दीपावली पर केंद्रित कविताएँ
दीपावली रोशनी का पर्व है। रोशनी जो अँधेरे में भी हमारी दृष्टि को देख पाने में सक्षम बनाती है। रोशनी जो हमारी सोच को एक नई दिशा देती है। मिथक यह है कि चौदह वर्ष का वनवास बिता कर आए राम का स्वागत अयोध्या के लोगों ने जोशो खरोश के साथ जिस दिन किया था, वह दीपावली का ही दिन है। समृद्ध लोगों के घर तो सालों साल जगमगाते हैं लेकिन वर्ष का यही एक दिन है जब एक आम आदमी भी कोशिश करता है कि उसका घर रोशनी से दीप्त हो। दीपावली के दिन लोग पटाखे बजाते हैं। इन पटाखों से पर्यावरण जिस तरह दूषित होता है, वह अत्यंत चिंताजनक है। यह पक्ष दीपावली के पर्व का विकृत रूप प्रदर्शित करता है। बहरहाल इस दीपावली को ले कर कवियों ने कई उम्दा कविताएँ लिखी हैं। दीपावली की बधाई और शुभकामनाएं देते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं दीपावली पर केन्द्रित कुछ कविताएँ।
नज़ीर बनारसी |
ये दीवाली है
नज़ीर बनारसी
मिरी साँसों को गीत और आत्मा को साज़ देती है
ये दीवाली है सब को जीने का अंदाज़ देती है
हृदय के द्वार पर रह रह के देता है कोई दस्तक
बराबर ज़िंदगी आवाज़ पर आवाज़ देती है
सिमटता है अंधेरा पाँव फैलाती है दीवाली
हँसाए जाती है रजनी हँसे जाती है दीवाली
क़तारें देखता हूँ चलते-फिरते माह-पारों की
घटाएँ आँचलों की और बरखा है सितारों की
वो काले काले गेसू सुर्ख़ होंट और फूल से आरिज़
नगर में हर तरफ़ परियाँ टहलती हैं बहारों की
निगाहों का मुक़द्दर आ के चमकाती है दीवाली
पहन कर दीप-माला नाज़ फ़रमाती है दीवाली
उजाले का ज़माना है उजाले की जवानी है
ये हँसती जगमगाती रात सब रातों की रानी है
वही दुनिया है लेकिन हुस्न देखो आज दुनिया का
है जब तक रात बाक़ी कह नहीं सकते कि फ़ानी है
वो जीवन आज की रात आ के बरसाती है दीवाली
पसीना मौत के माथे पे छलकाती है दीवाली
सभी के दीप सुंदर हैं हमारे क्या तुम्हारे क्या
उजाला हर तरफ़ है इस किनारे उस किनारे क्या
गगन की जगमगाहट पड़ गई है आज मद्धम क्यूँ
मुंडेरों और छज्जों पर उतर आए हैं तारे क्या
हज़ारों साल गुज़रे फिर भी जब आती है दीवाली
महल हो चाहे कुटिया सब पे छा जाती है दीवाली
इसी दिन द्रौपदी ने कृष्ण को भाई बनाया था
वचन के देने वाले ने वचन अपना निभाया था
जनम दिन लक्ष्मी का है भला इस दिन का क्या कहना
यही वो दिन है जिस ने राम को राजा बनाया था
कई इतिहास को एक साथ दोहराती है दीवाली
मोहब्बत पर विजय के फूल बरसाती है दीवाली
गले में हार फूलों का चरण में दीप-मालाएँ
मुकुट सर पर है मुख पर ज़िंदगी की रूप-रेखाएँ
लिए हैं कर में मंगल-घट न क्यूँ घट घट पे छा जाएँ
अगर परतव पड़े मुर्दा-दिलों पर वो भी जी जाएँ
अजब अंदाज़ से रह रह के मस़्काती है दीवाली
मोहब्बत की लहर नस नस में दौड़ाती है दीवाली
तुम्हारा हूँ तुम अपनी बात मुझ से क्यूँ छुपाते हो
मुझे मालूम है जिस के लिए चक्कर लगाते हो
बनारस के हो तुम को चाहिए त्यौहार घर करना
बुतों को छोड़ कर तुम क्यूँ इलाहाबाद जाते हो
न जाओ ऐसे में बाहर 'नज़ीर' आती है दीवाली
ये काशी है यहीं तो रंग दिखलाती है दीवाली
स्रोत :
पुस्तक : Kulliyat-e-Nazeer Banarasi (पृष्ठ 386) रचनाकार : Nazeer Banarsi प्रकाशन : Educational Publishing House (2014) संस्करण : 2014
नज़ीर अकबराबादी |
हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं
नज़ीर अकबराबादी
हमें अदाएँ दिवाली की ज़ोर भाती हैं।
कि लाखों झमकें हर एक घर में जगमगाती हैं।।
चिराग जलते हैं और लौएँ झिलमिलाती हैं।
मकां-मकां में बहारें ही झमझमाती हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।1।।
गुलाबी बर्फ़ियों के मुँह चमकते-फिरते हैं।
जलेबियों के भी पहिए ढुलकते-फिरते हैं।।
हर एक दाँत से पेड़े अटकते-फिरते हैं।
इमरती उछले हैं लड्डू ढुलकते-फिरते हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।2।।
