भगवानदास मोरवाल के उपन्यास 'वंचना' पर सतीश पाण्डेय का आलोचनात्मक आलेख 'पुरूष वर्चस्व की शिकार निर्भयाओं का जीवन्त दस्तावेज : वंचना'।
भगवानदास मोरवाल हिंदी के ऐसे उपन्यासकार हैं जिन्होंने हमेशा चुनौती भरे विषयों
को अपने उपन्यास का विषय बनाया। वंचना उनका ऐसा ही उपन्यास है जिसमें बलात्कार और
यौन सम्बन्धों के हवाले से विकृत पुरुष मानसिकता की पड़ताल करने की कोशिश की गई है।
इस उपन्यास पर एक उम्दा आलोचनात्मक आलेख लिखा है सतीश
पाण्डेय ने। सतीश जी का यह आलेख इस मायने में महत्वपूर्ण है कि उन्होंने
उपन्यास के विभिन्न पहलुओं की आलोचनात्मक पड़ताल करने की कोशिश की है बजाय उपन्यास
की कथा वस्तु बताने के। आज हिन्दी आलोचना में अधिकतर ऐसा ही लेखन हो रहा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है भगवानदास मोरवाल
के उपन्यास 'वंचना' पर सतीश पाण्डेय का आलोचनात्मक आलेख 'पुरूष
वर्चस्व की शिकार निर्भयाओं का जीवन्त दस्तावेज : वंचना'।
पुरुष-वर्चस्व की शिकार निर्भयाओं का जीवंत दस्तावेज़
: वंचना
सतीश पांडेय
‘बलात्कार, पुरुषों द्वारा औरतों को लगातार बलात्कार से भयभीत रख कर समस्त स्त्री जाति पर पूर्ण नियंत्रण बनाए रखने का
षड्यंत्र है।’
-
सुसन ब्राउन मिलर, मशहूर स्त्रीवादी चिंतक
भगवानदास मोरवाल का उपन्यास ‘वंचना’ निर्भया कांड के बाद उपजी परिस्थितियों में बलात्कार की विभिन्न घटनाओं की संवेदनात्मक
अभिव्यक्ति है, जिसमें सूक्ष्म विश्लेषण द्वारा उसके पीछे स्थित
भारतीय समाज में व्याप्त विकृत पुरुष-मानसिकता के उन कारक-तत्वों को खोजने का
प्रयास भी किया गया है, जिसकी जड़ें हमारी परंपरागत
सामाजिक बनावट में गहरे तक धँसी हुई हैं। मोरवाल ने अपने अधिकांश उपन्यासों
में नए एवं चुनौती भरे विषयों को आधार बनाया है। ‘काला पहाड़’ जहाँ सर्वप्रथम मेवात के जनमानस और वहाँ के लोक-जीवन का चित्रण करने वाला
उपन्यास था, तो ‘बाबल तेरा देश में’ अपने ही घर के अभेद्य किले में असुरक्षित स्त्री के
दु:खों की ऐसी कथा है, जहाँ पिता, भाई, ससुर और पति
जैसे रिश्ते भी सुरक्षा देने वाले कम, आदमखोर अधिक प्रतीत होते हैं तथा जिन्हें धर्म के
ठेकेदारों का समर्थन हासिल होता है। ‘रेत’ कंजर जनजाति
की जरायम पेशा स्त्रियों की कथा है, जिसमें पितृसत्तात्मक व्यवस्था में सेंध लगा कर मातृसत्तात्मक वर्चस्व स्थापित करने का सीधा प्रयास दृष्टिगत होता है। ‘नरक मसीहा’ में एन. जी. ओ. संस्कृति पर अवश्य प्रहार किया गया है
किंतु वहाँ भी नारी चरित्र ही प्रधान है। फिर ‘हलाला’ तो मुस्लिम समाज में धर्म की आड़ में स्त्री के शोषण
का आख्यान ही है। ‘सुर बंजारन’ की कथा भी हाथरस शैली की नौटंकी से जुड़े एक स्त्री लोक-कलाकार को केंद्र में रख कर रची गई है। इस तरह इनके सभी उपन्यासों के केंद्र
में स्त्री और उससे जुड़े सवाल ही प्रमुख रहे हैं।
‘वंचना’ की कथा में भी बलात्कार की शिकार नारी की स्थिति और
पीड़ा के साथ-साथ उसके आक्रोश को व्यक्त करने और कानूनी बदलाव तथा अदालती
प्रक्रिया के नाम पर इस जघन्य अपराध के आरोपियों को बचाने के तमाम कानूनी दाँव-पेच
और प्रयासों के माध्यम से
समाज में स्त्री के प्रति झलकती पुरुष प्रधान निरंकुश मानसिकता का पर्दाफाश किया
गया है। इसकी कथा सन 2012 में राजधानी दिल्ली में घटित बलात्कार की नृशंस घटना ‘निर्भया कांड’ के संकेत से शुरू होती है। इस घटना ने उस समय के
बुद्धिजीवियों को ही नहीं बल्कि सामान्य जनमानस को भी झकझोर कर रख दिया था। अतः
इसके बाद महिलाओं के खिलाफ होने वाले अपराधों पर नए सिरे से बहस शुरू हुई थी। समय
गवाह है कि मानवता को शर्मसार करने वाले इस कृत्य के खिलाफ बड़ी संख्या में युवा
पीढ़ी का आक्रोश इस तरह उग्र रूप में फटा था कि सरकार ने भी विवश हो कर जस्टिस
वर्मा को कानून में बदलाव लाने की सिफारिश करने का दायित्व सौंपा और उनके सुझावों
के अनुसार बलात्कार करने वाले अपराधियों को मौत की सजा का प्रावधान किया गया, जिसे संसद ने भी एकमत से पास कर दिया। इसी के अंतर्गत एक
अन्य अहम कानून यह भी बना कि पंद्रह साल से कम उम्र की पत्नी के साथ
बलात्कार के मामले में दी गई विशेष छूट खत्म कर दी गई। 'वंचना' की संपूर्ण कथा बलात्कार की ऐसी ही घटनाओं द्वारा इस
तरह संगुंफित की गई है कि पुरुषवादी वंचना की शिकार स्त्री की जीवन-स्थितियाँ और
यह जघन्य अपराध करने वाले पुरुष वर्ग द्वारा अपने को बचाने के मर्दवादी हथकंडे –
सब कुछ यहाँ उद्घाटित हो गए हैं।
अरविंद जैन ने माना है कि ‘वंचना उपन्यास हमारे वर्तमान समय
का वह आख्यान है, जिसमें पीछे लाशें हैं और आगे अंधेरा।’ 1
उपन्यास में
चित्रित पहली ही घटना
बाल-विवाह जैसी कुप्रथा की शिकार सदानंद की चौदह वर्ष से कम उम्र की पत्नी से संबन्धित है। विवाह के
बाद पहली ही रात बाइस-तेइस वर्ष के छहफुटा सदानंद जैसे भूखे भेड़िए के सामने मेमने की तरह उसकी
