ‘ऋण गुणा ऋण’ सन् 1978 में प्रकाशित हुआ और दूसरा संग्रह ‘हर कोशिश है एक बग़ावत’ 2013 में। यानी तकरीबन पैंतीस वर्षों के लंबे अंतराल के बाद। आत्म-प्रकाशन के इस दौर में जब दो-चार कविताएँ लिखते ही कवियों में ‘साहिबे-क़िताब’ होने की आकांक्षा हिलोरें लेने लगती हैं, तब उन कवियों की याद बारहा आती है, जिन्होंने ता-उम्र लिख कर बमुश्किल एक दीवान किया! हालाँकि इस तथ्य का सरलीकरण नहीं किया जा सकता कि कम लिखना उत्कृष्ट लिखने की गारंटी है या अधिक लिखना स्तरहीनता की निशानी। असल में यह भारतीय काव्य परंपरा में मौज़ूद उस प्रवृत्ति की ओर संकेत है, जिसमें आत्मप्रकाशन और आत्मश्लाघा को ठीक नहीं समझा जाता। इसलिए किसी भी परिस्थिति में सामाजिक और नैतिक मूल्यों में अटूट आस्था रखने वाले कवियों में आत्म-विज्ञापन से सायास बचने की प्रवृत्ति पायी जाती है। आज भी जिन कवियों की कविता मानवीय मूल्यों में गहरी आस्था के साथ संभव होती हैं, वे आज के बाज़ारवादी दौर में भी आत्म-विज्ञापन के मामले में संकोच बरतते हैं।
राजेन्द्र जी की अनिच्छा के बावज़ूद कवि शैलेय ने उनके अध्ययन कक्ष में बेतरतीब पड़े कागजों और डायरी के पन्नों से ढूँढ कर उनकी छपी-अनछपी कविताएँ इकट्ठी की और फिर प्रकाशन हेतु उसकी पांडुलिपि तैयार की। संकलित करने के क्रम में हुए अनुभवों और उनकी कविताओं से गुज़रते हुए शैलेय ने लिखा है, ‘आत्म-प्रकाशन की हड़बड़ी के इस दौर में ऐसा ‘आत्म-संकोच’ मुझ जैसों के लिए एक विरल अनुभव है। राजेन्द्र कुमार की कविताओं को संकलित करना मेरे लिए उस काव्य-खनिज का उत्खनन करने-जैसा रहा, जो अन्यथा उनकी डायरियों और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं के पन्नों में ही दबा-ढका पड़ा रह जाता।’ गरज यह कि उनका दूसरा संकलन भी शैलेय के काव्य-खनिज के उत्खनन के कारण पैंतीस वर्ष बाद जा कर संभव हुआ। अब इस बात का क्या कीजै कि काव्य-पथ के पथिकों और आलोचना के रसिकों का ध्यान अन्य बातों की ओर तो गया, लेकिन इस ओर नहीं गया!
अपने दूसरे कविता-संग्रह ‘हर कोशिश है एक बग़ावत’ की ‘गिरी-पड़ी हर चीज़ उठाकर देख रहा हूँ’ शीर्षक कविता में जब वे कहते हैं,
‘हर सार्थक शुरुआत
प्रकृति से ही बाग़ी होती आई है’,
तो उन कवियों की तरह विचारों की क्रांतिकारिता को व्यक्त करने के लिए वे ऐसा नहीं कहते, जिनकी तमाम आस्था, विश्वास और मूल्य महज काव्य-मुहावरों तक सीमित रह जाते हैं। वे तो गिरी पड़ी हर चीज़ को उठाकर देखते हैं-अपने भीतर बची रह गई चीजों में तमाम अनकही व्यथा, अनदिखी उमंगों और अनछलके आँसू को ढूँढ़ने का प्रयत्न करते हुए। कवि के अनुसार हर सार्थक शुरुआत प्रकृति से ही बाग़ी होती है, लिहाजा शुरुआत के बाद होने वाले अंत और उसके परिणाम की सफलता-असफलता को लेकर उनके विचार स्पष्ट हैं,
‘कोशिश-
हाँ, कोशिश ही तो कर सकता हूँ
हर कोशिश है एक बग़ावत
वरना जिसे सफलता-असफलता कहते हैं
वह सब तो बस हस्ताक्षर हैं
किए गए उस संधि-पत्र पर
जिसे व्यवस्थाएँ प्रस्तुत करती रहतीं
हम सबके आगे।’
जिस रचनाकार की विचारधारा और चिंतन में सुविधा से उत्पन्न दुविधा नहीं होती है, उनकी रचना में अनुस्यूत विचारों में भी अस्पष्टता नहीं होती। इसलिए यह अकारण नहीं है कि सफलता के आवेग और असफलता की उदासी में गर्क होने के स्थान पर वे सफलता और असफलता के मानक को लेकर चिंतन करते हैं और पाते हैं कि ये चीजें तो
‘बस हस्ताक्षर हैं
किए गए उस संधि-पत्र पर
जिसे व्यवस्थाएँ प्रस्तुत करती रहतीं
हम सबके आगे।’
जिनकी आस्था, मूल्य और विश्वास व्यवस्था प्रदत्त सफलता-असफलता के मानक से संचालित होते हैं और ‘पल-पल परवर्तित प्रकृति वेश’ की तरह जिनके विचार और व्यवहार परिवर्तित होते रहते हैं, वे व्यक्तिगत लाभ-लोभ की पूर्ति के लिए किसी भी हद तक जाने से गुरेज नहीं करते। ऐसे लोगों का कृत्य कवि की नज़रों से अलक्षित नहीं रहता,
‘क्षण में लघु, क्षण में विराट होने का गुर जिनको आता है
ऐसे कई महावीरों को
अपने युग में कितना कायर होते देखा है!’