मिठाइयों के भरे थाल सब इकट्ठे हैं।
तो उन पै क्या ही ख़रीदारों के झपट्टे हैं।।
नबात[1], सेव, शकरकन्द, मिश्री गट्टे हैं।
तिलंगी नंगी है गट्टों के चट्टे-बट्टे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।3।।
जो बालूशाही भी तकिया लगाए बैठे हैं।
तो लौंज खजले यही मसनद लगाते बैठे हैं।।
इलायची दाने भी मोती लगाए बैठे हैं।
तिल अपनी रेबड़ी में ही समाए बैठे हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।4।।
उठाते थाल में गर्दन हैं बैठे मोहन भोग।
यह लेने वाले को देते हैं दम में सौ-सौ भोग।।
मगध का मूंग के लड्डू से बन रहा संजोग।
दुकां-दुकां पे तमाशे यह देखते हैं लोग।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।5।।
दुकां सब में जो कमतर है और लंडूरी है।
तो आज उसमें भी पकती कचौरी-पूरी है।।
कोई जली कोई साबित कोई अधूरी है।
कचौरी कच्ची है पूरी की बात पूरी है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।6।।
कोई खिलौनों की सूरत को देख हँसता है।
कोई बताशों और चिड़ों के ढेर कसता है।।
बेचने वाले पुकारे हैं लो जी सस्ता है।
तमाम खीलों बताशों का मीना बरसता है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।7।।
और चिरागों की दुहरी बँध रही कतारें हैं।
और हरसू कुमकुमे कन्दीले रंग मारे हैं।।
हुजूम, भीड़ झमक, शोरोगुल पुकारे हैं।
अजब मज़ा है, अजब सैर है अजब बहारें हैं।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।8।।
अटारी, छज्जे दरो बाम पर बहाली है।
दिबाल एक नहीं लीपने से खाली है।।
जिधर को देखो उधर रोशनी उजाली है।
गरज़ में क्या कहूँ ईंट-ईंट पर दिवाली है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।9।।
जो गुलाबरू हैं सो हैं उनके हाथ में छड़ियाँ।
निगाहें आशिकों की हार हो गले पड़ियाँ।।
झमक-झमक की दिखावट से अँखड़ियाँ लड़ियाँ।
इधर चिराग उधर छूटती हैं फुलझड़ियाँ।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।10।।
क़लम कुम्हार की क्या-क्या हुनर जताती है।
कि हर तरह के खिलौने नए दिखाती है।।
चूहा अटेरे है चर्खा चूही चलाती है।
गिलहरी तो नव रुई पोइयाँ बनाती हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।11।।
कबूतरों को देखो तो गुट गुटाते हैं।
टटीरी बोले है और हँस मोती खाते हैं।।
हिरन उछले हैं, चीते लपक दिखाते हैं।
भड़कते हाथी हैं और घोड़े हिनहिनाते हैं।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।2।।
किसी के कान्धे ऊपर गुजरियों का जोड़ा है।
किसी के हाथ में हाथी बग़ल में घोड़ा है।।
किसी ने शेर की गर्दन को धर मरोड़ा है।
अजब दिवाली ने यारो यह लटका जोड़ा है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।13।।
धरे हैं तोते अजब रंग के दुकान-दुकान।
गोया दरख़्त से ही उड़ कर हैं बैठे आन।।
मुसलमां कहते हैं ‘‘हक़ अल्लाह’’ बोलो मिट्ठू जान।
हनूद कहते हैं पढ़ें जी श्री भगवान।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।14।।
कहीं तो कौड़ियों पैसों की खनख़नाहट है।
कहीं हनुमान पवन वीर की मनावट है।।
कहीं कढ़ाइयों में घी की छनछनाहट है।
अजब मज़े की चखावट है और खिलावट है।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।15।।
‘नज़ीर’ इतनी जो अब सैर है अहा हा हा।
फ़क़त दिवाली की सब सैर है अहा हा! हा।।
निशात ऐशो तरब सैर है अहा हा हा।
जिधर को देखो अज़ब सैर है अहा हा हा।।
खिलौने नाचें हैं तस्वीरें गत बजाती हैं।
बताशे हँसते हैं और खीलें खिलखिलाती हैं।।16।।
साभार - कविता कोश
जगमग-जगमग
सोहनलाल द्विवेदी
हर घर, हर दर, बाहर, भीतर,
नीचे ऊपर, हर जगह सुघर,
कैसी उजियाली है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
छज्जों में, छत में, आले में,
तुलसी के नन्हें थाले में,
यह कौन रहा है दृग को ठग?
