विजय प्रताप सिंह की कविताएँ एवम बलभद्र की टिप्पणी

विजय प्रताप सिंह


अरसा पहले हमने 'वाचन-पुनर्वासन' नाम से एक श्रृंखला का आरंभ किया था इस श्रृंखला में एक कवि की कविताओं पर दूसरा कवि अपनी टिप्पणी लिखता था। बीच में कुछ व्यवधान की वजह से हम इस श्रृंखला को निरंतर जारी नहीं रख पाए अब एक बार फिर से हम वाचन पुनर्वासन श्रृंखला की शुरुआत कर रहे हैं। हाल ही में विजय प्रताप को 'बेकल उत्साही सम्मान' प्रदान किया गया है। विजय की बधाई देते हुए 'वाचन-पुनर्वाचन' श्रृंखला में आज विजय प्रताप सिंह की कविताओं पर प्रस्तुत है बलभद्र की टिप्पणी।



विजय प्रताप सिंह की कविताएँ एवम बलभद्र की टिप्पणी



कामगार


दरबार -ए-ख़ास में 

कभी शामिल नहीं रहे तुम


चर्चा नहीं रही कभी 

तुम्हारी

दरबार - ए आम में भी


ख़तरे का वक़्त है ये 

मुल्क पर अभी


अभी डर है

आदमी को आदमी से

अभी डर है 

हवाओं से भी


तुम अपने डर 

अपने दुख अपने पास रखो

फ़िलहाल


तुम अपने बच्चे

अपना सामान अपना आंसू

अपने पास रखो


ज़रुरत के नियम के 

मुताबिक़

अभी कोई ज़रुरत नहीं तुम्हारी


प्रशासन अभी मुस्तैद है

आसन्न ख़तरे के समक्ष

अपनी पूरी संवेदना के साथ


उसकी संवेदना में 

खलल ना डालो


जा सकते हो तुम

तुम जाओ

तुम चले जाओ दूर

कि दरबार - ए ख़ास और आम तक

ना पहुंच सके तुम्हारी आवाज़


जब कहीं कभी 

पुनः निर्मिति की 

कोई बात होगी

पुकारा जाएगा तुम्हें


             

क़ीमत




"मिल जाए तो मिट्टी है

खो जाए तो सोना है"

की तर्ज़ पर

हम क़ीमत नहीं जानते

दो आंखो की

दो पैरों की

दो बाहों की


हम देख नहीं पाते

गहराई तक

नाप नहीं पाते दूर तक

कोई दूरी

भेंट नहीं पाते उन्हें

भेंटना चाहिए जिन्हें


इन नेमतों से 

महरूम हैं जो


वे देख पाते हैं 

कहीं अंदर तक

वे चल पाते हैं

दूर तक

वे भेंट लेते हैं अपने

और परायों को


दरअसल वे

इनके होने की 

क़ीमत जानते हैं


        

युद्ध के बाद


स्थापित हो चली है शांति

काफ़ी हद तक


हज़ारों सैनिक उतारे जा चुके हैं

मौत के घाट


नतमस्तक है दुश्मन


विरल हो चला है धीरे धीरे 

हवा में

बारूद का धुंआ


सीमा पर

 एक अध्याय का अंत कर

 (या आरंभ कर)

तोपें, टैंक और विमान

लौट रहे हैं


उनका रुख़ अब

दुश्मन की ओर नहीं

देश की ओर है.


              

सुरक्षित नहीं है दुनिया



मेरी बेटी

सुबह स्कूल जा कर

घर वापस आ जाती है 

सुरक्षित


मेरी पत्नी

आराम से टहलते हुए 

निकल जाती है दूर तक

और लौट आती है घर


मैं निकलता हूं 

सुबह सुबह काम पर

और आ जाता हूं

शाम तक सुरक्षित


रोज़ होता है ऐसे ही


पर रोज़ ही 

टी वी चैनलों पर देखता हूं

और समाचार पत्रों में पढ़ता हूं

कि स्कूल गई एक बच्ची

लापता है कई दिनों से

घर से निकली कोई महिला

पुनः लौट नहीं पाई घर

काम पर गया कोई व्यक्ति

हो गया किसी दुर्घटना का शिकार


इस वक़्त

जब हम 

अपने ही खोल में सिमटे

सुरक्षित महसूस कर रहे हैं ख़ुद को


ठीक इसी वक़्त

हत्या हो रही है किसी की

बलात्कार हो रहा है किसी बच्ची का

भीख मांग रहा है कोई बच्चा

लूटा जा रहा है कोई

मारा जा रहा है किसी को


इसी वक़्त

दबाई जा रही हैं

अनेक आवाज़ें

रचे जा रहे हैं

अनेक षडयंत्र


सिर्फ आज 

हमारे सुरक्षित होने से 

सुरक्षित नहीं होती है दुनिया.