यह कविता अवसर के अनुकूल विचार और व्यवहार में तत्काल परिवर्तन कर लेने में माहिर उन महावीरों के अंतःकरण तक जाती है, जिनकी सारी वीरता अंततः कायरता बन कर रह जाती है। कवि को अपनी लघुता का अहसास है, इसलिए वे अपने मन में किसी तरह के लघुता-बोध को लाए बिना कहते हैं,
‘मैं अपनी लघुता में जैसा भी-जो भी हूँ
उतने ही का साक्षात्कार मुझे करना है
उतने में ही देना है अवकाश मुझे उन सबको भी
जो निरवधि काल, विपुल पृथिवी पर
अपनी-अपनी लघुताओं में
मेरे ही समानधर्मा हैं।’
कवि की यह विनम्रता विशेष रूप से ध्यान आकर्षित करती है-वह अपनी लघुता में जैसा भी जो है, उतने का ही साक्षात्कार करने की आकांक्षा व्यक्त करता है और लघुता के संदर्भ में अपने समानधर्माओं को अवकाश देने की बात करता है। जब न्यूनतम मानवीय मूल्यों की अपेक्षा करना/ रखना सामयिक चलन के विरुद्ध हो, जब सफलता की राह में आने वाले को क्रूरतापूर्वक हटा देना ही व्यवहारिकता की शर्त हो, तब अपनी लघुता का अहसास और अपने समानधर्माओं को अवकाश की बात अविश्वसनीय-सा लगता हुआ सच प्रतीत होता है! जिसकी अभिव्यक्ति और विश्वसनीय अनुभूति राजेन्द्र कुमार के कवि-कर्म की दुर्लभ विशिष्टता है।
‘हर कोशिश है एक बग़ावत’ नामक कविता-संग्रह की एक लंबी कविता है ‘आईना-द्रोह’ जिसका विस्तार शाब्दिक स्तर पर तीन खंडों में है, लेकिन वैचारिक स्तर पर इसका विस्तार बड़ा है। पहले खंड ‘हाँ-नहीं’ की शुरुआत ही तत्काल ध्यान आकर्षित करती है,
‘सबके अपने-अपने हाँ-हाँ
सबके अपने नहीं-नहीं
तना-तनी में कभी कहीं
तो सांठ-गांठ में कभी कहीं।’
मनुष्य किसी लोभ या भय से प्रायः सच को सच कहने से बचने की कोशिश करता है, लेकिन यह आईने की मज़बूरी नहीं है। उसूलों पर अड़ना और अधिकारों के लिए लड़ना इंसान भूल सकता है, लेकिन, ‘आईना अपने परावर्तन-धर्म पर अड़ा था।’ इस संग्रह में कवि ने आईना ही नहीं, अन्य चिर-परिचित बिंबों को भी झाड़-पोंछ कर कुछ इस तरह पुनर्जीवित किया है कि पाठक सम्मोहित-सा हो जाता है। उनकी कविता में एक भी शब्द फालतू नहीं है, न एक भी बिंब कहीं अनावश्यक प्रतीत होते हैं...और ऊपर से बिंब के रूप में चिर-परिचित आईने का प्रयोग। अपनी काव्य-कला से वे आईने के द्रोह का जो वर्णन करते हैं, उसे पढ़ते हुए मुझे शमशेर और ग़ालिब याद आए। चचा ग़ालिब कहते हैं,
‘आईना-ख़ाने में खींचे लिए जाता है मुझे
कौन मेरी ही अदालत में बुलाता है मुझे’,
तो शमशेर कहते हैं, ‘मैं वह आईना हूँ जिसमें आप हैं’। तो यह जो आईना-द्रोह है, वह द्रोह आईने का तो ख़ैर क्या है, दरअसल वह कवि का द्रोह है, जो सत्ता और शक्ति के दुरभिसंधियों को अनावृत्त करने में ज़रा भी नहीं हिचकता,
‘लोग-तमाम सारे लोग-
भूख और विपदा के मारे लोग
ख़ूब खाये अघाये और डकारे लोग
गड़ाए हैं अपनी आँखें
उन्हीं स्क्रीनों पर
जहाँ सब कुछ सीधे आता है
लेकिन कुछ भी सच और सतत नहीं आता
सब कुछ चटखारेदार-रंग-बिरंगा
और बीच-बीच में ब्रेक के साथ।’
लक्ष्य के प्रति एकाग्रता और धनुर्विद्या में पारंगत होने की परीक्षा के संदर्भ में गुरु द्रोणाचार्य और उनके प्रिय शिष्य अर्जुन की चर्चा होती है, जिसमें धनुर्धर अर्जुन को पेड़ पर टँगी ‘चिड़िया’ की सिर्फ़ आँख दिखाई देती है। लेकिन चिड़िया की आँख पर ध्यान केंद्रित करने वाली अर्जुन की जो दृष्टि है, उस दृष्टि को राजेन्द्र कुमार किस दृष्टि से देखते हैं,
‘कोई भी आँख सिर्फ़ आँख नहीं होती
होती है पूरी की पूरी-एक दुनिया-भरी-पूरी...
कि सपने हर आँख की आत्मा होते हैं
कोई भी तीर
जिन्हें बेध नहीं सकता।’
गुरु हो कर भी आँख रूपी इस पूरी की पूरी दुनिया को न द्रोण देख पाते हैं, न अपने लक्ष्य के प्रति समर्पित अर्जुन। वह चिड़िया की महज आँख-भर देख सकता है, यह देख ही नहीं सकता कि आँखें महज आँखें ही नहीं होती। चिड़िया, जिनकी आत्मा में स्वप्न होते हैं, करुणा होती है और पूरी सृष्टि होती है। आँख की भरी-पूरी दुनिया को सिर्फ़ एक कवि ही देख सकता है, चाहे वह राजेन्द्र कुमार हों या क्रौंच-वध को देख कर करुणार्द्र होकर
‘मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगमः शाश्वतीः समाः।
यत्क्रौंचमिथुनादेकम् अवधीः काममोहितम्॥'
कह कर विचलित होने वाले आदि कवि वाल्मीक। कवि की तरह अर्जुन यदि आँख को इस तरह देख पाते तो कुरुक्षेत्र की तरह शायद यहाँ भी करुणार्द्र हो कर अपना धनुष रख देते,
‘सचमुच देख रहे होते अगर तुम मेरी आँख
तो तुम्हारे हाथ जरूर काँपते
संस्रता ज़रूर तुम्हारा धनुष।’
शमशेर अपनी एक कविता में कहते हैं,
‘कवि घंघोल देता है
व्यक्तियों के जल
हिला-मिला देता
कई दर्पनों के जल
जिसका दर्शन हमें
शांत कर देता है
और गम्भीर
अंत में’-
राजेन्द्र कुमार दिमाग में खचित पूर्व बिंबों और प्रतीकों को घंघोल देते हैं और उसके बाद जो नया बिंब और प्रतीक रचते हैं, वह अनुभव और चिंतन दोनों के आकाश को कुछ और बड़ा कर देता है। ‘परदे’ पर/की बात करते हुए वे कहते हैं,