बहू ‘पहली रात को बिल्ली मारना चाहिए’ की मानसिकता का इस तरह शिकार होती है कि सुबह रक्त की
धारा कमरे के बाहर तक दिखाई देती है। शादी की रात पुरुष और स्त्री का सहवास सहज
क्रिया हो सकती है लेकिन इस घटना पर सदानंद की प्रतिक्रिया है कि ‘मैंने ऐसा कुछ नहीं किया मामा… बस थोड़ी सी जबरदस्ती जरूर की थी।
ऐसा कर के मैंने कौन-सा जुर्म कर ...। 2
यह कथन पुरुष की अहंपूर्ण क्रूर मानसिकता एवं
संवेदनहीनता का परिचायक है। विवाह किसी भी परिस्थिति में ऐसी जबरदस्ती की इजाजत
नहीं देता, जिससे पत्नी की मृत्यु हो जाए लेकिन सदानंद को यही लगता है
कि उसका कोई कसूर नहीं है – ‘जबरदस्ती मैंने थोड़े ही की थी, उसने करने पर मजबूर किया था। मैंने उसे हर तरह से समझा लिया पर वह तैयार ही नहीं हो
रही थी।’
3
पुरुष अपनी इसी क्रूर मानसिकता के कारण स्त्री की
सहमति-असहमति को ताक पर रख कर अपनी श्रेष्ठता और पुंसत्व साबित
करना चाहता है। कानूनविद अनिल जैन इसीलिए कहते हैं कि बलात्कार के पीछे यौन-इच्छा
कम, दूसरे पक्ष यानि स्त्री के खिलाफ हिंसा और उस पर अपना
वर्चस्व स्थापित करने की इच्छा अधिक होती है। मशहूर स्त्रीवादी चिंतक सुसन
ब्राउन मिलर ने सही कहा है – ‘मैन डू नॉट कैच
विमेन, दे विन देम।’ 4
यद्यपि सामान्य भारतीय समाज और परिवारों में यही
धारणा प्रचलित है कि अपनी ही औरत से संबंध बनाना बलात्कार नहीं हो सकता। इस
उपन्यास की पद्मा और रामा बुआ जैसे चरित्र भी यही मानते हैं लेकिन चंचला मामी इससे
असहमत होते हुए एक सार्थक प्रश्न उठाती है कि ‘आखिर औरत की भी कोई इच्छा-विच्छा
होती है कि नहीं?... अगर औरत का मन नहीं है, तो यह काम बाद में भी तो हो सकता
है।’ 5 उसकी यही धारणा अपने बारे में भी आज तक बनी हुई है। इसीलिए ‘आज भी गाहे-बगाहे जब चंचला का पति
उसके पास आता है और उसे सहलाता है, तब उसे लगता है मानो किसी असहनीय दुर्गंध में लिपटे पिशाच के
नुकीले नाखून उसके जिस्म पर सरसरा रहे हैं। उसकी धधकती देह पर उगी लोहे
की दहकती सलाख पूरी बेरहमी के साथ उसके भीतर प्रवेश कर रही है। उस दृश्य
की कल्पना भर से आज भी उसका रोआँ-रोआँ एक अप्रत्याशित लिजलिजेपन से
सिहरता चला जाता है।’ 6
नए बदले कानून के कारण सदानंद को इस
अपराध के लिए दस साल की सजा सुनायी जाती है। कठिन प्रयास के बाद भी सज्जन
सिंह अपने बेटे को नहीं बचा पाते लेकिन इस दौरान अदालती प्रक्रिया और मीडिया के
माध्यम से ‘बाल-विवाह’ तथा ‘पत्नी की इच्छा के विरुद्ध सहवास को बलात्कार मानने’ के विषय पर एक सार्थक चर्चा और विमर्श प्रस्तुत किया गया है।
उपन्यासकार ने इस विषय-संबंधी कानूनी पहलुओं के साथ-साथ समाजशास्त्रीय, हिंदूवादी-धार्मिक या नारीवादी
दृष्टिकोण से एक मंथन प्रस्तुत किया है।
चर्चा का आधार सदानंद की पत्नी का मामला ही नहीं बल्कि सन 1890 में ‘फूलमणि केस’ के नाम से मशहूर मुकदमा भी है, जिसमें करीब चौदह वर्ष की फूलमणि की मौत विवाह के बाद पहली
रात को इंटरकोर्स के दौरान हो गई थी। उसकी मौत से पहले विवाह के लिए
लड़कियों की सहमति की उम्र दस साल थी। सुधारवादियों ने तब जहाँ इसे बलात्कार और
हत्या का मामला बताया था, वहीं हिंदू
अतिवादियों की अगुवाई करने वाले बाल गंगाधर तिलक ने इसे मात्र एक दुर्घटना माना था। तिलक का
तर्क था कि बारह साल से पहले पत्नी से संबंध बनाने
पर कानून के अनुसार यदि पति को जेल में डाला जाता है, तो सरकार वास्तव में पत्नी को ही सजा देगी क्योंकि
पति के जेल जाने का मतलब ‘द सिविल डेथ ऑफ़ हिंदू वाइफ’ होगा। तिलक का इस संदर्भ में तर्क था कि यह एक जघन्य
पति के भयंकर हवस का मामला नहीं बल्कि उस रात से जुड़ा मामला है, जब संभव है, उसकी पत्नी बीमार हो या कमजोरी से पीड़ित रही हो। 7
यद्यपि इस केस के बाद 1891 में
अंग्रेजी हुकूमत ने शादी की उम्र दस से बढ़ा कर बारह वर्ष कर दी थी लेकिन इसी चर्चा के दौरान समाजशास्त्री
प्रोफेसर अजय जोशी ने इस
संदर्भ में अमेरिकी इतिहासकार कैथरीन मायो की पुस्तक 'मदर इंडिया' के हवाले से बाल-विवाह का बड़ा ही भयावह वर्णन किया
है। उनके अनुसार उस समय हालत यह होती थी कि जबरन सेक्स करने से बच्चियों की जाँघ
की हड्डियाँ टूट जाती थीं। मांस लटक जाता था। कुछ तो अपाहिज तक हो जाती थीं और कुछ
छह-सात साल की उम्र में हुई शादी के तीन-चार महीने बाद ही तड़प-तड़प कर मर जाती
थीं। 8
यद्यपि आज
स्थितियाँ काफी बदल गयी हैं लेकिन इस बहस के दौरान बाल-विवाह पर उठाए गए कुछ बेहद
संवेदनशील प्रश्न जहाँ एक तरफ भारतीय समाज की दुविधाओं और दोहरे आचरण का बयान करते हैं, वहीं उसके रिफॉर्मेटिव होने का प्रमाण भी देते हैं।
वैवाहिक बलात्कार को अपराध की श्रेणी में रखा जाए या नहीं, यह प्रश्न आज भी उतना ही जीवंत एवं प्रासंगिक है।
मानुषी जहाँ विवाह के बाद किसी भी उम्र की पत्नी की सहमति के बिना स्थापित किए