जगमग जगमग जगमग जगमग!
पर्वत में, नदियों, नहरों में,
प्यारी प्यारी सी लहरों में,
तैरते दीप कैसे भग-भग!
जगमग जगमग जगमग जगमग!
राजा के घर, कंगले के घर,
हैं वही दीप सुंदर सुंदर!
दीवाली की श्री है पग-पग,
जगमग जगमग जगमग जगमग!
हरिवंशराय बच्चन |
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ
हरिवंशराय बच्चन
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ ।
है कहां वह आग जो मुझको जलाए,
है कहां वह ज्वाल पास मेरे आए,
रागिनी, तुम आज दीपक राग गाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
तुम नई आभा नहीं मुझमें भरोगी,
नव विभा में स्नान तुम भी तो करोगी,
आज तुम मुझको जगा कर जगमगाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
मैं तपोमय ज्योति की, पर, प्यास मुझको,
है प्रणय की शक्ति पर विश्वास मुझको,
स्नेह की दो बूंदे भी तो तुम गिराओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
कल तिमिर को भेद मैं आगे बढूंगा,
कल प्रलय की आंधियों से मैं लडूंगा,
किन्तु आज मुझको आंचल से बचाओ;
आज फिर से तुम बुझा दीपक जलाओ।
माखनलाल चतुर्वेदी |
दीप से दीप जले
माखनलाल चतुर्वेदी
सुलग-सुलग री जोत दीप से दीप मिलें
कर-कंकण बज उठे, भूमि पर प्राण फलें।
लक्ष्मी खेतों फली अटल वीराने में
लक्ष्मी बँट-बँट बढ़ती आने-जाने में
लक्ष्मी का आगमन अँधेरी रातों में
लक्ष्मी श्रम के साथ घात-प्रतिघातों में
लक्ष्मी सर्जन हुआ
कमल के फूलों में
लक्ष्मी-पूजन सजे नवीन दुकूलों में।।
गिरि, वन, नद-सागर, भू-नर्तन तेरा नित्य विहार
सतत मानवी की अँगुलियों तेरा हो श्रृंगार
मानव की गति, मानव की धृति, मानव की कृति ढाल
सदा स्वेद-कण के मोती से चमके मेरा भाल
शकट चले जलयान चले
गतिमान गगन के गान
तू मिहनत से झर-झर पड़ती, गढ़ती नित्य विहान।
उषा महावर तुझे लगाती, संध्या शोभा वारे
रानी रजनी पल-पल दीपक से आरती उतारे,
सिर बो कर, सिर ऊँचा कर-कर, सिर हथेलियों ले कर
गान और बलिदान किए मानव-अर्चना सँजो कर
भवन-भवन तेरा मंदिर है
स्वर है श्रम की वाणी
राज रही है कालरात्रि को उज्ज्वल कर कल्याणी।
वह नवांत आ गए खेत से सूख गया है पानी
खेतों की बरसन कि गगन की बरसन किए पुरानी
सजा रहे हैं फुलझड़ियों से जादू कर के खेल
आज हुआ श्रम-सीकर के घर हम से उनसे मेल।
तू ही जगत की जय है,
तू है बुद्धिमयी वरदात्री
तू धात्री, तू भू-नव गात्री, सूझ-बूझ निर्मात्री।
युग के दीप नए मानव, मानवी ढलें
सुलग-सुलग री जोत! दीप से दीप जलें।
महादेवी वर्मा |
बुझे दीपक जला लूँ
महादेवी वर्मा
घिर रहा तम आज दीपक-रागिनी अपनी जगा लूँ!
क्षितिज-कारा तोड़ कर अब
गा उठी उन्मत आँधी,
अब घटाओं में न रुकती
लास-तन्मय तड़ित् बाँधी,
धूलि की इस वीण पर मैं तार हर तृण का मिला लूँ!
भीत तारक मूँदते दृग
भ्रान्त मारुत पथ न पाता
छोड़ उल्का अंक नभ में
ध्वंस आता हरहराता,
उँगलियों की ओट में सुकुमार सब सपने बचा लूँ!
लय बनी मृदु वर्त्तिका
हर स्वर जला बन लौ सजीली,
फैलती आलोक-सी
झंकार मेरी स्नेह गीली,
इस मरण के पर्व को मैं आज दीपावली बना लूँ!
देख कर कोमल व्यथा को
आँसुओं के सजल रथ में,
मोम-सी साधें बिछा दी
थीं इसी अंगार-पथ में
स्वर्ण हैं वे मत हो अब क्षार में उन को सुला लूँ!
