बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी कविता के संवादधर्मी जन-सन्दर्भ'।
भारत की क्षेत्रीय बोलियों और भाषाओं में
प्रचुर साहित्य रचा जा चुका है और समकालीन रचनाकार उस समृद्ध परम्परा को लगातार
आगे बढ़ा रहे हैं। इनमें से कुछ तो विश्व साहित्य में अपना स्थान बनाने की
योग्यता रखते हैं। भोजपुरी भाषा पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में बोली
जाने वाली वह भाषा है जिसके बोलने वालों की संख्या काफी अधिक है। अलग बात है कि
भोजपुरी आज भी संवैधानिक भाषा का दर्जा प्राप्त करने के लिए जद्दोजहद कर रही है।
भोजपुरी में उत्कृष्ट लेखन की परम्परा रही है। भिखारी ठाकुर और हीरा डोम से शुरू हुई
यह परम्परा आज काफी समृद्ध दिखाई पड़ती है। भोजपुरी कविता के कुछ प्रमुख प्रतिनिधि
कवियों को ले कर बलभद्र ने एक आलेख लिखा है। बलभद्र खुद भी एक बेहतरीन भोजपुरी कवि हैं, जिनका हिन्दी कविता में भी अच्छा खासा दखल है। आलोचना
के क्षेत्र में भी उन्होंने कुछ महत्वपूर्ण काम किए हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत
है बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी कविता के संवादधर्मी जन-सन्दर्भ'।
भोजपुरी कविता के
संवादधर्मी जन-संदर्भ
बलभद्र
कबीर की कविता का एक
पक्ष 'कहत कबीर' का है तो दूसरा 'सुनो भाई साधो' का। 'सुनो भाई साधो' से ही 'कहत कबीर' की सार्थकता सम्भव
हुई है। कबीर के कहने में उनका देखना, सुनना और
गुनना
शामिल है और अपने देखे, सुने और गुने हुए को 'साधो' को सुनाना है कि साधो
भी अपने देखे, सुने और गुने को खुद सुने और 'साधो' को भी सुनाए। 'कागद लेखी' ही नहीं 'आँखिन देखी' भी। बल्कि आँखिन देखी
पर कबीर को पूरा भरोसा है। 'कागद लेखी' में तो बहुत झोल-झाल
है। 'साँच कहे तो मारन
धावे झूठ कहे पतियाये' को समझते हुए ही वे सच को कहते हैं। आधुनिक काल के कवि रमाकांत
द्विवेदी 'रमता' भी तो अपना सुनाते
हुए अपनों की बात सुनना जरूरी समझते हैं –
"काहे
फरके-फरके बानीं, रउरो आईं जी
हमार
सुनीं, कुछ
आपनो सुनाईं जी।"
रमता जी जिनसे
बोलना-बतियाना चाहते हैं, जिनको सुनाना चाहते हैं और जिनका सुनना चाहते हैं वे वे लोग हैं जिनसे वे
यह कहना जरूरी समझते हैं कि अगर अब भी न चेत हुआ तो-
"जवन
साँसत अबहीं होता, का का भोगिहें नाती-पोता
एह पर
रउरो तनि गौर फरमाईं जी।"
रमाकांत द्विवेदी 'रमता' |
कबीर से ले कर रमता जी
तक और उससे भी आगे गोरख पांडेय, विजेन्द्र अनिल, दुर्गेन्द्र अकारी तक
भोजपुरी कविता की यह जन-जीवनधर्मी संवादधर्मिता अक्षुण्ण है। शिवकुमार पराग, प्रकाश उदय, आसिफ रोहतासवी, सुमन कुमार सिंह जैसे
आज के कई कवि हैं जो इस दिशा में उल्लेखनीय कार्य कर रहे हैं।
जन-जीवन में श्रम का
विशेष महत्व है। यहाँ के श्रम का स्वरूप
और संकल्प व्यक्तिगत से अधिक सामूहिक है। भोजपुरी कविता जन-जीवन के श्रम, संघर्ष और उसकी
सामूहिक प्रकृति और संस्कृति के अनुरूप संवादधर्मी है। जीवन अपने आप में और अपने आप से भी