‘जहाँ हमारा उपयोग
न किसी बेबसी को छिपाने के लिए हो
न किसी बेरोक दिखावे के लिए।’
और इस कविता में पर्दे की आवाज़ तो सुनिये,
‘जहाँ हम गिरें, तो कुछ ओझल हो
जहाँ हम उठें, तो कुछ परिवर्तित हो।’
पर्दाफाश होने पर भी यदि चीजें बदल नहीं पाती हैं और थोड़े समय के बाद लोग भूल जाते हैं, तो फिर पर्दादारी पर किसी और को हो न हो कवि को शक ज़रूर होता है। यह महज संयोग नहीं है कि राजेन्द्र कुमार की कविताओं से गुज़रते हुए भारतीय कविता की पूरी परंपरा याद आने लगती है! इसके विपरीत समकालीन परिदृश्य में सक्रिय अधिकांश नामचीन कवियों की कविताओं से गुजरते हुए भारतीय काव्य-परंपरा की याद बहुत कम आती है। यहाँ तक कि जीवन के सच के नाम पर पर कई बार उनके अध्ययन का सच सामने आ जाता है और जो जीवन उसमें चित्रित होता है, वह पाठकों के जीवनानुभवों का हिस्सा कभी नहीं बन पाता है। इसलिए बकौल राजेन्द्र कुमार, ‘कविता का और कवियों का कोई अपना समाज ही न बन पा रहा हो, तो कवि उस समाज का भी अपना कैसे हो सकता है, जिसने अपनी भाषा में कवि को रचनात्मक हस्तक्षेप करने का अधिकार दिया होता है। कवि की कविता का समाज, कवि की भाषा के समाज से इतना अलग हो जाए कि दोनों में संवाद ही न हो सके, तो उसका हश्र तो यही होना है, जो आज है। किसी भी भाषा का, और उस भाषा के समाज का गौरव तभी बढ़ता है, जब उस भाषा-विशेष को कोई कवि अपनी कविता का रचा एक नया समाज सौंप कर समृद्ध करता है।’ (कविता का समय-असमय, पृ.10)
उनका दूसरा संग्रह अकल्पनीय विलंब से आया, लेकिन दुरुस्त रूप में आया। शैलेय ने उनके इस संग्रह की कविताओं को तीन खंडों में विभाजित किया है-‘हर कोशिश है एक बग़ावत’, ‘कविता का सवाल’ और ‘कविता के किरदार’ शीर्षक खंड में। प्रवृत्ति के अनुरूप कविता का सवाल खंड में उनकी प्रश्नपरक कविताओं को रखा गया है, जिसमें सन्निहित प्रश्न उसी तरह की असुविधा पैदा करते हैं, जिस तरह कबीर की कविता करती है। धर्म के रास्ते में मनुष्यता और सामाजिकता को हाशिये पर धकेल दिया जाता और धर्म के अलंबरदार अपने हिसाब से समाज और मानवता की व्याख्या करने लगते हैं, लेकिन कवि ‘धरम का रास्ता’ में प्रश्नपरक अवरोध पैदा करने से नहीं चूकते,
‘इस पर चलना पुण्य है
इसका इतिहास जानने की कोशिश करना पाप
समझदार लोग इस पर चलते हैं
तो प्रश्न नहीं करते, सिर्फ़ जै-जैकार करते हैं।’
कहना न होगा कि धर्म के रक्षक/उपदेशक न प्रश्न का स्वागत करते हैं, न इतिहास जानने की उत्कंठा का। जबकि कवि किसी भी चीज को आलोचनात्मक तरीके से ही नहीं देखता, बल्कि उसके ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य को भी ध्यान में रखता है। इसलिए ‘इस साल भी’ यह देख कर वह कुछ उदास होता है,
‘स्त्री कुछ और स्त्री हुई
पुरुष कुछ और पुरुष
हिंदू कुछ और हिंदू हुए
मुसलमान कुछ और मुसलमान
नहीं हुआ तो सिर्फ़
आदमी ही नहीं हुआ कुछ और आदमी।’
आख़िरकार आदमी को अग़र इंसान होना मयस्सर हो जाता, तो फिर ग़ालिब को इसकी शिकायत ही क्यों होती कि बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना।
नागार्जुन को इस बात का श्रेय दिया जाता है कि वे ऐसे कवि हैं, जिन्होंने सबसे ज़्यादा व्यक्ति केंद्रित कविताएँ लिखी हैं। नागार्जुन सरापा कवि थे और वे किसी भी चीज़ पर अद्भुत कविता लिख सकते थे, लेकिन राजेन्द्र कुमार जैसे आत्मसंकोची कवि ने भी ‘कविता के किरदार’ को खूब पहचाना है और भगत सिंह, बहादुर शाह जफ़र, ओसामा बिन लादेन, सामंता स्मिथ, अंतरिक्ष यात्री राकेश शर्मा, विनायक सेन, जॉर्ज बुश, निराला, शमशेर बहादुर सिंह, केदार नाथ अग्रवाल, अज्ञेय और नागार्जुन को विषय बना कर बेहतरीन कविताएँ लिखी हैं! नागार्जुन की एक कविता ‘सिंदूर तिलकित भाल’ की ज़मीन पर उनकी एक मार्मिक कविता है,
‘काव्य-तिलकित भाल नागार्जुन, तुम्हारा
चेतना को दीप्त करता है हमारी
घिन नहीं आती हमें अब
उन सबों के बीच उठते-बैठते
देह जिनकी गँधाती है पसीने से
बदलने को नहीं जिनके पास कपड़े
बदलने को पास जिनके है मगर दुनिया
जिस से साँस से अपनी उठाए हैं
जिसे वे आस से अपना बनाए हैं।’
भद्रवर्गीय संस्कार पर चोट करती नागार्जुन की यह कविता राजेन्द्र कुमार के कवि, जो इस कविता में भद्रवर्गीय नैतिकता के नैरेटेर के रूप में सामने आते हैं, को बदलती है। जन-सामान्य के जीवन में घुलने-मिलने के लिए अभिजातवर्गीय नाक-भौं-सिकोड़ू मानसिकता पर नागार्जुन जिस तरह चोट करते हैं, मानुष सत्य के जिस स्तर तक ले जाने का प्रयास करते हैं-कवि राजेन्द्र कुमार इस आत्म-स्वीकार को इस कविता में सफलतापूर्वक व्यक्त करते हैं। इसी तरह अज्ञेय पर लिखी कविता ‘ज्ञेय-अज्ञेय’ में वे कहते हैं,
‘स्मृति में हो तुम-
गंभीरता साकार...
