राकेश मिश्र की कविताएँ

राकेश मिश्र

 

यह दुनिया आज जो है, उसमें सपनों की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। 'सपना' कुदरत द्वारा इंसान को उपलब्ध करायी गयी निहायत खूबसूरत नियामत है। इस सपने को अपने हुनर के दम पर इंसान साकार करता है। रचनाकारों के लिए तो यह सपना एक अनिवार्यता की तरह है। तमाम दिक्कतों, तमाम अवरोधों के बावजूद रचनाकार हमेशा एक बेहतर दुनिया का सपना देखते हैं। वे इस सपने को अपनी रचनाओं में रेखांकित करते हैं। कवि राकेश मिश्र के पास भी इस दुनिया को बेहतर बनाने के तमाम सपने हैं। उनके ये सपने उस धूल से जुड़े हैं जिसमें हम पलते बढ़ते हैं। अपनी कविता में लिखते हैं 'नंगे पाँवों की/ धूल ही थी दोस्त/ घर तक आती/ स्कूल तक जाती'। राकेश जी प्रशासनिक अधिकारी होने के बावजूद कविता से जुड़े हैं। कविता से जुड़ना उस संवेदनशीलता से जुड़ना है, जो हर इंसान को एक इंसान की तरह देखने की दृष्टि देती है। राधाकृष्ण प्रकाशन से आए उनके तीन कविता संग्रहों 'चलते रहे रात भर', 'ज़िंदगी एक कण है' और 'अटक गई नींद' ने हिन्दी कविता में एक सार्थक हस्तक्षेप करते हुए उनके कवि को पुख्ता किया है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है राकेश मिश्र की कविताएँ।

 

 

राकेश मिश्र की कविताएँ 

 

 

शब्दों का देश

 

शब्दों का देश

परियों का देश नहीं

यहाँ मिल जायेंगे

देवदूतों के वेश में

सौदागर

शब्दों का देश

प्रजा का देश नहीं

यहाँ मिल जायेंगे

शब्दों से सत्ता साधते

तानाशाह

शब्दों का देश

शुचिताओं का देश नहीं

यहाँ मिल जायेंगे

तंगदिल अनुदार

साथी

शब्दों का देश

नीर-क्षीर विवेक का देश नहीं

यहाँ मिल जायेंगे

कुंठित-कुंद-विवेक

मंचस्थ

शब्दों का देश

सूरज का देश नहीं

यहाँ मिल जायेंगे

अपने अंधेरों में सुखी

मतिभ्रम।

 

 

उन्हीं के पास

 

उन्हीं के पास है

मेरी ठोकरों का हिसाब

जो सोचते हैं

मैं गिरुँगा एक दिन

वही रखते हैं

मेरे नीदों की लाग-बुक

जो डरते हैं

मेरे सपनों से

मेरी चुप्पियों को

मेरा गूंगापन समझने वाले

अनजान हैं,

मेरे आसपास की

मुखरता से!


 

तुम्हारा जाना

 

तुम्हारा

चले जाना

अचानक ही

निः संकेत

वही खुशबू के गलियारे थे

हवा की परतों में

थोड़ी देर तक

धूल वैसी ही रही

निःशब्द श्वेताकार

थोड़ी देर तक

मैं लौटना चाहता था

पर नहीं खुले

स्मृति-रन्ध्र

मैं खड़ा ही रहा!

 


 

 

तेरा-मेरा

 

तेरा मेरा

रूप अलग है

सुख एक है

तेरा मेरा

कारण अलग है

दुःख एक है

तेरे मेरे

शहर अलग हैं

इन्तजार एक है

तेरी मेरी

आँखे अलग हैं

दृश्य एक है

तेरा मेरा

चेहरा अलग है

भाव एक है

तेरी मेरी

कारा अलग है

अपराध एक है

 

 

कविता किताबें

 

रखो

कुछ कविता-किताबें

घर में

हर रोज आयेंगे

तुमसे मिलने

कुछ शब्द, कुछ सपने

कुछ रंग, कुछ रास्ते

कुछ बादल, कुछ पंक्षी

हर रोज आयेंगे!

 


 

भागते हुए

 

बचपन में स्कूल के

ख़ाली घंटे में खेलते हुए

एक दरवाज़े से  हो कर भागा

तो दूसरे दरवाज़े से आ कर

तुमने मेरा हाथ पकड लिया

और पूछा

क्यूँ भाग रहा हूँ!

कोई उत्तर नहीं था

मेरे पास

तुम्हें अपलक देखने के सिवाय

फिर अक्सर

अपने हाथ को पकड़ कर

वैसे ही

तुम्हें याद किया मैंने

बाद के सालों में

तुम्हारे कॉलेज की चारदीवारी से लग कर

गुज़रती सड़क  पर

तुम्हारी यादों ने

पकड़ा मेरा हाथ

हर बार

ठीक वैसे ही

फिर अलग शहर

और अलग कक्षाओं में

अक़्सर दरवाज़ों से गुज़रते हुए

मैं अपने हाथ को ठीक वैसे पकड़ता

और महसूस करता तुम्हें

दौड़ कर आते हुए

सामने के दरवाजे से

एक दिन छोड़ कर

वह शहर

दूर शहर गया

वहाँ जिन घरों में रहा

उनमें एक ही दरवाज़ा था

जहां ना मै दौड़ सकता था

ना  ही तुम आ सकती थीं

दूसरे दरवाज़े से

अब स्मृतियों से भागना है मुझे

जिनमें कई दरवाज़े हैं

और कितनी आसानी से

तुम पकड़ लेती हो

मेरा हाथ

और पूछती हो

क्यूँ भाग रहा हूँ!

