स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख ‘मैं अकेला पेड जब धरती पर गिरुंगा’।

 

विष्णुचंद्र शर्मा

 

 

विगत 2 नवम्बर 2020 को हिंदी के वरिष्ठ कवि और सम्पादक विष्णुचंद्र शर्मा का निधन हो गया। ऐसा लगता है जैसे यह दौर वरिष्ठ पीढी के विदा लेने का दौर है। इधर अक्सर ऐसा हो रहा है कि किसी रचनाकार के निधन के शोक से अभी हम उबर भी नहीं पाये होते हैं कि दूसरे किसी रचनाकार के न होने की खबर आ जाती है। विष्णुचंद्र शर्मा हिंदी के कुछेक ऐसे रचनाकारों में से थे जिन्होंने लेखन को ही अपना पूर्णकालिक व्यवसाय बनाया। वे आजीवन रचनाशील रहे। उन्होंने कवि और सर्वनाम जैसी ख्यातनाम पत्रिकाओं का सम्पादन कर भी एक प्रतिमान स्थापित किया। वरिष्ठ कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने अपने आलेख में इस पुरखे कवि को अत्यंत आत्मीयता से याद किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख मैं अकेला पेड जब जंगल में गिरुंगा          

 

 

मैं अकेला पेड़ जब जंगल में गिरूंगा

    

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

 

 

विष्णुचन्द्र शर्मा नागार्जुन, शमशेर और त्रिलोचन के गोत्र के कवि थे। त्रिलोचन  और नागार्जुन हमारे बीच से पहले ही विदा हो गये लेकिन विष्णुचंद्र शर्मा की उपस्थिति से यह आश्वस्ति थी कि अभी एक पेड की छाह बची हुई है लेकिन वे  अब हमारे बीच नहीं है। भले ही वे अपने अंतिम दिनों में सक्रिय न रहे हों, वे दीपशिखा की तरह हमारे बीच झिलमिलाते रहे। वे दिल्ली के अभिजात और शक्तिशाली जमात से अलग दिल्ली के हाशिये पर स्थित सादतपुर में रहते थे।  सादतपुर में नागार्जुन ने भी अपना मठ बनाया था। नागार्जुन की तरह वे भी घूमंतू जीव थे, यात्राएं उनकी खुराक थीं। नागार्जुन सादतपुर के साहित्य-नागरिको के संरक्षक थे, बाद में यह दायित्व विष्णुचन्द्र शर्मा ने निभाया। सुरेश सलिल, रामकुमार कृषक, महेश दर्पण, बीरेंद्र जैन सादतपुर के रहवासी हैं, उनके उपर से एक अभिभावक का साया उठ गया है। हमारी पुरानी पीढ़ी के लोग निरंतर हमारे बीच से रूखसत होते जा रहे हैं। यह सच है कि हम उन्हें बांध कर नहीं रख  सकते है, उम्र की अपनी सीमा है। एक समय के बाद मृत्यु हमें छीन कर ले जाती है। यही जीवन का अंतिम सत्य है।

 

 

विष्णुचंद्र शर्मा बनारस के प्रसिद्ध वैद्य परिवार से आते थे। उनके पिता कृष्ण चंद्र शर्मा स्वतंत्रता सेनानी थे, वे काशी विद्यापीठ के संस्थापक सदस्यों में से एक थे। लाल बहादुर शास्त्री और सम्पूर्णानंद से उनकी निकटता थी। उनकी बहन सत्यवती ने आजादी की लडाई में सक्रिय रूप से भाग लिया था। लेखिका के रूप में उनकी प्रसिद्धि थी। उनके नाना रामनाथ मिश्र ने नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना की  थी। इसी समृद्ध पृष्ठ्भूमि में 1 अप्रेल 1933 में उनका जन्म बनारस में हुआ था। उन्हें विरसे में जो जीवन मूल्य और चेतना मिली थी, उसकी अभिव्यक्ति उनकी रचनाओं में मिलती है। उन्होंने 1957 में कविनाम की पत्रिका का सम्पादन किया, जिसमें मुक्तिबोध और नामवर सिंह की कविताएं प्रकाशित की थीं, इस पत्रिका का ऐतिहासिक महत्व है। कवि हो या कल्पना या लहर या ज्ञानोदय हो, इन पत्रिकाओं की भूमिका से हम भलीभांति परिचित हैं। इन पत्रिकाओं ने हिंदी की समर्थ पीढ़ी को जन्म दिया। कवि के साथ वे सर्वनामपत्रिका का लम्बे समय तक प्रकाशन किया। यह अपने कलेवर में छोटी लेकिन महत्वपूर्ण पत्रिका थी। इन पत्रिकाओं से लघु-पत्रिका के आंदोलन की शुरूआत हुई।