एक संवाद है - एक सतत अनिवार्य संवाद। जीवन बहुआयामी है और उसकी बहुआयामिता जीवनगत
संवादों में अभिव्यक्त होती है। ये संवाद सम्बन्धारित भी हैं। संवादों में
सम्बन्धों की विविधता और पारस्परिकता सहज ही देखी जा सकती है। भोजपुरी कविता इस
विविधता और पारस्परिकता से जुड़ कर ही भोजपुरी की हुई है।
भोजपुरी के पास
भिखारी ठाकुर हैं। भिखारी ठाकुर ने जगत-व्यवहारों को अपनी आँखों देखा और सामंती नैतिकताओं
की अमानवीयता को उजागर किया। भिखारी ठाकुर
एक लोक नाटककार थे, पर, उनके नाटक गीतों से अटे-पटे हैं। गीत हटा दीजिए तो नाटक हट जाएँगे। 'विदेसिया' और 'गबरघिंचोड़' उनके मशहूर नाटक हैं। ये दोनों नाटक एक से एक गीतों
से भरे हैं। वे अपने नाटकों के जरिए आम-जन
से सीधा संवाद कायम करते थे और समाज की बद्धमूल धारणाओं और नैतिकताओं पर चोट करते थे। उन्होंने एक ऐसी
अभिव्यक्ति-भाषा और शैली की खोज की जिसके जरिए जन-मन को गुदगुदाते हुए अपनी बात
बखूबी कही जा सके। भिखारी ने बातों और जज्बातों से भरी, पर किन्हीं दबावों के
कारण चुप रहने वाली आम स्त्री को बोलते हुई दिखलाया है। केवल विलाप करती हुई नहीं, न्याय की फ़रियाद करती हुई भी। साथ ही जो
तथाकथित मर्दवादी समझ है उसका मजाक उड़ाती हुई भी दिखाई देती है। हीरा डोम को कोई चाहे तो यहीं पर
देख ले। 'अछूत की शिकायत' सुन ले। शिकायत यह कि आदमी हो कर भी आदमी वाला
मान-सम्मान उसे क्यों नहीं मिला। वह तथाकथित श्रेष्ठ जातियों के धतकर्मों का जिक्र
करता है, जिनको समाज धतकर्म नहीं मानता और उन धतकर्मों से अलग होने के
बावजूद वह अछूत है। वह इस समझ पर प्रश्न
करता है। तथाकथित महान भारत और भारतीय संस्कृति के भीतर का यह सच है और प्रश्न यह
है कि क्या इन जटिलताओं के रहते हुए भी कोई देश महान हो सकता है? रघुवीर नारायण का
प्रसिद्ध गीत 'बटोहिया' लगभग इसी काल खंड की
रचना है। यह भारत के
गौरवमयी सांस्कृतिक अतीत का गीत है। दोनों को यदि एक साथ पढ़ा जाए तो बड़ी विरोधाभासी स्थिति दिखाई
देती है। दलित और सवर्ण - दो भिन्न दृष्टियों से भारत के समाज, संस्कृति और इतिहास
को समझा जा सकता है। उसके गौरवमयी अतीत के
निहितार्थों को समझा जा सकता है। सवर्ण सामंती समाज का सांस्कृतिक वैभव और उल्लास दलितों-वंचितों के शोषण-उत्पीड़न और
पराभव पर टिका हुआ है। रमता जी
का एक गीत है 'गरीबी का दुख'। यह 1957 का लिखा गीत है। आजादी के दस साल बाद लिखते हैं –
"हमनी गरीबवन के दुखवा अपार बा
पेवन प
पेवन साटल, गुदरी पुरान-फाटल
आधा
देह तोपल, आधा
जाड़ो में उघार बा
ढहल-ढूहल
माटी बाटे, टूटल-टाटल
टाटी बाटे
ईहे
घर-आँगन, चाहे
बइठे के दुआर बा।"
भोजपुरी में
संवाद-गीत खूब लिखे गए हैं। लोक-साहित्य में भी इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। यहाँ
हम रमता जी के 'हरवाह-बटोही संवाद' की चर्चा जरूरी समझते हैं। हालाँकि इसकी
चर्चा हमने कई बार की है। यह
ध्यान