जाने वाले यौन संबंधों को बलात्कार की परिधि में लाना चाहती है, वहीं समाजशास्त्री अजय जोशी ऐसा मानते हैं कि पत्नी
की इच्छा के विरुद्ध किए गए जबरदस्ती सहवास को बलात्कार नहीं माना जा सकता क्योंकि
ऐसा करने से विवाह संस्था खतरे में पड़ जाएगी। उनके अनुसार विवाह एक अपरिवर्तनशील
सामाजिक संस्था है, जिसके पितृसत्तात्मक स्वरूप, उसके नियमों
और मान्यताओं में बदलाव नहीं किया जा सकता। इसमें पति की इच्छा ही सर्वोपरि होगी, पत्नी की इच्छा का कोई महत्व नहीं है। वे यह भी मानते
हैं कि इस संस्था के अस्तित्व में आने का मुख्य कारण रहा है स्त्री को, वह भी अपने परिवार के पुरुषों की
कामुकता से बचाकर स्त्री-पुरुष संबंधों को मर्यादा की परिधि में लाना। संस्कृत
विद्वान विश्वनाथ काशीनाथ राजवाड़े की पुस्तक ‘भारतीय विवाह संस्था का इतिहास’ से कई उदाहरण देते हुए उन्होंने इस बात को पुष्ट भी
किया है। 9
भारतीय समाज में बलात्कार का समाजशास्त्र सिर्फ
बाल-विवाह जैसी प्राचीन सामाजिक कुरीतियों और पुरुष अहं से ही नहीं
जुड़ा है बल्कि इसके पीछे जातिगत श्रेष्ठता का समीकरण भी काम करता है। साथिन के रूप में
साफ-सफाई, परिवार नियोजन, लड़कियों की शिक्षा, दहेज, भ्रूण-हत्या तथा बाल विवाह जैसे विषयों पर जागरूक
करने का अभियान चलाने वाली जानकी का रामकरन को उसकी बारह-तेरह वर्षीय बेटी गीता का
विवाह न करने के लिए समझाना ठाकुर रामकरन को इसी लिए बुरा लगता है – ‘एक कुम्हारी मुझे समझाएगी क़ानून।’ 10
जानकी के इस प्रयास को रामकरन नाक का सवाल बना लेता
है। अतः पुलिस को रिश्वत दे कर बेटी का ब्याह निपटाने के बाद एक दिन जानकी
के पति मोहन लाल का हाथ-पाँव बाँध कर उसके सामने ही वह तथा सज्जन सिंह जानकी के साथ
बारी-बारी मुँह काला करते हैं। यह भी इसी जातिगत श्रेष्ठता के झूठे अहं का
परिणाम है। पैसे के बल पर वे पुलिस को अपने पक्ष में मिला लेते हैं और कोई गवाह नहीं मिलने तथा इस देश के मर्दवादी कानून के चलते
दोनों आदमखोर भेड़िये सिर्फ नौ महीने की सजा काट कर छूट जाते हैं। यह घटना स्त्री के साथ उस
सामाजिक वंचना का प्रमाण भी है जहाँ गरीब, कमजोर और दलित होने के कारण उस स्त्री को कोई गवाह नहीं मिलता। जज के फैसले का आधार भी
मर्दवादी कानून की पोल खोलने वाला है। जज का मानना था कि इज्जतदार और बड़ा आदमी किसी का बलात्कार कर ही नहीं सकता।
दूसरा,... कोई मर्द अपने किसी सगे-संबंधी के आगे ऐसा
काम नहीं कर सकता। कोई अगड़ी जाति का मरद
किसी छोटी जाति की औरत के साथ इसलिए ऐसा
गलत काम नहीं कर सकता क्योंकि वह मैली होती है। सबसे मजेदार बात तो उस जज ने यह कही कि मोहन लाल अपनी औरत की इज्जत लूटते हुए देख नहीं सकता। 11
इस प्रसंग में गायत्री की प्रतिक्रिया अधिक
महत्वपूर्ण लगती है। उसके अनुसार मर्द के लिए औरत, औरत होती है। चाहे वह शुद्ध हो या
अशुद्ध, मैली हो या कुचैली, अगड़ी हो या पिछड़ी। ... इस मर्द जात का रत्ती भर भी
भरोसा नहीं करना चाहिए। यह मर्द पहले है – बाप, ससुर, भाई या बेटा बाद में। हम औरतों को देख कर कब उसकी नीयत डोल जाए, कुछ पता नहीं। 12
उपन्यासकार ने एक बड़ा प्रश्न यह भी उठाया है कि
घुमंतू जाति की स्त्रियों के साथ सभ्य समाज के किसी पुरुष द्वारा किया
गया दुष्कर्म क्या कानून की नजर में इसलिए अपराध नहीं माना जा सकता क्योंकि पुरुष सभ्य
समाज का है? यदि ऐसा है तो यह भी जातीय श्रेष्ठता के आधार पर स्त्री के साथ वंचना का ही
प्रमाण है। घुमंतू जाति की एक लड़की
बलविंदर के खिलाफ थाने में शिकायत करती है कि उसने उसके साथ पूरी रात दुष्कर्म
किया। यह मामला अदालत तक पहुँचता है, जहाँ उसे आपसी सहमति से बना संबंध
बता दिया जाता है। इसके विपरीत लेन-देन में गड़बड़ी के आधार पर ब्लैकमेल
करने और ज्यादा रकम वसूलने का आरोप भी उस लड़की पर लगा दिया जाता है। वैजिनल टेस्ट के
आधार पर बड़ी आसानी से यह सिद्ध कर दिया जाता है कि उस लड़की ने देह को इनकम का
जरिया बना लिया है और वह संभोग की आदी है। इसकी तुलना सभ्य समाज की औरतों से नहीं
की जा सकती। इसी आधार पर सारा केस
ब्लैकमेलिंग का बता कर बलविंदर को बरी कर दिया जाता
है। 13
सभ्यता और
उच्चता के इस मानदंड द्वारा भारतीय समाज के इस अंतर्विरोध को
उपन्यासकर ने बखूबी उभारा है।
कानून बन जाने मात्र से ही हर अट्ठारह वर्ष की लड़की को
अपनी इच्छा के अनुसार विवाह करने और माँ बनने का अधिकार मिल जाना भारतीय पुरुष प्रधान समाज में आज भी कठिन है। कभी जाति के आधार पर तो
कभी धर्म के आधार पर या कभी पुरुष अहम के कारण स्त्री को अपने इन अधिकारों से वंचित होना पड़ता है। अधिकांश मामलों में पिता की इच्छा सर्वोपरि होती है। यदि कोई विद्रोह
भी करे तो पुरुष-प्रधान समाज हर संभव कोशिश करके उसे अपनी इच्छा मनवाने का प्रयास करता है। जया एवं अपराजिता का
