राहुल राजेश का कथा रिपोर्ताज 'अथ : खेती कथा'।
कोरोना महामारी के चलते बड़े शहरों से
मजदूरों का गाँवों की तरफ जो पलायन शुरू हुआ, वह अच्छी खासी चर्चा में रहा। कहा जा
रहा है कि आज़ादी के बाद का यह दूसरा खौफनाक मंजर है जब एक साथ इतनी संख्या में लोग
अपनी जमीन, अपने घर की तरफ माइग्रेट कर रहे हों। मजदूरों
के शहर छोड़ने का सिलसिला कमोबेश आज भी जारी है। इसमें कोई दो राय नहीं कि शहरी
औद्योगिकीकरण ने इन मजदूरों के लिए रोजगार के असीम अवसर उपलब्ध कराए और इन मजदूरों
के जीवन स्तर में काफी सुधार आया। लेकिन इसका एक दूसरा पहलू यह भी था कि रोजी रोटी
के क्रम में मजदूरों के शहर पलायन के क्रम में गाँव के गाँव वीरान पड़ते चले गए।
गाँवों की खेती बाड़ी पर इसका प्रतिकूल असर पड़ा। गांवों में बचे मजदूर मनरेगा में
लग गए। अब वे अपनी शर्तों पर काम के लिए खेतिहर लोगों से मोल भाव करने लगे। खेतिहर लोगों के खेत बिन जोते
बोए रहने लगे। गांवों में लेबर प्रॉब्लम एक बड़ी समस्या
बन गयी। खेती
कराना अब उनके लिये मुश्किल काम लगने लगा। कवि राहुल राजेश ने इसी पक्ष को ले कर
एक कथा-रिपोर्ताज लिखा है। पहली बार पर प्रस्तुत है राहुल राजेश का कथा रिपोर्ताज 'अथ : खेती कथा'।
अथ : खेती
कथा
राहुल
राजेश
हमारे गाँव-घर में खेती-बारी करने-कराने
वाले किसी से भी पूछ लीजिए- "खेती काहे बैठ गया हो?" सबका एक ही जवाब होगा- "का
करें, कैसे कराएँ? लेबरे नहीं मिलता
है!" "कहाँ गया लेबर सब?"
"वही नरेगा-मनरेगा में! नहीं त दिल्ली, अहमदाबाद,
सूरत, बंबई! आज काल त सब्भे बंगाल आर पंजाब
भाग जाता है!!"
हमारे यहाँ मने दुमका में और कमोबेश पूरे
झारखंड में ई "लेबर प्रोब्लेम" बहुत बिकट है। खेती-बारी कराना जब्बर मुश्किल
हो गया है। आज से नहीं। बीस-तीस साल पहिले से! हाथ-गोड़ जोड़िए त कोई तैयार होगा!
डेढ़ा पइसा माँगेगा! जलखई और दुपहरिया का भरपेट्टा भात अलग से। और ठीक जखनी
जोताई-कटाई का काम माथा पर रहेगा, तखनिए सब लेबर भाग जाएगा! खेत में पानी बह जाएगा, लेकिन धान रोपनी शुरू भी नहीं होगा!! बहुत हाथ-गोड़ जोड़िएगा, दस बार दुआर पर माथा रगड़िएगा त हिलते-डोलते आएगा! आप हार-पार के अपना मन
मसोस के रह जाइएगा! सबका खेत रोपा गया, हमरा त अभी बिचड़ा भी
नहीं पराया है हो!
आप कहिएगा, मनरेगा में होतना पइसा मिलता है, आर आप एतने पइसा में पूरा 'चास' करवा लीजिएगा? त सुन लीजिए, "बंटईया" में भी पूरा खेत दे दीजिए, आधा क्या,
टका में बारअ आना भी उसको दे दीजिए! यूरिया-डीजल का दाम भी अलग से
दे दीजिए! तबहो नहीं जोतेगा आपका खेत!! थोड़ा नरमिए से पूछिएगा- "कका,
काहे हो? ई बच्छर की भेलो?" त दो टूक जवाब मिलेगा- "ई बच्छर नाय मन छो।" खूब पुचकार के
पूछिएगा तो सोज्झा जवाब मिलेगा- "असाम जाबो!"
***
जब से होश संभाला है, तब से ही हर साल पापा को अपना माथा पीटते
देखा है। खेती करवाना कोई खेल नहीं। मुनिश का खुशामद करते दिन जाता है!