देने की बात है कि रमता जी भोजपुरी कविता की क्रांतिकारी जनवादी धारा के बहुत गम्भीर
और महत्वपूर्ण कवि थे और यह रचना इस अर्थ में काफी महत्वपूर्ण है कि इसमें किसानों के
कठिन-कठोर श्रम और उनकी गरीबी और लाचारी से बात शुरू हुई है और अपने जद में भारत
की राजनीति और सत्ता-व्यवस्था को ले लेती है। इस कविता-गीत का बटोही आत्मचेतस है। कड़क
घाम में हल जोतते हलवाहे से संवाद की पहल बटोही ही करता है। यहाँ हलवाहा की एक
स्थिति है और बटोही उस स्थिति के मर्म को न केवल बूझने वाला बल्कि उसका आलोचक है। नब्ज
पर हाथ रख देने वाला। वह
हलवाहे से उसकी ही स्थिति पर पूरे अपनेपन के साथ बात करता है। अपनी बात कहने के लिए भरपूर जगह
बनाता है क्योंकि वह समझ रहा है कि कहना बहुत जरूरी है। उसे जो कहना है, उस तरह कहना है कि अगला सुनने को भी
तैयार रहे। बातचीत के क्रम
में इसीलिए तो वह हलवाहे को 'भइया हरवहवा' कहता है।
यह कविता घर अथवा घरेलू वातावरण में नहीं, खेत में घटित होती है, जहाँ 'आगि लेखा बरिसेला घाम'। घाम में हल जोतते हलवाहे को और उसके तन से चूते पसीने को भी बटोही देखता है और तनिक आराम करने का निवेदन करता है –
"हरवा जोतत बाड़े भइया हरवहवा कि आगि लेखा बरिसेला घाम
तर तर
चूवेला पसेनवा रे भइया कि तनिएसा करिले आराम।"
पर, हलवाहे पर इस निवेदन
का तुरत असर नहीं होता। यह घाम और पसीना
तो उसके रोज में शामिल है। आराम
के
निवेदन के जितने तर्क हैं, वे बटोही के हैं, हलवाहे के नहीं। उसके
हिस्से में तो हल जोतना है। उसको अपना काम करना है। वह बटोही को श्रम की महिमा
के बारे में बताता है। लेकिन, बटोही उसके कठिन-कठोर श्रम और कुल जमा हासिल (सुख-भाग) के बीच
के फासले को बताता है। वह उसके श्रम की
महत्ता को स्वीकार करते हुए इस त्रासद सच को बताए बिना नहीं रहता कि कठिन श्रम के
बावजूद वह जीवन की न्यूनतम सुविधाओं से भी वंचित है। भरपेट भोजन भी मुहैय्या नहीं।
विपरीत हालात में कठिन मेहनत और अन्न के अभाव में शरीर ठठरी में बदल गया है, ठठरी का चाम झूल गया
है। बटोही उसे 'करमजरुवा' तक कह देता है और
हलवाहा इसका जरा भी बुरा नहीं मानता है। ऐसा कोई चलताऊ तरीके से कहता तो वो काहे को
उसकी बात सुनता। उलटा-पुलटा कुछ सुना देता अथवा टका सा जवाब दे देता। यहाँ इतने के
बाद हलवाहा जैसे एकदम फट-सा
जाता
है। वह अपनी बदहाली के बारे में खुद कह उठता है और शोषण पर आधारित देस की इस रीति पर झुँझला उठता है –
"हरवा जोतत मोरि जिनिगी सिरइली कि हरवा से नान्हे के पिरीत
भरि
छुधा जिनिगी में कहियो ना खइलीं कि इहे तोरा देसवा के रीति।"
बटोही अपने मकसद में
कामयाब हुआ दिख रहा है। हलवाहा अपनी बदहाली
का बयान जारी रखता है। यही तो बटोही का लक्ष्य था। यही तो रमता जी चाहते थे। हलवाहा आगे कहता है –
"खेतवा में बोईं ले जे बारहो बिरिहिनी कि लागेला जम्हार लेखा चास
कवना
करमवा के चूक भइया हितवा,
कि बाले-बचे सूतीं ले उपास।"
एक सधे वाम राजनीतिक