       

                    

आत्महत्या



आत्महत्या करने वाला मनुष्य

जाने कितनी बार

मृत्यु के दंश से गुजरने के बाद

लेता है आत्महत्या का निर्णय


वस्तुतः

आत्महत्या और हत्या के बीच

एक बारीक सी रेखा ही होती है


आत्महत्या के किसी भी निर्णय में

शामिल होता है अनेक लोगों का निर्णय

अनेक लोगों का छल

अनेक लोगों का स्वार्थ


आत्महत्या करने वाला मनुष्य 

सब कुछ पा लेने के बाद 

अचानक विरत पाता है खु़द को

सफल होने के बाद

जैसे अनेक असफलताएं

घेर लेती हैं उसे


सबको ख़ुश करने के

 उसके सारे प्रयास

विफल हो जाते हैं

सबकी उम्मीदों पर 

खरा उतरने का उसका सपना

मिथ्या सिद्ध होता है


एक दिन

दुनिया से संघर्ष करता हुआ

हार जाता है वह

या महसूस करता है हारा हुआ

टूट जाता है

या महसूस करता है

कि टूट चुका है वह

बिखर जाता है

या महसूस करने लगता है

बिखरा हुआ


दुनिया से संघर्ष में 

एक सामान्य सी युद्ध नीति भी

भूल जाता है वह 

कि दुनिया को 

पराजित करने के लिए

या कम से कम

उसका सामना करने के लिए 

दुनिया से नहीं

अपने आप से 

लड़ने की जरूरत होती है.


       

                  

वक़्त


 बेखबर हैं सब

 शिविर में


बेसुध पड़े हैं

कल के योद्धा

कल आज और कल 

की चिंता से रहित


धराशायी हैं हथियार

बल्लम बरछी 

तीर कटार सब


जुगनू कहीं 

लड़ रहे हैं अंधेरे से

सन्नाटे को चीरने की 

जुगत में हैं झींगुर


दूर कहीं कोई 

आवाज़ है बांसुरी की


लाल हो चला है 

आसमान धीरे धीरे 


बांसुरी की धुन का नहीं

शंखनाद का वक़्त है यह।



कौवे



कौवे!

न जाने कब तुमने

घर की मुंडेरों पर बैठना छोड़ दिया

अब तो कम दिखते हो

द्वार के सामने के पेड़ों पर भी


तुम जो मेहमानों के आने से पहले ही

बता जाया करते थे

अब तो मेहमानों की तरह भी नहीं आते


अब घरों में बचते ही नहीं क्या

रोटी के टुकड़े तुम्हारे लिए

दरअसल 

रोटी के टुकड़ों पर ही तो

बसर होती हैं ज़िंदगियां


तुम्हारा कालापन कौवे 

जरा सा पुत गया है 

हमारे चेहरों पर भी

और वह दिनो दिन 

और भी गाढ़ा होता जा रहा है


तुम अंदर से भी उतने ही काले हो कि नहीं

जितने कि बाहर से दिखते हो

पर शायद तुम्हें पता नहीं

कि यह दुनिया

ऊपर से जितनी उजली दिखती है

अंदर से उतनी है नहीं


बचपन से सुनता आया हूं 

कि कोयल की तरह मीठा बोलो

कौवे की तरह कड़वा नहीं


तुम्हारी आवाज़ भी तो 

मुझे अच्छी लगती है कौवे

अगर तुम्हारी आवाज़ 

पसंद नहीं किसी को

तुम्हारी बोली कड़वी लगती है किसी को

तो इसमें तुम्हारा क्या दोष

और फिर 

तुम जानबूझकर तो कड़वा बोलते नहीं

आख़िर ताजिंदगी

कोई कड़वा कैसे बोल सकता है


तुम्हारे बारे में

बड़ी बड़ी भ्रांतियां फैला दी हैं किसी ने

कि तुम्हारी बोली बड़ी कड़वी है

कि बड़े चालाक हो तुम 

पत्थर उठाने से पहले ही

फुर्र हो जाते हो

तुम बहुत बुरे हो

तुम भांप जाते हो 

ख़तरा आने के पहले ही


तुम ज़रूर

किसी साज़िश के शिकार हुए हो कौवे

तुम्हारी चुप्पी का 

फायदा उठाया है किसी ने

तुम्हारी जीभ खाकर

अमर होने के किस्से गढ़े हैं

यह साज़िश है 

तुम्हारी ज़बान खींच लेने की

हमेशा के लिए 

तुम्हें चुप कर देने की


पर तुम बोलो कौवे

बोलो..