 

 


 

   

विष्णुचंद्र शर्मा कवि-लेखक के रूप में हमसे परिचित ही थे लेकिन वे बांगला के कविसंगीतज्ञ नजरूल इस्लाम की जीवनी अग्निसेतुसे चर्चा में आये। नजरूल इस्लाम बांगला मई 1899 को बंगलादेश में पैदा हुए थे, 1922 में प्रकाशित उनकी किताब अग्नि बीणासे उन्हें विद्रोही कवि का खिताब दिया गया।  विष्णुचंद्र शर्मा ने उनके जीवन और साहित्य का गहन अध्ययन किया, उनसे  सम्बंधित स्थलों की यात्रा की थी। यह कृति उनके नामराशि विष्णु प्रभाकर लिखित शरतचंद की जीवनी – आवारा मसीहाकी याद दिलाती है हालांकि यह किताब अग्निसेतुसे बाद में आयी थी। उन्होंने नजरूल इस्लाम के अतिरिक्त राहुल और मुक्तिबोध की भी जीवनियां लिखीं। यह बेहद श्रमसाध्य काम था। जीवनी लिखने  के लिए उन्होंने जिन लेखकों का चुनाव किया, वे साहित्य और समाज को बदलने वाले लोग थे। राहुल ने भागो नहीं दुनिया को बदलो का सामाजिक दर्शन दिया था। मुक्तिबोध ने कविता के शास्त्र को बदल दिया था, अभिव्यक्ति के खतरे उठाये थे।

 

 

हिंदी में इस तरह के काम करने का रिवाज नहीं है, इसकी जगह सुविधाभोगी  और लाभप्रद लेखन की छटा है। यहां विष्णु जी जैसे स्वाभिमानी लेखक की जगह नहीं थी। इन्ही आदतों के कारण उन्हें हिंदी के शिष्टमंडल में जगह नहीं मिली। ठाकुर के कुओं के लिए वे अछूत बने रहे।

 


बनारस संस्कृति
साहित्य और संगीत की नगरी रही है, वहां के राग विख्यात हैं वहां अलग-अलग किस्म की गायन मंडलिया थीं, ये कई विधाओं में कार्यरत थीं। विष्णुचंद्र शर्मा का विकास इसी नगर में हुआ। यह वह समय था जब नामवर सिंह, त्रिलोचन, विद्यासागर नौटियाल, विश्वनाथ त्रिपाठी, केदार नाथ सिंह जैसे लोग थे जो बाद में हिंदी के नक्षत्र बने। विष्णुचंद्र शर्मा जीविका की खोज में 1960 में दिल्ली आ गये थे। कई असफल नौकरियों के बाद वे पूर्णकालिक लेखक बन गये। विष्णुचंद्र शर्मा के बाद बनारस का साहित्य मंडल दिल्ली का रहवासी हुआ वे साहित्य के बड़े ओहदेदार और संस्थाओं के मालिक  हुए। वे अनेक पुरस्कारसमितियो में शामिल थे लेकिन वे विष्णुचंद्र शर्मा के लिए अनुदार बने रहे। हिंदी में यह वर्गविभाजन नया नहीं है। यहां इनाम-इकराम के लिए सिंह द्वार पर मत्था टेकना पडता है। यह विष्णुचंद्र शर्मा की संस्कृति नहीं थी, उन्होंने इसका खामियाजा खुशीखुशी उठाया। हिंदी के साहित्य केन्द्रों से वे दूर रहे।