सामंत-महाजन सब साहित्य में ही दिखा! असल जिनगी में तो हेतना-होतना बीघा जमीन वाले
हमारे दादा जी जिनगी भर गाँव के मुनिश-मजूरों के सामने रिरियाते ही रहे! और दादा
जी के बाद दादी रिरियाती रही। पापा रिरियाते रहे। अब तक रिरिया रहे हैं! पता नहीं,
किस गाँव-घर में मजूरों को कोड़ों से पीटा जाता था? पता नहीं, किस प्रांत में गरीबों का खेत हड़प लिया
जाता था? पता नहीं, कहाँ जमीनदारों की
दबंगई चलती थी?
हम तो यही सुनते आए कि हमारे ही खेतों में
दूसरों ने दबिश कर रखी है! दादा केस-फरियाद करते और फरियाते ही रह गए! रत्ती भर
जमीन वापस नहीं ले सके! कई बार उकता कर सबको यही कहते सुना कि साला, मन त करता है कि सब कुछ बेच-बाच के कहीं
चल जाएँ! पर उहो करना मोसकिल था! संताल परगना में अपना खेत बेचना भी भारी जपाल काम
है! यह गोतियारी का घरौआ झगड़ा तो था नहीं! फिर लगता था, पाई-पाई
जोड़के खेत जोड़े हैं तो क्यों जाएँ? किसी का हक तो मारा
नहीं! दादा तो इतने उदार थे कि उन्होंने एक गरीब ब्राह्मण परिवार को सोना उगलती
अपनी जमीन तक दान में दे दी थी! कि आप यहीं बस जाईए पंडी जी! एकदम पड़ोस में! आज
उनका पूरा कुनबा भी हमारी जड़ें कुतरने में लगा हुआ है!
पता नहीं कौन मजूर-मुनिश महाजन के सामने
बैठ तक नहीं पाता था? हमने तो जब देखा, तब यही देखा- अरे मुनिश कका आए
हैं! कुर्सी लाओ! पानी लाओ! चाय लाओ! जलखई लाओ! जब पुरोहित बबा आते थे, तब भी इतनी आवभगत नहीं होती थी!!
और, किसी ने किसी मजूरिन का शोषण किया हो, ऐसा एक भी किस्सा नहीं सुना मैंने आज तक! हाँ, एक
किस्सा सुनते थे कि मेरे पापा के बड़का बाबू के बड़का बेटा यानी पापा के चचेरे
बड़का भइया को एक मुनिश की स्त्री से प्रेम हो गया था तो उन्होंने उसको लगभग
वैधानिक पत्नी का दर्जा दे रखा था! वह घर आती थी तो उनकी अपनी पत्नी को भी उसकी
पूरी इज्जत करनी पड़ती थी! वरना वे बहुत नाराज़ हो जाते थे! किसी के किसी से
लटपटाने के किस्से सुनने में जरूर आते थे, लेकिन किसी को उठा
लिया, उठवा लिया, यह सब फिल्मों में ही
देखा! अपने गाँव-घर में कभी नहीं।
***
[2]
मेरे घर में मुनिश-मजूरनियों का आँगन तक
आना-जाना लगा रहता था। सालों भर। गाय-बैल चराने वाले बगालों का भी। उनके परिवार
वालों का भी। बंधईया धान-चावल के अलावा, दशहरा-दीवाली में सबको नया कपड़ा देना ही है। खुद के लिए
लो, न लो! ऊपर से आए दिन, कभी न लौटाया
जाने वाला पैंचा-उधार तो चलता ही रहता था। ऊपर से एक न एक बेला यह गुहार तो सुनाई
पड़ती ही थी- ए काकी, तनी अँचार दे दिह नै! आज कोन्हो तियन
नै बनाय पारलिअ। ए कका, आज कटि एक पैला दूध दियै दिह न,
कुटुम आल्ह छे! दिन-दोपहर तो और अंदर के गाँवों में जाने वाले
राहगीर घर के दुआरे पे एक तरफ लगी बड़ी-सी चौकी पर सुस्ताते ही थे, रात-बिरात भी उन्हें यहाँ ठौर मिलता था और रोटी-पानी भी। बरसात में तो
अकसरहां ऐसा होता था।
पापा-मम्मी जब तक गाँव में रहे, तब तक यह सिलसिला अबाध चलता ही रहा।
मम्मी शहराती थी। लेकिन वह भी गाँव में रच-बस गई थी। आम के सीजन में टोकरी भर-भर
के आम ले जाते थे सब। ऊपर से पेड़ों पर भर दिन ढेला मारना तो लगा ही रहता था! आम
के सीजन में मम्मी-पापा अपने घर भर के लिए तो अँचार बनाते ही थे। अलग से बहुत
बड़ी-सी हाँडी में आम का 'कुच्चा' लगता
था! पूछता था तो पापा-मम्मी हँस कर कहते थे- देखना न, साल भर
भी नहीं पूरेगा! एतना न सब माँगने आएगा!!