वह अकेलापन
जिसे तुमने वरा
अकेला कर न पाया तुम्हें
निजता पा गई विस्तार।’
तुलसी दास और ग़ालिब की तरह राजेन्द्र कुमार के मन में अपने अग्रजों के प्रति गहरा अनुराग और स्वीकार का भाव है। यह अकारण नहीं कि तुलसीदास, ग़ालिब और नागार्जुन की तरह राजेन्द्र कुमार हिंदी कविता के तमाम पूर्व-पुरुषों को विषय बना कर उन पर कविताएँ लिखते हैं, उनके अवदान और महत्ता को गहरी संवेदना से याद करते हैं। दिलचस्प यह है कि इस क्रम में भी उनका आलोचनात्मक विवेक बराबर जाग्रत रहता है, जिसके कारण तमाम आदर-भाव के बावज़ूद वे अपनी अभिव्यक्ति के लिए न तो प्रार्थना का शिल्प चुनते हैं, न अवदान की वास्तविकता को भूलते हैं! आमतौर पर जब किसी कवि को केंद्र में रखकर कविता लिखी जाती है, तो उसमें प्रमुख रूप से व्यक्तित्व का चित्रण और प्रशस्ति होती है, जबकि राजेन्द्र कुमार की व्यक्ति-केंद्रित कविताओं की यह विशेषता लक्षित की जानी चाहिए कि वे किसी व्यक्ति को केंद्र में रख कर लिखते समय भी अपने समय और अपने समय के दुष्चक्रों से बेनियाज़ नहीं होते। मसलन प्रगितशील कवि केदार नाथ अग्रवाल को केंद्र में रख कर लिखते समय उनके जेहन में क्या है, देखिये,
‘केदार सोच रहे हैं
यह पत्थर कब बोलेगा
यह पत्थर सिर्फ़ पत्थर नहीं है
हम सबकी जड़ हो गई ज़बान है
इस हाहाकारी समय में
जब हम अपनी ज़बान से ज़्यादा
जड़ रिमोट पर भरोसा करते हैं
जो हाथ हमारे होता है
साथ उनके, जो हमारे नहीं हैं।’
कवि की कल्पना कविता की व्याख्या में कहाँ तक चली जाती है! केन किनारे का पत्थर महज़ पत्थर नहीं रह जाता, हम सब की चुनी हुई चुप्पियों पर सवाल खड़े कर देता है! उस पर तुर्रा यह कि जिस रिमोट को हमने अपनी जड़ हो चुकी ज़बान का स्थानापन्न समझ लिया है, वह हमारे हाथ में तो होता है, लेकिन साथ उन वर्गशत्रुओं के होता है, जो हमारा अहित के अतिरिक्त और कुछ नहीं सोच सकते।
निराला पर अनेक कवियों ने कविताएँ लिखी हैं और उनके साहित्यिक अवदान को अपने तईं रेखांकित करने का प्रयास किया है। राजेन्द्र कुमार ने भी निराला पर एक कविता लिखी है, जिसकी अनेक विशिष्टताओं में से एक विशिष्टता है भाषा। उर्दू में किसी शायर की ज़मीन पर लिखने की परंपरा है, लेकिन हिंदी में नहीं। उर्दू काव्य परंपरा में किसी उस्ताद शायर की ग़ज़ल के मतले को आधार बनाकर बाकी शेर कहने का चलन है, जिसमें पूरी ग़ज़ल एक ज़मीन पर होती है। लेकिन राजेन्द्र कुमार, निराला पर लिखी इस कविता में एक और कमाल का काम करते हैं कि निराला की अनेक कविताओं की ज़मीन पर अनेक तरह की बातें, अनेक अंदाज़ में करते हैं! चूँकि हिंदी और उर्दू दोनों ज़बानों के बीच उनकी आवाजाही चलती रहती है, इसलिए किसी उस्ताद की ज़मीन पर अपनी बात कहने की कला में अनेक स्वरों और अनेक स्तरों पर वे अपनी बात कह सकने में कामयाब होते हैं! इस कला को साधते हुए क्या ग़जब का उनका संतुलन और भाषा पर अधिकार है,
‘वह दृष्टि तुम्हारी मिली
दिख सकी हमें-तोड़ती पत्थर
वह-‘जो मार खा रोई नहीं’
रह जाती जो अनदिखी
अन्यथा
इलाहाबाद के पथ पर
वह दृष्टि तुम्हारी मिली
राम पा गए जिंदगी में आने की राह
नहीं तो
भटक रहे होते पुराण के पन्नों पर प्रेतात्म...