उदाहरण इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। सज्जन सिंह के भाई रघुवीर सिंह
की अविवाहित बेटी जया के पेट में तीन महीने का बच्चा है, यह जान कर उसके माता-पिता बच्चे की
सफाई कराना चाहते हैं किंतु डॉक्टर मना कर देती है। मामला पुलिस तक जाता है। पुलिस इसे
बहला-फुसला कर किए जाने वाले बलात्कार का मामला मानती है क्योंकि जया उस समय
नाबालिग थी। अगर यह आपसी रजामंदी से हुआ हो तो भी कोर्ट इसे रेप ही मानेगा क्योंकि कानूनन अठारह साल से कम उम्र की
लड़की अगर अपनी सहमति से शारीरिक संबंध बनाती है तब भी वह नाबालिग के साथ जबरन संबंध बनाने
की श्रेणी में ही आता है। 14
अदालत में जया यह स्वीकार करती है कि यह सब उसकी मर्जी से हुआ है। संबंध बनाने के समय उसकी उम्र भले ही अठारह साल
से कम रही हो लेकिन अब उसकी उम्र अठारह साल की हो गई है और वह इस गर्भ की सफाई नहीं करना चाहती। सफाई के लिए
यदि जबरदस्ती की गई तो वह सब के खिलाफ शिकायत करने
की धमकी भी देती है। उसे पता है कि अठारह साल की बालिग की इच्छा के बिना उसके माँ बनने के
अधिकार को कोई कानून नहीं छीन सकता। वकील ब्रज नंदन ठाकुर के अनुसार
उसे किसी ने यह भी बता दिया है कि जब उस लड़के के संपर्क में वह आई थी, तब एज आफ कंसेंट सोलह साल थी। निर्भया केस के बाद इसे
बढ़ा कर अठारह साल किया गया है। कानून की
नजर में जो पहले जुर्म नहीं था, वह अब जुर्म
बन गया है। 15 इसीलिए ब्रज नंदन ठाकुर उसके पिता
को सलाह देते हैं कि अदालत से केस वापस ले कर दोनों की शादी करा दी जाए। उसके
पिता भी मान जाते हैं लेकिन यहीं वह पुरुष-अहं द्वारा छली जाती है। एक दिन जया के पेट में
फिर दर्द होता है लेकिन उसे किसी डॉक्टर के पास नहीं ले जाया जाता। उठती चिता की लपटों को देख कर
किसी को हैरानी नहीं होती क्योंकि सबको पता था कि ऐसी जयाओं का एक दिन यही
अंत होता है।
जया की भाँति अपराजिता भी अंततः पुरुष अहम और जातिगत घृणा
के कारण वंचना का शिकार बनती है। वह कुंभकार जाति के
अपने एक सहपाठी दक्ष के साथ भाग जाती है। कुछ दिनों तक साथ रह कर वापस लौटने पर
अपराजिता के पिता दिगंबर सिंह दक्ष पर बहला-फुसला कर भगा ले जाने और जबरन संबंध बनाने का
आरोप लगाते हैं। दक्ष का
वकील इसे आपसी सहमति और प्रेम-संबंध का मामला बताता है। अदालत में कोई सबूत न दे पाने के कारण इसे
बहला-फुसला कर भगाने और जबरन संबंध बनाने का नहीं
बल्कि आपसी सहमति का मामला माना जाता है। अपराजिता जज के सामने दक्ष के साथ रहने
और शादी करने की इच्छा व्यक्त करती है। 16 जज भी दिगंबर सिंह को समझते हुए यही
कहता है कि ‘जवान बच्चों की कद्र करना सीखो। उन्हें खुले आसमान में उड़ने
की आजादी देना सीखो। जाति-बिरादरी, ऊँच-नीच यह
सब बीते जमाने की बातें हैं।’ 17 जज के सामने दिगंबर सिंह भी दोनों
की शादी कराना स्वीकार कर लेता है किंतु अपराजिता भी जया की तरह माँ-बाप की वंचना का ही शिकार बन
जाती है। वे पढ़ी-लिखी अपराजिता को दक्ष के बदले एक उजड्ड हलजोता के पल्ले
बाँध देते हैं। इस संदर्भ में अपराजिता की स्वीकारोक्ति है कि ‘एक कातिल को भी उम्र कैद की सजा
काटने के बाद खुली हवा में साँस लेने का मौका मिल जाता है मगर यहाँ तो अपनी मर्जी
से चलने के खिलाफ जैसी सजा दी गई, वैसी तो लड़ाई में जीत कर लाई गई किसी गुलाम को भी नहीं
दी जाती, जैसी खुद उसके बाप ने उसे दी है। 18
इस संदर्भ में यद्यपि पदमा सकारात्मक ढंग से सोचती है।
वह मंगला से कहती है कि ‘अपराजिता ने एक आन जात कुम्हार
लड़के के साथ जिंदगी बिताने का फैसला किया था। क्या बुराई थी इसमें ... दुनिया में हो
रहे हैं ऐसे काम। ऐसी नाक भी किस काम की जो बेटियों की ही दुश्मन बन जाए? इसी नाक के लिए रघुवीर ने गर्भवती बेटी की हत्या कर दी और इधर इनकी एक बहन रामा और बहनोई दिगंबर ने पढ़ी-लिखी
सयानी बेटी की जिंदगी लील दी।’ 19
इस सोच के बावजूद अपरा अपने ही पिता
की जातिवादी संकीर्णता एवं पुरुष के झूठे अहं के कारण छली जाती है। इसी विरोधाभास
को उपन्यासकार रेखांकित करना चाहता है कि हमारे समाज में सकारात्मक सोच वाले लोग
भी हैं किन्तु कुछ संकीर्णताएँ हमारे बीच गहरे धँसी हैं, जिनके कारण नारी अपने
सहज-स्वाभाविक विकास से
बार-बार वंचित की जाती है।
मानव स्वभाव है की यदि किन्ही कारणों से किसी अपराधी को
उचित दंड नहीं दिया जाता है तो उसकी अपराधी मनोवृत्ति बढ़ती जाती है। घुमंतू
जाति की लड़की वाले मामले
में बच जाने पर बलविंदर उर्फ बल्लू और अधिक
हिंसक तथा आदमखोर बन जाता है। उसे यह अहसास होता है कि उसे बचाने के लिए उसके माता-पिता और ब्रज नंदन ठाकुर जैसे वकील उसके
पीछे हैं। जिंदा देह की ताप का खून उसके मुँह
एक बार लग चुका है। अतः वह दोबारा एक मुसलमान लड़की सबीना को भगा कर ले जाता है। लोअर कोर्ट बहला-फुसला