ऐक्टिविस्ट की तरह रमता जी इस कविता में जन प्रशिक्षण के एजेंडे के साथ हैं। एक जन
प्रशिक्षक की भाषा और व्यवहार
जैसा
होना चाहिए, रमता जी बटोही के रूप
में उस अपेक्षा पर पूरापूरी खरे उतरते
हैं। हृदय तल की गहराई में उतर कर जन को कन्वीन्स करती हुई भाषा का यह बेहतरीन
उदाहरण है। हलवाहा कुल तीन बंदों में अपनी स्थिति का बयान करता है। उसके बाद बटोही के बोलने की बारी
आती है तो वो देश के राज-काज पर प्रकाश डालता है-
"देसवा के नाँव लेले भइया हरवहवा, कि देसवा में बड़का के राज
हमनी
का भइलीं रामा गुलर के पिलुआ कि बड़का भइलें दगाबाज।"
यहाँ 'बड़का के राज' और उसकी दगाबाजी पर अलग से कुछ कहने की जरूरत नहीं है। रमता जी अन्ततः इस निष्कर्ष पर पूरी बात ले आते
हैं कि राजनीतिक चेतना, उस चेतना के अनुरूप
संगठन और हस्तक्षेप के बिना बदलाव सम्भव
नहीं है। अंत आते-आते बात 'हम' (एकवचन) से 'हमनी' (बहुवचन) पर आ जाती है। मतलब यह कि बटोही और हलवाहा दोनों
एक हैं, दोनों की हालत एक जैसी है। बदलाव की जरूरत दोनों को है। भाषा
के इस अद्भुत प्रयोग को समझने की जरूरत है। यह एक कारगर राजनीतिक हस्तक्षेप की
कविता है। रमता जी का अभी तक एक ही कविता-संग्रह
प्रकाशित है जिसका नाम है 'हमार सुनीं'। उनकी अधिकांश कविताएँ अप्रकाशित हैं।
दुर्गेन्द्र अकारी |
दुर्गेन्द्र अकारी भी
भोजपुरी की क्रांतिकारी धारा
के
कवि थे। ये भी रमता जी की तरह सी. पी. आई.- एम. एल. से जुड़े हए थे। ये दोनों ऐसे कवि थे जो साहित्यिक समारोहों या
कार्यक्रमों में नहीं के बराबर देखे जाते
थे। अकारी जी तो कवि की तरह बिल्कुल ही नहीं दिखते थे। वे कविता पर कभी बात भी नहीं करते थे। पार्टी के हर
प्रोग्राम में वे अनिवार्य रूप से शामिल होते थे। भोजपुर की क्रांतिकारी जमीन के
वे ऐसे कवि थे जिनकी कविताओं में वहां के संघर्षों का जीवंत इतिहास दर्ज है। उनकी
कविताओं में संघर्ष और आंदोलन के एजेंडे, नारे और तल्खियाँ
हैं। उनके बारे में रमता जी ने लिखा है
- "कवि स्वयं शोषित-उत्पीड़ित समुदाय - छोटे खेमे, पिछड़ी जाति के सदस्य हैं, और इन्होंने शोषण-उत्पीड़न को काफी हद तक
झेला है, साथ ही ये
शोषण-उत्पीड़न
के खिलाफ संघर्ष करते रहे हैं। इसीलिए कवि के गीतों में शोषण-उत्पीड़न और उसके
खिलाफ के चित्र सजीव रूप में मिलते हैं।" अकारी जी के गीत-संग्रह 'मुकाबला' की भूमिका का यह
उपर्युक्त अंश है। अब न अकारी जी हैं और न रमता जी। दोनों का देहांत हो चुका है। पर, यह भूमिका इस रूप में
काफी महत्व की है कि
भोजपुर की जमीन और क्रांतिकारी धारा का एक कवि उसी जमीन और उसी धारा के एक कवि की कविताओं पर अपनी
राय कह रहा है। इस संग्रह का पहला गीत
है 'आह्वान'। यह कैसा आह्वान है और इसकी भाषा कैसी
है, देखें –
"चाहे कुछ भी करो, मुझे बमे ना मारो
मगर
तुझको हटा कर दमे दम लूँगा
चाहे
जान जाए, मेरा
प्राण जाए।
हई
बरियारी हमें तनी सहाता
केकर ह
कमाई, कवन
बइठल-बइठल खाता
तुझे
खाने न दूँगा, मैं
क्यूँ भूखे रहूँगा?