दशहरा-दीवाली में भी हाँडी भर-भर कर
ठेकुआ-निमकी, खुरमा-टिकरी
बनता था और संकरात तक बँटता रहता था। और संकरात में जो चूड़ा-मूढ़ी के लाई-लड्डू
बनते थे, वे होली तक बँटते रहते थे। अगोईयाबाँध का घर हो या
कड़रासाल का घर हो, हर दिन दरवाजे पर चार-पाँच लोग परमानेंट 'चाह' पीने वाले तो होते ही थे। 'आज कुछु जलखेए करा दे रे सुदरसनवा!' यह साधिकार कहने
वाले चार-पाँच लोग भी जरूर ही होते थे! मम्मी अनशा जाती थी। और अगर मैं दुमका से
वहाँ गया हुआ होता तो मैं भी! पापा बस 'अरे चुप करो-क्या हुआ'
कह कर हमें ही डपट दिया करते! शाम तक खबर आती थी कि इन्हीं लोगों
में से किसी ने हमारे खेत चरा दिए हैं! किसी ने हमारे बैल दूसरे गाँव डहरा दिए
हैं!
***
दादा के गुजर जाने के बाद पापा ने संभाला
कि बाप-दादा के खेत में पानी क्यों बहने दें! कुछ तो ऊपजा हो! चार मजूर के बराबर
खुद खटते! मुनिश-मजूर सूरज चढ़ने तक आते, लेकिन पापा मुँह-अँधेरे खेत पहुँच जाते! बरसात
में रेनकोट पहन कर और हाथ में लंबा टॉर्च लेकर रात में ही खेत निकल जाते कि मेड़
बाँध दें! सुबह रोपा हो जाएगा! अपने यौवन में सुकुमार रहे, कॉलेज
के दिनों में अपने घुंघराले बालों में ब्रॉयल क्रीम लगाने वाले और अपने नाम के
अनुरूप ही रंग-रूप में सुदर्शन रहे पिता अपने पिता के अरजे खेतों में सोना उगाने
की जिद में हर दिन निकल पड़ते थे! चार मजूरों से ज्यादा खुद खटते थे! कादो-कीचड़
में डूबे रहते थे और बिल्कुल साइंटिफिक ढंग से खेती-किसानी करने की कोशिश करते थे!
पापा कादो-कीचड़ से फारिग हो कर, जब कभी पैंट-शर्ट पहन कर, अच्छे से तैयार हो कर दुमका के लिए बस पकड़ने मेन रोड पर आते तो लोग दबी
जुबान में बतियाते- ई आदमी को देख के कोई पतियाएगा कि चार आदमी का काम असकरे कर
लेता है! खेतो जोत लेता है। भैंसों चरा लेता है! खासकर दूर-दराज और गाँव की औरतें
उन्हें अचरज भरी नज़रों से देखतीं। क्या पता, हसरत भरी नजरों
से भी देखती हों!
***
[3]
यों तो हमारे दादा के खानदान का खूब नाम
था। पिता चार भाई। चारों पढ़े-लिखे। वह भी 'साइंस' ले कर! एक भाई
इलेक्ट्रिकल इंजीनियर हुए। एक सरकारी नौकरी में गए। एक कारोबारी हुए। पर पिता कुछ
न हुए! इकलौती बहन बोकारो स्टील प्लांट के एक मेकैनिकल इंजीनियर से ब्याही गई। तब
के जमाने में किसी मध्यम वर्गीय परिवार के लिए यह सब बहुत बड़ी उपलब्धि थी! उनका
खानदान भी बड़ा नामी था। बसें चलती थीं उनकी। उनके और दो बेटे डॉक्टर थे। एक
इंडिया में, दूसरा इंग्लैंड में। दादी यह सब बहुत गुमान से
कहती। फिर कहती- का करल जाय! उहो सब के खेत में पानी बहऽऽ ता!