आ रमे हमारे बीच
ठीक हम जैसों
फ़िक्रों में हुए शरीक़।’
साहित्य के अलावा राजेन्द्र कुमार ने जीवन के अन्य क्षेत्रों से जुड़े जिन व्यक्तित्वों को अपनी ‘कविता का चरित्र’ बनाया है, उनके जीवन के मार्मिक पक्षों को भी उसी तादात्म्य के साथ चित्रित किया है, जिस प्रकार साहित्य से जुड़े किसी चरित्र पर लिखते हुए।
तात्कालिक राजनीतिक घटनाओं पर लिखी गई कविताओं के साथ यह एक समस्या रहती है, जब तक जनता को वह संदर्भ, वह ऐतिहासिक घटना-क्रम न बताया जाय, तब तक उस कविता के साथ वे नहीं जुड़ पाते हैं। विशेष रूप से साहित्येतर व्यक्तित्वों पर लिखी गई कविताओं की व्याख्या करते समय यह दुविधा मन में बनी रहती है। ऐतिहासिक घटनाओं को अपनी कविता का विषय बनाते हुए राजेन्द्र जी इतिहास के भँवर में खो नहीं जाते, बल्कि वर्तमान की क्रूरताओं, नाकामियों और संवेदनागत कमियों पर उन्होंने बकौल निराला ‘सोचा है नत हो बार-बार।’ अंतिम मुग़ल बादशाह ‘बहादुरशाह जफ़र से एक संवाद’ शीर्षक कविता में इतिहास की एक निर्मम घटना को आज के एक लोमहर्षक घटना से जिस तरह जोड़ते हैं, वह कोशिश इस बात की पुरज़ोर ताईद करती है कि इतिहास अपने को जब दोहराता है, तो उसका रूप पहले से भी कितना भयावह और क्रूर होता है,
‘वह एक अँगरेज़ जनरल था-
माना कि हैवानियत की हद तक बेरहम
जिसने तुम्हारे तीन बेटों के सर कलम करके
थाल में रेशम से ढक कर
तुम्हारे पास भेज दिये थे
बतौर पेंशन
लेकिन, आज यह किसी अँगरेज़ की नहीं
निठारी जैसी जगहों पर हिंदुस्तानियों की कोठियाँ हैं
जिनकी देहरियों पर हम सर पटकते हैं
और हमें यह बताने वाला कोई नहीं
कि हमारे मासूम बच्चे कहाँ गुम हो रहे हैं।’
इससे पहले की इस कविता की काव्य-पंखुड़ियों को हम धीरे-धीरे खोलें, इतिहास और वर्तमान दोनों के संदर्भ को ठीक से समझ लेना बेहतर होगा। इसके बिना यह कविता अपनी पूरी मार्मिकता के साथ नहीं खुलेगी।
ख़्वाजा हसन निज़ामी देहलवी का ‘चाँद’ के फाँसी विशेषांक में एक लेख प्रकाशित हुआ था, जिसमें मुंशी जकाउल्ला के बयान के हवाले से बताया गया है कि बादशाह की गिरफ्तारी के दूसरे दिन मुंशी रज्जब अली और मिर्जा इलाही बख्श ने कर्नल हडसन को ख़बर दी कि मिर्ज़ा मुग़ल, मिर्ज़ा ख़िजर सुल्तान और मिर्ज़ा अबु बकर-बहादुर शाह जफर के दो बेटे और एक पोते ने हुमायूँ के मकबरे में शरण ले रखा है। यही वे लोग हैं जिन्होंने अंग्रेज औरतों और बच्चों के कत्ल में हिस्सा लिया था। यह ख़बर सुनते ही कर्नल हडसन बौखला गया। जनरल विलसन से अनुमति ले कर बादशाह के बच्चों के कत्ल के लिए वह रवाना हो गया। मैकडॉनल्ड उसके साथ था। हडसन ने शहज़ादों को अपने शाही लिबास उतारने का आदेश दिया और एक सवार से भरी कड़ाबीन मांगी। उसे हाथ में ले कर उसने तड़ातड़ तीन फायर किये। गोलियाँ शहजादों के सीनों में लगीं और वे हाय धोखा कह कर धूल में लोटने लगे। हडसन ने शहजादों को अपने हाथों से कत्ल करके एक चुल्लू खून का पिया और कहा कि अगर मैं इनका खून न पीता तो मेरा दिमाग ख़राब हो जाता, क्योंकि इन लोगों ने मेरी कौम की बेबस औरतों और बच्चों के कत्ल में हिस्सा लिया था। संक्षेप में इस कविता का यह है ऐतिहासिक संदर्भ। आज के समय से इस घटना को जोड़ते हुए राजेन्द्र कुमार ने नोएडा के निठारी की घटना को जोड़ा है, जिसमें अनेक बच्चों के साथ दुष्कर्म करके क्रूरतापूर्वक हत्या और फिर उनके अंगों का भक्षण करने वाले सुरेंद्र कोली और मनिंदर सिंह पंधेर की हैवानियत को कवि ने इस कविता का विषय बनाया है। आम पाठक इन दोनों संदर्भों को जाने बिना इस कविता के मर्म तक नहीं पहुँच सकते। अब इस कविता के अंत को देखना ज़रूरी है, जिसके बिना कवि के स्वप्न को नहीं जाना जा सकता,
‘हमारा लहू सिर्फ़ इतिहास के पन्नों पर
सूख चुका लहू नहीं है
हमारे रक्त-कण
उमड़ कर किसी भी क्षण
ज्वार बन सकते हैं
और हम एक नया
जन-उभार बन सकते हैं।’
विनायक सेन पर लिखी कविता में वे कहते हैं,
‘गए गुज़रे वे
जो हर चीज़ को
उसके उलटे नाम से पुकारने को
अपना लोकतांत्रिक अधिकार मानते हैं
मसलन देश-प्रेम को राजद्रोह कहते हैं
और किसी भी विनायक सेन को
उम्रक़ैद से नवाजने में ज़रा भी देर नहीं करते।
वे बीत जाएँगे
निश्चित ही बीत जाएँगे
बीते साल की तरह
जो कानून की धाराओं का
इस्तेमाल करते हैं हथकड़ियों की तरह।’
विनायक सेन नहीं बदले, न उनको तोड़ने, नष्ट करने के लिए क्रूरता को हथियार की तरह इस्तेमाल करने वाली सत्ता के चरित्र में कोई बदलाव आया। जैसे बड़े-बड़े आततायी बीत गए, आतंककारी समय बीत गया, उसी तरह वर्तमान सत्ता के सूत्रधार भी बीत जाएँगे। यह एक कटु सत्य है कि सूचना के विस्फोट के इस समय में सूचनाओं के आक्रामक प्रक्षेपण और प्रसारण ने लोगों की याद रखने की क्षमता को बेहद सीमित कर दिया है। लोग जब तक एक सूचना को ठीक से समझते हैं, तब तक अन्य सूचनाएँ स्मृति पर हमला करने को उतारू रहती हैं। इसलिए बहुत पहले रघुवीर सहाय ने ‘ऊबे हुए सुखी’ वर्ग के साथ-साथ सत्ता के दुश्चक्र में फँसे आम जनों को भी लक्षित करते हुए कहा था कि ‘लोग भूल गए हैं!’ लेकिन राजेन्द्र कुमार की कविताओं में कुछ ऐसे आम चरित्र आते हैं, जिनके लिए किसी संदर्भ की नहीं, संवेदनशील आँख और सहृदयता की ज़रूरत होती है।
उनकी एक कविता है ‘मनसब मियाँ’, जिसका रचना काल है सन् 2005, जिसकी तल्ख सचाई आज के समय को कहीं ज़्यादा परिभाषित करती है। जब एक ओर आध्यात्म और नैतिकतारहित धर्मों ने हिंसा को ही अपना प्रमुख अंग मान लिया हो और मनुष्य की बहु-अस्मिता को एकल अस्मिता में ‘रिड्यूस’ करने का दिन-रात कुचक्र चलता रहता हो, तब यदि किसी समुदाय विशेष की अस्मिता और निष्ठा को शत्रु देश के प्रति निष्ठा से जोड़ दिया जाए तो इसमें क्या हैरत! अपने अवचेतन में बसे एक छवि के बहाने मनसब मियाँ के बारे में वे कहते हैं,
‘कहाँ से लाते हो मनसब मियाँ इतने सारे
छोटे-छोटे सिक्के-
कहीं पाकिस्तान से तो नहीं!