मगर
तुझको हटा कर दमे दम लूँगा
चाहे
जान जाए मेरा प्राण जाए।
सही-सही
बात खातिर लागल बाटे झगड़ा
केकर ह
जमीन, कवन
आके कोड़े गबड़ा
ऐसा
करने ना दूँगा, चाहे
जो भी होखे ना।"
इस तरह का संकल्प और
ऐसी भाषा और कहाँ मिलेगी अकारी को छोड़
कर। इसी गीत में आगे लिखते हैं-
"मुझे
जेले ना राखो, चाहे सेले ना राखो।"
इनकी भाषा के बारे
में रमता जी लिखते हैं- "अकारी बिलकुल अपढ़ हैं। इनके गीतों की भाषा आम तौर पर भोजपुरी और खड़ी
बोली का मिश्रण है। इनकी खड़ी बोली व्याकरण
की कसौटी पर खरी नहीं उतरेगी; फिर भी अकारी के कंठ-स्वर में गीत के भाव श्रोता के मन में गहरे उतर जाते
हैं।" अकारी के दो गीत विशेष रूप से ध्यान आकृष्ट करते हैं। पहला गीत है 'आतंकित जन' और दूसरा है 'बतावs काका'। ये दोनों 'मुकाबला' संग्रह में हैं। ये दोनों उनके दूसरे
संग्रह 'चाहे जान जाए' में भी शामिल हैं। 'आतंकित जन' में आतंकित भूमिहीन
खेत मजदूर हैं। उनका फरियादी स्वर सुनिए –
"कहवाँ
ले कहीं हम बिपतिया ए हाकिम
चढ़ते
आषाढ़ में हरवा चलवलीं
चउरा
के बन हम कबहूँ ना पवलीं
जउवे आ
खेंसारी से पिरितिया ए हाकिम।
सावन
भदउवा में कइलीं कदउवा
आधा
बनि राखि मालिक आधा देलन जउवा
कहतो
में फाटतारी छतिया ए हाकिम।"
जुल्म की इम्तहाँ
देखिए –
"एही रे समइया मालिक अइलें मोरे घरवा
कहलीं
दुख के बात कइले ना बिचरवा
बहुते
कइलें फजिहतिया ए हाकिम।
बतिया
के मारि थपरा चलवलें
लाठी
के शिकार हमार देहिया बनवलें
धई के
पछड़लें धरतिया ए हाकिम।
कइसे
बाँची हमनी के इजतिया ए हाकिम।"
तो यह है यह
खेत-मजदूर का दुख भरा फरियादी स्वर। अकारी के गीतों में खेत-मजदूरों के शोषण-उत्पीड़न की
प्रामाणिक तसवीरें हैं। खेती-किसानी की जो सामंती रीति-नीति थी, जो सिस्टम 1990-95
तक, वो उन पर बहुत भारी
पड़ती थी। असालतन (साल भर के लिए) बनिहारों के लिए 'कोला' और 'बनि' का सिस्टम हुआ करता
था। 'कोला' के रूप में एक बीघा खेत और 'बनि' के रूप में कचिया दो
सेर अनाज प्रति कार्य दिवस तय हुआ करता था। कचिया दो सेर पकिया सवा सेर के
बराबर होता था। तब किलो वाला बटखरा नहीं होता था। अनाज के रूप में मालिक जो दे वही
लेना होता था। बनिहारों को बढ़िया अनाज शायद ही कहीं मिल पाता था। खंखड़ी - पइया, जौ, खेंसारी यही सब
बनिहारों के हिस्से में आते
थे। फसलों की कटाई की रेट कुछ इस तरह हुआ करती थी। कहीं-कहीं 'सोरह' (सोलह) बोझ में एक तो किसी इलाके में
सतरह में एक। बीस-इक्कीस में
भी एक की रेट थी कहीं-कहीं। काटने वाले बनिहारों को इतने में एक बोझ मिलता था। सूखा सूखी। मतलब
नाश्ता-पानी कुछ नहीं। सारा बोझ मालिक के खलिहान में पहुँचा कर तब अपने बनि का