बोलते रहो....

इसी तरह।


बलभद्रप



जीवन-स्मृतियों की कविताएँ

                         

बलभद्र


विजय प्रताप सिंह हिंदी कवियों की  फिलवक्त जो उभरती हुई पीढ़ी है, उसके कवि हैं। उनकी कितनी कविताएँ प्रकाशित हो पाई हैं, इस लिहाज से देखा जाए तो बहुत कुछ नहीं कहा जा सकता। इक्के-दुक्के पत्रिकाओं में ही उनकी कुछेक कविताएँ प्रकाशित हो पाई हैं। मार्कण्डेय जी के रहते-रहते उनकी प्रसिद्ध पत्रिका 'कथा' में विजय की कुछ कविताएँ पढ़ने को मिली थीं।  इलाहाबाद से हिंदी से  एम.ए. की पढ़ाई पूरी कर विजय प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में लग गए और उनको इसमें अनेक सफलताएँ हासिल हुईं। प्राइमरी स्कूल की अध्यापकी से उनकी नौकरी-पेशा की यात्रा शुरू होती है और आज वे मैनपुरी, उत्तर प्रदेश में जिला बेसिक शिक्षा अधिकारी हैं। इसके बीच बिहार लोक सेवा आयोग से चयनित होकर उनको बी.डी. ओ. बनने का भी अवसर मिला। फिर, बी.डी. ओ. की नौकरी छोड़ विजय तीन वर्षों तक राजकीय इंटर कॉलेज, निशांतगंज, लखनऊ में प्रधानाचार्य रहे। इस बीच इतना कुछ हासिल रहा उनका। 'कथा' और उसी के आसपास प्रकाशित उन कुछेक कविताओं के बाद लम्बे समय तक विजय का लिखा कुछ पढ़ने को नहीं मिला। इधर संतोष कुमार चतुर्वेदी ने विजय की कुछ कविताएँ भेज दीं। एक साथ कई कविताएँ और कुछ गजलें भीं। पढ़ कर सुखद आश्चर्य हुआ और महसूस हुआ कि विजय ने काव्य-लेखन में भी अपने को सक्रिय रखा है। कविता पढ़ना-लिखना छूटा नहीं। आमतौर पर प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में युवाओं का बहुत कुछ गुम हो जाया करता है। पर, विजय ने इसको अपने तईं झुठला दिया है। 

            

'कौवे' पर विजय ने एक अच्छी कविता लिखी है। कौवे पर हिंदी के साथ-साथ देश-दुनिया की कई भाषाओं में कई अच्छी कविताएँ लिखी गई हैं। कौवे के बारे में बचपन से ही हम कई तरह की बातें सुनते आए हैं। कई लोकोक्तियाँ और मुहावरे भी कौवे को ले कर हैं। लोक में यह धारणा बहुत पुरानी और प्रचलित है कि कौवे किसी के आगमन की सूचना ले कर आते हैं। उनके कर्कश स्वर किसी को पसंद नहीं, पर, वही जब मुँडेर पर या छत पर बोलते हैं तो लोगों को उनका बोलना बहुत पसंद आता है। इस बात को ले कर भोजपुरी सहित कई भाषाओं में कई गीत हैं। विजय ने इस कविता में इस लोकधारणा का भी ख्याल रखा है। पर, इतने भर से कोई कविता क्या कविता हो सकती है? अगर इतना ही रहे तो वह लोकधारणा की यथातथ्य पुनरावृत्ति हो कर रह जाएगी। इस कविता में यह धारणा इस वाजिब चिंता के  साथ है कि अब कौवे कम होते जा रहे हैं। उनका उचरना (बोलना) शुभ है कि अशुभ, इससे ज्यादा महत्व की बात उनकी संख्या का निरन्तर घटते जाना है। कौवे के रंग को ले कर भी कविता में बात हुई है। कौवे का कालापन उसकी खूबसूरती है। आदमी के भी अपने रंग हैं। मसलन गोरा, साँवला, काला। गोराई के भी अनेक प्रकार हैं। यह मनुष्य का बाहरी रंग है और खूबसूरत भी इसे कहा जाना चाहिए। पर, उसे मन से काला नहीं होना चाहिए। कौवे का रंग यदि आदमी के मन का रंग हो जाए, तो यह बेशक घातक है। वह आदमी के चेहरे पर पुत जाए तो शर्मनाक है। कवि कौवे के इस स्वभाविक रंग के बरक्श दुनियावी कुटिलता के कालेपन को ले कर कुछ इस तरह कहता है :