कर भगाने और बलात्कार के जुर्म में उसे दस साल की सजा सुनाता है लेकिन एक बार फिर ब्रज नंदन ठाकुर
बड़ी आसानी से इस समूची वारदात में रुबीना की
उम्र अठारह वर्ष से अधिक और उसकी सहमति सिद्ध कर देते हैं। इस सफलता के मूल में जज की
पुरुष मानसिकता भी बड़ी भूमिका निभाती है। बकौल उपन्यासकार जब ब्रज नंदन ठाकुर यह
दलील दे रहे होते हैं कि इस पूरे खेल में रुबीना शामिल रही होगी, तब ऐसा लग रहा था मानो सामने बैठी न्याय की मूर्ति के
वृद्ध अचेतन में यौन-कुंठाओं की लीला चल रही है। ब्रज नंदन ठाकुर जब कह रहे
थे कि अकेले कमरे में कभी रात में दो बार तो कभी तीन बार दोनों ने
भरी उम्र का पूरा सुख उठाया और एक दूसरे को अपनी मांसल देह का ताप बाँटते रहे, तब ऐसा लग रहा था मानो रुबीना के साथ मांसल देह का
ताप बाँटने वाला बलविंदर नहीं, खुद एक न्याय देने वाला आबाल वृद्धाधीश
था। 20 इसीलिए रुबीना की माँ को लगता है कि न्यायाधीश की यह घोषणा
जैसे उसकी बेटी के साथ साथ उसकी देह पर भी हुई विजय की मर्दवादी उद्घोषणा है। 21
इसी संदर्भ में बलविंदर जैसे अपराधी को छुड़ाने के
बाद ब्रजनंदन ठाकुर का कथन सामाजिक संतुलन की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण संकेत लगता
है। वे विष्णु से कहते हैं कि ‘अति की भी एक सीमा होती है। अगर आपको यह लगता है
कि आपका बेटा एक के बाद एक जुर्म करता जाएगा और वह हर बार ऐसे ही छूटता चला जाएगा, तो ऐसा सोचना आप लोगों की बहुत बड़ी भूल है।’ 22 अपराध जब आदत बन जाए तब जघन्य एवं
क्रूर अपराध की संभावना बढ़ जाती है। बलविंदर के साथ भी यही होता है। वह धीवरों की
सात-आठ साल की एक लड़की-मुन्नी को अपनी
हवस का शिकार बनाता है। मुन्नी के साथ बलात्कार और हत्या का यह मामला उस मनोरोगी
का है, जो उस अबोध बच्ची के सौंदर्य को देख कर एकाएक वासना के
चलते क्रूर और हिंसक हो जाता है। यह एक दिमागी विकृति की स्थिति होती है जो कब फन
उठा कर बाहर आ जाए, कहना मुश्किल होता है। चंचला इसी मनःस्थिति की
ओर संकेत करती है कि ‘यह जो मरद
नाम की जात है न, इसे बस औरत से मतलब है, भले ही वह खुद की लौंडिया ही क्यों न हो।’ 23 लेकिन यही चंचला अपने बेटे के मोह
में उसको बार-बार बचाने का प्रयास करती है। इस बार भी निचली अदालत में बल्लू के
इस जघन्य और हैवानियत भरे कृत्य को देखते हुए उसे फाँसी की सजा दी जाती है। जज यह
मानता है कि बल्लू ‘एक तरह से हैबिचुअल क्रिमिनल बन
चुका है। इसे तो औरत के जिस्म से मतलब है, चाहे वह
जवान हो या बच्ची।’ 24 उसे बचाने के लिए हाईकोर्ट में अपील की जाती है, जहाँ उसकी फाँसी उम्र कैद में बदल दी जाती है। हाई
कोर्ट के न्यायाधीश मानते हैं कि ‘मुजरिम में काम-पिपासा इतनी बढ़ गई
थी कि उसने आदमी को जैसे जानवर बना दिया था लेकिन हत्या सिर्फ इस डर से की गई कि
कहीं मृतक भेद न खोल दे। मुन्नी के साथ रेप करने
के बाद वह अपने आप पर काबू नहीं रख पाया और उसी मानसिक स्थिति में उसने हत्या कर
दी। यह कृत्य एक प्रकार की
मानसिक विक्षिप्त की तरफ ले जाता है... कोर्ट यह महसूस करती है कि इंसाफ का मकसद
जुर्म करने वाले को उम्र कैद की सजा देने से पूरा हो जाएगा। 25
उम्र कैद का यह फैसला सुनते ही चंचला बौरा जाती है और जमकर जश्न मनाती है।
ऐसे माता-पिता और ब्रजनंदन ठाकुर जैसे वकील ही बल्लू जैसे अपराधियों को बचा कर
उन्हें बढ़ावा देते हैं। कहना न होगा कि निर्भया बलात्कार केस में जिस तरह
अपराधियों को बचाने के लिए बारी-बारी से कानूनी प्रावधानों का प्रयोग कर उन्हें
बचाने और जीवित रखने का प्रयास किया गया, उससे साफ जाहिर होता है कि न्याय-प्रक्रिया भी पैसे वालों
का ही साथ देती है।
कई बार स्त्रियों द्वारा पुरुषों पर रेप या यौन शोषण
का झूठा आरोप भी लगा दिया जाता है। वस्तुतः यह आपसी सहमति से बने अवैध
शारीरिक संबंधों की पोल खुलने के भय से स्वयं को निर्दोष बताने और अपनी प्रतिष्ठा
बचाने के लिए किया गया
प्रयास होता है। ऐसे आरोप अधिकतर लंबे समय से चले आ रहे अवैध संबंधों के मामले में
ही लगाए जाते हैं। बलविंदर की पत्नी तारा और उसके जीजा धरमेंदर के बीच का संबंध भी
ऐसा ही है। बल्लू की माँ चंचला को बहुत पहले ही शक होता है। वह बल्लू को सचेत भी
करती है किंतु वह माँ की बात को नजरअंदाज कर देता है। लेकिन एक बार जब वह तारा को
उसके मायके पहुँचाने जाता है तो उसके साढ़ू धरमेंदर भी वहाँ मौजूद मिलते हैं। आधी
रात के बाद अधबने कोठड़े के
पास की फुसफुसाहट सुन कर बल्लू को उनके संबंधों का अंदाज हो जाता है लेकिन वह किसी से कुछ नहीं
कहता। इसके बाद बल्लू का साढ़ू उसके घर
तभी आता है, जब बल्लू घर पर नहीं होता। चंचला का शक बढ़ता जाता
है। एक बार धरमेंदर के आने पर आधी रात को वह उन दोनों को रंगे हाथ पकड़ लेती है।
सारा रहस्य खुल जाने पर तारा सारा आरोप अपने जीजा पर मढ़ देती है। चंचला के सामने सफाई