हाँ, लाख कोशिशों के बावजूद खेती बिखरती गई। पिता
पस्त होते गए। इतने पस्त होते गए कि अगोईयाबाँध छोड़कर दुमका आ गए। अगोईयाबाँध
वाला घर तो मिट्टी और खपरैल का था और सबसे बड़ा और सबसे पुराना था। खेती-बाड़ी,
खेत-खलिहान सब यहीं थे। पास के कड़रासाल में दो बड़े-बड़े पक्के
मकान थे। तब के मकानों में भी बालकनी बनी थी और लाल सीमेंट से पलस्तर कराया गया
था। दादा ने दोनों मकान बड़े शौक से बनवाये थे। दुमका वाला मकान तो दादा ने बस
अपने बेटों को शहर में पढ़ाने के लिए ही खरीदा था। रहना गाँव में ही था। इसलिए शहर
के इस मकान पर कभी ध्यान ही नहीं दिया! लेकिन पिता के छोटे भाइयों का यह शुरू से
ही आशियाना बन गया था। और बाद में हम भाई-बहन भी पढ़ाई के वास्ते यहीं रहने लगे
थे। पढ़ाई-लिखाई के बाद इस घर में दुबारा रहने आने वालों में पिता आखिरी थे!
पापा का मन तब भी नहीं माना तो दुमका से
आना-जाना करने लगे। कि अब भी खेती-बाड़ी बिखरे नहीं। बाप-दादा की जमीन बर्बाद होए
नहीं। पर खेती में जितना खर्चा ढुके, उहो निकलना मोसकिल! ऊपर से त मुनिश की खातिरदारी लगले है!
मुनिश का बेटा अब बंटईया लिया है। उसके लिए नया मोबाइल खरीदाया है! हर महीने
रिचार्ज भी पापा ही कराएँगे! नहीं तो किसी दिन कहेंगे कि हं रे नुनु, फोन करि के जनालें काहे नैय ई बतिया? तो वह तपाक से
कहेगा- बैलेंसे नैय छेलो!!
***
अब जब लाखों मजदूर अपने-अपने गाँव-घरों को
लौट रहे हैं। भूखे-प्यासे। पाँव-पैदल। हजारों हजार किलोमीटर चलते। पाँवों में छाले
लिए हुए। मन में घर पहुँचने की विकलता लिए हुए। अपनों से लिपट जाने की आकुलता लिए
हुए। कि शहरों में कोरोना से मरें, न मरें; भूख से तो जरूर मर जाएँगे! कि
मरदुआ ई शहर वालों से तो अब कौनो उम्मीद्दे बेकार है! तब क्या हम उम्मीद करें कि
अबकी फसल अच्छी होगी? मरघट बन गई खेती-बाड़ी फिर चमकेगी?
पिता का मन फिर हरसेगा? और, हमारी रूरल इकॉनमी फिर रिवाइव होगी? जीडीपी में
एग्रीकल्चर का शेयर बढ़े, न बढ़े; लोगों
की जिनगी में कृषि का माहत्तम फिर बढ़ेगा? अब कम से कम गाँव
में लोग भूक्खे नहीं मरेंगे??
दो-तीन दिन पहले पाठक से फोन पर बात हो
रही थी। मैंने बस ऐसे ही कह दिया- पाठक, अबकी खेती-बाड़ी फिर जोर पकड़ेगा! नहीं? पाठक ने हँसते हुए कहा- धुर्र! आप भी राहुल भइया! बच्चों जैसी बातें करते
हैं! अगर सब कुछ मोटामोटी तनिको ठीक हो गया तो देख लीजिएगा- अगले साल गौंवाँ में
एक्को ठो नहीं दिखेगा!!
***
मुंबई/13.05.2020]
संपर्क
J-2/406, रिज़र्व
बैंक अधिकारी आवास,
गोकुलधाम, गोरेगाँव (पूर्व),
मुंबई-400063.
मो.
9429608159,
सच बयान करती कहानी।
जवाब देंहटाएंPramod Sharma
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा है। हमारे मित्र भी आपके उधर के ही हैं। उनको पढ़ाया, बोले सही लिखा। दादा के रहते तक ठीक-ठाक रहा। अब सब खत्म।
Naresh Gulati
जवाब देंहटाएंआंचलिक लहजे में रची-बसी इस कृति में शहरी बाबू हो जाने के बावजूद आपकी अपने परिवार के ग्रामीण परिवेश की पूरी समझ दिखाई देती है। पिछले दशकों में तीन पीढ़ी के सामने बदलते-घटते यथार्थ की एक अलग तस्वीर भी दिखाई देती है। कृति को कुछ भी नाम दें, इसकी किस्सागोई बांधकर रखती है। तात्कालिक संदर्भों में समय को पकड़ने, बुनने और उघाड़ने की आपकी क्षमता को साधुवाद!