बोझ पाते थे। आज की तारीख में यह इतिहास
की तरह लगेगा, पर, यह हमारे निकट का इतिहास है। अकारी इसकी तसवीर इस रूप में पेश करते हैं –
"काटि-काटि धानवा ले अइलीं खरिहनवा
बदले
नजरिया गुदारत बनवा
बनि-पनि
पियउवा दिहत मन तूरी।
दवनी-ओसवनी
चहुँपवलीं मकानवा
भरी-भरी
कोठिया डेहरिया अँगनवा
तवना प
देला बन खँखड़ी आ धूरी।"
सामंती उत्पादन-सम्बन्ध का ऐसा प्रामाणिक चित्रण शायद ही कहीं मिले। अकारी यह समझते हैं कि जालिम जमीदारों के हाथ में ही पुलिस, कोर्ट-कचहरी है –
"जालिम जमींदारवा बड़ा हतेयारा
पुलिस-मलेटरी
से लेवे सहारा
हमनी प
करे अतेयाचार हो भइया
हमनीं
के कहाँ सरकार।
कोट-कचहरी
थाना-मुख्यालय
अन्यायी
के बात ना टाले
तू हो
गइलs निसहार
हो भइया
हमनी
के कहाँ सरकार।"
अकारी जी का एक बहुत
प्रसिद्ध गीत है 'बतावs काका'। इस गीत पर कुछ कहने से पहले यह सोचना चाहूँगा कि उनके गीतों
में जो 'हाकिम', 'भइया' और 'काका' आते हैं वो आखिर
क्यों आते हैं? तो, मुझे तो यह लग रहा है कि ये जन से सीधा संवाद के लिए आते हैं। इनके
जरिए वे एक नाटकीयता रचते हैं। एक ऐक्टिविस्ट को जो करना होता है वो काम करते हैं।
'बतावs काका' सुनते ही लोग बात
सुनने को तैयार हो जाते हैं। इस गीत में अकारी एकदम ठेठ अंदाज में इस वास्तविकता
को उजागर करते हैं कि इस देश में परेशान कोई एक नहीं है। तबाह, बर्बाद कोई एक नहीं है। फिर भी इस बात
को लोग महसूस नहीं कर रहे हैं। भारत की जाति-व्यवस्था और उसके देशज
अंतर्विरोधों की ऐसी व्यंग्यात्मक प्रस्तुति हुई है कि एक गुदगुदी के साथ एक एक
बात खुलती जाती है। बड़ी जातियों से छोटी जातियाँ हलकान हैं। तथाकथित छोटी
जातियों से दलित परेशान हैं। कमजोर दबंगों से और दबंग जातियाँ डकैतों से। पूरा एक
रूपक तैयार करते हैं –
"तेलिया के गड़िया के निकलल बा चाका
बतावs काका
कहँवा के चोर घुसल जाता।"
यह प्रश्न विचारणीय है कि चोर कौन और कहाँ का है। वह कहाँ-कहाँ क्या-क्या लूट रहा है? देश की तमाम संस्थाएँ तो हैं, ढाँचा भर ही बची हुई हैं, सत का हरण हो गया है-
"बढ़ई लोहार धोबी रोपले बा आलू कोबी
पेड़
पत्ता खड़ा ओकर फलवे नपाता।"
इस गीत को बिहार सहित
देश की कई नाट्य-गायन टीमों ने थोड़ा काट-छाँट कर अपने-अपने तरीके से गाया है। कई
नाच-बाजा वालों ने भी इसे गाया है। अकारी के गीतों में जनता के संघर्षों की भी
तसवीरें हैं। लड़ती हुई जनता की, शहीद होती जनता की। उनको
कायदे से पढ़ने की जरूरत है। उनके समग्र गीतों का संकलन आना चाहिए।
गोरख पांडेय |
गोरख पांडेय के