देते हुए वह कहती है – ‘मम्मी जी
कोई चक्कर-वक्कर नहीं है। मैं तो अपने कमरे में सो रही थी मुझे पता ही नहीं चला कि
जीजा जी कब मेरे कमरे में आए और कब जबरन मेरे साथ...।’ 26 चंचला इस बात को किसी से नहीं कहती
लेकिन तारा समाज में भला बन कर रहने का अलग तरीका निकालती है। वह अपने मायके शामली
के थाने में अपने जीजा यानी धरमेंदर के खिलाफ प्राथमिकी दर्ज कराती है कि उसका जीजा पिछले कई सालों से उसके
साथ दुष्कर्म करता रहा है। पहली बार उसने उसके साथ कैंपा कोला में नशीला पदार्थ
मिला कर दुष्कर्म किया, जिसका उसने बना वीडियो बना लिया।
बाद में इस वीडियो का डर दिखा कर उसके साथ जबरन यौन शोषण करता रहा। तीन साल से हो
रहे यौन शोषण को किसी से न बताने का कारण तारा ने बदनामी का डर बताया। बचाव पक्ष
के वकील ने बार-बार यह तर्क दिया कि यह दोनों की सहमति से बना संबंध है, जो पिछले कई सालों से चला आ रहा
है। अगर यह बलात्कार का मामला होता तो
पीड़िता इतने दिनों तक चुप नहीं रहती। बल्लू ने पहले तो इस संबंध में
अपनी अनभिज्ञता प्रकट की लेकिन अंत में उसने अदालत में न सिर्फ चंचला द्वारा
दोनों को रंगे हाथ पकड़ने का रहस्य खोला बल्कि शमा होटल के मैनेजर से साक्ष्य भी
दिलाया, जहाँ वे दोनों कई बार पति-पत्नी के रूप में ठहरे थे।
यह सब जान कर तारा ने आत्महत्या कर ली। ऐसे सम्बन्धों का अंत ऐसा ही होता है।
इस तरह भगवानदास मोरवाल ने विभिन्न स्थितियों में
बलात्कार के पीछे की मानसिकता और उसे निर्मित करने वाली सामाजिक संरचना को
उद्घाटित करते हुए कुछ महत्वपूर्ण बिन्दुओं की ओर संकेत किया है। मूलतः
बलात्कार एक मानसिक विकृति की अवस्था में किया गया वह भयानक हिंसात्मक
कृत्य है, जिसमें काम-पिपासा के वशीभूत पुरुष अपनी सारी संवेदनशीलता
भुला कर पशुवत व्यवहार करता है। बल्लू ऐसा ही एक अपराधी चरित्र है जो पीड़िता
की इच्छा के विरुद्ध यह कार्य करता है और पीड़िता को शारीरिक और मानसिक
दोनों स्तरों पर चोट पहुँचाता है। यहाँ तक कि उसकी सामाजिक प्रतिष्ठा भी
दाँव पर लग जाती है। लेकिन जातिगत घृणा के कारण जानकी के साथ किया गया
दुष्कर्म या लड़कियों की इच्छा के विरुद्ध जातिगत श्रेष्ठता के अहंकार में
उनकी पसंद के लड़कों से विवाह न करना उस सामाजिक संरचना का परिणाम लगता है, जिसमें स्त्री की इच्छाओं का कोई मोल नहीं होता। जया
या अपराजिता इसी सामाजिक मानसिकता के शिकार चरित्र हैं। उपन्यासकार ने बार-बार
स्त्रीवादी चिंतकों के माध्यम से वैवाहिक जीवन में बलात्कार को अपराध की श्रेणी
में लाने के प्रश्न को भी उठाया है लेकिन वह यह उल्लेख भी करता है कि इससे
विवाह संस्था खतरे में पड़ कती है। इस लिए यह संभव नहीं लगता।
उपन्यासकार ने विवाह संबंधी कुछ अन्य
विसंगतियों को भी यहाँ उद्घाटित किया है। उसने हिन्दू कोड बिल के बारे में
हिन्दूवादियों के विचारों का उल्लेख किया है, जिनके अनुसार हिन्दू मैरिज एक्ट सबसे खतरनाक है
क्योंकि इसमें दूसरी जातियों में विवाह करने या तलाक़ लेने को क़ानूनी मान्यता दी
गयी है तथा एक से अधिक शादियों को जुर्म माना गया है। सज्जन सिंह के
कुल-पुरोहित सीधे प्रश्न उठाते हैं कि - ‘यह क्या बात हुई कि ये मुसलमान तो
रख लें सात-सात लुगाई और हम हिंदुओं पर इतनी पाबंदी कि दूसरी रखते ही हवालात।’
ऐसे प्रश्न भारतीय समाज में भी आमतौर पर उठते रहते
हैं। इस्लाम को मानने वालों द्वारा सुविधा के अनुसार कहीं शरई कानून मानना
तो कहीं भारतीय संवैधानिक या सरकारी क़ानूनों को मानना एक अन्य विसंगति है, जिसकी ओर अकसर प्रश्न उठाया जाता रहा है। ऐसा ही एक
द्वंद्व रुखसत बी और रहमत की बेटी समीना के निकाह के माध्यम से उठाया गया है।
इस्लाम में यदि निकाह के बाद कई वर्षों तक पति का कोई पता न चले तो भी स्त्री को
दूसरा निकाह करने का अधिकार नहीं है। शरई कानून के अनुसार यदि पहले शौहर
ने तलाक नहीं दिया है तो औरत का दूसरा निकाह नहीं हो सकता क्योंकि यदि पहला शौहर
उस स्त्री पर अपना दावा पेश करता है तो अधिकार पहले शौहर का ही होगा। समीना के साथ
भी कुछ ऐसा ही घटित होता है। निकाह के
बाद उसके पहले शौहर का लंबे समय तक कोई अता-पता नहीं रहता। अतः रुखसत बी और रहमत
उसका दूसरा निकाह करवाने का निश्चय करते हैं लेकिन बड़ी मस्जिद के मौलवी इरशाद
अली थानवी की बात का डर उन्हें बना रहता है। मौलवी साहब के अनुसार बिना तलाक के
यदि दूसरा निकाह हुआ और पहले शौहर ने बाद में समीना पर अपना दावा पेश किया तो उस
पर अधिकार पहले शौहर का ही होगा।
दुर्भाग्यवश समीना का दूसरा निकाह नाजिम से होने के बाद एक दिन
उसका पहला शौहर आसिफ उससे मिलने आ जाता है। रहमत और रुखसत बी उसके दूसरे
निकाह की सच्चाई बता कर अपना कुफ्र कबूल करते हैं लेकिन वह समीना को छोड़ना
नहीं चाहता, चाहे इसके लिए उसे शरई अदालत से ले कर सरकारी अदालत