Bishwajit Raha
जवाब देंहटाएंअच्छा है। लेकिन यह आपके परिवार का बड़प्पन है कि आप मजदूरों को सम्मान देते थे और मजदूरों की अपनी सोच थी जो आपके परिवार के भलमनसाहत का फायदा उठाते थे। पर एक संदर्भ से पूरे परिदृश्य की सच्चाई झूठ में नहीं बदल सकती। मजदूरों का शोषण होता था और है। हमने मजदूरों के साथ बदतमीजी करने वाले लोग भी देखे हैं और इज्ज़त देनेवाले भी। पर इज्ज़त देनेवाले गिनती के लोग थे हैं जबकि दुत्कारनेवाले और शोषण करने वाले ज्यादा। बहरहाल कथा रिपोतार्ज की शैली आंचलिक है इसलिए पठनीय भी। धन्यवाद।
Pankaj Mitra
जवाब देंहटाएंकथा रिपोर्ताज में समूचे कालखंड की झलक भी है और कुछ ज्वलंत प्रश्न भी। बढ़िया लिखा है वैसे इलाके या गाँव विशेष में मजदूरों के संदर्भ में व्यवहार को जेनरलाइज नहीं किया जा सकता है।
Sudhir Dwivedi
जवाब देंहटाएंआपने कहानी लिखी है, या कहें सत्यकथा, जैसा आँखोँ देखा। फ़िल्म बनती है पटकथा पर, मनोरंजन परोसना होता है। आपकी यथावत कथा शैली जमीन से जुड़ाव के कारण है। अपने साथ पाठक को भी जोड़ लेती है ।
Braj Raj Narayan Saxena
जवाब देंहटाएंराजेश जी कहानी सी लगी नहीं यह। एक संस्मरण सी है जो चित्रवत मानसपटल पर अंकित होती गई। मेरे लिए कई जगह शब्दों के अर्थ लगाने कठिन हुए पर कथन की गति और कथा की सुगमता ने आगे पढ़ने से रूकने न दिया। फिलहाल इतना ही एक बार फिर पढूंगा।
सजीव लेखन के लिए बधाई।
Prabhat Milind
जवाब देंहटाएंरोचक रिपोतार्ज है. Pankaj
भाई से सहमति है कि ये निजी संस्मरण हैं. आपके पापा निश्चित रूप से बेहतर मनुष्य थे जो अपने मातहत काम करने वाले मज़दूरों को भी आदमी समझते थे, अन्यथा बहुत लाचारी की स्थिति में ही लोगबाग़ अपनी जड़ें और ज़मीन के सम्मोहन से निकलते है. रही बात शोषण की, तो जब इससे हमारा शहरों में अभिजात और कुलीन मध्यमवर्ग मुक्त नहीं हो पाया तो गांवों में रहने वाला सामंती तबका कैसे हो सकता है. यह आज के परिवेश में भी देश का एक ध्रुवसत्य है, और चाह कर इसे खारिज नहीं किया जा सकता.