 

 

नौसिखिए

 

बहुत ख़तरनाक होते हैं

नौसिखिए शिकारी

बहुत सोच समझ कर

फैलाते है जाल

पर चूक जाते हैं कहीं

फिर देखे जाते हैं

उड़ने की कोशिश में

बार बार गिरते

रक्त-स्नात-पंख पखेरू

धर लिए जाते हैं

कुत्तों बिल्लों द्वारा

नोचे फाड़े जाते हैं

जीवित ही

जंगल में देखे जाते हैं

घायल लंगड़ाते हिरन

जिनकी देह से निसृत

रक्त-गन्ध

जंगल की शुद्ध हवा में

सरलता से पहुँचती है

भेड़ियों के पास

फिर नुचते हैं

चारों दिशाओं से

अस्पतालों में भर्ती होती हैं

दर्द को छुपाती सम्भालती

असहाय लड़कियाँ

तिल-तिल मरती हैं

दिन रात सुनाई जाती है

उनकी अस्मत-कथा

पूरी दुनिया को

दर्द का सार्वभौम विस्तार

झलकता है

दुनिया भर की लड़कियों की

अश्रु बूँदों में

शिकारियों के पंजे से

छूटी लड़की

देह में पिंजरे में फँसी रहती है

मरने से पहले

लोग जान लेना चाहते

उसके बचने की कहानी

किसी का मरना रोक नहीं सकते

जंगलगाँवअस्पताल

बस शिकार की किताबों में

जुड़ जाते नए पृष्ठ

एक अधूरी शिकार कथा बन कर

रह जाते हैं

पक्षी, हिरन और अस्पताल में

भर्ती हुई लड़कियाँ।

 


 

 

सपने

 

एक सायकिल के सपने के साथ

बड़ा हुआ मैं

जिसमें नरम सीट

और लाइट लगी हो

सर्दियों की कुहासा भरी

सुबहों में

ओस और धूल से पटे रास्तों पर

बोझिल पहियों से चिपकी

धूल और तिनकों को

गन्ने के गुल्ले से हटाने के

सपनों के साथ सोया मैं

हर रात

जिससे हर सुबह

स्कूल पहुँच सकूँ समय से

और लौटते समय

गन्ने के खेतों के मध्य से गुजरती

साँपों के रहवास वाली

हरियाली से  लगभग ढकी सी

नहर की एकल पटरियों पर

डरूँ नहीं

अंधेरे से पूर्व पहुँच कर घर

खा सकूँ शाम का कलेवा

और कम दुखे नंगे पाँव

कई बार निकल जाता कोई

सायकिल सवार बग़ल से

घंटी बजाता हुआ

ट्रिंग ट्रिंग

मुझे छोड़ता हुआ

सुनसान रास्तों पर

नंगे पावों की

धूल ही  थी दोस्त

घर तक आती

स्कूल तक जाती

जारी रहा मेरा जगना

दिन उगने से पहले

दिन डूबने के बाद

पहुँचना घर

बड़ा हो गया मैं

आधा दर्ज़न वाहनों से

चल कर भी

वातानुकूलित शयन कक्षों के

नरम विस्तर पर रातों में

उठता है पाँवों का दर्द

कभी कभी

मैं चलता रहता हूँ

नंगे पाँव

गाँव से स्कूल जाती पगडंडियों पर

धूल से खेलता हुआ

सपनों में आज भी

कोई सायकिल सवार

गुजर जाता है

घंटी बजाता हुआ बग़ल से

ट्रिंग ट्रिंग

मुझे छोड़ता हुआ अकेला

सुनसान रास्तों पर।

 

 

यादें

 

यादें

सुनहली डिब्बियों में बंद

सुगन्ध होती हैं

कभी भी महक सकती हैं

जरा सी असावधानी से।

 

 

तुम हँसी थीं

 

तुम हँसी थीं

तभी हुई थी सुबह

पुष्पदलों से टपक उठी थी 

ओस बूँदें

तुम हंसी थीं

तभी झरने लगा था 

हर सिंगार

मेरी नेह की चादर में

तुम हंसी थीं

तभी सार्थक हो उठा था

मेरा स्पंदन

तुम हंसीं थीं।

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

 

सम्पर्क

 

राकेश मिश्र

538 क/ 90 विष्‍णु लोक कालोनी

मौसम बागत्रिवेणी नगर 2 

सीतापुर रोडलखनऊ0प्र0,

226020

 

फोन 9205559229


टिप्पणियाँ

  1. सभी कविताओं में गहन भावानुभूति है, पीड़ा है जो अन्ततः करुनटा में ढलकर रस बनती है।

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  2. बहुत बढ़िया कविताये। सरल और सार्थक

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  3. बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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  4. अच्छी कविताएँ। राकेश जी को बधाई

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  5. संवेदनात्मक कविताओं का गुलदस्ता .....बधाई प्रकाशक और कवि को ,सादर

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