भोजपुरी गीत भी काफी लोकप्रिय हैं। उनका सबसे लंबा गीत है 'मेहनत का बारहमासा'। गोरख ने बारहमासा के कांसेप्ट को ही
बदल दिया है। वियोग-वर्णन
की जगह श्रम और संघर्ष को ला दिया है। यह पारम्परिक काव्य-रूप यहाँ नया रूप और तेवर हासिल
करता है। इसमें पति-पत्नी के संवाद हैं।
दोनों के संवादों में गरीब परिवार के दुःख, श्रम, परिवेश से सघन आत्मीय लगाव, शोषण-उत्पीड़न की समझ
और उससे मुक्ति हेतु संघर्ष के संकल्प के स्वर हैं। पत्नी कहती है-
"हमरे सुगना के ले गइल बुखार सजना
नाहीं
दवा-दारू नाहीं उपचार सजना।"
पत्नी के संवादों में घर की माली हालत का जिक्र है। दीया-बाती-तेल बिना अंधकार में डूबा उसका घर है और जमींदार का जगमग घर-पिछुआर है। उसका श्रमशील रूप दिखाई देता है। श्रम की स्थितियाँ दिखाई देती हैं। उसके प्रति मालिकों का जो व्यवहार है, उनकी जो कुदृष्टि है, वो सब। पति राजनीतिक रूप से सचेत है। वह जानता है कि जमींदार और पूँजीपति ही देश की राजनीति को प्रभावित करते हैं। जमीन और कल-कारखाने उन्हीं के हैं। देश का सब कुछ उनके ही नियंत्रण में है। जनमुक्ति इनसे लड़े बिना संभव नहीं- "इनसे निपटे के एक रस्ता मार सजनी।" इस गीत में बात निजी संदर्भों से शुरू होती है और राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय राजनीति तक पहुँचती है। रूस-अमेरिका तक। नक्सलवादी आंदोलन की वैचारिकी की अनूठी गीतात्मक प्रस्तुति इस बारहमासा में हुई है। गोरख का एक और गीत है - 'कइसे चलेलें सुरुज चनरमा'। इसमें भी पति-पत्नी के आत्मीय संवाद हैं। यह अपेक्षाकृत छोटा किंतु मर्मस्पर्शी गीत है। इसमें धरती के बनने से ले कर नेह के लगने तक की बात है। पत्नी प्रश्न करती है और पति उत्तर देता है।
विजेंद्र अनिल के गीत
भी जनांदोलनों के कंठहार हैं।
'कबले रहे के
मुँह ताका
बलमू
लेलs ललका
पताका हो',
'राउर
शासन के नइखे जबाब भाई जी
रउवा
कुरुसी से झरेला गुलाब भाई जी',
'हम
तोसे पूछींला जुलुमी सिपहिया बता दे हमके ना
काहे
गोलिया चलवले बता दे हमके ना',
'केकरा
से करीं हम अरजिया
हो सगरे बंटमार'
जैसे अनेक गीत विजेंद्र अनिल के हैं। भोजपुरी
में उन्होंने गजलें भी लिखीं हैं। उनका एक गीत है जिसकी तरफ लोगों का कम ध्यान गया है। वह गीत है 'पिया चलs अब रहींजा शहरिये में।' पत्नी अपने पति से शहर चल कर रहने को कह
रही है। वह शहर के आकर्षण में शहर नहीं जाना चाहती है। गाँव के सामंती उत्पीड़न से आजिज आ कर शहर
जाने और रहने को कह रही है - "जिनिगी बीत जाई इहाँ गोड़धरिये में।' वह महसूस करती है कि
गाँव में उसका अकेले रह पाना मुश्किल है। गाँव में अब कोई देखनिहार नहीं रह गया