पता नहीं क्या था उन दिनों हमारे जेहन में
जो मनसब मियाँ का रिश्ता
पाकिस्तान से जोड़ देता था।’
आज इस लोकतंत्र में दाढ़ी जिस अविश्वास और दग़ाबाजी का प्रतीक बनाया जा रहा, उसे जिस शत्रु देश के प्रति वफ़ादारी से जोड़ने का नया चलन चल पड़ा है, उस दाढ़ी की बेबसी की ओर सिवाय एक कवि के और किसका ध्यान जा सकता है,
‘उनके पास
अपना कहने को कुछ भी नहीं था शायद
सिवाय एक दाढ़ी के
और सिवा उस दुःख और अकेलेपन के, जो
उनके, ऊपर के दो टूटे दाँतों
के बीच फँसी हँसी के परदे के
नेपथ्य में होता।’
इस कविता के आरंभ में जिस दाढ़ी की अस्मिता को नैरेटर अपने अवचेतन में बसी एक जड़ व्याख्या से जोड़ देता है, उसी छवि को कविता के मध्य में वह दुःख और अकेलेपन से जोड़ कर देखने लगता है। इस कविता की यह एक बड़ी सफलता है कि यह आम लोगों की उस मानसिकता को अनावृत्त करती है, जिसमें अधिकांश जन अपने अवचेतन में बसी छवि, सुनी-सुनाई बातों और मीडिया द्वारा प्रसारित सूचनाओं के आधार पर किसी के बारे में एक राय बनाते हैं! नैरेटर कविता के आरंभ में दाढ़ी का संबंध जिस पाकिस्तान से जोड़ता है, उसी कविता के अंत तक आते-आते वह इस तथ्य को समझता है कि
‘हमने जाना कि उनका कोई है-
पाकिस्तान में नहीं, यहीं
फ़ैजाबाद में किसी गाँव में-।’
केदार नाथ सिंह की कविता ‘नूर मियाँ’ के मुख्य चरित्र नूर मियाँ जिन बातों की याद दिलाते हैं, उनमें से एक देश का विभाजन है, लेकिन राजेन्द्र कुमार के ‘मनसब मियाँ’ बँटवारे के बाद एक कौम को किसी शत्रु देश की अस्मिता से निरंतर जोड़ते रहने और शक करने की अमानवीय राजनीति के कारण नारकीय स्थिति में जीने को विवश लोगों की याद दिलाने वाली कविता है।
जिस समय अन्याय और अत्याचार के प्रतिरोध में लोगों को अपनी आवाज़ बुलंद करनी चाहिए, अन्यायियों और अत्याचारियों का विरोध करना चाहिए, लोग कुछ नहीं बोलते। वह चाहे रघुवीर सहाय की कविता के एक चरित्र ‘रामदास’ की सरेआम हत्या हो या सरे-बाज़ार किसी का चीरहरण ही क्यों न हो रहा हो, अब लोग कुछ भी बोलने से पहले मौके की नज़ाकत और नफ़ा-नुकसान देखते हैं। राजेन्द्र कुमार ‘छन्नन’ के बहाने समाज में दिनों-दिन बढ़ती इन चुप्पियों को लक्ष्य करते हुए कहते हैं,
‘रात होती है
झींगुर बोलते हैं, आदमी चुप रहता है
सियार ‘हुआ, हुआ’ करते हैं, आदमी चुप रहता है
बिल्लियाँ रोती हैं, आदमी चुप रहता है
कुत्ते भौंकते हैं, आदमी चुप रहता है
आदमी इतना चुप क्यों रहता है।’
कवि का यह सवाल सत्ता और राजनीतिक व्यवस्था से नहीं, इनके बरख़िलाफ अपनी आवाज़ बुलंद करने वाले लोगों से है, जो तभी कुछ बोलना श्रेयस्कर समझते हैं, जब उसका संबंध अपने किसी दुःख-सुख या स्वार्थ से हो। सामूहिकता और सामाजिकता की जगह मनुष्य की आत्मकेंद्रीकरण की प्रवृत्ति ने ही सत्ता को इतना निरंकुश बनाया है। अन्यायी शक्तियों को अपार साहस दिया है, क्योंकि जिसके साथ अन्याय होता है, जिसके अत्याचार होता है, अब बस वही बोलता है, वही चीख़ता-चिल्लाता है। बाकी समाज को अपने आराम में ख़लल डालने की ज़रूरत नहीं होती। इसके बावज़ूद कुछ सिरफिरे होते हैं, जो न केवल बोलते हैं, बल्कि अपनी नफ़रत, अपने गुस्से और अपनी नाख़ुशी का जान की बाज़ी लगा कर भी इज़हार जरूर करते हैं। मसलन पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति पर जूता फेंकने वाले इराकी पत्रकार ज़ैदी, जिस पर लिखी अपनी कविता में राजेन्द्र जी कहते हैं,
‘यह जूता-एक खोये हुए आत्मविश्वास की तरह
दुनिया भर के उन तमाम जूतों को
फिर से मिला, जो पाँवों के नीच
अपनी चरमराहट भर के लिए आज़ाद थे
यह जूता-उन तमाम पाँवों की आज़ादी का
परचम बन गया
जो अपनी ज़मीन पर अपनी गति
का अर्थ तलाश रहे हैं।’