तक कहीं भी जाना पड़े। वकील का नोटिस मिलने पर दूसरे दामाद नाजिम के साथ रहमत
वकील से मिलते हैं। वकील का साफ-साफ कहना है कि मुस्लिम विवाह विच्छेद अधिनियम के
अलावा किसी भी हालत में मुस्लिम विवाह रद्द नहीं किया जा सकता। अदालत से तलाक का
फैसला लिए बिना दूसरा निकाह जुर्म है। यद्यपि नाजिम मानता है कि इस क़ानून में औरत
की मर्जी या नामर्जी का
कोई मतलब ही नहीं रह जाता। सब मर्द के अख्तियार हो गया। औरत, औरत न रह कर जैसे अपने शौहर की जायदाद हो गई। 28 लेकिन वकील के अनुसार दफा 497 खत्म होने से औरत की मरजी को
सुप्रीम कोर्ट खत्म कर चुका है। पहले जहाँ कोई औरत अपने शौहर की रजामंदी के
बिना किसी गैर मर्द के साथ हमबिस्तर होने की हिमाकत करती थी और इस बात का पता उसके
शौहर को लग जाता था तो उस गैर मर्द को इस दफा के तहत सीधे पाँच साल की सजा होती थी, मगर सुप्रीम कोर्ट ने यह कह कर इसे खत्म कर दिया कि
जिनाह अपने आप में कोई जुर्म नहीं है क्योंकि औरत मर्द की जायदाद नहीं है। 29
इन्हीं कारणों से बृज नंदन ठाकुर भी रहमत को कानूनी
पचड़े में न पड़ कर आपसी सहमति से समझौता करने का सुझाव देते हैं। रहमत और
नाजिम शरई कानून के तहत समझौता करने की नीयत से दारुल क़जा में जा कर
मुफ्ती से सलाह लेते हैं किन्तु वह भी यही बताता है कि पहला शौहर तय मुद्दत
यानी चार साल से पहले वापस लौट आया है तो इस सूरत में उसका अपनी बीवी पर हक बनता
है। यह दूसरा निकाह शरीयत की नजर में पूरी तरह नाजायज है। अंत में नाजिम से फोन पर
तलाक ले कर समीना को उसके पहले शौहर आसिफ के साथ भेज दिया जाता है। इस तरह शरई
कानून और सरकारी अदालत दोनों में स्त्री की मर्जी का कोई मोल नहीं है।
इसी तरह इन्होंने कानूनविद अनिल जैन के माध्यम से यह
प्रश्न उठाया है कि धारा 497 व्यभिचार संबंधी मामलों में पति और पत्नी को समान अधिकार नहीं देती है। आपराधिक दंड संहिता की धारा 198 के अनुसार उक्त धारा 497 और 498 के अंतर्गत पीड़ित पक्ष हमेशा पति
माना जाता है। इन धाराओं के तहत शिकायत का अधिकार पति का होता है। इसके विपरीत पति
के व्यभिचारी होने की स्थिति में आपराधिक दंड संहिता की धारा 198 के अनुसार पत्नी को पति या उसकी
प्रेमिका के खिलाफ शिकायत तक करने का अधिकार
नहीं होता। उपन्यासकार ने यह संकेत किया है कि शादीशुदा औरत को भी यह
अधिकार मिलना चाहिए कि वह व्यभिचार में लिप्त अपने पति के खिलाफ शिकायत कर सके।
जिस दिन सुप्रीम कोर्ट पत्नियों को भी पति और उसकी ‘वो’ के खिलाफ व्यभिचार की शिकायत का
अधिकार दे देगी, उस दिन पितृसत्ता के लाडलों की सारी पोल
खुल जाएगी और तमाम स्त्री-देह व्यापार की दुकानों पर ताले लग जाएँगे। 30 इस तरह विवाह के अलग-अलग पहलुओं पर
विचार करते हुए इन्होंने स्त्री-पुरुष
समानता के संबंध में कुछ गंभीर सवाल उठाए हैं और यह सिद्ध किया है कि पुरुष प्रधान
समाज में कानूनी तौर पर भी स्त्री की इच्छा का कोई महत्व नहीं होता। ऐसी ही स्थितियाँ इस्लामिक शरई कानून में भी हैं।
वैवाहिक विषयों से ही जुड़ा स्त्री-जीवन का एक दर्दनाक
सच दहेज हत्या का भी है, जिसे रुखसत बी की छोटी बेटी नसीम
के माध्यम से उपन्यासकार ने व्यक्त किया है। मोटरसाइकिल की मांग कर रहे नसीम की
ससुराल वाले दहेज के लोभ में इतना क्रूर और अंधे हो जाते हैं कि मां बनने वाली
नसीम को जला कर उसकी हत्या कर देते हैं। यह सिर्फ नसीम की हत्या नहीं है बल्कि उस अजन्मे की भी
हत्या है जो इस दुनिया में आने से पहले ही खत्म हो गया। उच्चतम न्यायालय द्वारा उन्हें
उम्र कैद की सजा सुनाई जाती है मगर न्यायालय की प्रक्रिया में भी कभी-कभी कुछ
तत्व स्वार्थवश या लापरवाही के कारण अपराधियों के साथ नरमी बरतते हैं, जिससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है। अदालत का आदेश
निचली अदालत के लोग ‘सीन एंड
फाइल’ लिख कर रिकॉर्ड रूम में भेज देते हैं। अतः जिस निचली अदालत
की तरफ से लोगों के खिलाफ वारंट जारी होना चाहिए था, वहाँ तक फाइल पहुँचती ही नहीं। परिणामस्वरूप मुजरिम
खुले में घूमते रहते हैं। न्याय-व्यवस्था का यह
विद्रूप भारत में ही संभव है।
उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल ने बलात्कार जैसे
संवेदनशील विषय पर वर्तमान पत्रकारिता की भूमिका का यथार्थ भी उद्घाटित
किया है। इस उपन्यास के ही एक पात्र लालकृष्ण प्रपंची को लगता है कि आज पत्रकारिता का
अर्थ हो गया है कुछ सनसनीखेज खबरें। इसी कारण वह इसे एक टुच्चा पेशा मानता है। वह
कहता है कि ‘अब तो पत्रकारिता के नाम पर कोरी
भड़ुवागिरी रह गई है। इसीलिए हमारी कोई इज्जत भी नहीं करता है। कई बार तो मन करता
है कि किसी नुक्कड़ पर खोमचे का खोखा जमा लूँ। कम से कम इज्जत की दो रोटी तो मिलेगी।’ 31 सदानंद की पत्नी की मौत की घटना प्रपंची के अखबार
के लिए एक कॉलम की खबर हो सकती है लेकिन यही खबर एक कुख्यात राष्ट्रीय