 

 

 

सम्मान या पुरस्कार से कोई लेखक महान नहीं होता, असली सम्पत्ति तो लेखन ही है। यह एक शिष्टाचार है कि लेखक को उसके लेखन कार्य के लिए  सम्मानित किया जाय। हिंदी में कुछ गिनेचुने पुरस्कार बाकी तो कुटीर-उद्योग की तरह काम कर रहे हैं, उनकी कोई विश्वसनीयता नहीं रह गयी है लेकिन उसे पाने और खरीदने की होड मची हुई है।

 

विष्णुचंद्र शर्मा ने अपनी शर्तों पर लेखन किया और अपने तरह का जीवन  जिया। सत्ता के विरोध में अपना स्वर मुखर करते रहे। उन्होंने आपातकाल में तत्कालनाम से कविता संग्रह निकाला, वे उन कविताओ का पाठ करना  चाहते थे लेकिन उनके अपने लोगों ने ही उन्हें अनुमति नहीं दी। उन्हें अपने ओहदों की चिंता थी। वे इस तरह से हाथ उठाते थे कि कांख भी ढ़की रहे। धूमिल ने इस वाक्य का बेहतर काव्यात्मक इस्तेमाल किया है। ऐसे लोगों के लिए ही दाग देहलवी ने खूब लिखा है-

 

खूब परदा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं

साफ छिपते भी नहीं सामने आते भी नहीं।

   

यह संक्रमण प्राय: हर बड़े शहरों में व्याप्त है। कोई अभिव्यक्ति के खतरे नहीं उठाना चाहता है बस उसकी जगह सिर्फ आख्यानों तक महदूद है। हिंदी में ढोंगो और ढोंगियों की कमी नहीं है। विष्णुचंद्र शर्मा ने जो कुछ किया वह बेबाकी के साथ किया।

 

 


 

  

हमारे जीवन की भाषा के साथ लेखन की भाषा कम प्रदूषित नहीं है। वे दिल्ली में बनारस की जिस भाषा के साथ गये, उसे बचाने की कोशिश की थी। वे लिखते हैं

 

कविता की

भाषा में कोई प्रदूषण नहीं

सुबह की हवा पेडों को बजा रही है

सभ्यता की मरी हुई

भाषा का जहर

फिर भी फैल रहा है

दिल में

दिमाग में ...।

  

समय के साथ बदलने का काम कई लेखकों ने किया है। निर्मल वर्मा जीवन के उत्तरार्ध में हिंदूवादी हो गये थे। नामवर सिंह प्रकारांतर से सत्ता से जुड गये थे। श्रीकांत वर्मा बाजाफ्ता कांगेस पार्टी के महासचिव थे उन्ही यंत्रणाओं में उन्होंने मगधसंग्रह की कविताएं लिखी। अपनी बढ़ती उम्र के साथ विष्णुचंद्र शर्मा ने अपना स्टैंड नहीं बदला, उनकी सक्रियता अंत तक बनी रही देखें  -

 

आजादी के ढुलके हुए दिन गिन रहे हैं पत्रकार

कोई जीवित इंसान संसद में नहीं

बस जंतरमंतर में लोग विरोध में खडे हैं

न देश है गांधी का

बस नेहरू बता रहे है- 

कमजोर जनतंत्र गिर जाता है एक दिन।

 


 

 

हिंदी के सुकवि केशव तिवारी की कविता - दिल्ली में एक दिल्ली यह भी- विष्णुचंद्र शर्मा और दिल्ली के किरदार से हमारा मुकम्मल परिचय कराती है। इस कविता को प्रस्तुत करने के लोभ का संवरण मुश्किल है-

 

कम्पनी के काम से छूटते ही

पहाड़्गंज के एक होटल से

दिल्ली के मित्रों को मिलाया फोन

यह जानते हुए भी कि दिल्ली से बोल रहा हूं

बदल गयी कुछ आवाजें

कुछ ने कह दिया कि दिल्ली से बाहर हैं

कुछ ने गिनाई दूरी...