सिर्फ़ भाषा, शैली और शिल्प के स्तर पर ही नहीं, विचार और रूप के स्तर पर भी राजेन्द्र कुमार ‘पूरे कवि’ हैं! दीर्घ कविता से ले कर छोटी-छोटी साँसों तक की अनेक कविताएँ उनके यहाँ मौज़ूद हैं। भाषिक वैविध्य का आलम यह कि उर्दू और फारसी की परंपरा के विदेशज शब्दों से ले कर ‘हिंदी की है रीढ़ गँवारू बोली’ तक के शब्द धड़ल्ले से उनकी कविताओं में आते हैं। शिल्प के स्तर पर मुक्तिबोध की लंबी कविताओं के शिल्प से ले कर, केदार नाथ अग्रवाल, शमशेर, नागार्जुन और रघुवीर सहाय तक की काव्य-परंपरा बोलती है। किसी कविता की महानता इस बात से भी लक्षित की जानी चाहिए कि उसे पढ़ते हुए आपको उस भाषा की काव्य-परंपरा की कोई अनुगूँज सुनाई देती है कि नहीं। तो इस प्रतिमान पर राजेन्द्र कुमार की भाषा और शिल्प दोनों को देख कर हिंदी की पूरी काव्य-परंपरा याद आती है। इसी प्रकार जब वे हिंदी कविता के किसी बड़े कवि पर कविता लिखते हैं, तो उस कवि का पूरा अवदान अपनी भाषा, शिल्प और शैली सहित उनकी छोटी-सी कविता में भी पूरा का पूरा उतर आता है। शमशेर पर लिखते हैं, तो ध्वनि, वर्तनी और रचाव के मामले में शमशेर का पूरा काव्य-व्यक्तित्व झिलमिलाने लगता है। इसी तरह अज्ञेय के ज्ञेय तत्व को अनावृत्त करते हुए उनके मौन को घनानंद के मौन-मधि पुकार की ऊँचाई तक वे ले जाते हैं।
एक बड़ा कवि अपनी कविता में हमेशा अनेक स्वरों और अनेक स्तरों पर बात करता है। वह चाहे निराला हों या मुक्तिबोध-उनके कविता में अनेक स्तरों और अनेक स्वरों में अपनी बात कहने/रच सकने का जो अभिव्यक्तिगत वैभिन्य है, वह शुद्ध कविता के विशुद्ध कवियों में भी प्रायः कम दृष्टिगोचर होता। कहना न होगा कि इस प्रतिमान पर भी राजेन्द्र कुमार सौ फ़ीसदी खरे उतरते हैं, जो अनेक स्वरों और अनेक स्तरों पर अपनी बात कहते हैं। शुद्ध संस्कृत के तत्सम शब्दों को लेकर जब वे कविता लिखते हैं, तो संस्कृत काव्य-परंपरा का गांभीर्य और ओज अपनी पूर्णता के साथ अभिव्यक्त होता है,
‘बहुत प्रियदर्शी, परे पर दृष्टि से तू
प्रियंवद, पर पहुँच है श्रवण की
देख-सुन कैसे तुझे पाऊँ भविष्यत्
मैं महज़ अनुभूति हूँ आसन्न क्षण की
तू ऋचा है वेद की अलिखित अभी जो
किंतु रचना बन उतर मेरे विजन में!’
अपने ‘अजन्मे भाव-शिशु के प्रति’ कवि के जिस भाषा में अपने भावावेग को व्यक्त कर रहा है, उससे सहसा छायावाद की भाषा, विशेष रूप से निराला की प्रारंभिक कविताओं की भाषा याद आने लगती है। संयोग से यह कविता भी राजेन्द्र कुमार की काव्य-यात्रा के एकदम प्रारंभ की कविता है।
इस दौर के बाद जब उनकी काव्य-यात्रा शुरू होती है, तो हर गिरी पड़ी चीज़ को उठा कर देखने से ले कर आतंकवादी, नख-शिख, मूँगफली के छिलके और चमकीली पन्नियों तक को वे अपनी कविता का विषय बनाते हैं। उनकी काव्य-भाषा में जितना वैविध्य है, उतना वैविध्य समकालीन कविता में शायद ही किसी कवि की भाषा में हो। बल्कि मुझे तो अनेक बड़े कवियों से इसी बात की शिकायत है कि उनकी भाषा में कोई वैविध्य ही नहीं है और उनकी कविता पढ़ते हुए कविता के ‘लोकेल’ का कुछ पता ही नहीं लगता। कविता की भाषा इतनी रूपांतरणीय (Translatable) कि तर्ज़ुमा करने में किसी को ज़रा भी उलझन नहीं होती। जबकि अपनी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आबद्ध कविता आसानी से रूपांतरित नहीं की जा सकती है। इस मुआमले में राजेन्द्र कुमार की ख़ूबी यह है कि शहरी पृष्ठभूमि से वाबस्तगी के बावज़दू उनकी भाषा में ठेठ अवधी का ठाठ है और संस्कृत का शास्त्रीय गांभीर्य और उर्दू की शाइस्तगी भी। उनकी कविता का ‘बढ़ई’ जब बोलता है, तो उसकी भाषा से आप तन कर नहीं, निहुर कर ही मिल सकते हैं,
‘लकड़ी का धंधा है
अउर ई जौन आरी है और ई जौन रंदा है
इसका वास्ता लकड़ी से है
इसको लकड़ी में पेड़ की नहीं
बस, लकड़ी की पहचान है
जइसे हजूर को
हममें आदमी होने की नहीं
सिर्फ-हमरे बढ़ई होने का ज्ञान है।’
तमाम सरलताओं और दुनियावी असफलताओं के बावज़ूद इस कविता के बढ़ई की जो टिप्पणियाँ हैं, जो सवाल हैं, उसे इस दांवपेंची सभ्यता को ग़ौर से देखने वाली आँखें ही देख-समझ सकती है।
भाषिक वैविध्य ही नहीं, विषय वैविध्य के हिसाब से भी और नागार्जुन की तरह राजेन्द्र कुमार के लिए कुछ भी त्याज्य और कुछ भी हेय नहीं है। ऐसा कुछ नहीं है जिसे वे अपनी कविता का विषय नहीं बना सकते और ऐसा कोई शब्द नहीं, जिसे अपनी अभिव्यक्ति के लिए उपयुक्त पाकर वे महज इसलिए छोड़ दें कि वे मानक या विशुद्ध नहीं हैं! उन्होंने शमशेर की तरह उर्दू की काव्य-परंपरा का भी गहन अवगाहन किया है और उसमें डूब कर भरपूर रसास्वादन भी किया है। उसे समझने के लिए उनके चंद अशआर पेश-ए-ख़िदमत है,
‘इस अदा में रूठने की ज़िद, गई ठानी कहीं
प्यास तो है सिंधु भर, पर बूँद भर पानी नहीं।’
और एक पंक्ति में उनके जज्बात देखिये,
‘क्या यह मुमकिन है, दिल में आप हों औ’ दर्द न हो?’