न्यूज़ चैनल पर ‘100 साल बाद एक और फूलमणि हुई पति की हवस का शिकार’ शीर्षक के तहत बहस और विमर्श का बड़ा मुद्दा बन जाती है। स्टूडियो का तापमान बढ़ाने
वाली इस बहस में जहाँ बाल विवाह पर कुछ बेहद संवेदनशील प्रश्न उठाए जाते हैं, वहीं पत्रकारिता का एक घिनौना रूप भी सामने आता है। न्यूज़ चैनल का एंकर प्रश्न पूछता
है कि ‘क्या सदानंद जैसा बलात्कारी सचमुच
कठोर से कठोर दंड का अधिकारी है या बाल गंगाधर तिलक के मुताबिक यह सब उससे अनजाने में
हुआ? आप हमें अपनी राय एसएमएस कर के भेज सकते हैं। सबसे पहले एसएमएस करने
वाले भाग्यशाली विजेता को ‘दुल्हन वही जो पाठक जी दिलाएं’ की तरफ से एक गिफ्ट वाउचर दिया
जाएगा।’ 32 सस्ती लोकप्रियता के लिए खबर को सनसनीखेज बनाने का
यह प्रयास टीआरपी बढ़ाने में तो कारगर हो जाता है लेकिन ऐसी पत्रकारिता विषय
के प्रति कितनी संवेदनशील है, यह कहना बेहद कठिन हो जाता है।
उपन्यास के अंत में सदानंद जैसे अपराधी का पैरोल पर
छूट कर वापस न लौटना और सजा से बचने के लिए साधु बन जाना, कोई न्यायोचित रास्ता नहीं हो
सकता। अखाड़े के साधु के माध्यम से उपन्यासकार ने भारतीय समाज की यह सच्चाई भी
उजागर की है कि सजायाफ्ता अनेक अपराधी कानून से बच कर साधु बन जाते हैं लेकिन
सदानंद की जीवन से विरक्ति अपराधी
घोषित होने से उत्पन्न मानसिकता को व्यक्त करती है। वह जीवन भर अपराधी की पहचान लिए जीना नहीं
चाहता। इसीलिए वह ब्रज नंदन ठाकुर से कहता है – ‘जिस दिन मेरी पहचान उजागर हो गई, उसी दिन दुनिया छोड़ दूँगा। जिंदगी भर एक मुजरिम की पहचान ले कर जीने से
अच्छा है, अपने आप को खत्म कर लूंगा।' 33
इस तरह उपन्यासकार ने जानकी कुम्हारिन उर्फ साथिन, सज्जन सिंह, सदानंद, बलविंदर, रुबीना, जया, अपराजिता
तथा तारा और सात-आठ साल की बच्ची मुन्नी जैसे चरित्रों के माध्यम से बलात्कार और उससे जुड़ी अन्य
तमाम सामाजिक और कानूनी स्थितियों का पर्दाफाश करते हुए एक ऐसा कथा-जाल बुना है, जिसमें भारतीय समाज की सांस्कृतिक बुनावट की पेचीदगियाँ
उजागर हो गयी हैं। जातिगत उच्चता, पारिवारिक
प्रतिष्ठा एवं नैतिकता के नाम पर हर बार नारी को ही कटघरे में खड़ा किया जाता है। दैहिक-मानसिक
यातना झेलते हुए भी उसे ही दंडित होना पड़ता है। नारी संबंधी इन
स्थितियों के चित्रण द्वारा भारतीय पुरुष प्रधान मानसिकता वाले समाज का वह विद्रूप
चेहरा उजागर हुआ है, जहाँ स्त्री को न तो सामाजिक-सांस्कृतिक रूप में और न
ही कानूनी तौर पर कोई संरक्षण मिल पाता है। कानूनी तौर पर जहां सुरक्षा और
स्वतंत्रता मिल भी जाती है, वहाँ उसे व्यवहार में नहीं लाया जाता।
पारिवारिक धरातल पर भी जातिगत श्रेष्ठता और सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर उसकी
ही बलि चढ़ायी जाती है। तमाम जयाओं और अपराजिताओं का यही हाल होता है। ‘बेटी बचाओ’ के लाख नारे लगाए जाएँ लेकिन आज भी सात-आठ वर्ष की मुन्नी जैसी
तमाम निर्भयाएँ उस सामाजिक मानसिकता के बदलाव की प्रतीक्षा में हैं, जहाँ उन्हें अपने व्यक्तित्व के विकास का अवसर मिले और पारिवारिक सामाजिक सुरक्षा
प्राप्त हो।
संदर्भ :
1. अंतिम कवर पृष्ठ पर
2. वंचना, पृष्ठ 13; 3. वंचना, पृष्ठ 13
4. वही, पृष्ठ 158; 5. वही, पृष्ठ 29
6. वही, पृष्ठ 31; 7. वही, पृष्ठ 41
8. वही, पृष्ठ 42; 9. वही, पृष्ठ 156-157
10. वही, पृष्ठ 54; 11. वही, पृष्ठ 56
12. वही, पृष्ठ 57; 13. वही, पृष्ठ, 73
14. वही, पृष्ठ 86; 15. वही, पृष्ठ 94
16. वही, पृष्ठ 169; 17. वही, पृष्ठ 169
18. वही, पृष्ठ 170; 19. वही, पृष्ठ 226
20. वही, पृष्ठ 130; 21. वही, पृष्ठ 148
22. वही, पृष्ठ 148; 23. वही, पृष्ठ 202
24. वही, पृष्ठ 207; 25. वही, पृष्ठ 210
26. वही, पृष्ठ 185; 27. वही, पृष्ठ 62
28. वही, पृष्ठ 120; 29. वही, पृष्ठ 120
30. वही, पृष्ठ 161; 31. वही, पृष्ठ 19
32. वही, पृष्ठ 43; 33. वही, पृष्ठ 233
प्रकाशक :
राजकमल प्रकाशन प्रा. लि.
दरियागंज, नई दिल्ली
मूल्य : ₹ 695/- (हार्ड बाउंड)
₹ 295/- (पेपर बैक)
प्रथम संस्करण : नवंबर, 2019
पृष्ठ संख्या : 235
(के. जे. सोमैया कला एवं वाणिज्य
महाविद्यालय, मुंबई के पूर्व हिंदी विभागाध्यक्ष डॉ. सतीश पांडेय ने
लगभग 8 वर्षों तक 'सृजन संदर्भ' त्रैमासिकी का सफल संपादन किया। वर्तमान में
डॉ. सतीश पांडेय मुंबई से प्रकाशित 'समीचीन' पत्रिका के
संपादक हैं। सनद रहे 'समीचीन' का वर्षों तक वरिष्ठ कथाकार देवेश ठाकुर ने संपादन किया।)
सम्पर्क
सतीश पाण्डेय |
सम्पर्क
मोबाईल : 09820385705
बहुत उत्तम सर
जवाब देंहटाएंइतनी सारगर्भित समीक्षा पढ़कर निशब्द हूं। ऐसे संवेदनशील विषय पर गूढ़ लेखन और उस गूढता का सूक्ष्म विश्लेषण। हार्दिक साधूवाद आदरणीय 🙏😞
जवाब देंहटाएंमेरे लिए अति उपयोगी धन्यबाद सर 🙏🏻🙏🏻
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