है। काम-धाम के अवसर सिमटते जा रहे हैं। जीवन और सुरक्षा के पारम्परिक जो साधन हैं, सब शासकवर्गीय
कुचक्रों के शिकार हैं –
"पड़ीं कबो जे बेमार नइखे केहू देखनिहार
लपटाइल
बाटे साँपवा लउरिये में।"
प्रकाश उदय |
संवाद-गीत के रूप में
प्रकाश उदय के 'रोपनी के रँउदल
देहिया' का जिक्र भी जरूरी है। इसमें भी पति-पत्नी के
संवाद हैं। इस गीत में दोनों खेत में काम करने वाले हैं। पत्नी धान रोप कर साँझ
को घर आती है और पति हल जोत कर। दोनों थके-माँदे हैं। दोनों को साँझ होते ही
नींद आने लगती है। दोनों एक-दूसरे से सो जाने पर जगा लेने का निवेदन करते हैं। पूरा
गीत इसी निवेदन का है। पर, इतना ही नहीं है। दोनों
अपनी-अपनी व्यस्तताओं का जिक्र करते हैं। दोनों के जिम्मे घर से बाहर तक की अनेक व्यस्तताएँ
हैं। वे व्यस्तताएँ फिजूल की नहीं हैं।
जिम्मेदारी भरी हैं। गीत इस तरह शुरू होता है-
"आहो आहो
रोपनी
के रँउदल देहिया साँझहिं निनाला
तनि
जगइहs पिया
जनि
छोड़ि के सुतलके सूति जइहs
पिया।"
इसी तरह का निवेदन पति का है। फर्क इतना भर है कि 'हर के हकासल' है उसकी देह। इस गीत में खेत-बधार से ले कर चुल्हा-चउका, देवर, ननद और भाई-भउजाई सब आते हैं। मतलब कि एक संयुक्त परिवार है और इस परिवार में एक श्रमशील दंपति को निजी संदर्भो के लिए स्पेस की कमी हो जा रही है। प्रेम और मान-मनुहार के लिए समय ही नहीं मिल पाता। और यदि मिल भी जाता है कभी, तो कल की चिंताएँ नींद हराम कर देती हैं-
"आहो आहो
काल्हु
के फिकिरिए निनिया
उड़ि
जाए जो आँखिन किरिया
आइ के
पलकन के भिरिया
सपनन
में अझुरइहs सझुरइहs पिया।"
यह गीत ग्रामीण निम्न
मध्यवर्गीय परिवेश का है। पति-पत्नी श्रम में साझीदार हैं। ध्यान देने की बात है
कि पत्नी रोपनी करती है और पति
हल
जोतता है। इस रोपनी के अलावे भी पत्नी का क्षेत्र 'चुल्हा से चउकिया तक' है और पति का 'खेत से बधरिया तक'। दोनों ही इसका जिक्र करते हैं। लगता
है कि पत्नी खेत में खास
मौके पर ही काम करती है। उसकी जो माँग है या चाहत और पति की भी, और उसकी अभिव्यक्ति - मध्यवर्गीय संस्कार और मानसिकता के
अनुरूप है। इस परिवेश और
मन-मिजाज की यह अनूठी गीतात्मक प्रस्तुति है। इसे खूब लोकप्रियता भी मिली है।
भोजपुरी के
संवादधर्मी गीतों के ऐसे अनेक
गम्भीर
व सार्थक जन-संदर्भ हैं। बावला जी, शिवकुमार पराग, आसिफ रोहतासवी, आनंद संधिदूत, पी चंद्रविनोद आदि के
गीतों और कविताओं को भी इस लिहाज से पढ़ने-समझने
की जरूरत है।
सम्पर्क
बलभद्र,
गिरिडीह कॉलेज,
गिरिडीह- 815302 (झारखंड)।
मो. 8127291103 , 9801326311.
सुन्दर प्रस्तुति
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