Amit Raja
जवाब देंहटाएंवास्तविक चित्रण। सामंत, जमींदार वाली कहानियां और सामंती व्यवस्था के खिलाफ संघर्ष की बातें होती हैं, लेकिन दरअसल संघर्ष अब उन समस्याओं के खिलाफ होता है, जिसका आपने जिक्र किया है।
Padmakar Dwivedi
जवाब देंहटाएंग्रामीणों के नगरों में पलायन और तत्पश्चात मनरेगा के आने के बाद गाँवों का श्रम संतुलन तेज़ी से बिगड़ा। गाँवों में खेती पहले ही घाटे का सौदा थी । इन वजहों से रही -सही स्थिति भी डाँवाडोल हो गई। यह भी सही है कि गाँवों में सामाजिक संरचना के परिप्रेक्ष्य में दलितों और मजदूरों के शोषण को बहुधा बहुत बढ़ा चढ़ा कर पेश किया गया। फलत: एक सामाजिक विभाजन की भी स्थिति पनपी। आपने सारे पक्षों को समेटते हुए देश भाषा और शैली में एक अच्छी टीप की है। शुभकामनाएं आपको।
Kapildev Tripathi
जवाब देंहटाएं"बहुत अच्छा लिखा है भाई । अच्छा इसलिए भी कि इस यथार्थ को लिखने का कोई जोखम नहीं उठाता।साहित्य मे लम्बे समय तक प्रेमचंद द्वारा बनाई गयी गाँव की तसबीर ही दुहराई जाती रही।अब तो गाँव का जिक्र ही साहित्य से लगभग गायब हो गया है ।"
Hare Ram Pathak
जवाब देंहटाएंजी की टिप्पणी:
"बहुत बढ़िया लिखा आपने। बिलकुल यथार्थ चित्रण। संभव हो तो इसे एक उपन्यास का रूप दें।"
Sandeep Kumar Acharya
जवाब देंहटाएं"हर गाँव के किसान की व्यथाकथा और मजूरों की मनमर्ज़ी की घटना का यथार्थ चित्रण।
परदेस में ये मजूर हाड़तोड़ निरघिन काम बारह-चौदह घण्टे करेंगे, वह भी अपनी खुराक खाकर। परदेस में ठेकेदार के इशारे पर पत्नी-बच्चे समेत नाचते रहेंगे। गाँव में बटैया खेती और मजूरी करने के नाम पर इनकी इज्ज़त जाने लगती है, सो इनके ताव और भाव देखते बनते हैं।"
Anadi Sufi
जवाब देंहटाएं"हाँ, यह दोनो बातें कि गाँव में खेती-बाड़ी के लिए मज़दूर मिलने में दिक़्क़त होती है और ये भी कि श्रमिक आज-न-कल फिर शहरों-नगरों की तरफ़ अपनी हड्डियां गलाने पहुँचेंगे, सच है. किन्तु, इसके पीछे की वजह क्या है ? क्या सरकारों ने और समग्रता में हमारे समाज ने इसका ईमानदारी से संज्ञान लिया है ?
एक और बात कि गद्य भी आप अच्छा लिखते हैं।"
Ghanshyam Sharma
जवाब देंहटाएं"आपका गद्य बहुत रसयुक्त है। देसी भाषा पर आपकी पकड़ बहुत जमीनी है। बहुत सारा गद्य लिखिए।"
Sanjay Kumar
जवाब देंहटाएं"Bahut sundar!! Bilkul jharkhand ke apne gaon ke tasweer samne aa gaye.. Aap perception pe nahin gaye hai.. Bilkul jo kudh dekha aur samjha hai use sabdo main khubsurooti se piroya hai. I still remember those day when we used to sit discuss all these.. feeling overwhelmed.. keep up the great work..👏👏"
Vidyapati Jha
जवाब देंहटाएं"एकदम्में सही बात।ई पंजाब, दिल्ली,आसाम, बंगाल जाने वाला बात से यहाँ का खेती बहुत गड़बड़ाया।
लेकिन एक बात और यहाँ का खेती छोड़ ढेर लोग बंगाल चले जाते हैं।आप देखिए सीजन में शिवशक्ति बस भरले मिलेगा।
बढ़ियाँ।
हकीकत।"
Shailendra Sinha
जवाब देंहटाएंLabour ka meth bhi hota hai.laddakh or leh kargil me road dumka ka labour banata hai.rajesh aapne gramin scene bataya.thanks
Rajeev Nayan Tiwari
जवाब देंहटाएंकिसान मजदूर और खेती के यथार्थ का बहुत सुन्दर चित्रण। अद्भुत रचना।
ठाकुर साहब, चौधरी साहब, गाँव के दबंग, लाला जी,पंडित जी और जमींदारों का मजदूरों पर अत्याचार (हत्या,बलात्कार ) यह सब किताबों और भारतीय फिल्मों में ही देखने को मिलता है।
आप ने ऐसे ही साहित्यकारों व फिल्मकारों को जमीनी सच्चाई से अवगत कराने का प्रयास किया है।
हार्दिक अभिनन्दन।
Premshankar Shukla
जवाब देंहटाएंयह खेती कथा सही है। राहुल राजेश झूठ नहीं बोलते। आँखों देखा है यह राहुल का। राहुल तेजस्वी कवि के साथ गहरी निगाह रखने वाले निर्भीक लेखक हैं। जनपद की बोली का बहुत खूबसूरत इस्तेमाल राहुल ने किया है। सुन्दर और सही गद्य।