एक फोन डरतेडरते मिला ही दिया विष्णुचंद्र शर्मा को भी

तुरंत पूछा कहां से रहे हो बोल

दिल्ली सुनते ही तो वह फट पड़े

बोले होटल में नहीं

हमारे घर में होना चाहिए तुम्हें ...

छ: रोटी और सब्जी रखे

ग्यारह बजे रात एक बूढ़ा

बिल्कुल देवदूत के ही चेहरे वाला

मिला मेरे इंतजार में

चार रोटी मेरे लिए

दो अपने लिए

अभीअभी पत्नी के बिछुडने के दुख से

उबर भी न पाया था।

  

 

विष्णुचंद्र शर्मा के प्रमुख कविता संग्रह – आकाश अविभाजित है’, ‘तत्काल अंतरंगतथा तुम्हारे हमारे सवालहैं। तीन बड़े लेखको की जीवनियां है। उन्होंने संस्मरण भी लिखे हैं। कबीर और गालिब पर उनका काम है। उन्होंने अपने समकालीनों पर लिखा लेकिन किसी ने उन पर नहीं लिखा। वे अलक्षित रह गये थे।

 


 

 

जनपद बनारस के प्रवास में उनसे कई मुलाकातें याद है, उनकी सहजता से मैं बहुत प्रभावित हुआ था  - उनके चेहरे पर दिल्ली नहीं बनारसी पुरबिये की आभा थी। वे अपने खांटीपन को दिल्ली तक ले गये थे। उनकी कविता की किताब पर मैंने आलोचना में समीक्षा लिखी थी। यह उनका प्रेम ही था कि अभी चार-पांच साल पहले उन्होंने मुझे कविपत्रिका में प्रकाशित किया था। पहलमें प्रकाशित उनकी कविता पढ़ कर लम्बी बातचीत का मन था लेकिन उनकी आवाज थकी हुई थी। सचमुच जाना एक खौफनाक क्रिया है लेकिन जाने से अब तक कोई नहीं बच पाया है। अमर होने के लिए भी मरना पड़ता है। अंत में लेख के शीर्षक कविता के कुछ अंश प्रस्तुत करते हुए उन्हें श्रद्धांजलि ..।

 

मैं अकेला पेड

जब जंगल में गिरूंगा

धूप मुझे अपनी खुली छाती में

सुलायेगी

पर्वत सुबह देखेगा

अनमने जंगल को

पेड की हरी चादर मुझ पर गिरायेगी हवा .... बढई को

किसान को

औरतों को

कहानी सुनायेगी

गिरे हुये पेड़ की ..।

.......................................................

 

 

सम्पर्क

 

स्वप्निल श्रीवास्तव

510 अवधपुरी  कालोनी अमानीगंज

फैज़ाबाद 224001

 

मोबाइल 09415332326

 

टिप्पणियाँ

  1. लाजवाब कविता अंश । आभार विष्णु जी से परिचय कराने के लिये।

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  2. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    रूप-चतुर्दशी और धन्वन्तरि जयन्ती की हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  3. उनके नाना का नाम रामनारायण मिश्र था। वे ना.प्र.सभा के सभापति भी रहे।

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  4. उनके नाना का नाम रामनारायण मिश्र था। वे ना.प्र.सभा के सभापति भी रहे।

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  5. बहुत बढ़िया आलेख। विष्णु जी से इतने विस्तार से परिचय कराने हेतु स्वप्निल जी का आभार

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  6. बड़ी आत्मीयता से स्वप्निल जी ने उनके होने का अर्थ बताया।

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