"तुम्हारा कालापन कौवे

जरा-सा पुत गया है

हमारे चेहरों पर भी

और वह दिनोदिन

और भी गाढ़ा होता जा रहा है

तुम अंदर से भी उतने ही काले हो कि नहीं

जितने कि बाहर से दिखते हो

पर, शायद तुम्हें पता नहीं

कि यह दुनिया

ऊपर से जितनी उजली दिखती है

अंदर से उतनी है नहीं।"

           

लोक में यह प्रचलित है कि कौवा बहुत चालाक पक्षी है। आसन्न खतरे को तुरत भाँप जाता है। इधर किसी ने हाथ में पत्थर उठाया नहीं कि वह उड़ा। उस पर रीझने-खीझने की अनेक बानगियाँ हैं। पर, उसकी जीभ खाने से अमरत्व-प्राप्ति की जो प्रचलित लोकधारणा है, वह उसके प्रति क्रूरता का चरम है। सच में, इस धारणा का जिक्र करते हुए उसकी जीभ खाते लोगों को हमने भी देखा है :


"तुम जरूर 

किसी साजिश के शिकार हुए हो कौवे

तुम्हारी चुप्पी का

फायदा उठाया है किसी ने

तुम्हारी जीभ खा कर

अमर होने के किस्से गढ़े हैं

यह साजिश है

तुम्हारी ज़बान खींच लेने की।"


       

लोक कौवे के प्रति कितना स्नेहिल और क्रूर है, और कौवे के प्रति ही नहीं केवल, बहुतों के प्रति भी। वह जिसको पुचकारता है, चोंच में सोना मढ़वाने को कहता है, उसी की हत्या भी कर देता है। जिस जिह्वा से किसी के आगमन का शुभ संकेत पाता है, उसी को खा कर अमरत्व-प्राप्ति की धारणा भी पालता है। यानी लोक सदाशयी ही नहीं होता, निर्दयी भी होता है। सामाजिक मामलों में इसके कई उदाहरण समाज में मौजूद हैं। कविता में कौवे आते हैं तो इन सारी बातों के साथ आते हैं।

    

                  

विजय गाँव से आते हैं। गाँव-देहात के जीवन की स्मृतियाँ कविताओं में आती हैं। एक कविता है 'देहाती शाम में'। बहुत छोटी कविता है। कुछ दृश्य बनते हैं। गाँव अब पहले जैसे तो नहीं रहे, फिर भी, कुछ ऐसे दृश्य तो अभी भी देखे जा सकते हैं:


"खेत की ओर जाते कुछ आदमी

कुछ लौटते हुए हाथों में लोटा लटकाए

नाद से हटाए जाते मवेशी

भोजन के इंतजाम में लगी कुछ औरतें

घरों से उठता धुँआ

जैसे फैलता हुआ प्रेम।"

         

बिलकुल यह नागरिक मन की कविता नहीं है, न ही गाँव के इन दृश्यों को सुविधा-सम्पन्न नजरिये से देखा गया है। गाँव की यह पुरानी तसवीर नहीं है। यह एक बड़े हिस्से का सच है। इसकी आखिर की पँक्तियों से नागार्जुन की पंक्ति 'धुँआ उठा आँगन के ऊपर कई दिनों के बाद' की याद आ जाती है।

                


गझिन पेड़ की छाँव में कई सालों से 'फूल बेचने वाली' औरत के चेहरे को भी यह युवा कवि पढ़ता है और लिखता है - 


"कई सालों से फूल बेचने वाली औरत के चेहरे पर

आस्था का कोई चिन्ह नहीं है

उसके चेहरे पर उदासी है।"