अब तरी पतवार ला कर
तुम दिखा मत पार देना,
आज गर्जन में मुझे बस
एक बार पुकार लेना !
ज्वार को तरणी बना मैं; इस प्रलय का पार पा लूँ!
आज दीपक राग गा लूँ !
रामेश्वर शुक्ल अंचल |
मत बुझना
रामेश्वर शुक्ल अंचल
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन
चाँद चाँदनी की मुरझाई
छिपा चाँद यौवन का तुममें
आयु रागिनी भी अकुलाती
रह रहकर बिछुड़न के भ्रम में
जलते रहे स्नेह के क्षण ये
जीवन सम्मुख है ध्रुवतारा
तुम बुझने का नाम लेना
जब तक जीवन में अँधियारा
अपने को पी कर जीना है
हो कितना भी सूनापन
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन
तुमने विरहाकुल संध्या की
भर दी माँग अरुणिमा दे कर
तम के घिरे बादलों को भी
राह दिखाई तुमने जल कर
तुम जाग्रत सपनों के साथी
स्तब्ध निशा को सोने देना
धन्य हो रहा है मेरा विश्वास
तुम्ही से पूजित हो कर
जलती बाती मुक्त कहाती
दाह बना कब किसको बंधन
रात अभी आधी बाकी है
मत बुझना मेरे दीपक मन
दीपदान
केदारनाथ सिंह
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
उस उड़ते आँचल से गुड़हल की डाल
बार-बार उलझ जाती हैं,
एक दिया वहाँ भी जलाना;
जाना, फिर जाना,
एक दिया वहाँ जहाँ नई-नई दूबों ने कल्ले फोड़े हैं,
एक दिया वहाँ जहाँ उस नन्हें गेंदे ने
अभी-अभी पहली ही पंखड़ी बस खोली है,
एक दिया उस लौकी के नीचे
जिसकी हर लतर तुम्हें छूने को आकुल है
एक दिया वहाँ जहाँ गगरी रक्खी है,
एक दिया वहाँ जहाँ बर्तन मँजने से
गड्ढा-सा दिखता है,
एक दिया वहाँ जहाँ अभी-अभी धुले
नये चावल का गंध भरा पानी फैला है,
एक दिया उस घर में -
जहाँ नई फसलों की गंध छटपटाती हैं,
एक दिया उस जंगले पर जिससे
दूर नदी की नाव अक्सर दिख जाती है
एक दिया वहाँ जहाँ झबरा बँधता है,
एक दिया वहाँ जहाँ पियरी दुहती है,
एक दिया वहाँ जहाँ अपना प्यारा झबरा
दिन-दिन भर सोता है,
एक दिया उस पगडंडी पर
जो अनजाने कुहरों के पार डूब जाती है,
एक दिया उस चौराहे पर
जो मन की सारी राहें
विवश छीन लेता है,
एक दिया इस चौखट,
एक दिया उस ताखे,
एक दिया उस बरगद के तले जलाना,
जाना, फिर जाना,
उस तट पर भी जा कर दिया जला आना,
पर पहले अपना यह आँगन कुछ कहता है,
जाना, फिर जाना!
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
गोपाल दास नीरज
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
नई ज्योति के धर नए पंख झिलमिल,
उड़े मर्त्य मिट्टी गगन स्वर्ग छू ले,
लगे रोशनी की झड़ी झूम ऐसी,
निशा की गली में तिमिर राह भूले,
खुले मुक्ति का वह किरण द्वार जगमग,
ऊषा जा न पाए, निशा आ ना पाए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
सृजन है अधूरा अगर विश्व भर में,
कहीं भी किसी द्वार पर है उदासी,
मनुजता नहीं पूर्ण तब तक बनेगी,
कि जब तक लहू के लिए भूमि प्यासी,
चलेगा सदा नाश का खेल यूँ ही,
भले ही दिवाली यहाँ रोज आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
मगर दीप की दीप्ति से सिर्फ जग में,
नहीं मिट सका है धरा का अँधेरा,
उतर क्यों न आयें नखत सब नयन के,
नहीं कर सकेंगे ह्रदय में उजेरा,
कटेंगे तभी यह अँधरे घिरे अब,
स्वयं धर मनुज दीप का रूप आए
जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना
अँधेरा धरा पर कहीं रह न जाए।
ये कविताएँ हमारी धरोहर हैं जिन्हें हम बचपन से सुनते पढ़ते और समृद्ध होते आए हैं । फ़ॉर से इन्हें पढ़वाने का शुक्रिया ।
जवाब देंहटाएंलाजवाब संकलन।
जवाब देंहटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसभी अद्भुत कविताएं। सहेजकर रखने लायक। इन्हें पढ़वाने के लिए आपको धन्यवाद।
जवाब देंहटाएं