भाषिक वैविध्य के मामले में निराला की तरह राजेन्द्र कुमार की भाषा में तीन तरह की भाषा-मानक हिंदी, अवधी और उर्दू अपनी पूरी रवानी के साथ प्रयुक्त हुई हैं। शैल्पिक वैविध्य के तो ख़ैर क्या कहने! जिस तरह नागार्जुन ‘मादा सुअर’ को मादरे हिंदी की बेटी कह सकने का माद्दा रखते थे, उसी तरह चमकीली पन्नियों के बहाने राजेन्द्र कुमार मध्यवर्गीय घरों की पूरी जीवन-शैली को उघाड़कर रख देते हैं,
‘उम्मीदें दिखीं घरों में
यहाँ-वहाँ पड़ी चमकीली पन्नियों की तरह
जैसे किसी घरेलू इस्तेमाल की चीज के साथ
उसके रैपर-सी आ गई हों।’
कवि ज्योतिष, नज़ूमी या भविष्यवक्ता नहीं होता, लेकिन अपनी ईमानदारी और गहरी संवेदनशील दृष्टि के कारण वह न केवल स्वप्नद्रष्टा, बल्कि कालद्रष्टा भी होता है। आज से चालीस वर्ष पूर्व अपने पहले संग्रह की कविता ‘ऋण गुणा ऋण’ में उन्होंने लिखा था,
‘लोग-
हाथों में लिए नकारनामी ध्वज/
निकल पड़े हैं अपने-अपने बाड़ों से
जिनमें-वे कहते हैं-उन्हें नहीं लौटना है
कभी अब।’
क्या यह आज के यथार्थ की भी सटीक अभिव्यक्ति नहीं है? आज चहुँओर नकारनामी ध्वजों के तले मानुष सत्य को रौंदा जा रहा है। जबकि मध्यकाल में ही चंडीदास ने चेताया था, ‘शुनह मानुष भाई/ शबार ऊपर, मानुष शत्तो/ ताहार ऊपरे नाई।'
अपनी आधुनिकता पर इतराते हुए हम जिस समय को मध्यकाल कहते हैं, उस समय का कवि मानुष सत्य को सबसे ऊपर रखने की बात करता था, लेकिन हमारे उत्तर-आधुनिक काल की असलियत यह है कि आज दुनिया के तमाम धर्म मनुष्य से ऊपर हैं, मानुष सत्य से बड़े हैं। बकौल राजेन्द्र कुमार ‘धर्म की ध्वजा’, मनुष्यता की ध्वजा से बहुत ऊँची होती जा रही है,
‘इसे अपने से भी ज़्यादा ऊँचाई पर फहराने की ज़िद में
ज़रूरी हो जाता क्यों हर बार
इंसान के लिए
इंसान से ज़ियादह
बनना किसी मंदिर का कंगूरा
या किसी मस्ज़िद की मीनार!’
इस कविता का रचना-काल है सन् 1990 यानी बाबरी मस्ज़िद विध्वंस से दो साल पहले का समय। जब रामशिला पूजन का राजनीतिक अभियान ज़ोर-शोर से चल रहा था और दुनियावी चिंताओं में खोये हुए लोग अचानक ‘धरम का रास्ता’ पकड़ चुके थे,
‘समझदार लोग इस पर चलते हैं
तो प्रश्न नहीं करते, सिर्फ़ जै-जैकार करते हैं
नंगे पाँव चलते हैं और नंगे सिर
तर्क चाहे जूता बने या टोपी
अनिंद्य और अडिग रहती है आस्था।’
आस्था के इस रूप के कारण आगत समय को कवि ने देख लिया था कि किस तरह मानुष सत्य से भी बड़ा धर्म और धर्म की ध्वजा हो गई है! आख़िर यूँ ही फ़िराक साहब ने नहीं कहा था,
‘हो जिन्हें शक, वो करें और खुदाओं की तलाश
हम तो इंसान को दुनिया का ख़ुदा कहते हैं।’
कवि राजेन्द्र कुमार का स्वप्न और प्रेम उनकी अनेक कविताओं में जिस कोमलता और लगाव से व्यक्त हुआ है, वह अनुपमेय है। आशिक और माशूक को जिस तरह मोहब्बत के ज़ेर-ओ-जबर तक अतिशय प्रिय होते हैं, उसकी एक बानगी ‘आधा ‘प’ में दिख जाता है, जिसमें आधा ‘प’ से कवि को इतना प्रेम है कि वह किसी भी तईं पूर्ण होने की आकांक्षा नहीं पालता,
‘आधा ‘प’ होना
हमारी ही संभावना है
कमबख़्त कौन
हो कर पूर्ण
होना चाहता है ब्रह्म?’
लेकिन प्रेम जब विवाह-संस्था के अधीन आ जाए, तो प्रेमी न तो प्रेमी रह जाता है, न प्रेमिका किसी भी तईं प्रेमिका। दोनों का स्त्री-पुरुष के रूप में रूपांतरण हो जाता है और इस रूपांतरण के बाद,
‘पुरुष की आँखों में
लार की तरह आती है स्त्री
स्त्री की आँखों में
आँसू की तरह आता है पुरुष।’
तो इब्तिदाए इश्क के आगे जो रुदन और निराशा है, उसको झटक कर दूर करने के लिए इसी कविता के अंत में कवि कहता है,
‘आँखों से आँखें मिलाओ
ताकि उन्हें जीभ बनने से रोका जा सके
आँखों को आँख दिखाओ
ताकि उन्हें अश्कगाह बनने से
इनकार करना आ सके।’
प्रेम का प्रतिदान प्रेम हो तो ठीक, लेकिन यदि उसका रूप बदल जाए, तो कवि की रीढ़ तन जाती है। आँखों के भाव परिवर्तित हो जाते हैं-एक लोकतांत्रिक समाज के आदर्श मनुष्य को जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं होने पर तत्काल इनकार का साहस पैदा हो सके! विजयदेव नारायण साही के शब्दों में कहें तो राजेन्द्र कुमार इस दहाड़ते आतंक के बीच फटकार का सच बोलने वाले ऐसे कवि हैं, जिन्हें इस बात की कोई फ़िक्र नहीं है कि उनके सच का इस्तेमाल कौन अपने पक्ष में करेगा। ऐसा अपार साहस और ऐसी सरलता और सहजता हिंदी कविता में कुँवर नारायण के बाद विरल है।
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(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
प्राध्यापक, हिंदी विभाग,
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय,
अलीगढ़-202 002 (उत्तर प्रदेश)
फोन-9634282886
बेहतरीन
जवाब देंहटाएं'और हम एक नया जन-उभार बन सकते हैं |' आपके लिखे हुए पर भरोसे की उम्मीद है | राजेन्द्र कुमार जी और आपको हार्दिक बधाई |
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