निराला की 'तोड़ती पत्थर' में जिस पेड़ के नीचे वह श्रमिक महिला पत्थर तोड़ रही है, वह छायादार नहीं है। विजय की कविता में जिस पेड़ के नीचे वह औरत सालों से फूल बेच रही है, और वह कवि के दृष्टिपथ में जब आती है, वह सघन है। उसकी दुकान वर्षों से इसी की छाया में सजती आ रही है। सुबह से शाम तक के उसके रोज के सफर में उसका जो हासिल है वह चंद सिक्के, बचे हुए मुरझाये फूल और उम्र भर की उदासी है। वह फूल बेचती है और यह उसकी आस्था का मामला नहीं है। वह उसके जीवन गुजर-बसर का मामला है। वह फूल के बदले चंद सिक्के उछाल देने वालों की आस्था से भी वाकिफ है। 

                   

कुछ लोग पुरानी चीजों या मूल्यों को लेकर आह-वाह करते रहते हैं। यह कवि 'पुराना चश्मा' कविता में कहता है - 


"वक्त के साथ

खारिज हो जाते हैं

पुराने चश्मे।"

                   

चश्मे को हमेशा नया करने की जरूरत होती है। पर, हर बार नया होते हुए भी वह चश्मा ही कहलाता है। पुराना चश्मा कितनी ही यात्राओं का साक्षी हुआ होता है : 


"कितनी ही यात्राओं का साक्षी रहा यह

इसी के संग पुस्तकें रास्ता हो जाती थीं

और रातरानी में तब्दील हो जाता था समय।"

साथ ही,

"सभ्यताओं और संस्कृतियों के

जंगल से गुजरते हुए

रोशनी में तब्दील हो जाता था।"


पर, जब पुराना पड़ जाए, ग्लास धुँधले हो जाएँ, पावर बदल जाए, तब वह बदले जाने की माँग करता है। बदलते हुए समय-संदर्भों में किसी चीज को जानने-समझने के लिए बार-बार अपने को माँजना होता है, टूल्स नये अपनाने होते हैं। पुराने को भी नए नजरिए से समझने की जरूरत होती है। 

  

            

विजय की और दो कविताएँ ध्यान खींचती हैं। एक है 'यद्ध के बाद' और दूसरी है 'कामगार'। युद्ध के समय शासक जिन हथियारों का इस्तेमाल देश की रक्षा के नाम पर दुश्मन मुल्क के लिए करता है, युद्ध के बाद उन्हीं हथियारों का उपयोग अपने ही देश की जनता के वाजिब सवालों के दमन में करता है। ऐसा वैश्विक स्तर पर कई बार देखा गया है। यह कविता युद्ध के इन कुटिल राजनीतिक निहितार्थों को कहती है :


"सीमा पर

एक अध्याय का अंत कर

तोपें, टैंक और विमान

लौट रहे हैं

उनका रुख अब

दुश्मन की ओर नहीं

देश की ओर है।"

           

            

'कामगार' को न दीवान-ए-खास में जगह है और न 'दीवान-ए-आम' में। 'जब कहीं कभी / पुनर्निर्मिति की बात होगी / पुकारा जाएगा तुम्हें।" मुल्क पर खतरे के नाम पर कामगारों को ही सबसे पहले बोरिया-बिस्तर समेटना पड़ता है। कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौर में कामगारों को ही अपने बाल-बच्चों समेत वापस लौटना पड़ा है। सामान्य दिनों में इन्हीं का भरपूर उपयोग हुआ, इनकी सेवाएँ ली गईं और संकट के समय इन्हीं को वापस लौटने की परिस्थितियाँ निर्मित कर दी जाती हैं। कामगारों के साथ सरकारों, नौकरशाहों, पूँजीपतियों के इस क्रूर व्यवहार को यह कविता कम शब्दों में प्रभावी ढंग से कहती है।


            

विजय ने कुछ गजलें भी लिखी हैं। कुछ गजलें  पढ़ने को मिली हैं। बिलकुल ताजातरीन कवि हैं ये। नई पीढ़ी के कई कवियों के बीच विजय की कविताएँ भी पढ़ी जाएँगी, यह भरोसा बन रहा है।



नाम - बलभद्र

कार्य - हिंदी और भोजपुरी में समान रूप से सक्रिय। साथ ही अध्यापन कार्य। 


पता - 


अध्यक्ष, हिंदी विभाग, 

गिरिडीह कॉलेज, 

गिरिडीह (झारखंड) -815302



मो ० - 09801326311

          08127291103

टिप्पणियाँ

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'